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________________ ( ३४ ) ज्ञान मुक्ति का हेतु बनता है । भक्त शब्द भज् धातु से बनता है । उसका अर्थ भजन करना होता है । भक्त भगवान के चररण-कमलों में अपना सर्वस्व समर्पण कर देता है यानी भक्त, भक्ति और भगवान एक हो जाते हैं, तब 'पराभक्ति' प्रगटती है । कवि श्रीदेवचन्द्रजी महाराज ने श्रीवासुपूज्य भगवान के स्तवन में कहा है कि जिनवर पूजा रे ते निज पूजना रे, जिनपद निजपद एकता भेदभाव नहि कांइ । प्रभु के प्रति श्रद्धा एवं समर्पण भाव श्रात्मा को साक्षात् परमात्म पद प्राप्ति तक ले जाता है । * भक्ति के प्रकार प्रभु भक्ति के अनेक प्रकार हैं । जैनधर्म के शास्त्रों में की पूजा के पाँच प्रकार प्रतिपादित किये गये हैंपुष्पाद्यर्चा तदाज्ञा च तद् द्रव्यपरिरक्षणम् । उत्सवा तीर्थयात्रा च भक्तिः पञ्चविधा मता ॥ १ ॥ (२) प्रभु की आज्ञा (४) उत्सव - अर्थ - (१) चन्दन पुष्प पूजा, का पालन, (३) देवद्रव्य का रक्षण,
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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