Book Title: Ang 01 Ang 01 Acharang Sutra
Author(s): Ravjibhai Devraj
Publisher: Ravjibhai Devraj
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. - The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ACHARANGA SUTRA. (TEXT WITH GUJRATI TRANSLATION) Br PROFESSOR RAVJIBHAI DEVRAJ. Cutch-Koday. And JAIN SCHOLARS, Morvi-Kathiawar. Second Edition called COMMON 1000 copies RAJKOT. THE RAJKOT PRINTING PRESS 1906. (All rights reserved.) Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HIG BRam ad आचाराङ्क सूत्र (मूळ सहित भाषान्तर) AROGRA MP प्रयोजक अने प्रवर्तक. प्रोफेसर खजीभाइ देवराज. Hd KAP कच्छ कोडाय. तथा जैन स्कॉलर्स. मोरवीकाठियावाड. द्वितीयावृत्ति--प्रत १०००. 廷廷莲莲并莊莊注艾莊莊莊莊注其注狂狂狂狂莊莊花花菜芽莊莊莊莊花泛光汪汪汪 PARBARMERate68MLabels 2988 IMRANE राजकोट धी राजकोट प्रिन्टिग प्रेसमा येहेता मोहनलाल दामोदरे छाप्पुं. HARISRUBE 531816 संवत् १९६२. सने १९०६. UGC RKHEE EMPROV. 17 Earl 29HAST 2MBAESTHA Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्पण. आचार शास्त्रं सुविनिश्चितं यथा जगाद वीरो जगते हिताय यः तथैव किंचिद् गदतःसएव मे पुनातु धीमान् विनयापिता गिरः [येकाकार.] जे वीर जे रीते आ चोकसाइ भरेखें आचार शास्त्र जगत्-जनोना रुबरु तेमना कल्याण माटे बोल्या छे, तेज महा बुद्धिमान वीर तेज रीते कंइक बोलवा चहाता सेवकनी विनयपूर्वक तेमनी प्रत्ये अर्पण करवामां आवती वाणीने पवित्र करो. आ प्रमाणे. आचारांग सूत्रना टीकाकार शीळाचार्य घणा सादा पण हृदय भेदक शदोमां पोतानी तमाम कृतिने श्रीमान् वीर मसु प्रत्ये अर्पण करीने तेमनी साह्यता मानी छे, अने ते व्याजवीज छे, कारण के जे उतम चीज आपणने जेना पासेथी मळेली होय ते उत्तम चीज पाछी तेनेज अर्पण करवामां आवे तो तेथी आपण जाणे ऋण मुक्त थता होइए वेम आपणुं अंतःकरण कइक अपूर्व शांति मेळवीने प्रफुल्लित थाय छे. माटे अमे पण एज उत्तम पद्धति स्वीकारीने लेमनीज वाणीने गुर्जर भाषामा अनुवादित करवानो अमारो आ अल्प प्रयास विनय नन थइने तेज महात्मा श्रमण भमवान् श्री महावीर प्रभु प्रत्ये अपर्ण करीये छीये. (तथास्तु) to Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावना. नगरमा रहेला तयाम जीवो सुख पामो, तेयना' तमाम दुःख दरद दूर थाओ, अने तेओमां सत्य ज्ञाननो प्रकाश थाओ, ए अमारी पेहेली भावना छे. १ धर्म शास्त्र अने सायन्स [सिद्ध पदार्थ विज्ञान शास्त्र] नो ज्यां परस्पर विरोध पडतो होय, तेवा स्थळे धर्म शास्त्रोमां वपरायली गुप्त [सांकेतिक भाषा लक्षमा लइ तेना शम्यक् अर्थ करवा माटे खरेखरा बुद्धिमान् महा पुरुषो ऑ भूमंडळपर अवतरो, तेओ आंधळी श्रद्धाए न दोरातां खलं सत्य शोधीने सत्यनेज कायम राखवा दरेक धर्मशास्त्रनी गुप्त वाणीना ते ते देशकाळने अनुसरता घाटत अर्थ बतावीने जनमंडळमां व्यापी रहेला मिथ्यात्व [जुठ अने व्हेग] नुं उच्छेदन करो,-ए अयारी बीजी भावनाछे. धर्म विरोध दूर थाओ. सपळा धर्मोमां दयानो महिमा द्रढ मूळ थाओ, सधळा धर्मोमां सत्यनां मूळ शोधाओ, अने ए रीते सघळा धर्मो दया भने सत्यना मजबूत पायापर स्थापित थइ धक्यता कायम थाओ-ए अमारी त्रीर्जी भावना छे. जूदा जूदा धर्मानुयायिओमां अरसपरस देखातो धर्म द्वेष दूर थाओ, भ्राव भाष स्थापित थाओ, सलाह संप कायम रहो, अने दुर्गुणो दूर थइ सद्गुणोनो संचार थाओ-ए अमारी चोधी भावना छे. ४ दुनियाभरमा आलस्यनो नाश थाओ, उद्यमनी वृद्धि थाओ, विद्यानो विकाश थाओ, सत्यनो प्रकाश थाओ, अने ए रीते धर्मनो जय थाओ-ए अमारी पांचमी भावना छे. भविष्यनी प्रजा आपणा करतां आगळ वधो, आपणा करतां क्षु ज्ञान मेळबो, आपणा करतां वधु शोधन करो, किं बहुना, आपणा करतां वळ-बुद्धि, विद्या-कळा, विज्ञान-वैभव, सुख संपत्ति, रंग-रुप, हॉस-हिम्मत वगेरे तमाम रुडी वावतोमा आगळ आगळ वधीने आपणां करतां वधु आयुष्य भोगवो,अने आपणां मूकलां अधुरां कायो परिपूर्ण करो Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा आपणे स्वप्ने पण नहि नोयेली बजव शोधो करीने जगद-विख्यात थाओ ए अमारी छट्टी अथवा छेल्ली भावना छे. वीर! वीर! वीर! KXEENA CHARISEX -22 HTETFLAR y tha पर HDPHO Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ( द्वितियात्ति.) - - कोई किमती पुस्तकनी नवी आकृति प्रसिद्ध यायं ए एम यतावी भापछे के ते पुस्तक लोकोमा प्रिय थइ पडयुछे, चोतरफ ते उत्साहथी वंचायछे अने चोतरफथी तेनी सारी मांगणी थायछे. आज काल संख्या घंध नानां घोटां पुस्तको प्रसिद्ध थयां करेछे अने लागवगयी के अर्पण पत्रिकाना मानथी लोको तेनी नकलो खरीद पण करछे. आवा जमानामां धावा अमूल्य पुस्तको प्रचार करवायां ओछी मुश्केली नडती नथी. आ सूत्रनी प्रथमावृत्ति प्रसिद्ध थया पछी तुरतमांज तेनी नकलोनो उठात्र थइ गयो हतो भने चोतरफथी उपरी उपरी मांगणी चालु रही इती प्रथमावृत्तिना टाइप नाना होबाथी तेमज भाषान्तर गुजराती अक्षरमां छपायेल होवाथी, घणा लोको तेनो लाभ लइ शकता नही. माळवा, मेवाड, पारवाड, दक्षिण, मध्य हिंदुस्तान, पंजाब अने सर्व देशोना लोको तेनो लाभ लइ शके माटे मूल पाठ मोटा अक्षर अने भापान्तर पण मोटा नागरी अक्षरमां प्रसिद्ध करेलछे. जैन धर्मर्नु खलं जीवन सर्वत्र प्रणीत सूत्रोछे. जैन धर्मनुं मंडाण पवित्र सूत्रो परजछे. जैन धर्मनी इमारत सूत्रोरुपी पाया उपरज रचायेली छे. जैन धर्मनां नीतिभय फरमानो उंटा रहस्यो भने सुक्ष्म तत्वज्ञानो जाणवानों मुख्य साधन पवित्र सूत्रो परजछे। जैन तरीके जीवन गाळवा माटे सूत्राए किमती कायदाओछे. जे महाप्रभुना एक अक्षर मात्रयी अनेक अमूल्य शिक्षाओना प्रवाह छूटछे, तेवी शीलामणोना भंडाररूप अने संग्रहरूप सूत्रोजछे. तेना दरेके दरेक वाक्य, दरेके दरेक शब्द, अने दरेके दरेक अक्षर ज्ञानामृनथी भरपूरछे. विस्मरण शक्तितुं साम्राज्य स्थपाता, भिन्न भिन्न मगजवाला समर्थ विद्यानोए एकत्र मळी जे पवित्र वाणीनुं गुंथन करेलछे, ते आपणी मजामां छूटे हाथे पंचावानी जरुरछ. सूत्रोनी भाषा आपणामांनां घणाने अप्रचलीत Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] प्रस्तावना. होवायी, तेनो जोइये तेवो लाभ लेवातो नथी अने अमूल्य शीखामणोना । मंडारथी अज्ञान रहे, पडेछे. आ माटे आ पवित्र सूत्रोनां शुद्ध भाषान्तर आपणीज भाषामा करवाना जरुरीयात विष श्री श्वेतांवर कोन्फरन्स अने विद्वान् श्रावको ठराव करीनेज वेसी न रहेता, तेनो अमल तुरतमा थयेलो जोवा इच्छेछे. पण सूत्रोना भाषान्तरथी श्रावक वर्ग माहितगार थाय ए केटलाकने भयरुप लागेलं होवाथी; तेवां भाषान्तरो प्रसिद्ध थां भटकाववा कोशेश ययेलीछे, छतां हालनो जमानो आवी अविचारी अडचणो तरफ अलक्ष करवानी जरूरीयात स्वीकारेछे. आ पुरतक तेदा प्रयासर्नु एक प्रतिफळछे. महा महेनते अने मोटा खर्च आवा भापान्तरो प्रसिद्ध करवानुं साहस, सुज्ञ श्रावकोनी सायतानी आशाएज भमे उठाव्युं छे अने लोको तेनी कदर करशेज. प्रथमावृत्तिमा रही गयेली भूलो आ आवृतिमा सुधारवामां आधीछे. शंकीत सूत्रोना अर्थ विद्वान् मुनीराजनी सलाह मुजव विस्तारथी समजा. ववामां आव्याछे अने वाळाववोधकारना आशय मुजवनी टीकाओ तेमज स्पष्टिकरण माटे फूटनोट वागेरे दाखल करवा खास काळजी राखी पुस्तकने धनी शके एटलं उपयोगी अने आकर्पणीय वनाघवा विद्वानानी सलाह मुनव वनतो प्रयास कर्योछे. ___ जोके आ पुस्तकने शुद्ध वनाववा बनतो श्रम कर्योछे. तोपण ज्ञाना वर्णीय कर्मना प्रावल्ययी ते निर्दोष होवू असंभवीतछे. आशाछे के सुदा वांचको तेमां रहेली भूलो माटे दरगुजर करी करवा योग्य सुधारा वधारा अमने सुचवशे तो उपकृत यइशं. प्रसिद्ध कर्ता. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. काळनी गहन गति छे, पूर्वे एक समय एवो पण इनो के जे वखते पुस्तक-पानानी जरा पण जरुर न पडती, स्मरण शक्तिनुज साम्राज्य हतुं, एक वखत श्रवण करेलु “पुनः पुनः" याद लावनारां मनुष्यो विशेष इतां. आवा सुवर्ण-युगने विष ज्ञानी पुरुषो विद्यमान हता, जे उच्च स्थिति संपादन करवायी सर्वत्र दिग्विजय मेळवता इतिहासनी तवारीख उपरथी जणाय के के एवा समयमां जैन मार्ग सर्वोत्तमताने शिखरे विराजतो हतो. नेम दिवसने विषे सूर्यना, अने रात्रिने विषे चंद्रना तेजी, सर्वत्र प्रकाश थइ रहेछे सेम चरम-छल्ला तीर्थंकर श्री महावीर प्रभुनी हैयाती वखते अज्ञामरुपी अंधकार दूर थइ सर्वत्र ज्ञानरुपी प्रकाश छवराइ गयो हतो. ते भगवंतना निर्वाण परी धीमे धीमे मनुष्योनी स्मरण शक्ति घटती गइ, वे एटले सुधी के पूर्वनुं ज्ञान जाळवी राखवा माटे पुस्तको लखाववानी जरुर पडी. आनुं परिणाम ए ययु के पुस्तको लखावायी मनुष्यो वेदरकार बनता गया अने तेओए स्मरण शक्तिने ते गावतमा श्रम आपवो बंध कयों जे वखते पुरतको लखायां ते वखत श्रमण भगवंत श्रीमहावीर प्रभुना निर्वाण पछीना केटला एक सैका पछीनो हतो. ___आ प्रमाणे स्मरण शक्तिनी न्यूनता-अने दिनप्रतिदिन हानी यती मोइ ते वखतना पुरूषो, जेना आपणे घणाज आभारी छीए, तेओए जे काइ जोयेलं, सांभळेलु, अनुभवेलु हतुं ते बधु पोतानी ज्ञान शक्ति अने स्मरण शक्ति अनुसार लखावतुं शरु कर्यु. (ते पुरूषोनुं ज्ञान आजना जमाना करतो घणुंज चढीआतुं हतुं ). हालनी पेठे कागळो वीगेरे ऊपर नहि, पण ताडपत्रोपर ते सूत्रो लखायां इता. ते उपकारी पुरूषोने एवी भीति लागी के जो आ प्रमाणे स्मरण शक्ति घटती जशे तो ज्ञाननो लय थवानो समय नजदीक आवशे. अमण भगवंत श्रीमहावीर स्वामीना निर्माण पछी ९८०-९९३ वर्ष एटले इस्त्रीसन ४५४-४६७ नी सालचा अरसामां आवे अणीने समये श्रीवल्लभीपुर नगरने विषे श्रमण भगवंत श्री देवदि Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४] प्रस्तावना. गणिनी देखरेख नीचे जैन संप्रदायना विहान् आचार्योए एकठा मळी जैन आगमा लखी लेवानो निश्चय कर्यो. मोटा मोदा श्रीमंतो ते समये जैन धर्मानुरागी होवाथी जैन आचार्यों पोतानी धारणायां फतेह पास्या अने पुष्कळ श्रम लइ पुस्तको लखी तेती जुदी जुदी मतो जुदा जुदा शहेरोना जैन भंडारोमा दाखल करावी. या सूत्रो निप्पक्षपाती विद्वानोनी कसायली कलमधी लखायेलांके एम पुरवार करदाने एटलुन बस यशे के आ सूत्रो विद्वान् पुरुषोना मंडळे एकठां मळीने एकत्र अभिप्रायथी लखावेलांछ जेथी कोइ पण मतमनांतर के कदाग्रहनो पक्ष तेमां होय ते धारचु भूल भरेलुछे. वळी आ सूत्रो लखवामां कोइ पण जातनी विषमता यातो (पाछळनी प्रजामां देखाती) स्वार्थ परायण द्रष्टि होवानुं कशुं पण कारण नहोतुं. जेथी आ सूत्रो निष्पक्षपात अलीथी लखायाँछे एम कबुल कर्या विना चालतुं नथी कारण के ते सर्व विद्वान आचार्योना मगजमा जे हकीकत खरेखरी याद आवी अने सर्व मान्य थइ तेज सूत्रोमां गुंथाइ हती. झानीना वाक्यो संक्षिप्तन होय छे-तेनां टुंफ शब्दोमा घणो भावार्थ समायेलो होय छे. आपणां आगमो वांचतां भावां वाक्यो स्थळे स्थळे नजरे पटछे. जेयी वांचक वर्ग पोतानी स्थूल वृद्धिने लइने रहस्य समजी न सके तो तेमां मूळ लेखकोने को दोष देवानो नथी, आवातनी सत्यताने खात्री एटला उपरथीज यशे के जैन आगमा लखाया पछी केटला एक विद्वानोए त उपर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, दीका वींगरे करेलांछे ते एवा हेतुथी के आजना दुर्लभ चोधी जीवने ते वाक्यो समजवां सुगम पडे. मूळ जैन भागमो ८४ इता तेमांयी भयंकर दुष्काळो तथा राज्प विप्लवोना समयमां, केटलांक, गाम, नगर, शेहेरा वीगेर उजह थइ नाश पाम्यां ते सार्थ आपणां घणां सूत्री पण लय पाम्यां तो पण मुभाग्ये हालमा तेमांना ३२ यी ४५ आगमो विद्यमान रह्यांछे. ___अर्वाचीन समयमा मागधी-प्राकृत अन संस्कृतनो अभ्यास घटतो गयो भने यी सूत्रोनी शैली समजनाराओनी खोट पडवा लागी. जो के मुद्रणकलानी सादनाथी सगवडता वधती गई परंतु दुर्भाग्य ते वांची Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. समजवानो लाभ लेनाराओनी खामीछे, सूत्रोनी शैली अने तेमा रहेला दिव्य रहस्य समजवा माटे प्राकृत अने संस्कृत ज्ञाननी मुख्य जरूरछे परंतु तेटलुं ज्ञान घरावनाग सुभाग्ये हाल एक हजार जैनमाथी एकाद मात्र मळे. आवी दयामणी स्थितिने लइने जैन फिलोसोफीर्नु उत्तम ज्ञान घटतुं गयुं अने हजु पण घटतुं जाय तेमां आश्चर्य थवा जेवू नथी. आवा पारीक समये सुभाग्ये माजी प्रॉफेसर मॅससुलरना शिष्यो मि. हरमन जेकोबी, डॉक्टर हॉर्नल, मि. ओल्डनबर्ग, मि. वेवर डॉ. ल्युमॅन विगेरे पाश्चिमात्य विद्वानो-जर्मन ओरीएन्टल स्कॉलरोए जैन फिलोसोफीन यहत्व समजवा माटे मथन करी केटलाक आगमोना भाषान्नर अंग्रेजी भाषामां प्रसिद्ध कर्या, जे जोतां तेओनी विद्वता एक भवाने कबुल राख्या विना चालतुं नथी. अर्वाचीन जमानाने जैन फिलोसोफी समजचानो मुख्य भाधार आ विदेशी विद्वानोना भाषान्तर उपरज छे, कारण के संस्कृत तेमन प्राक्रत भाषामा निपुणता धरावनाराओनी संख्या जुज मात्र-नजीवी सरखीछे. प्रचलित-देशी भाषानां सारां भाषान्तरना तेमज संस्कृत ज्ञानना अभावे पुर्वोक्त पुस्तको पांचरा, हालना केळवाएलो वर्ग दोराय अने ते उपरथी जैन फिलोसोफी माटे मत बांधवा प्रेराय ए कोइ पण रीते अनुचित नथी. हवे प्रश्न ए थायछे के ए जर्मन विद्वानोए जे पुस्तको प्रसिद्ध काँछे अने तेमां जे विचारो दर्शाव्याछे ते जैन आगमो अनुसार यथातथ्यछे के नहि ? आ हवे तपासवानुछे. इस्त्रीसन १८८४ नी सालमा ज्यारे मि. जेकोबीए आचारांग तथा कल्पसूत्रना भाषांतरो प्रसिद्ध कर्या, ते वखत जैन फिलोसोफी माटे समन जैन धर्मनी प्राचीनता माटेना तेना तथा वीजा विद्वानोना जे विचारो इता ते विचारो दश वर्ष पछी एटले इस्वीसन १८९५ नी सालमां ज्यारे श्री सूत्रकृतांग तथा उत्तराध्ययन सूत्रोना इंग्रेजी भापांतर प्रसिद्ध करवामां आव्या ते वखते घणाज बदलाएला जोवासां आवेछे प्रथम ओरीयेन्टल स्कॉलरो-ते विद्वानोनो पो आभिप्रायहतो के जैन ए चौद्धनी एक शारखाछे, अने चोदना मूळतत्वोनुं अनुकरण जैनोए करेल छ. हालना केळवणी खातामा जे इतिहासो चालेछे तेमां आज भावार्थशिक्षण अपातुं होवाची आपणा जैन वाळकोने पण तेवी भदा याय ए, Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] प्रस्तावना. संभविनछे. ते वाचत मि. जेकोबीए आचारांग मूत्रनी प्रस्तावनामा प्रथम लंबामथी विवेचन करेलु . आ विवेचन तेना पोताना वीजा पुस्तकनी प्रस्तावनाना प्रथम वाक्यचीज बदलायेलुं आपणी नजरे पडेछे के Ten years have elapsed since the first part of my translation of Jaina Sutras appeared. During that decennium many and very important additions to our knowledge of Jainisum and its history have been made by a small number of excellent scholars जैन सूत्रोनां मारां भाषान्तरना प्रथम भाग बहार पटयाने आने दस वर्ष ययाछे. जे अरसामां जैन फिलोसोफी तेमन इतिहास संबंधी योटाएक विद्वान् स्कोलरोनी सहायताथी अमारा ज्ञानमां धणो अगत्यनो बधारो थयो छे. ___अने अननी प्राचीनता संबंधे पण तेज विद्वान तेज प्रस्तावनामां लले छे के,-- It is now admitted by all that Nataputta (Gnatriputra), who is commonly called Mahavira or Vardhmana, was a contemporary of Budha; and that the Niganthas (Nirgranthas) now better known ander the name of Jains or Arhatas, already exhisted as an important sect at the time when the Buddhist church was being founded श्रमण भगवंत श्रीमहावीर प्रभुने नामे ओळखावा ज्ञातपुत्र-वर्धमान स्वामी जे वखने वुद्ध विचरता ते वखनेज तेना( contemporary ) प्रसिस्पर्धी तरीके विद्यमान इता अने जे वखते चौद्धधर्म इजी स्थापातो हतो ते वखते अर्थतना नामे ओळखाता निग्रंथो एक अगत्यना प्रसिद्ध-पंय नरीके क्यारनाए स्थापित थयेल मार्गमा विचरता इता एम हवे सर्व कोइ कवुल फरे. जैन धर्मनी प्राचीनता जैन पुस्तको उपरयीन तेमने सावीत यह नयी परंतु पौद्ध विगैर बीजा धर्मना पुस्तको उपरयी पण जैन धर्मनी प्राचीनतानी साबीती माटे ते विहान् कछ के I therefore look on this blunder of the Budhists as a proof for the correctness of the Jain tradition, that fol Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. lowers of Parsva actually existed at the time of Mahavira Before following up this line of inquiry I have to call attention to another significant blunder of the Budhists: they call Nataputta an Aggivesana i e Agnivaisyayana; according to the Jainas However he was a Kasyapa, and we may credit them in such particulars about their own Tirthankara But Sudharman his chief disciple, who in the Sutras is made the expounder of his creed. was an Agnivaisyayana, and as he played a prominent part in the propagations of the Jain religion, the disciple may often have been confounded by outsiders with the master, so that the Gotra of the former was erroneously assigned to the latter Thus by a double blunder the Budhists attach the existance of Mahavira's predecessor Parsva and of his chief disciple Sudharman. श्रमण भगवंत श्रीमहावीरना वखतमा श्री पार्श्वनाथनीना अनुयायी संतानिया चौकसपणे विचरता, ए जैनना इतिहासनी खरी सानीती होवाथी बुद्धिष्टलोकोनी आ-गंभीर-भूल (जैन ए बुद्धनी शाखाछे) नी मने खात्री थाय छे. आ बादतनी तपासनो निर्णय करतां पहेला बुदीष्ट लोकोनी वीजी देखीती-गंभीर मोटी भूल माटे वांचनारनुं ध्यान खेंचवानी जरुर पडे छे के, ओ-चौद्ध लोको ज्ञातपुत्र श्रीमहावीरने अग्नि वैश्यायन गोली कहे छे ज्यारे जैनो तेने काश्यप गोली कहेछे अने पोताना तीर्थकेरा प्रत्ये जैनोना आ मतने माटे अमे तेने व्याजवी-खरा मानीये छीए. परन्तु श्रीमहावीरना मुख्य शिष्य श्री सुधर्मास्वामी जे अग्नि वैश्यायन गोनी इता अने जेणे सूतोनां तत्वनो प्रकाश करेलो छ अंन जैन मार्गना प्रचार प्रयत्नमा जेणे मुख्य भाग लीघोडे, तेथी गुरू शिष्यनां गोतना अरसपरस वीजाओए गुंचवाडा करेलोछे तेथी करी श्री महावीर जे काष्यप गोत्री हता नेने अग्नि वैश्यायन गोत्री ठराव्या. बुधीष्ट लोकोनी आ वेवढी मोटी भुल छे के: १ श्रमण भगवंत महावीरस्वामी विचरता ते वखत अवीशमा प्रभु श्री पार्श्वनाथजीना अनुयायी-संतानीआ न हता ते अने. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २ श्रीमहावीरस्वामी काश्यप गोत्री इता तेमने अनिवैश्यायन गोली ठराव्या. ( एटले के पार्श्वनाथ प्रभुना संतानीआ विचरता (जे जननें प्राचीनपणुं साबीत करेछे ) अने श्रीमहावीरस्वामी अग्निवैश्यायन गोत्री नहि पण काश्यप गोबी हता अग्निवैश्यायन गोनी तो तेमना शिष्य सुधर्मास्वामी हता. आ सिवाय जैननी प्राचीनता संबंधे खास एक जुदुज पुस्तके नाम ( Mahavira, and his predecessors ) " महावीर अने तेना अग्रगामि " ए नायर्नु मि. जेकोबीए प्रसिद्ध करेलुंछे जेमां जैन मार्गनी प्राचीनता संबंध पुरावा सहीत आवेहुब वर्णन करेलुंछे ते सिवाय मि. लुइराइस, ढोकटर फयुर, मि. क्लोट, अने डोकटर चुलर जेवा विद्वानोए पण जैन-फिलोसोफीने मांटे षडुज उत्तम अभिप्राय दर्शावेल छे मात्र तओ आवी वाणीीज अटक्या नथी परंतु कर्तव्यमा आगळ वधी जैन-पुस्तको ना भाषान्तर प्रसिद्ध करता जायछे सूत्रोनी भापा तेओने विदेशी होवा उतां अथाग श्रम लइ तेनुं रहस्य समजवा माटे तेओ जे मधन करे छ ते आ देशना जैनोने शरममां नाखेछे अने जागृत यवाने आडकतरी रीते फटको मारे छे. होकटर होरनले उपासकदशांग सूत्रनुं जे भाषांतर प्रसिद्ध कयुके अने तेमा जे धोरण अंगिकार कर्युछे तेने दरेक भाषांतरकीए आजना जमाना माटे अनुसरवू ए उत्तयछे. जैन सूत्रोना भाषांतर करतां पाश्चिन मात्य विद्वानो व्याकरणना दोपो उपर खास ध्यान आपता जणायछे, आम थवाथी मूळ आशय हुटमा समजावामा कोइ प्रसंगे कदाच तेओ पछात रहेला जोवामां आवतो तेथी तेमनी विद्वता संबंधे कशी न्युनता मानवानी नयी कारण के अर्वाचीन समयमां जैनना सूत्रोनी जे हस्तलिखित प्रतोय तेमा लेखकना इस्त दोषधी अथवा तो परंपरायी काइक न्यूनाधिक लखा बाथी, शवदानी विभक्ति आधीपाछी यइ जंबाना दोपोलागवा संभवछे भने तेथी भाषांतरमा वखते फेर पढी जवा संभवछे. द्रष्टांत तरीके ढोलटर होनल पोताना उपासकदशांग सूत्रना भापांतरमा छत्रीसमे पाने तेमज में जगोए ते वाकय आवेळे वे जगोए "अहासूई देवाणुप्पिया मा पटी यचं करेह" ए, वायर्नु भापांतर एवी रीते करने के fay it to please Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , प्रस्तावना. [९] O! beloved of the Devas do not deny me, आ भाषांतर साध रण जैन वांचक वर्गने पण अमान्य थह पंडे; जो के डोक्टर हॉर्नल पोताना पुस्तकनी पाळनी Criticle notes -- पुरवणीमां, आ वाक्यना खरा अर्थ सबंधे संशयसां पडी जुदा जुदा जर्मन विद्वानांना अभिप्रायो तथा व्याकरणना पुरावाओ टांकेछे. डोक्टर ल्युमेन एज वाक्यनो अर्थ आ प्रमाणे करेले के:- Well then beloved of the Devas do not cause any obstruction आ वाक्यनो शुं खरो अर्थ होवो घटेछे तेना निर्णयपर आवा माटे नीचेनी हकीकत प्रासंगिक गणासे " जे add श्री गौतमस्वामी वाणिज्य गाम नामना नगरमा उच्च नीच ने मध्यम कुळने विषे गोचरी करवा माटे उत्सुक थया ते वखते तेणे उपला शब्दमां श्रमण भगवंत श्रीमहावीर पासे अरज करीछे. एम अंग्रेजी भापांतरनो भावार्थछे पण खरी रीते तो ते शब्दो श्रमण भगवंत श्री महावीर प्रभुना उतररूपेछ के:- 'जेम तमने सुख उपजे तेम करो विलंब करताना ' वळी डोकटर हॉर्नल ते पछीना ७८ माज वाक्यमां कबुल करेछे के श्री गौतम गणधर उपरना शब्द सांभळीने वाणिज्य गाम नगरमां गौचरी विगेरे कार्य माटे प्रवर्त्यछे. आ उपरथी वांचक वर्ग कबुल करशे के, डोकटर हॉर्नलनी ते वाक्यने प्रश्नरूपे गणवामां (जे वाजवी रीते उत्तररूपज छे) विभक्तिना दोपने लीधे भूल थइ जणायछे, आवीज शेते मी. जेकोबीने पण पोताना आचारांग सूत्रमां आपणी भाषा तेने विदेशी होवाथी विपरीत अर्थ थलो छे. आपणा सूत्रामां वनस्पति विगेरेना जे जे जुदा जुदा खास नामो आदेछे ते खास नामो विपेनी तेओनी ओछी माहेतीथी भाषांतरमां देखीता विपरीत अर्थ थवा पामे ए स्वाभाविकछे, जो के अमे आ तेनी विद्वत्तानी खामी बतावता नथी पण आपणी भाषाना शब्दोनो तेभोनो ओछो अनुभवज आनुं कारणभूतछे. - आ रीते आ आचारांग सूत्रना इंग्रेजी भाषांतरमां केटलीक जगोए तेवा विपरीत अर्थ थवा पाम्या होय तो ते पण उपरनाज कारणोने लड़नेज गणाय. आपणो जैन संप्रदाय आवा खास शब्दोना अर्थ अंग्रेज विद्यानोने जणाववा कोशीश करे तो तेओ पोताना भाषांतरोमां सुधारो करे अने जैन फिलॉसॉफिने ते वधारे देदीप्यमान करे. जैन धर्मनी नवळी Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. स्थिति आववानुं खास कारण मतभिन्नताछे. जैन वर्गना जुदा जुदा सप्रदायवालाओ पोतानी सत्यता सावीत करवाना प्रवाहमा तणाइ भइ जुदा जुदा शब्दोना अर्थ पोतानी मरजी मुजब करेछे, जेथी वेनी खरी खुवी अद्रश्य थायछे. जैन धर्मने उच्च स्थितिए लाववा एकत्र थइ ज्ञाननी वृदि करवानी बात तो एक वाजुए रही, पण आम शब्दार्थ फेरवी मांश माहे फ्लेश करी विवाद उपजावी जैनना कानुनोथी विपरीत वर्ती जैन नापने कलंकित करेछे. अर्वाचीन समयमां आवी स्थितिमां केळलायलो वर्ग कया फांटाना पुस्तको वांचवा तेना गुंचवाडामां पडेछे अने छाटे स्वधर्म नो त्याग करी परधर्म अंगीकार करेछे. आवी कटंगी स्थिति मत भिन्नताथी दिन परदिन वृद्धि पामेछे अने परिणामे दुनियापर दिग्विजय मेळवेल जैन धर्मनी पडतीमां वृद्धि करेछे. परंतु तेमां सुभाग्ये हालना विदेशी विद्वानोए-ओरीएन्टल स्कोलरोए-जैन फिलोसोफी प्रकाशमां लाववाने जे स्तुत्य प्रयास मांडयोछे ते जैन धर्मनी पुनःप्रतिष्ठा प्राप्त करवानी आशा ना किरणरुपछे. कारण के तेओनां भाषांतर कोइपण रीत पक्षपाती तेमज मतभिन्नताना पोषणरुप नथी. परंतु जो स्वदेशी विद्वानोए भाषी रीत भाषांतर कर्या होत तो नक्की तेओ शब्दार्य करवामां पोताना खास संप्रदाय तरफ दोराया होत. ज्ञानीनो मार्ग स्याद्वादळे तेथी तेमा मतभिन्नता होवी असंभविवछ तेमज ते मार्गने आचरनारा खरा विद्वानोए पण तेवा कदाग्रही कंटाळी जंगलमा जइ आत्म साधन करेलुछे एवं जैन तवारीख उपस्थी सावीत यइ शकेछे. आनंदघनजी जेवा महात्माए "पटदरिशण जिन अंग भणीज." विगेरे शब्दोमां श्री नमीश्वर भगवाननी स्तुति करतां ज्ञानीना स्यादनाद मार्गनेन अक्षरशः कबुल करेलछे. श्वेतांवरी (देरावासी-स्थानकवासी) अने दिगंवरी सर्व मसचाळाए एकत्र य, जोइए. ज्ञानीना वाक्योना विपरित अर्थ करवायी ज्ञानावरणीय कर्म बंधायछे, तेथी मतभिन्नता दूर करी सर्व एकत्र पनो अने स्वधर्मनी थती पायमालीनो उद्धार करो अने पुर्वे जेम ते सर्वोत्तम गणातो तेवीम रीने पुनः सर्वोत्तम गणाय तेवो एकत्र थइने प्रयास करो. एकम मागाप ना जुदा जुदा पुत्रो कुसंपी थाय तो ते कुलनो क्षय नीक एम समबीने Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. [१] आपणा स्यादवाद मार्गमां भविष्यना श्रेय माटे सर्वेए एकत्र धनुं आव छे. 'बेनी लडाइमां बीजो फावी जाय' ए न्याये आपणा जुदा जुदा संमदायवाळाभो लंडळे तेथी बीजा फावी जायछे. वस्तीपत्रकना आंकडा ओ उपरथी जणा के ख्रिस्ती धर्ममां भळेलाओनी संख्या जेटली दश वर्ष पहेला हती ते करतां हाल बहुज वधी गइछे. आवी रोते छल्ला मै कामां नीकळेला नवा संमदायोनी संख्यामां घणा माणसो भळता जायछे rt जैनधर्मिओ घटता जाय छे. देशनी मचली भाषामा आपण सूत्रोना भाषांतर हजु सुधी प्रसिद्ध न थवानां घणां कारणोछे. आपणां लोकोमां पूरंतु उत्तेजन नथी. भंढारवाळाओ पुस्तको पडतर राखी तेमां सडावेछे ने उधइने खवरावेछे, पण उपयोग माटे कोड़ने आपता नथी, तेमज आम करवाथी ज्ञानावरणीय कर्म बंधायछे तेनुं लेश पण भान तेमने रहेतुं नथी. ने सबळ कारण तो एछे के तेवा विद्वानोनी आपणागां बहु खाटेछ. ज्ञाननुं कोइ पण रीते बहु मानपणुं नश्री. पुस्तक सडी जाय- बगडी जाय से भले पण ज्ञाननो प्रचार करतो ते आंधळी श्रद्धाबाळा Orthodox जैन जेनुं संप्रदायमां विशेष प्रारूप तेमने पसंद नथी, खावा रूढ विचारो स्थळे स्थळे मफत लाभ आपतां पुस्तकालयों स्वपाय सोज दूर थर शके तेत्रो संभवछे ने तेथी केळवायला धर्मन बहुत लाभ थवा संभवछे. आत्रा उब आशयवाळूं मफत लाभ आपमु एक पुस्तकालय मोरवीमां वे वर्ष थयां स्थापवामां आ व्यंछे, जेनो लाभ घणा लोको छूटवी केछे, आवां पुस्तकालयो जुदे जुदे स्थळे स्थपाथ अने तेथी युवानवर्गने पांचवाना साधनो मळे तो जैन मार्गी नी उन्नतिनी आशा राखी शकाय.. जे धोरण अंग्रेज विद्वानोए अंगीकार को लुछे ते निष्पक्षपात धोरण अनुसार आ भाषांतर करेलुंछे. अने तेमां कोइ पण जातनां मन मतांतरमां न तणातां स्यादवाद आशय अंगीकार करेला छे. जो के आवा भाषांतरी समर्थ विद्वानोनी कसाएली कलमयी भूषित थयां होय तो ते वधारे सारां थाय परंतु अमोए अमारी अल्प शक्ति अने अल्पानुभव वडे जे बने ते निष्पक्षपात भने शुद्ध भाषांतर करवा मयास करेलो छे. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] प्रस्तावना. आ भापांतर तैयार करतां जो के पूर्ण काळजी राखवामां आवी छे, छतां पण-पूर्वे वधिला ज्ञानावरणीय कर्मना उदयथी, कोइ पण दोष रहेलो द्रष्टिगोचर थाय तो ते माटे बीजी आवृत्तिमा सुधारो थवा सूचना करवा सुज्ञ वाचकवर्गने सविनय सप्रेम विज्ञप्ति छे. आवां भाषांतरोधी आचार विचारमा नीची गति लेतां जैनो पोतानी भूलो समजता थशे एम अमने खात्री छ. ___ कोइ पण पुस्तकनु भाषान्तर करती वखते तेने लगती अतिहासिक विनानो विचार करवो जोइए. आपणां सूत्रोने ज्ञानीओए रचेला छे. तेओ आप्त पुरुपो होवाथी, कार्यपरत्वे अधिकारी हता, तेथी हालना भाषान्तरना वांचकोने तेओनां तिहासिक वृत्तांतो जाणवानी आवश्य क्ता छे. पण जेओ जैन कहेवाय छ तेओ मांहेना भाग्येज कोइ आ महात्माओनां वृत्तांतथी अज्ञान हशे. तेमज आ भाषान्लरना छेवटना भागमां पण श्रमण भगवंत श्रीमहावीर तीर्थंकरर्नु अतिहासिक वृतांत आवी जतुं होवाथी अत्रे जु, आपका प्रयास करेलो नथी. ते ज्ञानी पुरुषोनां ज्ञान,दर्शन, चारित्रनु आवेहुब वर्णन करयु ते पोतानी अक्कलनी कसोटी कराववानी साथ मूर्ख बनवा जे छे. आवा ज्ञानसंपन्न महात्माओनां रचेलां सूनो उपर पूर्वे थवेला विद्वान आचार्योए नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका वीगेरे करीने तेनो संपूर्ण आशय समजादवा मथन करेलु छ तेमां पण ठेकाणे ठेकाणे “ तत्वं कवलिगम्यं " एला शब्दो द्राष्ट्र गोचर थाय छ; जे शब्दो कांई ओछा अर्थसूचक नथी. आपणे आपणी परंपराए सांभळेलु छ के ज्ञानीना नाननो अनंतमो भाग गणधर महाराज समजी शके तेनो पण बहु थाडो भाग भाचार्यजी समजी शके वीगेरे. आ उपरथी दांचकवर्गने खात्री थंश के सूत्रोना भाषान्तर करी तेनुं रहस्य समनावg ए ओछु मुश्कल काम नथी सूत्रोमा टाम ठाम केटलाएक एवा शब्दो आवे छे के तेना शब्दार्थ अने भावार्थ तरफ विचार करतां दंघ येसतो आशय मळी शकतो नधी. तेमां वनस्पति वीगेरेना केटलांएक एषां नामो आवछे के याजना जमाना ना विद्वानो-डॉकटरो, रसायणीओ अने बॉटेनिस्टो पण भाग्येन जाणता होय; केटलापक एवा शब्दो आवेछे के अमाने जे मुस्केली पहीले तेनो ख्याल मात्र विद्वान् वगन करी कशे. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. जैनोमां जे जुदा जुदा संप्रदाय पडेलछे तेनुं कारण पण पूर्वोक्त शब्दो ना मनगमता जुदा जुदा अर्थ करवातुंछे आवे प्रसंगे तमाम संप्रदायन अनुकूळ, तेमन सूत्र शैली अनुसार अर्थ गोठववो तेमां द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भाव अने विद्वान् वर्गना अभिप्रायोनो आश्रय लेवो पडयोछे. जे वखते सूत्रो लखायां अने हाल जे वखते आपणे ते वांचीए छीए तेमां संख्याबंध वर्षोंनो आंतरोछे, जे दरम्यान जमानो विद्या, कळा, कौशल्य, अने हुन्नरमा वहु आगळ वधेलोछे अने वर्तमान विदेशी विद्वानो: नी दर्शनीक शक्ति आगळ सूत्रज्ञानने विषे पण पूर्ण माहीती धरावनार पुरुषोनी पुरती खोटछे, तेनुं कारण आपणा रुढ विचारोने वळगी रहेवानी आपणी टेबछे. एक कवितछे के. "Be a Roman in Rome" एटले के देश काळने मान आपीने वर्तवाथी स्वधर्म तेमन व्यवहार पक्षमा सुगमता रहेछे. आ सूत्रना भाषांतर संवंये "मुंबइ समाचार" मांजे कडवी टीकाओ चर्चापत्र तरीके प्रसिद्ध थयेली छे अने जेमा मात्र आंधळी श्रद्धापर दोराइ निष्पक्षपात द्रष्टियी दूर रही, लखाण करवामां आव्युछे, ते अमारी समज चहार हतु एम कोइए धारवा नथी, अमे पोते पण कबुल करीए छीए के पवित्र सूत्रानां भाषान्तर करवां अने तेमनु रहस्य बहार लावलूं ए वढुज गुश्केल अने महाभारत काम छे. परन्तु हालना द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावने अनुसरी, केळवाएलो वर्ग जेना पर भविष्यनी प्रजा अने स्वधर्मना उदयनो आधार छ तेओ, आवां मूळ सूत्रो भंडारोमां सदतां पडेलां होवाथी, समजवाने, भापाना अजाणपणाने लीधे, प्रयत्न करता नधी , ने अटकाववानी खातर “ Something is better than not. hing " ए न्यायने अनुसारे अमोए आ भाषान्तर एक विहान साधु मुनिराजनी काळजी भरी देखरेख नीचे तैयार करेलुं छे. जो के ज्ञाना परणीय कर्मनी वाहुल्यताने लइने अमो निर्दोष होवानो दावो करी शकता नथी छतां अमोए सर्व संप्रदायवालाओने अनुकुळ पडे तेम सादी अने सरळ भापामां भाषान्तर करवा यथाशक्ति प्रयत्न करलो छे-ज्यारे सघळी कोमो धर्म ज्ञानमा उंडी उतरती जइ पोत पोतानी भाषामा पोतानां धर्म पुस्तको प्रसिद्ध कर छे त्यारे जैन मंत्रो के जे मागधी भाषामां लखारोडां Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] प्रस्तावना. छे, ते भाषा देशना कोई पण भागमां प्रचलित नहीं होवाथी, ते वांचवा अने समजवा हालनो केटलो जैन वर्ग श्रम ले छे तेना आंकडा अमो बहार लाचीए तो पोताना पग परज कुहाडो मारवा जेवुं थाय. आ सूत्रनुं भाषान्तर बहुत संभाळधी करवामां आव्युं छे अने वळी बधारे खुशी थवा जेहुं एले के जैन संप्रदाय मांहेनां एक करतां वधारे पक्षाळा ओर साथै मळीने आ भाषान्तर तैयार करेल होवाथी ते निष्पक्षपात थाय तेमां नवाइ जेवुं नथी अने तेथी सर्वेने ते रुचीकर थवा संभव छे. था भाषान्तर अमोए ळांबो घखत यर्या तैयार करेलुं परंतु द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भावना सारा संजोग बच्चे आ महान् पवित्र पुस्तक प्रसिद्ध याय एवी अमारी इच्छा हती. छेडां त्रण चार वर्षथी आपणा आर्य देश अनादृष्टि अने इष्टकाळी बहु पीडा पदे छे तेथी अमो सारा वखतनी राह जोता हता छतi score सुमित्रोना आब्रश्थी आवा संजोगो वचे पण आ पुस्तक प्रसिद्ध करयुं पड्युं छे आ पुस्तकनो व्होळा फैलावो यह सदुपयोग याय एवं अये इच्छी डी. आ भाषान्तर करवामां मे विद्वान साधु मुनिराजजीए अमोने निष्पक्षपात अने निःस्वार्थ साक्षता आपली छे अने जे पोतानुं नाम सिद्धियां लावका खुशी नयी तेनो अमो अमारा जीगरथी उपकार मानीए छीए. आ भाषान्तर फरतां भूलधी, द्रष्टिदोषथी, हस्तदोषधी के विचार दोपथी जे कांई मूळ सूत्रकारना अभिप्रायवी विपरीत ययुं हाय मैंने माटे श्री अरिहंत, सिद्ध, केवळी, तथा श्री चतुर्विध संघनी साक्षी असे अंतः करण पूर्वक माफी मागीए छीए. अग्राद पूर्णिमा + प्रो. रवजीभाइ देवराज. अने जैन स्कोलर्स - मोरवी. Page #25 --------------------------------------------------------------------------  Page #26 --------------------------------------------------------------------------  Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञापना. अथवा (वांचनारने भलामण-) वांचनार! हु आजे तमारा हस्तकमळमां आई छु, मने यत्न पूर्वक वांचजो, मारा कहेला तत्त्वने ह्रदयमां धारण करजो , हुँ जे जे वात कहुं छं ते ते विवेकथी विचारजो; एम करशो तो तमे ज्ञान, ध्यान, नीति, विवेक, सद्गुण, अने आत्मशान्ति पामी शकशो. ___ तमो जाणता हशो के केटलाक अज्ञान मनुष्यो नहि वांचवा योग्य पुस्तको वांचीने पोतानो वखत खोइ दे छे अने अवळे रस्ते चडी जाय छे, आ लोकमा अपकीर्ति पामे छे तेमज परलोकमां नीची गतीए जाय छे. तमे जे पुस्तको भण्या छो अने हजु भणो छो ते पुस्तको मात्र संसारनां छे; परन्तु आ पुस्तक तो आ भद अने परभव वन्नेमां तयारुं हित करशे. भगवाननां कहेला वचनोनो एमां उपदेश करेलोछे. ____ तमे कोइ प्रकारे आ पुस्तकनी आशातना करशो नहि तेने फाडशो नहि. डाघ पाडशो नहि, के वीजी कोइ पण रीते वगाडशो नहि. विवेकथी सघळं काम लेजो, विचक्षण पुरुषोए कहेर्नु छ के-विवेक त्यांज धर्म छे. तयने एक ए पण भलामण छे के जेओने वांचता नहि आवडतुं होय अने तेनी इच्छा होय तो आ पुस्तक अनुक्रमे तेने बांची संमळाद. . तमे जे वातनी गम पामो नहि ते डाह्या पुरुष पासथी समजी लेजो, समजवामां आळस के मनमा शंका करशो नहि, तमारा आत्मानुं आधी हित थाय तमने ज्ञान, शान्ति, आनंद मळे, तमो परोपकारी, दया, क्षमावान विवेकी अने बुद्धिशाळी थाओ एवी शुभ याचना अहंत भगवान् कने करी आ पाठ पूर्ण कर छ. " मोक्ष माळा." Page #28 --------------------------------------------------------------------------  Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन पहेलं. (शस्त्र परिज्ञा ) अनुक्रमणिका. DB श्रुतस्कंध पहेलो. पहेलो उद्देश :- आत्मपदार्थ विचार तथा कर्मबंधहेतु विचार. वीजो उदेश : - पृथ्वी कायनी हिंसानो परिहार ( दुःखना अनुभव माटे अंधवधिरनुं दृष्टांत कलम १५ ) त्री जो उद्देश :- अप्कायनी हिंसानो परिहार. ११ चोथो उद्देश :- अग्निकायनी हिंसानो परिहार.. पांचमो उद्देशः- वनस्पतिकायनी हिंसानो परिहार.. १४ ( शरीरना साधर्म्यथी वनस्पतिमां जीव स्थापवानी युक्ति-कलम ४४ ) छट्टो उद्देश :- त्रस जीवोनी हिंसानो परिहार. पृष्ट a. x बीजो उद्देश :- पाप न करवां अने परीपह सठेवा एटलायी कं साधु नर्थ यवानुं. १. ८ ( त्रस जीवोनी हिंसाना हेतुओ - कलम ४४ ) सातमो उद्देशः - वायु कायनी हिंसानो परिहार. अध्ययन वजिं. (लोक विजय ) पहेलो उद्देश :- मात पिता वगेरे लोकने जीती संयम पाळवो. वीजो उ०- अरति टाळी संयममां द्रढ रहेवं. त्रीजो उ०- मानने टाळं तथा भोगमां रक्त न थं. चौथो उ०- भोगोथी रोगो थाय छे. पांचमी उद्देशः - विषय भोग त्यागीने लोक निश्राए आहारादिक लइने विचखं. ३७ छट्टो उदेशः -संगमार्थे लोकने अनुसरतां छतां तेनी ममता न करवी. ४२ अध्ययन श्रीजुं. (शीतेोष्णीय. ) पहेलो उद्देश :- परमार्थ सूनेला कोण ? बीजो उद्देश :- पापनां फळ तथा हितोपदेश. २१ २८ २८ ३१ ३४ २७ ܘ 53 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. चोथो उद्देशा-कपाय छोडवा. अध्ययन चोथु. (सम्यक्त्व) पहेलो उद्देशः-सत्यवाद. बीजो उद्देशः-परमतनुं विचार पूर्वक खंडन. त्रीको उद्देशः-तपोनुष्ठान. चोथो उद्देशः-संयममां संस्थित रहे. अध्ययन पांचमुं. (लोकसार) पेहेलो उ०--प्राणिनी हिंसा करनार, विषयो माटे आरंभमा प्रवर्त नार तथा विपयोमा जे आसक्त हाय तेने मुनि न गणवो. ६९ वीजो उ०-जे हिंसादिक पापोथी निव? होय तेज मुनि गणाय. ७२ त्रीचो उ० जे मुनि होय ते कशा परिग्रह न राखे तथा काम भोगनी इच्छा पण न करे ७५ चोथो उ०-अजाण अगीतार्थ अने सूत्रार्थमा निश्चय विनाना मुनिने एकला फरवामां घगा दोप थाप छे. पांचमो उ०-मुनिए सदाचारथी वर्तटुं तथा तेना माटे जळाशयनो दृष्टांत. छहो उ०-उन्मार्गमां न ज तथा राग द्वेप तजवा. अध्ययन छटुं. (वृत) पेहेलो उ०-स्वजन संवधीयो छोडीने धर्ममां परायण थयु. ८९ वीजो उ०-काने आत्माथी दूर करवा. त्रीजो उ०-मुनिए अन्य उपकरण राखवा अने शरीरने जेम बने । म कसता रहेQ. ९७ चोयो उ०-मुनिए सुख लंपट नाहि . पांचमो ३०-सुनिए संकटोयी नहि डर तथा कोइ प्रशंसा के सत्कार करे तथी खुशी न थ{. (उपदेशवा योग्य आठ बावनो कलम ३८५) अध्ययन मातमुं. (महा परिज्ञा) सान उ०-विच्छिन्न थया छे. १०७ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. अध्ययन आठमुं. (विमोक्ष) पहेलो उ०- कुशीळ परित्याग. (लोक ध्रुव छे के अध्रुव ? कलम ३९६) बीजो उ०- अकल्पनाय परित्याग. ११२ ११५ त्रीजो उ०- खोटी शंकानुं निवारण - ( परीप होथी न डरं.) चोथा उ०- मुनिए कारण योगे वेहानसादि वाळ मरण पण करवा. ११७ १२० १२३ १२६ १२९ पांचमी उ०- मुनिए मांदा धतां भक्त परिज्ञाए मरण करं. छो उ०- धैर्य युक्त मुनिए इंगित मरण कर. सातमो उ०- पादपोपगमन मरण. आठमो उ०- काळ पर्यायी aणे मरणनी विधि. अध्ययन नवसुं. ( उपधान श्रुत. ) पहेलो उ०- महावीर स्वामिनो विहार. वीजो उ०- महावीर स्वामिनी वसति. तीजो उ०- वीर प्रभुए केवां परीपद सां. चौथो उ०- वीर प्रभुनी तपश्चर्या. अध्ययन दर्शानुं . [ पिंडेपणा. ] श्रुत स्कंध बीजो. Gr [पहेली चूलिका ] [५] १०८ पांचमी उ०- मुनि को आहार लेवो अने क्यों नहि देवो. छटो उ०केवो आहार लेवो तथा केवो न लेवो नैना नियमो. १३५ १४१ १४५ १४९ पेहेलो उ०- सुनिए क्यो आहार लेना अने कयो नहि लेवो. ferrer घरे प्रवेश करवानी विधि. ] १५६ १५८ बीजो उ०- मुनिए अशुद्ध आहार न लेवो तथा जमणवारमां न जं. १६२ त्रीजी उ०- मुनिर जयगवारमां जवाथी थना गैर फायदा. १६७ चौथो उ०- मुनिए जमगवारयां न जं. १७२ ?Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका - सातमो उ०-केम अने केवो आहार लेबो तथा केम अने केवो न लेवो. [पाणीनो अधिकार.] . १९० आठमो उ०-पाणी, फळ, फूल, तथा परचुरण आहार लेवा न लेवाना नियमो. १९२ [कंद फळाटिकनो अधिकार. नवमो उ०-क्यो आहार लवो अने क्या न लेवो. १९९ दशमो उ०-मुनिए आहारपाणी लावतां शी रीते वर्तवू. २०४ अगीयारमो ७०-मळेला आहार माटेनी वे शिक्षाओ तथा सात पिंडेपणाओ अने सात पाणेपणाओ. अध्ययन अग्यार# [शय्या] पहेलो उ०-वसतिना विचित्र दोपोर्नु वर्णन २१६ वीजो उ०-मुनिने गृहस्थ साथे वततां थता दोपो तथा नवजातनी वसति. २२५ त्रीजो उ०-मुनिए कया स्थळे रहे। कया स्थळे न रहे २४३ [संस्तारकनी चार प्रतिज्ञाओ] अध्ययन पारमुं [ई-] पहेलो उ०-विहारना नियमो. २४९ [मुनिए वहाणपर क्यारे चवं] चीजो उ०-वहाणपर चडवा तथा पाणीमाथी पसार थवा विगरे विधि. २५०. त्रीजो उ०--विहार करवानी विधि. अध्ययन तेरमुं. [भापा जात.] पहेलो उ०- भापाना सोळ विभाग तथा चार प्रकारो. बीजो उ०-मुनिए केवी रीते वोलवू ? २८१ अध्ययन चाँदमुं वस्त्रेपणा.] पडेलो उ०-मुनिए वसो केवां अने केम लेखां ? बीजो उ०-वस्त्र संबंधी वधु आज्ञाओ. अध्ययन पंढरम् [पात्रपणा. पहेला उ०-पात्र केवां अने गी रीते लवां ? Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. वीजो उ० -पात्र विपे वधु आज्ञाओ. अध्ययन सोलमुं॰ [अवग्रह प्रतिमा.] पेहेलो उ०-रहेवानुं मकान के पसंद करवू ? बीजो उ०-रहेवानुं मकान पसंद करवानी रीत तथा ते वावतनी सात प्रतिज्ञाओ. बीजी चूलिका. अध्ययन सतरमुं [स्थान पहेलो उ०-उभा रहेवानी जग्या केवी पसंद करवी. अध्ययन अढारमुं [निपीथिका पहेलो उ०-अभ्यास करवा माटे जगा केवी पसंद करवी. अध्ययन ओगणीसमुं. उच्चार प्रश्रवण. पहेलो उ०-स्थंडिल माटे केवी जग्या पसंद करवी ? ३३७ अध्ययन वीशमुं. (शद्ध) पेहेलो उ०-मुनिए शद्धमां मोहित न थg. अध्ययन एकवीशमुं. (रूप) पेहेलो उ०-रूप जाई मोहित न थq. अध्मयन वावीशमुं. (पराक्रया) पेहेलो उ०--वीजानी क्रियामां मुनिए केम वर्तवं ? अध्ययन त्रेवीशमुं. [अन्योन्य क्रिया.] पेहेलो उ०-मुनिओए अरसपरस थती क्रियामां केम वर्तव? --wood त्रीजी चूलिका. अध्ययव चोवीशम. [ भावना.] पेहेलो उ०--महावीर प्रभुतुं चरित्र तथा पांच महाव्रतोनी भावनाओ ३६२. [भावनाओ.] अध्ययन पचीशमु. [विमुक्ति.] पेहलो उ०-हित शिक्षाना कान्यो. (समाप्ति.) Page #34 --------------------------------------------------------------------------  Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्ग सूत्रम्. प्रथमः श्रुतस्कन्धः शस्त्रपरिज्ञानामकं प्रथम मध्ययनम् (प्रथम उद्देशः) सुयं मे आउसं, तेणं भगवया एवमक्खायं । (१) श्रुत स्कंध पहेलो अध्ययनर पेहेलं. शस्त्र परिज्ञा. अथवा भाव शस्त्रांनी समजा पेहेलो उद्देश - (आत्मपदार्थ ४ विचार तथा कर्मबंध हेतुभ विचार.) (आत्मपदार्थ विचार.) ( सुधर्मस्वामी जंबूने ७ कहेछे) हे दीर्घ आयुष्यवाळा जंबू, में (श्रमण भगवान महावीर ८ पासथी) सांभळेलुं छे; ते भगवान् आ प्रमाणे वोल्या हता.(१) १ श्रुतस्कंध एटले सूत्रनो भाग. २ अध्ययन एटले अध्याय. ३ शस्त्र वे जातना छे:-द्रव्य शस्त्र अने भाव शस्त्र द्रव्य शस्त्र तरवार विगेरे. भाव शस्त्र पापमा प्रवर्तना मन वचन अने शरीर. अही ए भाव शस्त्र लेवां, तेनी परिजा एटले समज. परिना वे छे-न परिज्ञा, अने प्रत्याख्यान परिज्ञा, ज्ञ परिना एटले ए क्रियाओ कर्न बंधनी हेतु छे एई बरोबर समज. अने प्रत्याखान परिना एटले नेई सय ने त ओनो त्याग करचो. ४जीव. ५ कर्ग बांधवानां कारणो. ६ श्री महावीर प्रभुना पीचमा गणधर, सुधर्म स्वागीना शिष्य. ८ परोपकानर्थ महाश्रम लेनार. ९छल्ला तीर्थकर. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळ तथा भापान्तर, इह सेगेसिं णो सण्णा भवइ, तंजहा, पुरथिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि? दाहिणाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसिर पञ्चत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि? उत्तराओ वा दिसाओ आगओ अहमांस? उडाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि? अहे दिसाओ वा आगओ अहमंसि? अण्णयरीओ वा दिसाओ अणुदिसाओ वा आगओ अहमसि । एवमेगेसिं णो णायं भवइ, अस्थि मे आया उक्वाइए? णत्यि मे आया उ. क्वाइए? के अहमंसि? के वा इओ चुओ इह पेचा भविस्सामि ? (२) से जं पुण जाणेज्जा सहसम्मइयाए, परवागरणेणं, अण्णेसि अंतिए वा सोचा, तंजहा, पुरथिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, जाव अण्णयरीओ दिसाओ अणुदिसाओ वा आगओ अहमसि। एवमेगेसिं णायं भवइ, अत्यि मे आया उववाइए, जो इमाओ दिसाओ अणुदिसाओवा आ जगतमा जेम केटलाक जीवोने (एy) ज्ञान नथी होतुं के हुँ कइ दि-- शाथी (अत्रे) आवेलो छ? पूर्वधी के दक्षिणथी ? पश्चिमी के उत्तरथी ?ऊपरथी के नीचेयी ? अथवा कोइ पण दिशाथी के विदिशाथी? तेज प्रमाणे केटलाक जीवोने एव ज्ञान (पण) नयी होतुं के मारो आत्मा पुनर्जन्म पामनारो छे के नहि? हुँ (अगाउ) कोण हतो? अथवा अहिंथी चवीने २ (जन्मांतरमां) हुँ कोण थइश? (२) हवे [जेओ "हुँ कइ विगायी आव्यो छु" एवू नयी जाणता तेओमांनो] कोइ जीव, जातिस्मरण ३ विगैरे ४ ज्ञानथी, अथवा तीर्थकरना आपेला उत्तरथी अयवा वीजा कोइना पासेपी सांभळीने जाणी शके के हुँ अमुक दिशायी अथवा विदिशाधी आयो तेज प्रमाणे केटलाएकने एवं ज्ञान होय छे के, मारो आत्मा पुनर्जन्य पामना छे, जे आत्मा अमुक दिशा अथवा विदिशाथी आवेलो छे. बने जे अपुक दिया अथवा विदिशा अथवा सर्वदिशाथी आंबलो छे ते ९ /. १ जीव, २ मरीने. ३ जेनापी गया जन्मनी बात याद आवे एवं ज्ञान. १ विगेरे शब्दधी अवधि, मन पर्यव अने केवल ज्ञान. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन पहल अगुसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ सवाओ अणुदिसाओ जो आगओ अणुसंचाइ, सोहं । से आयावादी, लोगावादी, कम्मावादी, किरियावादी ।(३) । अकारस्सं च हं, काराविरसं च हं, करओयावि समणुन्ने भविस्सामि; एयावंति सव्वावंति लोगांस कम्मसमारंभा परिजाणियव्या भवंति। (2) अपरिग्णायकम्मा खलु अयं पुरिसे, जो इमाओ दिसाओ अणुदिसाओवाअगुतंवाइ, सम्घाओदिसाओ सचाओ अणुदिसाओ साहेति, अणेगरूबाओ जोणीओ संधेइ, विरूबरूवे फासे पडिसंबेदेइ । (५) - तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेइया । (६) आवा ज्ञानवालो जे पुरुष होय तेज (खरेखो) आत्मवादी, १ लोकवादी, कर्मवादी, अने क्रियावादी [जाणवो]. (३) (कर्म बंध हेतु विचार). में कीवं, ? में कराव्यु, २ में वीजा करनारने रुडं मान्Y, ३ हुँ , ४ हुँ कराईछ, ५ हुँ वीजा करनारने रुडं मानुछ, ६ हुं करीश, ७ हुँ करावीगा ८ हुं वीजा करनारने रडं मानीश ९(ए नब भेदोने गन वचन अने काययी २ गणीए तो सात्यावीश भेद थाय) (ए प्रमाणे) एटलान (मात्र) आग लोकमांकमसमारंभ एटले कर्म बांधवाना कारणभूत क्रियाओना बेदे जाणवाना छ. (४) एनियाओने नहि जाणनार पुरुपज आ दिशामा तथा विदिशाओं अने सर्व दिशाओमा भन्या करें छे, अनेक योनिओमा अपने से, अने अणानता स्पर्श विगेरना दुःखो भोगने छे. (२) (आ मनांगे भगाने अपरं भोपन बोलीने हुवे पोते मुधर्म न्वागी हने एनियाली ऐ भगवाने "परिग' (एले शुद्ध सपने) आपली रे. (६) । चादी मानना-अल्लवादी आमा मानना हरीर इजातियां Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. इमस्सचेव जीवियरस परिबंदणमाणणपूयणाए, जाइमरणमोयणाए, दुक्खपडिघायहेडं। (७) एयावंति सव्वाति लोगसि कम्मसमारंभा परिजाणियव्वा भवंति। (८) जस्सेते लोगंसि कम्मसमारंभा परिणाया अवंति, से हु सुणी ति बेमि । (९) [दितीय उद्देश: अट्टे लोए परिजुण्णे दुस्संबोहे अविजाणए; अस्सिं लोए पव्वइए तत्थ तत्य पुढो, पास, आतुरा परिताउति । (१०) ५ ब्रवीमि २ आर्त : ३ अस्मिन् (ए क्रियाओमां मागसो,) आ शरीरने वधु टकाववा माटे, कीर्ति मेळववा माटे, मान पामवा माटे, अने खान पान तथा धनादिकना माटे (मवर्ने छे.) (७) (ए प्रमाणे) आखा लोकयां ऊपर वत्ताज्या तेटलाज क्रियाना भेदो जाणवाना छे. (८) (उपसंहार) (समस्त वस्तुना जाणनार भगवान् केवळ ज्ञानथी साक्षात् जोइने कहे छ के) जेणे ए क्रियाना भेटो (ऊपरनी जणावेली वे परिज्ञाओथी ) शुद्ध समगेला होय, तेज, कोने समीन तेना कारणाची दृर रहनार मुनि जाणवो.) ए प्रमाणे (हेजंबू ए सघळु हुँ भगवान् पासेयी सांभळीने तने) कहूंछ.(९) वीजो उद्देश. (पृथ्योफायनी हिंसानो परिहार.) आ जगत्मांना जीवो (विषय अने कपायथी) पीडायला छे, वधी रीते हीन याला छे, अने घणी मुगीवते समजी शके तवा वनेला छे, (कारण के) तेत्रो अजाण छे(अने एवाज होवायी,) तेओ अधीरा पहने गरीव पृथ्वीकायना जुदा जूदा खपमा ते पृथ्वीकायन संताप्या करे छे. (१०) । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन पेहेटु. संति पाणा पुढो सिया । लज्जमाणा पुढो, पासा ११] अणगारा मो त्ति एगे पवयमाणा; जमिणं विरूवस्वेहि सत्यहि पुढविकम्मसमारंभेणं पुढविसत्थं समारंभमाणा अण्णे अणेगरूवे पाणे वि. हिंसइ। [१२] . तत्थखलु भगवया परिष्णा पवेइआ । इमरस चेव जीवियस्स पखिंदण-माणण-पूयणाए, जाइमरणमायणाए, दुक्खपडिघायहेडं, से स-- यमेव पुढविसत्थं समारंभइ, अण्णेहिं पुढविसत्थं समारंभावेई, अण्णेवा पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणइ । तं से अहियाए, तं से अबाहिए।।१३ से तं संबुज्झमाणे आयाणीयर समुठाए सुच्चा खलु भगवओ, १ [बौद्धाः] २ [ज्ञान दर्शन चारित्र रूप] आदानीयं. ३ इत्यर्थं गृद्ध: पृथ्वीमां जूदा जूदा अनेक जीव छे. एथीज करीने, ज्ञानीओ तेनी हिंसा करतां शरमाय छे. (११) केटलाएक १ भिक्षुको कहे छे के “ अमेज मात्र अणगार एटले जीवरक्षाने माटे घर छोडीने थयेला यतिओ छीए" पण ए तेमनो मात्र वकवादज छ कारणके तेओ आ पृथ्वीथी थता कामोमां पृथ्वीकायना जीवाने अनेक हथियारोवडे मारता रहे छे, तथा ते साथे वनस्पति विगैरे अनेक जीवोने पण मारे छे. (१२) आ स्थळे भगवाने शुद्ध समज आपीछे के प्राणीओ, लांबु जीववा माटे, कीर्ति मेळववा माटे, मान पामवा माटे, जन्म जरा तथा मरणथी छुटा थवा माटे, 'अने दुःख मटाडवा माटे, जाते पृथ्वीकायनी हिंसा करे छे, बीजा पासे करावे छेबीजाने करतां रुडं माने छे; पण ए वधुं तेमने अहित करनार अने अज्ञान वधारनार (थवा ).(१३) समजु पुरुष ए पृथ्वीकायनी हिंसाने अहित करनारी जाणता थका साक्षात् १ ( चौद्धमतेना.) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. अणगाराण अंतिए; इह मेगेसिं णायं भवति-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए। इचथं गठिए लोए ; जमिणं विरूबरूवेहिं सत्थेहिं पुढविकम्मसमारंभेणं पुढविसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूबे पाणे विहिंसइ। [१४ से वेमि----अप्पेगे अंध मन्भे, अप्पेगे अंध मच्छे-अप्पेगे पाय मन्भे, अप्पेगे पाय मच्छे ;-अप्पेगे गुंफ मन्भे, २७ अप्पेगे जंघ मन्भे, २ अप्पगे जाणु मभे, २ अप्पेगे ऊरू मन्मे, २अप्पे कड़ि मब्भे, २ अप्पेगे णाभि मन्भे, २ अप्पेगे उयर मन्भे,२ अप्पेगे पाप्त मन्भे, २ अप्पेगे पिटि मन्मे, २ अप्पेगे उर मन्भे, २ अप्पेगे हियय मन्भे २ अप्पेगे थण मन्भे, २ अप्पेगे खंब मन्भे, २ अप्पेगे बाहु मब्भे २ अप्पेगें हत्थ मन्भे, २ अप्पेगे अंगुलि मन्भे, २ अप्पगे णह मन्भे, २ अप्पेगे गवि मले २ अप्पेगे हणुय ममे, २ अप आभियात् आछिद्यात् ७ विकचिह्नात् सर्वत्र अच्छे इत्यंत वर्तिपदमापि वाच्यम् तार्थंकर भगवान् अथवा तेवना साधुओ पासेची पोताने आदरचा लायक (जान दशन अने चारित्र रुप) वनुयो सांभळी करीने तेमनो अंगीकार करे छे.(अने) तेवा पुरुपो ए७ सपजे छ के आ (पृथ्वीकायना आरंभ) ते खरेवर कर्मबंधनो हेतु छे. योनो हेतु छे, मरणनो हेतु छे, अने नरकनो हेतु छे; एवू छतां जे घणा लेाको ए पृथ्वीकायना जीवाने त्या तेना सायना वीजा अनेक जीवाने अनेक प्रकारना शखोवडे मारता रहेछे, ते मात्र तेओ सादा पीवा तथा कीर्ति विगैरे मेळवामां मुंझा. इ पडया छे. (१४) (हे शिज्य, जो तमे मने पूछशो के ए पृथ्वीकापना जीवो देखता नय:, मूं. घता नयी, सांभळता नयी अने चालता पण नयी माटे एमने भारतां ते गी पीडा थती होते हु एक दृष्टांतथी कहुं हुं के जेम कोई एक जन्मयीन अंधधिर पुरुष होय तेने) जूदा जूदा माणसो तेना पग, चूंटी, जंघा, घुटण, सायक, के, Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन पहेठे. २ अप्पेगे जीह मन्भे, २ अप्पेगे तालु मन्भे, २ अप्पेगे गल मन्भे, २ अप्पेगे गंड मब्भे, २ अप्पेगे. कन्न मन्भे, २ अप्पेगे णास मन्भे, २ अप्पेगे अच्छि मन्भे, २ अप्पेगे भमुह मन्भे, २ अप्पेगे णिडाल मन्भे, २ अप्पेगे सीस मब्भे; २ अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दबए। (१५) एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्छेते आरंभा अपरिणाया भवंति। एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्छेते आरंभा परिणाया भवंति। (१६) तं परिणाय मेहावी नेव सयं पुढविसत्थं समारंभेज्जा, नेवण्णेही पुढविसत्थं समारंभावेज्जा, नेवण्णे पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणेजा। जस्सेते पुढविकम्मसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिणायकम्मे ति बेमि । (१७) नाभि, पेट, पासळी, पूंठ, छाती, हैयुं, स्तन, खभा, बाहु, आंगळीओ, नख, गर्छ, हडपची, होठ, जीभ, ताल, लागा, कान, नाक, आंख, भ्रमर, ललाट, अने मायुं विगरे अवयवोगा भालानी अणीओ परोवे त्यारे ते अंधवधिरने जे प्रमाणे वेदना थाय छे. तेज प्रमाणे एकेंद्रिय जीवाने पण मारतां वेदना थाय छे.] (अथवा जेय एक माणसने कोइ एकदम घा मारी मूर्छित करे अने पछी मारी नाखे त्यारे तेने मूछी होवा छतां पण पीडा थायज छे ते प्रमाणे ए पृथ्वीकायना जीवोने पण मारतां वेदना थायज छे.) (१५) । ए पृथ्वीकायनी हिंसा करनार पुरुषने आरंभर्नु ज्ञान अने त्याग नथी होता एटले आरंभ लाग्या करे छे, अने तेनी हिंसा वर्जनार पुरुषने आरंभनुं ज्ञान तथा. त्याग होय छे एटले आरंभ लागी शक्तो नथी. (१६) माटे] बुद्धिमान् पुरुषे ए बधुं जाणीने जाते पृथ्वीकायनी हिंसा करवी नहि वीजा पासे करावी नहि, अने तेना करनारने रुडुं मानवू नहि. [एवी रीते जे. पृथ्वीकायनी हिंसाने अहित करनारी समजीने त्याग करे तेज मुनि जाणवो; एम हुँ कहुंझु. [१७] PMTRA Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) अणेगरूवे पाणे विहिराइ । [२३] से बेमि, संति पाणा उदयनिस्सिया जीवा अणेगे । इह खलुभो अणगाराणं उदयं जीवा वियाहिया । सत्थं चेत्थ अणुवीइ पास | पुढो सत्थं पवेदितं । [२४] अदुवा अदिन्नादाणं । [२५] “कप्पति णे कप्पति णे पाउं, अदुश विरुसाए, " पुढोसत्थे हिं विउद्वंति ४ एत्थवि तेसिं णा णिकरणाएं । [२६] एत्थ सत्यं समारंभमाणस्स इन्वेते आरंभा अपरिणाया भवति । आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर, १ व्याख्याताः २ अनुविर्दित्य ३ [ इत्युक्ला इतिशेषः ] ४ व्या वर्त्तयति [ व्यपरोपयति] ५ निकरणाय [निश्चयाय ] [आगम इतिशेषः ] सा जीवाने मार्पा करे छे. [२३] हवे हुं हुं हुं के पाणीना साधे तेमां वीजा अनेक प्राणियों-जीची रहेला छे. पण जैनआर तो, ए पाणी जाते पण सजीव छे, एम साधुओने जगावेलें छे. [माटे साधुओर अचित्त पाणी वापर, ते अचित पाणी स्वभावे पण धाय छे अने शस्त्रना संयोगे पण थाय छे, तेनां साबुओए शत्रुना संयोगयी अचित्त थलुं पाणी वापर. ] ते शस्त्रो अनेक प्रकारना कहेला छे. गाटे ते पोते विचारी लेवां॰ [२४] वी सचित पाणी वापरतो असादाननो दोप पण लागे छे. [ कारण के सचित एक परपरिगृहीत वस्तु छे अने ते तदंतर्गत जीवोनी रजा न होवा छतां वापर्याथी अदत्तादान लांगेन. ] [२५] केटलाक बोले छे के अमारे पीवा माटे अथवा स्नानशोभा याटे पाणी वापरवामां कशो दोप नयी, अने एम कही तेओ अनेक प्रकारे तेनी हिंसा करे छे. पण ए तेमनुं वोलं टकी शके तेवं नयी. [ कारण के तेज पाणीने अजीव कहे छे ते असिद्ध वात छे] [२६] पाणीनी हिंसा करनारने तैनाथी लागता आरंभोनी शुद्ध समज नबी १ तेनी अंदर रहेला. