SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४५ ) प्रात्मा को निर्मल करने का साधक का लक्ष्य सुन्दर होना चाहिए। ध्येय दृष्टि समक्ष रखकर ही प्रभु का ध्यान करने का है। धार्मिक अनुष्ठानों को ध्यान के लिए आत्मलक्ष किये हों तो वे सहायकारी होते हैं, अन्यथा नहीं। साधक व्यक्ति ध्यान में निज देह को अपने से पृथक्भिन्न अनुभवता है। शुभध्यान से प्रात्मा में शान्ति होती है तथा अशुभ ध्यान से चिन्ता होती है। जब गृहस्थ साधक को शुभध्यान की उत्कृष्टता होती है तब कोई एकाध क्षण-पल ऐसी आ जाती है कि शुभ छूट जाता है और शुद्ध को स्पर्शी जाता है। उस समय अपूर्व अवर्णनीय आनन्द अनुभवता है । शुद्धोपयोगी संयमी मुनिराज को तो ऐसे अपूर्व अवर्णनीय आनन्द का अनुभव पुनःपुनः यानी बारंबार होता है, जिसको आत्मसाक्षात्कार कहने में आता है। (७) लघुता-नवधा भक्ति पैकी यह भक्ति का सातवाँ प्रकार है । लघुता यानी दोनता। अहंकार-ममत्व का घट जाना। जब किसी भी प्रकार की स्पृहा-इच्छा बिना प्रभु की शरण को स्वीकारता है तब परमात्मा उसे
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy