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________________ ( ८६ ) बाल्यावस्था में प्रापको सम्यग्मति-श्रुत-अवधिज्ञान होते हुए भी लेशमात्र उत्कर्ष या अभिमान-अहंकार आपने नहीं किया। धन्य है आपकी उत्तम लघुता और धन्य है आपका अनुपम गाम्भीर्य गुण । * राज्यावस्था-हे वीतराग जिनेश्वरदेव ! आपको महान् साम्राज्य मिला, वैभव-सम्पत्ति और परिवार मिले तो भो उनसे आप राग और द्वेष से रहित रहे, निलिप्त रहे, इतना ही नहीं किन्तु अनासक्त योगी महात्मा जैसे रहे। प्रभो ! धन्य है आपका उत्कृष्ट वैराग्य । * श्रमणावस्था-हे भवसिन्धु तारक परमात्मन् ! आपने प्राप्त किये हुए सांसारिक सारे वैभव को तृण यानी घास के समान त्याग कर प्रात्मकल्याण के लिए संयम स्वीकार कर अर्थात् साधु जीवन प्राप्त कर अनुकूल या प्रतिकूल अनेक उपद्रव-उपसर्ग एवं परीषह समता भाव से सहन किये। साथ में अतुल त्याग तथा कठोर तपश्चर्या करके भी आपने चार घनघाती कर्मों का सर्वथा घात यानी विनाश किया। प्रभो ! धन्य है आपकी अनुपम साधना और धन्य है आपका महान् पराक्रम । * पदस्थावस्था-पदस्थ अवस्था यानी तीर्थंकर पद भोगने की अवस्था कहो जाती है ।
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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