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " अध्ययन पेहेलु. [११] एत्थ सत्यं असमारंभमाणस्स इन्चेते आरंभा परिणाया भवति । तं परि ण्णाय मेहावी व सयं उदयसत्थं समारंभेज्जा, वन्नेहिं उदयसत्यं सतारंभावेज्जा, उदयसत्थं समारं संतेवि अण्णे ण समणुजाणेज्जा अस्सेते उदयसत्थसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुखी परिण्णायकम्मे तिबेमि । (२७) AGO [चतुर्थ उद्देश: ] से बेमि, णेव सयं लोगं अब्भाइक्खेज्जा, णेव अत्ताणं अब्भाइदरवेज्जा । जे लोग अग्भाइक्खति, से अन्ताणं अग्भाइक्खति; जे अचाणं अब्भाइक्खति, ते लोगं अभाइक्खति । [ २८ ] होती. अने जेओ ए पाणीनी हिंसा तथा करता तेमने आरंभ बाबत शुद्ध समज छे तथा तेने को आरंभ लागतो नयी. एवं जाणीने बुद्धिमान् पुरुषे जाते पाणीनी हिंसा न करबी, बीजा पासे न कराववी, अने तेना करनारने रुडुं पण नहि मानवु एवी रीते पाणी संबंधी आरंभोनी जेने माहिती होय तेज आरंभनुं स्वरूप जाणीने तेसो त्याग करनार मुनि जाणवो एस हुं हु हुँ. [७] चोथो उद्देश. अनिकायनी हिंसानो परिहार. 1 हु कछु के लोकनो एटले अनिकायना जीवानो अपलाप न करवो अने पोताना आत्मानो पण अपलाप न करवो. जे लोकनो अपलाप करे छे ते पोताना आत्मानो अपलाप करे छे; अने जे पोताना आत्मानो अपलाप करेछे ते लोकनो अपलाप करे छे. [२८] १ नोट कलम २०० Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [?] आचारांग - मूळ तथा भाषांतर. जे दीहलोग ' सत्यस्स खेयन्ने, से असत्थस्स खेयन्ने; जे असत्थ ૧ स्स खेयन्ने, से दीहलोगसत्थस्स खेयन्ने । [२९] वीरे हिं एवं अभिभूय दिठ्ठे संजतेहिं सया जतेहिं सया अप्पम तेहिं । [३०] " जे पत्ते गुणहिए, २ से हु दंडे पच्चति । तं परिण्णाय मेहावी, इयाणिं शो, जमहं पुव्वमकासी पमादेणं । (३१) लञ्जमाणा पुढो, पास, अणगारा मोति एगे पवयमाणा ; जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं अगणिकम्मसमारंभेणं अगणिसत्यं समारंभमाणे, अण्णे अणेगुरूवे पाणे विहिंसति । (३२) १ ( दीर्घ लोकः खलु वनस्पति कायोज्ञेयः ) २ ( गुणा: अ-निगुणाः तेषुस्थितः ) जे पुरुष, दीर्घलोक अर्थात् वनस्पति तेने वाळवानुं शस्त्र जे अग्निकाय तेनुं स्वरूप जाणे छे ते संयमनुं स्वरूप जाणे छे, जे संयमनुं स्वरूप जाणे स्छे ते वनस्पतिना शस्त्ररूप अग्निकायनुं स्वरूप जाणे छे. (२९) आ वातने संयत एटले प्राणातिपातादिक पापथी अलग रहेनार अने हमेशां निर्दोषपण चारित्र पाळवायां यत्नवंत, अने अप्रमादी, एवा पराक्रमी पुरुषोए परीषादिकोने हरावी केवळज्ञान पामी साक्षात् दीठी छे. (३०), जे प्रमादी थइने अग्निसमारंभमां वर्त्या करतो होय ते जुलमगार कहेवाय छे. एवं जागीने बुद्धिमान् पुरुष विचारे छे के जे अगाउ अग्निसमारंभ क्यों छे ते हवेयी नहिं करूं. (३१) - केला शरमाता का वोले छे के अमे अणगार छीये, पण ए तेमनो फोगटनो बकवाद छे; जे माटे तेओ अनेक प्रकारे अग्निनी तथा ते साये बीजाअनेक जीवोनी हिंसा कर्या करे छे. [३२] Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन पेहेलु. तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेदिया। इमस्स चेव जीवियस्स प-. विंदणमाणणपूयणाए, जाइ मरणमोयणाए, दुक्खपडिघायहेडं, से सयमेव अगणिसत्थं समारंभति, अण्णेहिं वा अगणि सत्थं समारंभमाणे समणुजाणति। तं से अहियाए, तं से अबोहिए। [३३] __से तं संबुज्झमाणे आयाणयिं समुटाए सोच्चा भगवओ, अणगाराणं वा अंतिए ; इह मेगेसिं णायं भवति एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए। इच्चत्थं गढिए लोए; जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहिं अगणिकम्मसमारंभेणं अगणिसत्थं समारंभ साणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति।" [३४] से बेमि, संति पाणा, पुढविणिस्सिया तणणिस्सिया, पत्तमिस्सिया, कटणिस्सिया, गोमयणिस्सिया, क्यबराणिस्सिया। संति संपातिमा पाणा आहच्च संपयंति य। अगणिं च खलु पुटा एगे संघाय मावज्जति। जे १आहत्य उपत्या अहीं भगवाने स्पष्ठ रीते आज्ञा करी छे के, तेओ आ दगानीनी कीर्ति, मान, अने खानपान मोट, जन्म जरामरणथी छूटदा माटे तथा दुःखो टाळवा माटे जाते अग्निनी हिंसा करे छे, बीजा पासे करावे छे अने तेना करनारने रुडं म.ने छे. पण ते तेमने आहत अने अज्ञान वधारनार थवानु. [३३] एवं जाणीने सत् पुरुषो, भगवान अथवा तेमना साधुओ पासेथी आदरवा लायक वस्तुओ सांभळीने आदरे छे अने तेओ एवं माने छे के आग्निकायनी हिंसा ते, खरेखर, कर्म बंधनी हेतु छे, मोहनी हेतु छ, मरणनी हेतु छ, भने नर्कनी हेतु छै. पण अजाण लोको ए वावत विषे घणा मुंझाइ पडया छे. जे माटे तेओ अनेक प्रकारे अनिकायनी तथा ते साथेना बीजा जीवोनी हिंसा करता रहे छे. [३४] जे माटे हुं बतावी आपुंछ के जान, तणखला, पान, लाकडां, छाणा अने कचरो ए सर्वे साथे इस जीवो रहे छे. ते त्रस जीवो तथा वीजा ओचिंता अंदर आवी पडता संपातिमा लस जीवो ते वधा अग्नि समारंभ करतां अग्निना इता नाना जीवो.. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. तत्थ संघाय मावजंति, ते तत्थ परियाविति, जे तत्थ परियविज्जति, ते तत्थ उड्डायति। [३५] एत्थ सत्यं समारंभमागस्स इच्चेते आरंभा अपरिणाया भवति । एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवति। ३६] तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं अगणिसत्थं समारंभेज्जा, नेवन्नेहि अगणिसत्थं समारंभाविज्जा, अगणिसत्थं समारंभंतवि अन्ने न समणुजाणेज्जा । जस्सेते अगणिकम्मसमारंभा परि गाया भवंति, से हु मुणी परिणायकम्मे त्ति बेमि ।३७] पंचम उद्देश. तं जो करिस्सामि सत्ता मतिमं, अभयं विदित्ता तं जे णो करए अंदर आध्याची तेमना शरीर संकोचावा पांडे छ, परी तेओ मूळ पावी गरण पाये छ. [३५] ए रीते अग्निना समारंभमां पाप रहेला छे. माटे ते जे न करे तेने ए पाप न लागे. [३६] एवं जाणीने बुद्धिमान् पुस्पे जाते अभिनी हिंसा न करवी, वीजा पास न कराववी, अने तेना करनारने रुटुं न गान. आदी रीते जेने अग्निकाय. धावत शुद्ध माहिती होय तेज शुद्ध समजवान् मुनि जाणको एम हुँ कहूं पांचसो उद्देश. वनस्पति कायनी हिलानो परिहार.] ३ बुद्धिमान् शिष्य, जे पुरुष वनस्पतिने सजीव जाणीने मनमा विचा Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन पेहेरें. [१५] एसोवरए । एन्थोबरए २ एस अणगारेत्ति पबुच्चति । [३८] जे गुणे से आबट्टे, जे आवट्टे से गुणे । [३९] । उड्डूं अहं तिरिवं पाईणं पासमाणे रूवांइ पालइ, सुणमाणे सदाई सुणइ, उड्डू अहं तिरियं पाईगं मुच्छमाणे रूबेसु मुच्छति, सद्देसुयाबि एस लोगे वियाहिए । एत्थ अगुत्ते अणाणाए पुणे पुणो गुणासते बंकसमायारे पमत्ते अगार मासे । [४०] लज्जमाणा पुढो, पास अणगारा मोत्ति एगे पबदमाणा; जमिणं विरूवरूदेहिं सत्थेहिं दणस्सइकम्मसमारंभेणं वणस्सइसत्थं समारंभमाणे अण्णे अगरूवे पाणे विहिंसति । (४१) १ एष उपरत : आरंभात् निवृत:] २ अत्र उपरतः [नान्यत्र] रेछे के हुँ दीक्षित भइने वनस्पतिनो आरंभ नहि करु, अने एशते संयम स्वरुप जाणीने वनस्पतिनो आरंभ नही करता एवा आरंमत्यागी जैन मतमा आशक्त होय तेज अगगार बहेवाय. (३८) जे विपयो छे ते संसार के अने जे संसार छे ते विषयो छे. (३९) माणसी, उंचे नीचे अने आडी विशाओमां जाताथका रूप देखे छ सांभळता थका शब्द सांभळेछे अने शब्द व्या रुपमा आशक्त पता रहे छ. विषयो या छे.१ तेओनी जेओ सुनि थइने अशुप्त एटले विन परहेजगार रहे छे ते भगवाननी आज्ञाथी बाहेर वर्ते . तेओ वारंवार विषयोर्नु आस्वादन करता थका असंथमने आचरनार थइने प्रमादी वनी घरवास मांडी ले छे. (४०) केटलाक शरमाता थका बोलेछे के अमे अणगार छीए पण ते तेमनो फेोगटनो पकवाद छे, कारणके तेओ अनेकप्रकारना शस्त्रोथी वनस्पतिकाय तथा तेना सार्थना वीजा अनेक जीवोनी हिंसा करता रहेछे. (४१) १(Jacobi) that is called the world भावार्थ-लोकने विपे विषयो एवा छे. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 [१६] आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर. तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेदिता । इमस्स चैव जीवियस्स. परिवंदणमाणणपूयणाएजातीमरणमायणाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव वणस्सतिसत्थं समारंभइ, अण्णेहिं वा वणस्सइसत्थं समारंभावेति, अण्णे वा वणस्सइसत्थं समारंभमाणे समणुजाणति; तं से अहियाए, तं से अबोहिए । (४२) से त्तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए सोच्चा भगवओ, अणगाराणं वा अंतिए; इह मेगेसिं णायं भवति - एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए । इच्चत्थं गढ़िए लोए; जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सइकम्मसमारंभेणं वणस्सइसत्थं समारंभमाणे अन्ने अणेरूवे पाणे विहिंसति । (४३) से बेमि, इमपि १ जाइधम्मयं, एयंपिं २ जाइधम्मय; इमंपि - १ इदं ( मनुष्य शरीरं ) २ एतत् (वनस्पति शरीरं ) अहं भगवाने शुद्धरीते समजाव्युं छे के आ जींदगीनी कीर्त्ति, मान, तथा, खानपानने अर्थे, जन्म जरामरणथी छूटवामाटे, तथा दुःखो टाळवा माटे जीवो, जाते वनस्पतिनी हिंसा करे छे, वीजा पासे करावे छे, अने तेना करनारने रुडं माने छे. पण ते तेमने अहित कर्त्ता तथा अज्ञान वधारनार थवानुं. (४२) एवं जाणीने केलाएक सत्पुरूषों भगवान् अथवा तेमना साधुओं पासेथी स्वरुप सांभळीने आदरवा लायक वस्तु आदरे छे. तेवा पुरुषो एवं समजें छे के वनस्पतिनी हिंसा ए खररेवर कर्म बंधनी हेतु छे, मोहनी हेतु छे, मरणनी हेतु छे, अन नरकनी हेतु छें. तेम छतां लोक, कीर्त्त्यादिकना अर्थे विचार शून्य वनेला छे, जे माटे आ वनस्पतिकायनो विविध शस्त्रोवडे समारंभ करता थका वीजा अनेक प्राणीओनी हिंसा करता रहे. छे. (४३) . हुं (जेम सांभल्युं छे तेम) कहुंछु के वनस्पति सजीव छे केमके जेम आ आपणुं शरीर पेदा थती चीज छे तेम ए वनस्पति पण पेदा धती चीज छे; जेम Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन पेहे. . खुड्डियन्मयं, एयंपि बुद्धिधम्मयं; इमंपि चित्तमंतयं, एयपि चित्तमंतयं; इमंपि छिन्नं मिलाति, ३ एयपि छिन्नं मिलाति; इमंपि आहारगं, एयंपि आहारगं; इमंपि अणिच्चयं, एयपि अणिच्चयं; इमंपि असासय, एयपि ससासय; इमंपि वओवचइयं; एयपि चओवचइयं; इमंपि विपरिणामधस्मयं, एयंपि विपरिणामधम्मयं । (४४) एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिग्णाया भवति। एत्य सत्थं असमारंभमाणस इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति। तं परिण्णाय मेहावी व सयं वणस्सइसत्थं समारंभेज्जा, णेवण्गेहिं वणस्सइसत्यं समारंभानेज्जा, णेवण्णे वणस्सइसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा जस्सेते ३ स्लाति स्लानतांगच्छति। शरीर वधे छ तेम ए पण वधे छे; जेम शरीरमा चित्त छ तेम वनस्पतिने पणे चित छे १ जेग शरीर कपायु थकुं सूके छ तेम ए पण सूके छे; जेम शरीरने आहार खपे छ तेय एने पण आहार खपे छे; जेम शरीर अनित्य छ तेम ए पण अनित्य छै; जेम शरीर अशाश्वत एटले प्रलिक्षण बदलतुं छे तेम ए पण तेवीजे छ जेम शरीर व घटे छे तेम ए पण वधे घटे छे अने जेम शरीर अनेक विकार पामेछे तेम ए वनस्पति पण अनेक विकार पामी शके छे; माटे बनस्पति सजीव छे. (४४) ए बनस्पतिनो समारंभ करता येतो अनेक आरंभ लागेछे. जे तेनो समारंभ न करे तेने को आरंभ लागतो नथी. एवँ जाणीने बुद्धिनाल पुरुषे जाते बनरप:तिनी हिंसा न करवी, वीजा पासे न करावी, अने तेना करनारने रुडं नहि मा १जे माटे धावडी-रीमयगी विगैरे झाडानो स्वाप तथा प्रबोध करमाई मफुल्लित थर्बु जोवामां आवे केटलाक झाडो पोतानी पाडोथी निधानने वींटी राखे छे. वकुळनुं झाड दारुना कोगळा छांटवाथी फळे छे. इत्यादि ए पावतना - णा द्रष्टांतो छ. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६] आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर. तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेदिता । इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाएजातीमरणमायणाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव वणस्सतिसत्थं समारंभइ, अण्णेहिं वा वणस्सइसत्थं समारंभावेति, अण्णे वा वणस्सइसत्थं समारंभमाणे समणुजाणति; तं से अहियाए, तं से अबोहिए । (४२) से त्तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्टाए सोच्चा भगवओ, अणगाराणं वा अंतिए; इह मेगेसिं णायं भवति - एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु परए । इचत्थं गढ़िए लोए; जर्मिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणरसइकम्मसमारंभेणं बणस्सइसत्थं समारंभमाणे अन्ने अणेरूपाणे विहिंसति । (४३) से बेमि, इमपि जाइधम्मयं, एयंपिं २ जाइधम्मय; इमंपि - १ इदं ( मनुष्य शरीरं ) २ एतत् (वनस्पति शरीरं ) अहं भगवाने शुद्धरीते समजान्युं छे के आ जींदगीनी कीर्त्ति, मान, तथा, खानपानने अर्थे, जन्म जरामरणथी छूटवामाटे, तथा दुःखो टाळवा माटे जीवो, जाते वनस्पतिनी हिंसा करे छे, वीजा पासे करावे छे, अने तेनां करनारने रुडुं माने छे. पण ते तेमने अहित कर्त्ता तथा अज्ञान वधारनार थवानुं. (४२) एवं जाणीने केलाएक सत्पुरूषो भगवान् अथवा तेमना साधुओ पासे - थी स्वरुप सांभळीने आदरवा लायक वस्तु आदरे छे. तेवा पुरुषों एवं समजें छे के वनस्पतिनी हिंसा ए खररेवर कर्म बंधनी हेतु छे, मोहनी हेतु छे, मरणनी हेतु छे, अन नरकनी हेतु छे. तेम छतां लोक, कायादिकना अर्थ विचार शून्य वनेला छे, जे माटे आ वनस्पतिकायनो विविध शस्त्रोवडे समारंभ करता थका वीजा अनेक माणओनी हिंसा करता रहे. छे. (४३) 1 हूं (जेम सांभल्युं छे तेम) कहुं के वनस्पति सजीव छे केमके जेम आ आपणुं शरीर पेदा थती चीज छे तेम ए वनस्पति पण पेदा थती चीज छे; जेम Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन पेहेर्नु. . घम्सयं; इमंपि चित्तमंतयं, एयपि चित्तमंतयं; इमंपि . छिन्नं मिलाति, ३ एयपि छिन्नं मिलाति; इमंपि आहारगं, एयपि आहारग; इमंषि अणिच्चयं, एयपि अणिच्चयं; इसपि असासय, एयंपि मसासय; इमंपि चओवचइय; एयपि चओवचइयं; इमंपि विपरिणामधस्मयं, एवंपि विपरिणामधम्मयं । (४४) एत्थ सत्थं समारंममाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिग्णाया भवति। एल्थ सत्यं असमारंभमाणस इच्चेत आरंभा परिणाया भवंति। तं परिगाय मेहावी व सयं वणस्सइसत्थं समारंभेज्जा, णेवण्णेहिं वणस्सइसत्यं समारंभानेज्जा, गेवणे वणस्सइसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा जस्सेते ३ स्लाति स्लानतांगच्छति] शरीर वझे छे तेम ए पण बंधे छे जेम शरीरमा चित्त छे तेम वनस्पतिने पण चित छे; १ जेग शरीर कपायुं था सूके छ तेम ए पण सूके छे; जेम शरीरने आहार खपे छ तेय एने पण आहार खपे छे जेम शरीर अनित्य छ तेम ए एण अनित्य छ जेम शरीर अशाश्वत एटले प्रतिक्षण बदलतुं छे तेम ए पण तेवीज छै; जेम शरीर वधे घटे छे तेम ए फ्ण वधे घटे छे अने जेम शरीर अनेक विकार पामेछे तेम ए वनस्पति पण अनेक विकार पामी शके छे; पाटे बनस्पति सजीव छे. (४४) ए वनस्पतिनो समारंभ करतां थला अनेक आरंभ लागेछे. जे तेनो समारंभ न करे तेने को आरंभ लागतो नथी. एवँ जाणीने बुद्धिनान पुरुपे जाते वनरपः तिनी हिंसा न करवी, वीजा पासे न कराववी, अने तेना करनारने रुईं नहि मा १ जे माटे धावडी-रीसमगी विगैरे झाानो स्वाप तथा प्रबोध करमार्नु प्रफुल्लित थq जोवामां आवे केटलाक झाडो पोतानी पाडोयी निधानने वींटी राखे छे. वकुळतुं झाड दारुना कोगळा छांटवाथी फळे छे. इत्यादि ए पावतना - णा द्रष्टांतो छ. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळ तथा थापान्तर - से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुठ्ठाए सोच्चा भगवओ, अणगाराणं वा अंतिए; इह मेगेसिं णायं भवइ-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए । इच्चत्थं गढिए लोए; जमिणं विरुवरूवेहिं तसकायसमारंभेण तसकायसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति । (५१) से बेमि-अप्पेगे अच्चाए हणंति, अप्पेगे अजिणाए वहति, अप्पेगे मंसाए वहति, अप्पेगे सोणिताए वहांत, अप्पेगे हिययाए वहंति, एवं पित्ताए, वसाए, पिच्छाए, पुच्छाए वालाए, सिंगाए, विसाणाए, दंताए, दाढाए, नहाए, हारुणाए, अडीए, अट्टिमिंजाए, अट्टाए, अणटाए, अप्पेगे हिंसिसु नेत्ति वा वहंति, अप्पेगे हिंसंति मेत्ति वा वहति, अप्पेगे १ अर्चार्थ [शरीरार्थ एक जागाने भगवान अथवा तेमना मुनिओ पासेथी तत्व सांभळीने आदरणीय वस्तुने ग्रहण करनारा पुरुषो एवं जाणता रहे छे के ए त्रसकायनी हिंसा खरेखर कर्म बंधनी हेतु छे, मोहनी हेतु छे, मरणनी हेतु छ, तथा नरकनी हेतु छे, तेम छतां लाको विषयगृद्ध वनेला छे, जेथी तओ विचित्र आरंभाथी त्रस जीवो तया तेना संबंधे रहेल स्थावर जीवोनी हिंसा करता रहे छे. (५१) (त्रस जीवोनी हिंसाना हेतुओ.) केटलाएक लोको जानवरोना शरीरनो भोग आपवा माटे तेने मारे छे. केटलपरक तेना चामडा माटे मारे छे. केटलाएक तैना मांस मटे मारे छे. एम केटलाएक लोहीना याटे, केटलाएक हृदयना माटे, केटलाएक पित्त माटे, वसाओ। पाटे, पीछ माटे, पूंछडी माटे, वाळ माटे, शीगडा माटे, दाढाओ माटे, नख माटे, नाडीओ माटे, हाडला माटे, चरवी माटे, एम अनेक स्वार्थो माटे तेने मोर छे. केटलारक नियोजन मात्र गन्नत खातर जीव हिंसा करे छे. केटलाएक "आपणने एणे माई हतु" एy विचारीने तेने मारे छे. केटलाएक "आपणने ए मारे छे" शरिना अंदरनी रगो जे रू पीजबाना मजबूत तांतणा तरीके वपराय छे लेमना माटे. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन हेर्नु ' [२१] हिंसिरसंति मत्ति वा वहति । ५२ एत्थ सत्यं समारंभमाणस्स इन्चेते आरंभा अपरिण्णाया मवंति। एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इन्चेते आरंभा परिणाया भवति । [५३] तं परिणाय मेहावी णेब सर्य तसकायसत्थं समारंभेज्जा, णेवण्णेहिं तसकायसत्थं समारंभावेज्जा, णेवण्णे तसकायसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा, जस्से ते तसकायसस्थसमारंभा परिणाया भवंति से हु सुणी परिणाय कम्मे ति बेमि । [५४] -Sare [सप्तम उद्देशः] पहू एजस्स२ दुगंछणाए' आयंकदंसी अहियं-ति नचा । २ [एजः कंपमानः सचवायुः] ३ [आसेवन परिहारे ] एम धारी तेने पारे छ भने केटलाएक "आपणने ए मारशे" एम विचारी लेने मारे छे. (५२) ए उसकायनो समारंभ करता अनेक आरंभ लागे छै अने तेनु रक्षण करता कशो आरंभ लागतो नयी. (६३) . एम जाणी बुद्धिमान् पुरुषे जाते त्रस जीवोनी हिंसा न करवी, वीजा पासे न कराववी, तथा करनारने अनुमति पण नहि आपवी. जेणे ए रीते सकायनी हिंसा अहितकत्तो जागी त्यक्त करी होय तेज मुनि जाणवा, एम ९ कहुंछं. (५४) सातमो उद्देश. (वायुकायनी हिंसानो परिहार) जे हिंसाने अहित करनारी जाणी, वायुकायनी हिंसाने दुःस्व देवारी नाणे Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाण्इ; जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ । एयं तुल-मन्नेसि । इह सतिगया दविया १ णावखंति जीविउ । (५५) लज्जमाणा पुढो, पास, “अणगारा मोति" एगे पवयमाणा; जमिणं विरूववेहि सत्येहिं वाउकामसमारंभेणं वाउसत्थं समारंभमाणे अण्ठे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ । (५६) . . ___तत्थ खलु भगवयां परिणा पवेइया । इमस्सचेव जीवियस्स परिवंदणमाणणप्यणाए, आइमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेडं, से सयदेव वाउसत्थं समारंभति, अन्नेहिं वाउसत्यं समारंभावेति, अन्ने वा वाउसत्यं समारंभंते समणुजाणति; तं से अहियाए, तं से अबोहिए। १ [द्रयः संयम स्तद्वतः] २ [ वायु कायोपमर्दैन इति शेषः], छे ते तेनी हिंसानो परिहार करी शके छे. जे आत्मनी अंदरनी वातने जाणे छे वे बाहेरनी वात (पण) जाणे छे, ने जे बाहेरनी वात जाणे छे ते अंदरनी वातने (पण) जागे छे. ए वे वात सरखी रहेली छे एम समजबु. माटे अहीं जे शांतिमां. मन संयमि पुरुषो होय छे तेओ (वायुकायनी हिंसावडे) जीवदाने नथी चाहता. (५५), हिंसाथी शरमाता केटलाएक वोले छे के “अमे अणगार छीए," पण ते लेमनुं बोलवू व्यर्थ छ केमके जुओ, तेओ विचित्र शस्त्रोथी वायुकाय तथा अन्य अनेक जीवोनी हिंसा करता रहे छे. [५६] । आ स्थळे भगवाने सरस रीते समजण आपेली छे के लोको आ क्षणिक जींदगीना, कीर्ति, मान, तथा उदर निर्वाहार्ये, जन्म मरणथी मुफ्त थवा माटे, तथा दुःखने दूर करवा माटे जाते वायुकायनी हिंसा करे छे, वीजा पासे करावे छे, अने करनारने रुडं माने छे. पण ए प्रवृत्ति तेने अंते अहितकर्ता तथा अज्ञान वधारनार थवानी. (५७) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन पेहेलं [२३] से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्टाए सोचा भगवओ, अणगाराणं वा अंतिए; इह मेगेसिं णायं भवति - एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए । इच्चत्थं गढिए लाए; जमिणं विरूवरूवेहिं सत्येहिं वाउकम्मसमारंभेणं बाउसत्यं समारंभमाणे अन्ने अगरूवे पाणे विहिंसति (५८) से बेमि- संति संपाइसा पाणा आहच्च संपयति य । फरि च खलु पुडा एगे संघाय मावज्जति । जे तत्थ संघाय मावज्जंति, ते तत्थ परियांविज्जंति, जे तत्थ परियाविज्वंति से तत्थ उड्डायंति । [ ५९ ] एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति एत्थं सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति । [ ६०] तं परिणाय मेहावी व सयं वाडेसत्थं समारंभेज्जा, णेवन्नेहिं वाउसत्थं समारंभावेज्जा, वन्ने वाउसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा । जरसेते वाउसत्यसमारंभा परिष्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मेत्ति बेमि । [६१] एम जाणीने जेओ भगवान् अथवा तेमना मुनिओ पासथी तत्वज्ञान पामी - आदरणीय वस्तु अंगीकार करे छे तेओ जाणता रहे छे के ए वायुकायनी हिंसा, कर्मबंध - मोह मरण - तथा नरकनी हेतु छे. एम छतां लोको विषयगृद्ध यह ते चायुकायने विविध आरंभी जाते मारे छे, वीजा पासे मरावे छे, अने मारनारने अनुमति करे छे. [ ५८ ] हुँ कहुंलुं के ए वायुकायनी साधे पण संपातिम जीवो छे. तेओ एकटा थई वायुनी अंदर पडे छे. अने वायुनी हिंसा करतां ते पण पीडाय छे. [ ५९ ] माटे वायुकायनी हिंसा करतां अनेक आरंभ लागे छे अने तेनी हिंसानो परिहार करतां को आरंभ लागतो नथी. [ ६०] एम जाणी बुद्धिमान् पुरुषे जाते वायुकायनी हिंसा न करवी वीजा पासेथी न करावी, अने करनारने रुडं पण नहि मानवं. ए रीते जेने वायुकाय संबंधी समारंभनी खरी समज होय तेज हिंसापरिहार करनार मुनि जाणवो. (६१) 4 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४] आचारांग-मूळ तथा भाषांतर. एत्थंपि जाण उवादीयमाणा, जे आयारे न रमंति, आरममाणा विणयं वयंति, छंदोवणीया, अझोववण्णा. आरंभसत्ता पकरेंति संग। (६२) से वसुमं सव्वसमण्णागयपण्णाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्जं पावकम्मं णो अन्नेसि । (६३) तं परिणाय मेहावी णेब सयं छज्जीवणिकायसत्यं समारंभेज्जा, णेबन्नेहिं छज्जीवणिकायसत्थं समारंभावेज्जा, णेवन्ने छज्जीवणियसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा, । जस्सेते छज्जीवणिकाय सस्थसमारंभा परिणाया भवति, से हु मुणी परिण्णायकम्मत्ति बेमि । [६४] 3 - - - - - - उपसंहार. जेओ आवा आचारमा नथी रमता, अने आरंभ करता थका पण "अगार संयम छे" एम वोले छे, तथा स्वेच्छाचारी थइ आरंभमां तल्लीन थइ रहे छे तेओ आठे कर्म बांधे छे. (६२) ___ माटे संयमी पुरुषे सर्व रीते समजवाल थइने न करवा लायक पाप कर्मने कदापि नहि इच्छवू. (६२) एम जागीने बुद्धिमान् पुरुषे जाते छकायनी हिंसा न करवी, वीजा पासे न कराववी, अने तेना करनारने हा पण नहि मानवा. ए रीते जेने ए छकायना. आरंभनी पूर्ण माहिती होय तेज आरंथत्यागी मुनि जाणवो. (६४) LCOMES Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i अध्ययन बीजं. लोकविजय नामकं द्वितीयमध्ययनम् [२५] [ प्रथम उद्देशः ] जे गुणे, १ से मूलट्ठाणे । जे मूलट्ठाणे, से गुणे । इति से गुणट्टी महता परियावेणं वसे पमत्ते, तंजहा - माया मे, पिया मे, भाया मे, भइणी मे, भज्जा मे, पुत्ता मे, धूया मे, सुन्हा मे, सहि-सयण - संगंथ - संथया मे, विवित्तोवगरण - परियट्टण - भोयणच्छायणं मे, इच्चत्थं गढिए लोए वसे/ पमत्ते । (६५) [ गुणाः विषयाः ] २ (मूलं संसारस्तस्य स्थानं कारणं) ३ ( स्वजनस्यापि वजन: ) ४ द्विगुणत्रिगुणी करणं परिवर्त्तनं अध्ययन बीजूं. लोकविजय. पहेलो उद्देश. ( मातपिता वगेरे लोकने जीती संयम पाळवो. ) जे विषयो छे ते संसारना हेतु छ, अने जे संसारना हेतु छे ते विषयो छे. माटे विपयार्थी होय छे ते प्रमादी वनी बहु दुःख पामता रहे छे. ते ए रीते के, मारी मा, मारो बाप, मारो भाइ, मारी वेन, मारी स्त्री, मारा पुत्रो, मारी पुत्री, मारा मित्र, मारा सग, मारा संबंधि, मारा साधनो, मारी दोलत, मारुं खानपान, अने मारां वस्त्र एवी अनेक पंचातोमा फसी पडेला लोको मरणपर्यंत गाफल यह आरंभ करता रहे छे. (६५) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. ___अहोय राओ परियप्पमाणे, कालाकालसमुहाई, संजोगट्टी, अट्टालोगी आलुपे, सहसाकारे, विणिविद्वचित्ते एत्थ, सत्थे पुणो पुणो १ [६६] अप्पं च खलु आउयं इह मेगेसिं माणवाणं; तंजहा सायपरिण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं, चक्खुपरिणाणेहिं परिहायमाणेहि घाणपरिणाणेहिं परिहायमाणेहिं, रसणपरिण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं, फासपरिणाणेहिं परिहायमाणेहिं, अभिकंतं च खलु वयं संपेहाए, तओ से एगया मूढभावं जणयति। (६७) - जेहिं वा सद्धि संवसति, तेविणं एगया णियगा पुव्वं परिव्वयंति।। सो का ते णियगे पच्छा परिवएज्जा । णालं ते तव ताणाए वा, सरणाए 'वा। तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा, सरणाए वा । से ण हासाए, ण किड्डाए, ण रतीए, ण विभूसाए। (६८) १ प्रवर्तत इतिशेषः तथा तेना माटे रात दिवस चिंता करता थका, काळ अकाळनी कशी पण दरकार नहिं धरतां, कुटुंब परिवार तथा धनमां लुब्ध वली, विषयमांज चित्त धरता थका निर्भयपणे टूटफाट मचाववा. मंडी पडे छे अने अनेक प्रकारे छकायनी हिंसा करता फरे छे. [६६] मनुष्यर्नु आयु घणुं ढूंकुं छे. तैना दरम्यान जरा आवतां श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना अने स्पर्शेद्रियतुं ज्ञान घटतुं जाय छे. वृद्धावस्था जोइने ते वरखते ते प्राणी दिग्मूढ घनी जाय छे. [६७] वळी जैनी साथे ते वसे छे तेज वृद्धावस्थायां तेनी निंदा करवा मांडे छे, अथवा ते पोते पोताना कुटुंविओने निंदवा मंडे छे. माटे हे जीव, ते कुटुंव तने वचावनार के आश्रय आपवा समर्थ नथीं. एम दृद्धावस्थामा हास्य, क्रीडा, मोजशोख अने शणगार ए सर्वने माटे पुरुप अयोग्य दने छे. [६८] Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन वीर्जु. . [२७] इच्चेवं समुट्टिए अहोविहाराए.१ अंतर २ च खलु इमं संपेहाए धीरो मुहुत्तमपि णो पमायए । वओ अच्चेइ जोवणं च । ६९] जीविए इह जे पमत्ता । से हंता, छेत्ता, भेत्ता, लुपित्ता, विलुपिता, उद्दवेता, उत्तासइना, अकडं करिस्सामित्ति महशमाणे । (७०) जेहिं वा सद्धिं संवसति ते वा णं एगया णियगा पुर्वि पोरांति, सो वा ते णियगे पच्छा पोरोज्जा । णालं ते तब ताणाए वा, सरणाए वा । तुमंपि तेसिं णालं ताणाए वा, सरणाए वा ।।७१] उवादियसेसेण वा संणिहिंसंणियओ कज्जति इह-मेगेसिं असंजता णं भोयगाए । तओ से एगया रोगसमुप्पाया समुप्पज्जति । (७२) । जेहिं वा सहि संवसति ते वा णं एगया णिगया पुर्यि परिहरंति __ १ (यथोक्तसंयमानुष्टालाय) २ (अवसरं) ३ (उपभुक्तशेषणेत्यर्थः ) एम जाणी बुद्धिमान् पुरुष आ अवसर पामीन संयम माटे तरत उज्माल थाय छे अने घडीभर पण प्रमाद करतो नथी. जे माटे वय अने यौवन धसाराबंध चाल्या जाय छे. (६९) - जेओ तेम नथी जाणता तेओ असंयमयी जीववामा गाफल थइ रहे छे. अने तेओ सर्वथी अधिकता मेळववा माटे छकायने मारता, कापता, फोडता, लूंटता, झुंटता, प्राणरहित करता तथा त्रास आपता रहे छे. (७०) (पण जो तेनुं नशीव मंद होय छे तो कशुं मळी शकतुं नथी) तेथी तेओ कुटुंवर्नु पोपण करवाने वदले पोते कुटुंबधी पोपाय छे, अथवा (कदाच तेओने कई धन प्राप्ति थतां) तेओ कुटुंबतुं पोषण करे छे पण (अंते) तेओमांना कोई कोइने वचावी शकनार नथी. तेम ते पण तेमने बचावी शकनार नथी. (७१) __ केटलाएक असंयतिओ वचेला आहारने वीजा दिवसे रखावाना माटे राखी मेले छे. पण तेमना शरीरे तेथी कोइ वेळा अनेक रोगो उत्पन्न थाय छे. [७२] अने त्यारे तेतां सगां स्नेही वधा लांबा थइ वेसे छ। कोइ पण वचावी. नो त्याग करे छे. कलम ७१. नी छेली लीटर्टी प्रमाणे समजी लेबु.. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर, सो वा ते णियगे पच्छा परिहरज्जा । णालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा, तुमंपि तेसिं णालं ताणाए वा, सरणाए वा । (७३) एवं जाणि-तु दुक्खं पत्तेयं सायं, अणभिकंतं च खलु वयं सपेहाए, खणं जाणाहि पंडिए [७४] जाव सोयपण्णाणा अपरिहीणा, जाव णेत्तपण्णाणा अपरिहीणा, आव घाणपण्णाणा अपरिहीणा, जाव जीहपण्णाणा अपरिहीणा, जाव फासपण्णाणा अपरिहीणा, इच्चेतेहिं विरूवरूवेहिं पन्नाणेहिं अपरिहीणेहिं आय, सम्मं समणुवासेज्जसित्ति बेमि । [७५] द्वितीय उद्देशः] अरई आउटे से मेहावी ; खणसि मुक्के । [७६] . १ (अवसरं) २ आवर्तत (निवर्तयेत् ) शकतो नथी. तेम हे असंयतिओ तमे पण तेमनाथी मोडा के वहेला लोवा यइ वेसनार छो, ने तेमने बचावी शकनार नथी. [७३] ए रीते दरेक जीवना सुख दुःख जूदा जूदा सहेवानां जाणीने तथा हजु पोतानी वय कायम रहेली जाणीने हे पंडित आ अवसर ओळख. (७४) ज्यां लगी श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना, तथा स्पर्शद्रियनी विज्ञान शक्ति मंद नथी पडी तेना दरम्यान तुं तारुं आत्मार्थ सिद्ध करी ले. [७] बीजी उद्देश. [अरति टाळी संयममा दृढ रहेई ] बुद्धिमान पुरुषे संयममा अरति थवी दूर करवी, एम कर्यायी धणाज अल्पकाले मुक्त यवाय छे. (७६) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ /२९ अध्ययन वीर्जु. अणाणाए पुठ्ठावि एगे णियति मंदा मोहेण पाउडा । [७७] “अपरिग्गहा भविस्सामो” समुद्राए लढे कामे अभिगाहेति, अणाणाऐ मुणिणो, पडिलेहंति, एत्थं मोहे पुणो पुणो सण्णा, णो, पाराएं । (७८) विमुत्ता हु ते जणा, जे जणा परिगामिणो लोभं अलोभेण दुर्गछमाणे लद्धे कामे णाभिगाहइ, विणावि लोभ निक्खम्म एस अकम्मे जाणति पासति । पडिलेहाऐ णावकंखति, एस अणगारेत्ति वुच्चति । (७९) अहोयराओ परितप्पमाणे, कालाकालसमुद्राश, संजोगट्टी, अट्टालोभी आलुपे, सहसाकारे, विणिविट्टचित्ते एत्थ, सत्थे पुणो पुणो । (८०) १ प्रावृताः अज्ञानी मूढ जीवो परीसह के उपसर्ग आवतां भाज्ञाथी बाहेर थइ संयमथी भ्रष्ट थता रहे छे. [७७] “अमे अपरिग्रहीज छोए " एम वोली केटलाएक दीक्षित थया थका पण आज्ञाधी बाहेर थइ मुनिना वेपने लजवता थका मळता काम सेवता रहे छे तथा ते भेळववाना उपयोगमां मच्या रही वारंवार मोहमां वुड्या रहे छे तेओ नथी आ पार, के नथी पेले पार. १ [७८] खरेखर तेज पुरुषो विमुक्त २ जाणवा जेओ संयमने सदा पाळता रहे छे. जे पुरुष निर्लोय थइ लोभने धिकारी कहाडी मळता कामभोगने इच्छे नहि, अथवा जे मूळीज लोभने निर्मूळ करी दीक्षित थाय ते कर्मरहित बनी सर्वज्ञ सर्वदर्शी थाय माटे एम विचारीने जे लोभने इच्छे नहि ते अणगार कहेवाय छे.(७९) ___अज्ञानी जीवो रात दीवस दुःखी थता थका, काळ अकाळनी दरकार नहि धरता, स्त्री अने धनना लोभी वनी वगर विचारे वारंवार अनेक आरंभ करता रहे छे. [८०] १ एटले के नधी मुनी अने नथी गृहस्थ. २ त्यागी. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळ तथा भापान्तर. से आय बले १, से णाइबले २, से सयणबले ३, से मित्तबले ४, से पेच्चबले ५, से देवबले ६, से रायबले ७, से चोरबले ८, से अतिहिबले ९, से किवणबले १०, से समणबले ११, इच्चेतेहिं विरूवरूवेहि कन्जेहिं दंडसमायाणं संपेहाए भया कज्जति । पायमोक्खोत्ति मण्णमाणे । अदुवा आसंसाए । (८१) तं परिन्नाय मेहावी, गेव सयं एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभेज्जा, णेव्वणं एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभाविजा, एएहि कज्जेहिं दंडं समारभंतेवि अन्ने णो समणुजाणेज्जा । (८२) एस मग्गे आरिएहिं पवेदिए । जहेत्य कुसले गोबलिपिज्जासित्ति बेमि । (८३) आत्मबला). २असकृत् (पुनः पुनः) . 1 आत्मवळ, १ जातिवळ, स्वजनवळ, मित्रवळ, प्रेत्यवळ,र देववळ, राजवळ, चोरवळ. 3 अतिथिवळ, कृपणवळ, ४ तथा श्रमणवळनी प्राप्ति माटे अथवा पापक्षयना माटे अथवा आगंसाथी ५ लोको अनेक आरभयां प्रवचे छे. (८१) माटे बुद्धिमान् पुरुषे ए कामो माटे जाते पण हिंसा नहि करवी, वीजा पासे पण हिंसा नहि करावदी, अने करनारने पण रुडु नहि मान. [८२] ए मार्ग आर्योए (तीर्थंकरोए) वतान्यो छे. माटे चतुर पुरुषोए जेम पोतानो आत्मा कर्मथी न लेपाय तेम वर्त. [८३] शरीर वळ. २ भवांतर जतां यतुं वळ. ३ चोरो मने मदद आपशे ते. ४ भिक्षुकतुं वळ मने थशे. ५ भवांतरमां ते वस्तु. मळवानी इच्छाथी. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन वार्जु. [तृतीय उद्देश : ] से असई' उच्चगोए, असई णीयागोए । गोहीणे णो अतिरित्ते, णो पीए इतिसंखाए के गोयावादी, के माणावादी, कांस वा एगे गिज्झे । (८४) [३१] 3 तम्हा पंडिए णो हरिसे, णो कुप्पे, भूएहिं जाण, पाडलेह सातं समिते एयाणुपस्सी तंजहा - अंधत्तं, बहिरतं, सूयत्तं, काणत्तं, कुंटतं, खूज्जत्तं', वडहत्तं, सामत्तं, सबलत्तं, सहपमाएणं अणेगरूवाओ जोणीओ संधाति, विरूवरूवे फासे पडिसंवेदेइ । [ ८५] से अबुज्झमाणे हतोवहते जाइमरणमणुपरिमाणे । (८६) १ असकृत् [ पुनः पुनः ] २ गृद्धयेत. ३ एतदनुदर्शी ४ कुब्जत्वं. त्रीजो उद्देश. ( मानने टाळवं तथा भोगमां रक्त न थवं ) जीव घणीवार ऊंच गोत्रमां १ ऊपजेलो छे. अने घणीवार नीचगोत्रमां ऊ पजेलो छे. एमां कशी' न्यूनता के अधिकता नथी. माटे कोइ पण जातानो गर्व नहि करवो. आवुं समजतां कोण पोताना गोत्रनो गर्व करशे अथवा मान धरशे अ थवा गृद्ध थशे ? [ ८४ ] माटे बुद्धिमान पुरुषे हर्ष के रोष नहि करवो. वधा जीवाने सुख मिय छे एम जाणी समितिवंत थह विचारखं. आ प्रमाणे जीव पोताना प्रमादयीज अांधळापणं, बहेरापणं, मुंगापणं, ढुंठापणं, कुबडापणुं, वांकापणुं, काळापणं, तथा कावरापं [ विगेरे ] पामे छे, अनेक योनियोमां जन्म धरे छे अने भयंकर दुःखो वेठे छे. [८५] अजाण जीव रागथी ग्रस्त तथा अपयशंवत थयो धको जन्म मरणमा फसतो रहे छे. [८६] २ ऊंच कुळमां. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. जीवियं पुढो पियं इह मेगेसिं माणवाणं खेत्तवत्थुममाया माणाणं । [८७] आरतं, विरत्तं, मणिकुंडलं, सहहिरण्णेण इत्थियाओ परिगिज्झ तत्येव रत्ता । (८८) । “ण इत्थं तपो वा, दमो वा, णियमोवा, दिस्सति ” संपुण्णं बाले जीविउकामे लालप्पमाणे मुढे विप्परियास-मुवेति । (८९) इणमेव णावकंखंति, जे जणा धुवचारिणो; जातीमरणं परिन्नाय चरे संकमणे दढे । (९०) णत्थि कालस्सणागमो । (९१) सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया, दुक्खपडिकूला, अप्पियवहा, पियजीविणो, जीविउ कामा । (९२) सव्वेसिं जीवियं पियं । [९३] क्षेत्र तथा वस्तुमा ममत्वान् दरेक प्राणिने जीवबुं घणुं प्रिय लागे छे. (८७) [तेवा वाळजीवो] रंगवेरंगी वस्त्र, मणि, आभरण, हिरण्य, अने स्वीओ पामीने तेमांज आसक्त थइ रहे छे. (८८) एवा संपूर्ण वाळ अने मूढ वनेला जीवो विपर्यास पामीने निर्भयपणे जीववा चहाता थका आ रीते वके छे के, “ आ जगतमा यम के नियमकशा कामना नथी." [८९] पण जे पुरुषो आचारवंत छे तेओ तेम जीववा नथी चहाता. तेओ तो जन्म मरण थता जाणी संयम पाळवामां ज उज्माल रहे छे, [९०] मोतनो कंइ भरोसो नथी. (९१) वधा जीवो लांची आवरदाने तथा सुखने चाहे छे, अने जीववा मागे •छे मरण अने दुःख वधाने अप्रिय लागे छे. [९२] जीवg वधाने प्रिय लागे छे. (९३) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन वी. ___ तं परिगिझ दुपयं चउप्पयं अभिमुंजिया णं, संसंचिया णं, ति धेिण जावि तस्थ मत्ता भवइ अप्पा वा बहुगा वा, से तत्थ गढिए चिइ, भोयणाए [९४] तओ से एगया विविहं परिसिटुं संभूयं महोवगरणं भवति । तंपि से एगया दायादा विभयंति, अदत्ताहारा वा से अपहरंति, रायाणो वा से विलुपंति, णस्सति वा से, विणस्सति वा से, अगारदाहेण वा से दझ इति से परस्सद्वाएं कूराई कम्माइं बाले पकुव्बमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेति । [९६ मुणिणा हु एवं पवेइयं । [९७] अणोहतरा ? एते, णय ओहं तरित्तए । अतीरंगमा एते, णय ती १ (ओघः कर्मरूप: प्रवाह स्तं न तरंतीत्यनोधतराः) जीव प्रिय होवाथी जे लोको द्विपद तथा चतुष्पदने राखीने द्रव्य संचय करता थका जे कंइ थोडं के घणुं खावा पीवा माटे धन एकटुं करछे तेमां मन वचन कायाथी गृद्ध थता रहे छे. [९४] वखते तेमना पासे घणोज वधतो द्रव्य मंडोळ एकठो थइ जाय छे. पण अंते तेने भायातो वेहेंचे छे, अथवा चोरी चोरी जाय छे, या राजा लुटी ले छे, या व्यापार विगेरेमां नाश थाय छ, या आग्निथी वळी जाय छे. (९५) एम वीजाओना माटे ते अज्ञान प्राणीओ कृर कर्म करता थका तेना दुःख जाते भागवतां विपर्यास पामे छ. [९६] आ वधुं अनिए (वीर मभुए) जणादेलु छ. [९७] परतीर्थिओ के पासत्याओर संसारनो प्रवाह तरे। शकवाना नथी, तथा ? सुख इच्छता थका दुःख पामे छे. २ नवळा आचारवाळा वेशधारिओ. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळ तथा भाषांतर. गमित्तए । अपारंगमा एते, णय पारं गमित्तए । [९८] आयाणिज्जं च आयाय, तंमि ठाणे ण चिटइ, वितथं पप्पऽखेन्यन्ने, तमि ठागमि २ चिट्टइ । (९९) __उदेसो ३ पासगस्स पत्थि । (१००) बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे असमितदुक्खें दुक्खाणमेव आवर्ट अणुपंरियट्टत्ति बेमि । १०१ - -- चतुर्थ उद्देश : ततो से एगया रोगसमुप्पाया समुप्पज्जति । १०२ १ ( संयम रुपे) २ [असंयमरुपे] ३ [आज्ञा] ४ स्निह: रागी] तेना तीर के पारने पामी शकवाना नथी. (९८) जेओ संयम लइ पाछा संयममां नथी रही शकता ते अजाण जीवो असत्य उपदेश पामीने असंयममा रहे छे. [९९] तत्व समजनारने कंइ कहेवू जरुरतुं नथी. (कारण के ते समजु होवायी पोते सीधे मार्गे चाल्यो जाय छ (१००) पण जे वाळ होय छे ते विषयोमा रक्त बनी तेमने सेवन करतो थको दुःखो वधारीने दुःखोनाज चक्रमां रखडे छे. (१०१) चोथो उद्देशः [भोगोथा रोगो थाय छ.] पछी। तेने कर्म उदय आवतां रागो उत्पन्न थाय छे, (१०२) १ कामभोगयी कर्मबंध, फर्मवंधथी मरण, मरणथी नरक, नरकथी गर्भ ने गर्भधी रोग थाय छे. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३५] - अध्ययन वीजुं. जेहिं वा सहि संवसति, ते वाणं एगया भियगा पुबि परिवयंति। सो वा ते णियगे पच्छा परिवएज्जा । गालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा। तुमंपि तेसिं णालं ताणाए वा सरणाए वा । (१०३), जाणि-तु दुक्खं पत्तेयं सायं । (१०४) भोगामेव अणुतोयंति-इह मेगेसि माणवाणं, तिविहेण, जावि से तत्थ मत्ता भवइ, अप्पा वा, बहुगावा, से तत्थ गढिए चिट्ठति ! भोयणाए। (१०५) ततो से एगया विपरिसि, संभूयं महोवगरणं भवति । तंपिं से एगया दायाया विभयंति, अदत्ताहारे वा से हरति, रायाणो वा से विलुपंति, णतइ वा से, विणसइ वा से, आगारदाहेण वा से डझति।(१०६) इति से परस्स अगाए कूराणि कम्माणि बाले पकुबमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेति । (१०७) एवे वखते तेना स्नेहिओ तेने अवगणे छ या ते तेओने अवगणे छे कारण के कोइ कोइने राखनार नथी. (१०३) दुःख सुख सब जूदा जूदा भोगवे छे. (१०४) । आ जानमा केलाएक जीव मरण ली पग भोगनीज वांछा धरता रहे छे. तेपाओने जे कंद थोडी के घगी धन पास थाय छे ते खावा पावा माटे तेगा मन वचन कायाधी गृद्ध घइ जाय छे. (१०५) कदाच बहु धन मळे छे तो अंते ते धन भायातो बचे छे,,या चोरो चोरी जाय छे. या राजाओ लूंग ले छे या व्यापारमा नाश पामे छे, या अग्मियी बळी जाय छे. (१०६) ए रीते ते अज्ञानी जीवो वीजाना माटे कर कर्म करता थका तेना दुःखो जाते भागवतां मुख इच्छता दुःखमां पडे छे. [१०७] १ जेमके. ब्रह्मदत केमके ते. मरणनी अपर तथा नरकमां पण "कुस्मती. कुरुमतीज पाकारतो. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) (११३) आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर, आसं च छंदं च विचि धीरे । (१०८) तुमं चैव तं शलमाहॣ ' । (१०९) जे सिया, तेण णो सिया । ( ११० ) इणमेव गावबुज्झति, जे जणा मोहपाउडा | (१११) थीलोभपव्यहिए ते भो वयंति " एयाई आयतंगाई " । (११२) से दुक्खाए, मोहाए, माराए, णहगाए, णरगति रक्खाए । (११५) सततं मूडे धम्मं णाभिजाणति । ( ११४) उदाहु वीरे | अप्पमादो महामोहे | ( ११५ ) ૧ आहृत्य ( स्व/कृत्य ) (अशुभ मादत्से इतिशेषः ) हे धीर पुरुषोतमारे विवयनी आशा अने 'लालचयी दूर रहेहुँ. (१०८) तमे जातेज ते आशारुप शल्य हृदयमां घरी हाथे करी दुःखी थाओ, छो. [१०९] पैशाची भोगोपभोग मळे छे, तेम वखते नहि पण मळे. [११०] पण मोहवंत प्राणिओ ए समजी शकता नथी. [१११] स्त्रीओम आसक्त था थका तेओ बोलछे के “ए स्त्रीओज सुखनी स्थान, है." [११२] पण खरुं जोतां ते! तेओ दुःख, मोह, मरण, नरक, अने तिर्यच गतिना हेतुभूत छे. [११३] छतां हमेशां मूढ वनेला जीवो धर्म जाणी शकता नथी. [११४] वीर प्रभुर मजबुताइथी कांछे के स्त्रीनेो विश्वास मुनिए नहि करवो. १ परानुवृत्तियी वांच्छा. 1 www.Hai Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन बीj. [३५] अलं कुसलस्स पमादेणं, संति-मरणं १ सपेहाए, भिदुरधम्म सपेहाए । (११६) णालं पास । अलं तवेरहि । एयं, पास मुणी? महब्भय। (११७) णातिवाएज्ज कंचणं । (११८) एस वारे पससिए-जे ण णिविज्जति आदाणाए। (११९) vण मे देति" ण कुप्पेज्जा, थो, लन्धुं ण, खिंसर, पडिसेहिओ परिणमेज्जा , पडिलाभिओ परिणमेज्जा। (१२०) एवं मोणं समणुवासिज्जासित्ति बेमि । (१२१), [पंचम उद्देशः] जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं लोगस्स कम्मसमारंभा कज्जात, 9 (शांतिर्मरणं चेतिद्वंद्वः) २ संयमाय. ३ निव-र्तेत. माटे कुशल पुल्पे अप्रमादथी मोक्ष अने प्रमादथी थतां मरण विचारीने तथा शरीरने क्षणभंगुर जाणीने प्रमाद दूर करवो. [११६] विषयभोगी कंइ तृप्ति थती नथी, माटे ए कशा कामना नयी. हे मुनि, ए कामभोगेच्छा महा भयंकर छे एम विचार. [११७] माटे मुनिए कोइ जंतुने पीडा नहि करवी. [११८] एवा असमादी पराक्रमी सुनी ज वखगायेला छे, जेओ संयम पाळतां कशो खेद नयी पामता. [११९] (गोचरीए जतां) कोइ नहि आपे तेना तरफ कोप नहि करवो, थोडुनच्याथी तेनी निंदा नहि करवी, तेणे ना पाडयाथी झट पाछा वळवू या तेणे बोहोराव्या वाद पण झट पाछा वळवू. [१२०] हे मुनि,] तारे आई मुनित्व पाळg. [१२१] ___ पांचमो उद्देश. (मुनिर विषयभोग त्याग करी लोकनिपाए आहारादिक लइने विचर) लोको पोताना माटे तथा पाताना पुत्र, पुत्री, बहुओ, नातजात, दाइ, राजा Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर, आसं च छंदं च विगिच धीरे । (१०८), तुमं चेव तं शब्लमाहटु । (१०९) जे सिया, तेण णो सिया । (११०) . इणमेव गावबुझंति, जे जणा मोहपाउड़ा । (१११) थोलोभपबहिए ते भो वयंति “. एयाई आयतगाई” । (११२) से दुक्खाए, मोहाए, माराए, णरगाए, णरगतिरक्खाए । (११३) सततं मूढे धम्म णाभिजागति । (११४) उदाहु वीरे। अप्पमादो महामोहे । (११५) . 1 आहृत्य ( स्वीकृत्य) (अशुभ मादत्से इतिशेषः) हे धीर पुरुषो तमारे विषयनी आशा अने लालची दूर रहे. (१०८) तमे जातेज ते आशारुप शल्य हृदयमां धरी हाथे करी दुःखी थाओ, छो. १०९] पैशाथी योगोपभोग मळे छे, तेम बखते नहि पण य. [११०] पण मोहवंत प्राणिओ ए समजी शकता नथी. [१११] स्त्रीओमा आसक्त थया थका तेओ वोलछे, के “ए बीओज सुखनी स्थान है." [११२] पण खरं जोता तो तेओ दुःख, मोह, मरण, नरक, अने तिर्यंच गतिना हेतुभूत छे. [११३] छतां हमेशां मूढ बनेला जीवो धर्म जाणी शकता नथी. [११४] वीर प्रसुए मजबुताइथी कांछे के स्त्रीनो विश्वास मुनिए तहि करवो. ? परानुवृत्तिथी वांच्छा.. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन बीजं. अलं कुसलस्स पमादेणं, संति-मरणं १ सपेहाए, भिदुरधम्म सपेहाए । (११६) णालं पास । अलं तवेएहि । एयं, पास मुणी? महन्भया (११७) णातिवाएज्ज कंचणं । (११८) एस वारे पससिए-जे ण णिविज्जति आदाणाए । (११९) ण मे देति" ण कुप्येज्जा, थोचं लब्धं ण खिंसर, पडिसेहिओ परिणमेज्जा, पडिलाभिओ परिणमेज्जा। (१२०) एवं मोणं समणुवासिज्जासित्ति बेमि । (१२१) पंचम उद्देशः] जमिणं विरूवरूवेहिं सत्येहिं लोगस्स कम्मसमारंभा कज्जात, १ (शांतिमरणं चेतिद्वंद्वः) २ संयमाय. ३ निव-र्तेत. माटे कुशळ पुरुषे अप्रमादथी मोक्ष अने प्रमादथी थतां मरण विचारीले तथा शरीरने क्षणभंगुर जाणीने प्रमाद दूर करवो. [११६] विषयभोगथी कइ तृप्ति थती नथी, माटे ए कशा कामना नथी. हे मुनि, ए कामभोगेच्छा महा भयंकर छ एम विचार. [११७] माटे मुनिए कोइ जंतुने पीडा नहि करवी. [११८] एवा अनमादी पराक्रमी सुनी ज वखगायेला छे, जेओ संया पाळतां कशो खेद नथी पामता. [११९] (गोचरीए जतां) कोइ नहि आपे तेना तरफ कोए नहि करवो, धाडु म. ब्याथी तेनी निंदा नहि करवी, तेणे ना पाडयाथी झट पाछा वळवू या तेणे वोहोराव्या वाद पण झट पाछा वळवू. [१२०] हे मुनि,] तोर आई मुनित्व पाळj. [१२१] ___पांचमो उद्देश. (मुनिए विषयभोग त्याग करी लोकनिभाए आहारादिक लाने विचर) लोको पोताना माटे तथा पोताना पुत्र, पुत्री, वहुओ, नातजात, दाइ, राजा Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८] आचारांग मूळ तथा भाषान्तर. तंजहा, अप्पणी से, पुत्ताणं, धूयाणं, सुम्हाणं, णातीणं, धातीणं, राईणं, दासाणं, दासीणं, कम्मकराणं, कम्मकरीणं, आएसाए', पुढेोपहणाए, २ सामासाए, प्यायरसाए, संणिहि - संनिचओ कज्जई इह मेगेसी माणवाणं भोयणाए । (१२२) समुद्वते अगगारे आरिए आरियसी अ संवित्ति "अक्खु, से ष्णादिऐ; णादिआवए, णादियंतं समणुजाण । ( १२३ ) परिव्वए । (१२४) सामवं परिणाम आदिस्समाणो कपावकरसु; - से ण क्रिगे, ण किगावए, किगतं ण समजाणए । (१२५ १ ( आदेश : प्राघूर्ग कास्तदर्थं ) २ पृथक् ( पुत्रादिभ्यः ) प्रहेण काय ३ श्यामाशाय-रात्रिभोजनाय ४ प्रातराशाय - प्रत्यूषभ - जनाय. ५ अद्राक्षीत् दास, दासी, चाकरनफर तथा परोणा माटे तथा पुत्रादिकोने जुर्दु जुदुं बेची आपवा माटे खात्रा पीवा सारु अनेक आरंभ करीने आहार बनावी राखे छे. (१२२) माटे उज्जता, आर्य, पवित्र बुद्धिमान्, न्यायदर्शी अने तत्व समजनार अगवारे दूषित आहार लेवो नहि, baraar afs, तथा लेनारने प्रशंसवो नहि. [१२३] वयां दूवगो रूडी रीते जाणीने निदूर्षणपणे संयम पाळ. [१२४] वळी मुनिए आहारनो क्रयविक्रय न करवो वीजा पासे न कराववो, करनारने रूडुं नहि मानं. (१२५) १ लेवड देवड. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन वीजु. ___ से भिक्खू कालण्णे, बालण्णे, १ मायण्णे, खेयण्णे, खणयण्णे, घिणयण्णे, ससमयण्णे, परसमयण्णे, भावण्णे, परिग्गहं अममायमाणे, कालाणुलाई, अपडिन्ने दुहओ छित्ता, नियाई । (१२६) वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं उग्गहं च कटासणं, एतेसु चेव जाणेज्जा । (१२७) ____ लडे आहारे, अणगारे मातं जाणेज्जा, से जहेयं भगवया पवेइयं (१२८) लाभोत्ति ण मज्जेज्जा, अलाभोत्ति ण सोएज्जा, वहुंपि लधु ण णिहे, परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्केज्जा, अण्णहा णं पासए परिहरज्जा (१२९) १ छांदसत्वात् दीर्घत्वं. २ अनिदानः ३ रागद्वेषाभ्यां. ४ [स्था पयेत्] एचो मुनि काळ,१ वळ,२ मात्रा, खेद,४ क्षण विनय स्वसमय," परसमय,८ अने भावनो जाणनार थइ परिग्रहनी ममता दूर करतो थको यथाकाळ अनुष्ठान करीने निरीह रही२० रागद्वेष छेदीने मोक्षमार्गमां चाल्यो जाय छे. (१२६) वळी वस्त्र, पात्र, कंवळ, पादपुच्छन, ११ वसति१२ तथा कटासन ए सर्वे मुनिए गृहस्थ पासेथी शुद्ध रीते याची लेवा. [१२७] मुनिए परिमित्त आहार लेबो एम भगवाने जणाव्युं छे. (१२८) आहार गळ्या जाणी खुशी नहि थ, नहि मळ्यो जाणी शोक न धरवो घणो आहार मळतां तेनो संग्रह राखवो नहि, वीजा परिग्रहथी पण दूर रहे. वळी धर्मोपकरणने पण परिग्रहरूपे नहि देखतां धर्मोपकरणरूपे देखी तेमना पर ममता नहि धरवी. (१२९) १ अवसर. २ पोतानी शक्ति. ३ विभाग. ४ अभ्यास. ५ समय. ६ ज्ञानादिकनो विनय. ७ स्वमत. ८ परमत. ९ चित्ताभिप्राय. १० इच्छारहितपणे (without love and hate) ११ रजाहरण. (Brooms) १२ रहेवानी जग्या. Taxe Thn ground or place which the house holder allows the mendica nt Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४.] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तरः एस मग्गे आरिएहिं पवेदिते, जहेत्थ कुसले णोवलिप्पेज्जासिं त्ति बेमि। [१३०] कामा दुरतिक्कमा, जीवियं दुप्पडिबृहणं, १ कामकामी खलु अयंपु रिसे, से सोयति, झूरति, तिप्पति, पिंड्डुति, परितप्पति। [१३१] आयतचक्खू लोगविपन्सी लोगस्स अहोभाग जाणति, उर्दू भागं जाणति, तिरियभागं जाणति । (१३२) गद्धिए अणुपरियडमाणे २ संधि विदित्ता इह मच्चिएहिं , एस वारे पसंसिए जे बद्धे पंडिमोयए । (१३३) जहा अंतो तहा बाहिं जहा बाहिं तंहा अंतो।[१३४] १दुःप्रतिवृहणीयं. (दुर्वर्द्धनीय)२ कामाभिलाष निवृत्तये न प्रभवतीतिशेषः ३ मर्येषु [यो विषयादीन् त्यजतीतिशेषः] ए मार्ग तीर्थंकर देवोए वताव्यो छे. एमां प्रवर्तनार कुशळं पुरूपो कर्मथी बंधाता नथी. [१३०] विषय वांछनाथी दूर रहे, घणुं विकट काम छे. वळी जीवित पण वधी शकतुं नथी. [माटे कोइ वखते पण प्रमाद नहि करवो] आ ? जंतु हमेशां विषय वांच्छामां गरकाव थइ रहे छे ने विषयोनो वियोग थतां शोच करे छ, झुरे छ। निर्मर्याद थाय छे, पीडाय छे अने अकलाय छे. (१३१) । दीर्घदर्शी अने दुनिआना रंगने जाणनार पुरूप लोकना अधोभाग ऊर्श्वभाग अने तिर्यग्यागने जाणे छ [एटले के एमां शी रीते जीव उत्पन्न थाय इत्यादि विना जाणी शके छे.] [१३२] विषयमा गृद्ध लोको वारंवार संसारयां भटक्या करे छे. माटे मनुष्यभवमां अवसर आवेलो जाणीने जे विषयादिकनो त्याग करे ते पराक्रमी पुरुष वरखणायो छ. एवो पुरुष, संसारमा बंधाइ गएला वीजा जीवोने पण अंदरना तथा बाहेरना बंधनोथी छोडारी शके छे. [१३३] शरीर जेम बाहेर असार छे तेम अंदर पण असार छे. अने जेम अंदर असार छे तेम बाहेर पण असार छे. १ आ पामर प्राणी. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन बी. __ [४] अंतो पूतिदेहंतराणि पासति पुढोवि सवंति : पंडिए पडिलेहए। से मतिमं परिणाय मा य हु लालपच्चासी, मा तेसु तिरिन्छ मप्पाण मावायए । [१३६] कासकसे खलु अयं पुरिसे, बहुमायी, कडेण मूढे पुणो तं करेति लोभ, वेर वमृति अप्पणो । [१३७] जमिण परिकहिजइ इमरस चेव पडिहणयाए अमरायइ महासट्टी अह-~मेत पहाए । [१३८] __अपरिन्नाय कंदति से ते जाणह जमहं बेमि । [१३९] ... १ (श्रवति नवभिः श्रोतैः ) २ आपादयेत् ३ काषंकव: किंकर्तध्यताव्याकुलः) ४ अमरायते (अमर इवाचरति ) ५ प्रेक्ष्य-पर्यालोच्य ६ अनुभवति. ___ माटे पढित पुरुष शरीरनी अंदर रहेल दुर्गधि वस्तुओ तथा शरीरनी अंदरनी स्थितिओ के जे हमेशां शरीरनी बाहेर मळादिकने झरती रहे छे तेने जाणी आ शरीरनु यथार्थरूप जाणतो रहे छे. [१३५] तेवा बुद्धिमान पुरुपे वाळको जेम मुखमाथी चहेती लारने पाछा चूशी ले के तेम लार चूसनार महि यव. [अर्थात् छोडला भागोनी पुनरामिलापा न करवी,] तेमज झानाभ्यासादिकमा विमुख पण नहि थवं [१३६] "मा कीg अने आ कर\" एपी चितावालो पुरुष अति मायावी बनी तया कामकाजधी व्याकुळ थइ वळी पण एवो लोभ करे के जेथी पोतानां दुःखोने वघारे छे. [१३७] ने माटे एवं कहेवाय छे के ते महाइच्छावाळो पुरुप आ क्षणभंगुर शरीरना माटे आरंभ करतो थको जाणे अजर अमर होय एम वर्ने छ. [ माटे मुनिए] एवा पुरुपने दुःखी जाणीने [काय तथा धना मनं नहिं धरखं]. [१३८] मूढ जीवो स्वरुप जाणता न होवाची इच्छा अने शोकना अनेक दुःख भोगवे छे. माटे हुँ जे कामपरित्याग विपे उपदेश आपुंछु ते धारी राखो. [१३] Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४] .. .. आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. ते इत्थ पडिते पर्वयमाणे, से हता, भेत्ता, लुपिता, विलुपिता, उद्दवइता, अकडं करिस्सामित्तिमण्णमाणे जस्सविय णं करेइ , अलं बालस्स संगेणं, जे वा से करेति बाले २, ण एवं अणगारस्स 'जायतित्ति बेमि । [१४०] [षष्ठ उद्देशः] से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए तम्हा पावकम्मं णेव कुज्जा, ण कारवे । १४१ १ (तस्यापि हननादिकाः क्रिया : स्युरितिशेषः) २ [तस्याप्यलं सगेनेतिशेष:] परमार्थने नहि समजनार छतां पंडितपणानुं आभिमान धारी वकवाद करनारा जे परतीर्थिओ काम शमाववाना उपदेशक थइ वर्ने छे अने जाणे अमे कंइ अपूर्व काम करशुं एम डोळ धरता थका तेआ जावोने हणनारा, कापनारा, फोडनारा, लूंटनारा, झूटनारा, तथा प्राणी रहित करनारा होय छे. एवा अजाण लोको जेने ऊपदेश आपे छे ते पण कर्मथी बंधाय छे. माटे एवा वाळो नी, सोवत नहि करवी, एंटलुंज नहि, पण जे तेवाओनी सोवत करता होय तेमनी पण सोवत नहि करवी. अने जे गृहवास छोडी मुनिओ थएला छे तेमने तो एवी रीते जीवघातथी कामचिकित्सा करवानो उपदेश करवो कल्पतोज नथी. माटे तेमनी, सोवत करवी.) १.४०] । । छटो उद्देश. संयमार्थे लोकने अनुसरतां छतां तेनी ममता नहि करची.] पूर्वोक्त बिना जाणीने संयममां उज्माल थएला मुनिए जाते पाप कर्म न क पीजा पासे पण न करांव. [१४१]' Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - . अध्ययन वीज.... सिया तत्थेगयरे विप्परामुसति , छसु अण्णयरंमि क-पति।(१४२ सुहही लालप्पमाणे सएण दुक्खेण मूढे विप्परियास मुवेति, सएण वेप्पमाएण' पुढो वयं पकुवति, जसि-मे पाणा पव्वहिया, पडिलेहाए णो. गेकरणाए,३ एस परिष्णा पवुच्चति, कम्मोबसंती । (१४६) ने ममाइयमतिं जहाति, से जहाइ ममाइतं, सेहु दिदुपहे मुणी जस्स; पत्थि ममाइतं । (१४४) तं परिनाय मेहावी विदित्ता लोगं, वंता लोगसणं, से मतिमं परेक्कमेज्जत्ति बेमि । (१४५) .. णातिं सहते वीरे, वीरे णो सहते रति; जम्हा अविमणे वारे, त१ समारभं करोति २ विविधैःप्रमादैः ३. निकरणं परपीडोत्पांदनं तस्मै. नोत्कर्म कुर्यात् इतिशेष :] ४ एवंसति भवतीति शेष : जो कोय छकाय माहेन। एक कायना आरंभमा प्रवर्ततो होय तोपण ते छकाय महिना गमे ते कायनो आरंभ करनार गणायछे. (पटले के छए क.यनों आरंभी गणाय छे.) [१४२] . सुखार्थी थइ दौडधाम करतो थको जीव पोतानः टेथे करेला दुःख करीने . मूढ बनी दुःखी थाय छे, तथा जाते करेला इमादथी व्रत भंग करे छै या विचित्र दशाओ भोगवे छे के जे दशाओमा रहेला जीवो अति दुःखित वर्ते छे. आई जीनीने मुनिए पाने पीडाकारी कंइ पण काम नहि करवू, परिज्ञा ते ए कहेवायः अने आम थयायीन कर्मक्षययाय छे. [१४३] जे मनत्व बुद्धिने मूके छे ते ममत्व मूके छे, जेने ममत्व नयी तेज मार्गनो जाण मुनि जाणवो. [१४४] एम जाणी चतुर मुनिए लोक स्वरुप जार्ग.ने लोक संजाओ दूर करी वित्रका बई विचरतुं. [१४५] पराक्रमी मुनि नधी रनि धरतो, नथीं अरति धरतो, मटेत शत हाय. