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________________ ( ७ ) अन्तःकरण के एकतारे पर केवल निष्कामे की हुई प्रभुसेवा-भावना-स्तवनादिक ही आत्मा को अविचल शाश्वत सुख का सच्चा अधिकारी बनाती है। निर्मल-विशुद्ध मन से तथा प्रभुभक्ति की तान से एवं सही आत्मा के रंग से वीतराग-देवाधिदेव-जिनेश्वर भगवान प्रति सद्भावना की तरणी संसार सागर से पार उतारने में अलौकिक अनुपम आधारभूत है। विशुद्ध भावना के तार द्वारा प्रभुभक्ति में मग्न-लयलीन बनकर आत्मा उत्तरोत्तर शाश्वत दिव्य सुख का भोक्ता होता है। संसार में जन्म-मरण के परिभ्रमण से सर्वथा विमुख होता है एवं मोक्ष में सादि अनन्त स्थिति में सदाकाल महालता है। प्रस्तुत 'श्री जिनमन्दिरादि-लेखसंग्रह' प्रभु गुण रूपी अमृतमय स्रोत वाचक वर्ग के अन्तर पट में निरन्तर सदाकाल अस्खलितपने प्रवाहित हो, यही प्रात्मा की अभ्यर्थना। श्री वीर सं. २५२२ । लेखक विक्रम सं. २०५२ । प्राचार्य विजय सुशील सूरि स्थल भाद्रपद शुक्ला-१४, गुरुवार | श्री जैन धार्मिक क्रिया भवन दिनांक २६-६-६६ । खिमाड़ा (राजस्थान) 000
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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