SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १० ) अर्थ-देवों के भी जो देव हैं ऐसे देवाधिदेव [ जिनेश्वर भगवान ] के दर्शन पाप का नाश करने वाले हैं, स्वर्ग यानी देवलोक के सोपान हैं, तथा मोक्ष के साधन हैं ||१|| दर्शनेन जिनेन्द्राणां साधूनां वन्दनेन च । " न तिष्ठति चिरं पापं, छिद्रहस्ते यथोदकम् ।। २ ।। अर्थ - जिनेश्वरों के दर्शन से और गुरुत्रों के वन्दन से चिरकाल के पाप नष्ट हो जाते हैं । जैसे हाथ के छिद्र में जल - पानी नहीं ठहरता है, उसी तरह पाप भी नहीं । ठहरते हैं ||२|| पुन: श्रद्य मे सफलं जन्म, श्रद्य मे सफलं क्रिया । शुद्धाद् दिनोदये देव, जिनेन्द्र ! तव दर्शनात् ॥ ३ ॥ अर्थ- हे जिनेन्द्र भगवन् ! आपके दर्शन से मेरा जन्म सफल हो गया, मेरी क्रियाएँ सफल हो गईं, और हे देव ! श्राज शुद्ध दिन का उदय हुआ । अर्थात् पूर्णतया आज मेरा दिन कल्याणकारी उदय हुआ है ||३॥ पुनरपि - अद्य मिथ्यान्धकारश्च हतो ज्ञानदिवाकरः । उदेति स्म शरीरेऽस्मिन्, जिनेन्द्र ! तव दर्शनात् ॥ ४ ॥
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy