SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६१ ) * योगमुद्रा-दो हाथ जोड़कर दोनों हाथों की कोहनी अपने पेट पर रखें तथा जुड़े हुए दोनों हाथों को अंगुलियाँ एक दूसरे में क्रमशः गुँथी हुई हों, एवं अपनी हथेली का आकार भी कोश के डोडे की माफिक अर्थात् अविकसित कमल की तरह करे तो वह 'योगमुद्रा' कही जाती है । जिनेश्वर भगवन्त की स्तुति, स्तवन, चैत्यवन्दन तथा इरियावहियं - रणमुत्थुणं - अरिहंत चेइप्राणं इत्यादि सूत्र इस योगमुद्रा में बोले जाते हैं । सूत्र, स्तुति और स्तवन इत्यादि बोलते समय अपना बायाँ घुटना ऊपर, दायाँ घुटना नीचे और दोनों हाथों की कोहनी पेट पर रखकर अपने दोनों हाथ इस प्रकार जोड़ने चाहिए कि एक अंगुली का सहारा रहे । * मुक्ताशुक्ति मुद्रा - मुक्ता यानी मोती, शुक्ति यानी उसका उत्पत्तिस्थान रूप सीप | उसके आकार वाली मुद्रा, वह 'मुक्ताशुक्तिमुद्रा' कही जाती है । इस मुद्रा में दोनों हथेलियों को सम यानी अगुलियों को परस्पर अन्तरित किये बिना रखना होता है । अर्थात् दोनों हथेलियाँ इस तरह मिलें कि भीतर से पोलापन रहे और बाहर कछुए की पीठ की तरह उठी रहे । दोनों
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy