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________________ ( ७४ ) अपने पूज्य गुरुदेव दशपूर्वधर महर्षि आर्यसुहस्ति सूरीश्वरजी महाराज से धर्म पाया और उन्हीं के सदुपदेश से तथा अपनी माता की महत्त्वपूर्ण प्रेरणा से, सम्प्रति महाराजा ने अपने जीवन-काल में सम्यक्त्वयुक्त मूलबारह व्रत स्वीकारे। अपने राज्य में प्रमारिपटह बजवाये। सवा करोड़ नूतन जिनबिम्ब भराये, छत्तीस हजार नूतन जिनमन्दिर बनवाये और नवाणु हजार प्राचीन जिनमन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया। तदुपरान्त कुल एक लाख पच्चीस हजार सात सौ दानशालाएँ खोल कर दान का प्रवाह बहाया। ___अनार्य देश में भी उपदेशकों द्वारा जैनधर्म-जैनशासन की अनुपम प्रभावना कराकर डंका बजवाया। और जैनधर्म का विजय ध्वज लहराया। जगत् में आज भी सम्प्रति महाराजा के समय की उनकी ओर से भराई हुई जिनेश्वर भगवान की सैकड़ों भव्य मूत्तियाँ-जिनप्रतिमाएँ और मनोहर जिनमन्दिरजिनप्रासाद-जिनालय विद्यमान हैं। भव्य आत्माएँ भी भक्तिभाव से उनके दर्शन, वन्दन एवं पूजनादि करके अपने जीवन को सफल करते हैं; पुण्योपार्जन करते हैं और मुक्तिमार्ग के सन्मुख होते हैं ।
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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