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________________ [४] जिनपूजा Lowwwwwwwwwww पूर्वजन्म के पुण्य से, मिला जिनधर्म महान् । इस भव जिनेन्द्र पूजिए, परभव सुख महान् ॥ १॥ अनादि काल से इस संसार में परिभ्रमण करते हुए प्राणी ने पूर्व जन्म के प्रबल पुण्य से इस भव में मनुष्यजन्म पाया। पार्यक्षेत्र, उत्तम कुल, उत्तम जाति तथा सर्वोत्तम जैनधर्म भी साथ में मिला। जो आत्मा देवाधिदेव वीतराग श्री अरिहन्त भगवन्त की मूतिप्रतिमाओं को साक्षात् वीतराग श्री अरिहन्त स्वरूप समझ कर अर्थात् मानकर अपने अन्तःकरण में प्रभु के प्रति राग (स्नेह-प्रेम) रखकर विधियुक्त भक्तिभाव और बहुमानपूर्वक पूजता है, वह आत्मा परभव में सद्गति और उत्तम सुख को प्राप्त करता है। इतना ही नहीं किन्तु मोक्ष के शाश्वत अनन्त सुख को भी क्रमशः प्राप्त कर सकता है । अपने पूर्वजों द्वारा निर्मित ये सभी अद्भुत कारीगरी वाले विशालकाय जिनमन्दिर, जिनचैत्य अपन को और
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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