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________________ ( १२६ ) जहाँ न जाता स्वर्ग से ही जीव, न जाता नर्क से भी जीव । फिर न जाता तिर्यंच से जीव, जाता मोक्षे मनुष्य जीव । मैं चाहूँ० ।। ५ ॥ जहां आत्मा अनन्तज्ञानवान् है तथा अनन्तदर्शनवान् । जहां प्रात्मा निराबाध सुखी है, और अनन्तचारित्रवान् । मैं चाहूँ० ॥ ६ ॥ जहां प्रात्मा अक्षयस्थितिवान् है, तथा नित्य अरूपीवान् । जहां प्रात्मा प्रगुरु-लघुवान् है, और अनन्त वीर्यवान् । ___ मैं चाहूँ० ॥ ७ ॥ जहां शक्ति भण्डार भरा है, सत् चिदानन्द स्वरूप । जगमग ज्योति सदा जगती है, दीसे यह त्रिलोक कूप । मैं चाहूँ० ॥ ८ ॥ इस मोक्षपुरी में वास मैं करूं, सुशील शिववधू वरूं। सादि अनन्त स्थिति महीं रहूँ, शाश्वत सुख में झूलू। मैं चाहूँ० ॥ ६ ॥
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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