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... आचारांग-मूळतथा भाषान्तर. म्हा वीरेण रज्जति ।। (१४६) - सद्दे कासे अहियासमाणे, णिविद र णदि' इह जीवियस्स। (१४७). मुणी मोणं समादाय धुणे कम्मसरीरगं; पंत लूहं ५ च सेवंति, वीरा संमत्तदंसिणो । (१४८) एस ओघतरे मुणी, तिन्ने, मुत्ते, विरते, वियाहितेत्ति बेमि। (१४९) दुव्वसु-मुणी अणाणाए तुन्छए गिलाति पतए । (१५.. . एस' वारे पसंसिए अच्चेइ लोयसंजोयं । (१५१) । - , एस गाए ८ पवुच्चति जं दुक्खं पवेदितं इह माणवाणं, तस्स १ (श्लोकोय) २ निर्वेिदस्व, जुगुप्सव ३ तुष्टिं ४ प्रातं ५ रूक्षं ६ मुक्तिगमनायोग्यः ७ वक्तुं ८ सुवसुमुनिः ९ न्यायः अने तेथीज ते रागी नथी थतो. [१४६] ,, शब्दादि विषयो उपस्थित थतां हे मुनि, तुं तेमा तारी खुशी नहि धारजें. [१४७] मुनिए संयम धारीने कोने तथा शरीरने तोडदा महतुं. पराक्रमी तत्वदर्शी पुर पो हलकुं अने लूटुं भोजन करे छे. [१४८] । . एवी रीते तनार मुनिओ संसारना प्रवाहने तरे छे अने तेओ संसारना पारने पामेला परिग्रहथी मुक्त थरला अने त्यागी कहेवाया छे. [१४९] तीर्थकरनी आज्ञाने न मानतां स्वेच्छाथी वर्तनारा मुनि मुक्ति पामवाने अयोग्य थाय छे. तेवा मुनिओ ज्ञानादिकथी अपूर्ण होवाथा वोलवा करवामां बहु . अचकाय छे. [१५०] . . पण आज्ञाने माननार मुनिओ ओ आ दुनिआनी जंजाळयी दूर थया छे तेओ पराक्रमी होवाधी वखणाया छे. [१५१] [जाळयी छूटै थ] ए वहुं उत्तम रस्तो छे. [तीर्थंकर देवे] जे मनु Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन पोजें. दुक्खस्स कुसला परिष्ण मुदाहरति । (१५२) इति कम्म परिण्णाय सव्वसो १ १ (१५३) जे अणन्नदंसी से अणण्णारामे, जे अणण्याररामे से अणण्णदंसी । जहा पुण्णस्स कत्थति तहा तुच्छस्स कत्थति, जहा तुच्छरस के स्थति तहा पुण्णस्स कत्थति । (१५५) . . अविय हणे २ अणातियमाणे । एत्थंपि जाण, सेयं-ति पदिय । (१५६) केयं पुरिसे कंच गए। एस वीरे पसंसिए, जे बढे पडि पोयए .. १ कथयतीतिशेषः, २ हन्यात्-राजादिः। ३ अनाद्रियमाणः । ४ नतः प्योना दुःखोनां कारणो घताव्यांछे तेमनो कुशळ पुरुषो झान पूर्वक परिहार करेछे तथा करावे छे. [१५२] ए रीते कर्मनुं स्वरूप जाणीने सर्व रीते उपदेश देवो. १५३] जे परमार्यदर्शी छे ते मोसना मार्ग शिवाय चीजे रमतो नधी. अने जे मोक्ष। मार्ग शिवाय वीजे स्थळे नथी रमतो तेज परमार्थदर्शी छे. [१५४] मुनिए जे रीते राजाने. उपदेश आपको तेज रीते रांकने पण आपवो ने जे रीते रांकने आपको तेज रीते राजाने आपवो. [अर्थात् निरीहपणे वन्नेपर सरले भाव राखवो पण एवो कंइ नियम नथी के एकरूपे उपदेश आपदो, किंतु जे जेम प्रतिवोध पामे तेने तेम समजाव.] [१५५] । राजाने उपदेश आपतां तेना अभिप्रायने अनुसरीने उपदेश आपको] नहि वो कदाच ते कोपायमान थइ हणवा पण उठे. माटे धर्म कथा फरवानी रीति जाप्या शिवाय धर्मकथा करवामां पण कल्याण नथी. [१५६] वास्ते मुनिए उपदेश आपतां "श्रीता पुरूप केवी तरेहनो छ तथा क्या देवने नमे छे" इत्यादि पावतो विचारी उपदेश आपचो. एवी रीतथी उपदेश आपीने, संसारमा उर्ज अधो अने तिरधीन दिशाओमां बंधाइ रहेल्प जीवाने जे Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [४६ ] उडूं अहं तिरियंदिसासु। (१५७) न्नेसी । (१५९) आचारांग- मूळ तथा भाषान्तर, से सव्वतो ' सव्यपरिन्नाचारी ण लिप्पती छणपदेण वीरे, १५८) से मेधावी जे अणुग्धायणस्स खेयन्ने ४ जे य बंधपमोक्ख म 1 कुसले पुणो बडे, णो मुक्के । (१६०) से जं च आरभे जे च नारभे । अणारडं च ण आरभे । १६१) छणं छणं परिन्नाय लोगसन्नं च सव्वसो । (१६२) उद्देसो पासगस्स णत्थि । (१६३) बाले पुण हे कामसमणुन्ने असमितदुक्खे दुक्खीं दुक्खाणमेव आवहं अणुपरियहतित्ति बेमि । ( १६४ ) १ सर्वदा २ क्षणपदेन - हिंसया । ३ अणस्यकर्मण उद्घातनं दूकरणं तस्य ४ निपुणः । ५ केवली । ६ वर्जयेत् इतिशेषः । な [१६१] पराक्रमी पुरुषो छोडावे छे ते वखणाया छे. [१५७] तेवा पराक्रमी पुरूषो हमेशां ज्ञानक्रियाथी वर्त्तता-थका हिंसार्थी लेपाता नथी. [१५८] जे पुरूष कर्मने दूर करवामां कुशळ होय तथा वंध अने मोक्षनो तपास नार होय ते खरेखरो बुद्धिमान् जाणवो. आ वात छमस्यने लागु पडे छे [१५९] केवळी भगवान् तो नथी वंधायला अने नथी मूकायला [ १६० ] तेओ जेम वयी होय तेम वर्त्त अने जेम नहि वय - होय तेम नहि वर्तव 'हिंसा, तथा लोकसंज्ञाने जाणी करीने तेनों परिहार करवो. [१६२ ] परमार्थदश मुनिने कां जोखम नथी. [१६३] पण जे अज्ञानी जीवो स्नेहधी विपयोने सेवता रहेछे तेओ दुःखोने-कशी रीते पण आछा नहि करतां वधु, दुःखी थया थका- दुःखोनाज चत्रम फर्या करे [१४६) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन वीर्जु. सीतोप्णीयं नाम तृतीय मध्ययनम्.. प्रथम उद्देश: सुत्ता अमुणी सया। मुणिणो सया जागरंति। (१६५) लोयंसि जाण आहियाय दुक्ख । (१६६) । समयं लोगस्स जाणित्ता एत्थ सत्थोवरएरे । (१६७) : जस्सिमे संदा य, रूबा य, गंधा य, रसा य, फासा य, अहिसमन्नागया भवंति, से आयवं, णाणवं, वेयवं, धम्मवं, बंभवं, पन्नाणेहिं परियाणति लोयं, मुणी वच्चे, धम्माविदुत्ति, अंजू आवदृसोयसंग-मभि १ अज्ञानं २ भवेदितिशेषः । ३ ऋजुः - - - - - अध्ययन त्रीजं. शीतोष्णीय. * NEn - __ पेहेलो उद्देश. ! , .: . . . . . . परमार्थे सूतेला कोण?) ' 'गृहस्थो सदा सूतेला छे. मुनिओ सदा जागता छे. (१६५) दुनिआमां अज्ञान ए अहितकतों छे. (१६६) माटे मुनिए हिंसाने पाळ लोकोनो आचार जाणीने छकायनी हिंसापी दुर रहे. १६७] . जे पुरुषने शन्द, रूप, गंध, रस, तथा स्पर्श ए वधा सुंदर के अमुंदर येतां * ताद ताप [वगेरेनी दरकार न राखवी एवा अर्थवाला अध्ययनर्नु हुकुं नाम शीतोष्णीय आप्यु छे. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४८] ___ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. जाणति, सीओसिणच्चाइ, से निग्ग घे, अरतिरतिसहे फरुसयं णो वेदेति, जागरे, वेरोवरए, धीरे एवं दुक्खा पमु चति । (१६८) जरामच्चुवसोवणीए णरे सततं सुढे धम्म णाभिजाणति। (१६९) पासिय आउरिए पाणे, अप्पमचो परिव्यए। (१७०) .. मंता एयं, मइमं, पास । (१७१) आरंभन दुक्ख मिणंति णच्चार, मायी पमाई पुण-रेइ गर्भ । उवेहमाणे सद्दरूवेसु अंजू, माराभिसंकी मरणा पमुन्चति । (१७२) समपणे १ जणाया छे ते पुरुष चैतन्य, ज्ञान, वेद २, धर्म तथा ब्रह्मनो जालनार जाणवो, अने ते पुरुष ज्ञानवळयी लोकोने जाणी शके छे अने, तेवा. ज पुरुष मुनि कहेवाय छे. एवा धर्मना जाण सरळ मुनिओ संसारचक्र तथा विषयाभिलापानो रागद्वेष साथे संबंध जाणेछे तथा सुख के दुःखनी कशी आशा नहि घरता तेवा निःपरिग्रही मुनियो अरति. अने रतिरुप परीसहने सहन करता थका संयमनी मुश्केलीओने नथी संभारता एवी रीते ते पराक्रमी मुनिओ जागता रही वैर विरोध ने दूर करता थका दुःखोथी मुक्त थाय छे. [१६८] जरा अने मोतना सपाटामा सपडायला अने हमेशा महामोहथी मुंझाइ ग' एला पुरुषो धर्मने जाणी शक्ता नथी. [१६९] दुःखित प्राणिओने जोइने मुनिए सावधानताथी संयममा प्रवर्त. [१७०] हे बुद्धिमान् मुनि, ए, जाणीने [ एटले के गृहस्थोने परमार्थे सूतेलो जोइ अने एवा सूतेलाआने अनेक दुःखो यतां जोइ] तुं तेम थवा.. मन नहि करीश. [१७१] __ . . सघळां दुःखो आरंभथी थाय छ एम जाणी [तुं जागृत या,] [कारण के प्रमादि अने कपायवंत प्राणी वारंवार गर्भमां आव्यां करे छे. अने जे पुरुष शब्दादिक विषयमा रागद्वेष नहि धरतां सरळ थइ वर्ने छे . ते पुरुप मोतथी डरतो थको मातना भयी मुक्त याय छे. [१७२] . १ रागद्वेवरहितपणे. २ आचारांगादिसूत्र. ३ निर्विकल्प मुख. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९) अध्ययन बीजं. अप्पमत्तो काहिं, उबरतो पावकम्मेहि, वीरे आयगुत्ते जे खे-- यन्ने । (१७३) जे पञ्जवजातसत्यस्स खेयन्ने, से असत्थस्स स्वेयन्ने । जे असत्थस्स खेयन्ने, से पज्जवजातसत्थस्स खेयन्ले । (१७४) ___अकस्सस्स ववहारो ण विज्जत्ति । कम्मणा उवाही जायति । (१७५) कम्मं च पडिलेहाएं, कम्ममूलं च जं छणं १ १ (१७६) पडिलेहिय, सव्वं समायाय दोहिं अंतेहिं अदिस्समाणे । (१७७) तं परिन्नाय मेहावी विदित्ता लोग, वंता लोगसन्नं, से मइमं परक्कमिज्जासित्ति बेमि । (१७८) १ क्षणं प्राण्युपमर्दकारि कर्म- २ रागद्वेषाभ्यां परिव्रजे दिति शेषः जे पुरुपो परने थता दुःखो जाणे छ तेवा पराक्रमी पुरुपोए संयमवंत थइ विषयो साथै नहि फसातां पापकर्मथी दूर रहे. [१७३] जे विपयोपभोगना अनुष्टानने शस्त्ररुपे जाणे छे ते अशस्त्रने जाणे छ भने जे अंशस्त्रने जागे छे ते विपयोपभोगना अनुष्ठानने शस्त्र रुपे जाणे छे. [१७४] जे कर्मरहित मुक्त जीवो छ तेमने कशो संसार साथे संबंध नथी. कर्मथी ज सपळी उपाधीयो थाथ छे. [१७] कर्मस्वरुप जोइने तेमने दुर करवा, तथा हिंसाने कर्मनी मूळहेतभुत जाणीने [तेथी दुर रहेव.] [१७६] (कर्मस्वरूप) विचारी, (कर्म दूर करवानो) सर्व (उपदेग) ग्रहण करी, (राग अने द्वेप) ए वेलो परिहार करवो. [१७७] त्रुद्धिमान मुनिए रागादिनने (अदिनकर्ता) जाणी तमनो त्याग करी, नया लोकने (रागादिकथी दुखिन थएलो) जाणी लोकसंज्ञा दूर करीने संयममा पराकामवंत घ{. [१७८] सयमने. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) आचारांग-सूळ तथा भाषान्तर. द्वितीय उद्देश. जातिंच बुड्रिंच इहज्ज' पास, भूतेहिं जाणे पडिलेह सातं; तम्हा तिविज्जो परसंति णच्चा, संमचदंसी ण करोति पावं । (१७९) उम्मुंच पासं इह मचिएहिं आरंभजीवी उभयाणुपरसी; ' कामेसु गिद्धा णिच्यं करेंति, संसिञ्चमाणा ४ पुणरेति गभी (१८०) अवि से हासमासज्ज, हंता ५ णंदीति मन्नति; अलं बालस्स संगेणं, वेरं वदति अप्पणो । (१८१) तम्हा-तिविज्जं परमं-ति णच्चा, आयंकदंसी ण कति १ अद्य २ अतिविद्यः ३ कर्मोपचयं ४ आपूर्यमाणाः ५ हत्वा. ६ क्रीडेति. ७ अतिविद्वान्. बीजो उद्देश. [पापनां फळ तथा हितोपदेश.] . हे मुनि, तुं जन्मना अने जराना दुःख जो. तने जेम सुख प्रिय छ तेम सर्व जीवोन सुख प्रिय छे एम विचार करी जाणतो था. माटे तत्वदर्शी उत्तम विद्वाने मोक्षने जाणतां थका पाप कर्म नहि कर. [१७९] - मुनिए गृहस्थो साथ स्नेह के लटपट करवानी टेव नहि करवी. कारणके गृहस्थ आरंभथी आजीविका करे छे तथा हजु आ अने परलोक ए वन्नेनां मुखने चाह्यां करे छे. अने जेओ कामभोगयां आशक्त थइ कर्यने वधारे छे तेओ ते कमोथी भराता एका वारंवार संसारयां भटक्या करणे. [१८०] वळी कामासक्त पुरुष हास्य विनोदमां जीवाने मारीने पण रमत गमत माने 'छे. गाटे एका वाळ जीवो साथै सोक्त नहि करवी कारण के तेम कर्याथी अंते आपणी खराबी वधवानी. [१८१] . ___ माटे खरा विद्वान् पुरुपो मोक्षने जाणी करीने तथा नरकादिक दुःखोने Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन त्रीमु. [५] पावं; (१८२) अग्गंच मूलं च विगिच धीरे, पलिछिंदिया १ णं णिकम्मदंसी । (१८३) एस मरणा पमुञ्चति से, हु दिइभए मुणी, लोकसि परमदंसी विवित्तजीवी उससे समिते सहिते सयाजते कालकंखी परिव्यए। (१८४) बहुं च खलु पावकस्मं पगडं, सच्चंसि घिर्ति कुबह, एत्यावरए मेहावी सव्वं पावकामं झोसति । (१८५) ___अणेनाचित्ते खलु अयं पुरिसे, से केयणं १ अरिहइ पूरित्तए से अन्नवहाए, अग्णपरियावाए, अग्परिरगहाए, जणवयवहाए, जणवयपरियावाए, जणवयपरिरगहाए । (१८६) __आसेवित्ता एतमष्टुं इञ्चेवेगे २ समुष्टिया, तम्हा तं बिइयं नो सेव वे १ छिला २ केतनं-लोभेच्छां. ३ इत्येवैके देखता थकां पाप नही करता. (१८२) ___ माटे हे धार मुनि, तुं मूळ कर्म तेथी अन कर्मने जीवीं जूड़ा पाडे. कारण के कोने तोहवाधीज सई पोताना पवित्र आत्म रुपने जोनार चाय छे. (१८३) अने एवा मुनिओज गरणना भवधी मुक्त थाय छे, एवा मुनिओ संसारना दुःखोबी वीहीता धका लोकगा रहेला मोक्ष रवळने जोइने राग द्वेषरहितपणे वर्तना थका शांत, रामितिवन, ज्ञानवंत अने यात थइने काळजागे कर्मक्षय करता थका वर्ते छे. [१८४] . जो "पाप कर्म बहु करेलां छ" एक नणाय तो समग हिम्मतवान् थाओ. एमां तत्पर रहेला बुद्धिमान् पुलको सर्वे कुछ कमोनो नाश करे छे. [१८२] . आ संभारी जीव अनेक कामोग चित्रने दोडाछे. ते पाळपी के दरिया जेवा लोभन भरपूर करमा गयेई. तेथी ते बाजाओने गारवा देशन करका, कवजे राखवा. देगने वाला, देशाने हेगन करया, अन देशने लवगे करवा चार थाय छ. [१८६] तेम तीन पग केटलाएका अंने संयममां उमाल बया मोहे नियों १ भन्न राजादिक Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. णिस्सारं पासिय णाणी । (१८७) उववायं चवणं णचा अणण्णं चर माहणे । (१८८) से ण छणे, ण छणावए, छणंतं णाणुजाणई। (१८९) णिविंद णंदि अरते पयासु, २ अणोमदंसी णिसन्नो पावहिं कम्मोह । (१९०) कोहाइमाणं हणियाय बोरे, लोभस्स पासे गिरयं महंतं; तम्हाय वीरे विरते वहाओ, छिंदिज सोयं ३ लहुभूय गामी, ' (१९१) गंथं परिन्नाथ इहज्ज वारे, सोयं परिन्नाय चरिज्ज दंते; उस्मज्ज लध्धुं इह माणवेहि, णो पाणिणो पाण समारभेज्ज १ स्त्रीषु. २ अनवमं-झानादि-तदर्शी ॥ ३ शोकं. ६ लघुभूतो मोक्ष स्तं गंतुं शील मस्येति. ५ उन्मज्जनं. ६ मानवेषु. तमारे दीक्षा लइ पछी भोगनी यांच्छा राखी वीजें मृषावादरूप पाप नहि सेक्वं, अने विषयोने निःसार गणवा. [१८७] हे मुनि, जन्म अने यरण सर्वने छ, एम जागी संयममां बयां कर. (१८८) माटे मुनिए जाते हिंसा न करवी वीजा पासे न करावी, त्या तेना करनारने रूडं नहि मानg [१८९] स्त्रीओमा आशक्त नहि थतां कामयी थता सुरखने धिकार, अने ज्ञानादि उत्तम वस्तुने धारीने पाप-कर्मथी दूर रहे. [१९० पराक्रमी मुनिए, क्रोध अने तेतुं कारण जे गर्व सेले भांगी लावq अने लोपथी याहोटा दुःखथी थरेली लरकगतिए जवाय छ एम जो. माटे तेवा मोक्ष जवा तत्पर थएला मुनिए हिंसायी दूर रही गोकसंताप न करवा. [१९१] परिग्रहने अहितकर्ता जाणी आजेज तेने छोडधुं. तथा विषयवांच्छारूप भवाहने पण अहितकती जाणीदिया वश करी वर्तपु. भा मनुष्यभवमाऊंचे आवेला Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सि-ति बेमि. [१९२] अध्ययन त्रीनुं, [५] तृतीय उद्देश : संधिं लोगस्स जाणित्ता' । [१९३] आययो' बहिया पास, तम्हा ण हंताण विधायये । [ १९४ ] अ जमिणं अन्नमन्नवितिगिछाए पडिलेहाए ण करेइ पावं कम्मं, किं तत्थ सुणी कारणं सिया ? समयं तत्थ उवेहाए अप्पाणं विप्पसायए । [१९५] अणण्णपरमं नाणी, णो पसादे कयाइवी; आयगुत्ते सया धीरे, १ न प्रसादः श्रेयानिति शेष: २ आत्मवदित्यर्थः ३ निश्चयनयसूत्रमेतत्. ४ समतांसमयं वा आगमं थने माणिओनी हिंसा कदापि नहि करवी. [१९२] श्री जो उद्देश. 'पाप न करवां अने परीपह सदेवां एटलापी कंड् साधु नवी धवा' (किंतु साधे संपम जोइए) अवसर मळेल जाणीने प्रमाद न करवो. [१९३] हे सुनिता तरफ जेन जूए छे तेम वीजा तरफ जो, माटे तारे कोड़ जंहुने मार्खु नहि अने मराच पण नहि. [१९४] एक बीजानी शरमयी कोई पाप कर्म नवी करतो तेमां चं तेनुं मुनिषगुं कारण भूत छे ? ( अर्थात् शुं पटलाची ते सुनि कही का? किंतु समतामा रही जो तेम करे तो मुनि थड् शके.) माटे ए साथी मुनिए ताने अनेक प्रकारे प्रशांत कर. [१९५ ] ज्ञानवंत मुनिए संयम ममाद न करवो, किंतु हमेशां आत्गाने कबजे राखी आनि मत छे व्यवहारथी तो परस्परनी लज्जाथी पापकर्म परिहरतां पण ते मुनि कही काय . Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५४ ] जायामायाइ' जाए । [१९६] विरागं रूबेस गच्छेज्जा महता खुद्दिएईि वा । [ १९७ ] आगतिं गतिं च परिण्णाय दोहिंवि अंतेहि अदिस्समाणेहिं से ण छिज्जइ ण भिज्जइ, ण डज्झइ, ण हम्मई कंचणं सव्वलोए । ( १९८ ) अवरेण पुच्वं ण सरंति एगे, किमस्सतीतं किंवागमिस्सं; भासंति एगे इह माणवाओ, ज़मस्सतीतं तं आगमेस्सं । ( १९९) णातीत- म णय आगमेस्सं, अहं निअच्छंति तहागताओ, विद्युतकप्पे एताणुपस्सी, णिज्झोसइत्ता खवए महेसी । (२००) का अरती ! के आणंदे, ! एत्यंपि अग्गहे चरे; सव्वं हासं परिचज्ज, आलीणगुत्तो परिव्वए । (२०१) १ संयमयातामात्रया. २ केन विदित्यर्थः आचारांग - यूळतथा भाषान्तरं, धीरपणे संयम सचवाय तेवी रीते शरीरने नभावं [१९६] मोहोटा के सामान्य सगळा रूपमां विरक्त रहे [१९७] आगति अने गतिनुं स्वरूप जाणीने राग अने द्वेष जेणे दूर कर्याछे ते कोथी पण नहि तोडी शकाय, नहिवाळी शकाय, अने नहि मारी शकाय [१९८] केटल क भूत अने भविष्यकाळना बनावो ने याद नथी करता, अने आ जीवने शुं शुं यथुं अने शुं शुं थवानुं छे ते नथी विचारता. वळी केलाएक कहछे के जे सुखदुःख आ जीवने थइ गयुं तेज पाहुं अगाउ पण थवानुं. [१९९] पण तत्वज्ञानी पुरुषो तेम नथी कहेता. [तेओ तो कहे छे के कर्मपरिणति विचित्र होवाथी कर्मानुसार सुखदुःख थवानां] माटे पवित्र आचारवाणा महर्षिए पुर्वोक्त वात जाणीने कर्मने क्षय करवां. [२०० ] योग पुरुषना मनमतेशी अरति होय अने श्यो आनंद होय ? अने कर्दि सुनिने आसंयममां अरति अने संयनयां आनंद उत्पन्न धाप तो त्यां पण आग्रह रहितपणे वर्त्ती सर्व हास्य मेली फरीने इंद्रियो तथा मन वचन अने कायाने कबजे करीने फखं . [२०१] १ अज्ञानी जीवो. 2 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन त्रीजु. [५] पुरिसा, तुममेव तुमं मित्तं; किं बहिया मित्त- मिच्छसि।(२०२) जं जाणेज्जा उच्चालइयं तंजाणेज्जा दूरालइयं , जं जाणेज्जा दूरालइयं तं जाणेज्जा उच्चालइयं । (२०३) पुरिसा, अत्ताणमेव अभिणिगि एवं दुक्खा पमोक्खसि । (२०४) - पुरिसा, सच्चमेव समभिजाणाहि; सच्चस्साणाए से उवधिए से मेहावी मारं तरति, सहिते धम्म मादाय सेयं समणुपस्सति । (२०५ दुहओ', जीवियरस परिवंदण-माणण-पूयणाए'; जसिएगे पमोयंति । (२०६) दुक्खमत्ताए पुदो णो झंझाए; पासिम, दविए लोए लोयालोयपवंचाओ मुच्चतित्ति बेमि । (२०७) १ उच्चालयितारं कर्मणां. २ दूरालयो मोक्ष स्तद्वंतं. ३ द्वाभ्यां रागद्वेषाभ्यां हतः द्विहतः ४ हिंसादिषु प्रवर्तत इतिशेष, हे पुरुष, तुं ज तारो मित्र छे. शा माटे बाहेर मिलने जुए छ ? [२०२] जे कर्मने नशाइनार छे ते ज झुक्ति पामनारो छ अने जे मुक्ति पामनारछे ते कर्मने नशाइनार छे. [२०३] हे पुरुप, तारा आत्माने ज विपयोथी रोकी राखीने तुं दुःखोथी छूटीश. [२०४] हे पुरुप, तुं सत्यनुज सेवन कर. केयके सत्यना फरमानधी ज प्रवर्तता यका बुद्धिमान् मुनिओ संसारनो पार पामे छे अने धर्म पाळीने कल्याण मेळवे छे. [२०] __ रागद्वेपथी कलुपित बएलो जीव आ क्षणभगुर जींदगीना कीर्ति अने मानाईकना अर्थे हिंसामा प्रवृत्त धाय छे अने ते कीर्त्यादिकमां खुश पनि रहेछ [पण तेथी आत्लान कल्याण थवा नधी.] [२०६] । मुनिए दुःख आवी पटतां व्याकुळ थर्बु नहि, अने विचाऱ्या के साधुओ ज दुनिभाना तरेहवार देखाबोनी जंजाळधी मुक्त रहे थे. [२०७] Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-सूळ तथा भाषान्तर. सी से जम्मदंसी, जे जम्मदंसी से भारदसी, जे मारदसी से णिरयंदसी जे णिरयदंसी से तिरियदसी, जे तिरियंदसी से दुक्खदेसी । (२१७) से मेहावी अभिनिवडेजा कोहंच, माणंच. मायंच, लोहंच, पेज्जं च, दोसं च, मोहं च, गन्भं च, मरणचं,णरगं च, तिरियं च, दुक्खं च एयं पासगरस दसणं उवरयसत्थरक पलियंतकरस्स । (२१८) आयाणं णिसिद्धा सगडाभि । (२१९) किमत्थि उवाधी पासगस्स? ण विज्जति णस्थिति, बेमि।२२० ते नरकथी मुक्त थाय छे, जे नरकयी मुक्त थाय छे ते तिर्यचगतिधी मुक्त थाय छे, ने जे तिर्यंचगतिथी मुक्त थाय छे ते दुःखथी मुक्त थाय छ- [२१७] ए रीते बुद्धिशाली पुरुषे क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, तथा मोह दुर करीने गर्भ, जन्म मरण, नरकगति, अने तिर्यचगतिना दुःखो निवारदां. एम तत्वदर्शी शस्त्र त्यागी संसारना अंतकर्ता [भगवान वीरप्रमु]दर्शनछे..[२१८] माटे मुनिए कर्मोनां मूळकारणोने वंध करी प्रथम करेलां कर्मोंने खपावतां रहे. [२१९] अने ज्यारे केवीळपणुं पमाय त्यारे केलिने तो कशी उपाधि नथी ज होती. [२२०] - SETS HANDRAMANDIRAL Parent Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन चोथं. सम्यक्त्वाख्यं चतुर्थ मध्ययनम्. [ प्रथम उद्देशः ] से बेमि - जेय अतीता, जे य पडुप्पन्ना, जे य आगमिस्सा, भगवंतो, ते सव्वेवि, एव माइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णवंति, एवं परूवेंति, - सच्चे पाणा, सव्वें सूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, ण हंतव्या, ण अज्जावेयव्वा ण परिघेतव्वा ण परितावेयव्वा णं उदवेयन्वा 3 २ [२२१] एस धम्म, सुद्धे, णितिए, सासए समेच्च लोयं खेयन्नेहिं पवेतिते १ आज्ञापयितव्याः २ परिग्राह्याः ३ अपद्रावयितव्याः । अध्ययन चोथुं. - [ ५९ ] सम्नकत्व. S पहेलो उद्देश. (सत्यवाद) के नतीर्थकर भगवान थड़ गया, जे हाल वर्ते छे, अने ज आयता काळमां थशे ते वधा आ रीते कहे छे, वोले े, जणावेछे, तथा वर्णवेछे, के “सर्व माण, सर्वभूत, २ सर्व जीव, ३ अने सर्व सत्वने हणनुं नहि, तेमनापर हकुमत aaraat नहि, तेने कवजे करवां नहि, तेओने मारी नांखवा नहि भने तेजने डेरान करवां नहि. " [२२१] ૧ आशे पवित्र, अने नित्य धर्म, लोकना दुःखने जाणनार भगवाने सांभळवा १-२-३-४ अहीं माग, भृत, जीव तथा सत्व पचारे शनो एकज अर्व धाय. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६० ] आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर. तंजहा, उडिएसुवा, अणुाईएसु वा, उवरयदंडेसु वा, अणुवरयदंडे सुवा, सो वाहिएस वा अणोवहिएसु वा, संजोगरएसु वा असंजोगरएसु वा । २२२] (२२४) तच्चं ' चेयं तहा चेयं अरिंस चेयं पच्चइ १ (२२३) तं आइ तु ण णि ण णिक्खिवए, जाणि तु धम्मं जहातहा । दिहिं णिव्वेयं गच्छेज्जा । (२२५) णो लोगस्सेस' चरे । (२२६) ૫ जस्स णत्थि इमा णाती, " अन्ना तस्स कओ सिया । (२२७ ) दिन सुयं मयं विन्नायं जमेयं परिकहिज्जइ । (२२८) १ तथ्य मेतत् २ अस्मिन्नेव प्रवचने इत्यर्थः ३ गोपयेत् ४ लोकस्यैषणां. ५ ज्ञातिर्लोकैषणा. तयार थएलाओने, नहि थरलाओने, ' मुनिओने, गृहस्थोने, रागिओने, त्यागिओने" मोगिओने, तथा योगिओने बताव्यो छे. [२२२ ] ए धर्म खरेखरो ज छै अने मात्र जिनमवचनमां ज वर्णवेलो छे [२२३] माटे यथार्थपणे धर्मनुं स्वरूप जाणीने श्रद्धा कर्यावाद आलस नहि थई, तथा समजीने after धर्मने कोइ वखते छोडी सण नहि आप. [२२४] देखाता दुनिआना ठाठमाठमां [अंजाइ न ज ] वैराग्य धर. [२२५] दुनिआनी देखादेखी नहि करवी. [२२६ ] जेने देखादेखी नयी तेने वीजी कुमति पण नहि यशे. अथवा जेने ऊपर तावेला पवित्र धर्मनी श्रद्धा नहि होय तेने वीजी श्री सुमति थशे ? [२२७] एवधी विना जे कही छे ते दीटेली पण छे, सांभळेली पण छे, जांणेली पग छे, अने अनुभवेली पण छे. [२२८ ] १ कारण के कर्मनी विचित्र परिणति होवाथी वखते तेमने पण उपकार थायछे. + , 2 2 # Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन चोथु. [६१] समेमाणा पलेमाणारे पुणो पुणो जाति पकप्पंति । (२२९) अहोय राओय जयमाणे धीरे सया आगयपन्नाणे। पसत्ते बहिया । अप्पमत्ते सया परिकमिज्जासित्ति बेमि । (२३०) [द्वितीय उद्देशः] जे आसवा ते परिस्सवा । जे परिस्सवा ते आसवा । (२३१) जे अणासवा ते अपरिस्सवां । जे अपरिस्सवा ते अणासवा । (२३२) ___ एते पए संबुज्झमाणे लोयं च आणाए अभिसमेच्चा पुढो पवेदितं । (२३३) १ शाम्यंतो गृद्धिं कुर्वत : २ प्रलीयमानाः ३ को धर्मप्रति नोद्यच्छेत इतिशेषः संसारमा आसक्त थइ अंदर खुचनारा जीवो चिरंकाळ संसारमा भमे छे. [२२९] माटे तत्वदर्शी धीर पुरूपोए प्रमादिओने धर्मथी बाहेर रहेला जोइ अहर्निश उज्माल थइ सावधानपणे वर्तवू. २३०] बीजो उद्देश. [ परमतर्नु विचारपूर्वक खंडन.]] जे कर्म बांधवाना हेतुओ छे ते कर्म खपाववाना हेतुपण थइ शके छ, ने जे कर्म खपाववाना हेतुओ छे ते वखते कर्म बांधवाना हेतु पण धइ पढे छे. [२३१] अथवा तो जेटला कर्म सपाववाना हेतुओ छे एटला ज कमें वांधवाना हेतुओछे अने जेटला कर्म बांधवाना हेतुओ छे तेटला ज कर्म खपाववाना हेतुओ छ. [२३२] ____ आ पदोने पूर्ण रीते समजनारा तीर्थकरना फरमाव्या प्रमाणे लोकोने कर्मोथी वधाता जोइ कोण धर्ममां उज्माल नहि थाय? [२३३] Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर. अग्धाति णाणि इह माणवाणं संसारपाडवन्नाणं संबुज्झमाणाणं विन्नाणपत्ताणं; अट्टावि संता अदुवा पमत्ता ' । अहासच्च मिणं त्ति बेभि (२३४) ૧ [६२] ना णागमो मच्चुमुहस्स अस्थि । इच्छापणीया वंकाणिकेया कालग्गहीआ णिचये णिविट्ठा पुढो पुढो जाई पकप्पंति । ( पाठांतरं ) - इत्थ मोहे पुणो पुणो । ( २३५) इह मेगेसिं तत्थ तत्थ संथवो भवति । अहोववाइए फासे पडि - संवेदयंति । [२३६] चिट्ठे कूरोहें कम्मेहिं, चिह्नं परिविचिह्नति, अचिह्नं कुरेहिं कम्मेहिं, णो विट्टं परिविचिति । (२३७) एगे वयंति अदुवावि णाणी, णाणी वयंति अदुवावि एगे । (२३८) १ यथा प्रतिबुद्धा इतिशेषः २ भृशं ३ चतुर्दशपूर्वविदादयः ज्ञानी भगवान संसारमा रहेला अने प्रतिबोधने पामनारा अथवा बुद्धिशाळी पुरुषोने एवी रीते धर्म कहे छे के जेथी जीवो यार्त्तध्यानथी आकुल होवा छतां अथवा प्रमादी होवा छतां पण प्रतिबोध पाये छे. आ वात खरेवरी छे. [२३४] मृत्युना मुखमाथी रहेला प्राणीने मृत्यु नथी आववा नुं एम बिलकुल छे ज. नहि. छतां आशाथी तणाता असंयमी जीवो मृत्युए पकडी लीघेला छतां आरंभ तल्लीन रही विचित्र जन्म परंपरा वधारे छे अथवा वारंवार पाछा तेज आशाना पाशमां सपडाय छे. [२३५ ] केटलाएक जीवोने तो ए नरकादिकना दुःखो साधे सोबत ज पडी रहेली होय छे; तेथी तेवां कर्मों करी त्यां उपजी त्यानां दुःख भोगवता ज रहे छे [२३६] अति क्रूर कर्मोथी जीदो अतिभयंकर दुःखवाळा ठेकाणे जड़ उपजे छे अने जे अतिक्रूर कर्म नथी करता ते तेवा ठेकाणे नथी उपजता. [२३७] जे श्रुतवळाओ' कहे छे ते ज केवळज्ञानी कहे छे. अने जे केवळज्ञानी कहे छे तेज श्रुतकेचाळिओ कहे छे. [२३८ ] १ चउदयी दश पूर्व ज्ञानना धरनार श्रुतकेवळी कहेवाय छे Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन चोy. आवंती' केआवंती लोयंसि समणाय माहणाय पुढो विवादं वदंति “से दिवं च णे, सुयं च णे, मयं च णे, विण्णाय च णे, उड़ अहं तिरियं दिसासु सव्वतो सुपडिलेहियं च णे-सचे पाणा, सव्वे भूया, सचे जीवा, सव्वे सत्ता, हंतव्वा, अज्जावेतव्या, परिघेत्तव्वा, परियावेयव्या, उ. हवेयव्वा । एत्थंपि जाणह, णत्थित्थ दोसो ।” अणारियवयण-मेयं । (२३९) तत्थ जे ते आरिया ते एवं बयासी- “ से दुद्दिद्वं च भे, दुस्सुयं च भे, दुविन्नायं चभे, उड-अहं-तिरियदिसासु सव्वतो दुप्पडिलेहियं च भे; जं णं तुम्मे एवं माइक्खह, एवं भासह, एवं परूबेह, एवं पन्नवेह-“ सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, हंतव्वा, अ ज्जावेयध्वा, परिवेत्तव्वा, परियावेयचा, उद्दवेयन्वा, एत्थवि जाणह, नस्थित्थ दोसो। " अणारियवयण-मेयं । (२४०) वयं पुण एव-माइक्खामो, एवं भासामो, एवं परूवेमो, एवं १ यावंतः २ केचन आ जगतमां, जे कोइ श्रमणो तथा ब्राह्मणो धर्म विरुद्ध वकवावे करे छे, जेवो के “अमे दीटुं, सांभळ्युं, मान्यु, नक्कीपणे जाण्यु, तथा रुडी रीते तपाशी जोयुं छे के सर्व प्राण, सर्व भूत, सर्व जीव, तथा सर्व सत्व हणवा, दावदा, एकडवा दुःखी करवा के गर्दन कतल करवा. एम करता कंइए दोपथतो नथी." ते सघळो वकवाद पापनो वधारनार छे, जे माटे ए तेमनो बकबाद ते अनार्य लोकोनुं ज वचन छे. [२३९] __अने जे आर्य पुरूपो छे ते तो एवं ज वोले छ के "हे वादियो, तमारु ते जोवू, सांभळवू, मानवू, नक्कीपणे जाणवू, तथा रुही रीते तपाशी जोवू ए वधुंए 'दुष्ट छ, जे माटे तमे एवं कहो छो, के " सर्व जीवोने मारवा करवामां को दोप नधी," पण ए तमारुं बोलवू अनार्य लोकने ज अनुसरतुं छे. [२४०] अने असे तो एम कहिए छीए के " कोइपण जीवने मार के दुःख उप२ बुद्धमतन साधुओ वो के “अमे दीड त, सर्व जीव तथा दोपथतो नया ज Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६४] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. पन्नवेमो-" सव्वे पाणा, सच्चे भूया, सवे जीवा, सव्वे सत्ता, ण हंतव्वा, ण अज्जावेतञ्चा, ण परिघेत्तव्वा, ण परियावेयव्या, पण उद्दवेयव्वा । एत्थपि जाणह, णत्थित्थ दोसो” । आरियवयण-मेयं । (२४१) पुत्वं निकाय : समय, पत्तेयं पत्तेयं पुच्छिस्सामो । हं भो पावादुया, किं भे सायं दुक्खं उदाहु असायं? समिया पडिवन्नेयावि एवं बूया,-सव्वेसि पाणाणं, सव्वेसिं भूयाणं, सव्वेसिं जीवाणं, सव्वेसिं सत्ताणं, असायं २ अपरिणिव्वाणं महन्भयं दुक्खंत्ति बेमि । (२४२) ( तृतीय उद्देशः) उवेहेणं ४ बहियायलोयं । सेसवलोयंसिजे केइ विन्नु । (२४३) अणुवीइ पास, णिक्खिलदंडा जे केइ सत्ता पलियं चयति १ निकाच्य व्यावस्थाप्य २ अनभिप्रेतं ३ अनिवृत्तिरूपं ४ उपे क्षस्वैनं ५ ततोप्यधिकः ६ कर्म जावq नहि एम करवामां को दोष नथी." आ वचन आर्यपुरुषोनुं छे. २४१] दरेक मतवालाना शास्त्रोमां शुं शुं कहेटु छे ते तपाशी करीने अमे दरेक मतवालाने सवाल करिए छीए के हे परवादिओ! "तमोने सुख अप्रिय छे के दुख अप्रिय छे"! जो दुःख अप्रिय छे, तो तमारा मुजय वधा जीवोने दुःख महा भयंकर अने अनिष्ट छे (२४२) त्रीजो उद्देश. (तपोनुष्ठान) हे मुनि आ धर्मथी बाहेर रहेला पाखंडिलोकनी रीतभातपर तारे कशं ल. क्ष्य नहि आप. अने एम जे वर्ते छे ते वया विद्वानोना शिरोमणि जाणवा तुं विचारी जो के जेथो आरंभने दुःखनुं कारण जाणी हिंसानां काम पार १ खोटे छे (rrong) - Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन चोयु. [६५]. गरे मुयचा १ घम्मविदुत्ति अंजू; आरंभजं दुक्खमिणति णन्दा । एवमाहु संमत्तदंसिणो । (२४४) ते सव्वे पावादिया दुक्खस्स कुसला परिन्न-सुदाहरंति, इति कम्म परिन्नाय सव्वसो। [२४५] इह आणाकंखी पंडिए अणिहे एग-मप्पाणं सपेहाए धुणे सरीरगं। (२४६) कसोहै अप्पाणं । जरेहि अप्पाणं । (२४७) जहा जुलाई कठाई हब्बवाहो' पनत्थति, एवं अत्तसमाहिते अणिहे । (२४८) विगिंच कोहं अविकंपमाणे इमं णिरूद्धाउयं सपेहाए। [२४९] १ मृतार्चाः निःप्रतिकर्मशरीरा इत्यर्थः २ अग्निः ३ मनुष्यत्व ४ गलितायुष्क. करी शरीरनी पण कशी दरकार नहि करता थका धर्मना जाण अने सरल थइ कर्मे ने तोडे छे ते खरेखरा उत्तम विद्वान्छे. एय यथार्थदर्शी पुरुषो कहेछे (२४४) जे माटे ते बघा वादियो सर्व रीते कर्मोनुं स्वरूप जाणी दुःखनी वावतमा समजवंत वनतां ते दुःख कोइने पण नहि आपईं जोइए एको ठराव करशे. [२४५] माटे आ जगतमा जाज्ञा पाळा चाहानार पंडित पुरूपे निरिह थइ आत्माने एकला जोइने शरीरने तपदी शोप. [२४६] हे मुनि, तुं तारा शरीरने तपथी खूब छातचा जीर्ण दार. [२४७] जे माटे जेय जूना लाकडाने अनि जलदी पाळेछे तेवजे स्नेहादित अने सावधान पुरूप हमे तेनां कर्य जलदायी रुळशे. [२४८] । वळी हे मुनि, गनुप्यमवर्नु आयुज्य पूरं थइ रहेका थापेमु जाणो दिम्पन धरीने कोयने अलगो कर. २४९] १ राग रहित [unattached] - - -- Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६ ] आचारांग - मूळतथा भाषान्तर, दुक्खं च जाण अदुवागमिस्सं । पुढो फासाई च फांसे । लोयं पास विप्फेदमाणी । ( २५०) 1 जे विडा, पावहिं कम्पेहिं अणियाणा ते वियाहिया । ( २५१ तम्हा - तिविज्जो णो पडिसंजलिज्जासित्ति बेमि । (२५२) [चतुर्थ उद्देश: ] आवीलए पवीलए णिप्पीलए, जहित्ता पुथ्वसंजोगं हिच्चा उंब ૧ समं । (२५३) तम्हा अविमणे वीरे सारए समिए सहिते सया जए। ( २५४) १ आपीडयेत् २ गत्वा ३ स्वारतः क्रोधादिकथी आवती काले केवां दुःख थशे ते विचार तथा लोक केवी har क्रोधादिकथी टळवळे छे ते तपाश. [२५० ] अने ओ कषायोने उपशमावी शांत बन्या छे तेओने परम सुखी करेला छे. [२५१] माटे खरा विद्वान पुरुषे क्रोधथी कोइ वखते वळवुं नहि. [२५२ ] चौथो उद्देश. (संयम संस्थित रहेi) मुनिए सपळी सांसारिक जंजाल छोडी उपशम पूर्वक शरीरने शरुआत मां सादातपथी दम. पछी वधता तपथी दम, अने प्रांते संपूर्ण रीते दमवं. [२५३] अने एटला माटे पराक्रमी मुनिए शांत मनथी संयममां राग धरी समितिय तथा ज्ञानादि हितकारक वस्तुओने साथै राखी हमेशां प्रयत्नवंत रहे. [२५४ ] १क्षमा २ पवित्रपणे वर्त्तवानी रीतिओ. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन चोथु. . ___ (६७) . दुरणुचरो मग्गो वीराणं अणियगामीणं (२५५) विगिच मंससोणियं । एस पुरिसे दवीए वीरे आयाणिज्जे वियाहिए जे धुणाति समुस्सयर वसिता बंभचेरंमि । (२५६) __णेत्तेहि पलिछन्नेहिं आयाणसोयगाढिए बाले अन्चोच्छिन्नबंधणे अणभिवंतसंजोए । तमंसि अविजाणओ आणाए लंभो णत्थि ति बेमि। (२५७) जस्स नत्थि पुरा पच्छा, मज्जे तस्स कुओ सिया। (२५८) से हु पन्नाणमंते वुद्धे आरंभोवरए । सम्म-मेयंति पासह । जेण चंचं वहं घोरं पारितावं च दारूणं । (२५९) १ मोक्षगामिनां । २ शरीरं ३ इंद्रियैरित्यर्थः ४ वर्तमानस्योतिशेषः मुक्ति मेळवनार वीर पुरुषोनो मार्ग धणो विकट छे. [२५५] माटे हे मान, तुं तारां यांस अने लाही सूकाव. कारण के जे पुरुष नह्मचर्यमां हमेशा रहीने शरीरने तपथी दमे छे तेज वरि पुरुष मुक्ति मेळवनार होवायी माननीय गगाय छे. [२५६] जे पुरुप शरुआतमा कदाच दंद्रियोने वश करी वत्यों होय पण पाछो माहना जोसथी विषयोमा आशक थाय छे, ते वाळ पुरुष कशा पण वंधनधी छूटो थएलो नयी तथा कशा पण प्रपंचया रहित थएला नथी. एका अजाण पुरुषने मे.हना अंधारामां वर्ततां परमेश्वरनी आज्ञानो लाभ२ थतो नथी.[२५६] अने ए रीते जेने पूर्व भरमा आज्ञानी प्राप्ति नथी अने भविष्यमा पण यपानी नथी तेने आ वर्तमान भवमा से शी रीते थवानी ? [२५८] माटे ज्ञानवंत अने परमार्थदशी पुरुपो आरंभथी दूर रहे छे. तेमनी आ वर्तणुक घणी प्रशंसनीय छे. जे मा आरंभथी जीवने वध वंधनादि भयंकर दुःखो सथा असह्य पीडा भोगवनी पडे छे. [२५९] - - - १ कामपरीत्यागमां. २ माप्ति. [सम्यत्त्वनी faith.] Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. पलिछिदिय बाहिरगं च सोयं, णिकम्मदंसी इह मच्चिएहि । [२६०] कम्भुणो सफलत दवं तओ णिज्जति वेयवि। [२६१] जे खलु भो, वीरा समिता सहिता सयाजता संघडंदसिणो । आतोवरया अहा तहा लोग मुव्हमाणा पाईणं पडीणं दाहिणं उदीणं इति, सञ्चंसिं परिविचिड़िसु । [२६२] साहिस्सामोरे जाणं वीरणं समिताणं सहियाणं सयाजताणं संघइंदसीणं आतोवरयाणं अहातहा लोग सुवेहमाणाणं । किमस्थि उवाधीः । पासगस्स ण विज्जति णस्थिति बेमि । (२६३) । १ निरंतरदर्शिनः २ कथयिष्यामः माटे हे मुनिओ, तमारे बाहेरना प्रतिबंध कापी करी मोक्ष तरफ लक्ष्य राखी आ दुनिआमा आरंभनो त्याग करी वर्त. [२६०] "करेलां कर्मनां फळ थवानांज" एम जोइने आगमना तत्वने जाणनार मुनिओए ते कर्मों बांधवाना हेतुओधी दूर रहे. [२६१] ने पुरुषो खरेखरा पराक्रमी, सत्यत्तिनी रीतिओपी वर्तनारा, ज्ञानादि गुणोमा रमनारा, हमेशा उचमवंत, कल्याण तरफ दृढ लक्ष्य धरनारा, पापथी नि; वर्तेला अने यथार्थपणे लोकने जोनारा- हता तेओ पूर्व पश्चिम दक्षिण तथा उचर ए चार दिशाओमां रहेता थका सत्यने ज वळगी रह्या हता. [२६२] .. तेवा सत्पुरुषोनो अभिशय हुं तमोने जणाई के तत्वदर्शी पुरुषोने उपाधिओ नथी रहेती. [२६३] Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन : पांचम आवंतीनान्ना प्रसिद्ध लोकासारनामकं पंचम मध्ययनम् (प्रथम उद्देशः) आवंती केआवंती लोयसि विप्परामुसंति अदाए अणदाए वा। एतेसु चेव विप्परामुसति । गुरू से कामा । तओ से मारस्स अंतो। जओ से मारस्स अंतो, तओ से दूरे , णेव से अंतो, णेव से दूरे । (२६४) १ हिंसाकुर्वतीत्यर्थः २ समुत्पचंतइत्यर्थः ३ मोक्षोपायात् ४ विषयसुख स्य ५ विषयसुखस्य. अध्ययन पांचमु. लोकसार. पहेलो उद्देश. [माणिनी हिंसा करनार, विपयो माटे आरंभमा प्रवर्तनार, तथा विपयोमा आसक्त जे होय तेने मुनि न गणो.] . जे कोइ आ जगतमा समयोजन अथवा निष्पजन जीवानी हिंसा करेछे तेओ पाछा तेज जीवोनी गतिओमां जइ अपनेछ. एवा अतत्वाशी जनोने विषय सुखो छोडाववां भारे सुरखेल पहेछ, माटे तेओ मरणनी परंपरायी छूटी शकता : नथी अने एम होवायी तेओ मोसना मार्गथी या मुखथी दूर रहेला छे. तेथी तेओ नधी विषयसुखना अंदर, अने नयी तेनायी वेगळा. [२६४] १ आ अध्ययननुं चीजें नाम आवती छे. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७०] आचारांग-मूळ सथा भाषान्तर. से पासति फुसिय मिव कुसग्गे पणुन्नं णिवतितं वातेरितं, एवं चालस्स जीवियं मंदस्स अविजाणओ । (२६५) कूराणि कम्माणि बाले पकुव्बमाणे ततो दुक्खेण मूढे विपरियास -मुवेति, मोहेणं गम्भ मरणाइ२ एति एत्य मोहे 3 पुणो पुणो । (२६६) संसयं परियाणतो संसारे परिन्नाते भवति । संसयं अपरिजाणओ संसारे अपरिग्णाते भवति । (२६७) जे छेए, सागारियं ण से सेवए । (२६८) कटु एवं अविजाणओ बितिया मंदस्स बालया। (२६९). लद्धा हुरत्था ८ पडिलेहाए आगमेत्ता आणवेज्जा अणासेवण१ बिंदुमिव २ मरणादि ६ मोहकार्ये गर्भादिके. ४ मैथुनं ५ सेवित्वा ६ अपलपतः ७ लब्धान्कामान् ८ बहिश्चित्ते ९ ज्ञाल्या. वत्वदशी जनो जुए छे के एवा अज्ञानीओतुं आयुष्य दर्भनी अणी पर रहेला वायराथी कंपायमान अने जलदीथी पड़ी जनारा जळविंदुनी माफक अस्थिर छे. [२६५] तेम छतां तेवा अज्ञानीओ कर पाप करता थका ते पापना फळ उदय आवतां मूढ वनी विपर्यास पाये छे अने पाछा मोहथी गर्भ अने मरणादि दुःखमां रहेता थका वारंवार ते दुःखो पाम्या करे छे. [२६६] जे संशयने नाणे छे, ते संसारने पण जाणे छे जे संशयने नथी जाणतो तेणे संसार पण जाण्यो नथी. [२६७] । ___ माटे जे चतुर होय तेमणे वि संग न करवो. [२६८] जे स्त्री संग करीने पाछो गुरूना पासे इनकार जाय छे ते एकना बदले वे पाप करे छे. [२६९] माटे मळेलां विषय सुखोने पण विचार पूर्वक दुःखना हेतु जाणीने तेमना १ कारण के संशय ए प्रवृत्तिनो अंग गणाय छे. जे माटे अर्थ संशय छतां पण प्रचि देखायछे. अर्थ शब्द मोक्षे नहि पण तेना उपाय लेवा. Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्ययन पांच [७१] याएत्ति बेमि (२७०) ___पासह एगे रूवेसु गिद्धे परिणिज्जमाणे । एत्थ फासे पुणो पुणो आवंती केआवंती लोयंसि आरंभजीवी । (२७१) एएसु २ चेव आरंभजीवी । एत्थवि ४ बाले परिपञ्चमाणे रमति पावहिं कम्मेहिं असरणं सरणंत्ति मण्णमाणे । (२७२) इह मेगेसिं एगचरिया भवति। से बहुकोहे, बहुमाणे, बहुमाए, बहुलोभे, बहुरए, बहुनडे, बहुसढे, बहुसंकप्पे, आसवसक्की' पलिओच्छन्ने उद्वियवायं पवयमाणे, " मा मे केइ अदक्खु” अन्नाणपमायदोसेणं सततं मूढे धम्मं णाभिजाणति । (२७३) १ परिणीयमानान् विषयाभिमुखं. २ गृहस्थेषु ३ परतीर्थिक : प्रार्श्वथादिर्वा दुःखभास्यादितिशेषः ४ संयमाभ्युपगमेपि ५ आश्रवसत्की-आश्रववान् ६ पळितावच्छन्न: सेववाथी दूर रहे. [२७०] जुओ केटलाएक विषयोमा आसक्त रही नरकादिक गतिओमा तणाया जाय छे. अने एवो जे कोइ आ दुनिआया आरंभथी जीवनाराछे वे बघा वारंवार मोदजाळमां फसी पडे छे. [२७१] वळी केटलाएक पासथ्यादिक पण ए गृहस्थोमां वर्तता यका सावधप्रवृत्तिथी प्रवत्तीने दुःखी थाय छे. अने आ संयम लीधा छतां पण तेवा वाळ जीवो विपयतृष्णाथी तणाइने अशरणने शरण मानता थका पापमां रमे छे. [२७२]. वळी आ मनुण्य लोकमां केटलाएक एकला थइ फरे छे, तेओ बहु क्रोधी, बहु मानी, वहु मायावी, वहु लोभी, बहु पापी, बहु ढोंगी, वहु धूर्त, बहु दुष्टाध्यवसायी, हिंसक, अने कुकर्मी होवा छतां "हुँ खूब धर्म माटे एन्जमाल बन्यो छ" एचो वकवाद करता थका अने " रखे कोइ मने जाणी जाय?" एवी पीकथी एकला थइने फरता थका अज्ञान अने ममादयी निरंतर मूढ पनी धर्मने कंह पण समजता नथी. [२७३] ? आचारहिन यतिओ-पधारी. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. अहा पया माणव? कम्मकोबिया , जे अणुवरया, अविज्जाए पलिमोक्खमाहु आवमेव मणुपरियतित्ति बेमि । (२७४) [द्वितीय उद्देशः] - आवंती केआवंती लोयंसी अणारंभजीवी, एतेसुचेव मणारंभजीवी । (२७५) एत्थोवरए तं झोसमाणे “ अयं संधीति ” अदक्खू, से इमस्स विग्गहस्स अयं खणत्ति मन्नेसी । (२७६) एस मग्गे आरिएहिं पवेदिते । उद्वितो णो फ्मायए, जाणि-तु दुक्खं पत्तेय सायं । (२७७) १ कर्माणि अष्टप्रकारे कुशलाः हे मनुष्य, देओ पापानुष्टानथी नहि निवर्तता अविद्याथी' ज मोक्ष थशे एम कहेछे तेवा दुःखी जीवो कर्मयां न कुशळ छे, नहि के धर्ममां, अने तेओ संसारना, चक्रमां ज फया करवाना. [२७४] बीजो उद्देश. [जे हिंसादिक पापोधी नियों होय तेज सुनि गणाय.] आ जगतमा जे कोइ निरारंभीर थइ पर्ने छ तेओ गृहस्थो पासयी ज निर्दूषण आहारादिक लइ अणारंसिपणे रहेछे. (२७५) माटे हे मुनि तारे सावध प्रतिधी दूर रही कोंने खपावा थकां "हमजा आ अवसर छे." एम विचारी पचित्र संयम पाळतां रहे जे माटे ते नाण्युं छे के आ शरीरनो आ जबसर छे. (२७६) तीर्थकरदेव ए मार्ग बसाल्यो छ (जसे मार्ग पण तान्योछे) के पधाजंतुओने जूदं जूदु मुख-दुःख थापछे एक जाणी दीका लइ जमाव न करतो. (२७७) १ असालयी. २सिक, ३ पण रहित. ४ पाप भरेली वर्तणुदाया. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन पांचमुं. - पुढोछंदा इह माणवा । पुढो दुक्खं पवेदितं । ले अविहिंसमाणे अणवयमाणे १ पुट्टो फासे बिप्पणोदल्लए । एस समियापरियाए बियाहिते। (२७८) जे असत्ता पावेहिं कम्मेहिं; उदाहुते आयका फुसंति, इति उदाहु धारे; ते फासे पुट्ठो-हियासए । (२७९) पुवंपेतं पच्छापेतं भिउरधम्मं विद्धंसणधम्म अधुवं अणितियं असासयं चयावचइयं विप्परिणामधम्मं । पासह एयं रूवसंधि । (२८०) समुप्पेहमाणस्स एकायतणरतस्स इह विप्पमुक्कस्स णत्यि मग्गे। विरयस्सत्ति बेमि । [२८१] आवंती केआवंती लोगंसि परिग्गाहावंती;-से अप्पं वा, बहुयं ९ अनपवदन् २ कदाचित् ३ उदाहृतवान् ४ नरकादिरूपः जम माणसोना आशय पण जूदा जूदाज छ तेय तेमनुं दुःख पण जूद जूदुज छ. माटे मुनिए कशी हिंसा नहि करतां तथा कंइ पण मृपा भाषण नहि करतां पपिहोने सहन करदा. एवी रीते वर्तनारो मुनिज रुडा चारित्रवाळो वर्णव्यो छे. २७८] - जेओ पापयां नथी मवर्तता तेमने कोइ वरखते मोहोटा रोग आवी नडे तो धीर तीर्थंकरदेवे एम कथुछ के ते रोगो सहन करवा. [२७९] कारण के आ शरीर मोडं के वेडं पण नूटवातुं या फूटवानुं अध्रुव१ अनित्य, २ अशाश्वत, 3 वधतुं घटतुं अने नाश पामनार छे ज. हे मुनिओ, आ शरीरनुं ऊपर भयाणे स्वरूप तथा अवसर विचारो. [२८०] ज पुरूप ऊपर प्रमाणे गरीरहुँ स्वरूप तथा अवसर विचारी सर्वयी सरस ज्ञानादिक आयतनोमां४ रमतो रही आ शरीरनी दरकार नथी धरतो तेवा त्यागी पुरुपने भटकवानो रस्तो नधी. [२८१] आ बुनिआमा जे कोइ पासे परिग्रह होय जेवों के थोडो अथवा घणा. १ नियमविनातुं. २ फेरफार पाम, ३ ते ते स्पे पण मेगां नहि टकनारं. ४ फायदा भरेला स्थळोमां Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७४] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. वा, अणुं वा, थूलं वा, चित्तमंतं वा, अचित्तमंतं वा, एते सु चेव परिग्गहावंती । (२८२) एव-मेवेगेसिं महन्भयं भवति । लोगवित्तं च णं उवेहाए। (२८३) एए संगे अविजाणतो से सुपडिबुद्धं सूवणीयंति णच्चा, पुरिसा ! परमचक्खू विप्परिक्कमे । एतेसु चेव बंभचेरं-त्ति बेमि । (२८४) से सुयं च मे, अज्झत्थं च मे; बंधपमोक्खो च तुज्ज अज्झत्थेव । [२८५] एत्थ विरते अणगारे दीहरायं तितिक्खए । २८६] नानो अथवा माहोटा, सचित्त अथवा आचित्त, ते वधा कदाच व्रती कहेवाता होय तोए गृहस्थोना जेवाज परिग्रहिओ गणवा. [२८२] ए परिग्रहिपणुं ज केटलाएकाने नरकादिक महाभय आपनारुं थायछे, तथा लोकोनो आचार? पण तेवो ज भयजनक थायछे, एम विचारी तेनाथी दूर रहे,. [२८३] ए परिग्रहनो संग त्याग करनारो मुनि ते रुडी रीते प्रतिबोध पामेलो छे तथा तेने रुडी रीते ज्ञानादि गुण प्राप्त थया छे एम जाणी हे पुरुप, तारे उत्तम दृष्टि धरीने वर्तवू. जे माटे निःपरिग्रहि अने उत्तम दृष्टिवंत पुरुषोमां ज ब्रह्मचर्य होयछे. [२८४] मे सांभळ्युं पण छे, अने अनुभव्युं पण छे के कर्मोथी छूटवू ए तारा आस्मायी ज थवानुं छे. [अर्थात् जो तुं ब्रह्मचर्यमां रहीश तोज कर्मोथी छूटीश.] [२८] माटे परिग्रहथी अलगा थएला मुनिए जीवनपर्यंत जे संकटो आवी पडे ते सहन करवा. [२८६] १. आहार, भय, मैथुन, तथा परिमहरुप उत्कट संज्ञाओ. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७५] - - अध्ययन पांचमुं, . पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्तो परिव्यए । (२८७) एवं मोणं सम्म अणुवासिज्जसित्ति बेमि । (२८८) [ तृतीय उद्देशः ] आवंती केआवंती लोयंसि अपरिग्गहावंती एएस २ चेव अप्परिगगहावंती, सोचा वई मेहावी, पांडियाण णिसामिया (२८९) समियाए ३ धम्मे अरिएहिं पवेदिते-" जत्थ मए संधी४ झो १ बहिर्व्यवस्थितान् । त्यक्तेषु सत्सु इति शेषः ३ समतया ४ मोक्षमार्गः कर्मसंधिळ. प्रमादीओने धर्मयी पराङ्मुख थएला जोइ मुनिए अप्रमत्त थइ फरवं. [२८७] एम रुडी रीते तीर्थंकरभापित संयमक्रियाने मुनिए परिपाळन कर्या करवी. [२८८] ~reononत्रीजो उद्देश. जे मुनि होय ते कशो परिग्रह न राखे, तथा कामभोगनी इच्छा पणन करे. जे कोई जगतमा निःपरिग्रहि थायछे ते वधाए तीर्थकरदेवनी वाणी सांभळी विचेसवंत थइ पंडितोना वजन अवधारी सर्व प्रकारे परिमह छांडतांज निःपरिग्रही थायछे. [२०९] तीर्थकरदेव समताधी धर्म वर्णव्यो छे, ते बोल्या छे के "हे लोको जे रीते में अदा कर्म खपान्यां छे ते रीते वीजा मार्गोयां कर्म खपाववा मुश्केल छे, माटे १ निष्पक्षपातपणे [Vithout. RArtitilits] Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७६] आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर. सिए' एव-मण्णत्थ संधी दुज्झोसए भवति । तम्हा बेमि णो णहणेज्ज वीरियं । ” (२९०) 1 जे पुव्यढाई णो पच्छाणिवाती । जे पुव्बुनाई पच्छाणिवाती । जेणो पुट्टाई णो पच्छाणिवाई । से २ वि तारिए सिया । जे परिण्णाय लोग मण्णेसिता । एयं णियाय ४ मुणिणा पवेदितं । (२९१) इह आणाखी पंडिते अणि पुव्यावररायं जयमाणे सया सीलं सपेहाए ५ । (२९२) सुणित्ता भवे अकामे अझंझे ७ । (२९३) इमेणं' चैव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण वज्झओ । जुद्धारिहं ख १ सेवितः क्षपितोवा २ शाक्यादिरपि । ३. पासत्थादयः ४ ज्ञात्वा . ५ संप्रेक्ष्य तदेवानुपालयेत् । ६ भवेत् ७ मायालोभच्छारहित : ८ स्वशरीरेण , हुँ कहुं हुं के मारो दाखलो लइ वीजा मुमुक्षाओए पण पोतानुं पराक्रम छुपावकं नहि ँ केटलाएक पहेली पण उज्माल थइ दीक्षा ले छे अने पाछां पण पतित नयी थता. केटलाएकर पहेला उज्माल थइ दीक्षा ले छे पण पाछा पतित थाय छे. कलानी पहेला उज्माल थता अने नथा तेथी पाछा पति । थता. (शाक्तादिक तेथी सावध ४क्रियामां प्रवर्त्तनारा पासत्याओ ५) नयी ऊटेला अने नथी पडेला आ वा मुनिए (दीर प्रभुए) ज रुडी रीते जाणीने जणावी छे. [२९१] तीर्थंकर देवनी आज्ञा पाळवा इच्छनारा चतुर मुनिए निरीहपणे रात्रिना पहेला तथा छेला पहोरे यत्नवंत थह हमेशां शीळने मोक्षांग विचारीने तेने पाळं. [२१२] शीळने नहि पाळनाराओनी यती दुर्दशाओ सांभळी कामभोगनी इच्छा तथा मायाथी रहित थं. [२९६] हे मुनि, आ शरीर साज तुं युद्ध कर, वीजा बाहरेना युद्धनी तने शी - १ गणधरादिक. २ नंदिषेण वगेरे. ३ गृहस्थो. ४ आरंभ भरेला वर्तणुक्रमां ५ आचारहीन यतिओ. ६ संयमने. ७ मोनुं कारण. Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन पांच. (७७) लु दुल्लहं । (२९४) जहेत्य कुसलेहिं परिन्नाविवेगे भासिते ११ चुते हु बाले गब्भाइसु रज्जति । (२९५) अस्सिं २ चेयं पव्वुञ्चति । रूवंसि वा छणंसि४ वा । (२९६) से हु एगे संविद्धपहे मुणी अण्णहा लोग-सुवेहमाणे । (२९७ इतिकम्मं परिन्नाय सव्वसो, से ण हिंसति संजमति णो पगभति । उवेहमाणो पत्तेयं सायं, । (२९८) __ १ स तथैव श्रद्धेय इतिशेषः २ जिनमत ३ रूपादौ गृद्धः ४ हिंसादी प्रवर्तते इत्यर्थः जरुर छ. युद्धने योग्य आवं शरीर फरी मळवू घj मुस्केल छे. [२९४] तीर्थकर देवे विचित्र अध्यवसायोनी जे रीते समन आपीछे ते तेज रीते स्वीकारवी, माटे धर्य पामीने तेथी भ्रष्ट थएलो वाळ जीव गर्भादिक दुःख पामे छे. [२९५] ___ आ जिनशासनमांज एवं कहेवाय छे के जे विषयोमां गृद्ध। थाय छे ते हिंसामा प्रवर्ते छे. [२९३] अने मुनि तो खरेखरो तेज जाणवो के जे लोकोने मोक्ष मार्गमा विमुख प्रवृत्ति करतो देवी तेमने दुःखी विचारतो थको मोल मार्गमां रुडी न चाल्यो जाय. [२०.७] माटे कर्म स्वरुप जाणीने शुद्ध मुनिओ " दरेक जीवर्नु सुख अलग अलग छे" एम विचारी कोइ जीवनी हिंसा नथी करता किंतु संयममां वर्त्तता रही घाटाइयी दूर रहे छे. [२८८] १ आसक्त. - - -- Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७८ ] आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर. बन्नादेसी' णारभे कंचणं सव्वलोए, एग-प्पमुहे विदिसप्पतिन्न २ निव्विन्नचारी अरए पयासु । (२९९) से वसुमं सव्वसमन्नागयपन्नाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्जं पाव कम्मं तं णो अन्नेसी । (३००) जं सम्मं - ति पासह, तं मोणं-ति पासह । जं मोणं-ति पासह तं सम्मं - ति पासह | (३०१) ण इमं सक्कं सिढिलेहिं अद्दिज्जमाणेहिं गुणासातेहिं वंकसमान यारेहिं पमत्तेहिं गारमावसंतहिं ४ । ( ३०२ ) भुणी मोणं समायाय धुणे कम्म- सरीरंगं । पंतं लूहं सेवति वीरा संमत्तदंसिणो । एस ओहंतरे मुणी तिण्णे मुत्ते विरए वियाहित्त-ति 3 बेमि । (३०३) १ वर्णः साधुकारः सुयशइतियावत् तदाकांक्षी । २ विदिक्प्रतीर्णः ३ आद्रयमाणैः ४ अगारमावसद्भिः । सुयशना इच्छनार सुनिए सर्व लोकमां कंइ पण पाप प्रवृत्ति न करवी. . किंतु फक्त मोक्ष तरफ दृष्टि राखी आई अवलुं नहि जोतां स्त्रीओमां अरक्त रही आरंभी उदासीन रहे. [२९९ ] एवा संयमी मुनिओए सर्व रीते पवित्र वोध पामीने, नहि करवा योग्य पाप कर्म तरफ कदापि दृष्टि नहि आपवी. [३०० ] जे सम्यकत्व छे ते मुनिपणुं छे ने जे सुनिपणुं छे ते सम्यकत्व छे. [ ३०१] ए सम्यकत्व या मुनिपशुं हिम्मत हीन, काचा हैयाना, दिपयासक्त, मायावा, ममादी, अने घरमा रहेनारा जीवोथी घरी शकायज नहि. [३०२] किंतु मुनिओज एवं मुनिपणुं धरीने शरीरने कशे छे. तेवा सम्यकत्ववेत वीर पुरुषो लखुं अने हलकुं भोजन करे छे. अने एवा पराक्रमी अने सावधानुtorter निवर्त्तेला मुनिओज संसारना तरनार होवाथी तरीने पार पामेला तथा निःसंग होवाथी मुक्त वर्णव्या छे. [३०३] १ निश्चय सम्पकत्व. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन पांचमुं. [७९] [चतुर्थ उद्देशः] गामाणुगामं दूइज्जमाणस्स दुज्जातं दुप्परकंतं भवति अवियत्तभिक्खुणो। (३०४ वयसावि एगे चोइआ कुप्पंति माणवा । उन्नयमाणे य गरे ता मोहेण मुज्झति । संबाहा 3 बहवो भुज्जो दुरतिकमा अजाणतो । सतो। एयं ते मा होउ । एयं कुसलस्स४ दसणं । (३०५) तद्दिट्टीए ५ तम्मुत्तीए तप्पुरकारे तस्सनी तनीवेसणे जयविहारी जाणिवाती पंथणिज्झाती पलिबाहिर पासिय पाणे गच्छेज्जा । से। १ अव्यक्तस्य २ उन्नत मानः ३ पीडाः ४ वर्द्धमानविभोः गुरोर्दृष्टया ६ परिबाह्यः अवग्रहा- बहिर्वर्ती चाथो उद्देश. [अजाण, अगीतार्थ, अने सूत्राथमी निश्चय दिनाना मुनिने एकला फरदामां घणा दोप थाय छे) सामर्थ्यहीन? मुनि एकलो थइने गामोगाम फरे तो तेनुं ते फर तथा जर्बु सुंदर गणाय छ. केटलाएक मनुष्यो मात्र वचनोथी सारी शीखामण आपतां खुश थाय छे. एवा अभिमानी पुरुषो २ महामोहथी विवेकविकल वनी गन्छयी झा पडे छे. तेवा अजाण अने अतत्वदर्शी पुरुषोने अनेक आवी पडती पीडाओ घनीय थाय छे. हे मुनिओ, एवं तमारा माटे नहि बनो एवं कुशळ पुरुप चीरमभुर्नु ] दर्शन छे. [३०] माटे मुनिए हमेश गुरुनी नजर आगल रहीने गुरुए वतावेली निःसंगताथी रुना बहुमान पूर्वक, अने गुरु परना श्रद्धाथी, गुरुसगीप निवास करता थकां तनापूर्वक गुरुना अभिमायने अनुसरीने मागना अवलोकन साये जीवजंतने जो १ वय नया ज्ञाननी योग्यताथी रहित. २ अनानधी. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८०] आचारांग-पूळतथा भाषान्तर, अभिकममाणे पडिक्कमाणे संकुचेमाणे पसारेमाणे विणियदृमाणे संपलिमज्जमाणे। (३०६) एगया गुणसमियस्स रीयता कायसं-मणुचिन्ना एंगतिया पाणा उद्दयंति; इहलोग वेयणवेज्जावडियं । ज आउट्टीकयं कामं तं परिन्नाय २विवेग-मेति । एवं से अप्पमाएणं विवेगं किति वेदवी । (३०७) से पभूयदंसी पभूयपरिन्नाणे उवसंते समिए सहिते सयाजए दुटुं विप्पडिवेदेति ४ अप्पाण:-" किमेस जणो करिस्सति । एस से परमारामे जाओ लोगंसि इथिओ.” मुणिणा हु एतं पवेदेितं । (३०८) उव्वाहिज्जमाणे गामधम्महिं. अवि णिव्वलाएस, ७ अवि ओ १ रीयमाणस्य सम्यगनुष्टानवतः २ प्रायश्चितं. ३ कीर्तयति. ४ विप्रतिवेदयति. ५ स्त्रीजन: ६ उद्धाध्यमान: ७ निबलाशक: निर्वलभोजी " स्यादितिशेष तां थकां भूमंडळपर भयता रहे. एंटलंज नहि पण जतां, आवतां, देशतां, ऊठतां, वळतां, अने प्रमार्जन करतां सर्वदा गुरुनी अनुज्ञा लइ वर्त. [३०६] कोई वखते एवा सद्गुणी मुनिए रुडी रीते वर्त्तता छतां तेना शरीरसंस्पर्शथी कोइ जंतु मरण पामे छे तो तेनो तेने आ भवयां क्षय थइ शके एटलो कर्मबंध पडे छे. अने जो आकुट्टियो जाणी जोइने कायसंघटनादिकवडे कंइ कर्य बंधाय छे तो तेना माटे योग्य प्रायश्चित आचर्याथी कर्म क्षय थायछे. ए प्रायश्चित अप्रमादिपणे आचर्याथी कर्मक्षय थाय एम आगमना जाण पुरुषो बालेछ. [३०७] माटे दीर्घदर्शी, बहुजानी, क्षमावंत, पवित्र प्रवृत्तिवंत, सद्गुणी, अने सदा यत्नवंत सुनिए स्त्रीओने देखी विचार के एस्त्रीओ मारुं शुं कल्याण करवानी छ ? तथा आ दुनिआमा स्त्रीओ ज अतिशय चित्तने मुंझावनारी छे. ए वधू मुनिए [वीरमभुए] जणाव्यु छ. [३०८] विपयोथी जो मुनि पीडाय तो तेणे निवळ आहार करवो, पेटने अपूर्ण Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन पांचमुं. ___ [८१ मादरियं कुज्जा, अवि उठें ठाणं ठाएज्जा, अवि गामाणुगायं दूइज्जा, अवि आहारंवोथिंदिज्जा, अवि चऐ । इत्थीसु मणं । (३०९) पुव्वं दंडा पच्छा फासा, पुव्वं फासा पच्छा दंडा । इच्छेते २ कलहासंगकरा भवंति । पडिलेहाए आगमित्ता४ आणवेज्जाअणासवणाए -त्ति बेमि । (३१०) से णो काहिए, ५ णो पासणिए, जो संपसारए णो ममाए, णो कयकिरिए, वइगुते,अज्झप्पसंवुडे, परिवज्जए सदा पावं । एयं मोणं समणुवासेज्जासि-त्ति बेमि । (३११) १ त्यजेत्. २ स्त्रीसंबंधाः ३ प्रत्युप्रेक्षया. ४ ज्ञात्वा. ५ कथाका रकइत्यर्थः ६ पर्यालोचनकारीत्यर्थः राखवातुं क, एक जगे उभा रही कायोत्सर्ग करवा, प्रामांतर जता रहे, छेवट तदन आहार पण छोडी आपयो,२. पण स्त्रीओमा जाणी जोइने नहि फसावं. स्त्रीओमा फसाता, पहेलो संकटो भोगवयां पड़े छे अने पछी कामभोग थाय छे. अथवा पहेलां कामभोग थाय छे तो पछी संकट भोगववां पडे छे. ए खी कलहनी उत्पन्न करनारी छे. माटे ए वळू जाणी विचार करी तेमनाथी दुर रहे. ___ स्त्रीसंग परित्यागी मुनीए स्त्रीओनी शृंगार कथा न करवी. स्त्रीओना अंगोपांग 3 न जोवा, स्त्रीओ साये बातचीत न करवी, स्त्रीओपर ममता न करवी, स्त्रीओनी आगतास्वागता न करवी, किंबहुना, स्वीओ साथे वचनमात्रयी पण परिभापण नहि करता पोताना मनने कबजे करीने हमेगां पापाचारथी दर थइ वर्चवं. [३११] १ कारण शिवाय मुनिने विहार निपिद्ध * छे. पण मोह उपशमावत्रा ने पण करवो. २ तथा गमे ते रीते आत्मघात पण करवो पण स्वीओ.मां न फसाई, ३ अवयवो * आ वान चतुर्मासस्थित मुनिने माटे संभवे. [ भा. क. ] Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८२] आचारांग-मूळ तथा भापान्तर [पंचम उद्देश.] __ से बेमि-तं जहा, अवि हरए १ परिपुन्ने चिति समंसि भोमे उवसंतरए सारक्खमाणे । सेर चिति सोयमझगए, से पास, सव्वतो गुत्ते । पार्स, लोएं महेसिणो, जे य पन्नाणमंतो पबुद्धा आरंभोवथार, सम्म मेयंति पासह, कालरस कंखाए परिव्वयति त्ति बेमि । (३१२) वितिगिच्छसमावष्णेणं अप्पाणेणं णो लभति समाधि । (३१३) सिया वेगे अणुगच्छति । असिया वेगे अणुगच्छति । अणुगच्छमाणेहिं अणणुगच्छमाणो कहं ण णिविजेज्जा । तमेव सच्चं णीसंके, जं जिणेहिं पवेइयं । (३१४) १ हृदः २ आचार्यः ३ सिता बध गृहस्था इत्यर्थः पांचमो उद्देश. (मुनिए सदाचारयी वर्तवू तथा तेना माटे जलाशयनो दृष्टांत.) जेम कोइ एक सपाट प्रदेशमा एक निर्मळ जळया भरपूर थएलो अने मुरक्षित जळाशय हमेशां स्वच्छ बन्यो रहे छे तेम केटलाएक पवित्र आचार्यो ज्ञान जळथी भरपूर बनी निर्दोष क्षेत्रमा रहीने जीवोनुं संरक्षण करता धका ज्ञानजळना प्रवाहने चलावनार थइने गुरक्षित वन्या रहेछे. एटलुंज नहि पण केटलाएक मुनिओ पण विवेकदंत बनी प्रतिवोध पामीने आरंभथी निवृत यइ समाधि मरणनी इच्छा राखता थका ते जळाशयना जेवाज वर्ते छे. [३१२] "फळ थशे के नाहि थाय " एवो संशय राख्याधी जीवने समाधिः नयी मळती. [६१३] वळी आचार्यना वाक्योने वखते गृहस्थो पण समजी शके छ, अथवा मुनिओ समजी शके छे, एवे वखते जे मुनि पोताना कर्मोदयथी ते समजी शक्तो नहि होय तेने मनमां खेद उप्तन्न थया विना रहेतो नथी. (आवा प्रसंगे गुरुए तेवा शिष्यने कहे के हे शिष्य, “जे जिनोए भाष्युं छे तेज निःशकपणे सत्य छ,” (एवी तारे श्रद्धा राखवी.) [३१४] १स्वस्थता. