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________________ ( ३७ ) से श्रानंद की उर्मि और प्रभु के प्रति भक्ति का प्रादुर्भाव अवश्य ही होता है । महामहोपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराज श्रीमहावीर भगवान के स्तवन में कहते हैं कि गिरुग्रा रे गुरण तुम तणा, श्रीवर्द्धमान जिनराया रे ; । सुरगतां श्रवणे अमी भरे, मारी निर्मल थाये काया रे ॥ श्रीवर्द्धमान जिनेश्वर भगवान के गुरण श्रवरण के अमीभरण से मेरी काया निर्मल हो जाती है । जिस तरह शरीर को टिकाने के लिए और स्वस्थ रखने के लिए खान-पान यानी भोजन-प्रौषधादिक की आवश्यकता है, उसी तरह आत्मा की उज्ज्वलता को टिकाने के लिए धर्मदेशना धर्मोपदेश श्रवण करने की प्रति आवश्यकता है | जिस तरह वस्त्रों को शुद्ध-उज्ज्वल रखने के लिए पानी और साबुन आदि की आवश्यकता रहती है, उसी तरह अपनी आत्मा को शुद्ध-निर्मल करने के लिए सद्गुरु के सदुपदेश रूपी साबुन की और जिनवाणी रूपी जलपानी की अति आवश्यकता है । धर्मजीवों-धर्मात्मानों को अहर्निश सद्गुरुओं द्वारा जिनवाणी रूप धर्मदेशना का धर्मोपदेश का श्रवण श्रवश्य ही करना चाहिए ।
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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