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( ५६ ). स्वरूप बाह्य साधनों द्वारा और अपने मन से भक्ति भाव से, पूर्ण उल्लास से, सद्रव्यों से, मधुर राग-रागिनी से तथा वृद्धिकारक उत्तम वातावरण से प्रभु का विधिपूर्वक स्नात्र पढ़ाने से सम्यक्त्व-समकित की निर्मलता होती है, प्रात्मा की पवित्रता बढ़ती है, अमंगल दूर होता है, धार्मिक जीवन में सद्प्रेरणा मिलती है, अशुभकर्म की निर्जरा होती है तथा शुभकर्म का बन्ध पड़ता है एवं देवतत्त्व की अनुपम आराधना होती है ।
इससे अनन्त उपकारी प्रभु के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित होती है और अन्त में अपनी आत्मा भी परमात्म स्वरूप प्राप्त करती है। हमने अपने महान्-प्रबल पुण्योदय से जैनधर्म-जैनशासन पाया है। अतः भवसिन्धु तेरकर मुक्तिधाम को पहुँचना है। उनके प्रशस्त पालम्बन अाज जिनमूर्ति और जिनागम हैं। उनका पालम्बन लेकर हमें संसार-सागर तरना है और मोक्ष के शाश्वत सुख को पाना है। इसके अलावा किसी प्रकार की, कोई भी अभिलाषा-इच्छा हमारे दिल में नहीं है।
जैनशासन को प्राप्त जीवों को - आत्माओं को जिनमत्ति-प्रतिमा से सांसारिक-भौतिक द्रव्यों की प्राप्ति करने की नहीं है, किन्तु जिनेश्वर भगवान की मूत्ति को