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________________ ( १२ ) मन्दिर स्तोत्रादिक में भक्ति-भावों का कितना सुन्दर वर्णन किया है ! जो भव्यात्मा-भव्यप्राणी जिनमूत्ति-जिनप्रतिमा की अनुपम भक्ति अर्थात् श्री तीर्थंकर भगवन्तों की अनुपम आराधना करता है, वह अवश्य ही मोक्ष-सुखों को प्राप्त कर सकता है। जिनमन्दिर में जब दर्शन-पूजन करने को जाते हैं तब जिनेश्वर भगवान की मूत्ति-प्रतिमा के सम्मुख ‘नमुत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं' इत्यादि कहकर तीर्थंकर भगवंतों की अनुपम भक्ति की जाती है। जैसे जिनेश्वर भगवान की अनानुपूर्वी के प्रकों पर से अङ्क १ से 'नमो अरिहंताणं' कहते हैं, अङ्क २ से 'नमो सिद्धाणं' कहते हैं, अङ्क ३ से 'नमो आयरियारणं' कहते हैं, अङ्क ४ से 'नमो उवज्झायारणं' कहते हैं, तथा अङ्क ५ से 'नमो लोए सव्वसाहूरणं' कहते हैं। इन सभी को नामोच्चारण युक्त नमस्कार करके पञ्च परमेष्ठी की अनुपम भक्ति और उपासनाआराधना की जाती है। कारण कि, यहाँ पर पञ्च परमेष्ठियों की अङ्कों के स्वरूप में स्थापना की गई है । वैसे ही इधर भी जिनमूत्ति-जिनप्रतिमा के रूप में साक्षात् जिनेश्वर भगवान की वीतराग परमात्मा की स्थापना करके श्री तीर्थंकर प्रभु की उपासना करते हैं।
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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