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन पांचमुं. समणुन्नस्स संपव्ययमाणस्स समियं-ति मण्णमाणस्स एगया समिया होति, समियं ति मण्णमाणस्स एगया असमिया होति असमियं-ति मण्णमाणस्स एगया समिया होति, असमियं-ति मण्णमास्स एगया असमिया होति । (३१५) समियं-ति मण्णमाणस्स समिया वा, असमिया वा, समिया होति उवेहाए । (३१६) असमियंति मण्णमाणस्स समिया वा, असमिया वा, असमिया होति उवेहाए । (३१७) उवेहमाणो अणुवेहमाणं ब्रूया-" उवेहाहि समियाए; इच्चेवं तत्थ संधी झोसितो भवति " । (३१८) से उठियस्स द्वियरस गति समणुपासह । एत्थवि बालभावे १ प्रतिष्टां गतिवा.. श्रद्धालु अने सविनभाषित जीवो के जेओ दीक्षा लेती वखते "जिन भापितज सत्य छे." एवं माने छे तेओमांना केटलाएक त्यार वाद तेवीज श्रद्धा टकाची राखे छे अने केटलाएक संशयी वनी जाय छे. वळी जेओने शुरुआता पाकी श्रद्धा नधी होती तेओमांना केटलाएक उत्तर काळमां शुद्ध श्रद्धावंत यइ जाय छे अने केटलाएक तेवाने तेवाज रहे छे. (ए रीते परिणामनी विचित्रताछे) जे पुरुपनी श्रद्धा पवित्र छ तेने सम्यक् या असम्यक् वस्तु बन्ने सम्यक् विचारणाथी सम्यक् रुपे परिणमे छे. [३१६] । अने जे पुरुपनी श्रद्धा अपवित्र छे, तेने सम्यक् या असम्यक् वस्तु अस म्यक् विचारणाधी असम्यक् रुपे परिणम छे. [३१७] माटे सम्यकृविचार करनारा पुरुपे विचार नहि करनारा पुरुपने सम्यक् विचार करवा प्रेरित करवो के "हे पुरुप. तुं सम्यक् विचार कर, जे पाटे तेम कर्याथी ज संयममा कर्मक्षय करायछ." हे मुनिओ, श्रद्धावंत अने गुरुकुलमां वसनार मुनिनी पदवी अने गति १ संविग्न एटले मुनि नेमणे भावित एटले समजावला. - - - - Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८४] ..... आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर, अप्पाणं णो उवदेसज्जा । (३१९) तुमंसि नाम तं चैव, जं हंतव्वं ति मनसि । तुमंसि नाम त चेव, जं अज्जावेयव्वति मनसि । तुमंसि नाम त चेव, जं परितावेयव्वंति मनसि । तुमंसि नाम तं चेव, जं परिघेतव्यंति मन्नास । एवं तुमंसि नाम तंचेव, जं उद्दवेयव्यंति मनसि । अंजू चेयपडिबुद्धज्जीवी र तम्हा । ण हंता, ण विधायए; अणुसंवेयण-मप्पाणेणं, जं हंतव्यं णाभिपत्थए। (३२०) अ आया से विन्नाया । जे विन्नाया से आया । जेण विजाणति से आया । तं पडुच्च परिसंखायए एस आयांवादी समियाए परियाए १ ऋजुः २ एतत्प्रतिबोधजीवी । ३ ज्ञात्वा इतिशेषः जुओ अने पासत्थाओनी पण पदवी अने गति जुओ. माटे बाळजनाचरित असर्यममा आएणा आत्माने नहि स्थाप. [३१९] है पुरुप, जेने तुं हणवानो इसदो करे छे त्यां एम विचार कर के ते तुज पोते छे, जेना पर हुकुम्मत चलावा तुं धारे छे त्या विचार कर के ते तुंज पोते छे, जेगने दुःखी करवा तुं धारे छे त्यां विचार कर के ते तुंज पोते छे, जेने पकडवा चाहे छे त्यां विचार कर के ते तुंज पोते छे, अने जेमने मारी नाखवा धारे छे त्यां पण विचार कर के ते तुंज पोते छे. सत्पुरुष ज खरेखर एवी समज धरता वर्चे छ. माटे सुनिए कोइ पण जंतुने हणQ के मार नहि. केमके तेने हणवा के मारवाधी आपणे पार्छ तेवू दुःख भोगवy पडे छे. एम जाणीने कोइना पर इणवानो इरादो नहि धरवो. भावार्थ-परने दुःख उपजावतां पोतानो विचार करवो ए टले के आपणने कोइ दुःस्त्र उपजावे तो केवु लागे ? एम दरेक पावत प्रथम पोता उपर अजमावदी जोइए. [३२०] जे आत्मा छे तेज जाणनार छ. जेजाणनार छ तेज आत्मा छे. किंवा जे Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन पांचमुं. याहिते-त्ति बेमि । (३२१) ___[] [ षष्ठ उद्देशः] अणाणाए एगे सोवटाणे २ । आणाए एगे निख्वदाणे। एतं ते मा होउ । एयं कुसलस्स देसणं । (३२२) तद्दिट्टीए तम्मुत्तीए तत्पुरकारे तस्लण्णी ताण्णवेसणे अभिभूय अदक्खू, अणभिभूते पभू निरालंबणयाए; जे महं अबहिमणे ५ । (३२३) १ तस्यतिशेषः २ सोद्यमाः ३ तन्निवेशनः गुरुकुळ्यासीत्यर्थः ४ तत्त्वमितिशेषः ५ भगवदभिप्रायत्तिमनो येषांते ज्ञानवडे जाणी शकाय छे ते ज्ञान ज आत्मा छे. ए ज्ञानने अनुसरीने तद्रुप आत्मा बोलाय छे. १ ए रीते जे ज्ञान अने आत्मानु एकपणुं माने तेज खरो आत्मवादी छे..ने तेवा पुरुषलुंज यथार्थपणे संयमानुष्टान कहेटु छे. [३२१] छठो उद्देश. .. (उन्मार्गमां न जर्बु तथा राग द्वेष तजवा.) कटलाएक जिनाज्ञाथी विपरीत प्रवृत्तिमा उद्यमी वर्ते छे. केटलाएक जिना ज्ञानुकूळ प्रवृत्तिमां निरुद्यमी छे. ए वन्ने वात, हे मुनि, तारे न थाओ, एम कुशल (वीर प्रमुोनुं दर्शन छे. [३२२] माटे जे पुरुष हमेशां गुरुनी दृष्टिमां वर्ततो होय, गुरु प्रदर्शित मुक्ति स्वीकारतो होय, गुरुनु बहु मान करतो हाय, गुरुपर श्रद्धा धरतो होय, गुरु कुळवास करतो होय, ते पुरुष कोने नीतीने तत्त्व जोड़ सके छ. अने एवा महा पुरुष के जेनुं मन लगार पण सर्वज्ञोपदेशयी बाहेर जनुं नधी ते कोइनांची पण पराभून न यता निरालंबनता रुप भावनाने भादवा समर्थ थाय छे. [३३] . ? जेमके जे इंद्र शब्दमा उपयुक्त होय ते इंद्र कदी शकाय छे.. - Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८६] __ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. पवादेणं १ पवायं २ जाणेज्जा; सहसम्मइयाए, परवागरणेणं, अन्नेसि वा अंतिए सोच्चा । (३२४) । णिसं ४ णातिवत्तेजा मेहावी सुपडिलेहिय सवन्तो सव्वयाए सम्ममेव समभिजाणिया । [३२५] इहारामं परिन्नाय, अल्लीणगुत्तो परिव्वए । णिट्टियदि वारे आगमेणं सदा परिक्कमेज्जा (सि तिबेमि । [३२६] उद्धं सोता ८ अहं सोता, तिरियं सोता वियाहिया; एते साया वियक्खया, जेहिं संगति पासह । (३२७) . आवदृ-मेयं तु पेहाए, एण्थ विरमेज्ज वेदवी । (३२८) १ गुरुपारपर्येण. २ सर्वज्ञोपदेशं ३ सहसात्मत्या, सहसंमत्यावा ४ आज्ञा ५ ज्ञात्वेत्यर्थः ६ संयममित्यर्थः ७ मोक्षार्थी, निष्ठितार्थोवा ८ पराक्रमेथाः ९ आश्रवद्वाराणि गुरुपरंपराधी सर्वोपदेश जाणवो, अथवा जिनप्रवादथी परतीर्थिकना प्रवाद तपाशवा. ते जिनप्रमाद तथा परतीर्थिक प्रवाद त्रण प्रकारे जाणी शकाय छे:जाति स्मरणादिकथी, तीर्थकरना उपदेशथी, अथवा वीजा आचार्योना पासेथी सां-- मळवाथी. [३२४] ____ माटे सर्व रीते सर्व प्रकारे सर्वज्ञवाद तथा परमवादने तपाशीने सर्वज्ञप्रवादने यथार्थ जाणी बुद्धिमान् मुनिए सर्वज्ञोपदेशनुं उलंघन न कर. [३२५] आ दुनिआमां संयमने खरेखलं सुखस्थान जाणीने जितेंद्रिय थइ वर्तवं. किंबहुना, मोक्षार्थी वीर पुरुषे हमेशा जिनाज्ञाथी ज प्रवर्त. [३२६] ऊंचे, नीचे, तथा तिरश्वीन दिशाआमां सर्व स्थळे पाप उपार्जन करनारा प्रवाह रहेला छे. ज्या ज्यां आसक्ति थाय छे त्या त्यां कर्म बंध थया करे छे. [३२७] कर्म रुपी भरता चक्रने जोइने विषयभोगधी आगमना जाण पुरुपे दूर रहे. (२२८) १ ज्यां ज्यां जीव पोताना मनथी बंधाइ वेसे छे. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ अध्ययन पांचमुं. [८] विणे-तुं सोयं णिक्खम एस महं' अकस्माजाणति, पासति, पडिलेहाएर णावखति, इह आगतिं गतिं परिण्णाय अव्वति जातिमरणस्स वहमगं णवक्खायरत' । (३२९) सव्वे सरा४ णियति, तका ५ जत्थ ण विज्जति, मति तत्थ ण गाहिता, ओए अप्पतिट्टाणस्स खेयन्ने । (३३०) से ण दीहे, ण हस्से, ण वद्दे, ण तसे, ण चउरंसे, ण परिमंडले, किन्ह, ण णीले, ण लोहिए, ण हालिट्टे, ण सुकिल्ले, ण सुरहिगंधे, ण दुरहिगंधे, ण तित्ते, ण कडुए, ण कसाते, ण अंबिले, ण महुरे, ण कक्खडे, ण मउए, ण गरुए, ण लहुए, ण सीए, ण उण्हे, ण णिहे, ण __ १ महान् २ प्रत्युप्रेक्ष्य ३ व्याख्यातोमोक्षस्तत्ररतः ४ स्वराः ध्वनयः ५ ताः ६ ओजः एकएव ७ मोक्षस्यज्ञाता यहा अप्रतिष्टानो नरक स्तन ज्ञाता सर्वलोकालोकज्ञइत्यर्थः जे कोइ पुरुष पाप आववाना प्रवाहोने बंध करवा दीक्षा ले छे ते महा पुरुष घाति कर्य क्षय करीने सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी धाय छे, (इंद्रादिकने पूजनीय थाय छे) छतां परमार्थ विचारीने इंद्रादिकनी पूजानी पोत अभीलापा नयी धरता, अने प्राणिओना संसारमा थवा परिभ्रमणने जाणता यका जन्म मरणना चक्रमांयी छूटा थईने मुक्तिपुरीना मुखमां जइ विराजे छे. [३२९] (मुक्तिना मुखमा रहेनारा जीवानी जि अवस्था वर्चे छ ते जणावा) कोइ पण शब्द समर्थ धना नयी, कोइ पण कल्पना दोडी शकती नथी, अने काउनी मानि पण पोहोंची शक्ती नथी. त्यां सकल कर्म रहित एफलो जीव संपूर्ण ज्ञानमय विराजे छे. [३३०] ते मुक्तिस्थित जीव नथी लांबो, नयी टूको, नधी गोळ, नयी त्रिकोण, नधी चौरस, नयी मंडळाकार; नयी कालो, नयी लीलो, नयी रातो, नयी पीळो, नधी घोळो; नी मुगंधि, नथी दुधि; नयी तीखो, नयी कड़ओ, नयी कसाएन्गे, नयी खाटो, नधी मीठो; नयी कर्कश, नयी मुकुमान, नयी भारी, नथी इलको नयी यंडो, नथी गरम, नयी स्निग्ध, नयी रुक्ष, नगै शरीरवालो, नथी जन्मघर Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. लुक्खे, ण काऊ, १ ण रुहे, ण संगे, ण इत्थी, ण पुरिसे, णअन्नहा,२ परिणे, सणे । (३६१) उयमा ण विज्जती । अरूवी सत्ता। अपयस्स पयं णत्यि! (३३२) से ण सद्दे, ण रूवे, ण गंधे, ण रसे, ण फासे इच्चेतावांत ति बेमि । (३३३) - - - १ न काय-कायावान् नपुंसक इत्यर्थः नार, नथी संगपामनार; नथी स्त्रीरुप, नथी पुरुषरुप, नथी नपुंसकरुप; किंतु ज्ञाता अने परिज्ञाता थइ विराजे छे. [३३१] मुक्त जीवोने जणाववा माटे उपमा कोइ छ ज नहि. केमके तेओनी अरुपी हैयाती रहेली छे, तेमज तेओने कशी पण अवस्थाविशेष छे नहि, माटे तेमने जणाववा माटे कोइ शब्दनी पण शक्ति नथी. [३३२] कैमके तेओ नथी शब्द रुप, नयी रुपरुप, नथी गंध रुप, नथी रस रुप अने नथी स्पर्श रुप. (अने वाच्य वस्तुना विशेष तो मात्र ए शब्दादिक पांच 'गुणज छे ते मुक्त जीवोमा छे नहि माटे तेओ अवाच्य छे.) [३३३] Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन छटुं. धूताख्यं षष्ट मध्ययनम्. [प्रथम उद्देशः ] ओबुझमाणे ' इह माणवेसु अक्खाति से परे। जस्सिमाओ नातिओ सव्वओ सुपडिलेहियाओ भवंति, अक्खाइ से णाण-मणेविसं २ (३३४) से किति तेसि समुद्रियाणं णिदिखत्तदंडाणं समाहियाणं पन्नाणमंताणं इह मुत्तिसग्गं । एवं पेगे महावीरा विपरकमति । पासह, एगे १ अवबुध्यमानः २ अनीशं अध्ययन छर्छ पहेलो उद्देश. [स्वजन संबंधिओ छडीने धर्ममां परायण थर्बु.] तीर्थकरो पोते जा संसार- यथार्थ वल्प जाणता यहा मनुष्योने तेमना कल्याण माटे धर्म बनावता रहे तथा जेभोने आ एकद्रियादिक जीव जातिओर सर्व रीते यथार्थपणे माम क्षेय एवा फेवळी अने श्रुन केवळीओ पण सर्वोत्तम बोध जाप छे. [४] तेओ धर्माचरण माटे उत्साही थपला मागि हिंसाची निवत्तंन्या-सावधानअने समजवान मुनिओने मुत्तिमार्ग बताये छ. एवे बन्वते केटलाएक महापगमयी १ धत पनि धोवं. २ जीवोना वर्गो. केवळनानी ४ चौदपूर्विभो. Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. विसीयमाणे अणत्तपन्ने ? । (३३५) ।' से बेमि से जहावि कुम्मे, हरए विणिविचिते पच्छन्नपलासेर उम्मग्गं 3 से ण लभति । (३३६) भंजगा इव सन्निवेसं णो चयति । एवं एगे अणेगरूवेहिं कुलेहि जाया रूवेहिं सत्ता कलुणं थणंति । णिदाणतो ते ण लभंति मोक्खं । [३३७] अह पास तेहिं कुलेहिं आयत्ताए जाया । (३३८) १ अनात्मप्रज्ञा; २ पलाशप्रच्छन्नः ३ उन्मज्जनं उर्धमार्गवा ४ वृक्षा इव ५ स्तनंति लपंतीत्यर्थ:६ आत्मत्वाय आत्मीयकर्मानुभवाय, पुरुषो संयमयां सारी रीते पराक्रम वतावे छे, अने केटलाएक अणसमजुओ संयममा लथडता पण रहे छे. [३३५] । जेम कोइएक जलाशयमा कोइएक काचयो तदासक्त थइने रहेता होय अने ते जळाशयतुं जळ सेवाल तथा कमलिनीओना ,पत्रोयी छवायलु है.वाथी पेला काघवाने पाणीनी ऊपर आश्वानुं बांकु मळी शकबुं घणुं मुश्केल छे, तेम आ संसार रुपी जळाशयमां जीवरुपी काचबाने सम्यकत्दप बांकुं हाथ चडवू पण एटटुंज मुस्केल छे. [३३६] तथा जेम हो (तेओने गमे तेटलुं दुःख वेठवू पडे छे तोए) पोताना स्थानथी आघा जता नथी. तेय केटलाएक जूता जूदा कुळोमां जन्मेला जीवो शब्दादिक विषयोमा आसक्त वनी (दुःखधीज भरपूर घरवासने नहि छोडताथका अंते) करुण विलाप करता रहे थे, पण दुःखना मूळ कारण कर्मथी छूटी शक्ता नथी. [३३८] भूदा जूदा कुळोमा पातशेताना कर्म भोगक्वाने जीवो जन्म धरीने अनेक अवस्थाओ भोगवे छे. (३३८) Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन छ?. गंडी अदुवा कुद्दी, रायंसी अवमारिय;२ काणि झिम्मियं चेव, कुणित्तं खुज्जितं तहा। उअरिं च पास मयं च सूणियं च गिलासिणि; वेवयं पीढसप्पिच, सिलिवति महुमेहणं । सोलस एते रोगा, अक्खाया अणुपुब्बसो; अह णं फुसंति आयंका, फासा य असमंजसा । मरणं तेसि सपेहाए, उववायं चवणं णच्चा; परियागं च सपेहाए, तं सुणेह जहातहा । [३३९] संति पाणा अंधातमसि वियाहिया; ता-मेव सइं असई१० १ राजयक्ष्मवान् २ अपस्मारवान् , ३ काणत्वं ४ जडतां ५ भश्मको च्याधिस्तं ६ बेपं कंपं. ७ श्लीपदं. ८ अवस्थां. ९ सकृत (अनुभूयोतशेष :) १० असकृत्. कोइने गंडमाळानो रोग थायछे, कोइने कोढ नीकले छे, लोइने क्षयरोग थाय छे, कोइने अपस्मार १ थाय छे, कोइने आंखना रोगो थाय छे, कोइने शरीरनी जइता थवाना रोग धाय छे, कोइने हीनांगपणाना दोपो होय छे, कोइने कूदडापर्यु होय छे, कोइने पेटना रोग थाय छे, कोइने मूंगापणु थाय छे, कोइने सोजो चई छे, कोइने भस्मकरोगरे थाय छे, कोइने कंपवा धाय छे, कोइने पीठ वेळेली शेय छे, काइन शीपदेराग थाय छे, तथा कोइने मधु प्रमेह थाय छे. एरीने ए सोल महारांगो बताच्या. तथा वळी अनेक शूळादिक पीडाओ अने जलग विगैरे भक. र बनायो पण थता रहे छ. ए सर्वे रोग अने पीडाबोधी छेक्ट मरण पण थाप छे. तवा जेभने रोग नपी थता एवा (देवताओने) पण जन्मवरण रवा छे. एय जाणीने तथा ए बयां करेलां कर्मनां फळ छ एम धारीने कर्मना उच्छेदन माटे वापर चं, हे मुनिओ, हज कर्मनां फळ हुं वर्ण छं ते सांभळो. (३३१) कर्मना वशीज जीवो अंघ थइने घोर अंधकारमय स्थदामा रहेला वर्गका घेलापणं, सनिपात वगेरे. २ अतिशय भूख उत्पन्न धार ते. ३५. कदिन थइ रहेते. ४ यह कर्म करवायी. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९२] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. फासे पडिसंवेदेति । बुद्धेहिं एवं पवेदितं । अतिअच्च' उचावए संति पाणा वासगारे, रसगा उदए। उदयचरा, आगासगामिणो; पागा पाणे किलेसंति । (३४१) पास लाए महब्भयं । [३४२] बहुदुक्खा हु जंतवो । (३४३]] सत्ता कामेहिं माणवा । अबलेण वहं गच्छंति सरीरेणं पभंगु, रेणं । [३४४] . अट्टे से बहुदुक्खे, इति बाले पकुव्ववि; एते रोगे बहु णच्चा, आउत परितावए ५। [३४५] णालं पास। अलं तवतेहिं । एयं पास मुणी ! महब्भयं । णातिवाएज्ज कंचणं । (३४६) १ अतिगत्य. २ वासका : शब्दकर्तुं समर्थाः द्विद्रियादयः ३ रसगा: संज्ञिनः ४ उदकरुपाः ५ परितापयेयु: प्राणिगणं. छे, जेओ वारंवार त्यां जइने दारुण दुःख भोगवेछे. ए वधुं तीर्थंकरोए जणादेखें छ. [३४०] वळी वेइंद्रियादिक जीवो, जळचर जंतुओ, तथा पशिओ ए वघा एकमेकने दुःख आपता रहे छे. [३४१] ए रीते जगतमां महाभय वर्ते छे. [३४२] जंतुओना दुःखनी परिसीमा नथी, [३४३] मनुष्यो कामभोगयां आसक्त रहे छे. निःसार क्षणभंगुर शरीरना माटे पाप करी लोको दुःखी थाय छे. [३४४] विवेकहीन अने बहु दुःखने पामनारा अज्ञानी पुरुपो शरीरमां अनेक रोगो उत्पन्न थएला देखी तेनी चिकित्सामां अनेक जंतुओनो नाश करे छ, [३४५] पण तेधी कंइ रोग तो टळता नथी. माटे हे मुनि, तारे एवी पापभरपूर चिकित्सा नहि करवी. जे माटे जीवहिंसा महाभयंकर छे. माटे मुनिए कोइ जीवने मारचो नहि. [३४६] Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन छटुं. __[९३] आयाण ? भो, सुस्सूस भो, धूयवादं पवेदइस्सामि इह खलु अत्तत्ताए २ तेहिं तेहिं कुलेहिं अभिसेएणं' अभिसंभूता, अभिसंजाता अभिणिव्वट्टा, अभिसंवुडा, अभिसंबुद्धा, अभिणिक्खंता, अणुपुवेणं महामुणी । (३४७) त परक्कमतं परिदेवमाणा "मा णे चयाहि" इति ते वदंति; "छंदोवणीया अज्जोववन्ना", अकंदकारी जणगा रुवंति। "अतारिसे मणी ओहंतरए, जणगा जेण विप्पजढा (३४८) सरणं तत्थ णो समेति, किह णाम से रमति । एवं णाणं सया समणुवासिज्जासि-त्ति वेमि । (३४९) १ आजानीहि. २ जीवास्तितया. ३. शुक्रशोणितादिक्रमेण ४ अभवन्नितिशेषः कुटुंविनः ५ वयं त्वयीति शेषः ७ (कुटुंबिवाक्य मेतत् ) ८ [ एतदपि कुटुंबिवाक्यं ] ९ मुनिरिति शेषः हे मुनिओ, ध्यान धरीने सांभळो, हुं तमोने कर्मो घोवानो वाद' कही यता . आ संसारमा घणाएक जीवो स्वकृतकर्मोनी परिणतिथी ते ते कुळोमां, मावापना शुक्रसोणितसंयोगादिकर जमे करीन उत्पन यइ, जन्म पामी, मोहोटा थइ प्रतिवोध लही दीक्षा ग्रही अनुक्रमे महामुनि धया है. [३४७] ज्यारे सत्पुरुष दीक्षा लेवा तैयार थाय छ त्यारे तेना मायाप तया स्त्रीपुत्रादिक शोक करता थका तेने कहे छे के "अमे तमारी इच्छा प्रमाणे वचनारा अने तमारा पर प्रीति धरनारा छीए माटे अमोने छोडीने दीला ल्योमां. जे मावापने छोडी दे छे ने कइ मुनि न गणाय तथा संसारने पण तरी शके नहि" [३४८] पण आवे वखते ते दीक्षा लेवा तैयार धएलो पुरुप नेपर्नु कयन स्वीकारतो नयी केमके ते जाण छे के तेनायी हवे आ दुःखभरपूर गृहवासमा रही शकाय एम नथी. आई ज्ञान हमेशां मुनिए दिलमां धारी राख. [३४९] १ वाती २ लादी अने वीर्यनो रांयोग. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर, (द्वितीय उद्देशः) आतुरं लोय-मायाए १ चइत्ता पुचसंजोग, हिच्चा २ उवसमं, वसित्ता बंभचेमि, असु अणुवसु वा जाणीतु धम्म अहातहा अधेगे त-मवाइ ५ कुसीला, वत्थं पाडेग्गहं कंबलं पायपुंछणं , विउसेज्जा, अणुपुव्वेण अणहियासमाणे परीसहे दुरहियासए । कामे ममायमाणस्स इयाणिं वा मुहुत्तण वा अपरिमाणाए " भेदो ८ १ एवं से अंतराइएहिं कामेहिं आकेवलिएहिं ८ अवतिन्नावेए १० । (३.५०) १ आदाय ज्ञात्वा. २ गत्वा. ३ वीतरागो मुनिर्वा. ४ सरागः श्रावकोवा. ५ त्यजेयुः ६ व्युत्सृज्य-त्यक्त्वा. ७ अपरिमितकालंयावत् ८ शरीरनाशः ९ असंपूण १० अवतीर्णा भ्रांताः । - बीजो उद्देश. (कोने आत्माधी दूर करवा . आ दुनिआने दुःखी जाणी, मावाप तथा स्त्रीपुत्रादिकोने छोडी करीने उपशम धारण करी ब्रह्मचर्यने पाळन करनारा केटलाएक 'मुनिओ धर्मने जाणतां छता पण तथाविध कर्मना उदयथी मोहजाळमा फसाइ सदाचारने छोडी आपे छे; अने विकट परीपहोने अनुक्रमे सहन करतां धाकी जइने वस्त्र, पात्र, कंवल, तथा पादपुच्छनने छोडी गृहस्थपणुं आदरे छे. परंतु ए ते जे कामभोगमा मूछित थाय छे तेने घणा थोडा वखतयां आ क्षणभंगुर शरीरथी जूदा पड्या पछी अनंत काळ लगी आवी सामग्री मळवी मुश्केल छे. ए रीते तेओ बहु दुःखमय कामभोगोमां अतृप्त यया थका भटकता रहेवाना.. [३५०] केटलाएक भव्य पुरुषो धर्म पामीने दीक्षा लइ शरुआतथी ज सावधान रही जंजाळमां नहि फसातां लीधेली प्रतिज्ञामा दृढ थइ वर्त्त छे. [३५] "'"' Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन छटुं. अहेगे धम्ममादाय आदाणप्पभिति सुपणिहिए चरे अप्पलीयमाणे दढे । (३५१) सव्वं गिाई परिण्णाय । एस पणते महामुणी । (३५२) अइअच्च सब्बतो संगं “ण महं अस्थिति इति एगो-ह-मसि" जयमाणे एत्थ विरते, अणगारे, सचसो मुंडे, रीयंते, जे अचेले परिसिए संचिक्खति ओमायरियाए। (३५३) से आकुढ़े वा, हए वा, लुंचिए वा, पलियं पकंथे, अदुवा पकंथे, अतहेहिं सफासोह, इति संखाए एगतेर अन्नयरे अभिन्नाय" १ सतिष्टति २ अवमौदर्या ३ प्रकथ्य ४ स्वकृततकर्मफळमितिसंव्याय ५ अनुकूलान् ६ प्रतिकलान् ७ ज्ञात्वा से पुरुष वधी आसक्तिओने दुःख करनारी जाणी तेथी दूर रहे छे तेज महामाने संयमी जाणवो. [३५२] माटे मुनिए सर्व प्रपंच लोडीने, “ मारुं कोई नयी, हुँ एकलो ज छ," एवी भावना धरी पापकियाथी निवृत्त थइ मुनिना आचारमा यत्न करता थकां, व प्रकारे मुंडित थइ अचेल' बनी संयममां उत्साहवान रही परिमित आहार लइ पेटने अपूर्ण राखता रहे. [३५३] ज्यारे कोइ पुरुप युनिने तेना प्रथमना निंदित कामो वोलीने अथवा गमे तेम वेअदव बोलो वोली तथा खोग आरोपो चडावी निंदवा मंडे, अथवा मुनिना अंग उपर हुमला करे, मारे के बाल खेंचे, त्यारे मुनिए पोताना कपिला समान फळ आवेटु जागी तेवा कंटाळो आपनारा प्रतिकूळ परीपटाने तथा स्तुतिविगेरे म जीनकाल्पिक चोय नो मर्वया वस्न रहित बनी अने स्थविर कल्पिक हाय तो अल्प पत्र धारण करी, २ भावलग्न. - Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. तितिक्खमाणे परिव्वए जे य हिरी, जे य अहिरीमाणे। चिच्चा सव्वं विसोत्तियं फासे समियदंसणे । (३५४) एते भो णगिणा वुत्ता, जे लागीस अणागमणधम्मिणोः । " आणाए मामगं धम्म एस उत्तरवादे इह माणावाणं वियाहिते । (३५६) एत्थोवरए ७ ते ८ झोसमाणे । आयाणिज परिण्णाय, परियाएणं ।' विगिचइ १० (३५७) इह मेगेसिं एगचरिया होति। तस्थियरा इयरेहिं कुलेहिं सुद्धेसण ए सव्वेसणाए से मेहावी परिचए। सुभि अदुवा दुभि । अदुवा तत्थ भेरवा पाणा पाणे किलेसंति । ते फासे पुलो धीरो अहियासेज्जासि त्ति बेमि।(३५८) १ मनोहराः २ अमनोहरा : ३ स्पृशेदितिशेपः ४ प्रतिज्ञानिर्वाहकाइत्यर्थः ५ तीर्थकृवाक्यमेतत् ६ प्रधानवाद ७ अत्र: उपरतः रक्तः ८ कर्म ९ श्रामण्येन १० क्षपयति. नने हरनार अनुकूळ परीपहोने पण सहन करता रहेवू. किंबहुना, कशी पग फिकर नहि धरतां शुद्ध श्रद्धा धरीने सर्व परीसह तथा उपसर्ग सह्या करवा. [३५४] हे मुनिओ, ए रीते जेओ परीसह सही निःपरिग्रही रहे छे अने गृहवासमां पाछा नथी फसाता, तेओ ज परमार्थे नग्न १ कहेला छे. [३५५] तीर्थकर देवे कत्यु छ के "आज्ञाथी मारो धर्म पाळवो." आ तेमणे मनुष्यो माटे उत्कृष्ट भापण कहलुं छे. [३५६] . माटे मुनिए संयममां लीन रही कोने रूपावतां थकां धर्म कर्या करवो. जे पाटे कर्मनु स्वरुप जाण्यावाद संयमयी कर्म क्षय थाय छे. [३५७] केटलाएक महर्पिओने एकला फरवानी प्रतिज्ञा होय छे त्यारे ते उत्तम महपिओए अंतःप्रांत २ कैलागांधी निदाप आहार लइ पवित्रपणे विचरता रहे अने ते आहार सुगंधी होय अथवा दुर्गधि होय छतां तेना पर कशी प्रीता के अप्रीति नहि लावली. वळी ज्यारे एकला विचरतां भयंकर सिंह विगेरे श्वापदो हेरान करे त्यारे धैर्य धरीने रुडी रीते ते परीपह सहन करवा. [३५८] ? भावनग्न, २ साधारण-उतरता. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन छटुं. [तृतीय उद्देश:] एयं खु सुणी आयाणं तया सुअक्खायधम्मे विधूतकप्पे णि ज्झोसइत्ता । ( ३५९) [ ९७] ने अचेले परिवसिए तरस णं भिक्खुस्स णो एवं भवइ : - परि जिने मे वत्थे, वत्थे जाइस्यामि, सुत्तं जाइस्सामि, सूई जाइस्सामि, संधिस्सामि, सीविस्सामी, उक्कसिस्सामि, बोक्कसिरसामि, परिहरिस्सामि, पाउणिस्सामि । (३६०) अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति तेउफासा फुसंति दंसमसगफासा फुसंति, एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहिया १ धर्मोपकरणातिरिक्तंवस्त्रादि त्रीजो उद्देश. [मुनिए अल्प उपकरण राखवां अने शरीरने जेम चने तेम कसता रहेवुं.] हमेशां पवित्रपणे धर्म साचवनार अने आचारने पाळनार मुनि धर्मोपकरण शिवाय सर्व वखादिक वस्तुओ त्याग करे छे. [३५९] जे मुनि अल्पवत्र राखे छे अथवा तदन बलरहितर रहे थे, ते मुनिने आरी चिंता नयी रहेती, जेवी के मारां चत्र फाटी नयां छे, मारे चीजुं ननुं बन लां, लाछे, सोय न्याववी है, तथा व सांधवं छे, सीवट, चवाखं, तों छे, छे छे, के विटाळ . [३६०] टित रहेता तेत्रा सुनियोने कदाच वारंवार शरीरमां तणखला के काँटा १ ख बगेरे सामान २ जिनकन्पिणाम. ३ श्रीववानो दोरो. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९८] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. सेति अचेले लाघवं आगममाणे । तवे से अभिसमण्णागए भवति । (३६१) जयं भगवता पवेदितं तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्त-मेव सममिजाणिया । एवं तेसिं महावीराणं चिरराइं पुव्वाइं वासाणि रीयमाणाणं दवियाणं पास, अहियासियं । (३६२) आगयपन्नाणाणं किसा५ बाहा भवंति, पयणुए मंससोणिए । विस्सणिं कट्ट परिणाए। एस तिन्ने मुत्ते विरए वियाहिए-त्ति बेमि । (३६३) विरयं भिक्खु रीयंत चिररातोसियं अरती तत्थ किं विहारए ? १ बुध्यमानः २ तपः । प्रभूतानि ४ वर्षाणि ५ कृशाः ६ परिज्ञया ७ प्रतिस्खलेत् भराया करे ? अथवा ताट वाय, अथवा ताप लागे, अथवा दंसा के मच्छरो करडे। ए विगैरे अणगमता परीपहो यावी नडे, त्यारे ते मुनिओ वस्त्ररहितपणामां निश्चितपणुं मानी ते वधा परीपह सहेता रहे छे. एम कोथी तप करेठे गणाय छे. [३६१] माटे जे रीते भगदाने जणाव्युं छे तेने अनुसरीने सर्व रीते पवित्र भावधी वर्तवं. अने पूर्वे भव्य महर्षिओए घणा वो लंगी संयममां रही जे जे कष्टो. सहन कयों छे ते तरफ जोता रहेg. [३६२] समजशन मुनिओनी भुजाओ कृश होय छे अने तेमना शरीरमां मांस तथा लोही बहु थोड होय छे. एवा मुनिओ समत्वभावनाथी रागद्वेष तथा कपायरुप संसारश्रेणीने तोडी पाडी क्षमादिक गुणो धारीने वर्त्तता होवाथी भवजळधिथी तरेला, भवबंधनधी छूटेला, अने पापप्रवृत्तिथी दूर थएला कह्या छे. [३६३] , लांबा वखतथी संयमने धरनारा, असंयमी निवर्तला, उत्तरोत्तर प्रशस्त भावमा वर्तनार मुनिने पण वखते संयममा थएली अरति संयमी स्खलित करावे?. 3 अथवा कदाच एवा गुण विशिष्ट मुनिने अरति कशं पण करी १ तृणशय्यापर सूवातुं होवाथी. २ डांस. ३ जे माटे कर्मपरिणति विचित्र छ ४ गुणसंपन्न. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन छ? ___(९९) (३६४) संधेमाणे समुहिए। जहा से दीवे असंदीणे । (३६५) एवं से धम्मे आरियपदेसिए । (३६६) ते अणवकंखमाणा, पाणे अणतिवातेमाणा दइता मेहाविणो पंडिया । (३६७) एवं तेसिं भगवओर अणुटाणे जहा से दियपोएर । एवं ते सिरसा दियाय राओय अणुपुब्वेण वाझ्य-त्ति वेमि । (३६८) चतुर्थ उद्देशः] एवं ते सिस्सा दिया य राओ य अणुपुत्रेण वाइया तेहिं महा १ वर्डमानस्वामिन : २ पक्षिपोत : ३ वाचिता : पाठिताइत्यर्थः शकती नथी. ३६५ केसके ते मुनि उत्तरोत्तर प्रशस्त परिणामपर चढयो जाय छे. अने एवा उत्तरोत्तर प्रशस्त भावमां बडनार-मुनि खरेखर पाणीची कदापि नहि ढंकाइ जता द्वीप तुल्य छ. [३६५] तेमज तीर्थकरयापित धर्म पण तेवा ज द्वीपतुल्य छे. [६६] माटे ने मुनिश्री संसारना भागानी इच्छा लाग करी प्राणीमोनी हिंसा नहि करता थका सर्व लोपने प्रिय थइ मात्रामा रहेता धा पंडितपद पामे छे. [३६७ जेभोने ते ज्ञान नहि देवाची जेभी इजु भगवानना धर्गमा डी शन उत्सात्वान् नयी याला एका शिष्योने ने पंदित सुनिओ जय पलिआ पोनाना वयाने अंदरे छ तेम वणी घणी रीने संभाळ रानी धर्गमा कुगळ कमवता रहेछ. एरीने ने गिज्यान गत दिवस अनुक्रमे भगाच्या करवायी तेश्रो संसार तरी शस्त्रा समर्थ धाय छे. [३८] चोथो उद्देश. (मुनिए मुम्बलंपट न थई ) पर वनाच्या प्रमागे महापराक्रमी अने विचान गुरुआग रातदिवस Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१००] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. 'वीरोहिँ पण्णाणमंतेहिं तेसितिए पण्णाण-मुवलब्भ हेच्चा उवसमं फारुसियं समादिवति । (३६९) वसित्ता बंभचेरंसि आणं तं णो-त्ति मण्णमाणा।।३७०] अग्धायं तु सोच्चा णिसम्म, “ समणुन्ना जीविस्सामो, " एगे। णिक्खम्म ते असंभवेता विडज्झमाणा कामेहिं गिडा अज्झोववण्णा समाहि-माघाय-मझोसयंता सत्थार–मेव फरूसं वदति । [३७१] सीलमंता उवसंता संखाए रीयमाणा "असीला" अणुवयमाणस्स बितिया मंदस्स बालया। (३७२) णियमाणा वेगे आयारगोयर-माइक्खति । [३७३] १ आख्यातं २ आख्यातं ३ प्रज्ञया पोताना शिष्योने भगाव्याथी ते शिष्योमांना केटलाएक शिष्यों तेवा गुरुमो पासेधी विद्या मेळवीने उपशमने छोड़ी दइ गर्वित थइने उद्धत बनी जाय छे. [३६९] वळी केटलाएक शिष्यो संयममां जोडायावाद तीर्थकरनी आज्ञानो अनादर करीने सुखलंपट थइ शरीरनी शोभा करवा मंडी पड़े छे. [३७०] केटलाएक " आपणे सर्वने माननीय थइशं." एम विचारीने दीक्षा ले छ, अने तेथी मोक्षमार्गमां नहि चालतां कामेच्छाथी वळता थका सुखमां मूछित थइ करी विषयोमा ध्यान धरीने तीर्थंकरभापित समाधिने नया सेवता. अने जो तेमने कोइ शीखामण आपे छे तो ते सांभळीने ते शीखामण देनारने ज निंदवा मंडे छे. [ए सर्व एमनी मूर्खाइ जाणवी. ] [३७१] वळी केटलाएक तो पोते भ्रष्ट छतां वीजा सुशील क्षमावंत अने विवेकया वर्तता मुनिओने पण भ्रष्ट कहेता रहे थे, तेवा पासत्यादिक मंदजनानी तो खरेखर वेवडी मूलाइ जाणवी. [३७२] केटलाएक पोते संयम नथी पाळी शकता, पण आचार शुद्ध कही बतावेछे तेओनी देवडी मूर्खाइ नथी थती.) [३७३] Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन गई पन्द्र इंसलूलि पल्टामा रो र विदे। पुद्रा को नियते वियोव कम । किन तेति दुलितं नवति । (३३) बल्वयन हु ना सुनेपुरले सर्ने एकति. हे तनवता विज्ञायता सहन दिने, उतरने पर बट। पलिय ये, उड्छ, नये अतहि । तं नेहावी तिचा इन् । __ अहन्दी तुति पानकले अन्ती अनुयो हप प्रहमति देश विवालो दिन नयनाला : शुरू। से ले ने के दरिहर देन बाबर के देवाने या या नदी भवाने नमः हवं नशीलने वाली है. का मार को परोपी हरले काम संपल्या ऋयार के कई कही न कहं दिसाव रहुँन्दी ) भवन्त, रा. विकास के पन्तपश लेक एन. विद्धन का पल रहलने किन्नर कर र अनिल ने महल दी है वो मानविन कालो कि म मा रहेरे, म बुझेन ननर ने ही क हान मी डर बने नुको कालेजचे है पुर हुँने बाले पलेस ने मई करत करतो रको हरेक किले मन दे. अने दे कर ले. अर जमक र ने नई पड़ गई एकदा " Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [१०२] आचारांग-मूळ तथा भापान्तर. 'घायमाणे, हणओयावि समणुजाणमाणे “घोरे धम्मे उदीरिए ” उवहइ णं अणाणाए एस विसण्णे वितहेर वियाहिते-त्ति बेमि । (३७७) किमणेणं भो, जणेण कारस्सामि-त्ति मण्णमाणा एवं एगे विदित्ता, भातरं पितरं हिच्चा णातओ य परिग्गहं, वीरायमाणे समुद्राए अविहिंसा सुव्यया दंता, पस्त, दीणे, उप्पइए पडिवयमाणे । (३७८) वसद्या कायरा य जणा लुसगा भवंति । (३७९) अह-मेगेसि सिलोए पावए भवति; से समणविन्भंते. समणविभंते [३८०] ' ' पासहेगे समन्नागएहिं असमन्नागए. णममाणहि अणममाणे विरतेहिं अविरते दबिएहिं अदविए । (३८१) १ उपेक्षते २ विहिंसकः ३ वीप्सायां द्विरुक्ति ४ उद्युक्तविहारिभिः साधारण-ऊतरता. धारी तुं तेमनी आज्ञाथी वाहेर थइ ते धर्मनी उपेक्षा करतो रहे छे ते खरेखर तुं कामभोगमा मूर्छित अने हिंसामा तत्पर थएलो देखाय छे, एम हुँ कहुं छं. ... (३७७) शरुआतमां केटलाएक पुरुषो दीक्षा लेती वखते मातापिता तथा स्त्रीपुत्रादिको अनर्थमूळ जाणीने मावाप, ज्ञाति, तथा धनदोलत छोडी करी पराक्रम दाखबता थका दीक्षा लइ अहिंसक, पवित्र नियमने धरनारा, अने जीतेंद्रिय थइने. संयमपर चडया थका पाछा तेपरथी भ्रष्ट थइ दीन बने छ. [३७८] . . कारण के जेओ विषय अने कयायने नावे थइ दुर्थ्यांनी थाय छे तथा. नेओ सत्वहीन होय छे तेओ संयमयी भ्रष्ट ज थाय छे. [३७९] अने संयमयी भ्रष्ट थतां तेमनी दुनिआमां घणी अपकीर्ति फेलाय छे, जिवीके, अरे आ जुओ, सावु-थइने पाछो संसारना मूलावामां पडयो छे. [३८०] ' . केटलाएक कमनशीव पुरुषो उग्रविहारिओ साथै रह्या थका आलसु थइ रहे छे, विनयवंत पुरुपो रााथे अविनीत रहेछे. विरतिवंत पुरुषो साथे रद्दी अविरत रहे छे अने पवित्र पुरुषो साथे रही अपवित्र रहे छे. [३८१] Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन छटुं. १०३] .. अभिसमेच्चा पंडिए मेहावी णिट्टियढे वीरे आगमेणं सया परक्कमज्जासित्ति बेमि । (३८२) [पंचम उद्देशः] से गिहेसु वा गिहतरेसुवा गामेसु वा गामंतरेसु वा नगरेसुवा नगरंतरसुवा जणवएसु वा,जणवयंतरेसुवा, संतेगतिया जणा लूसगा भवांते, अदुवा फासा फुसंति, ते फासे पुट्ठो धीरोअहियासए ओए' समियदंसणे । [३८३] . १ उपसर्गकारकाइत्यर्थः २ ओजः एकः ३ प्राप्तदर्शनः .. एम धारीने मयादाशीळ पंडित पुरुषे विषयवांच्छा त्याग करी हिम्मतवान __ रही तीर्थकरना उपदेशने अनुसरीने हमेशां प्रवर्तवू. [३८२] .. - .. पांचमो उद्देश. ( मुनिए संकटोथी नहि डरखं तथा काइ प्रशंसा के सत्कार करे . ... . तेथी खुशी न थq.) __मुनिने आहारादिक लेवा जतां घरोंमार, घरोनी आसपासमां, गामोमां, गामोनी आसपासमां, नगरोमां, नगरोनी आसपासमां, अने विहार करतां देशोमां तथा देशानी आसपासमां, केटलाएक लाको उपसर्ग करे, अथवा योजा कइ पण संकटो के दुःखो आवी पडे तो ते धीरपणे अडग रही सम्यकत्ववंत मुनिए सर्व सहन करवां. [३८३] १ ऊंच नीच तथा मध्यम घरोमां. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०४] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर, दयं, लोगरस, जणित्ता पादीणं पडीणंदाहीणं उदीणं, आइक्खे, विभये, किट्टे, वेदवी । (३८४) से उदिएसु वा अणुट्रिएसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेदए, संति, विरतिं, उवसमं, णिव्वाणं सायं अज्जवियं मदवियं लाधवियं, अणइ. वत्तिय । (३८५) सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसि भूयाणं सव्वेसि जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अणुवीइ भिक्खू धम्म-माइक्खेज्जा । [३८६] अणुवीइ भिकखू धम्म-माइक्खमाणे णो अत्ताणं आसाइज्जा, णो परं आसाइज्जा, अन्नाइं पाणाई, भूयाइं जीवाइं सत्ताई आसादेज्जा। [३८७] १ दया २ साधुषु ३ श्रावकेषु ४ अनतिपत्य-अनातिक्राम्य ५ अत्र प्राणादय एकार्थवाचकाः आगमना जाण मुनिए पूर्व, पश्चिम, दक्षिण तथा उत्तर ए सर्व स्थळोमां लोकना ऊपरे दया करता थकां तेमने धर्म कहेवो, धर्मना विभाग वताववा, तथा तेनां फळ जणावा. (३८४) ____ तेणे सांभणवा इच्छनार दीक्षीत पुरुषोने तथा श्रावको विगैरेने अहिंसा, त्याग, क्षमा, उत्तम फळ, पवित्रता, सरळता, कोमळता, तथा निष्परिग्रहता ए सर्व वावतो यर्थार्थपणे दर्शाववी. [३८५] ए रीते विचारपूर्वक सर्व जीवोने मुनिए धर्म कहेवो. [३८६] पूर्वापर विचारपूर्वक धर्म कहेता थकां मुनिए पोताने तया वीजा सूत्र जीवोने कशा नुकशाना ऊतारवा नहि. [३८७] Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन छटुं. [१०] से अणासादए अणासादमाणे वज्झमाणाणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं जहा से दीवे असंदीणे एवं से भवति सरणं महामुणी (३८८) एवं से उदिए ठियप्पा अणिहे अचले चले अबहिलेस्से परिव्वए। (३८९) ____ संखाय पेसलं धम्म दिछिमं परिणिबुडे । [३९०] . तम्हा संग-ति पासह । गंथेहिं गढिया णरा विसण्णा कामकता । तम्हा लूहओ णो परिवित्तसेज्जा। (३९१) जस्सिमे आरंभा सव्वतो सव्वत्ताए सुपरिण्णाया भवंति, जेसि मे २ लूसिणो णो परिवित्तसंति, सेवता कोहं च माणं च मायं च लोभं च ४ । एस तुट्टे ५ वियाहिते-त्तिबेमि । (३९२) १ रूक्षतः (संयमात्) २ येषु आरंभेषु) इमे लूषकाः ( हिंसकाः) ३ वात्वा ४ मोहनीयं त्रोटयतीति शेष: ५ त्रु:अपगतः कर्मसंततेरितिशेष: अने तेम कर्याथी ते महामुनि, नाश पामता जीवोने उत्तम वेटना मुजव शरण आपनार थाय छे. [३८८] ए माटे दीक्षित पुरुपे आत्मा स्थिर राखी निरीह रही परीपहोथी नहि हरतां तथा स्थिरवास नहि करतां संयममां लक्ष राखी वा करवं. [३८९] जे माटे पवित्र धर्मने जाणी करोने ज सत्क्रिया करनारा पुरुपो मुक्त धया छे. [पण पवित्र धर्मने न जाणनारा पुरुषो मुक्त थता नथी.] [३९०] माटे (हे मुनीओ) तमे अपंचमा मुंझासो नहि. धनदौलतमा मुंझाएला लोको अनेक कामनाओधी पीडाता रहे छे. माटे मुनिए संयमयी नहि डगवं. [३९१] जे पापप्रवृत्तिओ करतां हिंसक लाको नथी डरता तेवी सर्व पापत्तिआधी जे पुरुष सर्व प्रकारे यथार्थ ज्ञान पूर्वक दूर रहेछे , ते पुरुष क्रेाध मान माया तथा लोभने वमी करीने (मोहनीय कर्म तोडे छे ) अने एवो पुरुष कर्मनी जालो थी ) छूटो पएलो छ एम ई कहुं हुं. (६९२) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराग-मूळ तथा भाषांतर. ___ कायस्स वियाघाए संगामसीसे वियाहिए । सेहु पारगमे मुणी । अविहम्ममाणे फलगावयादि कालोवणीते कंखेज्ज कालं जाव सरीरभेओ-त्ति बेमि । (३९३) "शरीरनो नाश करवो" ए खरेखर, संग्रायन टोच छे. (ए वखते जे नहि मुंझाय) ने मुनि नकी संसारनो पार पामे छे. माटे मुनिए अंतकाळे परीपहाथी नहि डरतां लाकडाना पाटीआनी माफक अचळ रहीने मृत्युकाळ आदता अणसण आदरी ज्यां लगी आ शरीरथी जीव जूदो पडे, त्या लगी मरणकाळने इच्छता रहे. (३७३) Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन सातमुं. [१०७ BHAI . 8 पिOO VIO REAMINATIONAL महापारिज्ञाख्यं सप्तम मध्ययनम्. (इदं सप्तोदेश मध्ययनं व्यवच्छिनम्) अध्ययन सातमुं महापरिज्ञा. 基基丞丞张张张弦长并达基基玄关装在弦在长长还送法托托莊 场地狂狂狂狂兵计计计迁狂狂狂狂狂狂狂开邦开并许安狂狂狂狂狂升并获并拜托汪汪汪汪并丑丑建好并注许齐莊共丑迁连齐还许下 ४ (सात उद्देशनुं आ अध्ययन विच्छिन्न थयु छे. केरके एवं कहेवाय छे के श्रीमान् देवद्धिगणिए ज्यारे आ सूत्र पुस्तकपर लख्युं त्यारे ते अध्ययनमां केटलीक चमत्कारिक विद्याओ जेना तेना हाथे जाय तो लायना बदले गेरलाम थवाना वधु संभव रहे एम धारी ते लखतुं बंध राख्यु. गमे तेम होय पण आपणा कमनशीवे आधु उत्तम अध्ययन विच्छि न्न थयुं छे, तेथी आपणने अतिशय अफशोप जाहेर कर्या शिवाय वीजो उपाय रह्या नथी. ] भाषांतर कर्ता. FOR PAKIST ANNovi-PHiramr TISonam + SA THAVA १ERE 4 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०८ भाचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. विमोक्षाख्य-मष्टम मध्ययनम्, (प्रथम उदेशः) से बेमि समणुन्नस्स वा असमणुन्नरस वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पहिग्गहं वा पायपुंछणं वा णो पाएज्जा णो निमंतेज्जा णो कुज्जा वेयावडियं परं आढायसाणेत्ति बेमि । (३९४) “धुयं चेतं जाणेज्जा असणं वा जाव पापपुंछणं वा लभिया, णो लभिया, भुजिया, णो भुंजीया, पंथं वियत्तुणवि उकम्म." विभत्तं धम्म झोसेमाणे समेमाणे वलेमाणे पाएज्जावा णिमंतेज्जावा कुज्जा वेया अध्ययन आठमुं. विमोक्ष. पहेलो उद्देश. (कुशील परित्याग.) हुँ कहुं छं के मुनिए रुडा वेपवाला ? अथवा नरसा वेपवाला २ असंयतिने अतिशय आदरवंत थइने * अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कंबळ, अने पादपुंच्छन 3 आपां नहि, आपवा माटे निमंत्रण कर नहि, अने तेमर्नु वैयावृत्त्य४ क नहि. [३९४] । ते असंयतिओ कहे के “ हे मुनिओ तमे नकी करी मानो के तमने अशनादि मळ्युं होय अथवा न मळ्युं होय, तमे ते खाई होय अथवा न खाई होय, तो पण तमारे अमारे त्यां आव. कदि आडो मार्ग होय अथवा वच्चमां कंड ? स्वमती-पासत्या प्रमुख. २ परमती-शाक्यादि. ३ रजोहरण, ४ चाकरी * भन्न, पाणी, मेवो, मीराइ-आ अर्थ हरेक ठेकाणे समजी सेवो. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन आठमुं. वडियं परं अणाढायमाणे-त्ति बेमि । (३९५) इह मेगेसि आयारगोयरे णो सुणिसंते भवति । ते इह आरंभद्री अणुवयमाणे, “हणपाणे" घायमाणे, हणतो यावि समणुजाणमाणे, अदुवा अदिन्न माड्यंति, अदुवा वायाओ विप्पउंजंति; तंजहा, अस्थि लोए, णत्थि लोए, धुवे लोए, अधुवे लोए, सादिए लोए, अणादिए लोए, सपज्जवसिते लोए अपज्जवसिते लोए सुकडे-त्ति वा दुक्कडे-त्ति वा, कल्लाणे-त्ति वा, पावे-ति वा, साधू-त्ति वा असाधू-त्ति वा, सिद्धी-त्ति वा, असिद्धी-चि वा, णिरए-त्ति वा, अनिरए-ति वा (३९६) मुना घोय, तोपण ते ओर्लंगीने पधार " ए रीते वोलीने जूदा धर्मने पाळनार तेओ आवता थका के जता थका कइ आपे के आपवा माटे निमंत्रण करे अथवा कंइ वैयारत्य करे तो ते कबुल कर नहि. किंतु जेम बने म अलगा रहे केटलाएकाने' आचार संबंधी पावतनी माहिती होती नथी तेथी तेओ आरंभना अर्थी थइने परधर्मिओना वचनोनी नकल करीने " जीवोने मारो" एवं कही वीजा पासे जीवोने मरावे छे, अने जीवना मारनारने रुडं जाणे छे, अथवा अणदीधेलं लेता रहे छे, अथवा अनेक प्रकारना नीचे मुजय वाक्यो बोले छ:-एक कहे छे "लोक छ" वीजारे कहे छे "लोक नयी." एक कहे छ "लोक निश्चल छे" वीजा कहे के "चळ [फरतो] छे." एक कहे छे "लोक आदिसहित छे, " वीजा कहे छे “अनादि छे. एक कहे छ “लोकतुं अंत छ,” पीजा कहे छे "नथी." एक कहे छे "ए ठीक कर्यु," वीजा कहे छे "ए खोटं फर्यु." एक कहे छे “ए कल्याण छे," मीजा कहे छ “ए पाप छे." एक कहे छ आ साधु छे," वीजा" कहे छे “ए असाधु छे." एक कहे छे "सिद्धि छे," भीजा कहे छ " सिद्धि नथी." एक को छे "नरक छे," वीजा कहे छे "नरक नयी." [३९६] १ पासत्या बगेरेने. २ नास्तिक. १ भूमोळयादी. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [20] आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर. " जमिणं विप्पाडवन्नां " मामगं धम्मं ” पन्नवेमाणा, एत्थवि जाणह - अम्हा । एवं तेसिं णो सुअक्खाए सुपन्नते धम्मे भवति, से जहेतं भगवया पत्रेोदतं आसुपण्णण जाणया पासया । अदुवा गुत्ती वउगोयरस्स - तिबेमि । [३९७] सव्वत्थ समयं पावं । तमेव उवतिकम्म' । एस महं विवेगे वियाहिते । [३९८ ] गामे अदुवा रणे, णेण गामे णेव रणे, धम्म- मायाणह पवे -- दितं माहणेण मईमया (६९९) जामा तिण्णि उदाहया, जेसु इसे आरिया संबुज्झमाणा' समु द्विया । ( ४०० ) १ व्यवस्थितोहमितिशेषः २ व्रतविशेषाः एते जे पोतपोतन धर्म वतावता रहे छे तेमने माटे उत्तर आपवाने एटलुं जाणवुं बस छे के “तमारुं बोलवं अकस्मात् [ हेतुविनानुं ] छे." ए रीते ते एकांत वादिओनो धर्म शिघ्र बुद्धिशाळी सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवान वीर प्रभुन कहेला धर्मना मुजब खरेखर रीते कहेलो के जणावेलो सिद्ध थतो नथी. ( माटे समर्थ मुनिए परवादीओने बादमां जीतीने यथार्थ उत्तरो देवा ) असमर्थ सुनिए मौन रहे. [३९७ ] - ( परवादिओने शरुआतमां सुनिए कहे के ) वधायामां पाप रहेतुं छे, ૨ डुं तेने छोडा वर्त्तछं, ए मा विवेक जाणवो, [१९८] बुद्धिशाळी ४ महान वीर प्रभुए क छे के ( विवेक होय तो ) गाममां रहेतां पण धर्म छे अने अटवीमा रहेता पण धर्म छे. [ विवेक होय तो ] गाममां रहेत पण धर्म नधी अने अटवीमां रहेता पण धर्म नथी. [३९९] . [ वळी ते भगवाने] त्रण याम [ महाव्रत ] बतान्या छे; जेओमां आ आ य प्रतिबोध पामीने तैयार थया छे. [४०० ]. १. सदा उपयोगवंत. २ कारणके वथाओ पाप करे छे. ३ मुकाबला-तफावत Distinction ४. केवल ज्ञानवान् ५ काइने होम " एवं बोलनार. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘अध्ययन आठमुं. [१११] जे णिव्वुता, पावेहिं कम्मेहिं आणियाणा ते वियाहिया । (४०१) उर्दू अधं तिरियं दिसासु सव्वंतो सव्यावंति च णं पाडियकी जीवेहिं कम्मसमारंभे णं । (४०२) । तं परिन्नाय मेहावि णेव सयं एतेहिं काएहिं दंडं समारंभेज्जा, णेवण्णे एतेहिं काएहिं दंडं समारंभावेज्जा, नेवन्ने काएहिं एएहिं दंडं समारंभंतेवि समणुजाणेज्जा । (४०३) जेयने एतेहिं काएहिं दंडं समारंभात तेसिपि वयं लज्जामो । (४०४) तं परिणाय मेहावी तं वा दंडं अण्णं वा दंडं णो दडंमी दंडं समारंभज्जासि तिबेमि । ४०५ १ प्रत्येकं जेओ नित [क्रोधादिक मटवाथी शांत ] थया छे ते पापना कामी . अलगा रहेनार कह्याछे. [४०१] ___ उचनीचे, त्रिछु, अने सघळी दिशाओ तथा विदिशाआमां, सर्व प्रकारे जीवामां दरके जीवदीठ कर्म समारंभ रहेलो छे, [४०२] तेने रुडी रीते समजी करीने, मर्यादावंत मुनिए पाते ए पृथ्वीकायादिक जीवोनो आरंभ न करचो, वीजावती न कराववो, अने जेओ करता होय तेमने रुडा पण न गणवा. [४०३] [मुनिए विचार के ] जेओ ए जीवोनो आरंभ करे छे तेनाधी पण अमे शरमाइए छीए. [४०४] · एम रुडी रीते जाणीने मर्यादात अने आरंभथी बीहीता मुनिए ते आरंभ अथवा वीजा आरंभ नहि फरवा. [४०५] । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११२] भाधारांग-मूळ तया भाषान्तर, द्वितीय उद्देश.] से भिक्खू परक्कमेज वा, चिद्वज्ज वा णिसीएज्ज वा तुयदेज्जर वा सुसाणंसि वा, सुन्नागारंसि वा, गिरिगुहंसि वा, रूक्खमलं सि वा, कुंभाराययाणसि वा, हुरत्था वा कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खू उवसंकमितु गाहावती बूया, “आउसंतो समणा! अहं खलु तव अटाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पाणाई भुताई जीवाइं सत्ताई समारलंभ समुद्दिस्स, कीयं पामिजं अच्छेज्जं २ अणिसटुं अमिहडं आहट्ट वेतमि, आवसहं वा समुस्सिणामि, से भुंजह वसह । ” (१०६) आउसंतो समणा? भिक्खु तं गाहावति समणसं सवयसं संप १ त्वग्वर्त्तनविदध्यात्. २ अपरस्मा दुद्धार्य गृहीतं.३ आच्छेद्यंमाच्छिद्य गृहीतं. ४ वितरामि. ५ संप्रत्याचक्षीत. बीजो उद्देश. [अकल्पनीय परित्याग] मुनि, श्मशानमा अथवा सूनां घरमां अथवा पर्वतनी गुफार्मा अथवा 'झाडना मूळमां अथवा कुंभारना घरमा फरतो होय उभो होय अथवा सूतो होय अथवा बाहेर क्यां पण विचरतो होय, तेने जोइ कोइ गृहस्थ, पासे आवी कहे के "हे आयुष्यमान् मुनि, हुं तमारा सारं असन पान खादिम स्वादिम वस्त्र पात्रकंवल तथा पादपुच्छन, माणिओना आरंभथी वनावीने अथवा वेचातां लइने अथवा ऊधारे आणीने अथवा कोइ पासेथी झुंटावी लइने अथवा वीजाना होवा छतां तेमनी रजा लीधा शिवाय अथवा मारा घेरथी लावीने तमोने आपुंछ अथवा तमारा सारं मकान चणाबूद्धं के समारंछं. माटे तमो खाओ अने रहो. "[४०६] हे आयुष्यमान् साधुओ ? ते मुनिए ते पोताना जाणीता अथवा मित्र गृ १ स्मशानमा स्थविर कल्पीने रहे, न घटे माटे तेवा पद जिनकल्पी माटे ना जाणवा एम टीकाकार जगावे . Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन आठमुं. [११३] डियाइक्खे १ “आउसंभो गाहावइ? जो खलु ते वयणं आढारामे, णो खल ते वयणं परिजाणेमि, जो तुमं मम अाए असणं वा [४] वत्थंवा [१] पाणाई वा [४] समारव, समुदिस्स कीयं पामिचं अच्छेज्ज अणिसटुं अभिहडं आहट्ट वेएसि, आवसहं वा समुरिसणासि । से विरतो आउसो गाहावती! एयरस अकरणयाए । [४०७] से भिक्खू परकमेज वा जाव हुरत्था वा कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खुं उवसंकलि-तु गाहावती आयगयाए पेहाए असणं वा (४) वत्थं वा (४) पाणाई (8) समारंभ जाव आहट्ट वेति आवसहं वा समुस्सिणाति तं सिक्खू परिघासिउं, तं च भिक्खू जाणेज्जा सह सं. मइयाए परवागरणेणं अप्णेसिं वा सोच्चा “अयं खलु गाहावती ममट्टाए असणं वा (४) वत्थं वा (४) पाणाई (४) समारंभ जाव एति आवसहं वा समुस्सिणाति” तं च भिक्खू संपडिलेहाए आगमेत्ता २ आणवेज्जा अणासेवणाए-त्ति बेमि । (४०८) १ संप्रत्याचक्षीत २ ज्ञात्वा. हस्थने आ रीते कहे,." हे आयुष्यमान् गृहस्थ, हुं तारं ए वोलवू कबुल कर तो नधी अने पाळतो नथी. माटे शा सारं तुं मारा माटे आरंभादिक करीने व. स्त्रादिकनी खटपट करे छे अथवा मकान चणावे छे? हे आयुष्यमान् गृहस्थ, हुँ ए बावतो न करवाना लीधे तो त्यागी थयो ई. [४०७] ___मुनि स्मशानादिकमा फरतो होय के बाहेर क्यां पण विचरतो होय तेने जोइने ते मुनिने जमाडया कोइ गृहस्थ पोताना मनयां धारणा राखी ते मुनिना सारु आरंभादिक करीने आहारादिक आपे अथवा मकान चणे, एवामां ते मुनिने पोताना बुद्धिबळे अथवा तीर्थकर देवे बतावेला मार्गथी खबर पडे अथवा ते गृहस्थ ना सगा वहालाना पासेधी ' सांभळ्याथी खबर पढे के “ आ गृहस्थ मारा माटे आहारादिक नीपजावी मने आपया चाहे छ अथवा मकान चणे छे" आम थनां ते मुनिए पूरी तपास करीने ते वावत जाणीने ते गृहस्पने मनाइ पाडवी के ई आहार के मकान वापरयानो नधी. [४०८] Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {११४ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. भिक्खं च खलु पुटा वा अपुट्ठा २ वा जे इमे आहच्च गंथा" फुसंति से हंता “हणइ खणह छिंदह दहह पयह आलुपह विलुपह सहसाकरेह विप्परा मुसह" । ते फासे पुदो धीरो अहियासए अदुवा आयारगोयर-माइक्खे तकियाण-मणेलिसं, अदुवा वइगुत्तीओ गोयरस्स अणुपुव्वेण सम्म पडिलेहाए, आयगुत्ते । बुद्धेहिं एयं पवेदितं । से समणने असमणन्नस्स' असणं वा [] वत्थं वा [87 नो पाएज्जा नो निमंतेजा नो कुज्जा वेयावडियं परं आढायमाणेत्ति बेमि । (४१०) १ पृष्ट्वा वा २ अपृष्ट्वा वा ३ गाथापतयः ४ आहृत्य ढौकयित्वा ग्रंथात् महतो द्रव्यव्ययात् ५ उपतापयंति ६ क्षणत ७ अनीदृशं तर्कथित्वा ८ पार्श्वस्थादेः कोइ गृहस्थो मुनिने पूछी अथवा नहि पूछीने मोटं खरच करी आहारादिक वनावी मुनि आगळ धरे ते मुनि अशुद्ध जाणी न ल्ये एटले तेओ तपे अने कदाची मारे अथवा बोले के "आ साधुने मारो, कूटो, कापो, वाळो, पचावो, लूटो, झूटो, पूरुं करी घो, वधी रीते सतावो. " आवा संकटमां आवी पहतां धीर -मुनिए चधुं सहन कर; अथवा पुरुप विशेष विचारीर सरस रीते साधुना आचार कही वताववा; अथवा मौन धरी आत्मगुप्त [सदा उपयोगी ] धइने गोचरीनी अनुक्रमे रुडी रीते शुद्धि करता रहे. एम ज्ञानिओए कहेलुं छे. [४०९] संविग्न मुनिए आदरवान थइने असंविग्न पुरुपने आधार तथा वस्त्रादिक आपवां नहि, ते संबंध मागणी पण न करवी अने तेनु वेयावृत्य पण न कर, एम हुँ कहुं छ. [४१०] १ वखते राजादिक होवाथी २ सामा पुरुपना स्वभाव विगैरे योग्यतानी विचार दारी. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन आठमुं. [११] धम्म-मायाणह पवेइयं माहणेण मतिमया; समणुन्ने समणुन्नरत असणं वा () वत्थं वा (१) पाएज्जा णिमंतेज्जा कुजा वेयावडियं परं आढायमाणेत्ति बेमि । (४११) तृतीय उदेश:] मज्झिमेणं वयसा एगेसंबुज्झमाणा समुद्भिता । (४१२) सेोच्चा मेधावी वयणं पडियाणं निसामित्ता' । (४१३) समयाए धम्मे आरिएहिं पवदिते । (४१४) ते अणवक्रखमाणा अणतिवाएमाणा अपरिग्गहमाणा णो परिणाहावंति' सव्वाति च णं लागसि । णिहाय दंडं पाणेहिं पावं कम्म १ समता मालंबेत इतिशेष : २ न परिग्रहवंत - बुद्धिमान् महान महावीर प्रयुए कहेलो धर्म समजो. सविग्न मुनिए संविग्न मुनिने आहारवस्त्रादिक आदरपूर्वक आपां ते संबंधे निमंत्रण पण कर, अने तेमनी चाकरी पण करची, अम हुँ कहूंछं. [४११] त्रीजो उद्देश. खोटी शंका निवारण मध्यम वयमा केटलाएक जीव प्रतिबोध पामी दीक्षा ले छे. [४१२] चतुर पुरुषे पंडिताना वचन सांभळी तरा अवधारीने [समता राखवा] आर्य तीर्थकरदेवोए समताए धर्म भाष्यो छे. ४१४] दीक्षित गुनियो कामभगनी अभिलापा छोडीने कोइ जीवनी पण हिंसा नहि करता थका नया फशो पण परिग्रह नहि धारत मका आखा जगत्मा निःप Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११६] आचाराग- मूळ तथा भाषांतर. अकुव्वैमाणे एस महं अगंथे वियाहिए, ओए जुतिमस्स खेयन्न अ 3 उववायं चवणं च णच्चा । [ ४१५] रिगिलायमाणेहिं (४१६) ओए दयं दयति [१७] जे संनिहाणसत्यस्स' खेयन्ने से भिक्खू कालण्णे बालणे, मायाण्णे, खणयण्णे विणय समयग्णे परिग्गहं अममायमाणे कालेगुडाइ आहारोवच्या देहा, परीसह पभंगुरा । पासहेगे सव्बिदिएहिं प अपडिने दुहओ छेत णियाति । [ ४१८ ] तं भिक्खु सीयफासपरिवेयमाणगायं उवसंकमित्तु गाहावई १ चुतिमतः संयमरय खेदज्ञोनिपुण इत्यर्थ: : सयमस्य रिग्रह थाय छे. प्राणिओनी हिंसा छोडीने पापना काम नहि करता थका तेओ महोटा निर्बंथ कहेला छे. एवा सुनिओ रागद्वेष छोडीने ओज एटले एकरूप वन्या थका संयमना जाणनार था, देवताओने पण जन्यमरण थतां जाणी पापनो परिहार करेछे. [४१५] शरीर आहारथी व छे ने टके छे, छतां परीपहो [संकटो] आवतां तेनुं वळ घंटे छे. जुओ बनाएक कातर जनो [ व्यसनी मनुष्यो -Men whose organesre failing] परिषहोथी सघळी इंद्रियो नरम पडतां असमर्थ बनता रहे छे. [४१६ ] पराक्रमी पुरुष परीपो पडतां पण दया छोडता नथी. [४१७] जे मुनि संयममां कुगल होय तेज मुनि, काळ? वळ मात्रा क्षण विनय तथा समयना जाण जाणवा. तेवा मुनि परिग्रहनी ममता छोडीने टाइमसर क्रियाओ करता था अतिज्ञ एटले निदानरहित थइने रागद्वेष बन्ने वाजु कापता थका रुडी रीते संयम मार्गमा चाल्या जाय छे. [४१८] तेवा सुनितुं शरीर वखते ताढथी ध्रुजतुं य तेवायां कोइ गृहस्थ कहे १ काळादि पदोनो अर्थ लोकविजयना पांचमां उदेगमां फुटनोटमां आये හ B. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन आठमुं. [११७ बूया :-" आउसंतो समणा, णो खलु ते गामधम्मा? उब्बाहंति ? “ आउसंतो गाहावइ, णो खलु सम गासधम्मा उब्बाहंति, सीयफासं णो खलु अहं संचाएसि अहियासित्तए । णो खलु मे कप्पति अगणिकायं उज्जालेतए वा पज्जालेत्तए वा कायं आयावेत्तए वा पयावेत्तए वा, अण्णेसिं वा वयणाए। (४१९) सिया से एवं वदंतस्स परो अगणिकायं उज्जालेता एज्जालेत्ता कायं आयावेज्जा वा पयावेजा वा । तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमेत्ता आणवेज्जा .अणासेवणाएत्ति बेसि । (४२०) - - - - [चतुर्थ उद्देशः] जे भिक्खू तिवत्थेहिं परिवसिते पायचउत्थेहि तस्सणं णो एवं १ विषयाः २ पात्रचतुर्थैः के “हे आयुष्यमान् श्रमण तमने काम तो पीडता नथीने ? " त्यारे मुनिए तेने कहे के " हे आयुप्यमान् गृहस्थ, मने कंइ काम पीडतो नथी, किं तुताढ वायछे ते हु सही शकतो नथी, वेणी शरीर कंपे छे ; मारे कंइ अनि सलगाववो के वाळवो कल्पतो नथी. नेमज सेना पासे शरीरने तपाव_ कर अथवा वीजाने तेम करवा कहेवू पण कल्पतुं नथी." [४१९] कदाच सुनिए एम कह्याथी गृहस्थ पोते अग्नि सळगावी मुनितुं शरीर तपावे तो मुनिए ते संबंधी हकीकत जाणीने तेने मनाइ पाडवी के मारे ए अनि सेववो युक्त नथी. [४२०] नवाजाने तेम करया कहलायी. नेगल सेना पार कप छे । मारे की चोथो उद्देश. [मुनिए कारगयोगे वेहानसादि वाल मरण पण करवा.] जे साधुने पात्र अने त्रण वस्त्र होय तेने एत्रो विचार न थाय के मारे १ जिनकल्पीने. - - Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. भवति "चउत्थं वत्थं जाइस्सामिग से अहेसणिज्जाइं वत्थाई जाएज्जा, अहापरिग्गहियाई वत्थाई धारेज्जा, नो धोविन्जा, नो रएज्जा, नो धोत्तरत्ताई वत्थाइं धारेज्जा, अपलिउंचमाणे गामंतरेसु, ओमचेलए। एयंखु वत्थधारिस्त सामग्गियं । (४२१) ___अह पुण एवं जाणेज्जा;-उवतिकंते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवन्ने अधापरिजुन्नाइं वत्थाइं परिविज्जा; अदुवा संतरुत्तरे, अदुवा ओमचेले, अदुवा एगसाडे, अदुवा अचेले, लाघवीयं आगममाणे । तवे से अभिसमन्नागए भवति। जमेयं भगवया पवेदितं तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्त-मेव समभिजाणिया । (४२२) १ यदिपुनः कल्पत्रयं न स्यात् तदा २ अगोपयन् ३ अपरहेमंतस्थिीतिसहिणनितुतानि प्रत्युपेक्षयन् बिभर्ति, ४ कचित् प्रावृणोति क्वचित् पार्थवर्ति बिभर्ति चो, वस्त्र जोइशे. जो त्रण वह न होय तो सूझती वस्त्र याचवां अने जेवां जडे तेवां पहेरखां, वस्त्र धोवां के रंगवां नहि२, धोएला के रंगेलां पहेरवां नहि, गामांतरे जतां वस्त्र संताठवा नहि अने ए रीते हलकां वस्त्र राखवा. ए वस्त्रधारी मुनिनो आचार छे. [४२१] हवे ज्यार मुनि एम जाणेके शीयालो गयो हवे उनाळो वेटो त्यारे जूनानूनां वस्त्र परठवी नाखवां अथवा (वखते उनाळामां पण क्षेत्रादियोगे ताढना संभव होय तो] कोइ बरसते पासे राखवां अथवा त्रणमाथी एक परठवी दइ वे पहरेवां अथवा वे परटवी एक पहेरखं अथवा ताह टळता वधां छांडपां. कारण के ए रीते उपकरणर्नु लाघव [ ओछापणू] प्राप्त थाय छे. आग करतां तप करखें गणाय छे. जे ए वधु भगवाने भाज्यु तनेज जाणीने वस्त्रसहितपणानां तथा दसहितपणामां जेम वने तेम सरखापशुज जाणता रखें. [४२२] १ साधुने लेवा घटे एवा. २ स्थविरकल्पा वर्षादि कारणे वस्त्र धुर खरा. जिनकल्पी न धुए. ३ अर्थात संताडवानी जरुर न पटे एवां हलकां वस्त्र पहेरवा ४ छांडी आपवां. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ओठमुं. [११९] जस्सणं भिक्खस्स एवं भवति पुट्ठो खलु अहमंसि, नाल महमसि सीयफासं अहियासित्तए, से वसुमं सव्वसमण्णागयपत्राणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणाए आवहे, तवस्सिणो हु त सेयं जं सेगे विह मादिए' । तत्थवि तस्स कालपरियाए । सेचि तत्थ विअंतिकारए । इच्तं विमोहातणं हियं सुह खमं णिस्सेयसं आणुगामियं त्ति बेमि । ४२३) १ आदद्यात् २ वेहानसमरणकतीपि ३ व्यंतिकारकाऽत : क्रियाकारकः जे सावना मनमां एवो विचार उपजे के “ हुं उपर्सगमां सपढायोछु, हूं ताकि उपसर्गखमी शकतो नथी ? " त्यारे ते संयमी साधुए जेय बने तेम समजवान थइने अकार्यमा र प्रवृत्ति न करतां वेहानसादिक मरणे मखं उत्तम छे. त्यां पण तेना कालपर्यायज छ (एटले जेम भक्तपरिज्ञादिक ४ काळपर्यायवाला मरण हित कती छे तेम ए बेहानसादि मरण पण हितकताज छे. ] तेवी रीते मरनारा पण मुक्तिए जाय. छे. ए रीते ए वेहानसादिक मरण पण मोहरहित पुरुषोनुं कृत्य छे, हितकत्ती छे, सुख कर्त्ता छे, वाजवी छे, कर्म खपावनार छे, अने भवांतरे तेनुं पुण्य चाली शके छे. [४२३] · १ आदिशब्दे स्त्री वगेरेना उपसर्गो सेवा २ मैथुनादिकमां. ३ वेहनत मरण एटले आकाशमां चाली मखं आदि शब्दयी झपापात विगेरे मरण लेवा. ४ भक्त एटले भोजन तेनी परिज्ञा एटले त्याग तेणे करी मरतुं एटले अणसणध मरं ते विगेरे. ५ वरखतना अनुक्रमवाळा. