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________________ उसकी भावना इस तरह भावे कि हे तरनतारन तोर्थंकर परमात्मन् ! आपने तीर्थंकर पद प्राप्त कर इस संसार के जीवों पर अनंत उपकार किया है। चौंतीस अतिशय से समलंकृत अरिहन्त-तीर्थंकर भगवन्त बनकर वारणो के पैंतोस गुणों से परिपूर्ण होकर तत्त्व मार्ग-सिद्धान्त को धर्मदेशनारूप पीयूष-अमृत का अनुपम पान कराया है। तीर्थ, चतुर्विध संघ एवं शासन को सर्वोत्कृष्ट स्थापना की है। साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका इन चारों को धर्मतीर्थ के सभ्य बनाये हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यगचारित्र रूप त्रिवेणी संगम द्वारा मोक्ष का मार्ग बताया है। अनेकान्तवाद-स्याद्वाद, सप्तभंगी, नयवाद, प्रमाण, निक्षेप तथा नवतत्त्व इत्यादि लोकोत्तर सिद्धान्त दिये हैं। दर्शन-वन्दन-पूजन-स्मरण-चिन्तन-मनन तथा ध्यान इत्यादि में भी प्रशस्त पालम्बन देकर जगत् की जनता पर महान् उपकार किया है। हे विश्ववन्ध-विश्वविभो ! अाप अशोकवृक्ष इत्यादि अष्ट प्रातिहार्यों से युक्त और इन्द्र महाराजाओं आदि से सेवित हैं। महाबुद्धि निधान श्रुतकेवली ऐसे गणधर भगवन्त भी आपकी अनुपम सेवा करते हैं। आपकी वाणी पैंतीस गुणों से समलंकृत है ।
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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