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प्रशमरसनिमग्नं हष्टियुग्मं प्रसन्न । वदनकमलमङ्क - कामिनी- सङ्गशून्यम् ॥ करयुगमप्रियते शस्त्रसम्बन्धवन्धं । तदसि जगति देव वीतरागस्त्वमेवम् ॥१॥
अर्थ-जिनके दोनों नेत्र प्रशमरस से निमग्न हैं, मुखरूपी कमल प्रसन्न है, उत्संग स्त्री के संग से शून्य है, दोनों हाथ शास्त्र के सम्बन्ध से रहित हैं, ऐसे विश्व के देव वीतराग तुम ही हो। (१)
अपने आत्मिक विकास के लिए विश्वजीवों के अनन्त, उपकारी तथा निष्कारण विश्वबन्धु ऐसे जिनेश्वर भगवान तीर्थंकर परमात्मा की यथाशक्ति अनुपम सेवा-भक्ति करना, मेरा परम कर्तव्य है। प्रभु की प्रशान्त मुद्रा को देखकर मेरे शरीर की साढ़े तीन करोड़ रोमराजि विकस्वर हो जाती है, मेरा मन-मयूर नाच उठता है तथा अन्तःकरण में शुभ भावना उत्पन्न होती है ।
ऐसे देवाधिदेव वीतराग विभु जिनेश्वर देव की भव्य मूत्ति के मैं अहर्निश दर्शन एवं पूजनादिक करूं । तथा भवसिन्धु को पार कर मोक्ष के शाश्वत सुख को प्राप्त करूं, यही भावना है। न्यायाचार्य न्यायविशारद