SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६३ ) देववन्दन करने से पहले इरियावहियं प्रतिक्रमाती है, वह भी लोगस्स कहने तक जिनमुद्रा में होता है । * प्रणिधान त्रिक- चैत्यवन्दन, मुनिवन्दन मन, प्रार्थना स्वरूप अथवा एकाग्रपना; यह प्रणिधानत्रिक कहा जाता है । और वचन तथा काया का (१) 'जावंति चेडयाई' सूत्र में तीन लोक में वर्त्तते हुए चैत्यों को नमस्कार होने से चैत्यवन्दन सूत्र कहा जाता है, 'जावंत के वि साहू' सूत्र में ढाई द्वीप में वर्त्तते समस्त साधुनों को नमस्कार होने से वे मुनिवन्दनसूत्र कहे जाते हैं । तथा 'जयवीयराय' सूत्र में भव से वैराग्य, मार्गानुसारिपना, इष्ट फल की सिद्धि, लोकविरुद्ध का त्याग, गुरुजन की पूजा, परोपकारकरण, सद्गुरु का योग और भवपर्यन्त सद्गुरु के वचन की सेवा और प्रभुचरणों की सेवा । ये नौ वस्तुएँ श्रीवीतराग प्रभु से याचना करने से यह 'प्रार्थना सूत्र' गिना जाता है । यह तीसरा प्रणिधान चैत्यवन्दना के अन्त में अवश्य करना चाहिए | इस तरह दस त्रिक का संक्षिप्त वर्णन जानना ।
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy