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________________ वासक्षेप पूजा करे, धूप-दीप आदि अग्रपूजा करे तथा चैत्यवन्दन आदि भावपूजा करे। अन्त में, नवकारसी आदि का पच्चक्खाण ग्रहण करे। (४) उसके पश्चात् जहाँ पर परम पूज्य आचार्य म. सा. आदि सुविहित गुरु भगवन्त बिराजमान हैं, ऐसे धर्मस्थानक उपाश्रय आदि में जाकर पूज्यपाद आचार्यादि गुरु भगवन्तों को विधिपूर्वक वन्दन करे, सुख-शाता आदि पूछे तथा नवकारसी आदि पच्चक्खाण करे । (५) उसके बाद यदि नवकारसी का ही पच्चक्खाण हो तो पच्चक्खाण का समय आते ही पच्चक्खाण पालकर के नवकारसी करे। बाद में व्याख्यान का समय आते ही उपाश्रय में जाकर पूज्य गुरु महाराज के मुख से जिनवाणी-व्याख्यान का श्रवण ध्यानपूर्वक एकाग्रतायुक्त करे। (६) उसके पश्चाद् घर पर आकर परिमित जल से स्नानादि करे। पूजा के योग्य वस्त्र धारण कर और जिनमन्दिर में जाकर प्रभुजी की अष्ट प्रकारी द्रव्य-पूजा करने के बाद चैत्यवन्दनादिक से भाव-पूजा करे । (७) प्रभु की पूजा करने के बाद यदि गुरु महाराज का योग हो तो सुपात्रदान करे। अन्यथा अपनी शक्ति ( १४२ )
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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