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________________ ( ८८ ) कैसा है आपकी दिव्यवाणी का अद्वितीय प्रभाव ! आपके समवसरण में हिंसक प्राणी भी अपने जन्मजात वैरी के साथ मित्रभाव से बैठकर वाणी का श्रवण करते हैं। अहो ! आपके स्मरण, दर्शन, वन्दन, पूजन एवं ध्यान मात्र से भी भक्तजनों का दुःख दूर होता है, पाप का विनाश होता है, पुण्योपार्जन होता है तथा प्रान्ते संयम द्वारा सकलकर्म के क्षय के साथ मोक्ष का शाश्वत सुख भी मिलता है। आपका इस विश्व-संसार पर अनन्त उपकार है । इतने पर भी आपको बदले में कुछ भी नहीं चाहिए । कैसी है आपकी यह अकारणवत्सलता ! वात्सल्यभाव । घोर अपकारी-अपराधी ऐसे जीवों पर भी तारने का उत्तम उपकार किया है आपने । * रूपस्थावस्था-रूपस्थ अवस्था यानी शुद्ध स्वरूप अवस्था। हे वीतराग परमात्मन् ! आपने प्रष्ट कर्मों को सर्वथा निर्मूल कर अशरीरी, अरूपी, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं सिद्ध अवस्था प्राप्त करके अनंतज्ञानगुण, अनंतदर्शनगुण, अव्याबाधगुण, अनंतचारित्रगुण, अक्षयस्थितिगुण, अरूपोनिरंजनगुण, अगुरुलघुगुण एवं अनंतवीर्यगुण प्राप्त किया है।
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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