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________________ ( ६ ) वहाँ जाकर प्रार्थना इत्यादि करने की प्रवृत्ति भी मुख्यत: भक्तियोग को सूचित करती है। अन्य सर्व दर्शनों की भाँति श्री जैनदर्शन में भी भक्तियोग का अत्यन्त महत्त्व है । , श्री जैनशासन में मनुष्य रूपे जन्म प्राप्त धर्मप्रेमी आत्मा को अहर्निश सामायिक प्रतिक्रमण, देवदर्शन-पूजन तथा व्रत नियमपालन इत्यादि सर्व आराधनाएँ अपनी शक्ति के अनुसार अवश्य करनी चाहिए । कदाचित् संयोगवशात् सामायिक, प्रतिक्रमण किंवा व्रतनियम की आराधना नहीं कर सके तो वह चला लेवे, किन्तु प्रभु दर्शन-पूजन और चैत्यवन्दन, प्रभुभक्ति हेतु आवश्यक कृत्य तो उस आत्मा को अवश्य ही करने चाहिए । भक्तियोग की प्राराधना से कोई भी आत्मा वंचित नहीं रहनी चाहिए । यही इस प्राराधना के पीछे मुख्य तात्पर्य है । जिनमन्दिर, जिनमूर्ति, जिनदर्शन-पूजन जिनवाणी, जिनस्तुति तथा स्तवनादि, संसाररूपी अरण्य वन जंगल में भूलेभटकते ऐसे जीवों- श्रात्मानों के लिए दिव्यमार्ग बताने वाले अद्वितीय जोड़ और अमोघ यन्त्र हैं । मोक्ष के शाश्वत सुख की प्राप्ति अर्थ अक्षय सुख के खजाना - भण्डार से भरपूर ऐसे अनंतज्ञान के स्वामी, अठारह दूषण से रहित तथा परमपद को प्राप्त किये विशुद्ध जीवों- श्रात्मानों की भक्ति-स्तुति इत्यादि, ये ही उच्चकक्षा की स्तवना-भावना हैं ।
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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