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अर्थ-हे जिनेन्द्र देव ! आपके दर्शन से मेरा अज्ञानरूपी अन्धकार नष्ट हो गया, तथा ज्ञानरूपी प्रकाश हो गया है ।।४।। यतःअद्य मे क्षालितं गात्रं, नेत्रे च विमले कृते । स्नातोऽहं धर्मतीर्थेषु, जिनेन्द्र ! तव दर्शनात् ॥५॥
अर्थ-हे जिनेन्द्र प्रभो ! आपके दर्शन से मानो मैंने धर्मतीर्थ स्थान में स्नान किया है। जिससे मेरे नेत्र पवित्र हो गये हैं, तथा शरीर का मैल धुल गया है ।।५।।
इस तरह से जो भव्यात्मा अपनी चित्तप्रवृत्ति को एकाग्र करके दर्शन करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। उसकी आत्मा पवित्र बनती है और वह स्वर्गापवर्ग के सुख भी पाता है। इसलिए वीतराग जिनेश्वर भगवान के दर्शनादि अहर्निश अवश्य ही करने चाहिए।
उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि "जिनमूत्तिजिनप्रतिमा' आत्म-साधना के लिए असाधारण अचूक साधन है। इसके दर्शन, पूजन एवं भक्ति इत्यादि माहात्म्य के लिए श्री भक्तामर स्तोत्र और श्री कल्याण