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________________ ( ६० ) इसीलिए तो आगमशास्त्र श्रीदशवकालिक सूत्र में कहा है कि-'चित्तभित्ति न निझाए, नारिं वा सु-अलंकिग्रं.' अर्थात्-'भीत-दीवार पर लगाये हुए या आलेखन किये हुए स्त्रियों के चित्र भी श्रमण-साधुओं को नहीं देखने चाहिए। क्योंकि अपनी मानसिक वृत्तियाँ विकृत यानी विकारयुक्त होकर शीलव्रत से यानी ब्रह्मचर्य से अपन को च्युत कर देती हैं।' जब सिनेमा आदि के चित्रों को देखकर या यों ही सुन्दरी स्त्रियों के चित्र देखकर उनके अवलोकन द्वारा ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट होने की सम्भावना रहती है, तब वीतराग श्री जिनेश्वर भगवान की भव्य मूत्ति को देखकर उनके दर्शन, वन्दन, नमन और अर्चन-पूजनादि करके अपनी आत्मा को पवित्र बनाने की और स्वयं वीतराग भगवान बनने की भावना अवश्यमेव होती है। इसलिए साक्षात् श्री जिनेश्वर भगवान के अभाव में उनकी विधिविधानपूर्वक प्राण प्रतिष्ठित की हुई भव्य मूत्ति प्रहनिश दर्शनीय, वन्दनीय एवं पूजनीय है । मूत्ति द्वारा ही आत्मिक विकास-उन्नति के सम्बन्ध में भूतकाल के भी अनेक उदाहरण विद्यमान हैं।
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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