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________________ * पंच परमेष्ठि-वन्दना xx ( मंगलाचरण ) अरिहन्त प्रभु तुझ चरणों में, ये जीवन मेरा अर्पित है । हे प्रातम-रिपु-विजय भगवन्, तुमको सर्वस्व समर्पित है ।। अरिहन्त ...... हे प्रष्ट करम-मारक सिद्धा, हे चिदानन्द ! हे शिवधामी । हे अव्याबाध, अनादि सादि, हे नमो-नमो अन्तर्यामी ॥ अरिहन्त ...... छत्तीस गुणों से युक्त हुए, प्राचार्यदेव जग हितकारी । शासन - पति के प्राज्ञापालक, हे नमो-नमो हे गरणधारी ॥ अरिहन्त ...... हे तप-रत द्वादश अंगध्यायी, उपदेशक उत्तम पदधारी । हे उपाध्याय ! भगवन्त नमो, हे सुखकारी ! हे सुविचारी !! अरिहन्त .... ममता-मारक, समताघारी, समिति, गुप्ति, संयम पाले । ऐसे साधु भगवन्त नमो, जो दोष बयालीस को टाले || अरिहन्त ..... ये पंच परमेष्ठी भव- तारक, इनकी महिमा का पार नहीं । ये 'नैन' निरन्तर जाप जपे, बिन जाप किये उद्धार नहीं । अरिहन्त .... फ
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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