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( ३३ ) रोम-रोम विकस्वर उल्लसित हो जाता है तथा उसका हृदय भी नृत्य-नाच करता है।
अध्यात्मयोगी श्री प्रानन्दघनजी महाराज ने भी प्रभु के साथ प्रीति जोड़कर के श्री ऋषभदेव भगवान के स्तवन में कहा है किऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो रे ,
__ और न चाहूँ रे कंत । रीझ्यो साहेब संग न परिहरे रे,
भांगे सादि अनन्त ।
न्यायविशारद, न्यायाचार्य, महामहोपाध्याय श्री यशोविजय जी महाराज ने तो अपने बनाये हुए प्रभु के स्तवन में भक्ति के आगे मुक्ति को भी गौरण कर दिया है। देखियेमुक्ति थी अधिक तुज भक्ति मुज मन वसी,
जेह सबल प्रतिबन्ध लाग्यो । चमक पाषाण जिम लोहने खेंचशे,
मुक्ति ने सहज तुज भक्ति राखो।। भक्ति ज्ञान का हेतु है और ज्ञान मोक्ष का हेतु है । अर्थात्-भक्ति के बल से ज्ञान निर्मल होता है और निर्मल