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२२] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. करणाए । (४२७) आहट्ट परिन्न, आणखेस्सामि, आहडं च सातिज्जिस्सामि (१) आहट्ट परिन्नं, आणक्खेस्सामि, आहडं च णो सातिजिस्सामि (२) आहट्ट परिन्नं, णो आणक्खेस्सामि, आहडं च सातिज्जिस्सामि (३) आहट्ट परिणं णो आणखेस्सामि, आहडं च णो सातिन्जिस्सामि (४) एवं से अहाकिहिय मेव धम्मं समहिजाणमाणे संते विरते सुसमाहितलेसे । तत्थवि तरस कालपरियाए । से तत्थ विअंतिकारए । इच्चेतं विमोहायतणं हितं सुहं खमं णिस्सेयसं आणुगामियं-ति बेमि । (४२८) १ करणाय-तदुपकाराय ( स भिक्षुः प्रकल्पं पालयन् भक्तपरिज्ञया प्रामानपि जह्यात् नपुनः प्रकल्प खंडयोदिति शेष) २ परिज्ञां ३ अन्वेषयिष्यामि. तवा मुनिए ए पोतानो आचार पाळतां भक्तपरिज्ञा नामना मरणे करीने प्राण जवा देवा पण आचार खंडवो नहि.] [४२७] चउभंगी] ई वीजाने माटे लावीश, वीजानुं लाव्यु पण खाइश. [१] हुँ वीजा माटे लावीश पण वीजा, लाव्यु नहि खाउं [२] हुं वीजा माटे नहि लावीश, पण वीजाए आगलं खाइश. [३] हुं वीजा माटे पण नहि लावीश, वीजानुं लाव्युं पण नहि खाइश. [४] आ रीते जेम प्रतिज्ञा लीधी हाये तेमज कह्या मुजव धर्मने पाळता थको संकट पडतां शांत अने विरत वनी सारी ले. श्याओ धरतो थको मुनि (अणसण करे) पण प्रतिज्ञा-भंग न करे. तेम करतां पण तेनो काळपर्याय १ छे. ते मुनि त्यां कर्मसयनो करनार छे, ए रीते ए विभाही पुरुषानुं स्थान छ, हितकर्ता छे, सुख कता छ, वाजवी छे, कर्म खपावनार छे अने एनुं सुकृत भवांतरे पण चाल छे, [४२८] कालण्याय पटले चार वर्पत्ती मैलेवनायी शरीर घसी अणसण करवं ते. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन आउनुं. [ षष्ट उद्देश: ] [223] जे भिक्खु एगेण वत्येण परिवसिंते पायवितिएण तस्स णो एवं भवइ, “वितियं वत्थ जाइस्तामि " । से अहेतणिज्जं वत्य जाएज्जा, अघापरिग्गहियं वा वत्यं धारेजा । जाव गिम्हे पडिवन्ने, अघापरिजुन्न बत्थं परिटुवेज्जा | अदुवा एगसाडे अडुवा अचेले लाघवियं आगममाणे । तवे से अभिसन्नागए भवइ । जहेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमेच्चा सव्वओ सव्वचाए समत्त मेव समभिजाणिया । (४२९) से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा असणंत्रा (४) आहारेमाणे णो वामाओ हणुयाओ दाहिणं हणुयं संचारेज्जा आताएमाणे, दाहिणाओ वा छठो उद्देश. [ धैर्यवंत मुनि इंगित मरण' कर्खु.) जे तावु पासे पात्रा साये मात्र एकज चत्र होय, तेने एम चिंता नहि चवानी के हुं बीजं व मागीश ने मुनि यथायोग्य वस्त्र याचे, अने जे मळे तेनुं पहेरे; ऊनाळो आवतां के परिजीर्ण बल परठवी ये अथवा ते एक चत्र परे पण अंते डांडी करीने वस्त्र रहित यह निश्चिंत याय एम कर्यायी तेने प्राप्त स्थाय छे. माडे जेम भगवाने भाष्युं तेनेन जागी करीने जेम बने तेम समपगुं समजता रहे. [४२९] साबु अथवा साचीए, असनादिक आहार करतां स्वाद मेळव्या माठे वे आहारने डावा गायी जमणा गाले न लावई अने जमणावी डावे न लावई. आम स्वाद नहि लेवायी वणी पंचात बोळी यवानी, तथा तप पण प्राप्त धाय माटे जेम भगवाने कü छे तेनेज जाणीने जेम वने तेम समपरं जाणता रहें. १ इंगिन एटले सांकेतिक एटके के आटला दशमांज मारे हख फखं एव रावा अगरण करीने शरीर छांडं ते इंगित मरण कक्तय. २ तेत्रो अभि लीवेल होवाथी. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२४] आचारांग-मूळ तथा भापान्तर. हणुयाआ वामं हणुयं णो संचारेज्जा आसाएमाणे । से अणासायमाणे लाघवियं आगममाणे । तवे से अमिसमन्नागए भवइ । जहेयं भगवता पवेइये तमेव अभिसमेचा सव्वतो सव्यताए समत्त-मेव समभिज्जाणिया। (४३०) जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति;-से गिलाणामि च खलु अहं इममि समए इमं सरीरगं अणुपुव्वेण परिवहित्तए, से अणुपुवेणं आहारं संवद्वेज्जा । आहार अणुपुब्वेण संवटित्ता कसाए पयणू किच्चा समाहियच्चे फलगावयट्टी उट्टाय भिक्खू अभिनिव्वुडच्चे, अणुपचिसित्ता गाम वा, णगर वा, खेडंर वा, कब्बडं वा, मडंबं वा, पदणं वा, दोणमुह १ कररहितं २ धूळिप्राकारवेष्टितं ३ क्षुल्लकप्राकारवेष्टितं ४ अईतृतीयगव्यूतांतामरहितं ५ जळस्थळ भेदभिन्नंद्विविधं ६ जळस्थळनिगेमप्रवेश [४३० जे मुनिनो एवो अभिप्राय थाय के हुँ आ वखतमा हवे आ शरीरने क्रियाना क्रममां धरतां थकां अशक्त थाऊं छु, ते मुनिए अनुक्रमे आहारने घटाडवो, अने तेम करीने कपायो पातला करी शरीरथी थता व्यापारो नियमीने फळकनी माफक रहेता थकां रोगादिक आंवी पडतां तैयार थइ शरीरना संताप थी रहित थइ धैर्यधरी इंगित मरण कर. ते आ रीते के गाम, नगर, खेर्डकसबो, प्रगणो, पाटण, वंदर, आगर, आश्रम, यात्रास्थळ, व्यापारस्थळ, के रा १ रोगादिक धवाथी अथवा लुखा आहारथी शरीर क्षीण थइ जवाथी, २ आवश्यकादिक क्रियाओमा ३ छट अठमादिक्रमे, नहि के वार वर्पनी संलेखनाना क्रमे, कारण के मांदु माणस कंइ तेटलो वखत टकी शके नहि. ४ जेम फळक [पाटीयुं] कपानां घडातां वधू सहन करे तेम वधू सहन करतां थकां Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन आठमुं. वा, आगरं वा, आसमं वा, संणिवेसं वा, णिगम वा, रायधाणिं वा, तणाइं जाएज्जा । तणाइ जाइत्ता से तं-मायाए एंगत-मवक्कमिज्जा । एगंत मवक्कमिता अप्पंडे अप्पपाणे अप्पबीए अप्पहरए अप्पोसे अप्पोदए अप्पुत्तिंग पणय-दग-मट्टिय-मकडासंताणए पडिलेहिय [२] पमज्जिय [२] तणाई संथरेज्जा । तणाइं सथरेत्ता एत्थवि समए इत्तरियं कुज्जा । तं सच्चं सच्चवादी ओए तिण्णे छिणणकहकहे आतीतट्टे अणातीते, चेचाण भिउरं कायं, संविहणिय विरूवरूवे परीसहोवसग्गे; अस्सिं विसंभणयाए, भेरव-मणुचिन्ने । तत्थवि तस्स कालपरियाए। सेवि तत्थ वियंतिकारए इच्चेतं । विमोहाययणं हितं सुहं खेमं हिस्सेयसं आणुगामि १ स्वर्णाकरादि २ तापसावसथः ३ यात्रागतजनावासः ४ प्रभूततरवणिग्वर्गावसथः जधानीमा जइने दर्भ विगेरे तणखला मागी आववा. ते लइने एकांत स्थळमां जवू. त्यां जइ, कीडिओनां इंडा, जीवजंतु, वीज, वनस्पति, झाकळ, पाणी, कीडिओना नागरा,१ लीलफुल, लीली माटी, तथा करोळिआथी राहत जमीनने रुडी रीते जोइ पुंजी प्रमार्जी, दर्भ पाथरवा. अने त्यां एवे वखते इत्वरिकर एटले पादपोपगम मरणना हिंशावे थोडी मुश्केलीवाळू इंगित मरण करतु. [४३१] __ सत्यवादी पराक्रमी, संसारनो पार पामेल, " केम करीश " एवी वीकथी रहित, रुडी रीते वस्तुस्वरुपने जाणनार, संसारमा नहि फसेल, मुनि जिनमवचनना विश्वासधी भयंकर परीपह तथा उपसर्ग अवगणीने आ विनश्वर शरीरने छांडतां थकां खरेखरुं सत्य अने दुक्कर काम वजावे छे. आम करतां पण तेनो काळपर्याय [संलेखना] ज गणाय छे, ते मुनि आ स्थळे पण अंतक्रिया करे छे. ए रीते ए इंगिव मरण विमोही पुरुपोर्नु स्थान छ, हितकर्ता छे, मुखकर्ता छे, वाजवी १ दरकीडीयारां २ अहीं सागारी अणसण न लेबु केमके ते जिनकल्पीने न संभवे, - - Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२६] यं-ति बेमि । (४३२) आचारांग मूळ तथा भाषान्तर. -10/ [ सप्तम उद्देशः ] 1 जे भिक्खू अचेले परिवुसिते. तस्स णं एवं भवति, चाएमि अहं तणफासं अहियासित्तए, सीयफासं अहियासित्तए, तेउफासं अहि यासित्तए, दंसमसगफासं अहियासित्तए, एगतरे अन्नतरे विरूवरूवे फासे अहियासित्तए; हिरिपडिच्छादणं च णो संचाएमि अहियासित्तए २ एवं स कप्पति कडिबंधणं धारित्तए । (४३३) अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुर्सती, सीयफासा फुसंति, तेउफासा फुसंति, दंसमसगफासा फुसंति, एगयरे अन्नयरें विरूवरूवे फासे अहियासेति अचेले लाघवियं आगममाणे । तवे से अभिसमन्नागए भवति । जहेतं भगवया पवेदियं तमेव अभिसमेच्चा १ शक्नोमि २ ह्रीप्रच्छादनं त्यक्तुं न शक्नोमि . छे, कर्म खपावनार छे अने भवांतरे एनुं सुकृत साथे चाले छे [४३२] सातमी उद्देश. [पादपोपगमन मरण. ] जे साधुवारहित [ दिगंबर ] होय, तेने एवं थशे के हुं घासनो स्पर्श खमी शकुंछु, ताप खमी शकुछु, देश के मशकनो उपद्रव खमी शकुंछु अने बीजा पण अनुकूल प्रतिकूळ परीपह खमी शकुंछं; पण नम रहेतां लज्जा परीपह खमी शकतो नधी, ते साधुए कटिबंध वस्त्र [ चोलपट २ राख.) [ ४३३ ] जो लज्जा जीती शकाती होयतो अचेल [वस्त्र रहित] ज रहें. तेम रहेता १ मच्छर २ चरोटो [अपभ्रंश ] Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन आठमुं. सव्वओ सव्वत्ताए समत्त - मेव समभिजाणिया । (४३४ ) जस्सणं भिक्खुरस एवं भवति:- अहं च खलु अन्नेसिं भिक्खूणं असणं वा [४] आहड्नु दलइस्समि, आहडं च सातिज्जिस्सामि [१] जस्सणं भिक्खुस्स एवं भवति; - अहं च खलु अन्नेसिं भिक्खूणं असणं वा॰ आहद्रु दलइस्सामि' आहडं च णो सातिज्जिस्सामि [२] जरसण भिक्खुस्स एवं भवति; अहं च खलु असणं वा० आहड्ट्टु नो दलइस्लामि आहडं च सातिज्जिस्सामि [३] जस्सणं भिक्खुस्स एवं भवति; - अहं च खलु अण्णेसिं भिक्खूणं असणं वा० आहड्ड नो दलइस्सामि आहडं च णो सातिज्जिस्सामि (४) - अहं च खलु तेण अघातिरित्तणं अधेसणिज्जेणं अघापरिग्गहिएणं असणेणं वा • अभिकंख साहाम्मियस्स कुज्जा C (१२७) तृणस्पर्श, ताड, ताप, दंशमशक, तथा वीजा पण अनेक अनुकूल प्रतिकूळ परीषद आवे ते सहन करवा. एम कर्याीथी लाघव [ अल्पचिंता ] प्राप्त पाय छे, अने तप पण प्राप्त थाय छे. माटे जेम भगवाने कहुं छे तेनेज जाणी जेम वने तेम समपणुं जाणता 'रहे. [४३४] [चभंगी] जे साबुना मनने एम धाय के हुं वीजा साधुने आहारादिक लावी आपीश, अने हुं पण वीजानुं लइश [१]; अथवा लावी आपीश पण लइश नहि [२]; अथवा हुं नहि लावी आपुं पण लावेलुं लड़श. [३] अथवा हुँ वीजा माटे लावीश पण नदि अने लइश पण नहि. [४] [ ए रीते चडभंगीथी प्रतिज्ञा करे अथवा आ प्रमाणे छूटी प्रतिज्ञा करे के] मारे मारा खपथी वधेला यथायोग्य जेवा मळेल तेवा आहारादिकथी निर्जराना अर्थे साधर्मि मुनिनुं उपकारार्थे वैयावृत्त्य करखं. अथवा मारुं कोइ तेवी रीते आहारादिक आपी वैयावृत्य करे ते स्वीकारीश. जे माटे एवी प्रतिमाथी लाघव प्रात्प थायछे. तप प्रात्प थायछे. माटे जेम भगवाने Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. कसाए पयणुए किच्चा, अप्पाहारो तितिक्खए; अहभिक्खू गिलाएज्जा, आहारस्लेव अतियं ।३। (४४०) जीवियं णाभिकखेज्जा, मरणं णावि पत्थए; दुहतोवि ण सज्जेज्जा, जीविते मरणे तहा ।।। मज्जत्थो णिज्जरापेही, समाहि-मणुपालए; अंतोबहिं विउस्सज्ज, अज्झत्थं सुद्ध-मेसए ।५। (४४१) जं किंचि बक्कमे जाणे, आउक्खेमस्स अप्पणो; तस्सेव अंतरडाए, खिप्पं सिक्खेज्ज पंडिए ।६। (४४२) गामे वा अदुवा रण्णे, थांडिलं पडिलेहिया; अप्पपाणं तु विन्नाय, तणाई संथरे मुणी ।७। (४४३) कपाय पातला करी आहार गटावी [संकट] सहन करतो थको जो साधु कदाच आहार विना बहु ज मुंझाय तो तदन आहारनो त्याग करी अणसण करे अथवा समाधि राखवा माटे थोडो वखत आहार लइ पछी संलेखणा चलावे. (४४०) मुनिए अणसण करतां जीवg पण न इच्छ्युं तेम मरतुं पण न इच्छ. जीचित अने मरण ए वनेयां आशा न बांधवी. किंतु समभादी थइ निर्जरानी इच्छा धरतां थकां समाधि पाळ्या करवी. अंदरना [कपाय] अने बाहेरना (शरीरादिक) छोडीने पवित्र अंतःकरण (राखवा) चहाबु. [४४१] (ओचित्यो कंइ रोग उत्पन्न थाय तो समाधिने इच्छता मुनिए) पोताना यम पाळवाना जे उपाय मालम होय ते उपाय अणसणना अंदर करी लइ पाधि मेळवी पाछी पण संलेखणा करवी. [४४२] गामयां अथवा अरण्यमां स्थंडिला तपाशीने तेने जीवजंतु रहित जाणीने लं दर्भादि तृणोधी त्यां संथारो पाथरवा. [४४३] १स्थळ. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३१] अध्ययन आठमुं. अणाहारो तुअहेज्जा, पुढो तत्थ हियासए; णातिवेलं उबचरे, माणुस्सेहिं वि हुए | ८ | [ ४४४ ] संपप्पगा य जे पाणा, जे उ उड्ड-महे-चरा; भुंजंते मंससोणीतं, ण छणे ण पमज्जए | ९| (४४५ ] पाणा देहं विहिंसंति, ठाणातो ण विउम्भमे; आसवेहिं विवितेहि, तिप्पमाणो हियासए |१०| गंथेहिं विवित्तेहिं, आउकालस्स पारए; [ ४४६ ] पग्गहिअतरगं' चेयं, दवियस्स वियाणतो | ११ | (४४७) अयं से अवरे धम्मे, णायपुत्तण साहिए; १ इत इंगितमरणसूत्रं प्रगृहीततरकं श्रेष्टतरमित्यर्थः संथारा पर आहार त्याग करी (अणसण करी) मुनिए शयन करवुं. अणसणम जे परीषद के उपसर्ग [दुःख तथा संकट ] ऊपजे ते सहन करवां. बहु मनुष्यो तरफधी उपसर्ग थाय तो मर्यादा उल्लंघवी नाह. (आयामां नो पडं.) [४४४] फरता जंतुओ' पक्षिओ २, रापदि जंतुओ, मांसभक्षी प्राणीओ, अने Taarat प्राणिओ४ अणसणमा रहेल सुनिने उपद्रव करे तो सुनिए हाथ विगेरेथी तेमने मारखं नहि अने रजोहरणादिकथी शरीर प्रमार्जवं पण नहि. [४४५ ] जंतुओ मारुं शरीर खाए छे पण यारा गुणों नथी खाता, एम विचा सुनिए ते ठेकाणेथी ऊठी वीजे स्थळे न जवं, आश्रमो छांडीने आनंदयां र सर्व सहन कर. बळी जूदा जूदा शास्त्रोने सांभलतां अथवा जूदी जूदी जातनो परिग्रह छांडतां पोतानुं आयुष्य पूरुं करवु. [४४६ ] हवे जे संयमी मुनि गीतार्थ होय तेवा मुनि इंगितमरण नामनुं अणसण करे छे. ते अगसण घणी कठिन रीते लेवाय छै. (४४७) १ कीडिओ प्रमुख. २ गीधविगेरे ३ सिंहादि ४ मछर जेवा. ५ कपाय विगेरे पापना हेतुओ. ६ जघन्यथी पण नवपूर्वी होवा जोइए. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषारांग-मूळ तथा भाषान्तर आयवज्जं पडीयारं विजहेजा तिहा तिहा।१२। [४४८] हरिएसु ण णिवज्जेज्जा, थंडिलं मुणिआर सए; विउस्सज्ज अणाहारो, पुटो तत्थ हियासए ।१३। (४४९) इंदिएहि गिलायंते, समियं आहरे मुणी; तहावि से अगरहे, अचले जे समा हए ।१४। ४(५०) अभिक्कमे पडिक्कमे, संकुचए पसारए; कायसाहारणट्टाए, इत्थंवावि अचेयणे ।१५। (४५१) परिक्कमे परिकिलते, अदुवा चिट्टे अहायते; २ ठाणेण परिकिलंते,णिसिएज्जा य अंतसो १६। (४५२) १ ज्ञात्वा २ यथायतः ए अणसणमाटे ज्ञातपुत्र वीर प्रभुए एम कहेलु छे के ते अणसणसंस्थित मुनिए जाते ज उद्वर्तनादि १ क्रियाओ करवी वीजा पासे त्रिविधे त्रिषिधे न कराववी. (४४८) लालोतरीकाळी जग्यामां न सूवं किंतु निर्जीव स्थंडिलमां शयन करई आहारने त्यागीने जे उपसर्गो थता रहे ते सहन करवा. (४४९) वळी इंद्रियो बहु अकडाय त्यारे ते इंद्रियाने हेरवी फेरवीने आत्माने समाधिमा राखवो. कारण क जेम तेम करतां पण जे समाधिवंत रहे छे ते पवित्र अने अचल कहेलो छे. [४५०] ए अणसणमा नियमित करेली भूमिमां शरीरना सहज टकाव माटे जर्बु आववू, वेस, चरणादिक पसारवा वगेरा क्रियाओ करी शकाय छे. अने जो कोइ समर्थ मुनि होय तो तेणे अचेतन (निर्जीव वस्तु) माफक अडगज थइ रहे. [४५१] पण तेम नहि करी शकता मुनिए वेशी देशी थाकी जतां (समाधिना आ 2 ] हरदुंफरवू, अथवा हरतां फरता थाकेला मुनिए यतनापूर्वक वेसवू, अने ये सवाची थाकी जतां शयन पण करवू. [४५२] १ उद्वर्तन-ऊठवू, परिवर्तन-पामुं फेरव, उच्यार. खरच जवं, प्रश्रवण-पिगार 'करचा जवें, इत्यादि क्रियाओ. २ करचरणादिक. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन आठमु. [१३३] आसीणे णेलिसं मरणं, इंदियाणि समीरए; कोलावासं समासज्ज, वितहं पादुरेसए | १७ | [ ४५३] जओ वज्जं समुप्पज्जे, ण तत्थ अवलंबए; ततो उकसे अपाणं, सव्वे फासे अहियासए | १८ | [ ४५४ ] अयं २ चायततरे सिया, जो एवं अणुपालए; सव्वगायणिरोधेवि, ठाणातो ण विउब्भमे । १९ । [४५५ ] अयं से उत्तमे धम्मे, वहाणस्स पग्ग हे; आचरं पडिलेहित्ता, विह े चि माहणे । २० । [४५६] अचित्तं तु समासज्ज, ठावएतत्थ अप्पयं वासिरे सव्वसो कायं, ण मे देहे पहा | २१ | ( ४५७) १ गवेषयेत् २ पादपोपगममरणविधिः ३ अनुपालयेदित्यर्थः कार्यः आवा अगसणमां उजमाल थएला मुनिए पोतानी इंद्रियो तेमना विषयोथी खूब खेंची लेवी. अवष्टंभना माटे ( अढेलवा माटे ) जे मुनिओ पोतानी पौठ पाछल पाटिउँ राख्ने छे ते सुषिर होय तो ते बदलावी वीजं लें. (४५३) कारण के जेथी पाप उत्पन्न थाय तेनुं अवलंबन न करं. माटे सर्व सदोष योगोथी आत्माने दुर करीने सर्व परीषद तथा उपसर्ग सहेवा. (४५४) ( हवे पादपोपगम अणसन कहे छे ) जे मुनि सर्व शरीर अकडातां पण जे स्थानमा अणसण करेलुं होय ते स्थानथी लवलेश पण न डगे अने ए रीते जे पादपोपगम अणसण पाळे ते सर्वथी अधिक काम जाणं. [४५५] आ अणसण सर्वथी उत्तम छे, कारण के ए पेहेला बतावेला भक्तपरिज्ञा तथा इंगितमरण ए वन्ने अणसणोधी मुश्केल छे. [एनी विधि आ रीते छे] अचिर एटले निर्जीव भूमि तपाशीने त्यां वेशीने ए अणसण आदर. (४५६) मतलब ए के अचित्त स्थंडिल अथवा फळक मेळवीने त्यां पोते स्थित थं, अने आखा शरीरने घोसरावं. [ पछी परीषद के उपसर्ग थाय तो विचारखं के ] मारा शरीरमां परीषह छ ज नहि. -[ शरीर में मारुं नयी त्यारे तेना परीवह ते मारे शेना होय] (४५७) Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३४ आचारांग-मूळ नथा थापान्तर. जावजवं पीप्तहा, उसगा इति संखया; संबुडे देहभेयाए, इतिपन्ने धियासए ।२२। [४५८] भिउरेसुन रज्जेज्जा, कामेसु बहुतरसु विः इच्छालोभंण सेवेज्ज, धुवं वन्नं सपेहिया ।२३। (४५९) सासएहिं णिमंतेज्जा दिव्यमायं ण सद्दहे; तं पडिबुज्झ माहणे, सव्वं नूमं विधूणिया ।२४। (४६०) सव्व हिं अमुच्छिए, आउकालस्स पारए; तितिस्ख परमं णच्चा, विमाहनतरं हितं-ति बेमि ॥२५॥ (४६१) १ (उपसंहारसूत्र) वळी विचारवं के ज्यां लगी जीवीश त्यां लगी परीपहोपसर्ग सहेबाना छे एम धारीने “में शरीरथी जूदो थवा माटे ज शरीरको त्याग करेलो छे ? " एम विचारी पंडित मुनिए सर्व परीपहोपसर्ग सहन करवा. (४५८) वळी आने वखले कदाच कोइ राजादिक त्यां आवी अनेक लालचो वताव मुनिनुं मन डगावे तो पण मुनिए ते क्षणभंगुर शब्दादिक विपयोत्रां राग करदो नहि. सदा स्थिर रहेनारी यशकीर्ति विचाराने मुनिए इच्छालाभ एटले" हुँ चक्रवर्ती थाउं" ए विमरे निदान न करवा. [४५९] वळी कोइ कटाच शाश्वत एटले अनर्गल द्रव्ययी मुनिले निमंत्रणा करे तो मुनिए चिंतक्g के मार गरि ज शाश्वन नयी माटे ए द्रव्य शाश्वत शी रीते वन." बळी कोइ देवता आवी माया वतावे ते! ते पण मानवी नहि ; किंतु सर्व जंजाळ दूर करीने हे मुनि, तुं समज के ए नक्की देवमायाज छे. [४६०] . ए रीते सर्व विपयोमा अमूछित थइने मुनिए आयुकाळना पारंगामी थर्बु [उपसंहार ए रीतेत्रणे मरणासं उत्कृष्ट तितिना सहनशीलता रहेली होचाधी स्वयोग्यतानुसारे गम ते मरण कल्याणकर्ता छ (४६१) . . . . . . . . . . . . . . . Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययल नवमुं. (१३५) उपधानशृतात्य नवम मध्ययनम् प्रथम उद्देशः] अहासुयं वदिस्सामि, जहा से सनणे भगवं उठाय; संखाय तंसि हेमंते, अहुणापव्वइए रीयत्था 191 ४६२) णोचेविमेण वत्येण, पिहिस्सामि तंसि हेमंते, से पारए आवकहाए, एयं खु अणुधम्मियं तस्स ।२। (४६३) १ ज्ञात्वा २ रीयतेस्म-विजहार इत्यर्थः ३ नचैवानेन ४ वस्त्रधरणं . .. .. अध्ययन नवसं. उपधानश्रु. पहेलो उद्देश. (महावीर स्वामिनो विहार ) . (हे जेवू, ) में जेम सांभळ्युं छे तेम कहुं छं के श्रमण भगवान [महावीरे दीक्षा लइने हेमंत रुतुमा तरतज विहार कर्यो. [४६२] . ... (तेमने इंद्रे एक देवदूध्य बन अपेखें हतुं पण) भगवाने नथी विचार्यु के ए दलने हुँ शियाळायां पहेरीश. ते भगवान तो जीवितपर्यंत परीपहोना सहनार हता. मात्र वधा तीर्थकशेला रिवाजने अनुसरीने तेमणे [ इंद्रे आपलं] वस्त्र धर्यु हतुं, [४६३] Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३६] आच,रांग-मूळ तथा भाषान्तर चत्तारी साहिए मासे, बढे पाणजाइया आगम्म; अभिरुज्झ कायं विहारिंसु, आरुहिया णं तत्थ हिंसिंसु ।३।। (४६४) संवच्छरं साहियं मास, जं ण रिकासि वत्थगं भगवं, अचेलए ततो चाई, तं वोसज्ज वत्थं-मणगारे ।४। (४६५) अदु पोरिसिं तिरियभित्ति, चक्खु-मासज्ज अंतसो झाति; अह चक्खुभीया सहिया ते', हंता हंता १०बहवे कंदिसु ५। (४६६) सयहिं वितिमिसेहिं, इत्थीओ तत्थ से परिन्नाय, १ आरुह्य २क्तयत्वान्. ३ अथ ४ पुरुषप्रमाणवीथिं ५ सावधानोभूत्वा ६ ध्यायति ७ दर्शनभीताः ८ संहिता मिलिताः ९ डिंभाः १० हत्वा हत्वा ११ शयनेषु-वसनिषु [ भगवानना शरीरे दीक्षा लेती वखते पुष्कळ सुगधि वासक्षेप वर्षेलो होवायी ] चार महिना लगी घणा भ्रमरादिक जंतुओ तेमना शरीरने वलगता इता अने मांस तथा लोही चूसता इता. [४६४] __ भगवाने लगभग तेर महिना लगी ते [इंद्रे दीधेलुं] वस्त्र स्कंधपर धर्यु हतुं. पछी ते वस्त्र छांडीने भगवान वस्त्ररहित अणगार थया ४६५]. भगवान सावधान थइ पुरुपप्रमाण मार्गने इयोसमितिथी शाधीने चालता हता. आ घखते माना पाळको तेमने देखी भयभ्रांत थइ एकठा मळी तेमने लाठमूठ वगेरेयी मारता मारता रडवा लागता. [४६६] __वळी भगवान, गृहस्थ अने तीर्थंकरोधी सेळभेळ थाली वस्तिमा रहेता त्यारे जो खिओ तेमने प्रार्थना करती तो ते भगवान ते स्त्रिओने शुभमार्गनी अर्गळाओर गणीने तेमनो परिहार करता थका मैथुन नहि सेवता. ए रीते तेओ १ लकडी-मुठी २ आगळिया रुप -विघ्न करनार. - - Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन नवमुं. ___ [१३७ सागारियं ण सेवइ, इति से सयं पवेसिया' झाति ।। (४६७) जे केइ इमे अगारत्था, मीसीभावं पहाय से झाति; पुट्ठोवि णाभिभासिंसु, गच्छति णाइवत्तती अंजू ।७। (४६८) णो सुगर-मेत-मेगेसिं, णा भिभासे अभिवायमाणे; हयपुचो तत्थ दंडेहिं, लूसियपुच्चो अपुन्नेहिं ।। (४६९) फरुसाइं दुत्तितिक्खाइं, अतिअच्च मुणी परक्कममाणे; आघयणगीताई, दंडजुझाइं मुट्टिजुज्झाइं ।९। (४७०) गढिए मिहोकहासु, समयंमि णायपुत्ते विसोगे अदक्खू; १ आत्मानं वैराग्यमार्गेप्रविश्य. २ हिसितपूर्वः ३ अतिगत्य पाते पोताना आत्माने वैराग्यमार्गमा लावीने धर्मध्यान ध्याता हता. [४६७] भगवान, गृहस्थो साथे हळवू मळवू टोडीने ध्याननिमग्न रहेता. गृहस्थो कई पूछता तो तेमना साथे ए वखते भगवान बोलता नहि पण पोतानुं हित संपादन करवा चाल्या जता हता. सरल स्वभावी भगवान ए रीते मोक्ष मार्गने अनुदचता हता. [४६८] भगवानने कोइ वखाणता तो तेना साथे पण कशुं बोलता नहि, तेमज जे पुण्यहीन अनार्यो तेमने दंडादिकथी मारता के वाळ खेचीने दुःख देता तेमना तरफ कोप करता नहि. [एवं प्रवर्तन खरे एवा महापुरुषो ज करी शके छे. प्राकृत जनोथी एम वर्तवु मुश्केल छे. ] [४६९] बळी भगवान, नहि खमी शकाय एवा कठोर परीपहोनी कशी दरकार नहि करता अने लोकोथी थवा नृत्य के गीतमां राग नहि धरता; तथा दंडयुद्ध के मुष्टियुद्धनी वातो सांभली उत्सुक नहि बनता. [४७०] कोइ वखते ज्ञातनंदन भगवान, स्त्रीओने परस्परनी कामकथामां तल्लीन थए-' . ली जोता तो त्यां रागद्वेषरहित मध्यस्थपणे रहेता. ए रीते एवा जवरजस्त संकटो पर कशुं पण लक्ष नहि आपतां ज्ञातपुत्र भगवान् संयममां प्रवा जता Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३८] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. एताइं सो उरालाई, गच्छति णायपुत्ते असरणाए ।१०। अवि साहिए दुवासे सीतोदं अभोच्चा णिक्खंते; एगत्तगए पिहियच्चे, से अहिनायदंसणे संते ।११। (४७२) पुढविं च आउक्कायं, तेउलायं च वाउकायं च. पणगाय बीयहरियाई, तसकायं च सव्वसो णच्चा ।१२। " एयाइं संति” पडिलेह, चित्तमंताई से अभिन्नाय; परिवज्जियाण विहरित्था, इति संखाए से महावीरे ।१३। (४७३) अदु थावरा तसत्ताए, तसजीवा य थावरत्ताए; अदुवा सव्वजोणीया सत्ता कम्मुणा काप्पिया पुढो बाला ॥१४॥ (४७४) भगवं च एव–मन्नेसी, सोवहिए हु लुप्पती बाले; हता. [४७१] भगवाने दीक्षा लीधा अगाउ लगभग वे वर्षथी थंडं पाणी पी छाडंयु हतुं. ए रीते तेओ वे वर्ष लगी अचित्त जळ पीता थका एकत्वभावना भावता कपायरुप अग्नि उपशमावीने शांत वन्या थका तथा सम्यकत्वभावथी भावित रहेता थका दक्षित थया. [४७०] भगवान, पृथ्वी, जळ, अग्नि, वायु, सेवाळ-वीज-लीलोतरीरुप, वनस्पति, तथा त्रसकाय ए ववाने " छता " अने “ समवि छ " एम गणीने तेना आरंभनो परीहार करी विचरता. [४७३] वळी स्थावर जीवो कर्मानुसारे भवांतरे त्रसरुपे पण ऊपजी शके छे अने बस जीवो स्थावररुपे पण ऊपजे छे. अथवा रागद्वेप सहित सर्व जीवो कर्मानुसारे सई योनिओमां ऊपजता रहे छे. [ एम संसारनी विचित्रता रहेली छे एवं भगवान् विचारता] [४७४] अने एम भगवान महावीरदेवे विचारीने जाण्यु के उपधिसहित । अज्ञानी १ उपवि-उपाधि-ते वे प्रकारनी छे द्रव्योपधि तथा भावोपधि. Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन नवk, [१३९ कम्मं च सव्यसो णचा, तं पडियाइक्खे पावगं भगवं 1१५॥ (४७५) दुविहं संमेच्च मेहावी, किरिय-मक्खाय मणेलिर्स णाणी; आयाणसोय-मतिवाय, सोय जोगं च सव्वसोणच्चा ।१६! (४७६) अतिवातियं अणाउर्टि', सय-सन्नर्सि अकरणयाए; जस्सि थिओ परिन्नाया सव्वकम्मवहाउ से अदक्खू १७॥ (४७७) अहाकडं न से सेवे, सव्वसो कम्मुणा बंधं अदक्खू; जंकिंचि पावगंभगवं, तं अकुव्वं वियर्ड भुजित्था; ॥१८॥ (४७८) १ अतिपातिक निर्दोषां २ अहिंसां “आश्रित्य.” इतिशेष:: ३ अद्राक्षीत. जीव कर्मोथी बंधाय छे. माटे सर्व रीते कर्मोने जाणीने ते कर्मो तथा तेना हेतु पापने भगवान त्याग करता हता. [४७५] ते ज्ञानवंत बुद्धिमान् भगवाने वे प्रकारना कर्मी तथा तेना आवव.ना मार्ग, हिंसाना मार्ग, तथा योग २ ए वधु जाणीने संयमनी अत्युत्तम क्रिया कहेली छे.. वळी ते भगवाने पवित्र अहिंसाने अनुसरीने पोताने तथा वीजाओने पापमा पडता अटकाव्या. अने ते भगवाने सीओने सर्व पापनी मूळ तरीके जाणीने त्या-' गी छे माटे खरेवर ते ज भगवान परमार्थदर्शी हता. [४७७] ते भगवान् , आधाकर्मादिक दूषित आहारथी सर्व रीते कर्म बंधाता देखीने तेवो आहार सेवता नहता. एम जे कइ पापना कारण छे ते. बंधाने छांडीने भगवा-- न शुद्ध आहार करता हता. ४७८ । १ इर्यापत्यय कर्म तथा सांपरायिक कर्म वर्तमान भावी कर्मो (Jacobi) Present and future Karmans. २ मन वचन कायरुप. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४० आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर णो सेवती य परवत्थं, परपाए२ वि से ण भुजित्था; परियज्जियाण ओमाणं, गच्छति संखडिंअसरणाए ।१९। (४७९) मायन्ने असणपाणस्स, णाणुगिद्धे रसेसु अपडिन्ने; अच्छिपि णो पमजिय, णोविय कंडूयये मुणी गायं ।२०। (४८०) अप्पं तिरियं पेहाए, अप्पं पिट्टओ व पेहाए; अप्पं वुइए पडिभाणी, पंथपेही चरे जयमाणे ।२१।(४८१) सिसिरांस अद्धपडिवन्ने, तं वोस्सज्ज वत्थ-मणगारे; पसारित्तु बाहू परकमे, णो अवलंबिया ण कंधंसि.२२॥ (९८२) १ प्रधान परकीयं वा यस्त्रं २ परपात्रेपि ३ भुंक्ते ४ अपमानं ५ पाकस्थामं ६ अल्पशब्दोत्राभाववाची. - वळी परायुं वस्त्र अंगे नहि धरता; पराया पात्रमा पण ते नहि जमता; अने अपपानने नहि गणतां अहीन भावे रसोइखानाओमा आहार याचवा जता हता. [४७९] वळी तेो नियमित अशनपान वापरता; रसमां आसक्त न थता; तथा रस माटे प्रतिज्ञा पण नदि बांधता; किंबहुना खरज मटाडवा माटे खरडता पण न हता. ४८०] भगवान विहार करता आडं के पूंठे अल्प जोता अर्थात् जोता नहि रस्तामां अल्प वोलता अर्थात वोलता नहि. किंतु मार्ग जोता थका यत्नवंत थइनल्या जाता हता. [४८१] ___ भगवान वीजे वर्षे ज्यारे अर्धी शिशिररुतु वेठी त्यारे ते [इंद्रदत्त] वखने छांटी दइने छूट बहुथी विहार कर्या जता. [अर्थात्] ताहना माटे वाहुने संकोचतां [नहि.] तथा स्कंध उपर पण वाहु धरता नहि. [४८२] Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन नवमुं. (१४१) एस विही अणुकतो, माहणेण मइमया; बहुसो अप्पडिन्नेण, भगवया एवं रियंति त्ति बेमि ।२३। [४८३] [द्वितीय उद्देशः चरियासणाई सेज्जाओ, एगतियाओ जामो भइयाओ; आइक्ख ताई सयणा, सणाइं जाइं सेवित्था से महावीरो 191 [४८४] १ अयंच श्लोक श्चिरंतनटीककारेण न व्याख्यातः सूत्रपुस्तकेषु तु दृश्यते। ए रीते मतिमान् महान निरीह भगवान वीर प्रभुए अनेक रीते एवी विधि पाळी छ. ए विधिमा वीजा मुनिओए पण कर्म खपाववा यत्न करतो. (४८३) बीजो उद्देश. (महावीर खामिनी वसति) वीर प्रभुए विहार करता जे जे स्थळे निवास कर्यो ते ते स्थळो आ प्रमाणे छे. (४८४) . Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {१४२] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. आवेखणी--समार-पवासु', पणियसालासु ४एगदा वासो; अदुवा पलियटाणेसु पलालजे.सु एगदावासो ।२। [४८५] आगंतारे आरामा गारे णगरे वि एगदा वासो; सुसाणे सुण्णगारे वा, रुक्खमूले वि एगदा वासो.।३। [१८६] एतेहिं मुणी सयणेहिं, समणे आसीं पतरस वासे; राई दियंपि जयमाणे, अप्पमत्ते समाहिए झाति ।। [४८७] णिदंपि णो पगामाए, सेवइ य भगवं उट्टाए, जग्गावती य अप्पाणं, इसिंसति । य अपडिने ||४८८) - १ शून्यं गृहं । कुडयाद्याकृति २ पानीयशाळा. ३ पण्यशालाषु हट्टेषु ४ अयस्कारकुड्यादिषु ५ मंचोपरिव्यवस्थितेषु तदध; ७ प्रकर्पण त्रयोदशं वर्ष यावत् ८ शेते। कोइ वरखते भगवान निर्जन झूपढाओमा; झुपडीओमां, पाणी पीवा माटे करेला परवामां के हाटामा रहेता तो कोइ वखते लुहार विगैरेनी कोडोमां अथवा घासनी गंजीओयाँ नीचे रहेता. [४८५] कोइ वखते परामां, वागमांना घरोमां के शहरमा रहेता तो कोइ वरवते मशाण, सुनां घर के झडनी तलेटीमा रहेतां. [४८६] ए रीते एवा स्थळोमा रहेतां थकां ते श्रमण मुनि प्रमाद परिहार करी समाधिमां लीन थइ बरोबर तेरमा वर्ष लगी पवित्र ध्यान ध्याता रह्या. (४८७) । दीक्षा लइने भगवान बांय पण वधु निद्रा लेता नहि.१ अने हमेशां पोताने जगावता रह्या. क्यांक जरा सूता तो पण त्यां निद्रा करवानी इच्छा नहि करता. [४८८ १ फक्त वार मां अस्थिकग्राम (वढचाण) पामे काउसग्मा रह्या इता ते वखते एक मुहुर्त मात्र निद्रा लीधी हती एम टीकाकार जणावे छे.. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन नवमु. संबुज्झमाणे पुणरवि, आसंसु भगवं उद्याए; णिक्खम्म एगया राउ, बहिं चंकमित्ता मुहुत्तागं ६। (४८९) सयहिं । तस्सुवसग्गा, नीचा आसी अणेगरूवा य, संसप्पगाय २ जे पाणा, अदुवा पक्खिणो उवचरंति ३ १७ (४९०) अदुवा कुचरा उवचरंति, गामरक्खाय सत्तिहत्था य; अदु गामिया उबसग्गा, इत्थी एगति या पुरिसो वा. १८ इहलाइयाई परलोइयाइं भीमाइं अणेगरुबाई; अवि सुब्भि-दुन्भिगंधाइं सद्दाई अणेगरुबाई ।९। अहियासए सया समिते, फासाइं बिरूवरूबाई; [४९२] ५ शयनेषु वसतिषु शयनै र्वा. २ अहिनकुलादयः ३ मांसादिकं भक्षयंति - तेओ निद्राने कर्म बांधनारी जाणता थका जागता रहेता. कदाच निद्रा आववा मांडती तो तेओ शीआळानी रात ताढमां बाहेर जइ मुहुर्त लगी ध्यान लीन थइ निद्रा टाळता. [४८९] उपर जणाबला स्थलोमा रहेतां भगवानने भयंकर अनेक प्रकारना उपसर्ग : (दुःख) थया. सर्प विगैरे जंतुओ तथा गीध विगैरे पंखिओ आवी भगवानने करडता हता. [४९०] ___जार पुरुषो शून्य घरमा कुकर्म करवा जतां भगवानने देखी उपसर्ग करता गामना रखेवालो शक्ति विगेरे हथीआरो हाथमां धरी भगवानने उपसर्ग करता. पळी विषयवांछनाथी भगवानने लोको उपसर्ग करता ; जेम के भगवानने एकला देखी तेमना रुपथी मोहित थइ व्याकूल बनेली स्त्रीभो विषय भोग माटे तेमने प्रा. ईना करती, तथा पुरुषो पण सतावता हता. [४९१] ए रीते भगवाने मनुष्य तथा तिर्यचो तरफथी अनेक प्रकारनी भयंकर सुगधि तथा दुर्गधि वस्तुओना तथा अनेक जातना शब्दाना, वीहामणा उपसर्ग हमेशा समितिथी वर्त्ततां थकां सहन कर्या. ४९०] Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४४] आचाराग-मूळ तथा भाषान्तर. अरतिं रति अभिभूय, रीयति माहणे अबहुवाई।१०। [४९३] स जणेहिं तत्थ पुच्छिसु, एगचरा वि एगदा राओ; अव्वाइते कसाइत्था, पेहमाणे समाहिं अपडिन्ने १११ (४९४) अय-मंतरंसि को एत्थ, अह-मसि-त्ति भिक्खू आहट्ट, अय-मुत्तमे से धम्मे, तुसिणीए सकसाइए झाति ।१२। जसि-प्पेगे पवेयंति', सिसिरे मारुए पवायंते । तसि-प्पेगे अणगारा, हिमवाए णिवाय५ मेसंति. १३॥ संघाडिओ पविसिस्सामी, एधा य समादहमाणा, पिहिता वा सक्खामो, अतिदुक्खं हिमगसंफासा ॥१४॥ तांस भगवं अपडिने, अधा वियडे अहियासए दविए.७ १ पृष्ट एकचरा उपपत्यादयः पप्रच्छु रितिशेषः ३ अव्यकृते ४ प्रवेपते यहा प्रवेदयंत्यनुभवति ५ निवातंवातरहितस्थानं. ६ वस्त्राणि ७ संयमी वळी भगवान हर्ष शोक टाळीने बहु थोडं बोलता थका विचरता रहेता. (निर्जन स्थळमां भगवानने उभेला जोइ) लोको पूछता अथवा रात्रिने वखते जार पुरुषो तेमने पूछता के अरे तुं कोण उभो छ ? आ वखते भगवान कशुं नहि वोलता; तेथी तेओ चीडवाइ दखते भगवानने मारवान पण करता. पण भगवान तो निरीह वन्या थका समाधियां तल्लीन वन्या रहेता. [४९४] ___ " अरे अहीं कोण उभो छे" एवं लोकोए पूछतां, कोइ वखते भगवान वोलता के “ हुं भिक्षुक उभो छ." ते सांभळी जो तेओ बोलता के " अहीथी जलदी जता रहे " तो भगवान अन्यत्र जता. कारण के ए उत्तम आचार छे. अने जो तेओ जवानुं कशुं नहि कहेतां कपायवंत वनता तो भगवान मौन रही त्यां ज [जे थवातुं हशे ते थशे एम विचारी] ध्यान करता. (४९५) ज्यारे शिशिर रुतुमां चंडो पवन जोसधी फुकातो हतो, ज्यारे लोको थरथर Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन नवमुं. [१४५] णिक्खम्म एगदा राओ, चाएति भगवं समियाए. ॥१५॥ एस विही अणुकंतो माहणेण मईमया; बहुसो अप्पडिण्णेण, भगवया एवं रियंति-ति बेमि।१६। (४९७) [तृतीय उद्देशः] तणफासे सीयफासे, तेउफासे य दंसमसगेय; १ शक्नोति धूजता हता, ज्यारे अपर साधुओ तेवी थंडीमा निर्वात [ वायरा विनानी ] जग्या शोधता हता, तथा वस्त्रो पहेरवाने चहाता हता, ज्यारे तापसो लाकडा वाळीने शीतनुं निवारण करता हता, एम ज्यारे शीत सहन कर, घणुं दुःखबरेलुं हतुं, तेवे समये संयमी भगवान (वीर प्रभु) निरीह बनी खुल्ला स्थानमा रही शीतसहन करता रहेता. कदाच अत्यंत शीत पडतां ते सहन करवं विकट पडतुं त्यारे रात्रिए (मुहूर्त मात्र) वाहेर हरी फरीने साम्यपणे रहेता थका पाछा अंदर वेशी; ते शीत सहेता रहेता. [४९६] ए रीते मतिमान् निरीह भगवाने वारंवार एवी विधि पालन करी छे तेम वीजा मुनिओए पण वर्त्तव. [४९७] त्रीजो उद्देशः (वीर प्रभुए केवा परीषह सह्यां.). . . (महावीरदेव) सदा समितिवंत वनीने कर्कश स्पर्श, ताह, ताप, तथा दंश Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४६ ] आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर. -अहियासए सया समिए, फासाई विरूवरूवाई |१| [ ४९८ ] अह दुच्चर–लाढवारी, वज्जभूमिं च सुब्भभूमिं च; पंतं सेज्जं सेविंसु, आसणगाई चैव पंताई |२| [ ४९९ [ लाढेसु तस्सु-वसग्गा, बहवे' जाणवया लूसिंसु; अह लूहदेसिए भत्ते, कुक्कुरा तत्थ हिंसिंसु णिवर्तिसु | ३| (५००) अप्पे जणे णिवारेइ, लूसणए सुणए डसमाणे; छुछुकारंति आहंतुं, “समणं कुक्कुरा डसंतु " |४| [५०१ ] एलिक्खए जणो भुज्जो, बहवे वज्जभूमि फरुसासी; १ उपसर्गाणां विशेषणं २ ईदृक्षः अने मशकना डंखो विगेरे भयंकर परीषहो सहन करता. [ ४९८ ] चळी भगवान दुर्गम्य लाटदेशना वज्रभूमि तथा शुभ्रभूमि नामना वने भागोमां जइ विचर्या हता. त्यां तेमने रहेवाने घणी हलकी वसतिओ मळती. तेमज पीठफळकादि आसन पण घणां हलकां मळता. [ ४९९ ] ore देशमां ते भगवानने घणा उपसंर्गो थया. त्यांना लोको तेमने मारता भोजन पण लखुं मळतुं; तथा कूतराओ आवी वीरप्रभुना ऊपर पडता ने करडता. [५०० ] आ वखते वहु थोडा ज लोक ते कृतराओने करडतां निवारता.१ नदि तो; घणा लोको तो उलटा भगवानने मारता थका तेमने करडवा माटे कूतराओने छुछुकारीने तेमना तरफ मोकलावता. [५०१] आवा लोकमां भगवान घणीवार विचर्या. त्यांनी वज्रभूमिना घणाखरा लोक लुखु खाता तेथी तेओ वधारे क्रोधवाळा होवाथी साबुने देखी कूतराओवढे तेने एटलो धो उपद्रव करता के त्यां (बौद्धधमीं) भिक्षुको त्याना भोमिया छर्ता १ अटकावता. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन नवमुं. [१४७) लट्ठि गहाय णालीयं, समणे ' तत्थएव विहरिंसु | ५ | एवंपि तत्थ विहरंता, पुपुव्वा अहेसि सुणएहिं; संलुंचमाणा सुणएहिं, दुच्चरगाणि तत्थ लाढेहिं २ | ६ | णिधाय दंडं पाणेहिं, तं कायं वोसज्ज मणगारे; अह गामकंट भगवं, ते हियासए अभिसमेन्चा |७| [५०२] णागो" संगामसीसे वा, पारए तत्थ से महावीरे; ( ५०३) एपि तत्थ लाढेहिं, अलपुव्वोवि एगदा गामे 1८1 उवसंकमंत-मपडिन्नं, गामंतियंपि अप्पत्तं; पडिणिक्खभित्तु लूसिंसु, " एतातो परं पलेहि" त्ति. ९/ [५०४ ] १ शाक्यादयः २ लाटेषु ३ रूक्षालापान् ४ हस्ती ५ पर्येहि पण एक मोटी लाकडी के नाल हाथमा पकडीने विचरता, सेम छतां पण कूतरा - ओ तेमनी पूठ पकडता तथा करडी खाता. ए रीते लाटदेश विहार करवाने घणो विकट हतो. त्यां वीरप्रभुए आरंभ त्याग करीने शरीरने पण वोसरावीने निर्जराने अर्थे नीच जनोनां कडवां वाक्यो सहन कर्यो. [५०२] एते जेम वळवान हस्ती संग्रामना मोखरे पोहोंची जय मेळवी पराक्रम बतावे तेम वीरप्रभु ए विकट उपसर्गोना पारंगामी थया. [५०३]. ' चळी एक वखते जंगलमां चालतां चालतां सांज लगी तेमने कोइ गाम पण प्राप्त थयुं नहातुं. अने कोइ स्थळे वळी तेओ गामना पादर जता के त्यांना अनार्य लोको सामा आवी तेमने मारता अने वालता के " अहिंथी दूर जतो रहे " [५०४] Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५० ] आचाराग- मूळ तथा भाषान्तर. सिसिरंमि एगदा भगवं, छायाए झाइ आसीया | ३ | आयावई य गिम्हाणं, अत्थति उक्कुडुए अभिताघे; [ ५१२] अदु जावई -त्थ लूहेणं, ओयण - मंधु - कुम्मासेणं |१| एताणि तिनि पडिसेवे, अगमासे य जावए भगर्व (५१३) अवि इत्थ एगया भगवं, अद्धमासं अदुवा मासंप |५| अवि साहिए दुवे मासे, छप्पि मासे अदुवा विहरित्था'; रायोवरायं अपडिने, अन्नगिलाय ४ मेगया भुंजे |६| छण एगया भुंजे, अदुवा अट्टमेणं दस मेणं, दुवालसमेण एगया भुंजे, पेहमाणे समाहिं अपनेि ॥७६ (५१४) णच्चाण से महावीरे, णोचिय पावगं सय मकासी, अनेहिं वा ण कारित्था, कीरंतंपि णाणुजाणित्था । ८ । (५१५) १ यापयति २ जलमपीत्या इति शेषः ३ रात्रोपरात्रं ४ पर्युषित्तान्नं भगवान शीआळाni afयामां वेशी ध्यान करता, अने ऊनाळामां उत्कुटुक आसने सडकामां घेशी ताप सहन करता. [ ५१२ ] शरीर - निर्वाहार्थे तेओ लुखा भात, मंथु अने अडदोनो आहार करता. एम आठ महिना लगण ए त्रण चीजोज भगवाने वापरी. [५१३] वळी पनर पनर दिवस लगी महिना महिना लगी तथा वे वे महिना ने छ छ महिना लगी भगवान पाणी नहि वापरतां दिनरात निरीह थइ विचरता. वळी अन्न पण ग्लान एटले उरीगएलो वापरता ने तेपण त्रजे त्रीजे, चोथे चोथे, तथा पांच पांच दहाडे वापरता. [५१४] ताजीने महावीर देव पोते पाप नहि करता, वीजापासे नहि करावता, तथा करनारने रुडुं नहि मानता. [५१५] १ ठळियासहित बोरनो भुको Pounded Jujube [Jacobi] Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन नवमुं. ____[१५१] गामं पविस्स णगरं वा, घास-मेसे कडं परट्राए; सुविसुद्ध मेसिया भगवं, आयतजोगयाए सेवित्था. १९॥ (५१६) अदु वायसा दिगिंच्छित्ता, जे अन्ने रसेसिणो सत्ता; घासेसणाए चिदंते, सययं णिवतिए य पहाए ।१०। (५१७) अदु माहणं व समणं वा, गामपिंडोलगं च अनिहिं वा; सोघागं मूसियारं वा, कुक्कुरं वा विदितं पुरतो ॥११॥ वित्तिच्छेदं वज्जतो, तेसि-मप्पत्तियं परिहरंतो; मंदं परिक्कमे भगवं, अहिंसमाणो घास-मेसित्था ॥१२॥ (५१८) . अवि सूइयं वा सुक्कं वा, सीयपिंडं पुराणकुम्मासं; अदु बक्कसं पुलागं वा, लद्धे पिंडे अलहुए दविए ।१३। (५१९) भगवान शहेर के गाममा जइ बीजामे माटे करेलो आहार मागता, अने ए, रीते पवित्र आहार लइने सावधानपणे ते आहार वापरता. [५१६] मिक्षा लेवा जतां भगवानने रस्तामां भूख्या कागडा विगेरे पक्षीओ जमीनपर रहीने हमेशा पोतानो आहार लेतां जो नजरे पडता तो, भगवान तैमने कशी पण अडचण न पाडता थका चाल्या जता. [५१७] तथा त्यां कोइ ब्राह्मण, श्रमण, भिखारी, विदेशी, चांडाळ, मार्जार के कूतराने कई मळतुं देखी तेमने विघ्न न पाडता थका तथा मनमां कशी अप्रीति नहि धरता थका धीमे धीमे चाल्या जता (किंबहुना, भगवान कुंथु विगैरेनी पण हिंसा नहि करता थका भिक्षाटन करता.) [५१८] वळी आहार पण भांजेलो, के सूकेलो, ठरी गएलो के बहु दिवसपरनो राधेलो अडदनो अथवा जुनाधान्यनो के जवविगरे मीरस धान्यना जवो मळी आवे ताते शांतभावे वापरता, अगर नहि मळतो तोपण शांतभावे रहेता.६.९] १ कथा Page #178 --------------------------------------------------------------------------  Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - द्वितीयः श्रुतस्कंधः (प्रथम चुडा) पिंडैषणानामकं दशम मध्ययनम्, M (प्रथमा मद्देशः) से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा, गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए। १ पिंडपातप्रतिज्ञया. श्रुतस्कंध बीजो. ( पहेली चूळिका ) अध्ययन दशमुं. पिंडपणा. पहेलो उद्देश. [ मुनिए कयो आहार लेवो अने कयो नहि लेवो.] जो कोइ भिक्षु अथवा भिक्षुणी आहार लेवा माटे गृहस्थना धेरै जाय अने Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५८] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. पुण ओसहीओ जाणेज्जा अकसिणाओ असासियाओ विदलकडाओ तिरिच्छच्छिण्णाओ अयोच्छिण्णाओ तरुणियं वा छिवाडि अभिकंतभज्जियं पेहाए, फासुयं एसणिज्जति मण्णमाणे लाभे संते पडिग्गाहेजा (५२६) - से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव पवितु समाणसे ज्ज पुण जा. णेज्जा पिहुयंवा २,बहुरयं वा, भुज्जियं वा, मंथु वा, चाउलं वा, चाउलपलंबं वा, सई ३ भज्जियं अफासुयं अणेसणिज्ज भण्णमाणे लाभे संते णो पडिग्गाहेज्जा, (५२७) से भिक्खू बा भिक्खुणी वा, जाव पविढे समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा पिहुयं वा, जाब चाउलपलंबं वा, असई भज्जियं दुक्खुत्तो वा भज्जियं तिक्खुत्तो वा भज्जियं फासुयं एसणिज्ज जाव लाभे संते पडिगगाहेजा (५२८) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावतिकुलं जाव पविसित्तुकामे णो अन्नउस्थिएण वा, गारथिएण वा, परिहारिओ वा, अपरिहारिएण सद्धि, गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसेज्ज वा, णिक्खमेज १ भरणेसति २ पृथुकं. ३ सकृत् ४ परिहारिकः साधुः वस्तुओ लइने कपरवी.१ (५२६) भिक्षु अथवा भिक्षुणीए एकज वार पौवा, ममरा, पोक. घहुंनो भूको, चोखा, कणक विगैरे अनाजुक अने अयोग्य जाणीने ग्रहण करवां नहि. (५२७) जो ए वा विगेरे देवार के वणवार शेकेला होय तो ते प्रासुक अने योग्य जाणी ग्रहण करवा. [५२८] (गृहस्थना घेर प्रवेश करवानी विधि ) भिक्षु अथवा भिक्षुणीए आशर लेवा माटे गृहस्थना घर तरफ जतां अन्यतीर्थको साये अथवा ब्राह्मणो साथै अथवा पासत्याविगेरे साथे तेना घरमा पेसवू १ प्रयोजन होय वो. Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ अध्ययन दसमुं. [१५९] वा, [५२९] से भिक्खू वा, भिक्खुणी बा, बहिया वियारभूमि वा, विहार भूमिरे वा, णिक्खममाणे वा पविसमाणे वा णो अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा, परिहारिओ वा अपरिहारिएण सहि बहिया विचारभूमि वा, विहारभूमि वा, णिक्खमेज वा पविसेज्ज वा [५३०] ___ से भिक्खूवा [२] गामाणुगामं दूइज्जमाणे णो अण्णउत्थिएण वा, गारथिएण वा, परिहारिओ अपरिहारिएण वा सद्धि, गामाणुगामं दुइज्जेज्जा (५३१) ' से भिक्खूवा [२] जाव पविठू समाणे से णो अण्णउत्थिअस्स वा, गारत्थियस्स वा, परिहारिओ अपरिहारिअस्स वा; असणं वा [४] देज्जा वा अणुपदेज्जा वा [५३२] से भिक्खू वा [२] जाव पविद्वे समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा अ. १ संज्ञाव्युत्सर्गभूमि. २ खाध्यायभूमि. ३ अनुप्रदापयेत् परेण. के नीकल्धुं नहिं. (५२९) एज मुजब दिशाए तथा स्वाध्यायस्थळमां पण अन्यतार्थिक, के पासत्थाओ साथे आवq के जंबु नहिं. [५३०] वळी ग्रामानुग्राम विचरतां पण अन्यतीर्थिक गृहस्थ अने पासत्थाओ साथे विचरखं नहिं. [६३१] ___ तथा ए त्रणेने मुनिए आहार देवो के देवराववो नहि. (५३२) - गृहस्थे जे आहार निग्रंथ साधुनी सारु एटले के अमुक साधर्मिक साधुने उद्देशीने छकायनी हिंसा करी तैयार कर्यों होय, वेचातो लीधो होय, उधारे लीयो होय कोइना पासेयी झूटावी लीधा होय के मालेकनी रजा वगर लइ राख्या हेय तेवो आहार ते गृहस्थ कोइ पण मुनि के आर्याने आपवा मांडे तो, तेमणे जाणतो छतां ते आहार ग्रहण नहि करवो. अगर जो के ते आहार ते गृहस्थे पोते कों होय अथवा वीजाए कयों होय, घरथी बाहेर काढयो शेय अथवा न काढयो Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६०] आचाराग-मूळ तथा भाषान्तर. सणं वा (४) अस्संपडियाए । साहम्मियं समुद्दिस्स, पाणाइं भूताई जीवाइं सत्ताई समारज, समुदिरस कायं पामिचं २ अच्छेनं ३ अणिसट्र अभिहडं आहट्ठ वेतंति, तहप्पगारं असणं वा (४) पुरिसंतरकडं अपरिसंतरकडं वा, बहिया णीहडं वा, अनीहडं वा, अत्तट्टियं वा, अणत्तट्ठिय वा, परिभुत्तं वा, अपरिभुत्तं वा, आसेवियं वा, अणासोवयं वा, अफासुयं जाव णो पडिग्गाहेज्जा (५३३ एवं बहवे साहम्मिया, एगा साहम्मिणी, बहवे साहम्मिणीओ, समुदिरस चत्तारि आलायगा भाणियव्वा (५३४) से भिक्खू वा [२] गाहावइकुलं जाव पविढे समाणे से ज्ज पुण जाणेज्जा असणं वा (४) बहवे समण माहण-आतिथि किवण-वणीमए पगणिय पगणिय समुद्दिस्स, पाणाइं जाव सत्ताइं समारब आसोबियं वा अफासुयं अणेसणिज्जंति मण्णमाणे लाभे संते जाव णो पडिग्गाहेज्जा १ अस्वप्रतिज्ञया,-निग्रंथप्रतिज्ञया. २ उच्छिन्नकं. ३ आच्छेचं ४ पूर्वपश्चिमतीर्थकरमुननिा मयं कल्पः ५ शाक्यादयः श्रमणाः ६ वनीपकाः बंदिप्रायाः होय, ते गृहस्थे ते आहार पोतानो करी राख्यो हाय अगर न होय, तेणे वापरेलो होय तोपण ते अप्रासुक अने अनेपणीय जाणीने मुनिए के आर्याए ग्रहण न करवो. (५३३) ए रीते घणा साधार्मक साधुना माटे करेलो आहार तथा एक के घणी साध्वीओ माटे करेलो आहार पण कोइ साधु के साध्वीए ग्रहण करवो नहि... जे भोजन, गृहस्थ घणा पण मुकरर संख्यामांना श्रमण, ब्राह्मण, पाहणा, दीन, के चारणभाटना माटे करेलुं होय ते वापरलं छतां के अणापरेलु छतां अप्रामुक अने अनेपणीय गणी मुनिए नहि व्हाग्. (५३५) १ पेहेला तथा छल्ला तीर्थकरना साधुआ माटेज आ नियम छे. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ t अध्ययन दल , से मिक्खू का (२) गाहालक्कुल जान पविढे सम्ाणे से जं पुण जाणेजा अलणं वा (४) बहवे सा माहगा--आतिधि किवण-वणीनए सदिस्त पाणाई (४) जाब आहट्ट बेतेति, तं तहप्पगार अपर्ण वा () अपरिसंतरकडं जबहियाणीहडं अगत्तष्ट्रिय अपरिभुतं अणासेवितं अफासुयं अणेसपिज्ज जाद णो पडिग्गाहेज्जा (५३६) ___अह पुण एवं जाणेज्जा पुरिसंतकडं पहियानीहडं भत्ततिर परिभुत्वं आसेवियं फारसुयं एसणिज्ज जाव पडिग्गाहेज्जा (५३७) ' से सिक्ख वा (२) गाहावाकुलं पिंडवायएडियाए पदिसिन्तुक वा से जाई पुण कुलाई आणेजा, ईमसु खलु कुलेसु णितिए पिंडे दिजिति नितिए अरगपिंडे दिज्जति, णितिए भाए दिज्जति णितिर अबइमाए दिग्जति, तहमगाराई कुलाई णिशियाई णितियाणाई, जो मचाए पाणाए दा पनिसेज वा णिकरतोज्ज दा (५३८) जे भोजन, अहस्ये एमाण, आम, शाहुप्पा, दीन, के भावारणमा भाटे एस्टुं झेप पर ते रोयो पोरेज वा होय, घी बाहेद पणा नहि लान्यु होरह জ্বল চুল লাল হবে ? ও হজত্ব ছ ন ই সমস্তু ঐ অনपीय मणीने युनिट नहि . [८३६] पण या भोजन सइये बीजाना हा राज्यु होय, घर बाहेर रालयु होस ने पोते पोताला पर्नु महदि से बापरेल पण होय तो ले मालक अने पर SAणीने ग्रहण का दाद देवा साहाय अथमा आलमको मतदा . कुळोवां हमेशा दान देवातुं होय अथवा जमवी ऐका मारमा दाम মান্ত অতি কাজী দাঙ্গা থানা ছাত্ব অধ, আস্ত মানলা দিবা? के स्तुशि वालमा अपरनो झए अने ले च्या घणा सच मालवा की असा हो नेपा कुलोमा पुरिए माहार पानी माद नमा, १५३८] Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६२] आचाराग- मूळ तथा भाषान्तर. एयं खलु तस्स भिक्खुरस वा भिक्खुणीए वा सोमग्गियं जं - सबहिं समिते सहिते सयाजए-त्ति बेभि [ ५३९ ] -23: द्वितीय उद्देश : ) A से भिक्खू वा [२] गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए, अणुपवि समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा (१) अद्भुमिपोसहिएस बा, अनुमासिएस वा, दोमासिएस वा, तेमासिएस वा, या उम्मासिएस वा, पंच मासिएस वा, छम्मा सिसुवा उऊस वा, उउसंधीसु वा, उउपरिय सु वा बहवे समण-माहण-अतिहि क्विण-वणीमगे एगातो उक्खातो' परिएसिज्जमाणे पेहाए, दोहिं उक्खाहिं परिएसिज्जमाणे पेहाए, तिहिं उक्खाहिं परिए सज्जमाणे पेहाए, चउहिं उक्खाहिं परिएसिज्जमाणे पेहाए, कुंभी१ उत्सवेषु २ पिठरकात्. साधु के साध्वीनं एज कर्त्तव्य छे के हमेशां सर्व पदार्थोंमां समभाव राखी ज्ञानदर्शन अने चारित्र साच्यतां थकां सदा उद्योगी थ वर्त्तनुं . [५३९ ] बीजो उद्देश. [ मुनिए अशुद्ध आहार न लेवो तथा जमणवारमां न ज ] गृहस्थना घरे ज्यारे अष्टमीना उपवासना उत्सवप्रसंगे अथवा अर्द्धमासिक, मासिके, द्विमासिक, चतुर्मासिक, छमासिक, उत्सवना वखते अथवा रुतुभोना अंत्यादने के आद्यदिवसे घणाएक [शाक्यादि] श्रमण, ब्राह्मण, परोणा, दीन, अने भाचरणाने एक के अनेक वासणोमांथी भोजन धीरसानुं देखवामां आवे " Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन दसमुं. [१६३ ] हातो वा कालोवातितो वा संणिहिसंणिचयाओ वा परिए सिज्जमाणे पेहाए तहप्पारं असणं वा [४] अपुरिसंतरंकडं जावं अणासेवितं अफायं अणेसणिज्जं णो पडिग्गाहेज्जा ( ५४० ) अह पुण एवं जाणेज्जा पुरिसंतरकडं जाव आसेवितं फाय जाव पडिग्गाहेज्जा (५४१) ર 1 से भिक्खूवा [२] जाब, पविट्टे समाणे से जाईं पुण कुलाई, जाणेज्जा, तंजहा, उग्ग कुलाणिवा, मोगकुंलाणि वा, राइण्णकुलाणि वा, खचियकुलाणिवा, इक्खागकुलाणि वा, हरिवंसकुलाणि वा, एसि - यकुलाणि ४ वा, बेसियकुलाणि वा, गंडागकुलाणि " का, कोहागकुलाणि चा, गामरक्खकुलाणि चा, वोक्कसालियकुलाणि ७ वा, अण्णयरेषु वा तहपगारे कुलेस अदुगंच्छिएस अगरहितेसु वा, असणं वा (४) फासूयं एसणिज्जं जाव पडिग्गाहेज्ज़ा (५४२ ) ૫ 4 १ आरक्षककुलानि २ राज्ञः पूज्यस्थानीयानी ३ राष्ट्रकूटादीनि ४ गोपालकुलानि. ५ नापितकुलानि ६ वर्द्धकिकुलानि ७ तंतुवायकुलानि . अने हजु गृहस्थे ते भोजन जाते कर्याछतां वापर्यु न होय तो मुनिए ते भोजन अप्रामुक अने अनेषणीय जाणी न लेवं . [ ५४० ] अने जो ते कोइ वीजा पुरुषे रांधी तैयार कर्य होय अने गृहस्थो वापर्यु होय तो ते मुनिए योग्य जाणी ग्रहण कर. [ ५४१] सुनिए, उग्रकुळ, १ भोगकुळ, राजन्यकुळ, क्षत्रियकुळ, इक्ष्वाकुकुळ, हरिवंशकुळ, एष्यकुळ, २ वैश्यकुळ, गंडुककुळ, कोट्टागकुळ, ४ ग्रामरक्षककुळ अने चोकशाळीयकुळ, तथा एवीज जातना वीजा पण अतिरस्कृत अने अनिंदित, कुळोमां निर्दोष आहार लेवा जं. [५४२ ] ૫ F १ उग्रथी हरिवंशलगीना छकुळो रजपूतवर्गना छे. अने एप्यथी वोकशाळी लगीना छ कुलो वैश्यवर्गना छे. २ गोवाळ. ६ उद्घोसणा करनार ४ सुतार ५ साळवी Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ জানি- কঙ্কা গান্ধব, . . . से मिणखू वा [२] गाहावइ कुल पिंडवायपडियार अणुविद्वे समाणे से जं पुणं जाणेज्जा असणं वा (8) सपवाए बा, पिंडणियरेसु शा, इंधमहेछ वा, खंदमहेछ बा, सहमहेछ बा, सुगुदरहेछ बा, भूतम्हे वा, जक्कमहेछ बा, जागमहल वा, शुभमहे का, देहयामहेच का, रुकमहेश्च वा, गिरिमहेषु वा. दरिनहेछु वा, अगडमहेस का, तडागमहेस का, सहमहेन्तु बा, दिनहेस वा, सरमहल का, सागरमहल वा, आगरमहेछु चा, अण्णतरेसका तरूपगार दिलवरूनेस महामहेतु बद्दमागोह बहवे समण-आहण अतिहि किवण-वणीमए एगातो उक्रवातो परिसिज्जा जो पहाए, होहिं, जाब संणिहिसंणिचयातो वा परिएलिजमाणे पहाए तहः सारं असणं वा [४] अपुरिसंतरकडं जाद को पडिग्गाहेजा (५४३) ।। अह पुष एवं जाणेज्जा, विष्णं जं तेसिं दायध्वं, अह तत्य झुं. जमाणे पेहाए गाहाबतिभारियं बा, गाहावतिभागणि घा, गाहालतिपुत्वं वा, गाहाशतिपूयं बा, सुहं श, धाति श, दास बा, दासिं दा, सम्मकर प्यारे गृहस्थना घरे मेलो भयो होय अथवा पिहोजन होय असदा इंद्र, S, , पळदेव, भूत, यक्ष, के सानो महोत्रूप होय अदवा स्तूप के चैत्यलो अहोल्लर होय अबका क्ष, गिरि, बूषा, तलाव, दह, नदि, स्लर, सागर के भाग से अपना एना जेपी गमे ते वाहतको पहोल्लक होर अरे देशी धमाएक - यादि] श्रम, प्रामण, अतिथि, हीन तथा भाटमारणो एक के अनेक शालयोची भोजन दलातु होप सने से भोजन मालेले शारे करेलु छत्ता हसु से मुहल्धोए वापरेलु न दोष को सेश साहारने शुरु गरे सुनीर द्वे माहार रो . [५४२] पन जो त्यो सुनिने एस जणाय के अपने ए भोजन आपवानुरुद्धं ते सने अपायु अरे हवे गृहस्थ लोको तेने पार तो अनि सुस्पनी बीने दया क्षेत्रने अथवा पुरयुधी के पुरवधूने या पाई, दास, के दालने पह Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन दस . __ (१६५) दा, कसकार बा ले पुब्बामेव आलोएज्जा, आउसोहि क्षा, मागि जोतिबा, दाहिसि मे हत्तो अनय भोयणजायं? 7 सेवं वदंतक परो असणं वा, [४] आहट्ट दलएज्जा, तहप्पगार असणं वा () सच्चे वाणं जाएज्जा, परो वा से देज्जा, फासुयं जाद पडिजाहेजा (९४४), से भिक्खू वा. [२] पर अजोयणलेराए संस्था माझा संसाडपडियार यो अभिसंधारेजा गमणाए (५४५) से भिक्खू वा [२] पाईणं संखदि जचा पडीणं गच्छे अणाला. थनाणे, पडीणं संखडिं णचा पाईणं गच्छे अणाढायमाणे साहिणं संपादि गचा उदीणं गच्छे अणाढायमाणे, उदीणं संव िणचा बाहिणं गच्छे अमादायमाणे (५५४६) ___जत्थेव सा संखडी सिया, तंजहा गामसि का, पाहि वा, खेड सायी जोइने कहy के हैं आयुष्यमान भयका बन्द, बन्दे मा योजना अन्तर ঈল জামা, আমি শুইনা স্থান বা অলাষ্টি আছা জাৎ ঃ সুট सुनिए निर्दोष जाणी से आहार लेदो. (५४४) बीजा अामोमा संखडि जमणवार होय सो एये घडले शुनिर हे माजनी इदया एण संखडिमाथी भोजन लेवा बाटे न भई. [५४५] जो पूर्व दिशामां संवाडि होय तो मुनिए सदाडि तरफ कशी लालच में राखता पश्चिवदिशा तरफ जता रहे. जो पश्चिमबाजु संखहि होय वो पूर्वतरफ पळवू. जो दक्षिण बाजु सखहि होय तो उत्तर तरफ बळवं. अने.को उचरयांशु संदस्वडि होय तो दक्षिणतरफ वळवू. [५४६] विदहुना, ज्या ज्या भाममां, सारमा खेडामा, बाहामा कलामां, शहरमां, आगोमा, वंदरम, व्यापारस्थळयां, तीर्थस्थळयो, राज्यपानीमा के नगरोस्थळमा लापमा संसाडि होर तो संबहिने मनमा धारीने त्यांना लाई Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६६] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. सी वा, कव्वडंसि वा, मडंबंसि वा, पदणसि वा, आगरंसि वा, दोणमुहंसि वा, निगमांस वा, आसमंसि बा, रायहाणिसि वा, संणिवेसंसि वार संखडिं संखडिपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए । केवली चूया 'आयाण-मेयं " (५४७) संखडि संस्खडिपडियाए अभिसंधारेमाणे आहाकाम्मयं वा, उद्देसियं बा, मीसजायं वा, कीयगडं वा, पामिच्चं था, अच्छेज्जं वा, अणिसढुं वा, अभिहडं वा, आहट्ट दिन्जमाणं भुजेजा. अस्संजए भिक्खुपीडयाए खुड्डियदुवरियाओ महल्लियाओ कुन्जा, महल्लियदुवारियाओ खुड्डियाओ कुज्जा, समाओ सिज्जाओ बिसमाओ कुज्जा, विसमाओ सिज्जाओ समाओ कुज्जा, पवायाओ सिज्जाओ णिवायाओ कुज्जा, णिवायाओ सिज्जाओ पव्वाथाओ कुज्जा, अंतोवा बहिंवा उवसयस्स, हरियाणि छिदिव [२] दालिय [२] संथारगं संथारुज्जा, एस विलंगयामो सिज्जाए” तम्हा से संजए णियंठे अण्णयरं वा तहप्पगारं पुरसंखडिं या पच्छसंखडिं वा संखडिपडियाए णो अभिसंधारेज्ज १ इतिविचित्य कारण के कवळी भगवाने कहां छे के "संखडिमां जवाथी कर्म वधाय छे" [५४७] जो मुनि संखडिमांधी भोजन लेवा माटे संखडि तरफ जशे तो आधाकमिकादिदोप-युक्त दुष्ट आहारमा फसाइ पडशे. वळी असंयति ग्रहस्थो तेना सारु नाना दरवाजावाली जग्याओने मोहोटा दरवाजावाली करशे अथवा मोटा दरवाजावाली जग्याओने नाना दरवाजावाली करशे, सीधी जग्याओने आडी करशे, आडीओने सीधी करशे, बहु पवनवाळी जग्याओने निर्वातजग्याओ करशे, निर्वातंजग्याओने बहु पवनवाळी करशे, वळी अंदर के वहार वनस्पतिओ कापी तोडी मकान मुधरावशे अथवा साधुने अकिंचन धारी तेना माटे सूवातुं विछानुं पथरावशे. (एम अनेक दोप संभवे छे.) माटे निग्रंथ संयति मुनिए अनेक प्रकारे. