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________________ ८४ ) इसके बाद धूप एवं दीपक द्वारा प्रभु की पूजा करें 1 चँवर भी दुलावें । प्रभुजी के समक्ष पाटे । स्वस्तिक - साथिया करें । पर चैत्यवन्दन करते समय पंचांग प्रणिपातपूर्वक यानी दोनों घुटनों, दोनों हाथों और मस्तक को जमीन पर छुप्राकर प्रणाम - नमस्कार करना । ( ४ ) पूजात्रिक - पूजा के दो भेद हैं । द्रव्यपूजा और भावपूजा । उनमें द्रव्यपूजा के दो भेद जानना । अंगपूजा और अग्रपूजा । * प्रभुजी की जल, चन्दन, पुष्प, वासक्षेप, ग्रांगी और विलेपन वगैरह से पूजा करना, वह 'अंगपूजा' है । * प्रभुजी के आगे धूप, दीप, अक्षत, फल और नैवेद्य आदि से पूजा करना वह 'अग्रपूजा' है । अंगपूजा और अग्रपूजा ये दोनों मिलकर प्रष्टप्रकारी पूजा होती है । * चैत्यवन्दन, स्तुति-स्तवन, गीत-गान, नृत्य-नाच, कीर्तन-भजन, चिन्तन - स्मरण और ध्यान इत्यादि से प्रभुजी की जो भावभक्ति की जावे, वह 'भावपूजा' है ।
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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