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________________ ( दह ) आप ईषद् प्राग्भार पृथ्वी - सिद्धशिला पर पर सादि अनंत स्थिति में विराजमान हो गये, जहाँ पर नित्य निष्कलंक, निर्विकार, निराकार स्थिति है । हे प्रभो ! जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, दारिद्रय इत्यादि सभी पीड़ाओं से सर्वथा श्राप मुक्त हो चुके हो । धन्य हो, धन्य हो, धन्य हो हे वीतरागी प्रभो ! 1 (६) दिशात्याग त्रिक- चैत्यवन्दन प्रारम्भ करने के पूर्व जिस दिशा में जिनेश्वरदेव बिराजमान हैं, उसके अतिरिक्त तीन दिशा दायीं, बायीं और पिछली इन तीन दिशाओं में देखने की क्रिया को बन्द करना; उसे ही दिशात्याग त्रिक कहते हैं । अर्थात् जब तक चैत्यवन्दन पूर्ण हो तब तक देवाधिदेव जिनेश्वर भगवान की मूर्ति के सामने ही देखना | (७) प्रमार्जना त्रिक- प्रमार्जना यानी उपयोगपूर्वक प्रभु का चैत्यवन्दन छोर अर्थात् किनारों से पूजना - प्रमार्जित करना । प्रमार्जित करना अर्थात् पूजना । प्रारम्भ करने के पूर्व दुपट्ट े के बैठने की जगह को मृदुता से उसे ही प्रमार्जना त्रिक कहते हैं ।
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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