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन दशमुं. गमणाए (५४८) ___ एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणाए वा सामग्गिय, जं सव्वट्ठू हिं समिते सहिते सयाजये-त्ति बेमि (५४९) (तृतीय उद्देश :) से एगया अण्णतरं संखडिं आसित्ता पिवित्ता छड्डेज्ज था वमेज्ज वा, सुत्त वा से जो सम्मं परिणमज्जा, अण्णतरे वासेदुक्ख रोयातके समुप्पज्जेज्जा, केवलीबूया ' आयाण मेयं.” (५५०) मनुष्यनी हयातीमां अने मनुष्यना मरण पछी कराती संखडिओमां भाजन लेचा माटे नहि जवू. [५४८] मुनिनुं एज कर्त्तव्य छे के हमेशां सर्व पदार्थोमां समता राखी पवित्र गुणो साचवतां थकां यत्नवंत थइ वर्त्त [५४९] त्रीजो उद्देश. (मुनिने जमणवारमा जवाथी थता गैरफायदा) जो मुनि संखडिभोजन करश तो कोइ वखते तेने तेनार्थी चमन के विशचिकाना दुःखमा ऊतर पडशे. अथवा तो खाधेलुं अन्न रुही रीते न पचतां कुष्टं के शूळादिक रोग उत्पन्न थशे. माटे केवळी भगवान जणावे छे के संखढिभोजन कर्मवंधनो हेतु छे. [५५०] . Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ আ ল -মূত যখ? গাফ, इह रहलु मिक्खू गाहावतीहिं वा, गाहाननिणीहि । वा, परिवायएहि का, एरिवाइयाहिं वा, एगब्भ सहि साडं पाउ भो बतिमिस्स हुरत्था वा उपस्तवं एडिलेहसाणे यो लज्जा , तमेव उवस्मयं समिस्सिमावभावजेज्जा अण्णम वा खे मते विपरियासिवस्ते इथिनिग्गहे वा किलीवे वा तं मिल्डं उक्सकमि बूया “आउसंतो सम्मरणा, अहे आरामसिधा अहे उपलयंति का राओ का, चियाले वा, गामधम्मणियंतियं कद्द रहास्तियमेहुणधरमपरियारगाए आउट्टामो." तं वेगतितो स्पतिज्जेज्जा। अकरनिज चेयं सखाए। एते.आयतमा संति सचिजमाणा पछावाया भवति लम्हा से संजए मियठे तहगार परेसवार्ड वा पच्छा संखडि वा खनादि 5 पापीत्वेत्यर्थ : २ पहिः ३ संखडिगगनं न कुर्यादितिशषः पळी ए सहा समोर पकया यह हस्यो, गृहम्धनी लीओ, परिमाका, सथा परिमाविका थिइने तो मुनि त्यो जइ एकठो भेळायाथी कदाच -- दिरापान पर फली एले १ अने तेथी ते मदिरामत्त बनी पोताना मुकामे न. हि पोहोसता त्पाल ललई दे छे. तथा त्या निसाना आवेशथी बेहोश थई वीजामा आसक्त भाय है. अश्या त्या रहेली हीओ के नपुंसकायार्नु कोइ एक मुनिपर आसक थइ कदा मांडे के के " हे आयुष्यन् श्रमण, आ बगीचामां अपवा उपाभरमा राते अथा अमुक वरदते जाणे एकता पब्बी भोगविलासी वसं. " म कही तेओ सुतिले विषयोधी ललचाची कबजे करे छे. अनेदेमां कदाच एकले सुन्नि फसाइ पण पडे छ, माटे ए बातले अकरणीय जाणीने मुनिए संखडिमां नहि ज{. कारण के त्यां जवाथी उपर जब तथा ते करता पण दरखते वधता धेरफायदा या संभर छे, गटेनिस संपतिपयूद संखदि के पात्रताडि भाजनाथै सदानो इरादो माह करतो. [६५१] करके लोलुप अनेम सर्द का समन्द. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन दशम. [१६९] संपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए. (५५१) से भिक्खू वा (२) अन्नतरं संखडिं बा साच्चा णिसम्म संपहावेति उस्सुयसूतण अप्पाणणं “धुवा संखडी 7 णो संचाएति तत्थ इयरेतरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं पडिगाहेत्ता आहार: आहारेत्तए । माइटाणं संफासे । णो एवं करेज्जा। से तत्थ कालेणं अणुपरिसित्ता तत्थेतरेतरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वसिय पिंडवायं पडिगा सा आहरं आहारेज्जा (९५२) - से भिक्खू वा (२) से जं पुण जाणेज्जा गाम व जाव रायहाणिं, वा, इसप्ति खलु गामसि वा जाव रायहार्गिसि वा संखडी सिया, तंपिय गान वा शयहाणि वा संखपिडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए । केवली बूया आयाण-मेयं (५५३) आइण्णोवमाणं संखडिं अणुपविरसमाणस्स पाएण वा पाए अकं१ इतिकृत्वेति शेषः जो कोइ मुनि पूर्वसंखडि के पश्चात्संखडि थती सामळी त्यां उत्सुकता धरी चाल्यो जशे तो त्या जूदा जूदा कुळोमांथी आधाकर्मादिदोषरहित पवित्र आहार ग्रहण करीने वापरी रुकवाना नथी, किंतु त्यां दूपित आहार वापरीने दोषपात्र थवानो. माटे मुनिए संखडिमां नहि जवू. किंतु भिक्षाना समये जूदा जूदा कुलोमा जइने पवित्र आहार मेळवी ते बापरवो. [६५२] जे गाम के राजधानीमां संखडि थवानी होय त्यां तेना माटे मुनिए जवानो इरादो न करवो. केमके केवळज्ञानियो योल्या छे के तेम करतां कर्मवंध थाय छे. [५५३] जे संरडिमां घणा लोक एकठा मळ्या होय अने भोजन थोडं रंधायलु होय त्यां जो मुनि जाय तो त्यां भीडभीडामां तेना पग धीजाओना पगत. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७० आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. तपुब्वे भवति, हत्थेण वा हत्थे संचालियपुव्ये भवति, पाएण' वा पाए आवडियपुव्वे भवति, सीसेण वा सीसे संघट्टियपुव्वे भवति, काएण वा काए संस्खोभियपुवे भवति, दंडेण वा अट्टिणा वा मुट्टिणा वा लेलुणा वाकवालेण वा अभिहयपुबे भवति, सीतोदएण वा उसत्तपुवे भवति, रयसा वा परिघासिय पुब्वे भवति, अणेसणिज्जेण वा परिभुत्तपुच्वे भवति, अण्णेसिं वा, दिजमाणे पडिगाहितपुब्वे भवति, तम्हा से संजए णिग्गंथे तहप्पगारं आइण्णोमाण संखार्ड संखडिपडियाए णो अभिसंधारेजा गमणाए (५५४) · से भिक्खू वा [२] गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविते समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा (४) एसणिज्जं सिया अणेसणिज्जं सिया वितिगिच्छसमावण्णणं अप्पाणेणं असमाहडाए लेस्साए तहत्पगारं असणं वा (४) लाभे संते णो पडिग्गाहेज्जा. (५५५) १ पात्रेण. दवाशे, हाथ घीजाना हायो साथै अथडाशे, पात्र यांजाओना पात्रो साये अफळाशे, माथु वाजाना माथा साथे अडकाये अने शरीर बीजाना शरीर साथे घसाशे. वळी त्यां तेवी भीडमां लाकडी, हाडका, मूठ, पत्थर के स्वप्परनो मार पण कदाच सहेवा पडशे. अगर कोई मुनिना शरीरपर ताडं पाणी फेंकशे, अथवा धूळ फेंका अथवा मुनिने त्यां अशुद्ध आहार मळशे, अथवा वीजाने मळवा छतां वचगाळेयी मुनि ते आहार झुटावी लशे. [ए रीले अनेक दोष संभवे छे] माटे निधय मुनिए तेनी जातनी संखडिमां भोजन मेळ्यवाना इरादाधी कदापि नहि ज. [५५४] गृहस्यना घरे भिक्षा लेवा जतां मुनिने जे.आहार निर्दोष के सढोप छता शक भरेलो जणाय तो ते आहार तेवा मलिनाशयी ग्रहण न करवो. [५५५] Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन दसमुं. . (१७१) से भिक्खू वा [२] गाहावतिकलं पविसिज्कामे सव्वं भंडगमायाय गाहावतिकुलं पिंडवायपडियाए पविसेज्ज वा णिक्खमेज वा से भिक्खू वा [२] बहिया विहारभूमि वा विचारभूमि वा णिक्खम्ममाणे पविसमाणे सव्वं भंडग मायाए बहिया विहारभूमि वा विचारभमि वा णिक्खमेज्ज वा पविसेज्ज वा (५५७) से भिक्खू वा [२] गामाणुगामं दूइज्जमाणे सव्वं भंडग-मायाए गामाणुगामं दुइजेज्जा (५५८) से भिक्खू वा [२] अहपुण एवं जाणेज्जा तिव्वदेसियं वासं वासमाणं पेहाए, तिव्वदेसियं महियं सण्णिवयमाणि पेहाए महावारण वा -- रयं समुडुयं पेहाए, तिरिच्छसंपातिमा वा तसा पाणा संघडा सन्निवयमा णा पहाए, से एवं णचा णो सव्वं भंडग मायाय गाहावइकुलं पिंडवाय पडियाए पविसेज्ज वा णिक्खनेज वा, बहिया बिहारभूमि वा वियारभूमि वा पविसेज वा णिक्खमेज्ज वा. गामाणुगामं दूइज्जेज वा [५५९] मुनिए गृहस्थना घरे मिला लेवा जतां सर्व धर्मोपकरण साथे लइने त्यां जवू आव. [५५३] तेमज स्वाध्यायभूभिपर अथवा दिशाए जतां पण तेवीम रीते जई आवळ, [५५७] अने ग्रामानुग्राम विहार करतां पण तेज रीते वर्त. ५५८] पण जो परसाद बहु वरसतो होय अयवा दव बहु पडतुं हेय अथवा आकरा वायुधी धूळ बहु उडती होय अथवा झीणा जीवजनुंओ घणा ऊडनां होय तो त्या सर्व धर्मोपकरण साये लइने भिक्षा लेबा के भणवा दिशाए या ग्रामांतरे जवा आववातुं करवं नहि. [५५९] १ आ सूत्र जिनकल्पिक विगेरे माटे छे. एम टीकाकार जणावे छ. इहां, समाचारी ए छे के जिनकाल्पके तो तेवे टांकणे चालढुंज नहि. पण स्थविरकल्पिक कारण योगे जाय आवे तो साये सर्वोपकरण नहि लेवा. Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७२] आचाराग-मूळ तथा भाषान्तर. - से भिक्खू वा [२] से ज्जाइं पुण कुलाई जाणेज्जा; तंजहा, खत्तियाण वा, राईण वा, कुराईण वा, रायपेसियाण वा, रायवंसष्टियाण वा, अंतो बहिवासंणिविद्राण वा,गच्छंताण वा णिमंतेमाणाण वा, अणिमतेमाणाण वा, असणं वा (४) लाभे संते णो पडिगाहेज्जासित्ति बेमि [५६०] चतुर्थ उद्देश. से भिक्खू वा [२] जाव पविठे समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा मंसाइयं वा, मच्छाइयं वा, मंसखलं वा, मच्छखलं वा, आहेणं वा, पहेणं वा, हिंगोलं वा, संमेलं वा, हीरमाणं संपेहाए, अंतरा से मग्गा बहुपाणा बहुबीया बहुहरिया बहुओसा बहुउदया बहुउत्तिंगपणग-दग महिय-मकडासंताणगा, बहवे तत्थ समण-माहण-अतिहि-किवण• वणीमगा उवागता उवागमिस्संति, तत्थाइण्णा वित्ती, णो पण्णस्स मुनिए चक्रवर्ति प्रमुख क्षत्रियो, राजाओ, ठाकोरो, सरदारो, के राजवंगी लोको, जेओ शहरमां के शहेर बाहेर रहेता होय या रस्ते प्रयाण करता होय तमने त्यांची निमंत्रण छतां या नहि छतां आहार ग्रहण न करवो. [५६०] चोथो उद्देश. [मुनिए जमणवारयां न जवू.] मुनिए गृहस्थना घरे भिक्षार्थे जतां तेने त्यां एवं जणाय के अहिं मांस, मत्स्य के मद्यवालुं विवाहभोजन, मृतकभाजन, या प्रीतिभोजन छे, अने तेने त्यां कोइ लइ जतुं होय, तोपण जो मार्गयां वीज, वनस्पति, टार, पाणी, के झीणा जीवजंतु घणा होय अश्या त्यां घणाएक [बुद्धधमी] श्रमणो, ब्राह्मणो, वटेमागुओ, , 1 स्कार्मिको, क भाटचारणो, आवेला के आयवाना होय अन तेथी त्यां बहु भीड भवानी होय जेयी चतुर पनिने त्यां जg वळवू मुलभिग्लें थइ पडे अने १ गृहस्यवां तमाम बाळानो समावेश थायछे. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' अध्ययन दसमुं. णिक्खमणपवेसाए, वायणयुच्छणपरियहणाणुपेहाए धम्माणुओगचिंताए, सेवं णच्चा तहप्पगारं पुरेसंखडिं वा पच्छासंखडिं वा संखडिपडियाए णो अभिसंधारज्जा गमणाए (५६१) से भिक्खू वा (२) गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविठे समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा, मंसाइयं जाव संमेलं वा हरिमाणं पेहाए अंतरा से मग्गा अप्पंडा जाव अप्पसंताणगा, जो जत्थ बहबे समणमाहणा जाव उवागमिस्संति, अप्पाइण्णा वित्ती, पण्णस्स णिक्खमणपक्साए पण्णस्सा वायण-युच्छण-परियणाणुपेहाए धम्माणुओगचिंताए, सेवं णच्चा तहप्पगारं पुरेसंखडि वा पच्छासंखडि वा संखडिपडियाए अभिसंधारेज्ज गमणाए (५६२) से भिक्खू वा (२) गाहावइकुलं जाव परिसित्तुकामे से ज ण जाणेज्जा खीरािणियाओ गावीओ खीरिज्जमाणीओ पेहाए असणं वा (४) उवसंखडिज्जमाणं पेहाए पुरा अप्पजूहिए, सेवं णचा णो गाहावइकुलं पठनपाठन के धर्मोपदेश अटकी पडवाना जणाय तो तेवा स्थळे ते मुनिए जवानो इरादो नहि करवो. [५६१] पण जो तेवा मांस मत्स्य, के मप्रधान, विवाहभोजन, मृतकभोजन, या प्रीतिभोजनमा मुनिने कोइ तेडी जतुं होय अने मुनिने मार्गमां कशी वनस्पति, जळ, के जीवनतुं नहि जणाय तेमज त्यां श्रमण-वह्मणादिकनी,बहु भीड पण नहि होथ नेथी मुनिने त्यां जg आवयुं मुलभ होय अने पठनपाठनादिक पण थइ शके तो तेवा स्थळे [कारणयोगे] मुनिए भिक्षार्थे जवू पण खरं. [५६२] ____ गृहस्थना घरे सुनिए जतां त्यां ए वखते गायो दोवाती होय अथवा भोजन रंधातुं होय अथवा तैयार थइ रघु छतां हजू वीजा याचकोने अपायुं नहि १ मुनि रस्ते चाली थाक्यो होय या मांदगीथी उठ्यो होय या दुर्भिक्ष होय विगैरे कारणयोगे मांसादिक त्याग करवा समर्थ मुनिए त्यां जवू एम टीकाकारे जणाव्युंछे, Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराग-मूळ तया भाषान्तर, पिंडवाय पडियाए णिक्खमेज वा पविसेज्ज वा । से त्तमायाए एगत मवक्कमज्जा, अणावाय-मरुलोए चिद्वेज्जा । अहपुण एवं जाणेज्जा, खीरिणीओ गावीओ खीरियाओ पेहाए, असणं वा [४] उवक्खडियं पेहाए, पुरापजहिते, से एवं णचा ततो संजयामेव गाहावतिकुलं पिंडवायपडियाए पविसेज वा निक्खमेज्ज वा (५६३) भिक्खागा णामेगे एव माहंसु समाणे वा वसमाणे वा, गामाणुगाम दूइज्जमाणे, "खुड्डाए खलु अयं गामे संणिरुद्धाए णो महालए, से हंता-भयंतारो बाहिरगाणि गामाणि भिक्खायरियाए वयह " (५६४) । संति तत्थेगतियस्स भिक्खुस्स पुरेसंथुया वा पच्छासंथुया वा परिवसति, तंजहा, गाहावती वा, गाहावतिणीओ बा, गाहावतिपुत्ता वा, गाहावतिधूयाओ वा, गाहावतिसुण्हाओ वा, धाईओ वा, दासी वा, दासीओ वा, कम्मकरा वा, कम्मकरीओ वा, तहप्पगाराइं कुलाई पुरेसंथुनहि होय तो मुनिए ते घरमा प्रवेश न करवो. किंतु पाछा वळीने कोइ नहि देखी शके तेवा स्थळे जइ ऊभा रहे. अने ज्यारे जणाय के गायो दोवाइ रही छे या भोजन तैयार थइ रह्य छे अने वोजा याचकोने अपाइ चूक्युं छे त्यारे यतनापूर्वक ते गृहस्थना घरे जइने आहार लइ वळवू. [५३३] वृद्धपणाथी स्थिरवास करनारा के मासकल्पथी फरनारा मुनिओ नवा आवता मुनिओने एम कहे के “हे पूज्य मुनिओ, आ गाम घणुं नानक९ छे अने अहीं [सूतकादिकथी घणां घरो रोकायेलां छे. माटे आप वीजा गामे भिक्षामाटे पधारो." तो मुनिए तेम सांभळी ग्रायांतरे चाल्या नहुँ. [५६४] कोइ गाममा मुनिना पूर्वपरिचित तथा पश्चात्परिचितर सगावहाला र. हेता होय, जेवाके;-गृहस्यो, गृहस्थ वानुओ, गृहस्थपुत्रो, गृहस्थपुत्रीओ, गृहस्थ पुत्रवधुओ, दाइओ, दास, दासीओ, अने चाकरो, के चाकरडाओ; तेवा गाममा जतां जो ते मुनि एवो विचार करे के हुँ एकवार वधाथी पहेलां मारा सगाओगां भिक्षार्थे जइश, अने त्यां मने अन्न, पान, दूध, दहि, माखण, घी, गोळ, तेल, १ स्वपक्षना २ सीपक्षना श्वशुरादिक. Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन दशमुं. [१७] याणि वा पच्छासंथुयाणि या पुवामेव भिक्खायारयाए अणुपविसिस्सामि, अवेय इत्थ लभिस्सामि पिंडं वा, लोयं वा, खीरं वा, दधिं वा, नवणीयं वा, वयं वा, गुलं वा, तेल्लं वा, महुं वा, मज्जं वा, मंसंवा, संकुलिं वा, फाणियं वा, पयं वा, सिहरिणिं वा, तं पुवामेव भुच्चा पेच्चा, पडिग्गहं संलिहिय सपमज्जिय, ततो पच्छा भिक्खूहिं सद्धिं गाहावतिकुलं पिंडवायपडियाए पविसिस्सामि निक्खमिस्सामि वा । माइटाणं फासे । णो एवं करेज्जा । से तत्थ भिक्खूहिं सद्धिं कालेण अणुपविसित्ता तत्थियरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं पडिगाहेत्ता आहारं आहारेज्जा। (५६५) एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं । (५६६) [पंचस उद्देशः] से भिक्खू वा [२] जाव पविदेसमाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा, अ मधु, मद्यमांस? तिलपापडी, गोळवाडं पाणी, खुदी, के श्रीखंड मळशे ते हुं सर्वथी पहेलां खाइ पात्रो साफ करी पछी वीजा मुनिओ साथे गृहस्थना घरे भिक्षा लेवा जइश, तो ते मुनि दोषपात्र थाय छै माटे मुनिए एम नहि करवं, किंतु वीजा मुनिओ साथे वखतसर जूदा जूदा कुलोमा भिक्षानिमित्ते जइ करी भागमा मळेलो, निर्दूषण आहार लइ वापरवो. [५६५] एज भिक्षु के भिक्षुणांनी पूर्ण आचार छे. [५३३] पांचमो उद्देश. मुनिए कयो आहार लेवो अने कयो नहि लेवे.. गृहस्थने त्यां रंधार तैयार थएला आहारमांयी शरुआतमां याडंएक १ पखते कोइ अतिप्रमादि गृद्ध, होवायी मद्यमांस पण खावा चाहे माटे ते लीधा एम टीकाकार लखेछे. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७६] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. ग्गपिंडं उक्खिप्पमाणं पेहाए, अग्गपिंडं णिक्विपमाणं पहाए, अग्गपिंडं हीरमाणं हाए, अग्गपिंडं परिभाइज्जमाणं पेहाए, अग्गपिंडं परिभुज्जमाणं पेहाए, अग्गपिंडं परिवेजमाणं पेहाए, पुरा असिणाति वा, अवहाराति वा पुरा' जत्थन्ने समण-माहण-अतिहि-किवण वणीमगा खर्चा खट्टुं १ उवसंकमंति, से हंता अहमवि खलु उबसंकमामि, माइट्टाणं संफासे णो एवं करेज्जा । (५६७) . से भिक्खू वा (२) जाव समाणे अंतरा से वप्पाणि वा, फलिहाणि २ वा, पागाराणि वा, तोरणाणि वा, अग्गलाणि वा, अग्गलपासगाणि वा सति परक्कमे संजयामेव परक्कमेजा, णो उज्जुयं गच्छेज्जा । केवली बूया आयाण-मेयं. " । (५६८) से तत्थ परकमेमाणे पयलेज वा पवडेज्ज वा। से तत्थ पयलेमाणे वा पवडेमाणे वातत्स्थ से काये उच्चारेण वा, पासवणेण वा खेलेण वा, सिंघाणेण वा, वंतेण वा, पितण वा, पूएण वा, सुक्केण वा सोगिएण वा, उ, १ त्वरित त्वरितं २ परिखाः देवताने चडाववामाटे कहाडेला अग्रापंडनामे आहारने, काहाडती वेळा, नाखती वेळा, लइ जता वेळा, वेहेंचती वेळा, खाती वेळा, के देवालयनी चामेर उछाळती वेळा घणाएक श्रमण-ब्राह्मणादिक भिक्षुओ पूर्वे घणी वखते ते आहार खाधेला अने मेळवेलो होवाथी फरी तेनामाटे त्यां जतारळा ऊतावळा दोडया जाय छे. तेमने देखीने मुनि विचारे के हुँ पण त्यां जाऊं तो ते दोपपात्र थायछे. माटे मुनिए तेम न करवू. (५६७) मुनिए गृहस्थने त्यां भिक्षा लेवा जतां वचगाले गढ, खाइ, कोट, तोरण, के आगळीओ आडी आवे तो ते रस्ते नजितां वीज रस्ते सुनिए त्यां जबुं. कारणके ते रस्ते जतां केवळज्ञानिओ जाखम भरेखें गणेछे. [५६८] जे माटे ते र ते चालतां कदाच मुनि त्यां लथडी जाय के पडी पण जाय अने तेम थता तेनुं शरीर, विष्टा मुत्र, श्लेष्म, थूक, वमन, पित्त, परु, वीर्य, के लोहीथी खराव पण थाय [हवे कदाच बीजो मार्ग न होवाधी मुनिए तेज रस्ते जतां] Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन दसमुं. [१७७] पलिते सिया। तहप्पगारं कायं णो अणंतरहियाए पुढवीए, णो ससाणद्वाए पुढवीए, णो ससरक्खाएर पुढवीए, णो चित्तमंताए सिलाए, णो चित्तमंताए लेलूर, कोलावासंसि वा दारुए, जीवपतिट्रिए सअंडे सपाणे जाव ससंताणए, णो आमज्जेज्ज वा, णो पमज्जेज्ज वा–संलिहेज्ज वा, णिल्लिहेज्ज वा,-उव्वलेज्ज वा,-उचट्टेज्ज वा,-आयावेज वा,-पयावें ज्ज वा । से पव्वामेव अप्पससरक्खं तणं वा, पत्तं वा, कटं वा, सक्कर वा जाएज्जा । जाइत्ता से त्त मायाए एगंत-मवकमज्जा (२) अहे झामथंडिलंसि वा जाव अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि पडिलेहिय (२) पलज्जिय (२) ततो संजयामेव आमज्जेज्ज वा जाव पयावेज्ज वा। से भिक्खू वा (२) जाव पविष्टे समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा, गोणं वियालं५ पडिपहे पेहाए, महिसं वियालं पडिपहे पेहाए, एवं मणुस्सं आसं हत्थि सहिं वग्वं दीवियं अच्छं तरच्छं परसरं सियालं विरालं सु १ अनंतर्हितया. २ सरजस्कया. ३ घुणाकोणे ४ अथ दग्धस्थं डिले. ५ व्यालं दुष्टं. तेनुं शरीर ऊपर जणावेली रीते अशुचिथी खराव थाय तो तेणे तरतनी सूकैली के चीकणी के कचरावाळी माटीथी अथवा सचित्त पत्थराथी या अणिाजीवजंतुथीं भरेला लाकडा विगेरेथी शरीरने घसबुं के साफ कर के सूकवई नहि. किंतु तेवा वखते तरतज गृहस्थपासेथी निर्जीव घास पान के काष्ट अथवा रेती मागी लाववी. अने ते लइने एकांत स्थळमां जरने त्यां निर्जीव जमीनने जोइ प्रमाजी यवनापूर्वक ते तृणादिकवडे शरीरने साफ कर. [५६९] मुनिने भिक्षा लेवा जतां मार्गमां विक्राळ वळत, पाडो, मतुप्य, अश्य, हाथी सिंह, बाघ, दीपडो, रीछ, तरश, शरभ, अष्टापद], सीआळ, बिलाडो, कूतरो चाराहिसूअर, लोकडो, के कोइपण जातवें जंगली जानवर ऊसुं रहेठे जणाय Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७८ ] आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर. यं कोलसुणयं कोकंतियं' चित्ताचेहरयं वियालं पडिपहे पेहाए, सति परमे संजयामेव परकमेज्जा, णो उज्जुयं गच्छेज्जा । [ ५७० ] से भिक्खू या (२) जाब तमाणे अंतरा से ओवाओ वा, खाणू वा, कंटए वा, घसीउ वा, भिलगा' वा विसमे वा विज्जले" वा परियाबज्जेज्जा, सात परक्कमे संजयामेव णो उज्जयं गच्छेज्जा । [ ५७१ ] से भिक्खू वा (२) गाहावतिकुलरस दुवारसाहं कंटकचदियाए पडिपिहियं पेहाए तेसिं पुव्वामेव उग्गहं अणणुन्नविय अपडिलेहिय अपमज्जिय नो अवगुणेज्ज' वा, पविसेज्ज वा णिक्खमेज्ज वा । तेर्सि पुव्यामेव उग्गहं अणुन्नविय पडिलेहिय पमज्जिय ततो संजयामेव अवगुणेज्ज वा, पविसेज्ज वा, णिक्खमेज्ज वा । [ ५७२ ] से भिक्खू वा (२) जाव समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा समणं था, माहणं वा, गाम पिंडोलगं वा, अतिथिंवा, पुव्वपविट्टं पेहाए णो तेसिं १ लोभटकं २ आरण्यजीवविशेषं ३ स्थला दुघस्ता दवतरणं १ स्फुटितकृष्णभूराजिः ५ कदर्भः ६ उद्घाटयेत् अने बीजो रस्तो होय तो ते भयभरेला सीधे रस्ते न जतां वीजे रस्तेथी नतुं . [ ५७० ] एज प्रमाणे मार्गमां खाडा होय, खीला होय, कांटा होय, वॉकराना घरा [नळियां] होय, फोटेली जमीन होय, टीबाटेकरा होय, के कीचड होय, तो मार्ग तर छतां ते मार्गे न ज. [५७१] सुनिए गृहस्थना घरनो दरवाजो कांटानी डाळथी ढांकेलो देखी गृहस्थनी रजा लीधा शिवाय तथा जोया प्रमार्ज्या शिवाय ऊघाडवो नहि तेमज तेना अंदर पेस पण नहि. किंतु (जो जरूरी काम होय तो ) गृहस्थना रजा लइ पुंजी प्रमाजी यत्ना पूर्वक उघाडो अने अंदर ज. [ ५७२ ] सुनिए गोचरीर जतां गृहस्था घरे कोड़ पण श्रमण, ब्राह्मण, भीखारी, , Ly Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन दशमुं.... - - १७९] संलोए सपडिदुवारे विद्वेज्जा, । केवळी बूया “आयाण-मेवं" [५७३] __ . पुरा पेहाए तस्सदाए परो असणं वा [४] आहट्ट दलज्ज अह भिक्खूणं पव्वाबादिवा एस पतिना, एस हेऊ. एस. उवएसो, जेणे तेसिसलोए सपडिदुवारे चिज्जा से त्त-मायाए। एगंत-मवकमज्जा (२) अणावाय-मसलोए चिटेजा । (५७४) से परो अणावाय-मसंलोए चिट्ठमाणस्स असणं वा आहट दलएज्जा, से य वदेज्जा “ आऊसंतो समगा, इमे भो असणे दा (४) सव्वजणाए निसिद्धे, तं भुजह च णं, परिभाएह च पं.” तं चेगतिओ पडिगाहेत्ता तुसिणीओ ओहेज्जा, “ अवियाइ एयं मममेव सिया " एवं माइट्टाणं संफासे । णो एवं करेज्जा । से च-मायाए तत्थ गच्छे-जा (२) से पुव्वा मेव आलोएजा “आउसंतो सपणा, इमे भो, असणं वा (४) सव्वजणाए णिसिते तं भुजह चणं, परिभाएह च णं" से वं वदंतं परो वएज्जा, “आउसंतो समणा, तुमं देव णं परिभाएहि " से तत्थ परिभाएमाणे णो अपणो खलु खरे डायं (२) ऊसडं (२) रसियं २ मणुनं . १ तं पूर्वप्रविष्ठ आदाय ज्ञावा. २ प्रचुरं प्रचुरं. ३. शाकं. ४ उत्सृतं वर्णादिगुणोपेतं - - के परदेसीने पोताथी पहेलो ऐठेलले जोइ त्मना देखता गृहस्थना दरवाजे जमा रहे नहि. केमके तेन उमा रहेता क्षेवळी भगवाने बहु दोष जणान्या छे. [५७३] जे माटे ते सुन्नेि दमाजे उभो रहेलो जोइ गृहस्थ तेना मटे आहारादिफ बनावीने आयदान करे छे. माटे सुनिना सारु उपर जणाज्या मुजब भावी प्रतिज्ञा आयो हेतु अने भावो उपदेश जरुरनो छे के तेणे गृहस्थने त्या पूर्व पेठेला नाचकोना देखता दरबाजे नहि उमा रहे. किंतु कोइ नहि देखी सके तेवा - स्थळे जइ उभा रेहे. [५७४] Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८०] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. [२] णिटुं (२) लुक्खं [२] से तत्थं अमुच्छित अगिद्धे अगढिए अणझोवज्ण्णे बहुसममेव परिभाएन्जा । (५७५) से णं परिमाएमाणं परो वदेजा "आउसंतो समणा. माणं तमं परिभाएहि, सव्वे वेगतिया भोक्खामो वा पहामो' वा” से तत्थर भुंजमाणे णो अप्पणो खट्वं (२) जाव लुक्खं- (२) से तत्थ अमुच्छिए (१) बहुसममेव भुंजेज्ज वा पीएज्ज वा। (५७६) १ पश्यामो वा २ परतीर्थिकैः साई न भोक्तव्यं स्वयूथ्यैश्च पार्श्वस्थादिभिः ह जानाना मयं विधि: एवे स्थळे उभा रेहेता छतां मुनिने ते गृहस्थ त्यां आती अशनादिक आहार आपे अने कहके " हे आयुप्मन् साधुओ, आ आहार में तमो सर्व जणने आप्यो छे. माटे तमे वधा जण भेगा मळी खाओ अथवा बेहेंची ल्यो." तेम छतां ते मुनि आहार मळ्यावाद गुपचुप रही एम विचार करे के "आ तो मनेज मात्र पूरतो छ" तो ते दोपपात्र थाय छे. माटे एवो वितर्क कदापि न करखो. किंतु ते आहार लइ वीजा श्रमणादिको पासे जर्नु अने शरुआतमांज जणाबू के "आयुप्मन् श्रमणो, आ आहार आप सर्व जणने एकठो मळ्यो छे. याटे भेगा खाओ अथवा वेहेंची ल्यो." आम मुनिए कदेतां मुनिने कोइ कहे के " हे आयुप्मन् श्रमण, तुंग वधाने हेंची आप." त्यारे मुनिए ते वेहेंची आपतां पोता तरफ झाजो झाजो, या स्वादिष्ट या उत्तम उत्तम या रसिक रसिक या मनोहर मनोहर घृतवाने घृतवाळो या चोखो चोखो नहि नाखवो. किंतु त्यां मुनिए सर्व लोल,पिपणुं त्यान, करी शांतपणे ते बरोबर सरसीरीते ज वेहेंची आपवो. [५७५] । अगर वेहेचती वेळा कोइ सुनिने कहे के “हे आयुष्यन् श्रमणं तुं हेच मा. आपण वधा एकठा मळी खाशुपीां." त्य.रे मुनिए तेमना। साथे जमतां पण कशुं वयतुं वधनुं के सारं सारं पोते नहि खातां सरखी रीते शांतपणे जमवू [५७६] १ (परतीर्थिओ साये नहि जमg पण स्वयूधिक पासत्यादिक साथे जमवाने आ विधि छ, एम टीकाकार जणावे छे.) Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन दसमुं. [१८१] __ से भिक्खू वा (२) जाव समाणे से जं पुण जाणेज्जा समणं वा, माहणं वा, गामपिंडालगं वा, अतिहिं वा, पुवपत्रिष्टुं पेहाए णो ते उवातिकम्म पविसेज्ज वा ओभासेज्ज' वा। से य त-मायाए एगंत-मव. कमज्जा अणावाय-मसले ए चिट्रेज्जा। अह पुण एवं जाणेज्जा, पडिसेहिए व दिन्ने वा, ततो तसि णियाट्टते संजयामेव पविसेज्जवाओभासेज्ज वा। (५७७) एवं खलु तस्स भिक्खस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं । (५७८) [षष्ठ उद्दे] से भिक्ख वा (२) जाव समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा, रससिणो बहवे पाणे घासेसणाए संघडे संणिवतिए पेहाए, तंजहा; कुक्कुड १ अवभाषेत वा. मुनिए गृहस्थना घरे भिक्षार्थे जतां त्यां पोताथी अगाऊ पेठेला श्रमण, ब्राह्मण, भीखारी के अतिथिने ऊभा रहेला जोइने तेमनुं उल्लंघन करी कदापि अंदर पेशबु के मागवू नहि. किंतु तेम जाणी कोइ नहि देखी शके तेवा स्थळमां एकाते जइ उभा रहे. अने ज्यारे एम जणाय के तेमने गृहस्थे पाछा वाळ्या छे अथवा दीधुं छे त्यारे तेमना जवा वाद मुनिए यत्नापूर्वक ते गृहस्थना घरनी अंदर जवू के मागवू. [५७७] एज खरेखरो मुनि अने आर्याओनो आचार छे. [५७८] छठो उद्देश, [केवो आहार लेनो तथा केवो न लेवो तेना नियमो.] मुनिने भिक्षे मार्गमा राथ जातसेललुपा कूकडाओ, मुअरो, नया Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळे तथा भापान्तर जातियं वा, सूयरजातियं वा, अग्गापडासै वा वायसा संघडा संणिवडिया पेहाए, सति परकमे संजयामेव नो उज्जुयं गच्छेज्जा । [५७९] से भिक्खू वा (२) जाव पविढे समाणे नो गाहावतिकुलस्स दुवारसाहं अवलंबिय (२) चिट्ठज्जा; नो गाहावतिकुलस्स दगच्छड्डणमत्तए चिद्वेज्जा; नो गाहावतिकुलस्स चंदणिउयए' चिज्जा णो गाहावइकुलस्स सिणाणस्स वा बच्चस्स वा संलोए सपडिदुवारे चिद्वेज्जा; णो गाहावतिकुलस्स आलोयं वा थिग्गलं वा संधि वा दगभवणं वा बाहाउ पगिझिय (२) अंगुलियाए वा उदिसिय (२) ओणमिय (२) उण्णभिय (२) णिज्जाएज्जा; णो गाहावर्ति अंगुलियाए उदिसिय [२] जाएज्जा; णो माहावर्ति अंगुलियाए चालिय [२] जाएज्जा; णो गाहावतिं अंगुलियार तज्जियर (२) जाएब्जा; णो गाहावति अंगलियाए उपखलंपिय २] जाएज्जा. णा गाहावति वंदिय[२] जाएज्जा णो वयणं फरुतं वदेजा। [५८०] कागडा विगेरे घणाएक माणिओ सावा माटे रस्तामा एकटा मळेला जणाय तो ते रस्तो सीधा छतां वीजा मार्ग मळी आवतो होय तो ते रस्ते मुनिए नहि चालवू. [५७९] मुनिए भिक्षार्थे गृहस्थना घरे जतां त्यां गृहस्थना दरवानानी शाखा पकडी उभा रहेवू नहिं, ग्रहस्थना पाणी दोब्बाना स्थानक तरफ ऊमा रहे, नहि, कोगळा फेंकवाना स्थानक तरफ ऊभा रहेनुं नहि, अने स्नान करवाना के खरचु जवाना स्थान तरफ ऊमा रहेवू नहि. वळी प्रस्थना घरनी पारीओ या छिद्रो या फाट तथा पाणीआराने मुनिए पोताना हाथ के आंगळीमो अडकावी उंचानीचा थइ तेओमांथी ग्रहस्थर्नु घर जो गहि. मुनिए आंगळीओवढे निशानी करी याचवू नहिं. तेमज आंगळीओ बडे तेले धुणाीने के दनायीने पण याचY नहि तथा आंगळीओवडे तेने अरज करीने याच नहि वळी अश्यने सलाम करीने पण कंइ याचई नहि. ग्रहस्थ कदाच कंइ नहि आपे तो पाडोर वचन न रोलवा. [५८० Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन दशमुं. [१८३] अह तत्थ कंचि भुजमाणं, पेहाए तंजहा; गाहावइयं वा जाव कम्मकरिं वा, से पुल्वासेव आलोएज्जा;-" आउसो-ति वा, भइणित्ति वा, दाहिसि से एत्तो अन्नयरं भोयणजातं । ” से एवं वदंतस्स परो हत्थं वा, मत्तं बा, दविं वा, भायणं वा, सीतोदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा,उच्छालज वा, पहोएज्जवा, से पुवामेव आलोएन्जा आउसो त्ति वा भगिणी-ति वा, मा एयं तुम हत्थं वा, मत्तं वा, दविं वा, भायणं वा, सीतोदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलोह वा पहोवाहि वा। अभिकंखसि मे दातुं, एमेव दलाहि ।” से सेवं वदंतस्स परो हत्थं वा [४] सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेत्ता पधोइत्ता आहट्ट दलएज्जा, तहप्पगारेण पुरेकम्मएण हत्थेण वा [४] असणं वा [४] अफासुयं अणेसणिज्जं जाव णो पडिगाहेजा। अहपुण एवं जाणे १ उदकाइँण, सुनिए गृहस्थने घरे जतां त्यां कोइने जमतो देखी शरुआतमा तपास करवी के आ कोण छे. के यावत् चाकर चाकरडी छ ? त्यारवाद तेणे वोलq के “हे आयुष्मन् अथवा हे वेहेन, आ भोजनमाथी मने कंइ पण थोडंएक भोजन आपशो?" एम मुनिए बोलतां गृहस्थ पोताना हाथ, पात्र, अने चाटवो के वासण थंडा पाणीथी अथवा ठरीने सचित्त थएला ऊना पाणीथी छांटे के धोवा मंडे तो मुनिए शरुआतमा ज तेने जणावयु के “ हे आयुष्यमान् या वेन तमे एम पाणीया छांटीने के पाइन मने आपता ना, वगर छांटे धोएज मने आपो" तेम कहेता पण जो ते गृहस्थ पोताना हाथपात्र पाणीधी छांटी के घाइने ज आपवा मंडे तो मुनिए तेवा आहारने अशुद्ध गगीने ग्रहण न कर. तेमज कदाच एम वने के गृहस्थ आहार आप्या अगाउ तेम चाहीन हाथपात्र पाणीथी भांजाइ गएला होय तोपण तेनावडे आहार मुनिए न लेवो. वळी कदि गृहस्थना हाथ पात्र Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । [१८६] . आचारांग-मूळ तया भाषान्तर. • एवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा 'भिक्खणी ए वा सामग्गिय । १५८६] . ...... ... . mpe- .. (सप्तम उद्देश:) से भिक्खू वा [२] जाव समाणे से ज्ज 'पुण जाणेज्जा, असणं वा (४) खंति वा, भसि वा, मंचसि वा, मालंसि वा, पासायसि वा, हम्मियतलंसि वा, अनयरंसि वा तहप्पगारंसि अंतलिक्खजायांस उवणिक्खित्ते लिया, तहप्पगारं मालोहडं असणं चा [१] जाव अफासुर्य णो पडिगाहेज्जा। केवली चूया "आयाण-मेतं" । अस्संजए भिक्खुपडियाए पीढं वा, फलहगं वा, णिस्सैणि ए मुनि अने आर्याआनो पवित्र आचार छे. [५.८६] - . . सातमो उद्देश. (केम अने केवो आहार लेवो तथा केम अने केवो न लेगो.) . . भ आहार गृहस्थे भीत ऊपर, यांभला उपर, मांचा ऊपर, माळ ऊपर, घर ऊपर के हवेली उपा अथवा एवी जातना कोइ पण उच्च स्थळमा राख्यो होय अने त्यांची लावीने रहस्य आपत्रा मांडे तो ते आहार अशुद्ध गणीने मुनिए न लेवो केमके शानिऔर तेमां दोष बतायाछे. जे माटे गृहस्य साधुना माटे .त्यां वा गोठ, पाट, निसरणी के ऊरखली मांडी त्यां चटतां जो पड़े तो ? catsoft Handmill dc.' Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' ___.. अध्ययन-दशर्मु. ..... [१८७) वा, उदहलं वा; आहट्ट उस्सविय दुरुहेजा । से तत्थ दुरुहमाणे पयलेज वा पबडेज वा। से तत्थ पयलेमाणे वा पवडेमाणे वा हत्थं या, पायं वा, बाहुं वो ऊरूं बा, उदरं वा, सीसं वा, अग्णयरंवा कायंसि ई- . दियजाय लुसज्ज वाः पाणाणि बा भूर्याणी वा जीवाणी वा सत्ताणि वा अभिहणेज वा वत्तेज-चा लेखेज वा संघसेज वा संघट्टेज्जः वा. परिया वेज्ज वा किलामेज वा ठाणाओ ठाणं संकाभेन्ज वा । तं तहप्पगारं मालोहर्ड असणं या (४) लाभे सते णो पडिगाहेज्जा । (५८७) से भिम्ख वा [२] जाव समाणे से जं. पुण जाणेजा असणं चा () कोरियातो वा कोलज्जातो. १ वा अस्संजए भिक्खुपडियाए उपकुाल्जिया अघउजिया ओहरिया आहट्टु दलएजा, तहप्पगार असणं वा (४) मालोहडति णच्चा लाभे संते णो पडिगाहेला । (५८८) से भिक्खू वा (२) जाव समाणे से ज्ज पुण जाणेज्जा असणं वा (४) मट्टिओलित्तं तहप्पगारं असणं वा (४) जाव लामे संते णो पडि १ अमोवृत्तखाताकारात्.. तेना हाय, पग, याहु, साथळ, पेट, माथु के गमे ते अंगनों भंग याय त्या. चीजो जीव जंतुओ पण हणाय माटे तेवी जातनो माळथी आणेलो आहार मळतां छतां पण न लेबोः [५८७] पळी जो गृहस्य, कोठीमां के कोठलामाथी साधुना-माटे उंचो नीचो. के. आहो थह आहार लावी मुनिने आपवा माहे तो ते पण न लेवो. ५८८] मुनिए जे आहार माटीधी लापी बंध राखेलो होय ते मळचा छतां नाहि लेवो. जे. माटे केवळनानिए एमां दोप वताच्या छ, केमके असंयति रहस्य साधुना माटे माटी अखेडी ते आहारने कहारवा जतां पृथ्वीकाय तया आणि, वायु, Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८८] .. .. ... आचारांग-मूळ तयाँ भाषान्तर गाहेज्जा । केवली चूया " आयाण-मेय. " असंजए भिक्खू-पडियाए मट्टिओलित्तं असणं [] उदिमाणे पुढविकाय समारंभेज्ज़ा, तहा तेऊ' वाऊं-बणस्सति-स-सायं समारंभेज्जा, पुणरवि ओलिंपमाणे पच्छाकस्मं करेजी ।अह सिक गण पुचोवदिवा जाव जं तहप्पगारं मट्टिओलित्तं असणं वा [ी लामें संते णो. पडिगाईज्जा । [५८९] से भिक्खू वा (२) जाब पत्रिवेसमाणे से ज्ज पुण जाणेज्जा, असण वा (४) पुढंवि कायपतिष्ट्रिय, तहप्पगारं असणं वा (४) अफासुयं जाव णो पडिंगाहेज्जा । [५९० में से भिक्खू.वा.(२) से ज पुण जाणेजा, असणं या [2] आउकायपतिद्विय तह चेव एवं अगणिकायपतिद्विय लाभे संते णो पडिगाहेज्जा।,. केवली बूया “ आयाण-मेयं ” अस्संजए भिक्खुपडियाए अगणिं उ सक्किय (२) णिसकिय (२) ओहारिय (२) आहटु दलएज्जा अह मि. क्खूण पुवावदिवा जाब णो पडिगाहेज्जा । (५९९) . वनस्पति, अने त्रसकायनी हिंसा करे, तथा पाहुं बंध करता पण तेली हिंसा करे याटे साधुने एवी. भलामण छे के तेणे माटीथी बंध करेलो आहार मळतां नहि :. लेवो. [५८९]..:: : . . मुनिए जे आहार सचित पृथ्वीकाय पर पहेलो होते पोलाने "अपन्य धारी ग्रहण न फरदो. १०] . . . . एज रीते-पाणी उपर रहेलो आहार पण न लेवो. वळी अनि उपर चडेलों - आहार पणन लेदो केमके तेम-करता कर्मध चाय के जे माटे. तेवे रखते असंयति गृहस्थ मुनिना, माटे अग्मिले दधती बाळशे अथवा मोठी करो, अथवा हल , ने आएं पाई करो. माटे सुतिले उपर जशावेली खास मलापण छै' के तेणे अ-, . मि उपर चडेलो आहार ग्रहण न करवो. [५९१] '. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन दर्श#. १८९]. से सिक्खू वा (२) जावं पविद्वेसमाणे सेलं पुण जाणेजा, असणं वा (e) अन्चुसिणं असंजए-"भिक्पडियाए सूघण वा, वियोण वा, सालिगटग वा, पण 'वा, साहाए चा, सोहाभंगेण-वापिहुणेण. वा. पिहुणहत्येण वा दलेण वा, लिकन्नेण वा हत्थेग वा । सुहेणवा, फुसज्ज वा वीएज्ज : वा; से पुकामेव आलोएज्जा आउसातिवा, भगिणि-ति, वा, मा एय : तुमः असणं वा अच्चुसिपं सूएण वा जाव फुत्साहि वा वीयाहि वा । अभिक्खति मे दात, एमेव दलयाहि ।” से सेव, वदतस्स परोसूण वा. जाव वीइला आहट्ट दलएज्जा, तहप्पगारं असणं वा-(४) जावणो पडिगहिज्जा। ... से भिक्खू वा [२] जीव समागे से ज्जं. पुण जागेन्जा असणं वा [४] वस्तइकायपतिष्ट्रिय, तहपगार असणं- वा. [४] वणस्सइकाय: 'पत्तिद्वियं अफासुयं अक्षणिज्जं लाभे संते णो पडिगाहेजा। एयं तसकाएवि । (५९३) ... . आहार-पाणी अति ऊना क्षेवासी गृहस्थ तेने मुनिना माटे : सूपडावडे, बजमावडे, मारपीछना लोजगावडे, पखावडे, शाखाबडे, शाखाना कटकावडे, वारसीडे, कपडावडे,"कपडानी किनारखेडे, हाथवडे के सुखवढे वींजीकरीने पंडा पाहवां मोडे. त्यारे युनिए शरुआतमा जतेने जोइने जणाव के." है.' आयुज्मन्, अथवा हेन, तमे आ आहारपाणीने सूपड़ा के- पंखा . विगरेची वीज मा.. जो मने देषा चाहता हो तो एमज आपो" एम कया छतां पण गृहल्य वे आमरने सूपडा विगेरेथी पीजी परीने. भापे तो तेली जातनां । आहार पाणी सहण न करको [५९२] . " जे आहार पनरपति ऊपर के त्रस जीवो कपर पडेलो होय ते पण मुनिए ग्रहण न करयो. [६९३] । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचारांग- मूळ तथा भाषान्तर. ....... (पानकाधिकारः) . से भिक्खू वा (३) जाव पविते समाणे से ज पुण पाणगजातं आणेज्जा, तंजहाँ; उरसेइम' या, संसेइमं या, चाउलोदगं वा। अणेतरै वा तहप्पगारं पाणगंजात अहुणाधोतं अणंबिलं अबोकतं अपरिणतं अविद्वत्थं अफांसुर्य अणेसणिजे मण्णमाणे णो पडिगाहेज।. [५९४१ अह पुण एवं जाणेज्जों चिराधोतं अबिलं वकतं परिणतं विद्वत्थं फांसुर्य जीव पडिंगाहेज्जा । (५९५) _' से मिक्खू वा (२) जाव पविष्टे समाणे से ज्जं पुण पाण्णाजात आणेउजा, तजहा; तिलोदगं वा, 'तुसोदगं वा, जवोदगं वा, आयाम' या, सोवीरं वा, सुद्धवियर्ड वा, अण्णतर वा तहप्पगारं पाणगजातं पुच्चामेव आलोएज्जा, “आउसो-त्ति वा,भगिणि-ति वा, दाहिसि मे एसोअन्नतरं १ पिष्टोत्स्वेदनार्थ मुदकं २ तिलधावनोदकं ३. अविध्वरतं. ४ अवश्यानक ५ आच्छणनानाप्रसिद्ध (पाणीनो अधिकार.) • लोट गशळवा. माटेर्नु पाणी, तिल धोयार्नु पाणी, चोखा यार्नु पाणी, तया एवीज जातवें वाणु हरेक पाणी जो तरसतुं धारलं होय हनु तेनो स्वाद फर्यो न होय तेमज तेर्नु पूरंतुं परिणामांतर पण न थयु होय तथा तेनो योनिध्वंश पंण' हर्नु न धयों होय तो सेव पाणी अनेषणीय जाणीने मुनिए नहि ले. [५४९] पण जो सेतुं पाणी लांचा वखतनुं धोएल स्वादयी घरेलुं परिणामांतर पामेले अने योनिरहित थएवं होय तो ते दु. [५९५] मुनिए तिल, तुप, के योथी आपत्त करेगुं पाणी, औसामणर्नु पाणी छासती पणा ऊतुं पाणी, तथा एवी जातनां पीजा .पाणी आइने तेना-मालेक ने कहेवू “ हे आयुष्यमान् अयवा बेहेन, मन आ पाणीमांयी थाई पाणी आप Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन दसमुं... पाणगजातं ?" से सेवं वदंतं परो वएज्जा "आउसंतो समणा, तुमं चेवेद पाणगजानं पडिग्गहेण वा उस्सिचियाणं (२) ओयत्तियाण गिण्हाहि " तहप्पगारं पाणगजायं संयं वा गिहिज्जा, परो.वा से दिज्जा, फासयं लामे संते पडिगहिज्जा । (५९६) । . से भिक्खू वा [२] से ज्जं पुण पाणगं जाणेजा अणंतरहियाए पुढवीए जाव संताणए ओह निक्खित्ते सिया, अस्संजए भिक्खुपडियाए उदउद्धेण वा ससिणिद्वेण वा सकसारण वा मत्तेण, सीओदएण वा सं-- भोएचा आहट्ट दलएज्जा, तहप्पगारं पाणगजातं अफांसुर्य लाभे संते णो पडिगाहेज्जा । (५९७) ___ एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्षुणीए वा सामग्गिय । (५९८) १ अपवृत्त्य - - - शा?" त्यारे ते कदाच एवं वाले के " हे आयुष्मन् तमे पोतन वीजा वासण बढे अथवा तेज पाणीना वासणने उलटावी ने पाणी लइ ल्यो" पारे मुनिए से पोते पण लेवू, अथवा बाजो आप तो तेम पण लेवू [५९६] जे पाणी लाली के जीवजंतुवाली माटी पर राखयुं हय अयवा असंयत गृहस्य सचित्तपाणी के माटीथी भांजेला के खरडेला वासणवढे मुनीने आपवा मांडे अथवा ते पाणीमां बीजूं घोड़े धडं पाणी उमेरीने आपवा मांडे तो ते अमासुक जाणीने मुनिए नहि लेबु. [५९५ . . . . . . ए सर्व मुनि तथा आर्याओना आचार छे. [५९८] ... Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९४] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. से भिक्खू वा [२] जाव पविठू समाणे सेजं पुण जाणेज्जा पलबजातं तंजहा ; अबपलंबं वा, अंबाडगपलंबं वा, तालपलंबं वा, झिझिरिपलंब वा सुरभिपलंब वा; सल्लइपलंब वा, अन्नता वा तहप्पगारं पलबजातं आमंग अमत्थपरिणतं अफासुयं अणेसणिज्ज जाव लाभेसंते जो पडिगाहेज्जा । (६०३) से भिक्खू वा (२) जाव पविदेसमाणे से जं पुण पवालजातं जाणेज्जा, तंजहा ; आसोत्थपवालं ४ वा, णग्गोहफ्वालं वा, पिलंक्खपवालं५ वा, णीयूषवालं वा, सल्लइपवालं वा, अन्नतरं वा तहप्पगारं पवालजातं आमगं असत्थपरिणयं अफासुयं अणेसणिज्जं जाव णो पडिगाहेज्जा । (६०४) __ से भिक्खू वा (२) जाव समाणे से ज्जं पुण सरडुयजायं जाणेज्जा, तंजहा ; अंबसरडुयं वा, कविसरडुयं वा, दाडिम सरडुयं १ फल जातं २ ( वल्लीविशेष :) ३ (शतद्रु :) ४ ( पिपलं)। ५ (पिप्पली) ६ (नंदी वृक्ष :) ७ अबदास्थिकफलजातं. वळी आंवानांफळ, अंबाडानाफळ, ताळफळ, जिन्झिरिवलनाफळ, शतद्रुफळ, सल्लकिफळ, तथा एयां बीजां पण हरेक फळ काचां होय ने शस्त्रधी छुदायलां नहि होय तो ग्रहण न करवां (६०३) तथा काचां अने शस्त्रथी नहि भेदायलां पीपळानां कुंपळ, वडनां कुंपळ, पीपळीनां कुंपळ, नंदीरक्षनां कुंपळ, तथा शल्लकिनां कुंपळ पण नहि लेवां. {६०४] एज रोते कांचा अने शस्त्रयी नहि भेदारलां वानां मार ( काचां फळ ) कांना मार, दाइयनां मोर बीलुनां मार तया एवी जातना वीजा पण सपळा Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन दशमुं. वा बिल्लसरडयं वा, अण्णतरं वा तहप्पगारं सरडुयजातं आम · सत्यपरिणतं अफासुयं जाव णो पडिगाहज्जा । [६०५] से भिक्खू वा [२] जाव. पविढे समाणे सेज्जंपुण मथुजातं जाणेजा, तंजहा ; उबरमंथु वा, णग्गोहमथु वा, पिलक्खुमथु वा आसोत्थसंथं वा, अण्णतरं वा तहप्पगार मथुजातं आमयं दुरुक्कर साणुवाय 3 अफासुयं जात्र णो पडिगाहेज्जा । [६०६] से भिक्खू वा (२) जाव समाणे सेज्जंपुण जाणेज्जा, आमडागं: वा पतिपिण्णागं५ वा महंवा, मज्ज वा, समि वा, खोलं वा, । पुराणं; एत्थ पाणा अणुप्पसूता, एत्थ पाणा संवुड्डा, एत्थ पाणा जाया एत्थ. पाणा अधुकंता, एत्थ पाणा अपरिणता, एत्थ पाणा अविद्वत्था, णो पडिगाहेज्जा । (६०७) १ चूर्णजातं २ ईषत्पिष्टं ३ अविध्वस्तयोनिकं ४ अर्द्धपक्वं ५ कुथितखलं ३ मद्याध : कर्दम : मोर मुनाए ग्रहण न करवा [६०५] । मुनिने ऊंवरनुं चूर्ण, वडतुं चूर्ण, पीपळीनु चूण, पापळानुं चूर्ण, के एवी जातना वीना चूर्ण काचां थोडा पीसेलां अने सवीज [योनिसहित] जगा तो ग्रहण न करवा. [६०६] मुनिर गोचरीए जतां अर्धी रंधाएल शाकभाजी न लेवी तथा सडेलु खो: न लेवू, तथा जूनुं मध, जूनी मदिरा, जूनुं घृत जूनो मदिरानी नीचे वेशद कचरो, ए पण न लेवा, एटले के जे चीज जूनी थतां तेमां जीवजंतु ऊपजेन्ट, अने हजु हयातीमा वर्तनारा जणाय ते चीज न लेवी. [६०७] १ दवाओमां Tinctures spirits वपराय छे ते. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग मूळ तथा भापान्तर. गं वा, कासवणालियं वा, अण्णतरं वा आमं असत्थपरिणतं जाव णो पडिगाहेज्जा । (६१३) . से भिक्खू वा (२) जावं समाणे से ज्जं पुण जाणेजा, कणं वा, केणकुंडग वा, कणपूयलिं वा, चाउलं वा, चाउलपि8 वा, वा, तिलं वा, तिलपिष्टुं वा, तिलपापडग वा, अनतरं वा तहप्पगारं आमं असत्थपरिणत जाव लाभे संते णो पडिगाहेज्जा । (६१४) . ____ एवं खलु तस्स भिकखुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं ।(६१५) - १ श्रीपर्णीफलं २ कणमिश्रकुक्कुसाः काचां अमे शस्त्रवडे नहि चूरायला होय तो ग्रहण न करवा. [६१३] मुनिए धान्यना दाणा, दाणावाला कूसका, दाणावाली रोटली, चावल, चावलनो लोट, तल, तलनो लोट, तलपापडी, के एवीज जातनुं वीजें कंइ पण का . चुं अने शस्त्रवडे नहि चुराएलुं होय ते ग्रहण न करवू. (६१४) ए सर्व, मुनि अने आर्यानो आचार छ. [६१५] Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन दशमुं. - [१९९] [ नवम उद्देश : ] इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहिणं वा, उदीणं वा, संतेगतिया सङ्का ' भवंति; गाहावती वा जाव कम्मकरी वा । तेसिं चणं एवं वृत्तपुत्रं भवति, जे इमे भवंति समणा, भगवंतो, सीलमंता, वयमंता, गुणमंता, संजता, संवुडा, बंभचारी, उवरया मेहुणाओ धम्माओ, णों खलु एतेसिं कप्पति आहाकम्मिए असणं वा (४) भोइतर वा पाइत्तए वा । सेज्जंपुर्ण इमं अम्हं अढाए णिट्टितं, तंजहा; असणं वा (४) सव्यमेयं समणाणं णिसिरामो । अवियाई वयं पच्छावि अप्पणो सअद्वाए असणं वा [४] चेतिस्सामो, २ " एयप्पगारं णिग्घोसं सोचा णिसम्म ४ तह प्पगारं असणं वा (४) अफासुर्य अणेसणिज्जं लाभे संते ण पडिगाहेज्जा । WACHAN ૩ (६१६) १ श्रावकाः प्रकृतिभद्रावा' २ चेतयिष्यामो निष्पादयिष्याम इति - यावत् ३ (स्वयं) ४ ( परतः ) नवमो उद्देश. (कयो आहार लेवो अने कयो न लेबो) आ जग्तमां चारे दिशाओ तरफ केटलाएक गृहस्थो, स्त्रीओ के तेमना दास दासीओ श्रावको अथवा भद्र स्वभाववाळा होय छे. तेओ हमेशां एवं वाले छे के " जे मुनिओ ज्ञानचंन, शीळवंत, व्रतवंत, गुणवंत, संयमवेत, संवरवंत, ब्रह्मचारी, अने मेथुनने त्याग करनारा होय तेओ आधाकर्मिक आहार पाणी बिलकुल लेता नथी. जे आपणा सारु आहार पाणी तैयार करेलां छे ते सर्व तेमने आपशुं अने आपण चळी आपणा सारुं वीजा तैयार करशुं " आवा वाक्यो सांभळीने मुनिए आहार पाणी अनेपणीय जाणीने ग्रहण करवां नहि. [६१६ ] Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२००] आचारांग-मूळ तथा भापान्तर. __ से भिक्खू वा (२) जाव समाणे वसमाणे वा गामाणुगाम दुइंजमाणे सेज्जपुण जाणेज्जा गामं जाव वा रायहाणिं वा, इमंसि . खलु गामसि वा जाव रायहाणिसि वा संतेगति यस्स भिक्खुस्स पुरेसंधुया वा पच्छासंथुया वा परिवसंति, तंजहा ; गाहावती वा जाव क म्मकरी वा; तहप्पगाराई कुलाइं णो पुवामेव भत्ताए वा पाणाए वा णिक्खमज्ज वा पविसेज्ज वा। केवली बूया, “ आयाण-मेयं । " पुरा पेहाए तस्स परो अट्टाए असणं वा [४] उवकरज्ज वा उवक्खडेज्ज वा ; अह भिक्खूणं पूयोवदिट्टा (४) ज णो तहप्पगाराई कुलाई पुवामेव भत्ताए वा पाणाए वा पविसेज्ज वा णिक्खमेज्ज वा । से त. मायाय एंगत-मवक्कमित्ता अणावाय मसलाए चिट्रेज्जा । से तत्थ कालेणं अणुपविसेजा [२] तत्थितरेतरोहिं कुलेहिं सामुदाणिय एसियं वेसिय पिंडवायं एसित्ता आहारं आहारज्जा । (६१७) सिया से परो कालेण अणुपविद्धस्स आधाकम्मियं असणं वा [] मुनिए शहरमां वसतां के ग्रामानुग्राम फरतां तेने एवं जणाय के आ गाममां के आ राज्धानीमां अमुक साधुना सगावहालां रहे छे तो तेवा सगाओना घरे भिक्षाकाळथी अगाऊ आहारपाणी माटे न जवू. केमके तेम करतां बहु दोप संभवे छे. जे माटे भिक्षाकाळथी अगाउ त्यां गयाथी ते गृहस्थो मुनिने जोइने तेना माटे उपकरण वनाववा मांडशे अथवा आहार रांधवा माडशे. माटे भिक्षुने एज भ. लामण छ के तेणे भिक्षाकाळथी अगाउ तेना सगावाहालाओना घरे नहि जवू. केदाच ओचिंतुं त्यां जवाय तो झट पाछा वळी कोइ देखे नहि तेवा एकांत स्थळमां उभा रहे. अने पछी भिक्षाकाळ थतां जूदा जूदा घरोमांधी निर्देपण आहार लड्ने वापरवो. [६१७] मुनिए वखतसर मिलार्ये जतां गृहस्थ तेना माटे उपकरण के आहार वनाववा मांडे अने मुनि तेम जाणीने ते वखतेज तेने मनाइ न पाडतां एम विचारे जे ज्यारे Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DIRT अध्ययन समुं. [२०१] उपकरेज वा उवक्खडेज्ज वा, तं चेगतिओ तुसीओ उवेहेज्जा " आहड-मेव पच्चाइक्खिस्सामि " माझाणं संफासे । गो एवं करेज्जा। से पुकामेव आलोएज्जा “ आउसो ति वा भागणि-त्ति वा जो खलु ' से कप्पति आहाकस्मियं असणं वा (४) भात्तए वा पायए वा । मा उवकारिजा, मा उवक्खडोह । " से सेवं वदंतस्स परो आहाकम्मियं असणं वा (४) उबरखडेत्ता आहट्ट दलएज्जा तहप्पगारं असणं वा [४] अफासुयं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा [६१८] से भिक्ख वा [२] जाव समागे से जं पुण जाणेज्जा मंसं वा मच्छं वा भजिज्जमाणं पहार तेल्लपूययं वा आएसाए २ उवक् खडिज्जमाणं पेहाए णो खद्धं खलु उवसंकमित्तु ओभासेज्जा। णमत्थ गिलागणीसाए । (६१९) से भिक्खू वा जाब समाणे अण्णतरं भोयणजाथं पडिगाहेत्ता १ उपकरणं टौकयेत् २ प्रापूर्णकार्थ ३ त्वरितं त्वरितं पने आपना मांडगे त्यारे ना पाठीश तो ते दोपपात्र थाय छे. माटे एम नदि कर. किंतु शरुआतमांज मुनिए ते गृहस्थने जणाव_ के “ हे आयुप्यन् अथवा वेहेन, मने बारा माटे बनावे आहारपाणी काय आवतुं नथी. माटे तये मारा माटे बनायो मा." एम कया छतों पण गृहस्थ आधार्मिक आहारपाणी वनावी आपया मांडे तो ते, सुनिए ग्रहण न कर. ६१८] मुनिए मांस के मन्स्य सुजाता जोद अथवा परोणाना माटे पूरीओ तेलमां तळाती जोद तेना सारु गृहस्थामे उतावळा उतावला दोडी ने चंनो मागवी नहि. अगर मांदगी भगवनार मुनीना सारं [ गरम पूरीओ] सपनी होय तो जूदीवात छे. [६१०] जो मुनि कोट्पण भोजन लइ आव्या बाद मांगें मुगंधि सुगंधि खाइ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. सुभि सुभि भोच्चा दुभि दुभि परिद्ववेति; माइट्टाणं संफासे । णो एवं करेजा । सुभि वा दुभि वा सव्वं भुजे, न छड्डए । (६२०) ___ से भिक्खू वा (२) जाव समाणे अन्नतरं घा पाणयजायं पडिगाहेत्ता पुप्फ आसाइत्ता कसायं २ परिवेति, माइटाणं संफासे णो , एवं करेज्जा । पुष्फ पुप्फेति वा, कसाचं कसाएत्ति वा, सबमेयं भुंजेज्जा, णो किंचिवि परिवेज्जा । (६२१) से भिक्खू वा (२) बहुपरियावण्णं भोयणजायं पडिगाहेत्ता, बहवे साहम्मिया तत्थ वसति संभोइया समणुन्ना अपरिहारिया 3 अदूरगया, तेसिं अणालोइया अणामंतिया परिट्वेति, माइट्टाणं संफासे णो एवं करेजा से त मादाय तत्थ गच्छेज्जा, (२) से पुवामेब आलोएज्जा " आउसंतो समणा, इमे मे असणं वा [४] बहुपरियावण्णे तं भुंजह १ वर्णगंधोपेतं . तद्विपरीतं ३ एकार्थिका इमे शब्दाः करीने दुर्गधि दुर्गधि परठवी आपे तो ते दापपात्र थायछे, माटे तेम न करवं. किंतु सुगंधि दुर्गधि सर्व कंइ खाइ ज; छोडवू नहि. [६२०] जो मुनि कंइ पण पाणी लइ आव्या वाद तेमांन भीटं अने सुंदर पाणी पी करीने कसायलुं पाणी परठवी आपे तो ते दोपपात्र थाय छे माटे एम नहि करतां मीटुं के कसायलं सर्व कंइ पी जवं; ांडवू नाह. [६२१] जे मुनि पोताना खप करतां वधु भोजन लइ आव्यो होय ने त्यां नजीकमां घणाएक समानधर्मि मुनिको रहेता होय तो तेमने ते आहार बताव्या के आमंत्रण कर्या शिवाय जो परटवी आवे तो दांपपात्र थाय छे माटे तेम नहि करा. किंतु ते आहार लइने मुनिए ते सार्मिक मुनिओ पासे जड कहे "हे आयुप्मन् मुनिओ; आ आहार मने वधी पडयो छे माटे आप वापरो," आम कहे ? नूरुं Astringent Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '[२०३] अध्ययन दसमुं. च णं " से सेवं वदंत परो वदेज्जा “ आउसंतो समणा, आहार-मेत असणं वा [४] जावतिय (२) परिसडति तावतियं (२) भोक्खामो वा पाहामो वा, सव्व मेयं परिसडइ सबमेयं भोक्खामो वा । " (६२२) से भिक्खू वा २7 लेज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा (४) परं समुदिस्स बहिया णीहडं तं परेहिं असमणुन्नातं अणिसिटुं अफासुयं जाब णो पडिगाहेज्जा, तं परेहि समणुन्नातं संणितिष्टुं फासुयं लाभे संते जाक पडिगाहेज्जा । ६२३] एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं । (६२४) नार मुनिने ते साधर्मिक मुनिओए आ प्रमाणे कहे " हे आयुष्मन् सुनि, आ आहारमाथी जेटलो अमोने जोइशे एटलो वापरीशुं अगर वधो वापरीशु [६२२] मुनिए जे आहार वीजाने आपवामाटे लइ जवानो होय ते बीजानी रजा शिवाय ग्रहण न करवो. अने जो वीजाओ रजा आपे के आपवा माडे तो ते ग्रहण करवो. [६२३] ए सर्व, मुनि अने आर्याओनो आचारछे. [६२४] Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०४ आचारांग-पळ तथा भापान्तर दशम उद्देशः] से एगतिओ साधारणं वा पिंडवायं पडिंगाहेत्ता, ते साहम्मिए अणापुछित्ता जस्स जस्त इच्छंइ तरस तस्स खड़े, खट्वं दलाति, माइट्टाणं संफासे, नो एवं करेजा । से त-मायाए तत्थ गच्छेज्जा [२] पुयामेव आलोएज्जा “आउसंतो समणा, संति मम पुरेसंथुया वा पच्छासंथुया वा, तंजहा; आयरिए वा उवज्झाए वा पयत्ती वा, थेरे वा, गणी वा, गणहरे वा, गणावच्छेइर वा अवियाइं एनेसि खलु खः दाहामि" सेणेवं वयंतं परो वएड्जा "काम खलु आउसो अहापज्जत्तं णिसराहि, जाइयं [२] परो वदति तावइयं (२) णिसिरेज्जा, सबमेयं परो वदति सव्यमेव णिसिरेज्जा" । (६२५) दशलो उद्देश. (मुनिए आहारपाणी लावतां शा रीते दत.) कोइ पण मुनि'वधा मुनिओना माटे साधारण आहार लाव्या पछी तआने पूछया शिवाय पोतानी गरजी मुजब गये तेने झट झट आपवा मांडे तो त दोपपात्र थाय माटे कोइन तम नहि करडं किंतु तेवो आहार लावीने वधा मुनिओ पास लइ जइ कहेतुं के "हे आयुग्मन् साधुओ मारा पूर्व परिचित या पश्चात् परिचि २ आचार्य र उपाध्याय४ प्रवर्तक ५ स्थदिर गणी, गणधर, के गणावच्छेदकने आ आहार हुँ आप आई?" आई सांभळी ते मुनिओण बोलg के "हे आयुष्यत् , खुशीवी जे जोइए ते आपी आयो. अगर जो तेमने वो जोडतो होय तो वो आ पी आवो." [६२५] १ जेमना पासे दीक्षा लीधेली तेओ २ जेगना पास जाना दि रिलाय तेओ : सूत्रार्थ शीखवनार '४ मूत्र शीखवनार ५ प्रवर्त्तावनार ६ वृद्ध ७ गच्छनायक ८ गच्छना अमुक भागने संभावनार . गन्नी चिंता करनार. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन दसमुं. [२०५] से एगतिओ मणुन्नं भोयणजायं पडिगाहित्ता पंतेण भोयणेण पलिच्छाएति “मामेतं छाइयं संतं दृढणं सय-माइए आयरिए वा जाव गणावच्छेइए बा, णो खलु से कस्सवि किंचि दायव्वं सिया," माइमाणं संफासे, णो एवं करज्जा, से त मायाए तत्थ गच्छेज्जा (२) पुवामेव उत्ताणए हत्थे पडिग्गहं कट्ट “ इमं खलु इमं खलु ति " आले, एज्जा, णो किंचिनि णिगृहेज्जा । (६२६) से एगतिओ अण्णतरं भोयणजायं पडिगाहेज्जा, भद्दयं [-] भोच्चा बिवन्नं (२) समाहरति, माइदाणं संफासे । णो एवं करेजा। [६२७] , से भिक्खू वा (२) सेज्जंपुण जाणेज्जा, अंतरुच्छ्यं वा उच्छगंडियं वा, उच्छचोयगं बा, उच्छमेरगं वा, उछसालगं वा उछ्डालगं व संबलि, वा, संबलिवालगं वा; अरिंस खलु पडिग्गाहियंसि अप्पे सिया भोयण कोइ मुनि मनोहर भोजन लावीने मनमां विचारे के " रखेने आ खुल्लु बतावश तो आचार्य के उपरी साधु लइ लेगे पण मारे तो कोइने आप, नथी" एम विचारी ते मनोहर भोजनने हलका भोजन पडे ढांकी करीने पछी आचार्यादि कने बताये तो ते दोप पात्र थाय छे. माटे एम मुनिए नहि कर; किंतु ते मनोहर भोजनना पात्रने ऊंचा हाथमा खुल्ठे धरीने “आ आ रहो, आ आ रघु" एम खुल्डं बतान. कंइ पण वस्तु छुपादवी नहि. [६२६] कोइ मुनि लावेला भोजनमाथी सारं सारं खाइ करीने स्राव खराब बनाबवा जाय तो ते दोपपात्र थाय छे, माटे तेम पण नहि कर. [६२७] मुनिए गेलडीनी गांटो, गांटावालं ककडं, शेलडीना छाला, शेलडीनां पूंछटा, शेलडीनी आखी शाखा के तेनो कटको के वाफैली मगफळी के वालनी Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. जाए, बहु उज्झियधम्मए-तहप्पगारं अंतरुच्छुयं जाव संवलिवालगं वा " अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा । (६२८) से भिक्खू वा (२) से ज्जं पुण जाणेज्जा, बहुअट्टियं मंसं वा, मच्छं वा बहुकंटगं;-अरिंस खलु पडिगाहितंसि अप्पे सिया भोयणजाए, बहु उझियधम्मिए-तहप्पगारं बहुअट्रियं मंसं मच्छं वा बहुकंटगं लाभे संते जाघ णो पडिगाहेज्जा । (६२९) से भिक्खू वा (२) जाव समाणे सिया णं परो बहुअहिएण मसेण मच्छेण उवणिमंतेज्जा “ आउसंतो समणा, अभिकंखसि बहुअद्वियं मंसं पडिगाहेत्तए ? " एयप्पगारं णिग्योसं सोचा णिसम्म से पुव्याभेव आलोएज्जा, “ आउसो-त्ति वा भइणित्ति वा, णो खलु मे कप्पइ से बहुअद्रियं मंसं पडिगाहेत्तए । अभिकंखसि मे दाउं, जावइयं तावइयं फळी विगेरे जेओमां थोडं खावातुं होयछे अने बहु छांडवानुं होयछे, सेवी चीजो ग्रहण न करवी. [६२८] वळी बहु ठळियावाळु [पनस विगेरे फळोतुं दळ] गर्भ या बहु कांटावाळी मत्स्याकारनी वन पति ने लेवाथी थोडं खावातुं वने अने वहु छांडबुं पडे छे ते पण ग्रहण नहि करवां॰ [६२९] कदाच मुनिने कोइ निमंत्रण करेके "हे आयुष्मन् श्रमण, तमने टळियावार्छ पुद्गल जोइए छीए"? भाई वाक्य सांभळी मुनीए तरतज जवाव आपवो के "हे आयुप्मन् या वहेन, मने वहुउळियाप ढुं पुदगल-गर्भ नथी जोइतुं, अगर तमे मने ते देवा चहाता हो तो जेटलुं तेना अंदर पुद्गल-गर्भ छ तेटटुंआपो ठळिया नहि १ टीकाकार-बाह्य परि भोगादि माटे अलिदार्य कारणपोगे मूळ पाटना शब्दोनो अर्थ मत्स्य-मांस अपवाद मार्गे करेछे. परंपरा अर्थ भाषान्सरमा लन्या मुजब प्रसिद्धछे. जुओ शब्दार्य विवेक. