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( ८५ ) इस तरह अष्टप्रकारी जिनपूजा-स्नात्रपूजा इत्यादि पूर्ण होने के पश्चाद् भारती एवं मंगलदीप किया जाता है।
(५) अवस्था त्रिक-यानी प्रभु की तीन अवस्थाएँ । प्रभु की भिन्न-भिन्न अवस्था का चिन्तन पिण्डस्थ, पदस्थ
और रूपस्थ इन तीनों से करने का होता है। इस त्रिक द्वारा प्रभु के जन्म से लेकर मोक्ष-निर्वाण पर्यन्त की पाँच अवस्थाओं का चिन्तन किया जाता है। उनमें पिण्डस्थ के सम्बन्ध में प्रभु को तीन अवस्था का चिन्तन करना चाहिए। जन्मावस्था, राज्यावस्था और श्रमणावस्था का।
* जन्मावस्था-हे देवाधिदेव जिनेश्वर भगवन् ! आपका अन्तिमभव यानी मनुष्यभव तीर्थंकर स्वरूप में होता है। आपने तीर्थंकर के भव में जब जन्म पाया तब छप्पन दिग्कुमारिकाओं ने आकर तथा चौंसठ इन्द्रों ने भी आकर आपका जन्मकल्याणकरूप जन्मोत्सव मनाया। स्वर्णमय मेरुपर्वत पर जन्माभिषेक किया। आपके जन्म वक्त भी तीनों लोकों में दिव्य प्रकाश होता है, तथा सभी त्रस और स्थावर जीवों को क्षण भर सुख और आनंद की अनुभूति हो जाती है। यह कैसी आपकी अनुपम महिमा !