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________________ ( ४२ ) 'सिद्धाणं बुद्धाणं' सूत्र में तो यहाँ तक कहा है किइक्को वि नमुक्कारो, जिरणवर-वसहस्स, वद्धमाणस्स । संसार - सागरायो, तारेइ नरं व नारि वा ॥३॥ जिनेश्वरों में उत्तम ऐसे श्री वर्द्धमान स्वामी को यानी श्री महावीर प्रभु को किया हुआ एक भी नमस्कार पुरुष या नारी को संसार रूप सागर से तिरा देता है ॥ ३ ॥ अन्य धर्म में भी कहा है कि__ अश्वमेध यज्ञ करने से जितना फल मिलता है, उतना ही फल प्रभु को वन्दन-नमस्कार करने से भी मिलता (५) सेवन (सेवा)-नवधा भक्ति पैकी यह भक्ति का पाँचवाँ प्रकार है। प्रात्मा में दासत्वभाव आये बिना सेवा नहीं हो सकती। इसलिए साधक को वन्दननमस्कार द्वारा नम्र बनकर के ही प्रभु की सेवा करने के लिए सज्ज बनकर और जाग्रत होकर तैयार रहना चाहिए। प्रभु के चरणों की सेवा और प्रत्येक कार्य में प्रभु की आज्ञा का पालन अवश्य ही होना चाहिए ।
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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