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________________ कालिक कसाई का मन का भाव वैसा ही था, जैसा कि असली साक्षात् पाँचसौ पाड़ों को मारने के वक्त अर्थात् हिंसा करने के समय रहा करता था। वीतराग जिनेश्वर भगवान की प्राणप्रतिष्ठित भव्य मूत्ति को भावावेश से साक्षात् वीतराग भगवान समझकर दर्शन-वन्दन एवं पूजनादि करने में कोई दोष नहीं लगता । किन्तु कर्म की निर्जरा होती है और पुण्य का बन्ध पड़ता है। कालान्तरे मोक्ष के शाश्वत सुख की प्राप्ति भी अवश्य होती है। यदि श्रद्धा और भक्ति से भगवान की मूत्ति का दर्शन-वन्दन एवं पूजा-पूजन आदि किया जायेगा तो अवश्यमेव अपना अभीष्ट सिद्ध होकर ही रहेगा। यह निश्चित ही समझना। इसमें शंका या सन्देह रखने की जरूरत नहीं । (३) श्रमण भगवान महावीर परमात्मा के समय में अनार्यदेश में राजकुल में उत्पन्न हुए प्रार्द्रकुमार के पास, श्रेणिक महाराजा के पुत्र अभयकुमार मन्त्री की भेजी हुई जिनेश्वर भगवान की मूत्ति जब आई तब उसे देखने से उसके अज्ञान का परदा हट गया और उसका मानस विचार-तरङ्गों पर लहराने लगा। यही निमित्त पाकर आर्द्रकुमार आर्य देश में पाया। उसने संयम धारण 5 किया और आखिर मूर्तिदर्शन मोक्षसुख का कारण बना।
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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