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययल दसमुं. [२०७] गलं दलयाहि, मा अट्रियाई । ” से सेवं वदंतस्स परो आभहट अंतो पडिग्गहगसि बहुअद्वियं मंसं परिभाएत्ता णिहट्ट दलएज्जा; तहप्पगारं पडिग्गहगं परहत्थंसि वा परपायांस वा अफासुयं अणेसणिज्ज लाभे संते जाव णो पडिगाहेज्जा । से आहच्च पडिगाहिए सिया, तं णो "हि" त्ति वज्जा, णो “ अणहि " ति वइज्जा । से-त मायाए एगंत-मवकमेज्जा, [२] अहे आरासंसिवा अहे उवस्सयांसि वा अप्पंडए जाव अप्परांताणए मंसगं मच्छगं भोच्चा अट्रियाई कंटए गहाय से त मायाए एगंतसवक्कमेज्जा । अहे ज्झामथंडिलंसि वा जाव पमज्जिय (२) परिट्वेन्जा। [६३० से भिक्खू वा (२) जाव समाणे सिया, से परो अभिहट्ट अंतो पडिग्गहए बिलं वा लोणं, उभियं वा लोणं, परिभाएत्ता णहिट्ट दलएज्जा; तहप्पगारं पडिग्गहग परहत्थंसि वा परपायसि वा अफासुयं जाव आपो" एम कह्या नां पण गृहस्थ पोताना वासणमाथी तेवू बहु ठळियावाळू पुद्गल-गर्भ लावीने आपदा मांडे तो ते मुनिए तेमाज हाथमां के वासणमा रहेवा देयुं, ग्रहण नहि करवू. अगर कदाच गृहस्थ ते मुनिना पात्रमां झट नाखीदे तो सुनिए ते गृहस्थने कशुं नहि कहे, किंतु ते आहार लइ एकांत स्थळमा जइ जीवनंतु विगैरेथी रहित वाग के उपाश्रयनी अंदर देशीने ते भोगी टळिया अने कांटा निर्जीव स्पंडिलमा पुंजी प्रमार्जी परठवी आवदा. [३३० सुनिए गृहस्थना घरे भिक्षार्थे जइ [खांडविगेरे मांगतां] गृहस्थ पोताना बासणमांधी थोडंएक वीडळूण के दरिआइ लूण लइने आपदा माडे तो तेवू अप्रामुक लूण ते वासणमां के तेना हाथमांज रहेवा देवं. अगर आचितुं लेवाइ जाय अने हजु गृहस्थ बहु दुर रहेलो नहि होय तो ते लूण लइने तरतज मुनिए ते गृहस्थने बतादई के “हे आयुप्मन् या बेहेन, आ तमे जाणतां छतां दाधुंछे के अजाणता Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०] . आचारांग-मूळ तथा भापान्तर, णो पडिगाहेज्जा। से आच्च पडिग्गाहिते सिया, तंच णातिदूरगए जाणेज्जा से त्त-मायाए तत्थ गच्छेज्जा (२) पुच्चासेव आलोएज्जा, “ आउसो-त्ति वा भइणि-त्ति वा, इमं ते किं जाणता दिन्नं उदाहु अजाणता ?" सो य भणेज्जा " णो खलु मे जाणता दिन्नं, अजाणता दिन्नं । कामं खलु आउसो इदाणि णिसिरामि । तं भुंजह च णं, परिभाएह च णं ।" तं परेहिं समणुन्नायं समणुसिटुं ततो संजयामेव भुंजेज्जवा पीएज्ज वा । जं च णो संचाएति भोत्तए ना पायए वा, साहम्मिया तत्थ व. संति संभोइया समणुन्ना अपरिहारिया अदूरगया तेसिं अणुप्पनायव्यं । सिया णो जत्थ साहम्मिया जहेब बहुपरियावन्ने कीरति तहेब कायव्यं सिया । (६३१) एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं । (६३२) दोधेछ" त्यारे गृहस्थ वोले के "जाणतां नथी दी, किंतु अजाण दीधुं छे. पण हवे आपने खुशीथी आपुंछं. माटे भले खाओ के वापरो." आ रीते जो गृहस्थ रजा आपेतो मुनिए यतनापूर्वक ते [अचित्त] लूण खावू पीवू, अने जे वधु होवायी पोताथी न वापरी शकाय ते त्यां नजीकमां रहनार वीजा साधर्मिमुनिओने आपी आव_ अगर त्यां वीजा साधर्मिक मुनिओ न ह.य तो जमे बहुपर्यापन्न ? आहार माटे विधि करायछे तेम करवी [अर्थात् यतनापूर्वक परटवी आव.] [६३१] ए बधो मुनि अने आर्याओनं। आचार छ [६३२] १वधी पडेले। आगर. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन दस . . [२०९] [एकादश उद्देशः भिक्खागा णामेगे एव माहंसु समाणे वा बसमाणे वा गामाणुगाम दुईज्जमाणं मणुणं भोयणजातं लमित्ता; "से भिक्खू गिलाई, से हंदह णं तस्साहरह४ सेय भिक्ख णो भंजेज्जा, तुमं चेवणं भजेज्जासि" सेगतितो " भोक्खामि ति" कट्ट पलिउंचिय' पलिउंचीय आलोएज्जा तंजहा; इमे पिंडे, इमेलोए, इमे तित्तए, इमे कडुए, इमे कसाए, इमे अंबिले इमे महुरे, णो खलु एत्तो किंचि गिलाणस्स सदति ति; माइट्टाणं संफासे णो एवं करेज्जा तहेव' तं आलोएज्जा जहेव ते गिलाणस्स सयति, तंजहा: १ भिक्षाटाः २ समानान् सांभोगिकान् वा शब्दादसांभोगिकांश्च गृहीत यूयं ४ तस्य आहरत तस्मै प्रयच्छत ५ गोपित्वा गोपित्वा ६ रूक्षः ७ तथावस्थित - भगीआरमो उदेश. मिळेला आहार माटेनी वे शिक्षाओ, तथा सातपिडेपणाओ। अने सात पाणेषणाओ.] भिक्षार्थी मुनिओ पोताना संभोगी के त्यां वसनारा के ग्रामानुग्राम फरनारा मुनिने एवं कहे के “आपणामां अमुक मुनि यादो छे, माटे तेना सारं तमे रहुँ भोजन मळे तो लावीने तेने आपणा; अन ते मुनि जो ते नहि खाय तो ते स्मे खाइ जनो." आवे वरवते जो ते आहार लानार मुनि ते आहार पं.ते खावा ? आहार लेवानी पतिज्ञामो २ पाणी लेवानी प्रविज्ञाभो । साये घेशी जमसर (टीकामांना भन्दयी असंभोगिक पग साये मीधा हे.) Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१०] आचारांग-मूळ तया भापान्तर. तित्तयं तित्तएति वा, कडुयं कडुएत्ति का, कसायं कसाएत्ति बा, अंबिलं अंबिले ति बा, महुरं सहुरेति वा [६३३] भिक्खागा णामेगे एवमाहंसु समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं दुईज्जमाणे मणुनं भोयणजातं लमित्ता; "से भिक्खू गिलाइ, से हहह णं तस्साहरह से य भिक्खू णो सुंजेज्जा, आहरेज्जा सि णं" "जो खलु मे अंतराए, आहरिस्सामि " इच्चेयाइ आयतणाई उवातिकम्म । [६३४] - अह सिक्खू जाणेजा सत्त पिंडषणाओ सत्त पाणेसणाओ। त-. १ दद्या बाहरेवेतिशेषः । इच्छीने तेना मटे यांदा मुनिने ऊधु चतुं समजावे; जेमके, “आ लावेलुं भोजन छे जण ते लूखुटुं. या ती, कडक, कसाये, खाद, के मीटुं छे जेथी ते यांदा माणसने लायक नथी," तो ते मुनि दोषपान थाय छे. माटे एम कापि नहि करदु. किंतु जन ते आहार यांदा सुनिने काम आवतो होय तेय तेने जगाव. विक्षार्थी सुनिओ पोताना योगी के त्वां बसनारा के ग्रामानुग्राय फरता मुनिने आधु कह के आपणागा अमुक मुनि मांदो छ तेना पाटे तेने रुडे भोजन लची आपत्रो. अने जो मांदो मुनि ते ना खाय तो ते अगारा पासे लावशो आबू सांभली लागनार मुनि बोले के गने का विट नहि नडशे-तो हुँ लावी आपीश, आम कही ते मुनि आहार लावी गांदा बताये अने बा ले न है खाय तो त पोते खावा इच्छी वीजाओने जो वतावया नहि जाय ते ते क्षेपपात्र यान छे, मारे तम पण न कर. [६३४] . : हवे मुनिने सात पिंडेपणामो अने सात पानेपणाओं जाणवानी छे. त्या पहेली पिंडेपणाओ के-चोखो हाथ अंन चावू पात्र. चोरसा काय अने चोग्या Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन दस . [२११] स्थ खलु इमा पढना पिंडेसणा--असंसटे हत्थे असंसटे मत्ते; तहप्प-- गारेण असंसदेण हत्थेण वा मत्तएण बा, असणं वा पाणं वा खाइसं वा साइमं वा, सयं वा णं जाएज्जा, परोवा से दिज्जा; फासुयं जाव पडिगाहेज्जा इति पढमा पिंडेसणा। [६३५] अहाबरा दोच्चा पिंडेसणा;--संसट्टे हत्थे संसट्टे मत्तए; तहेव दोच्चा पिंडेसणा इति दोच्चा पिंडेसगा। [६३६] - - - अहावरा तचा पिंडेसणा-इहखलु पाईणं वा पडीणं वा दाहिणं वा उदीणं वा संतगतिया लड़ा भवंति; गाहावती वा जाव कस्मकरी वा, तेसिं च णं अण्णतरेसु विरूवरुवेसु भायणजातेसु उवनिश्वित्तपन्न । सिया, तंजहा;-थालंति बा, पिठरंसि वा, सरगसिर वा, परगति वा वरगंसि बा। अहपुण एवं जाणज्जा-असंसद्धे हत्थे संसद्रे सत्ते, संसदे हत्ये असंसले सत्ते-सेय पडिग्गधारी सिया पाणिपडिग्गहिए वा- से १ अशलादि इतिशेष : २ सूर्यादौ ३ छब्बिकादौ ४ महर्यपात्रे - - - - - - - - पात्रधीज मळतां आतारपाणी पोते मागी लेयां अथवा वीजो आपया मांडे ते ग्रहण फरवा. ए पहेली पिंडेपणा. [६३५] वीजी पिंडेपणा आ के खरडेलले साथ अने खरडेलु पात्र. आवी रीतेज __ आहारपाणी ग्रहण करवा. ए वीजी पिंडेपणा. [६३६] त्रीजी पिंडेपणा आ छे. आ पृथ्वीपर चारे वाजु केटलाएक गृहस्थथी मांडी 'चाकर लगीना श्रद्धालु जीव होयछे, तेआने त्वां थाळ , हाल्ला, सूपड़ां, छाय, के पहु मूलां वासणमा आवारपणी पडेलां दोय , जो एवं जणाय के तेना हाथ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१२] आंचारांग-मूळ तया भाषान्तर. पुष्यामेव आलोएज्जा, “आउसो ति वा, भगिणि त्ति वा, एतेणं तुम अ. संसट्रेण हत्थेण संसद्वेण मत्तेण, संसद्वेग वा हत्येण असंसट्रेण मत्तेण अस्सि पडिग्गहगंसि वा पाणिसि वा णिहट्ट उवितु दलयाहि" तहप्पगारं भोयणजायं सयं वा णं जाएज्जा परो वा से देजा, फासुयं जाव पडिगाहे. ज्जा तच्चा पिंडेसणा । (६३३) अहावरा चउत्था पिंडेसा;-से भिक्खू वा भिक्खूणी वा सेज्जं पुण जाणेज्जा-पिहुअं वा जाव चाउलरलंयं वा-अस्सि खलु पडिगाहितंसि अप्पे पच्छाकम्मे अप्पे पज्जवजाते --तहप्पगारं पिधुं वा सयं वा जाएज्जा जाव पडिगाहेज्जा । चउत्था पिंडेसणा [६३८] .. अहावरा पंचमा पिंडेसणा; से भिक्खू वा भिक्खूणी वा जाव १ अल्पं तुषादि त्यजनीय चोखा छे अने पासण खरडेला छे, तो आ वखते पात्रधारी अथवा करपात्री गुनिए शरुआतमांज आई कहे के “ हे आयुष्मन् अथवा बेहेन, तमो चारवा हाथ अ सरडेला पात्रबडे अथवा खरडेला हाथ अने चोखा पानवडे आ आहार पात्रमां के हाथमा आपवाई करो." अने आ रीते मळेलो आहारज ग्रहण करवो. ए त्रीजी पिंडेपणा. [६६७] ' चोथी पिंडेपणा-मुनि के आर्याए जे पौवां के चोखानी भूकी एवी जणाय के जे लीधाथी घोडोज पवाल्कर्म नामनो दोष थो तथा तमांनी थोडीज छ.ल वगेरे छांडवी पडशे तेवां पौवां के चोखानी भूकी विगैरेज ग्रहण करवा. ए चोथी पिंडषणा . [६३८] .. पांचपी पिंडेपणा-मुनि के आर्याए जे भोजन ग्रास्पे पोते साया मारे Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन दसम... समाणे उग्गहितमेव भोयण जातं जाणेज्जा, तंजहा:-सरावसि वा, डिडिंमांस वा कोसगंसिर वा अहपुण एवं जाणेज्जा-बहुपरियावन्ने पाणिसुउद् गलेवे-तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा सयं मा नं. जाए जा जाव पडिगाहेजा । पंचमा पिंडेसणा। [३९] अहावरा छठा पिंडसणाः-से भिक्खू वा भिक्खुणी या उग्गहियमेव भोयणजायं जाणेज्जा जंच सयट्टाए पग्गहियं जंच परमाए पगहियं पायपरियावन्नं पाणिपरियावन्नं फासुर्य जार पडिगाहेम्जा । छटा पिंडेसणा। - अहावरा सत्तमा पिंडेसणा; से भिक्ट वा भिक्खुणी वा जाव समाणे उज्झियधम्मियं भोयणजायं जाणेज्जा-जंचन्ने बहवे दुपय-तउ प्पय-समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमगा णावखंति, तहप्पगारं उज्झियधम्मियं भोयणजायं सयं वा णं जाएज्जा परो वा से दिज्जा जाव डिडिमं कांस्यं भाजनं २ मगधप्रसिद्धभाजनविशेष: - प्पाला, थाळी, के कोषक नामना वासणमा खुल्ले घरेलु शेर ने से गृहस्थना हाय परनी भीनाश सूकाह गएली दोय तोल से ग्रहण करई र परिमी पिंटेपणा. छठी पिंडेपणा- मुनि के आयाए जे भोजन गृहस्थ पोता पाटे के बीजाने देवा माटे पात्र के हाथमा उल्लु धारेलुंजे भाजन जणाय तेम से, ५ सही पिंटेपणा. [६४०] ___ सातमी पिंडेपणा-सुनी के आर जे भोगन फेंकी देगा योग्य नणार भने भने पीना मनुष्य के मानररो भयवर तो अपण धामणादिक सेवा न जे Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१६) आचारांग-मूळे तथा भाषान्तर. शय्याख्य मेकादश मध्ययनम् (प्रथम उद्देशः) जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा भिकंखेज्जा उबस्सयं एसियए, से अणुपविसे गामं वा नगरं वा जाव रायहाणिं वा । (६४५) सेन्जंपुण उवस्सयं जाणेज्जा सअंडं सपाणं जाव ससंताणयं तहप्पगारे उबस्सए गो ठाणं वा सेज वा निसीहियं वा चेतेजा। (६४६) से भिक्खू वा भिक्खुणी बां सेज्जंपुण उर्वस्सयं जाणेज्जा अपंड १ कायेत्सर्ग २ संस्तारकं ३ स्वाध्यायं ४ चिंतयेत् कुर्यात्, अध्ययन अग्यार. पलो उद्देशः (वसतिना विचित्र दोपार्नु वर्णन.) जे भिक्षुक अथवा आर्याने उपाश्रय [मकान] मेळ्यवानी जरुर पहे स्पार सेणे गाम नगर के राजधानिमां ज. [ ६४२] से मकान इंडा, जंतुओ, अने काडीभीवाद्धं जणाय तेवा मकानभां स्थान शय्या के येठक नोहे करवी. [६४६] भिक भया आर्याप न मकानमा इंडा, मंतुओं अने कीडीओ घण Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .अध्ययन अगायारमुं. अप्पपणिं जाव अप्पसताणायं तहप्पगारे उवैस्सए पडिलेहेत्ता पमजेत्ता ततो संजयामेघ ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेतेज्जा । (६४७) से ज्जं पुणं उवरसयं जाणेज्जा अस्सिपडियाए५ एगं साहम्मियं . समुद्दिस्स पाणाइं भूताइं जीवाई सत्ताई समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अणिसटुं अभिहडं आहट्ट वेएति तहप्पगारे उवस्सए पुरिसंतरगडे वा अपुरिसंतरगडे वा जाव आसेविते वा णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेतेज्जा । एवं बहवे साहम्मिया एगा साहम्मिणी बहवे साहम्मिणीओ । [६४८] - से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से ज्जं पुणे उबस्सत्यं जाणेज्जा ५ एतान् मुनीन् प्रतिज्ञाय. थोडां १ जणाय तेवा उपाश्रयमा जोइ तपासी प्रमार्जन करी त्यारवाद यतनापूर्वक त्यां स्थान शय्या के वेठक करवी. [६४७] बळी जे उपाश्रय मुनिओना माटेज बंधावेलो के राखेलो जणाय, जेमके, ते एक मुकरर समानधर्मी साधुना माटे जीवहिंसापूर्वक बंधायो होय या वेचातो लइ राख्यो होय अथवा भाडे राखेलो होय या झूटावी लइ राखलो होय या मालेकनी रजा शिवाय राखेलो होय या ते तैयार थइ रहेतां तरत वीजा माणसनी वती मुनिना सामे जइ जणावेलो होय तेवो उपाश्रय अगर तेज देनार धणीए चगेलो हाय या वीजा पुरुपे चणेलो होय तेमज ते देनारे नहि वापरलो हाय या चापरेलो होय तोपण तेमां मुनिए तथा आर्याए स्थान शय्या के वेटक नहि करवी. एज रीते घणा मुनिओने या एक आर्या के घणी आयाओने उद्देशीने करेला मकानमां पण नहि रहे. [६४८] . मुनि अथवा आर्याए जे मकान घणाएक ( बुद्धमती ) श्रमण. ब्राह्मण, वन १ नहि जेवा only fest -- -- - --.aan a Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {२१६) आधारांग-मूळ तया भापान्तर. शय्याख्य मेकादश मध्ययनम् - ~(प्रथम उद्देशः) जे भिवख वा भिक्खुणी वा भिकंखेज्जा उवस्सयं एसियए, से अणुपविसे गामं वा नगरं वा जाव रायहाणिं वा । (६४५) सेज्जंपुण उवस्सयं जाणेज्जा सअंडं सपाणं जाव ससंताणयं तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा सेज्ज वा निसीहियं वा चेतेजा। (६४६) से भिक्खू वा भिक्खुणी वां सेजपुण उबस्सयं जाणेजा अप्पंड १ कायेत्सर्ग २ संस्तारकं ३ स्वाध्यायं ४ चिंतयेत् कुर्यात्, अध्ययन अग्यार मा. पलो उदेशः (वसतिना विचित्र दोपोनुं वर्णन.) जे भिक्षुक अथवा आर्याने उपाश्रय [मकान] मेञ्चबानी जरुर पढे त्यारे सेणे गाम नगर के राजधानिमां ज. [ ६४५] के मकान इंडों, जंतुभो, अने कोडीनोवाळ जणाय तेवा मकानभां थान शय्या के बेठक नोहे करवी. [६४६]" भिक भयमा आर्याप जे मकारमा इंडी, अतुओं अने कीडीओ घणा Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन अगीयार. २१७] अप्पपाणं जीव अप्पसताणायं तहष्पगारे उवस्सए पडिलेहेत्ता पमज्जेत्ता ततो संजयामेघ ठाणं वा सेज वा निसीहियं वा चेतेज्जा । (६४७) से ज्ज पुण उवस्सयं जाणेज्जा अस्सिपडियाए' एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाई भूताई जीवाई सत्ताई समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिचं अच्छेज्ज अणिसष्टुं अभिहडं आहट्ट वेएंति तहप्पगारे उवस्सए पुरिसंतरगडे वा अपुरिसंतरगडे वा जाव आसेविते वा णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेतेज्जा । एवं बहवे साहम्मिया एगा साहम्मिणी बहवे साहम्मिणीओ । [६४८] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से ज्जं पुण उवरसत्यं जाणेज्जा ५ एतान् मुनीन् प्रतिज्ञाय. थोडां १ जणाय तेवा उपाश्रयमां जोइ तपासी प्रमार्जन करी त्यारपाद यतनापूर्वक त्यां स्थान शय्या के वेठक करवी. [६४७] वळी जे उपाश्रय मुनिओना माटेज बंधावेलो के राखेलो जणाय, जेमके, ते एक मुकरर समानधर्मी साधुना माटे जीवहिंसापूर्वक बंधायो होय या वेचातो लइ राख्यो होय अथवा भाडे राखेलो होय या झूटावी लइ राखेलो होय या मालेकनी रजा शिवाय राखेणे होय या ते तैयार थइ रहेतां तरत वीजा माणसनी वती मुनिना सामे जइ जणावेलो होय तेवो उपाश्रय अगर तेज देनार धणीए चणेलो हाय या वीजा पुरुपे चणेलो होय तेयज ते देनारे नहि वापरलो होय या वापरेलो होय तोपण तेमां मुनिए तथा आर्याए स्थान शय्या के बेटक नहि करवी. एज रीते घणा मुनिओने या एक आर्या के प्रणी आपाओने उद्देशीने करेला मकानमां पण नहि रहे. [६४८] मुनि अथवा आर्याए जे मकान पणापक ( युद्धमनी) श्रमण, ब्रामण, चन १ नदि जवा only for Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१८ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. अस्संजए भिक्खुपडियाए किवणवणीमए पगणिय पगणिय समुहिस्स पाणाई भूयाइं जीवाइं सत्ताइं जाव वेएई तहप्पगारे उवस्सए अपरिसंतरगडे जाव - अणासेविए णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेतेज्जा अहपुण एवं जाणेज्जा पुरिसंतरगडे जाव आसेविते पडिलेहिता पमज्जिचा ततो संजयामेव ठाणं वा सेज वा णिसीहियं वा चेतेज्जा । (६४९) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जंपुण उवस्सयं जाणेज्जा असंजए भिक्खुपडियाए । काढ़ेए २ वा उकंपिए वा छन्ने वा लित्ते वा घटे वा मढे वा संसट्टे वा संपधूमिए वा, तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरग डे जाव अणासेविए णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेतेज्जा अहपुण एव जाणेज्जा परिसंतरगडे जाव आसेविते, पडिलेहित्ता पमज्जित्ता ततो संजयामेव जाव चेतेन्जा । (६५०) १ उपाश्रयं कुर्यात् सचैवं भूतःस्यादितिशेषः २ काष्टादिभिःसंस्कृतः टेमागें, याचक, के भाटचारणोना माटे करेलु के राखलं जणाय अने ते मकान ते देनार पुरुपेज करेलुं हाय अने हजु वपरायेलं पण न होय तो तेवा मकानमा रहे बुं नहि, अने जो ते देनार पुरुपधी वीजा पुरुपे करेल शेय अने चपरायेल पण होय तो मुनि अथवा आर्याए यतनापूर्वक तेमां रहे. [६४५] जे उपाश्रय मुनिना माटे असंयति गृहस्थोए सुधरा- होय, समराज्यो होय, लीपाव्यो होय, माफ कराव्यो होय के सुगंधित कराव्यो होय तेवो उपाश्रय जो ते देनार पुरुपेज तेम करेलो होय अने सुधराव्या पाद वापरलो पण न होय तो तेमां मुनि तथा आर्याए स्थान शव्या के वेठक नहि करवी. अने जो ते देनार पुरुपयी वीजा पुरुपे, करेलो होय अने वफायेलो पण होय तो यतनापूर्वक त्यां वसवः [६५०] Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अध्ययन अगीयारमुं. [२१९] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से ज्जं पुण उवरसयं जाणेज्जाअस्संजए भिक्खुपडियए खुड्डियाओ दुवारिओ महल्लिआओ कुज्जा, जहा पिंडेसणार, जाव संथारगं संथरेज्जा बहिया णिणक्खु तहप्पगारे उवस्सए अपरिसंतरंगडे जाव अणासेविते णो ठाणं वा सेज्जं वा गिसीहियं वा चेतेजा। अह्मण एवं जाणेजा-पुरिसंतरगडे जाव आसेविते-पडिलेहिता पमज्जित्ता ततो संजयामेव जाव चेतेज्जा । (६५१) से भिक्ख वा भिक्खणी वा से जं पण उवस्सयं जाणज्जा अस्संजए भिक्खुपडियाए उदगपसूयाणि कंदाणि वा, मूलाणि वा, पत्ताणि चा, पुप्फाणि वा, बीयाणि वा, हरियाणि वा, ठाणातो ठाणं साहरति, बहिया वा णिणक्खु-तहप्पगारे उवरसए अपुरिसंतरकडे जाव णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं धा चेतेज्जा । अह पुण एवं जाणेज्जा, पुरिसंतरगडे जाव चेतेज्जा । (६५२) से मिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणेज्जा-अस्संजए १ निस्सारयति जे मकानमाना नाना ओरडाओने मुनिना माटे असंयति गृहस्थ माहोटां करावे अगर मोहटाने नाना करावे अथवा मुनिने माटे अंदर बैठक करे अथवा चाहेर करे तो तेत्रो उपाश्रय जो ते देनार पुरुपेज नेम करेलो अने हज वापरेलो न होय तो त्यां नहि वस, पण जो ते वीजा पुरुपे करेलो अने वापरेलो जणाय ते। त्यां यतनापूर्वक वसा [६५१] जे मकानमाथी गृहस्थ साधुना माटे कंद, मूळ, पत्र, पुष्प, फळ, वीज, के पास वगेरे लीलोतरीने एक ठेकाणेथी वाजे ठेकाणे लइ जाय अथवा बाहेर कहाडे तेषो उपाभय जो ते देनार पुरुष तेम करेलो जणाय तो त्यां नहि रहे, पण जो चीजा पुरुपे तेम फरलो नणाय तो त्यां रहे. [६५२] जे मकानमांची गृहस्थ साधुना माटे बाजोट, पाट, नासरणी के उखळ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२०] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. भिक्खुपडियाए पीढं वा, फलगं वा, णिस्सेणि वा, उदूहलं वा, ठाणातो ठाणं साहरति, बहिया वा णिणक्खु, तहप्पगारे उवस्सए अपरिसंतरगडे जाव णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेतेज्जा । अहपुण एवं जाणेज्जा पुरिसंतरगडे जाव चेतेज्जा । (६५३) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा, तं . जहा;-खधंसि वा, मंचंसि वा, मालंसि वा, पासायसि वा, हम्मियतलंसि वा, अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि अंतलिक्खजायंसि, णणत्थ आगाढा-गाटेहि कारणेहिं २, ठाणं वा सेजं वा णिसीहियं वा चेतेज्जा । (६५४) से आहच्च चेतिते सिया, णो तत्थ सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा हत्थाणि वा, पादाणि वा, अच्छीणि वा, दंताणि वा, मुहं वा, उच्छलेज्ज वा पहोएज्ज वा; णो तत्थ ऊसदर पगरेज्जा, तंजहा;-उच्चारं वा, पासवणं वा, खलं वा, सिंघाणं वा, वंतं वा, पित्तं वा, १ तथाविधात् प्रयोजनादित्यर्थः २ उत्सृष्टं उथलात्रीने एक ठेकाणेथी बीजे ठेकाणे राखे अथवा बाहेर कहाडी मेले तेवो उपाश्रय जो लेनार धणीएज तेम करेल होय तो त्यां नहि वसवू पण जो पुरुपांतरकृत होय तो यतनापूर्वक त्यां रहे [६५३] ' मुनिए के आर्याए थांभला नी टोच पर रहेला मकानमां मांचडाओ उपर के माळ उपर अथवा वीजी भी उपर अथवा अगाशीमां के वीजा कोइ पण आकाशवर्ती मकानमां जरुरी कारणो शिवाय रहे, नहिं [६५४] . कदाच त्यां रहेवू पड त्यारे त्यां थंडा के गरम पाणीधी हाथ, पग, दांव के मुख धोवां करवां नहि. तमज त्यां खरच पाणी के लघुनीत [पिशाव ] नथ श्लेप्म [वडखा], वमन, पित्त, पर, लोही के कोइ पण शरीर संबंधी अशुचि करवी नहि, केमके तेम करता केवळज्ञानिए दृपण वर्णव्यां छे, जे माटे त्यां तेम Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन अगीयारमुं. [२२१] पूर्तिवा, साणियं वा, अन्नतरं वा सरीरावयव । केवली बूया "आयाण-मेयं से तत्थ ऊसढं पगरेमाणे पयलेज वा पवडेज वा। से तत्थ पयलेमाणे पवडेमाणे वा हत्थं वा जाव सीसं वा अन्नतरं वा कायसि इंदियजातं लूसेज्जा पाणाणि वा अभिहणेज्ज वा जाव ववरोवेज्ज वा । अह भिक्खूणं पुचोवदिया एस पइन्ना जाव जं तहप्पगारे उबस्सए अंतलिक्खजाते णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेतेन्जी । (६५५) . से भिक्खू वा भिक्खणी वा से ज्जं पुंण उवस्सयं जाणेज्जा-सइत्थियं सखुट्ट' सपसुभत्तपाणं तहप्पंगारे सागारिए उवस्सए णो ठाणं वा सेज्ज वा णिसीहियं बा चेतेज्जा । आयाण-मेयं भिक्खुस्स गाहावतिक लेण सद्धिं संवसमाणस्स । अलसए' वा विसूइया वा छड्डी वा णं उव्वाहिज्जा अनतरे वा से दुक्खे रोगातके समुप्पज्जेज्जा असंजए कलुणवडियाए तं भिक्खुस्स गातं तेलेण वा, घएण वा, णवणीतेण वा, वसाए वा, १ सबालं क्षुद्रजंतुसहितं वा २ हस्तपादादिस्तभः श्वपथुर्वा करतां कदाच मुनि स्वलित थइ नीचे पही जाय तो तेना हाथपग के माथु अथवा कोइ पण इंद्रियो भांगी नाश पामे अने हेठे आवेला जीव जंतुओनो पण नाश थाय. माटे मुनिने एवी भलामण छ के तेणे आकाशवत्ती मकानमां निवास न करवो ' जे मकानमां घालवच्चा के स्त्रीआ रहेती होय अथवा कूतरा विलाडा विगैरे क्षुद्र जंतुओ रहेता होय अथवा जानवरो रहेतां होय तथा तेमनां खानपान त्यां रखाता होय तेवा गृहस्थना परिचयवाला मकानमां चास न करवो. कारण के तेवा गृहस्थना घरमा बसतां बहु दोष संभवे छे. त्यां रहेला मुनिने त्यां पटेलो दोप ए के कदाच जो साजा: विशुचिका, उल्टी, के कोइ पणं गेग के शुळ विगैरे पीडा उत्पन्न थशे तो त्यां रहेता असंयाति गृहस्थी तरत करुणा लावीन ते मुनिना शरीरन तेल, घृत, माखण के चरवी मसळे के चोपडे, अथवा तो सुगंधि द्रव्या कहें, Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२०] आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर. भिक्खुपडियाए पीढं वा, फलगं वा, णिस्सेणि वा, उदूहलं वा, ठाणातो ठाणं साहरति, बहिया वा णिणक्खु, – तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरगडे जाव णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेतेज्जा । अहपुण एवं जाणेज्जा पुरिसंतरगडे जाव चेतेज्जा । (६५३) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से ज्जं पुण उवरसयं जाणेज्जा, तं जहा; - खंधंसि वा, मंचंसि वा, मालंसि वा, पासायंसि वा, हम्मियतलंसि वा, अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि अंत लिक्खजायंसि, णणत्थ आगाढा - गादेहिं कारणेहिं २, ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेतेज्जा । (६५४) से आहच्च चेतिते सिया, णो तत्थ सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा हत्थाणि वा, पादाणि वा, अच्छीणि वा, दंताणि वा, मुहं वा, उच्छे, लेज्ज वा पहोएज्ज वा; णो तत्थ ऊसदर पगरेज्जा, तंजहा; - उच्चारं वा, पासवणं वा, खेलं वा, सिंघाणं वा, वंतं वा, पित्तं वा, १ तथाविधात् प्रयोजनादित्यर्थः २ उत्सृष्टं उचलावीने एक ठेकाणेधी वीजे ठेकाणे राखे अथवा बाहेर कहाडी मेले तेवो उपा श्रय जो लेनार धणीएज तेम करेल होय तो त्यां नहि वसवं पण जो पुरुषांतरकृत होय तो यतनापूर्वक त्यां रहे [६५३ ] मुनिए के आर्याए भनी टोच पर रहेला मकानमां मां डाओ उपर के माळ उपर अथवा बीजी भों उपर अथवा अगाशीमां के वीजा कोइ पण आकाशवर्त्ती मकानमां जरुरी कारणो शिवाय रहेवुं नहिं [६५४ ] 13 कदाच त्यां रहेवुं पड त्यारे त्यां थंडा के गरम पाणीथी हाथ, पग, दांत के मुख धावां करवां नहि. तेमज त्यां खरच पाणी के लघुनीत [ पिशाव ] तय श्लेप्म [asखा ], वमन, पित्त, परु, लोही के कोड़ पण शरीर संबंधी अशुचि - करवी नहि, केमके तेम करतां केवळ जानिए दूषण वर्णव्यां छे, जे मांट त्यां तेम Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन अगीयारमुं. [२२१] पूर्तिवा, सोणियं वा, अन्नतरं वा सरीरावयवं। केवली बूया "आयाण-मेयं " से तत्थ ऊसढं पगरेमाणे पयलेज वा पवडेज वा। से तत्थ पयलेमाणे पवडेमाणे वा हत्थं वा जाव सीसं वा अन्नतरं वा कायसि इंदियजातं लूसेज्जा पाणाणि वा अभिहणेज्ज वा जाव ववरोवेज्ज वा । अह भिक्खूणं पुवोवदिट्टा एस पइन्ना जाव जं तहप्पगारे उबस्सए अंतलिक्खजाते णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेतेज्जा । (६५५) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से ज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा-सइत्थियं सखुई सपसुभत्तपाणं तहप्पंगारे सागारिए उवस्सए णो ठाणं वा सेज वा णिसीहियं वा चेतेज्जा । आयाण-मेयं भिक्खुस्स गाहावतिकुलेण सद्धिं संवसमाणस्स । अलसएरे वा विसूइया वा छड्डी वा णं उव्वाहिज्जा अन्नतरे वा से दुक्खे रोगातंके समुप्पज्जेज्जा असंजए कलुणवडियाए तं भिक्खुस्स गातं तेलेण वा, घएण वा, णवणीतेण वा, वसाए वा, १ सबालं क्षुद्रजंतुसहितं वा २ हस्तपादादिस्तभः श्वपथुर्वा करतां कदाच मुनि स्खलित थइ नीचे पडी जाय तो तेना हाथपग के माथु अथवा कोइ पण इंद्रियो भांगी नाश पामे अने हेठे आवेला जीव जंतुओनो पण नाश थाय, माटे मुनिने एवी भलामण छे के तेणे आकागवत्ती मकानमां निवास न करवो । जे मकानमा वालवच्चा के स्त्रीओ रहेती होय अथवा कूतरा विलाडा विगेरे क्षुद्र जंतुओ रहेतां होय अथवा जानवरो रहेतां होय तथा तेमनां खानपान त्यां रखातां होय तेवा गृहस्थना परिचयवाला मकानमां वास न करतो. कारण के तेवा गृहस्थना घरमा बसतां बहु दोष संभवे छे. त्यां रहला मुनिने त्यां पहेलो दोष ए के कदाच जो साजा, विशुचिका, उलटी, के कोइ पण रोग के शूळ विगेरे पीडा उत्पन्ने थशे तो त्यां रहेता असंयति गृहस्थी तरत करुणा लावीन ते मुनिना शरीरने वेल, घृत, माखण के चरबी मसळे के चोपडे, अथवा तो मुगंधि द्रव्यो वडे, Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. अभंगेज्ज वा मक्खिज्ज वा सिणाणेण वा ककेण वालोदेण वा वनेण । चा चण्णेण वा पउमेण वा आघंसेज्ज वा उचलेज्ज वा उबट्टेज्ज वा; सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पच्छोलेज वा पहोएज्ज वा सिणाविज्ज वा सिंचेज वा दारुणा वा दारुपरिणाम कट्ट अगणिकायं उज्जालेज्ज वा पयालिज्ज वा उज्जुलित्ता कायं आयावेज पयावेज वा अह भिक्खुणं पुव्योवदिवा एस पतिन्ना जं तहप्पगारे सागारिए छवस्सए णो ठाणं वा सेजं वा निसीहियं वा चेतेज्जा । (६५६) आयाणं-मेयं भिक्खुस्स सागारिए उवस्सए वसमाणस्स;-इहखलु गाहावती वा जाव कम्मकरी वा अन्नमन्नं अकोसंति वा वयंति वा रंभंति वा उद्दवंति वा, अह भिक्खूणं उच्चावयं मणं णियच्छेज्जा:-एते खलु अन्नमन्नं उक्कोसतु वा, मा वा उक्कोसंतु जाव मा वा उद्दवंत । अह भिक्खुणं पुब्बोवदिवा एस पइन्ना जाव जं तहप्पगारे सागारिए उबस्सए णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेतेज्जा । (६५७) । १ (सुगंधिद्रव्यसमुदयः) २ [कषायद्रव्यक्वाथः] ३ लोघं प्रतितं ४ कंपिल्लकादि ५ पद्मं प्रतीतं या उकाळेला क्वाथ जळवडे, या लोद्रवडे या चूर्णवहे या पद्मावडे घशसे के खरडशे; अथवा थंडा के गरम पाणीयी छांटझे, थोशे, नवरावशे, सींचशे, अथवा ला. कडाने लाकडा साथ घसी अग्नि सळगावी शरीरने तपावशे. माटे साधुने एका भलामण छे के तेणे तेवी तरेहना गृहस्थना घरे निवास न करवो [३५६] स्मां वसतां वळी बीजो आ दोप छे. त्यां रहेतां गृहस्वयी पाकर लगीना लोको अरसपरस बोलाचाली करे या मारामारी विगेरे पखेडो को त्यारे में देखी सावुनुं दिल उंचुं याय जेमके “एओ भले लड्या करो अयवा पो लडोभा" से माटे साधुने ए मलापण छे के तणे तेवा मकारमा गृहस्थना घरे निकास न करवो [६५७] Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन अमीआरमु. [२२३] आयाण-मेयं भिक्खुस्स गाहावतीहिं सद्धिं संवसमाणस्स:-इहखलु गाहावती अप्पणो सअटाए अगणिकायं उज्जालेज वा पजालेज वा विजाविज वा, अह भिक्खू उच्च वयं मण णयच्छेज्जा:- एते खलु अगणिकायं उजालेंतुवा, मा वा उज्जालेतु, जाव मा वा विजवेतु अह भिक्खुणं पुव्वविदिवा जाव जं तहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा सेनं वा निसीहियं 'वा चेतेजा । (६५८) आयाण-मेयं भिक्खुस्स गाहावतीहिं सर्हि संवसमाणस्स;-इहखलु गाहावतिस्स कुंडले वा, गुणं । वा, मणी वा, मोत्तिए वा, हिरन्ने वा, कडगाणि वा, तुडियाणि २ वा, तिसरगाणि वा, पालंबाणि वा, हारे वा, 'अहहारे वा, एगावली वा, मुत्तावली वा, कणगावली वा, रयणावली वा तरुणियं वा कुमारि अलंकियविभूसियं पेहाए, अह भिक्खू उच्चावयं मणं णियच्छेजा, “ एरिसिया वा सा, गोवा एरिसिया” इति वा गं बूया, इति वा णं मणं साएजा । अह भिक्खुणं पुव्योवदिवा जाव जं तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा जाव चेतेज्जा । (६५९) १ रसना-मेखलामंडन मितियावत् २ अंगदानि वळी त्यां त्रीजो ए दोप छ के त्यां गृहस्थ पोताना माटे अनि धखावीने चाळे के वधारे त्यारे मुनिनु कदाच दिल उंचं नीचं थाय के आ गृहस्थो भले अनि धखावो, माटे मुनिने एवी भलामण छे के तेणे तेवी जातना मझानमां नहि रहे [६५८] .. मुनिने गृहस्थ साथे वसतां चोधो आ दोप छे-गृहस्थने त्यां कुंडल, कंदोरा, माण, मोती, सुवर्ण, कडा, बाजुबंध, गंठा, सांकळ, हार, अर्धहार, एकावळी, मुक्तावळी, रत्नावळी, विगेरे आभूषणो जोइ अथवा तेना शणगारपी गोभित युवान कुमारिओ जोइ मुनिना मनने विर्तक थाय के मारे घरे पण वधू आबुज हनुं या पारे त्यां आई न हतुं. माटे मुनिने एवी भलामण छ के तेणे. आवे स्थळे न रहे [६५९] Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२४] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. आयाण मेयं भिक्खुस्स गाहावतिहिं सद्धिं संवसमाणस्स:-इह गाहावतिणीओ वा, गाहावतिधूयाओ वा. गाहावतिसुम्हाओ वा, गाहाव- . तिधातीओ वा गाहावतिदासीओ [, गाहावतिकम्मकरीओ वा, तासिं च णं एवं वृत्तपुव्वं भवति:-" जे इमे भवति समणा भगवती जाव उवरतामेहुणातो धम्मातो, णो खलु एतेसि कप्पइ मेहुणधम्म परियारणाए आउट्टित्तए, जा य खलु एतेसिं सद्धिं मेहुणधम्मं परियारणाए आउद्देजा, पुत्तं खलु सा लभेजा ओयस्सि तेयरिंस वच्चस्सि जसस्ति संपहारियं । आलोयं दरिसिणिजं." एयप्पगारं णिग्योसं सोचा णिसम्म तासिं च णं अण्णयरी सदिया तं तवस्सि भिक्खुं मेहुणधम्मपरियारणाए आउटावेजा। अह भिक्खूणं पुव्योवदिट्टा जाव जं तहप्पगारे सागरिए उवस्सए णो ठाणं वा सेज वा णिसीहियं वा चेतेज्जा । (६६०) एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं । (६६१) . ............ १ रुपवंतं २ संग्रामशूरं ३ अभिमुखं कुर्यात् गृहस्थ साथै वसतां पांचमो आ दोप छे, गृहस्थना घरे तेनी ने ओ, अथवा पुत्रीओ अथवा बहुओ, अथवा दाइओ अथवा दासीओ एक वीजामां आई वाले छे के "जे आ स्त्री संभोगथी निवर्तला श्रमण भगवंत होय छे तेओने स्त्रीओ साथे मैथुन कर निपिद्ध छे, पण जो कोइ स्त्री (एमने डगावीन) एमना साथे संभोग करे तो तेणीने बळवान् तेजस्वी रुपवान् यशस्वी अने विजयी पुत्रनी प्राप्ति थाय." आई वोलg सांभळीने कोइ पुत्रनी वांछा धरनारी भोळी स्त्री ते तपखि मुनिने डगावीने तेने पोताना पाशमां पाडे. माटे मुनिने एवी भलामण छे के तेणे एवा स्थळे नहि रहे [६६०]. ए सर्व मुनि अने आयर्नु सदाचरण छ (६६१) Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i अध्ययन after. [ द्वितीय उद्देश: ] गाहावई गायेंगे सुइसमायारा अवंति, भिक्खू य असिणाणाए मोयाममायारे से तदुग्बंधे पडिले पडिलो यावि भवति । जं पुष्वकम्मं तं पच्छाकणं, जं पच्छाकम्मं तं पुष्वकम्मं ते भिक्खुपडियाए बट्टमाणे करेजा वा नो करेजा था । जह भिक्खूर्ण पुव्योवदिट्ठा जाव जं तपगारे उवस्सए जो ठाणं वा जात्र चेतेज्जा । (६६२) [२२५] आयाण मेयं भर गाहावतिहिं सद्धिं संवसमाणरसः - इह दलु गाहारतिर अप्पणी सअट्टाए विरूवरूवे भोयणजाए उवखडिए १ कायिकाव्यापारवान्, कार्यवशात्. न बीजो उद्देश. नेव थता होपो तथा तेणे क्या क्या स्थळे नसे. गृहया ने ही पलो के. घणाएक गृहस्व पालनारा अयान रहित होवाची नया बा यो पण सुनि कर्म करता पापी) अपूर्ण दुर्गे यी ते गुणाला पडे के टी समारोप के से केनन के के ग्राम Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. लिया, अह भिक्खुपडियाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उबक्खडेज्ज वा उवकरेज वा, तं च भिक्खू अभिकखेज्जा भोत्तए वा पीत्तए वा वियट्टित्तए । वा । अह भिक्खूणं पुयोबदिवा जार जं नो तहप्पगारे उबस्सए ठाणं चेतेज्जा । (६६३) आयाण मेयं भिक्षुरस गाहावतिणा सद्धिं संवरूमाणस्स:-इहखलु गाहावतिस्स अप्पणो सयट्टाए विरूबरूवाई दारुयाइं भिन्नपुयाई भवंति, अह पच्छा भिक्खुपडियाए विरूवरूबाई दारुयाइं भिंदेज्ज वा किणेज वा पामिच्चेज वा दारुणा वा दारुपरिणाम कट्ट अगणिकार्य उज्जालेज्ज वा पज्जालेज्ज वा तत्थ भिक्खू अभिकंखेज्ज बा आतावेत्तए वा पयावेत्तए वा बियडित्तए वा । अह भिदखूणं पुयोबदिवा जाब जंतहप्पगारे उबस्लए णो ठाणं चेतेजा। [६६४] से भिक्खू वा भिक्खणी वा उञ्चारपासवणेणं उव्वाहिज्जमाणे रा१ तव विवर्तितुं आसितुं. माटे जूदी जूदी जातवें भोजन तैयार थएट होय छे. अने जो मुनि तेमने त्यां रहे तो मुनिना माटे पण ते गृहस्थ आहार पाणी तैयार करावे. अने वखते मुनि त आहार पाणी खाना पीना के वापरबानी इच्छा पग करे. एटला माटे तने भल.मग छे के तेणे तेका स्थळे सूळचीज न रहेई. [६६३] गृह थो साथ वसतां आटमो आ दोष छ,-गृहस्थने त्यां पोताना मारे घणाएक लाकडाओ कापी फाडी राखेला होय छे. अने जो तेमने त्यां शुनि जइ रहे तो पछी तेना सारं तेओ लाकडा फाडे या वेचातां लावे या उधारे लाय अने वळी लाकडा साथे लाकडं घसीने अमि धरखावे अने तेवे वखते कदाच मुनिने अग्नि पासे तापना करवानी इच्छा उत्पन्न धाय. माटे मुनिन ए भलामण छे के तणे तेवा स्थळे रहे नहि. [६३४] | गृहस्थ साधे वसतां मुनिने नवमो आ दोप छे. ग्रहस्यने त्यां वसता Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... अध्ययन अनीआरसुं. [२२७] ओ वा बियाले वा गाहावतिकुलरस दुवारवाहं अवगणेजा , तेणे य तस्संधियारी अणुपविसेन्जा, तरा भिक्खुरस णो कप्पति एवं वद्वित्तए-- " अयं तेणे पविसइ वा, णो वा पविसइ, उवलियति वा, जो वा उवलियति, आयवति वा, णो बा आयवति, वदति वा, गोवा वदति, तेण हडं अण्णेण हडं, तस्स हडं अण्णस्स हडं, अयं तेणे, अयं उपयरए, अयं हंता, अयं एत्य मकाली, " तं तवस्मि भिक्खू अतेग तेणे-ति सं. कति । अह भिक्खूमे पुश्वोचदिला जात्र णो चेतेजा । (६६५) से भिक्खू वा भिक्खूणी वा से जं पुण उबरसयं जाणेज्जा, तंजहा:-तणंपुजेतु वा पलालपुंजेसु वा सअंडे जाव ससंतागए, तहप्पगारे उवत्सए णो ठाणं वा सेज्जं वा मिसीहियं वा एज्जा । (६६६) १ उद्घाटयेत्. मुनि के आर्या लधुनीत के वडी नीत करवा माटे रात्रिए यत्रा सांज सवारे गृहस्थना घरनो दरवाजा उघाडे ते वखतं कदाच कोइ चार अंदर भरोइ बेशे तो हवं मुनियी तो आयु बोली शकाय नहि के "आ चार पेप्से छे के छपाए छे या दोही आधे छ के बोले छ, अथवा तेगे चोयु के वीजाए चोयु, ते बहत्यतुं चौगयु के वीजा कोइy चोगयुं, आ रयो चोर, आ तो तेनो मददगार, आ रह्यो पारनार, अने एणे बहीं राषटुं कीईं इत्यादि." एथी करीने पाछळ्या ते महरय से तपस्पिनेज चार करी माने छे. मारे मुनिने एवी भलामण छ के नणे ग्राम्यना साथै नदि रहे. (६६५) सुनिने के आर्याने जे मकान घास तथा पराम्ना जय्यामा भाव होवायी गाडा तथा जीवनात रहलु जणाय तेया मकानमा वमणे नदि रंज Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ आचारांग-मूळ तथा थापान्तर. से मिक्स्व वा भिकखणी वा से जं पुण उक्त्तयं जाणेजा-तणपुंजेसुबा पलालपुंजे नु अपडे जाव चेतेजा। [६६७] से आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावतिकुलेसु वा परियात्रसहेमु वा अभिक्खणं अभिक्खण साहम्मिएहिं ओवयमाणेहिं णो ओबएज्जा । [६६८] से आगंतारेसु वा जाव परियावसहेसु वा जे भयंतारो उउबहियं वासाशसियं या कप उबातिणित्ता तत्येव मुजो भुजो संबसंति, अय. माउसो कालाइतकिरिया भवति । (६६९) से आगंतारनु वा जाव परियावसहेसु वा जे भयंतारो उउबहिय वा वासावासियं वा कप्पं उवातिणावेत्ता तं दुगुणात्ति गुणण अपरिहरिता अल्पाव्दोऽभाववचनः २ अवपतेत् ३ ऋतुबद्धं शीतोष्णकालयोासकल्पं. अन जे मकान मात्र के पालना जथ्यागा आवेगुं छतों जीमजतु रहित गाय त्यां निवास करती. [६६७] रळी सुसाफरन्दाना, वंगला, घर, तथा भो के ज्यां वारंवार त्रीमा साधुओ आधी पड़ता होय त्या पण मुनिए नति ज. [६६८] जे मुाने भगवंतो तेवा मुसापारवाना, बंगला, या रगे के मयां एक सहिनो अधवा वन्तुना चार महिना रहा बाद फी वाचार त्यां भारी वरन छ ते आयुनन् , कालानिमोनक्रिया नाये दोपवाली बस्ती जाणत्री. (६०५) जे मुनि भगवती तथा मुसाफारस्याना के मठोमा एक महिना अथवा बारतुना चार महिना रही पाछा ते गुजरला काळयी वाणा ? अयणा बखतनुं अंदर ? जेठन्दो चयन एक गाममा रहेल होय नी याणा के प्रमाण बदतर विणगाने गागमा अवाय. Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन अयार. तत्थेव मुज्जो भुजो संबसंति अय-माउसो इतरा उत्राणकिरिया याधि भवति । [६७० इहखलु पाईणं वा पडणं वा दाहिण वा उदीणं वा संगतिया सट्टा अवंति, तंजहा, गाहाक्ती वा, जाव करमकरीओ वा । तसिं च णं आगारगोयरे णो सुणिसंते १ भवति । तं सद्दहलाहिं तं पत्तियमाहितं रोयमागेहिं बहबे समण-माहण-अतिहि- किया-वणीमए समुढिम्स त. स्थ तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेइआई २ भवंति, तंजहा:-आएलणागि : श, आयतणाणि ४ बा, देवकुलाण वा, सहाओ वा, पचागि वा, पणिय १ सुष्टुनिशांतःश्रुतः २ महांति-कृतानि इति शेष, ३ लोहका रशाळाः ४ देवकुलपार्थापदरकाण. नहि पाडतां तत्तजन्या पाच दार बसे छ, ए है भायमान उमस्थानिया नाम टोपवाली वसति जामवी. (६७०) __ आ जगनां नारे बाज केटलाएक रब नया स्ली भाला अने श्रद्धालु दोय के. तेओने मुनिना आचारनी नाही माहिती नयी. मात्र मानिने बान आपकामांसाफल छ एपी श्रद्धा अन रची पनि देशोणा शमण, वारण, अतिथि, दीन. ना भाट वारणाने ग्वा नांद मंदोदा गान्तों णाव वा केलारना काररवानाओ. देवालयांनी बाजना आरडाओ, देवालया. सभात्री. सपाअदुवानी. बरवाग. याननालालो, वगना काररवानाशेदना काग्वानामो. यातना करताना कवना पारवानाओ, वन विना कारणाम भी पालना पन्न. पानी नती जय मानी 11 - r hurt 111 Firriage . : नाना भरमाने वकीन ली शाहा पाणीनामांकी को माग Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३०] __भाचारांग-मूळ तथा भापान्तर. गिहाणि वा, पणियसालाओ वा, जाणगिहाणि वा, जाणसालाओ, सुधा. कम्मंताणि वा, डव्भकम्मंताणि वा. बद्धकस्मताणि२ वा. वककम्मंताग्नि वा, वणकम्मंताणि वा, इंगालकस्मताणि वा. कटकम्मंतागि वा, सुरााणकम्मंताणि वा, संतिकम्मंताणि वा, सण्णागारकम्मंताणि वा. गिरिकम्मंता वा, कंदराकम्मंताणि वा सेलोक्दाणकम्मंताणि वा, सवणगिहाणि ४ वा, जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि का जाव भवणगिहाणि वा तेहिं ओव-- यमाणेहिं ओवयंति अय-माउसो . अभिकंतकिरिया ५ वि भवति । (६७१) इहखलु पाईणं वा पडीणं वा दाहिणं वा उदीणं वा संतेगतिया सट्टा भवंति-जाव तं रोयमाणेहिं बढे समण-माहण-अतिहि-किवण वणीमए समुद्दिरस तत्थ तत्थ अगारीहिं आगाराइं चेझ्याई भवंति; तंजहा:-आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा। जे भयंतारो तहप्पगा १.सुधाकीतानि सुधागृहाणि २ वाधकर्मातानि ३ पाषाणम्डपगृहाणि ४ हावपि शब्दावेकार्थी ५ अल्प वेषाचेयं अंगारना (अग्निना)कारखानायो, काटना कारखानाओ,स्मशानगृह, शांतिगृह,शून्यबरो, पर्वतना मथाळापर वांधेला घरा, गुफाओ, तथा पापाणना मंडपो विगरे स्थळोआवी जातना सळोमां ते श्रमण ब्राह्मणादिक आवी गया पछी जे मुनिभगवंतो तेमां उतरे छे ते हे आयुष्यमन्, अभिनांतक्रिया नामे दोपवाळी वसति: जाणवी [६७१] आ जगत्मां चार वाजु केटलाएक श्रद्धालु लोको हाय छे तेओ श्रद्धा धी घणा एक श्रमण नाह्मण अतिथि दीन तथा वंदिजनेना मोटे जगाए जमाए उपर जणांवला जूढ़ी जूदी जातनां घरो चणावे छे. तेवा घरोमां रुजु अन्य श्रमणब्राम १ आ वसनि थोडा दोपवाळी शेवाची मुनि सेवे छे, - Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन अगायारसुं.. २३] राई आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा तेहि अणेवियमाणेहिं ओवयंति, अय माउसो, अणभिकंतकिरिया वि भवति ।।६७२ इहखलु पाईणं वा पडीणं वा दाहिणं वा उदीणं वा संतेगइआ सड़ा भवंति, तंजहाः-गाहावई वा जाव कम्सकरी वा । तेसिं च णं एव वृत्तपुत्रं भवति-“जे इमे भवंति समणा भगवंतो सीलमंता जाव उवरया मेहुणाओ धम्माओ, णो खलु एएसिं कप्पति आहाकम्मिए उवस्सए वत्थए; से जाणि इमाणि अम्हं अप्पणो अटाए चेइयाइं भवंति, तंजहाः -आएसगाणि वा जाव भवणगिहाणि वा, सव्वाणि ताणि समणाण णिसिरामो । अवियाई वयं पच्छा अप्पणों सयेद्वार चेतिस्सामो, तंजहा:-आएसंयाणि वा जाव भवणगिहाणि वा ।" एयप्पगारं णिग्धोसं सोचा णिसम्म जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि या उवागन्छति, उवागच्छित्ता इतरातरेहिं पाहुडेहिं २ वट्टति, अय-माउसो, वजकिरिया वि भवति । (६७३) १ वसितुं २ प्राभूतेषु दत्तेषु गृहेपु. णादिया नहि आवी गएला छतां जे मुनि भगवंतो उतरे ते हे आगुप्यन् अनभिनालभिया नामे दोपवाळी वसति जाणवी [६७२] । __आ जगत्मा यात्रु केटलाएका अदालु जीवो होय छे तेओ आम बोले ल-"जो आ मैगन-कर्मथी निवतीने शीळवंत पापा भगवंत पगला होय छ तभाने तेजोनाज माटे करेगा मकानमा उतमु निषि, छे. माहे जे आपण आरणा गारे बनायेलां घरो में ते नेमने आषी देश भने भापणे पाछा आपणा गाट नयां वनाची लशु." भाचो अवाज सांभवी ने सनि भगवाना संवा घगे तरफ जाय छे अंने त्यां रहे, ते है ओयुप्मन्, पयक्रिया नामनी दीपाली चासति जाणवी. [६७६] Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग - मूळ तया भाषान्तर सङ्क्रा 1 इहखलु पाईणं वा पडीणं वा दाहिणं वा उदीणं वा संतेगइया भवंति । तेसिं च णं आयारयोयरे णा सुणिसंते भवइ, जाव तं रोयमाणेहिं बहवे - समण - माहण - अतिहि - किवण - वणीसए पगणिय पगणिय पमुद्दिस्स तत्थ तत्थ अगारिहिं अगाराई चेड्याइं भवति, तंजहाः - आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा । जे भयंतारो तह पगाराई आएसणाणि वा जाव णगिहाणि वा उवागच्छंति इतरातरेहिं पाहुडेहिं वइंति, अय- माउसो, महावज्जकिरिया विभवइ । (६७४) [२२] इहखलु पाईणं वा पडीणं वा दाहिणं वा उदीर्णवा संतेगइया सड्ढा सर्वति, जाय तं रोयमाणेहिं बहवे समण जाए समुद्दिस्स तत्थ तत्थ अगारीहिं अगाराई चेहयाई भवंति तं जहा; - आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा । जे भयंतारो तहप्पगाराई आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा उवागच्छंति इयरायरेहिं पाहुडेहिं वट्टति, अय- माउसो सावज्जकिरिया विभवइ । ( ६७५) जाळु जीवो य के तेमने मुनिना श्रद्धा धरीने घणा गण बाण निर्धार करने यानी चणी राखे के क्रया या जगत्यां चार वाजु केलाएकक आचारनी कशी माहित नथी होती तोपण अतिथि दीनता ने घाटे छू व मकानों तरफ जे युधि जईन रहे छे ते हे आन नामना दोषपाळी वरात जाणती [६७४] या जगदां चारे argenएक भी वा एक मुनिओनाउने करी तेगना सारी मकान कागज मुनिश्री ने बसदि नागरी. [३७] आम जीवो दोष छे, तेया व ना या गेrपवाळी Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन अगीआरमुं. (२३३] इहखलु पाईणं वा पडीणं वा दाहिणं वा उदीणं वा संतेगइया सड़ा भवंति, तंजहा:-माहावह वा जाव कम्मकरी वा । तेसिं च णं आयारगोयरे णो सुणिसंते भवति, जाव तं रोयमाणेहिं एवं समणजायं समुहिस्स तत्थ तत्थ अगारिहिं अगाराइं चेइयाइं भवंति, तंजहा:-आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा महया पुढविकायसमारंभेणं एवं महया आउ- तेउ-बाउ-वणस्सइ-तसकायसमारंभेणं, महया संरंभेणं महया आरंभेणं, महया विरूवरूवेहिं पावकम्मेहि, तंजहा:-छायणओ, लेवणओ, संथारदुवारपिहणओ, सीतोदए वा परिदृवियपुवे भवति, अगणिकाए वा उज्जालियपुवे भवति । जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा उवागच्छति, इतरातरेहि पाहुडेहिं वटुंति, दुपवखते कम्म सेवंति, अय-माउसो, महासावज्जकिरिया वि भवइ । (६७६) इहखलु पाईणं वा जाव तं रोयमाणेहिं अप्पणो सयट्टाए तत्य तत्य अगारिहिं अगाराई चेइयाई भवंति, तंजहा:--आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा महया पुढविकायसमारंभेणं जाव अगणिकाए वा उज्जालियपुचे भरति, जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव में एज रीते जे मकान एकला नेज मुनिने उद्देश गृहस्य कायना जीवनी हिंसा करीन तथा लीपण गुंपण जळ छंटन अग्निज्वालन विगैरे अनेक पाप कर्म करीने तयार करेलं होय त्यां जड़ मुनि रहेछ तेयो देसीता माथु छतां परमार्थ गृत्स्य वा सवाथी दिपक्षी काम करे रे. माटे ते महासावध नामना नेपाली वसनि थाय . [६७६] आ जगदमा चारे याग पदेना श्रद्धाट जने,ने अनेक पाप करी पानाना पप मारे चणेला नागरगान के मकान मां ने मुनि-भासानो जाने रहे निश्री Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळ तथा भापान्तर. वणगिहाणि वा उवागच्छंति इतरातरेहिं पाहुडेहिं वटंति, एगपक्खं ते कम्मं सेवति, अय-माउसो अप्पसावज्जा किरिया वि भवति । (६७७) एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं । (६७८) [ तृतीय उद्देशः] ___“ से य णो सुलभे फासुए उंच्छे २ अहेसणिज्जे । णो य खलु सुडे इमेहिं पाहुडेहिं तंजहाः-छायणओ, लेवणओ, संथारदुवार १ गृहस्थं प्रति मुनिवाक्य मेतत् २ छादनादिदोषरहितः ३ पा पोपादानकर्मभिः साधुपणा रुप एक पक्षना कामनेज करनारा छे. तेमनी वसतिने अल्पनिया (क्रियादोप रहित) बमति जाणवी. [६७७] (ए नव जातनी वसतिओयां अभिक्रांतक्रिया नामनी वसति अने अल्पक्रिया नामनी वसति मुनिने उतरवा योग्य छे) वाकीनी वसति अयोग्य छे ए सर्व मुनि तथा आर्यानो आचार छे. [६७८] बीजो उद्देशः] (मुनिए क्या स्थळे रहे-क्या स्थळे न रहे.), (जो कोई गृस्य मुनिने कहे के अही आहार पाणी मुलभ छ माटे रहेपानी कृपा करो ते मुनिए आ प्रमाणे तेन कहेवू:-) "सबछं सुलभ उता पण Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन अगीयारमुं. पिहणओ, पिंडवायेसणाओ । सेय भिक्खु चरियारए ठाणरए निसीहियारए सज्जा-संथार-पिंडवातेलणारए, " संति भिक्खुगो एव मक्खाइणो उज्जुअडा णियागपडिबन्ना अमायं कुचमाणा वियाहिया। (६७९) संतेगइआर पाहुडिया उक्खित्तपुव्वा भवति, एवं णिदिखत्तपुव्वा भवति, परिभाइय पुव्वा भवति, परिमुत्तपुब्बा भवति, परिधावियाच्या भवति । एवं वियागरेमाणे समियाए वियागरेति ? हता, भवति । (६८०) १ भिक्षवः २ संति केचन ये एवंमृतां छलनां कर्यर्यथा ३ दानार्थ कल्पिता वसतिः निदप जग्या पळची मुभल छे. कारण के तेमा मुनिन माटे छत करी हो या. लीप्यु यु हो या वटकना फेरफार कर्यो हंग या दरवाना कमाउन मोटा कर्या हो वळी कढाच त्यां रहेनां मुनि ने जग्याना मालेकना यावी मामातर दोपने गळया आहारपाणी न ल्ये त्यारे ते मालेक कोपाय पान पण यायः न्यादि अनेक दोष संभवे छे. अने कहाच ए पोयी गति मकान मळे तोपण मुनि ना खपने अनुज मकान गळ, मुरकेलन के कारण के नेत्राने तो बसने फरचा, होय छ, वरदते स्थिर देसवातुं सोय , बवते अभ्याल कखानु राय छ, बरखते स्वान होय है, अंने बखन गोचरीप जवातुं गेय हे. माटेगवी वाचनमा समऊ पनुं मकान महुँ दलभन छ." आने केटयाएक सरळ मुमुक्ष मुनिश्री निफरटपणे वसतिना दोष कही बनाये छ. [६७५) घणीएक मेला केटापक गृहन्यो मुनिना गाटेज मकान बांधीने मुनि प्रा. गट भावी छ जना छ, जनके भा मवान तो में पारा सारंज व स , क . के वायु के. माटे मुनिष पनीरनारी भर नहि. जे मुनि मायाणे वनिना बोले गृटम्याने काही बना ले ने गमाग गान का उलंगन नयी. [६८० Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३६] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. से । भिक्खू वा भिक्खुणी वा से ज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जाखुड्डियाओ, खुड्डदुवारियाओ, नीयाओ, संनिरुद्धाओ भवंति-तहप्पगारे उवस्सए राओ वा वियाले वा णिक्खममाणे वा पविससाणे वा पुरा हत्येण पच्छा पाएण ततो संजतामेव णिक्खयेज्ज वा पविसेज वा। केवली बूया “ आयाण मेयं । " जे तत्थ समणेण वा माहणेण वा छत्तए वा, मत्तए वा, दंडए वा, लट्टुिआ वा, भिसिया वा, चेले बा. चिलिमिली ४ वा, चम्मए वा, चम्मकोसए वा, चम्मच्छेदणए वा, दुब्बद्ध दुम्णिक्खित्ते अणिकंपे चलाचले; भिक्खू च राओ वा चियाले वा जिक्रखम्ममाणे वा पविसमाणे वा पयलेज वा पवडेज्ज वा। से तत्थ पयलेमाणे वा पवडेमाणे वा हत्थं वा पायं वा जाव इंदियजायं वा लूसेज्ज बा पाणाणि पा भूयाणि वा जीवाणि वा सचाणि वा अभिहणेज वा जाव ववरोवेज्ज वा । अह भिक्खूणं पुब्बोवदिवा जाव जं तहप्पगारे उवर ए १ कार्य क्शात् चरकादिभिः सह संवासे विधि रयं यथा से भिक्खू वेत्यादि. २ अन्यथेति अध्याहार्य । ३ (कमंडलुः) ४ यवनिका ५ पार्णित्रं कारणयोगे मुनिए चरक तारस विगेरेओना साथै एकज मकानमा रहेता ते । मकान जो घणुं नानुं नीचं के सांकडे होय तो तेवा मकानमा रातत्रिराते नीकळतां के पेसतां पहेला हाथ आगळ करी पछी पग आगळ धरीने यतना पूर्वक नीकळवू के पेसवू. एम कर्या शिवाय केवळजानिओ कहे छे के दोपपात्र धवाय छे कारण के त्यां रहेला चरक तापसादिकोना ग्रामणोना छत्र, पात्र, दंड, लाकडी, कमंडलु बत, पडदा, चामडा, पगर, के चर्म कापवाना इ आरो आम तेम रखडता पडेला होय छे, अने साधु जो वातविराते त्यांची उपर जणावेली रीत वापर्या शिवाय आव जाव करे तो त्यां पड़ी के आवडीने हायपग के कोइ पण गरीग्नो अवयव Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययम अगीयार,. [२३७] पुरा हत्थेणं पच्छा पाएणं ततो संजयामेव णिक्खमेज वा पविसेज्ज वा। (६८१) से आगंतारेसु वा अणुबीइ उवस्सयं जाएज्जा । जे तत्य ईसरे जे तत्थ समाहिए, ते उबस्सयं अणुण्णवेज्जा:-" कामं १ खलु आउसो, अहालंदं अहापरिण्णातं वसिस्सामो, जाव' आउसंतो, जाव आउसंतरस उवस्सए, जार साहम्मियाए, तावता उबस्सयं गिहिस्सामो. तेण परं विहरिस्सानो । (६८२) से सिक्न वा भिक्षुणी वा अस्सुवस्सए संवसेज्जा तस्स णामगोयं पयामेव जाणेज्जा । तओ पच्छा तम्स गिहे णिमंतेमाणस्स अणिमंते १ तवेच्छया २ अन्न यावच्छब्दो नातिदेशे किंतु परिमाणार्थे तावता संवद्धश्वास्ति. खोइ घेश तथा तेय पना जीवजंतुनी पण विराधना धाय माटे मुनिने ए भलाषण छे के तेणे एवे ममंगे पेहेला हाथ आगळ करी पछी पण आगळ घरवा. [६८१] मुनिए मुसाफरखाना, वंगला के घरो मागी लेवामां घणं,सावचेत रहे. लेओनो जे मालेक अथवा कवनेदार मुखत्यार होय तेनी आप्रमाणे रजा लेवी" युप्मन् जो तमारी छा हो। तो तमारी रजाना अनुसारे अमे अत्रे एक माम के चार माम रहीश, अगर एटलो घग्दत आपनी अहिं स्थिरता दो ती ज्यां लगी आप अी दशा अश्या व्यां बुधी आपने करने आ मकान स्टो त्या सुपीन अमे एवं रही. (पाच गृहत्स्य पृछे थे तभे केटलानण अहीं रहेगो ना मुनीए संख्या नियम न पाइयो किंतु आ पगाण करें-) टला मुनिश्री भावंगे पटला रहीशु [६८२] मुनि अधया प्रारीण जना मकानमा टेवे से धणीना नायटाम पटीन जाणी लेवा. अने न्यार बाद लेना घरची निमंत्रण उना के न ना भशुद्ध आहा Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-सूळ तथा मापान्तर. माणस वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइ वा असायं जाव णो पडिग्गाहेजा । [६८३] से भिक्खू वा भिक्खणी वा से ज्जं पुण उबस्सयं जाणेजा-ससागारियं सागणियं सउदयं णो पण्णरस णिक्खनणपवेलणाए जो पण्णस्स वायण जाब चिंताए-तहप्पगारे उबस्सए णो ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेतेज्जा । [६८४] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से ज्जं पुण उबस्सयं जाणेज्जागाहावइकुलस्त मझ मज्झेणं गंतु पएपएपडिबद्धं णो पण्णस्स णिक्खमण जाव चिंताए तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं या चेतेज्जा । [६८५] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुणं उबस्सयं जाणेजाइह खलु गाहावई वा जाव कम्मरीओ वा अण्णमण्ण-मकोसंति वा जाव उद्दति वा, णो पण्णस्य जाब चिंताए, तहप्पगारे उबस्सए णो ठाणवा जाव चेतेज्जा । [६८६] रपागी ग्रहण नहि करवां [ ६८३ ] मुनि अथवा आर्याए जे मकान, अभि तथा पागीना प्रचारवाळू जणाय अने तेथी तेमां नीकळg पेस के पांचवा भगवान करवू मुश्केली भरे जणाय तो त्यां नहि रहे. [६८४] मुनि अथवा आर्याए जे मकानमा गृहस्थना घानी अंदरथी जातुं होय ने तेथी नीकळवा पेशवानी तथा भणवा गणवानी अटचण पडती मालय पडे तो त्यां नहि रहेधु. [६८५] मुनि अवदा आयाए के मकानमा गृहस्यों के चाकरडीनी अरसपरस वाला चाली के मारामारी करना जणाय तवा मकानों पण नीकाळा-शानी तथा भणवा गणवानी अडचण पडती होवाथी नहि रहे. [ ६८६] Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययनं अगीयार,. [२३९] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से ज्जं पुण उबस्सयं जाणेज्जा, इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा अण्णमण्णस्स गायं तेल्लेण वा वा घएण वा णत्रणीएण वा वसाए वा असगेति वा मक्खेति वा णो पण्ण___ स्स जाव चितार-तहष्पगारे उबस्सए णो ठाणं वा जाव चेतेज्जा । [६८७] से भिक्खू वा भिक्खुगी वा से ज्जं पुण-उवस्सयं जा. णेजा-इहखलु गाहावई वा जाब कामकरीओ वा अण्णम णस गाय सिणाणेण वा कलेण वा लोदेण वा वण्णेण वा चुण्णेण वा पउमेण वा आघसंति वा पसंति वा उव्वदिति वा जो पण्णस्स णिक्खमण जाव चिं. ताए-तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा जाव चेतेज्जा । [६८८] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से ज्ज पण उवसस्यं जागेज्जा-इहखलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा अण्णमण्णस्स गायं सीओदगवियडेण मुनि अथवा आर्याए जे मकानमा गृहस्थो के चाकरडीओ अरसपरसना शगरने तेल, घृत, माखग, के चाबी मशळता होय के चोपडता होय तेवा मकानमा उपर मुजक्नी अडचण पडती होवाथी नहि रहेई. [६८७] मुनि अथवा आर्याए जे मकानमा गृहस्थ के चाकरडीओ एक एकना शरीरने खुशवोदार चीजो, कसायली चीजोना क्वाथ, लोद्र, वर्गक, चुर्ण के पद्मक विगेरे साबुना गुण धरावनार चीजो घसता मशळता के मेल उतारता होय त्यां पण नीकळया पेसवामां तथ भणवा गणवामां अडचण पडती होवाथी निवास न करतो. [६८८] मुनिए अथवा आर्याए जे मकानयां गृहस्थो के चाकरडी एक-धीजाना शरीरने थंडा के गरम पाणीथी छांटता होय, धोता होय, पखाळता होय, के ? Astil.gent Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४० ] आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर वा उसिगौदगवियडेण वा उच्छोलिंति वा पधोर्वेति वा सिंचंांति वा सिणा वैति वा णो प णस्स जाव णो ठाणं वा जाव तेजा । [ ६८९ ] से भिक्खु वा भिक्खुणी वा से ज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा इहखलु गाहायई वा जाव कम्मकरीओ वा णिगिना ठिता णिगिणा उबलीणा मेहुणधम्मं विण'वेंति' रहस्तियं वा मंतं मर्तेति णो पण्णस्त जाव णो ठाणं वा जाव चेतेज्जा । [ ६९० ] सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा मे ज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा आइणसंलेखं २, णो पण्णस्स जाव चिंए जाव णो ठाणं वा से ज्जं वा निसीहियं वा चेतेज्जा । [६] १ कथयति. २ चित्राक ——|| @ R &||——— नवरावता होय त्यां पण जवा आवानी तथा भणवा गणवनी अडचण रहेली Frater उतरं नहि. [ ६८९ ] मुनि अथवा आर्याए जे inrani गृहस्थ अear चाकर-चाकरडीओ नम थड़ने खुल्ला के छाना मैथुन करवा वावतनी वातो करता जणाय अथवा बाजी कई पण छूपी अकार्य संबंधी गुप्त वात करता जणाय त्यां पण भणarrearni पडती अडचण तथा पोताना मनमा उत्पन्न यती कामवासना विगेरे अनेक दोपनो संभव होवाथी नहि रहें. [ ६९०] मुनि अथवा आर्याए जे मकानयां विरूप चित्रां पाडेल होय तेवा यकानमः पण पूवानुभूतं कामक्रिडाना स्मरणादिकन संभव होवानी नहि रहे [ ६९१] Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन अंगीयारमुं. २४१] से मिक्खू वा भिक्खणी वा अयिकखेज्जा संथारं । एसित्तए :-। - से ज्जं पुण संथारयं जाणेज्जा सअंडं जाव संताणगं तहप्पगार संथारगं लाभे संते जो पडिग्गाहेज्जा । (६९३) - से भिक्खू वा भिक्षणी वा से ज्जं पुण संथारयं जागेज्जा अप्पंडं जाव संताणगं गरुयंतहप्पगारं : लाभे संते णो पडिग्गाहेज्जा । (६९४) से भिक्खू वा भिक्षुणी वा सेज्जं पुण संथारयं जागेज्जा अप्पंडं जाव संताणगं लहुयं अप्पडिहारियं तहप्पगार सेज्जासंथारयं लाभे संते यो पडिग्गाहेजा। [६९५] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से ज्जं पुण संथारगं जाणेज्जा-अ. प्पडं जाव संताणगं लहुयं पडिहारियं णो अहाबद्धं-तहप्पगारं लाभे नेणो पडिग्गाहेज्जा । (६९६) १ फलकादि २ अप्रतिहारुकं गृहस्थेनपुनरनादीयमानं संस्तारक एटले सूवानी शय्या ते केवी लेवी ? मुनि तथा आर्याने ज्यारे संस्तारक (सूबानी शय्यानी ) जरूर पडे त्यारे तेमणे आ रीते वर्तवू. [ ६९२ ] जे संस्तारक झीणा इंडां के जीवजंतु सहित जणाय ते न लेबु. [६९३] जे संस्तारक जीवजंतु रहित छतां माहो? जगाय ते पण न लेबु. [३९४] जे संस्तारक जीवनंतु रहित तथा नातुं छतां पण गृहस्थ ते पार्छ राखवा ना पाडतो होय तो ते पण न लेवू. [६९५ ] जे संस्तारक निजीब नातुं ने गृहस्थे पलेवा कबूल करेलु होवा छता वरोवर गोठवायेलुं न होय ते पग नहि ले. [६९६] Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२]. आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से ज्जे पुण संथारयं जाणेज्जा-अ. प्पडं जाव संताणगं लहुये पडिहारिये अहावडं-तहप्पगारं संथारगं जाव लाभे संते पडिग्गाहेज्जा। (६९७) इच्चेयाइं आयतणाई उवातिकम्म । अह भिक्खू जाणेज्जा इ. माहिं चरहिं पडिमाहिं संथारगं एसित्तए; तत्थ खलु इमा पढमा पडिमाः -से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा उदिसिय उद्दिसिय संथारगे जाएज्जा, तंजहा; इक्कडे वा, कटिणं २ वा, जंतुय' वा, परगं४ वा, मोरगं वा, तणं वा, कुसं वा, कुचगं ५ वा, पव्वगं वा; पिप्पलगं वा, पलालगं वा; से १ संस्तारको ग्राह्यइतिशेषः २ वंशकटादि. ३ जंतुझे तृणविशेपोतने ४ येन तृणेन पुष्पाणि पथ्यंते ५ येन कूर्चकाः क्रियते ६ एतेच जळप्रधानदेशे सार्द्रभूम्यंतरणार्थ मनुज्ञाताः मात्र जे संस्तारक निजीव नातुं गृहस्थे पाई लेवा कबूल करो अने परावर गाठवेलं होय ते मळे तो मुनि के आर्याए ग्रहण कर. [६९७] (संरतारकनी चार प्रतिज्ञाओ) मुनिए उपर मुजव दोपो टाळीने आ चार प्रतिज्ञाओवढे संस्तारक लंबा गरिख त्यां पहेली प्रतिज्ञा आः-मुनि अथवा आर्याए इक्कडर्नु पाथरपुं, सादडी, जंतुक नामना घासतुं पाथरणं, फूल गुंधवाना घासद् पाथरपुं; मोरना पीछार्नु पाथरपुं, तुणतुं पाथरपुं, दर्भ, पाथरणं, शर नामना रोपानुं पावर\, गांगेनुं पाथरगुं, पींपळना पान- पाथरपुं, के पराळनुं पायर', इत्यादिक पायरणाअ.