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________________ ( १३६ ) [७] प्रभु की मूत्ति भव्यात्मा के भवभ्रमण को सदन्तर बन्द कराती है। [८] प्रभु की मूत्ति भव्यात्मा के प्रभ्यन्तर शत्रु अष्टकर्मों के सदन्तर विध्वंस-विनाश करती है । [६] प्रभु की मूत्ति-प्रात्मा के दान, शील, तप और शुभ भावना आदि में अहर्निश अभिवृद्धि कराती है । [ १० ] प्रभु की मूति-प्रात्मा के अहिंसक बनाती है, तथा वीतराग प्रभु की मूत्ति वीतराग बनाती है। इसलिए हे मानव ! तू पूर्णता का उपासक है। पूर्ण बनने के लिए तो पूर्णता का अनुपम प्रादर्श, पूर्ण करने वाली सारे विश्वभर में श्री वीतराग विभु की जिनेश्वर भगवान की प्राणप्रतिष्ठा [अंजनशलाका] की हुई एक ही अलौकिक-अद्वितीय-अद्भुत-अनुपम भव्य मूर्ति है। उसकी
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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