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________________ ( ५५ ) पूजाएँ आदि रूप अपने समक्ष उनका उत्तम आदर्श-दृश्य तथा उनकी प्रत्युत्तम सेवा-भक्ति प्रकट करने के लिए साधन रूप में विद्यमान हैं। जैसे प्रभु के जन्म के अवसर पर शकेन्द्रादि चौंसठ इन्द्रों के साथ देव स्वर्णमय मेरुपर्वत पर स्नात्र महोत्सव करते हैं उसी के अनुकरण स्वरूप अपने को भी प्रभु का स्नात्रमहोत्सव विधिपूर्वक प्रवश्यमेव पढ़ाना चाहिए। आगमशास्त्रों में भी प्रभु के 'स्नात्रमहोत्सव' का वर्णन आता है। इसलिए इस विषय में शंका करने को या रखने की आवश्यकता नहीं है। श्रीतीर्थंकर परमात्मा-जिनेश्वर भगवान स्वयं पवित्र हैं। सर्व पवित्र संयोगों की छाया द्वारा प्रतिष्ठा के विधान से संस्कारित प्रभु की मूत्ति-प्रतिमा भी पवित्र ही है। इसलिए प्रभु मूति प्रतिमा का स्नात्र जल भी पवित्र और सर्वत्र शान्तिकारक है । नवाङ्गी टीकाकार महर्षि पूज्याचार्यदेव श्रीमद् अभयदेव सूरीश्वरजी महाराज का कोढ़ का रोग भी श्रीस्तम्भनपार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा के स्नात्रजल के छिड़कने से चला गया। ऐसे अनेक ज्वलन्त दृष्टान्त जैनशास्त्रों में विद्यमान हैं। प्रभु-भक्ति के अनेक प्रकारों में जन्मकल्याणक की भक्ति भी एक प्रकार है। इसलिए जिनेश्वर भगवान की देवों कृत स्नात्र महोत्सव की क्रिया की अवस्था के तादृश क्रियान्वयन
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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