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________________ (१) इस अवसर्पिणी काल में जैनों के श्रीऋषभदेवादि चौबीस तीर्थंकर भगवन्त हुए हैं। उनमें उन्नीसवें तीर्थंकर श्रीमल्लिनाथ भगवन्त हुए। उन्होंने अपने अन्तिम भव मल्लिराजकुमारी के भव में संसारी अवस्था में अपने पूर्व भवों के छह मित्रों से अपने स्नेह-प्रेम को दूर करने के लिए अपनी एक सोने की सुन्दर मूत्ति बनवाई। प्रतिदिन उस मूत्ति के उदर गर्भ में एक-एक ग्रास भोजन डालने लगी। भीतर में रहा हुआ भोजन सड़ जाने के कारण जीवों की उत्पत्ति होने लगी और मूत्ति का मुख ढक्कन खोल देने पर अति दुर्गन्ध पाने लगी। इधर मल्लिराजकुमारी के साथ विवाह करने के लिए छहों राजकुमार पाये। उस समय मल्लिराजकुमारी ने छहों राजकुमारों को लग्न-विवाह मण्डप में बुलाया। और जहाँ पर अपनी सोने की मूर्ति थी वहाँ पर जाकर उस मूत्ति के मुख ढक्कन को खोलकर पास में ही वह स्वयं खड़ी हो गई। लग्न मण्डप में विवाह करने के लिए आये हुए छहों राजकुमार पाती हुई अति दुर्गन्ध से बेहद घबराने लने। उस वक्त मल्लिराजकुमारी ने कहा कि-हे राजकुमारो! सुन्दर दिखाई देने वाली इस सोने की मूत्ति में मैं कुछ दिनों से प्रतिदिन एक-एक ग्रास भोजन डालती रही हूँ जिसका
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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