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का पाराधन यही धर्म है और प्राज्ञा का पाराधन यही तप है।
जहाँ-जहां भक्ति द्वारा भक्तों ने प्रभु के प्रति प्रीति जोड़ी है, प्रेम-स्नेह रखा है वहाँ-वहाँ उन्होंने परम दर्शन प्राप्त किये हैं जैसे
(१) प्रभु श्री महावीर और चन्दनबाला का प्रसंगअट्ठम के तप वाली चन्दनबाला पैरों में बेड़ियाँ, एक पांव देहरी के बाहर और एक पाँव भीतर, हाथ में सूपड़ा और उसके कोने में उड़द के बाकुले तथा मुण्डित मस्तक । ऐसी विषम परिस्थिति में भी चन्दनबाला मूला सेठाणी को दोष नहीं देती हुई प्रभु का स्मरण कर रही है। उसी समय पांच मास और पच्चीस दिन के उपवासी तथा अभिग्रहधारी प्रभु महावीर वहाँ पधारे और अपूर्णता देखकर वापिस जाने लगे। फिर चन्दनबाला के नेत्रों में से गिरते हुए अश्रुबिन्दु देखकर और अपना अभिग्रह पूर्ण होते देखकर पुनः पधारे। उड़द के बाकुला वहोर चन्दनबाला को कृतकृत्य कर दिया और धर्मतीर्थ की स्थापना के समय पर भी चन्दनबाला को मुख्य साध्वी पद पर स्थापित किया।