माधी गमे ते एकनुं मुकरर नाम लइने मागणी करवी. शरुआतमांज मुनिए कहे के "हे आयुप्मन्, अथवा वेहेन, आ सस्तारकोमांधी अमुक संस्तारक मने आपशो ? .. आ पायरणाओ जळभरपुर देशमां लीली जर्मन ढांकवाने मुनि ग्रहण करे छे. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन अगीयारं. [२४३] पुव्वामेव आलएज्जा " आउसो त्ति वा, भगिणी ति वा, दाहिसि मे एतो. अण्णयरं संथारगं ? ” तहप्पगारं सयं वा णं जाएज्जा परो वा से देज्जा फासुयं एसणिज्जं लाभे संते पडिग्गाहेज्जा । पढमा पडिमा । ( ६९८ ) अहावरा दोच्चा पडिमा:-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा पैहाए पेहाए संथारगं जाएज्जा, तंजहा; गाहावई वा जाव कम्मकरी वा पुव्वामेव आलोएज्जा " आउसो ति वा भगिणि ति वा, दाहिंसि मे एत्तों अण्णयरं संथारगं ? " तहप्पगारं संथारगं सयं वा णं जाएज्जा परो वा. से देज्जा फासयं एसणिज्जं जाव पडिंग्गाहेज्जा । दोच्चा पडिमा ! (६९९ अहावरा तच्चा पडिमा :- से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जस्सुवस्सए संवसेज्जा, जे तत्थ अहासमण्णागते, तंजहा; इकडे वा जाव पलाले वा; तस्स लाभे संवसेज्जा; तस्स अलाभे उक्कुड्डए वा निसज्जि ए वा विहरेज्जा तत्वा पडिमा । ( ७०० ) एते पोते मागी लें, या बीजाए आपवानुं करतां ग्रहण कर, ए पेहेली प्रतिज्ञा • [६९८] बीजी प्रतिज्ञा आ प्रमाणे छः-मुनि अथवा आर्याए गृहस्थ के तेना चाकर नकर पासे पोताने जोइतं संस्तारक पोताने दृष्टिगोचर थाय तोज ते मागवं. तेणे शरुआतमांज कहेतुं के “हे आयुष्मन् अथवा वेहेन, आ. संस्तारकोमांथी मने संस्तारक आपशो?" ए रीते तेवी जातनुं संस्तारक जाते मागी लें अथवा गृहस्थ पोते आपका मांडे तो निर्दोष जाणी ग्रहण कर- ए. बीजी प्रतिज्ञा. [६९९ ] त्रीजी प्रतिज्ञा आ प्रमाणे:-मुनि अथवा आर्याए पोते जेना मकानमनि-वास कर्यो होय. तेने त्यांथीज जो कई संस्तारक मळी आवे तो ते ग्रहण करव अने जो नहि मळे तो (आखी रात) उत्कुट्टक आसने? अथवा पलांठी जाळी बेशी करीने गुजारवी- ए त्रीजी प्रतिज्ञा [ ७०० ] १ वे घुटणपर उतस्त बेशीने. Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४४ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. ___ अहावरा चउत्था पडिमा:-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उहा - थड-मेव संथारगं जाणज्जा, तंजहा, पुढविसिलं वा, कसिलं वा अहा- . संथडमेव; तस्स लाभे संवसेज्जा; अलाभे उक्कुडए वा निसञ्जिए वा विहरेज्जा । चउत्था एडिमा । (७०१) . इच्छोयाणं चउएहं पडिमाण अण्णयर पडिम पडिबजमाणे तं चेव जाव अन्नोन्नसमाहीए एवं च णं विहरति । (७१२) से भिक्खू वा भिक्खुशी वा अभिकंखेज्जा संथारं पञ्चप्पिणितए, से ज्जं पुण संथारगं जाणेज्जा सअंडं जाव संताणगं तहप्पगारं संथारंग णो पञ्चप्पिणेज्जा । [७०३]] से भिक्खू वा भिखुणी वा अभिकखेज्जा संथारगं पन्चप्पिणित्तए; से ज्जं पुण संथारगं जाणेज्जा अप्पडं जाव संताणगं, तहापगारं संथार', चोथी प्रतिज्ञा आ प्रमाणे:-सुनि अथवा आर्याए जे पत्थर के हार्नु संस्तारक यथायोग्य पणे पाथरेलुंज मळी आवे लेनापर रहे. अगर तेष नहि पळे तो (आखी. रात) उतरत आसने के पलांठी वाली वेशीने गुजारवी. ए चोधी प्रतिज्ञा. [७०१] ए चारे प्रतिज्ञाओगांनी कोइ पण प्रतिज्ञाने स्वीकार करता मुनिए वीजा मुनिने कोइ वखते पण धिक्कारई नदि. कारण के तेओ सर्वे परस्परनी समाधिथी जिनाज्ञामा रही सरखापणे रहेला छे. [७०२] . ' ' 'मुनि अथवा आर्याए ज्यारे लीधेलं संस्तारक गृहस्थने पार्छ आप पडे त्यारे जा ते संस्तारक इंडों के झीणा जीवजंतुवालु जणाय तो ते पार्छ नहि आप. [७०३] .. किंतु ज्यारे ते इंडा के जीवजंतु रहित जणाय. त्यारे जोइ तपाशी प्रमार्जन Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन अगीआरमुं.. .. [२२५० पडिलेहिय पडिलेहिय पमज्जिय पमज्जिय आयाविय आयाविय विणिधू, णिय विणिधूणिय तओ. संजयामेव पच्चपिणेज्जा। [७०६] . से भिक्खू वा भिक्खुणी वा समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगाम दूइज्जमाणे पुवामेव णं पण्णस्स उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेज्जा । केवली' बूया “आयाण मेयं” । अपडिलेहियाए उच्चारपासवणभूमीए भिक्खू वा भिक्खुणी वा, राओ वा बियालेवा उच्चारपासवणं परिवेमाणे पयलेज्ज वा पवडेज्ज वा । से तत्थ पयलमाणे वा पवंडमाणे वा हत्थं वा पायंवा जाव लूसिज्जा, पाणाणि वा जाव ववरोवेज्जा । अह भिक्खूणं पुव्योवदिदा जाव जं पचामेव पण्णस्स उच्चारपासवणभूमि पडिलेहज्जा । से भिक्खू वा भिवखुणी वा असिकंखेजा सेज्जासंथारंगभूमि प१ अन्यथेतियोज्यं करी तडकामा तपाची तपावी (यतनाथी) झाटको झूटकीने त्यारवाद यतना पूर्वक । गृहस्थने पाएं आप. [७०४] . . . मुनिए के आर्याए कोइ पण स्थळे रहेतां के ग्रामानुग्राम फरतां शरुआतमी त्यां खरचुपाणीनी भूमि जोइ तपाशी राखवी. नहि तो ते दोप पात्र थाय छै एम केवळज्ञानीए जणाव्यु छे. कारण वगर तपाशेली जग्यामां मुनि के आयो रातविरात वडीनीत के लघुनीत छंडता थका पढे के आखडे तो हाथपग के इंद्रियनो पण भंग थइ जाय तथा जीवजंतुनी विराधना धाय. माटे मुनिने एवी भलामण छे के तेमणे प्रथमचीज ने जगा जोइ तपाशी रावची. [७०५] :.:..; मुनि अथवा आर्याए सुवा माटे अगाउथी जमीन तपाशी राखी अने एने . Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४६] आचागंग-मूळ तथा मापान्तर डिलोहियए, पणत्थ आयरिएण वा उवज्झाएण वा जाव गणावच्छेइएण वा वुद्वेण वा सेहेण वा गिलाणेण वा आएसेण वा अंतेण वा मझेण वा समेण वा विसमेण वा पवाएण वा निवारण वा तओ संजयामेव पडिलेहिय पडिलेहिय पमन्जिय पमज्जिय बहुफासुयं सेज्जासंथारगं संथ. रेन्जा । [७०६] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुफासुयं सेज्जासंथारगं संथरित्ता अभिकंखेज्जा बहुफासुए सेज्जासंथारर दुरुहित्तए । [७०७] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुफासुए सेज्जासंथारए दुरुहमाणे से पुवामेव ससीसोवरियं कायं पाए य पमज्जिय पन्जिय ततो संजया.. मेव बहुफासुए सेज्जासंथारगे दुरुहित्ता तओ संजयामेव बहुफासुए सेज्जासंथारए सएज्जा । [७०८] १ प्राघूर्णकेन वा २ इतः सप्तम्यर्थ तृतीया. प्रसंगे आचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक, तथा वृद्ध, वाळ, विमार के माहणा . मुनिना माटे रखायली जगा छोडी वाकीनी बीनी जगामां छेडे के वच्चमां सरखी जमीनमां के खरबचढीमां बहु पवनवाळीमां के पवन विनानीमां मुनिए. यतना पुर्वक जोइ तपासी पुंजी प्रमार्जीने निर्जीव शय्या पाथरवी. [७०६] मुनि के आर्याए उपर जणाच्या मुजव निर्जीव शय्या पाथरीने तेवी शय्यामां आळोटवा चहा. [७०७] . मुनि अथवा आर्याए शय्या पर सूती वरखते शरुआतमाज मस्तकी पग लगीना शरीरने प्रमाजा माजीने यतना पूर्वक ते शय्या उपर शयन करवं [७०८] Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन अगीयार,. [२४७] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुफासुए सेज्जासंथारए सयमाणे जो अण्णमण्णस्स हत्येण हत्थं पाएण पाय काएण कायं आसाएज्जा । से. अणासायमाणे तओ संजयामेव बहुफासुए सेज्जासंथारए सएज्जा । (७०९) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा ऊससमाणे वा णीससमाणे वा कासमाणे वा छीयमाणे वा जंभायमाणे वा उड्डाए वा वातणिसग्गे वा करेमाणे पुव्बामेव आसय वा पोसयं वा पाणिणा परिपिहित्ता तओ संजयामेव ऊससेज वा जाव वायणिसग्गं वा करेज्जा । (७१०) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा, समा वेगया सेज्जा भवेज्जा, विसमा वे गया सेजा भवेज्जा, पवाता वेगया सेजा भवेजा, णिवाता गया सेजा भ-. वेजा ससरक्खा वेगया सेजा भवेजा, अप्पससरक्खा वेगया सेज्जा भयेजा, सदसमसगा वेगया सेजा भवेजा, अप्पदंसमसगा बेगया सेज्जा भवेजा, स १ आस्यं मुखं २ पोप्यं अधिष्टानं मुनि अथवा आर्याए शय्यामां शयन करता कोइ कोइना हाथ पग के शरिने अडकवू नहि. अने वगर अटके यतना पूर्वक तेवी शय्यामां सूवं. [७०९] मुनि अथवा आर्याए सूवा वाद श्वासोश्वास लेतां खांसी करता, छींकता, मुंभा के उद्गार करतां या वातोत्सर्ग करतां पोताना मुख के अधिष्टानने हाथथी ढांकी यत्तना पूर्वक से करवा. [७१०] मुनि अथवा आर्याने सूवा माटे कोइ वखते सरखी जगा मळे कोइ वखते खरवचडी मळे, कोई वखते पवनवाळी मळे कोइ पखते बंधीआर मळे, कोइ वखते कचरावाळी मळे कोइ वखते साफ करेली मळे, कोड वखने डांसमच्छरवाळी मले कोइ वखते डांसमच्छररहित मळे, कोई वखते पडेली खडेली मळे कोइ वखते Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४८ आचारांग-मूळ तथा भापान्तर. परिसाडा वेगया सेज्जा भवेज्जा, अपरिसाडा वेगया सेज्जा भवेज्जा, सउवसग्गा वेगया सेना भवेल्ला, णिरुवसग्गा वेगया सेना भवेज्जा, तहप्पगाराहिँ सेजाहिं सविचमाणाहिं पगहिततराग १ विहारं विहरेजा, णो किंचिवि गिलाएज्जा। [७११] • एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्षुणीए वा सामग्गियं जं सव्व हिं सहिते सदा जएज्जासि तिं बेमि । [७१२' १ प्रगृहीततरं सुष्टु गृहीतं. आवाद मळे, कोइ वखते भय भरेली मळे, कोइ बखते निर्थव मळे, एम विचित्र प्रकारनी जगाओ मळता सुनि तथा आर्याए सर्वने सरखी रीते ग्रहण करी समभा वपणे वर्त्तवं. कंइ पण नरम गरम न थकुं. (७११) एज मुनि अने आर्याना आचारनी पूर्णता छे के तेमगे सर्व कार्योगां हमेशां उत्साही थइ रहे, एम हुँ कहुँ छु. Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४९] अध्ययन वार,. ईर्याख्यं द्वादशसध्ययनं. (प्रथम उद्देशः) “ अब्भुवगते खलु वासावासे, अभिपवुढे ', बहवे पाणा अमिसंभूया, बहवे बीया अहुणुन्भिन्ना, अंतरा से मग्गा बहुपाणा बहबीया जाव संताणगा, अण्णोकंता पंथा, णो विण्णाया मग्गा, " सेवं णच्चा णो गामाणुगामं दूईज्जेज्जा, तओ संजयामेव वासावासं उवल्लिए-जा। (७१३ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणेज्जा गामं वा जाव रायहाणि वा-इमंसि खलु गामसि वा जाव रायहाणिसि वा णो महती १ पयोधर इतिशेषः अध्ययन बारमुं. ईया.. पहेलो उद्देश. मुनि अथवा आर्या एवँ जाणे के “वरसादनी रुतु आवी चूकी छे, वरमाद वरस्योछे, घणा जीवजंतु उत्पन्न थयाछे, घणा अंकुर फूटयांछे, रस्ताओ तेओ बडे भराइ गया छे, अने तेओना पर वधु आवजाव थती अटकी पडवाथी तेओ पूरेपूरा मालम पण पडी शकता नथी" तो तेमणे गामोगाम फरवातुं बंध करी वकालना (चार महिना) लगी एक मुकामे निवास करवो. [७१३] जे गाम के शहेरमां मुनिने योग्य मोहोटी भणया करवाने अनुकूळ पडती १ फर के चालवू हालवू. Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०] . आचारांग-मूळ तथा मापान्तर. विहारभूमी , णो महती विचारभूमी २, णो सुलभे पीठ-फलग सेज्जा -संथारए, णो सुलभे फासुए उच्छे 3 अहेसणिज्जे, बहवे जत्थ समण -माहण-अतिहि-किवण-वणीमगा उवागया उवागमिस्संति य, अच्चाइण्णा वित्ती, णो पण्णस्स णिक्खमणपसाए जाव धम्माणुओगचिंताए,से वं णच्चा तहप्पगारं गाम वा णगरं वा जाव रायहाणि वा णो वासावासं उबल्लिएज्जा । (७१४) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से ज्जं पुण जाणेजा गाम वा जाव रायहाणि वा इमंसि खलु गामसि वा रायहाणिसि वा महती विहारभूमी महती विचारभूमी, सुलभे जत्थ पीढफलग सेज्जा–संथारए, सुलभे फासुए उंच्छे अहेसणिज्जे, णो जत्थ बहवे समण जाव उवागया उवागमि स्संति य, अप्पाइप्णा वित्ती, जाव रायहाणिसि वा ततो संजयामेव वासावासं उवाल्लिएज्जा । (७१५) १ स्वाध्यायभूमिः २ बहिर्गमनभूमिः ३ एषणीयः जगा न होय अथवा खरच पाणीनी सवल पडती जगा न होय अथवा मुनिने जोइता पट वानोठ के दर्भादिकना पाथरणां के शुद्ध आहारपाणी मळी शकतां न होय अथवा ज्यां घणाज भिक्षुको आवी वसेला होय के आवता होय जेथी मुनिने भणवा गणवामां ई पण अडचण डे तेवा गाम के शहेरमा वकाळ गुजारवा माटे निवास नहि करवो. [७१४] । जे गाम के शहेरमा भणवा गणवाने तथा खरच पाणाने अनुकूळ पड़ती। विशाळ जगा मळी आवे तथा जोइती वस्तु के आहार पाणी मळवा सुलभ पडे । अने झाझा भिक्षुको पण आवेला के आववाना न होय तेवे स्थळे मुनिए वर्षाका. ळगुजावो. [७१५] Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन वारk. . [२५१ अहपुण एवं जाणेज्जा,-चत्तारिं मासा वासाणं वीईझंता, हेमंताण य पंचदस रायकप्पे परिवुसिते, अतरा से मग्गा बहुपाणा जाव. सं. ताणगा; णो जत्थ बहवे समण जाव उवागया उबगमिस्संतिय-सेवं णचा णो गामाणुगामं दुइजेज्जा । (७१६) अहपुण एवं जाणेज्जा,-चत्तारि मासा वासाणं वीइकंता, हेमंताण य पंचदस रायकम्पे परिवुसिए, अंतरा से ममा अप्पंडा जावं संताण. गा, बहवे जत्थ समण जाव उवागमिस्संति य, सेवं णचा तओ संजयामेव गामाणुगामं दुइज्जेज्जा । (७१७) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगाम दुईज्जमाणे पुरओ जुगमायं पेहमाणे दुट्टण तसे पाणे दह१२ पायं रीएज्जा, साह१ पायं रीएज्जा, उक्खिप्प पायं रीएज्जा, तिरिच्छं वा कटु पादं रीएज्जा, सति १ युगमात्रं चतुर्हस्त प्रमाणं. २ उध्धृत्य. ३ संहृत्य. ४ अयं चान्य मार्गाभावे विधिः सतित्तस्मिन् तेनैवगच्छेत्. ज्यारे एम जगाय के वर्षाकाळना चार मास वही गया छ तेमज हेमा रुतुना पंदर दिवस पण पसार थया छे, छतां हजु एक गामधी बीजे गाम जब.ना रस्ताओ जीव तथा वनस्पतिथी भरपूरज छे अने तेमना पर हजु घणा लोको चा लता थया नथी तो तेम जणातां मुनिए ते वखते पण ग्रामानुग्राम फरवावें शरु नहि करवू ७१६] पण जो ए वखते रस्ताओ अल्प जीवजंतु अने अल्प वनस्पतिवाळा थयेला , होय अने तेमनापर ले,कोनी पण पूरती आवजाव थवा लागी होय तो तेवू जाणी यतना पूर्वक मुनिए प्रामानुग्राम फरवू. [७१७] मुनि अथवा आर्याए ग्रामानुग्राम फरतां पोतानी आगल्नो चार हाथ जेटलो रस्तो जोतां जोतां चाल. तेम चालनां ते रस्तामा हरता फरता मीरजंतु दे Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२५२] - आचारांग-मूळ तयाँ भाषान्तर. परक्कमे संजतामेव परकमेज्जा, णो, उज्जुयं गच्छेज्जा, तओ संजयामेव गामाणुगामं दुईज्जेज्जा । (७१८) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगाम दुईज्जमाणे अंतरा से पाणाणि वा बीयाणि वा हरियाणि वा उदए वा मट्टिया वा अविद्वत्थे, सई परक्कमे णो उज्जुय गच्छेज्जा, तओ संजयामेव गामाणुगाम दूइलेज्जा । (७१९) से भिक्खू वा भिक्षुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से विरूवरूवाणि पत्रांतिकाणि दरसुगायतणाणि मिलक्खुणि दुस्सन्नप्पाणि दुप्पण्णवणिज्जाणि अकालपडिबाहीणि अकालपरिभोईणि, सति लाढे वियाराए संथरमाणेहि जणवएहि णो विहारवत्तियाए पर जेज्जा गमणाए। केवली बूया 'आयाण मयं ते णं बाला “ अयं तेणे, अयं उवचरए, १ लष्टे श्रेष्टे २ अन्येषु आर्यदेशेषु सत्सु. खव.मा आओ अने वीजो र तो मळी आवतो होय तो ते जीवजंतुवाको रस्तो छोडी बीजे रस्तेज चालवू. पण जो वीजो रस्तो नहि मळे तो पोतानां पग जीवजंतु थी आगळ या पाछळ या पडखे संभाळी संभाळीने मुकवा अने ए रीते चालवू. [७१८] मुनि अथवा आर्याए ग्रामानुग्राम फरतां बच्चे रस्ताम नाना जीवजंतु, वनस्पतिना चीज, वनस्पति, या लीली माटी आपवी पड़े तो वीजो रस्तो माता छतां ते रस्ते न चालवू. किंतु बीजेज रस्ते यतना पूर्वक चालवू. [७१९] ___ मुनि अथवा आर्याए ग्रामानुग्राम फरतां वचगाले के देशना सीमाडे वसेला हठीला, जड, अकाळचारी अने अकाणभक्षी जूदी जूदी जातना टूटारा वथा म्लेच्छादिक अनार्य लोकोना विभागे.मो वीजा सारा देशो विहार करवाने अनुकूळ मळी आवतां छतां नहि करवं. कारण के तेम करतां केवणज्ञानिओ बहु Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन वारम. [२०३] अयं तओ आगए " ति कट्ट तं भिक्खु अक्कोसेज वा जाव उवद्दवेज्ज वा, वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंच्छणं अच्छिदेज वा अभिदेज वा अवहरेज वा परिभवेज वा, । अह भिक्खूणं पुव्वोवदिट्टा पतिण्णा जाब जंणो तहप्पगाराणि विरूवरूवाणि पच्चंतियाणे दुस्सुगायतणाणि जाव विहारवतियाए णो पवज्जेज्जा गमणाए, तओ संजयामेव गामाणुगामं दुइ ज्या (७२०) . से सिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगाम दुइज्जमाणे अंतरा से अरायाणि वा गणरायाणि वा जुबरायाणि वा दोरज्जाणि वा वेरज्जाणि वा विरुद्धरज्जाणि वा सति लाढे विहाराए संथरमाणेहिं जणवएहिं णो विहारवत्तियाए पवजेज गमणाए। केवली बूया 'आयाण मेयं ते ण बाल "अयं तेणे, " तंचेव जाव णो विहारवतियाए पबज्जेज्ज गमणाए, तो संजयामेव गामाणुगाम दूइज्जेज्ज । (७२१) दोप बतावे छे. जे माटे मुनिए त्यो जता त्यांना अनार्य लोको ते मुनिने चोर के जासुस ठेरावी तेने अनेक उपद्रत करे या तेना वस्त्रपात्र लूंटी ले या चोरी ले. माटे मुनिने ए भलागण छे के तेणे तेवा प्रांतमा जवानुज नहि करवू. [७२८] वळी जे प्रांतोमा कोइ राजाज नहि होय या अनेक जण राज्य की थइ पडया होय या राज्यकर्त्ता बहु लघुवयनो या वे राज्य चालतां होय या एक वीजानां विरोधी राज्य थइ पडयां होय तेवा मांतोमां, वीजा सारा देशो विहार करवाने अनुकूळ मळी आवतां छतां विहार नहि करवो, कारण के केवळज्ञानिए तम कर निषिद्ध कर्यु छ जे माटे मुनिए तेवा स्थळे जतां त्यांना लोको तेने चोर के जानुस ठेरावी अनेक अडचणो पाडशे. माटे मुनिने एवी भलामण छे के तेणे तेवा प्रांतोमा नहि जतां वीजा सारा प्रांतोमा संभाळ पूर्वक फरता रहे. [७२१ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२५४] आचागंग-मूळ तथा भाषान्तर से भिक्खू वा भिक्षुणी या गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से विहं सिया:-- से जं पुण विहं जाणेज्जा एगाहेण वा दुयाहेण वा तियाहेण वा चउयाहेण वा पंचाहेण वा पाउणेज वा, णो पाउणेज्ज वा, तहप्पगार विहं अणेमाहगमणिजे सति लाढे जाव णो बिहारवत्तियाए पवजेन्ज गमणाए । केवळी बूया 'आयाण मेयं । अंतरा से वाससि वा पाणसु वा बीएस वा हरिएसु वा उदएसु वा मट्टियाए वा भविडत्थाए। अह भिक्खूणं पुच्चो वदिवा जाव नं तहप्पगारं अणेगाहगमणिज्जं जाव णो गमणाए, ततो संजयामेव गामापुगाम दूइज्जेज्जा गमणाए । (७२२) । से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगाम दुईजमाणे अंतरा से णावासंतारिमं उदयं सिया, से जं पुण णावे जाणेजा-असंजए भिक्खुपडियाए १ अनेकाहगमनीयः पंथाः । मुनि अथवा आर्याने ग्रामानुग्राम फरतां वच्चे कोइ योहोर्से मेदान उल्लंघका नु आवी पडे के जेनो छेडो आखो एक दिवस के वेत्रण चार या पांच दिवस चाल्याधीज मळी शके या नहि पण मनी शके, तेवा बहु लांबा रस्ते वीजो हुँको रस्तो मळी आवतां छतां नहि चालवू. कारण के तवे लांचे रस्ते चालतां केवळज्ञानिए अनेक दोष वताव्या छे. जे माटे त्यां लांवो वखत चालवा होतां बच्चे कदाच वरसाद आवी पंड तो ते रस्तामां जीवजंतु, वनस्पति, पाणी तथा लीली मा टी भराइ जाय छे, माटे मुनिए तेवे मार्गे नहि चालवू. [७२२] मुनिए वहाण पर क्यारे चढवू ? मुनि के आर्याने एक ग्रामथी वीजे ग्राम जतां बच्चे कदाच वहाणथीन तरी शकाय एटलं पाणी आडे आवे तो तेमणे आ प्रमाणे वर्त:-जे वहाण असयमी गृहस्थे सावुना माटेज वेचा लइ राख्थु होय या उछीतुं लइ राख्यु होय. Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५६] अध्ययन वारमुं. किणे, वो पामिच्चेज वा, णावाए वा गावांपरिणामं कट्टी थलाओ वा णावं जलंसि ओगाहेजा, जलाओ वा णावं थलैंसि उकसेजा, पुण्णं वा णावं - उस्सिचेन्जा, सण वा गावं उप्पीलावेज्जा, तहप्पगारं गावं उङ्गामिणिं वा अहेगामिणिं वा तिरियगामिणिं वा परं जोयणेमेराए अजोयणमेराए अप्पतरी २ वा भुजतरोउ वा णो दुरुहेल गमणाए। [७२३] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा पुवामेव तिरिच्छसंपातिमं णावं जाणेजा, जाणित्ता से त-मायाए ४ एगंत मवक्कमित्ता भंडगं पडिलेहेज्जा, पडिलेहिता एगओ भोयणभंडग करज्जा, करित्ता ससीसोवरिये काय पाए यापमज्जेज्जा, पमज्जित्ता सागारियभत्तं पच्चक्खाएज्जा, पञ्चक्खाइत्ता एगं पायं जले किच्चा ५ एग पाय थले किच्चा, तओ संजयामेव णावं दुरुहेज्जा । [७२४] १ कुर्यादित्यर्थः २-३-इमे मार्गविशेषणे ४ ज्ञात्वा. ५ कुल्ला, या अदलबदल करी राख्यु होय या स्थळथी जळमां के जळथी स्थळमा लावेलु होय या भरेलू होतां खाली कर्यु होय या खूची गएलुं होतां ऊपडावी राज्यु होय तेवा जूदी जूदी दिशा तरफ जता वहाण पर चार गार या वे गाऊ झाझा या थोहा रस्ता लगी पण चड्वू नहि. [७२३] किंतु जे वहाणने गृहस्थो पोताना माटे ते पाणीना आरपार लइ जवाना होय तेवा वहाणनी मुनि के आए शरुआतमां तपास करवी. तपास करता ते मालम पड्याथी मुनिए एकांत स्थळमां आवी पोताना उपकरण पाल जोइ तपाशी लेवा. ते तपाशी लइ एक तरफ पाथी धरी माथा लगीना शरीरने प्रमार्जित कर q. ते कर्या दाद सागारी अणसण ग्रहण कर. ते ग्रहण करीने पछी एक पग पा णीमां धरता एक पग स्थळमां [ एटले पाणीना ऊपर ] धरतां वहाण पर चडबुं. [७२४] Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२५६] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा णावं दुरुहमाणे णो णावाए पुरओ दु. रुहेज्जा, णो णावाए अग्गओ दुरुहेज्जा, णो णावाए मज्झतो दुरुहेज्जा. णो बाहाओ पगिज्जिय पगिन्भिय, अंगुलीए उवदंसिय उबदसिय उपगमिय उण्णमिय णिज्झारज्जा । ७२५] से णं परो' णावागतो णावागयं वएज्जा आउसंतो समणा, एयं तुमं पावं उकसाहि वा वोकसाहि वा खिवाहि वा. रज्जए वा गहाय आगसाहि" णो से-यं परिन्नं परियाणेज्जा, तुसिणीओ उवेहेज्जा । [७२६] से णं परो णावागतो गावागयं वएज्जा " आउसंतो समणा, णो संचाएसि गावं उक्कसित्तए वा वोकसित्तए वा खिवित्तए वा रज्जुयाए वा गहाय आकसित्तए, आहर एतं णावाए रज्जुयं, सयं चेव णं वयं नावं १ नाविकः २ आनय. मुनि अथवा आर्याए वहाणपर चडतां वहाणना मोखरे जइ न बेशर्बु तथा . सर्वथी अगाउ चडी न वेश, तथा वहाणना वच्चोवच पण चडी न वेश. तेमज शरुआतमां वहाणना बाहेर उभा होतां वहाणना पडखाओने पकडी आंगळीओ वडे ताकी ताकीने या उंचा उंचा थइने तेना अंदर जोवानुं पण नहि कर. [७२५] वहाणपर चडेला मुनिने वहाणवारा लोको एम कहे के “आयुष्मन् श्रमण तमे आ वहाणने (अमुक दिशा तरफ) खेंची या वाळो या एमांना सामानने दरिआमां के नीचे फेंको या दोरडांओ खेंचो." तो मुनिए ते बात करवा कबुल नहि थर्बु किंतु अबोल रही धर्मध्यान कर्या करवू. [७२६] वहाणपर चडेला मुनिने वहाणवाळा लोको एम कहे के " हे आयुप्मन् श्रमण, तमे आ वहाणने खेंचवा करवामां तथा एमांना सामानने फेंकी दोरडाओ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन वारमुं. [२७] उकसिस्सामो वा जाव रजए वा गहाय आकसिस्सामो, ". णो से-य परिक नं पारयाणेज्जा, तुसिणीओ उवेहेज्जा । (७२७) से गं परो णावागओ णावागयं वएजा “आउसंतो समणा, एयं । ता तुम णावं अलित्तेण वा पीढेण वा बसेण वा वलएण वा अवल्लएण वा वाहेहि; " णो से यं परिणं परिजाणेज्जा, तुसिणीओ उबेहेज्जा । (७२८) से णं परो णावागओ णावागयं वदेज्जा " आउसंतो समणा, एयं ता तुम णावाए उदयं हत्थेण वा पाएण वा मत्तेण वा पडिग्गहेणं वा णावाउस्सिचणेण वा उस्सिंचाहि " णो से-यं परिणं परिजाणेज्जा । (७२९) से णं परो णावागतो णावागतं वएज्जा “ आउसंतो समणा, ताणवाना काममा अशक्त छो तो अमुक दोरडं मने लावी आपो अमे पोत वहाणने वाळवा करवानुं करता रहीशं." आवू सांभळी मुनिए तेम पण कबुल नहि कखु किंतु मौन रही धर्म ध्यान ध्याया करवू. [७२७] ___ वहाणपर चडेला सुनिने वहाणवाळा लो एवँ कहे के “हे आयुष्मन् श्रमण, आ वहाणने तमे आ पाटीआना अलताओ के हलेसांओवडे या वांस के वळावडे या अबल्लक नामना हथियार वडे आगळ चलावो." तो आ वात पण मुनिए न स्वीकारवी. किंतु मौन रह्या करवू. [७२८] ___ वहाणपर चडेला मुनिने वहाणवाळा लोको एम कहे के " हे आयुष्मन् श्रमण, आ वहाणना अंदर भराता पाणीने तमे तमारा हाथथी या पगथी या वास थी के पात्रयी या वहाण मांहेन। पाणी कहाडवाना हथियारथी वहार काढता रहो" तो आ वात पण मुनिए न स्वीकारची किंतु मौन धरी रहे. [७२९] वहाणपर चडेला मुनिने वहाणवाला लोको एम कहे के हे "आयुप्मन् श्रमण Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६८ ] भाचा मूळ तथा भाषान्तर एतं तो तुमं णावाए उत्तिंग हत्थेण वा पाएण वा बाहुणा वा ऊरुणा वा उदरेण वा सीसेण वा कारण वा णावाउसिंचणेण वा वेलेण वा महियाए वा कुसपचएण वा कुरुविंद्रेण वा पिहेहि " णो सेयं परिण्णं परिजाज्जा । ( ७३०) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा णावाए उत्तिगेणं उदयं आसवमाणं पेहाए उवरुवरि णावं कज्जलावेमाणं २ पेहाए णो परं उवसंकमित्त एवं बू या " आउसंतो गाहावइ, एयं ते णावाए उदयं उत्तिगेण आसवति, उवरुवरि वा णात्रा कज्जलावेति " एतप्पग़ारं मणं वा वायं वा णो पुरओ कट्टु विहरेज्जा | अप्पुस्सुए अबहिलेस्से एगतिगएणं अप्पाणं विपोसेज्ज समाहीए, तओ संजयामेव णावासंतारिमे उदए अहारियं ४ रीएज्जा । (७३१) ति तथा 9 रंध्रे 3 २ प्लाव्यमाना मित्यर्थः ३ अविमनस्कः १ यथार्य भव आ वहाण पडेला अमुक छिद्रने तसे तमारा हाथ, पग, वाहु, जंघा, उदर, मस्तक, के आखा शरीर बडे या वहाणमां रहेला उलिचण नामना हथियारवडे या वस्त्र, माटी, कमळ पत्र के कुरुविंद नामना घासवडे ढांकी राखो.” तो मुनिए आ वात पण नहि स्वीकारवी. [७३०] ★ मुनि अथवा आर्याए वाणमां छिद्र पडयाथी पाणी भरा जोइ तथा उपरा उपरी वहाणने बुडतुं जोड़ वीजाने ए वात जणाववी नहि अने पोते पण पोताना मनमां ए वावतना संकल्पविकल्प धरवा नहि. किंतु शांत पणे स्वस्वरुपमां रमता रही एकांत प्रदेशमां रहीने समाधिस्थ रहें. ए रोते ब्रहाणथी पार पमाता जळमार्गमां यथासुंदरताए प्रवर्त्तता रहे. [ ७३१] Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन वारमुं. . . [२५९] एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सब्बदेहिं सहित सदा जएज्जासि त्ति बेमि । (७३२) [द्वितीय उद्देशः] से णं परो णावागओ गावागयं वदेज्जा:-" आउसंतो समणा, एयं ता तुमं छत्तगं वा जाव चम्मछेयणगं वा गिण्हाहि, एयाणि तुम विरूवरूवाणि सत्थजायाणि धारेहि, एयं ता तुमं दारगं वा दारिंगं वा पज्जेहि , णो सेत्तं परिणं २ परिजाणेज्जा, तुसिणीओ उवेहेज्जा । (७३३) १ पायय २ प्रार्थनामित्यर्थः - - - एज खरेखर मुनि अने आर्याना आचारनी संपूर्णता छ के तेमणे वधी पावतोमा संभाळ पूर्वक वर्तवं. [७३२] बीजो उद्देश. - (बहाणपर चडवा तथा पाणीमांधी पसार थवा विगैरे विधि.) वहाणपर चडेला मुनिने वीजा वहाणपर चडेला लोक एयू कहे के " हे आयुषान् श्रमण ज छत्र या चमें कापत्रानुं हथियार पकड, तथा आजूदी जूदी जातना हथियारो धरी राख, अथवा आ वाळक के वाळिकाने (दूध विगेरे) पीवराव" आ हुकम स्वीकारवा नहि किंतु मौन रया करव॒. [७३३]. . Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मापारागमूळ तया मापान्तर. से णं परो णावागओ गावागयं वदेज्जा:- एस णं समणे णावाए भंडभारिए ३ भवति, सेणं बाहाए गहाय गावाओ उदगंसि पक्खिवह," एतप्पगारं णिग्योसं सोचा णिसम्म से य चीवरधारी सिया खिप्पामेव चीवराणि उव्वेड्डेज वा णिव्वेड्डेज वा उप्पासं ४ वा करेज्जा । [७३४] अह पुण एवं जाणेजा:-अभिकंतकूरकम्मा खलु बाला बाहाहिं गहाय नावाओ उदगंसि पक्खिवेज्जा, से पुवामेव वएज्जा " आउसंतो गाहावती, मा मेत्तो बाहाए गहाय णावाओ उदगंसि पक्खिवह; सयं चेव णं अहं णावातो उदगंसि ओगाहिस्तामि. ” से णेवं वयंत परो सहर सा बलसा बाहाहिं गहाय उदगंसि पक्खिवेज्जा, तं णो सुमणे सिया णो दुम्मणे सिया, णो उच्चावयं मणं णियच्छेज्जा, णो तेसिं बालाणं घाताए वहाए समुज्जा, अप्पुसुर जाव समाहीए ततो. संजयामेव उदगंसिपवजेज्जा । (७३५) १ भंडवत् भारवान् भंडेन वा भारवान् २ शिरोवेष्टनं. वहाणपर चडेला मुनि तरफ दहागमांना कोइ वोले के "आ साधु यहाण उपर बहु वोजो करे छे, माटे एने वाहुथी पकडीने पाणीमां फेंकी यो, “आवां वाक्यो सांभळीने वस्त्रधारी मुनिए तरतज पोताना भारवाळां वस्त्रो ऊतारीने हलका वस्रो वींटी लेबां. तथा माथापर पण वस्त्र वींटी लेवू. [७३४] एवामां ते क्रुर कमी अजाण मनुष्यो मुनिने बाहुर्थी, पकडी पाणीमां नाखवा तैयार थाय तो तेना नाखवा अगाउज मुनिर कहेवू के “हे आयुष्मन् गृहस्थो तमारे मने पकडीने पाणीयां नाखकानी कशी जरुर नथी. हुं जातेज बहाणथी पा'णीमां झींपलायूं छ,” आ बोलतां छतां जलदी ते माणसो मुनिने बाहुथी पकडी 'ने फेंकी ये तो मुनिए मनमां कशो पग गग के द्वेष न लावतो तथा संकल्पवि,कल्प न करवा, तेमन ते अजाण पुरुपोने नाश करवा के मारवा कदापि नदि उठ्यु. शांत पणे पाणीमां जइ पडव. [७३५] Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन बारम, ... [२६] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उदगंसि पत्रमागे णो हत्थेण हत्थं पाएण पायं काएण कार्य आसाएजा, से अणासादए अणासायमाणे तओ संजयामेव उदगंसि पवज्जेज्जा । [७३६] . ५ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उद्गसि परमाणे णो उम्मग्गणिम्म गियं करेज्जा, मा मेयं उदगं कण्णेसुवा अच्छ.सु वा णकसि वा मुहंसि वा परियावज्जेजा, तओ संजयामेव उदगंसि एवजेजा। [७३७] से भिक्खू वा भिक्खुणी या उदगंसि पवमाणे दोब्बलियं२ पाउणे. ज्जा, खिप्पामेव उवधि विगिचेज्ज वा विसोहेज्जा , णो चेव णं साति. ज्जेज्जा अह पुण एवं जाणेज्जा, पारए सिया उंदगाओ तीरं' पाउपित्तए तओ संजयामेव उदउल्लेण वा ससिणिद्धेग वा कारण उदगतीरे चिटेजा। [७३८] १ संस्पृशेत्. २ श्रमं मुनि अथवा आर्याए पाणीमा तणादा हाथ साथे हाथ, पग साथे पर्ग, अने शरीरना कोइ पण अवयव साथे वीजो अवयव लगाडवा नहि ए रीते यत्नपूर्वक तणाता रहे. [७३६] " मुनि अथवा आर्शए पाणीमा तणात, डूबकीओ नहि यारवी, जेथी करीने कान, आंख, नासिका, तथा मुखमां पाणी जईन विनाश न पाये. [७३७] मुनि अथवा आर्या पाणीमा तरतां धाकी जाय पारे तेमणे तरतज पोताने 'भारी पड़ता वस्त्रो छोडी देवा. ते वस्रोपर मूर्थित नहि रहे. पछी ज्गरे कांठा माप्त थाय त्यारे पाणीथी शरीर भीनावलं होय त्यां लगी कांठापरज वेशी रयं. {७३८] Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६२] आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर. से भिक्खु वा भिक्खुणी वा उदउल्लं वा ससिणिद्धं वा कायं णो. आम वा पमज्जेज वा संलिहेज पिछेहेन वा उव्वलेज वा उव्वट्टेज्ज चा आयावेज्ज पयावेज्ज वा । अह पुण एवं जाणे, विगतोदर में कार वोच्छिण्णसिणेहे, तहपगारं कार्य आमज्जेज्ज वा जाव पयावेज्ज वा, तओ संजयामेव गामा णुगामं दृइन्जेज्जा । [ ७३९ ] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे णा परेहिं सद्धिं परिजविया' परिजविया गामाणुगामं दूइज्जेज़्ज़ा । तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइजेज्जा । (७४०) से भिक्खु वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से जंघासंतारिमे उदए सिया, से पुव्यामेव ससीसोवरियं कार्यं पादे य पमजेज्जा, से पुव्यामेव पमज्जित्ता एगं पायं जले किच्चा एवं पाय थले किच्चा तओ संजयामेव जंघासंतारिमे उदए अहारियं रीएज्जा । ( ७४१ ) १ भृश मुल्लापं कुर्वन् मुनि अथवा आर्या पाणीथी भींजायला शरीरने घसवं छोट के दाव नहि तेमज तपावं करं पण नहि. (किंतु पोतानी मेळे पाणीने पडवा देवं ) अने ज्यारे शरीरपरथी सघळी भिनाश उडी जाय त्यारेज शरीरने घसवूं छांटं के दाव तथा तपाव. अने त्यार बाद ग्रामानुग्राम फरघानुं शरु कर. [ ७३९] मुनि अथवा आयए ग्रामानुग्राम फरता मार्गमां म्ळेला गृहस्थो साथे वहु वक्रत्रकारो करतां नहि चालवं, किंतु संभाळ पूर्वकज चालता रहेनुं [७४०] मुनि अथवा आर्याने ग्रामानुग्रांम फरतां वचगाले जंघा प्रमाण पाणी उतरवानुं आवे त्यारे तेमणे आखा शरीरने प्रमार्जन करी एक पग जळमां घरतां अने एक पग स्थळमां धरतां संभाळपूर्वक रूडी रीते ते जळमांथी पसार बुं [ ७४१] १ साथळ. Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन वारमुं.. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जंघासतारिमे उदगे अहारियं रीयमाणे णो हत्येण वा हत्थं पादेण वा पादं कारण वा कायं आसाएजाः । से अणासादए अणासादमाणे तओ संजयामेव जंघासंतारिभे उदए अहारिय रीएजा । (७४२) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जंघासंतारिमे उदए अहारियं रीयमाणे णो सायावडियाए णो परिदाहवडियाए महति महालयंसि उद्गसि काय वित्तोसेज्जा । तओ संजयामेव जंघासंतारिमे उदए अहारियं रीएजा । अहपुण एवं जाणेज्जा पारए सिया उदगाओ तीरं पाउणित्तए, तओ संजयामेव उदउल्लेण वा ससिणिण वा काएण उदगतीरे चिटेजा । (७४३) ___ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उदउल्लं वा कार्य ससिणिडं वा कायं णो आमजेज वा पमजेज वा । अहपुण एवं जाणेज्जा, विगतो. दए मे काए छिण्णसिणेहे, तहप्पगारं काय आमजेज्ज वा जाव पयावेज्ज चा । तओ संजयामेव गामाणुगाम दूइज्जेज्जा । [७४४] १ वक्षस्थळादिप्रमाणे मुनि अथवा आर्यार आवे वखते हाथ साथे हाथ, पग साथे पग, तथा शरीर साथे शरीर लगाववां नहि. [७४२] मुनि अथवा आर्याए जंघाप्रमाणमा पाणीमाथी पसार थतां शरीरने थंडक मेळववा माटे के वळतरा माडवा ऊंडा पाणीमां झोकाव, नहिं. किंतु जंघा-प्रमाणना पाणीमांधीज चाल्या जवू. अने ज्यारे कांठो प्राप्त थाप त्यारे शरीरपर पाणीनी भिनाश होय त्यां लगी त्यांज थोभी रहे. [७४.] ' मुनि अथवा आर्याए ए वखते शरीरने घस, के नपाव नहि. पण ज्यारे भिनाश पोतानी मेळे उडी गएली जणाय त्यारे शरीग्ने छांटी छटी तडके तपानी कर ने ग्रामानुग्राम फरवार्ड शम करवू. [७४४] Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {२६४] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. से भिक्खू वा भिक्खुगी वा गामाणुगामं दूईज्जमाणे णो मट्टियामएहिं पाएहिं हरियाणी छिदिय छिदिय विकुन्जि विफालिय उम्मग्गेणं हरियवधाए गच्छेज्जा; “जहेयं पाएहिं मट्टिय खिप्पामेव हरिताणि अवहरंतु.” माइमाणं संफासे । णो एवं करेजा। से पुवामेव अप्पहरियं मग्गं पडिलेहेज्जा, तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइजेज्जा । (७४५) से भिक्खू वा भिक्खणी वा गामाणुगाम दुईज्जमाणे अंतरा से वष्याणि वा फलिहाणि वा पागाराणि वा तोरणाणि वा अगलाणि वा अगलपासगाणि वा गड्डाओ वा दरीओ वा सति परक्कमे संजयामेव परक्कमे जा, णो उज्जुयं गच्छेज्जा । केवली बूया 'आयाण मेयं ।' से तत्थ परक्कममाणे पयलेज्ज वा पक्डेज वा । (७४६) से तत्थ पयलमाणे वा पवडमाणे वा रुक्खाणि वा गुच्छाणि वा गुम्माणि वा लया. वा वल्लीओ वा तणाणि वा गहणाणि वा हरियाणि मुनि अथवा आर्याए त्र मानुमान फरवातुं करतां चीखळथी खरडायला. पोताना पगाने साफ करवाना इरादार्थी मार्गथी आघापाछा जइ लीलोतरीने तोडतां तोडतां दावतां दावतां के उखेडतां उखेडतां नहि चालवू. जो तेम करे तो दोवपात्र थवानो, माटे एम नहि करवु. किंतु शरुआतमांज तेमणे थोडी लीलोतरीवाळो रस्तो शोधवो अने तेना वडे ग्रामाजुग्राम फरवू. [७४५] मुनि अथवा आर्य ने ग्रामानुग्राम फरतां वचगाळे किल्ला, खाइ, कोट, तोरणो, आगळीओ, आगळीना पडखाओ, खाडाओ, के कोतरो ओळंगवाना आ वी पडे तो बीजो रस्तो मतां ते रस्ते पसार नहि थQ. केमके केवळज्ञानिए तेमां दोप जणाच्या छे. जे माटे तेवे रस्ते चालतां कदाच पडी आखडी पण जवाय, (७४६) . (वीजो रस्तो न सळतां जो तेवेन रस्ते जवु पडे तो.) त्यां पडतां के Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन वारनं. [२६५] वा अवलंबिय अवलंबिच उत्तरेज्जा, जे तत्थ पाडिपहिया उवागच्छंति ते पाणी जाएज्जा, तओ संजयामेव अवलंबिय अवलंबिय उत्तरेज्जा, त. ओ गामाणुगामं दूइजेज्जा । [ ७४७] से 'भिक्खु वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्माणे अंतरा से जवसाणि' वा सगडाणि वा रहाणी वा सचकाणि वा परचकाणि वा से णं २ वा विरूवरूवं संणिवि पेहाए सति परक्कमे संजयामेव णो उज्जुयं गच्छेज्जा 1 (७४८) से णं परो सेणागतो वदेज्जा, “आउसंतो एसणं समणो सेणाएं अभिनिवारियं करेइ, से गं बाहाए गहाय आगसाह. " से णं परो बाहाहिं गहाय आगंसेज्जा, तं णो सुमणे सिया जाव समाहीए तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा । ( ७४९) १ गोधूमादिधान्यनि. २ स्कंधावारनिवेशादिकं f 1 ** 1 आखडतां झाड, गुच्छ, गुल्म, लताओ, बेलाओ, घास, बूटाओ, के गमे ते लीलोत्रीने पकड़ी पकडीने उतरखं, अथवा तो त्यां जे घटेमार्ग आवी पडे तेना हाथनी मददं मागवी अने तेना हाथ पकडी पकडीने ते विपम रस्तो पसार करी ग्रामानुग्राम फर. [ ७४७ ] मुनि अथवा आर्याए ग्रामानुग्राम फरतां वच्चे धान्यनी वजारो, गाडीओ, रथो, लश्कर के जूदी जूदी सेनाओ पडाव नांखी पडेली जोइने वीजो रस्तो मळतां ते रस्ते नहि चलवं. [७४८] कदाच बीजो रस्तो न मळत तेज रस्ते मुनिने चाल पडे तेवे वरखते कोइ सैन्यनो माणस एवं कहे के “आयुष्यन् सैनिको, आ साधु आपणा लक रनी हालचाल जोवाने जासुस तरीके आवेलो छे माटे एने धक्का मारी कहाडी मेलो" आई कही ते करवा मांडे तोपण मुनिए कशी हर्षशोक न लाववो, किंतु समाधिथी नेता रहे. [७४९] Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६६] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अंतरा से पाडिपहिया उवागच्छेज्जा, ते णं पाडिपहिया एवं वदेज्जा " आउसंतो समगा, केवतिए एस गामे रायहाणी वा ? केवइया एत्य आसा, हत्थी, गामपिंडोलगा, मणुस्सा, परिवसंति ? से बहुभत्ते बहुउदए बहुजणे बहुजबसे ? से अप्पुदए अप्पभत्ते अप्पजणे अप्प जयसे ? एय-प्पगाराणि पसिणाणि पुलो णो आइरखेला; एतप्पगाराणि पसिणाणि णो पुच्छेज्जा । (७५०) एयं खलु तस्स मिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गिय । (७५१) ... १ ग्रामभिक्षाचराः मुनि अथवा आर्याने मार्गे चालतां बच्चे वटेमाणुओ मळे अने तेआ एर्नु पूछवा मांडे के "हे आयुष्मन् श्रमण आ गाम के शहेर केवडं मोडं छ? तेमन अहीं केटला घोडा, हाथी, भिखारी, के मनुष्यो रहे छे? तथा एमां भात पाणी माणसो, अने धान्य घणां छे के थोडां छ? आवा प्रश्नो सामळी तेनो कशो जवाब नहि वाळवो. तेमज मुनिए पोते पण एवा प्रश्न कोइने नहि पूछवा. - ए सबको मुनि अने आर्याओनो संपूर्ण आचार छे. [७५१] - RRB -- Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६७] अध्ययन वरमुं. [ तृतीय उद्देश : ] 1 ર से भिक्खु वा भिक्खुणी था गामाणुगामं दूतिज्जमाणे अंतरा से चप्पाणि वा, फलिहाणि वा, पागाराणि वा, जाव दरीओ वा, कूडागासणि चा, पासादाणि वा, णूमगिहाणि वा, रुक्खागहाणि वा, पव्वयगि-हाणि वा, रुक्खं वा चेतियकडं ४, थूभं वा चेतियकडं, आएसणाणि वा, जाव भवणगिहाणि वा णो बाहाओ परिज्झिय पनिज्झिय अंगुलीयाए उद्दिसिय उद्दिसिय उष्णमिय उष्णभिय णिज्झाएज्जा । ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइजेज्जा । (७५२) ८ ૯ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से कच्छा णि वा दत्रियाणि वा णूनाणि ७ वा वलवाणि वा गहणाणि वा १ पर्वतोपरिगृहाणि २ भूमिगृहाणि ३ गुहाः ४ वृक्षस्याधोव्यतरादिस्थानकं ५ नयासन्ननिम्न प्रदेशाः ६ अटव्यांचा सार्थरीजरक्षितभूमयः ७ गर्त्तादीनि ८ नद्यावेष्टितभूभागाः ९ रण्यक्षेत्राणि त्रीजो उद्देश. ( विहार करवानी विधि.) मुनि अथवा आर्याने ग्रामानुग्राम फरतां वच्चे आवता किल्ला, खाई, कोट, गुफाओ, टेकरीओपर रहेला बरो, भयराओ, झाडोथी शोभतां घरो, पर्वत उपर बांधेला घरो, शाद नीचेना ज्यंतरादिकना स्थानको व्यंतरादिकना स्तूपो (घुयटो), मुसाफर शाळाओ, तथा हरेक जातनां घरो हाथे पकड़ी पकडीने के आंगळीओ चडे ताकी दाकीने या ऊंचं नीधुं थइने जोवां नहि, किंतु रुडी रीते संभाळयी वर्त्त. [७५२] एज प्रयाग मुनि अथवा आयए ग्रामादाय चालतां परचे आधी पडतां नदीना नजदीकना नीचा प्रदेश, चाराना जंगले, खाडाओ, नदीची पीटायटी Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६८] आचागंग-मूळ तथा भाषान्तर गहण विदुग्गाणि वा वणाणि वा वणपवयाणि वा पव्वतविदुग्गाणि वा पव्वतगिहाणि वा अगडाणि वा तलागाणि वा. दहाणि वा णदीओ वा वावीओ वा पुक्खरणीओ वा दीहियाओ वा गुंजालियाओ, वा, सराणि वा सरपंतियाणि वा सरसरपंतियाणि वा, णो बाहाओ पगिझिय जाय णिज्झाएज्जा। केवली बूया 'आयाण मेयं । जे तत्थ मिगा. वा पसू वा, पक्खी वा, सिरीसिवा बा, सीहा वा, जळचरा वा, थलचरा वा खचरा वा सत्ता ते उत्तसेज वा वित्तसेज वा वाडं वा सरणं वा कखेजा "बारे ति मे अयं समणे । ” अह भिक्खूणं पुचोवदिवा पतिण्णा जं णो बा. हाओ पगिझिय पगिज्झिय जाव णिज्झाएज्जा। तओ संजयामेव आयरि. यउवज्झाएहि सद्धि गामाणुगामं दूइज्जेज्जा । (७५३). . . -- ... १ कमळरहिताः वाप्यः २'दीर्घा गंभीराः कुटिलाः लक्षणाः वाप्यः . . . . . टेकरीओ, उजड टेकरीआ, जंगलो, आडीथी भरेला पर्वतो, पर्वतोपरना किल्लायो, पर्वतपरना घरो, कूवा, तळायो, द्रहो, नदीओ, वावडीओ, पुष्करिणीओ (फूलो वाळी वावडीओ) दीपिकाओ; (स्यवानी वाडीओ) गुजाळिकाओ, (ऊंडी कुंडाळावाळी वावडीओ) सरोवरो, सरोवरोनी हारो, इत्यादिक स्थळेने हाथ पकडी पकडीने के आंगळीओ वडे ताकी ताकीने जोवां नहि कारण के केवळ , ज्ञानाए तेन करता दोष वताच्या छे. जे माटे तेभ करता त्यां जे हरिणादिक पशुओ तथा पाक्षिओ, सो, सिंहो विगरे जळजर तुओ, स्थळचर जंतुओ, तथा आकाशचारी जंतुआ रहेला होय ते भय पाय दोडमदोडा करवा मंडे अथवा ",अमोने आ श्रमण पाछा या छ' एम धारी तेओ पाछा गीच झाडीमा आशरो त्ये. एल -मोटे मुनिओन एवी भलामण छ के तेनणे तेम नहि करई. किंतु संभाळ पूर्वक आचार्य के उपाध्याय साथे ग्रामग्रान फर्या करई. [७५३] Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन वारमुं. [२६९] सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा आयरियउवज्झाएहिं सद्धिं गामाणुगामं दुईज्जमाणे णो. आयरियउवज्झायरस हत्थेण वा हत्थं जाव अणासायमाणे तओ संजयामेव आयरियउवज्झाएहिं सद्धिं जाब दुइज्जेज्जा । [ ७५४ ] ( 31 1 से भिक्खू वा भिक्खुणी वा आयरियउवज्झाएहिं सद्धिं दूइज्जमाणे अंतरा से पाडिपहिया उवागच्छेज्जा । तेणं पाडिपहिया से एवं बदेज्जा "आउसंतो समणा के तुब्भे ? कओ वा एह ? कहिं वा गच्छिहिह?” " जे तत्थ आयरिए उवज्झाए वा से भासेज्ज वा वियागरेज्ज वा । 'आयरियोवज्झायरस भासमाणस्स वा वियागरेमाणरस वा णो अंतराभासं करेज्जा । तओ संजयामेत्र अहारातिणियाए दुईजेज्जा । (७५५) 1 से. भिक्खू वा भिक्खुणी वा हारातिनियं गामाणुगामं दुईज्ज. या णो अहारातिणियरस हत्थेण हत्थं जांच अणासायमाणे ततो संजयामेव अहारातणियं गामाणुगामं दूई । ( ७५६) 1 मुनि अथवा आर्याए आचार्य के उपाध्याय साधे विचात तेमना हाथप सारे पोताना हाथपंग नहि अफळावतां तेनी साथे 'विनयपूर्वक गामे गाम फर. [७५४] मुनि अथवा आर्याने आचार्य के उपाध्याय साथै फरतों बच्चे को बेटेमार्ग एवं पुछे के “हे आयुष्मन् श्रमणो तमे कोण छो ? अने क्यांची आदो हो ? अथवा क्यों जाओ छो?" त्यारे तेना जवाब सुनिएन आपतां आचार्य के उपाध्याये वाळवो, अने तेमणे जवाव वाळतां सुनिए बच्चां कथं वों कर नहिं किंतु संभाळ सांये विनययी नम्र यह वर्त्तनं [७५० ] • मुनि अथवा आए ग्रामानु मे पनार्थी अधिक गुणवळा मुनि सावे विचरनां तेना हम विगेरे अवयवाने अडकी अडचण आपनी नहि. [७०६ ] t Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७० आचारांन-मूळ तथा भापान्तर. से भिक्खू वा भिक्षुणी वा अहारातणियं दुईजमाणे अंतरा से पाडिपहिया उवागच्छेना । तेणं पाडिपहिया एवं बदेज्जा:- “ आउसंतो समणा, के तुन् ?" जे तत्थ सवरातिणिए से भासेज वा वागरेज वा । अहारातिणियस्स भासमाणस्स वियागरमाणस्स वा णो अंतराभासं भासे ज्जा । ततो संजयामेव मामाणुगामं दुईजेजा। [७५७] .. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाप्णुगाम दुईजमाणे अंतरा से पाडिपहिया आगच्छेज्जा । सेणं पाडिपहिया एवं वदेजा:-" आउंसंतो समणा, अवियाई एत्तो पडिपहे पासह, तंजहा, मणुस्सं वा गोणं वा महिसं वा पसु वा पक्खि वा सिरीसि वा जलचरं वा, आइक्खह दंसेह. " तं को आइक्खेजा, णो दंसेज्जा, णो तेसिं तं परिष्णं परिजाणेज्जा, तुसिणीओ उवेहेजा, जाणं वा, णो जाणते वएन्जा । तओ संजयायेव गामाणुगाम् दुइजेज्जा (२५८ मुनि अथवा आयार पोसाथी अधिक गुणवान साधु माथे प्रामाम क. रतां वच्चे कोइ वटेमाणु म अने ते पुष के " हे आयुष्मन् श्रमणो, तमे कोण छो?" तो आनो जवाव अधिक गुणवाळा मुनिए वाळवो भने तेनी बच्चे बीजा मुनिओए कशुं न वोलघु. किंतु संभाळ-पूर्वक वा कर. [७५७] मुनि अथवा आर्याने ग्रायानुप्राग फरतां बच्चे कोइ वटेगा मळे अने ते पुछे के हे आयुप्मन् श्रमंगो, तमे आ रस्तापर जो कोई मनुष्य, वळद, पाडं अन्य जानवर, पक्षि, सर्प के जळचर जंतु जोयु होय तो कहो अने घतावो" त्यारे मुनि के आर्याए ते वावत तमने कंइ पण कहे के वताव नहि. अने तेमना ते सवालने कशी रीते पण स्वीकार न करता मौन धरी रहे. अथवा तो सरु जाणता छतां पण "जागुं छं एम नं पोलवू" अने संभाळपूर्वक ग्रामानुगा फरता रहे. [७५८] Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन वार (२७१] से भिक्खू वा भिक्षुणी वा गामाणुगानं दुईजमाणे अंतरा से प.डिपहिया आगच्छेज्जा । तेणं पाडिपहिया एवं वदेजा:-" आउसंतो ममणा, अवियाई एत्तो पडिपहे पासह उदगपसूयाणि कंदागि वा मूलागि वा तयाणि वा पत्ताणि वा पुप्फाणि वा फलाणि वा बीयाणि मा 'हरिताणि वा, उदग वा संणिहियं, आणि चा संणिक्खित्तं, सेसं तं चेब, से आइक्ख ह, जाव, दूईजेज्जा । (७५९) से भिषखू वा भिक्षुणी वा गामाणुगाम दुईज्जमा अंतरा से पाडिपहिया उवागच्छेज्जा । तेणे फडिपहिया एवं वडेजा:-" आउसंतो समणा, अवियाई एचो पडिपहे पासह जवसाणि वा जाव सेणं वा विरूवरूवं संणिविटुं; से आईक्खह, जाव दुईज्जेज्जा । [७६०] से भिक्खू वा भिक्खणी वा गामाणुगार्म दुईज्जमाणे अंतरा से पाडिपहिया जान “ आउसंतो समणा, केवतिए एत्तो गामे वा जाव रायहा एज रीते मुनि अथवा आर्याने ग्रामानुग्राम फरतां वच्चे कोइ वटमागु र अने ते पूछे के "हे आयुष्मन् श्रमणो, तमे आ रस्ते जो कंद, मूळ, पान, फल फळ, वीज, वनस्पति, पाणीनो जथ्यो, के अमिजोइ होय तो अमने कहो अने वतावो" त्यारे मुनि फे आयोए ते बावत तेमने कंइ पण कहें, करवं नहि अने तेमना ते सवालनो कशी रीते स्वीकार न करता मीन धरी रहेव अथवा जाणतां छता "जागु छ एम न बोलवु" [७५९] मुनि अथवा आर्याने ग्रामानुग्राम जहां रच्चे कोइ क्टेमार्गुओ मळे, अने नेओ एवं पूछे के "हे आयुप्मन् श्रमणो, आ मार्गपर तमे धान्य, के पडाव नावी पडेलं जूदं जूदं लश्कर देखता हो तो कहो अने बतावो." आवे वखते पण मुनिए उपर गमाणेज मौन रहे अथवा "हुँ जाणुं हुं एम न बोल. (७६०) एज रीते मुनि तथा आर्याने ग्रामानुग्राम जतां कोइ वटेमार्गुओ एवं पूछे के हे आयुटरा श्रमणो, " धी हवे कयुं गाम के शहेर आवशे" त्यारे पण मुनिए Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७२] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. . णी वा, से आइक्खह जाव दूईज्जेज्जा । [७६१] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगाय दुईज्जमाणे अंतरा से पाडिपहिया जाव आंउसंतो समणा, केवतिए एत्तो गामस्स वा णगरस्स'वा जाव रायहाणीए वा मंगे, ‘से आइखह, तहेब जाव दुईज्जेजा। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूईज्जमाणे अंतरा से गोणं वियाल पंडिपहे पेहाए जाव चिताचेल्लूडं 'वियालं पडिपहे पेहाए जो तेर्सि भीतो उम्मग्गेणं गच्छेज्जा; णो मग्गाओं मग्गं संकमज्जा, णो गहणं वा, दुग्गं वा, अणुपविसेज्जा, णो रुक्खसि दुरुहेज्जा, णो महति महालयांस उदयसि कायं विउसेज्जा, णो वाडं वा सरणं वा सत्थर वा कंखेज्जा । अप्पसुए जाव समाहीएतओ संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेजा । (७६३) . .. ! १ जिनकल्पिन माश्रित्य सूत्रद्वयमेतद्विज्ञेयं २ सार्थ । .. . उपर प्रमाणेज मौन रहे अथवा "हुँ जाणुं छ एम न बोलवू. [७६१] : . वळी मुनि के आर्याने यार्गे जतां कोइ वटेमार्ग: एबुं पूछे के ",हे आयुष्मन् श्रमणो, अहीथी गान शहर के राजधानीनो कयो रस्तो जाय छे ते जणावो" तो ते पण मुनिए नहि जणावयो. (७६२) ' । - सुनि तथा आर्याए प्रामानुग्राम जतां बच्चे चार्गमां विक्राळ बळद याविकाळ बांधने उभेलो जोइने तेमनाथी वी जइने अदळे घार्गे नहि देशवू, झाडपर नहि चडएँ, उंडा पागीमां नहिड, तेमज वाड दिगेरे आशराने के साथने पण नहि वांच्छ. किंतु धीरपणे समाधियर्थी संयमीं संभाळ पूर्वक त्यांथी ग्रामानुग्राम चाल्यां जई. [७६६] । ... ? आ सूत्र जिन कल्पिना माटेर्नु छ एम टीकाकारे जगाव्युं छे. Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन वास्मुं.. से भिक्खू वा भिवतुणी वा गामाणुगामं दृइज्जमाणे अंतरा से विहं सिया । सेजं पुण विहं जाणेज्जा, इमंसि खलु विहंसि-बहवे आमोसगा उबकरणपडियाए संपिडिया गच्छेज्जा, णो तेसिं भीओ उस्मगं चेव जाब समाहीए ततो संजयामेव गामागुगामं दृइजेज्जा । (७६४) से मिनरखू वा भिक्खुणी वा गामाणुगानं दूइज्जमाणे अंतरा से आमोसगा संपिंडिया गच्छेजा तेणं आमोसगा एवं वदेजाः-" आउसंतो समणा, आहर एयं वत्थं वा पायं वा कंबलं वा पायपुंच्छणं वा, देहि, णिविखबाहि; ” तं णो देजा, गिक्खिवेजा, णो वंदिय बंदिय जाएजा, णो अंजलिं कटु जाएज्जा, जो कलुगपडियाए जाएज्जा, धम्मियाए जाएज्जा, तुसिणीयभावेण वा से णं आमोसगा “ सयं करणिचं " ति कट्ट अक्कोसंति बा, जाव उबद्दवति वा वत्यं वा, पायं वा, कंबलं वा, पायपुंछणं १ अनेकदिवसगम्यमार्गः मुनि १ अथवा आर्याने ग्रामानुग्राम फरतां कच्चे लांबो मार्ग उल्लंघवानो आ वी पडे अने त्यां एवू यालम पंडे के आ मार्गमां घणा लुटारुओ पत्रादि उपकरण लॅटवा माटे एकठा थइ आश्वाना छे तोपण तेयनाथी वीने अवळे मार्गे या चालतो मार्ग छोडी घीजा मार्गे नहि चालवू किंतु तेज रस्ते धीरपणे समाधियी चाल्या जयं. [७६४] - मुनि अथवा आर्याने मा चालता बच्चे लूटारुओ मळे अने तेओ एवं कके " हे आयुष्मन् साबुओ, आ वस्त्र, पात्र, कंवळ, के पग प्रमार्जचानुं उपकरण अमारा आगळ परो, अपने आपो, अथवा तमे तमारा कवजामांथी छोडी द्यो त्यारे ते मुनिए ने तेमने आफ्वां नहि किंतु पोताना कवजागांधी छोडी देवां, अने तेश्रोए ते उपाडी लेतां मुनिए तेओने गलाय भरी भरीने के हाथ जोडीने के कसारीने ते पाछां नहि मागवा किनु धर्मकथन पुर्वक यागवां, अथना मान धरी रहवं. कदाच ते लुटारुओ तेमना दुष्ट राजने अनुसरीने मुनिने धमकाये अथवा १ आ सूत्र पण जिनकल्पिने माटे छे. Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंचागंग-मूळ तया भाषान्तर वा अच्छिदेख्न वा जाव परिट्टवेज्ज वा; तं णं णो गामसंसारियं कुज्जा, णो रायसंसारियं कुजा, णो परं उवसंकमित्तु बूया “ आउसंतो गाहावई, एते खलु मे आमोसगा उवकरणपडियाए ‘ सयं करणिजं । ति कट्ठ अक्कोसंति वा जाव परिद्रवेंति वा । एतप्पगारं मणं वा वयं वा णो पुरओ क१ विहरेज्जा, अप्पुस्सुए जाव समाहीए ततो संजयामेव गामाणुगाम दुईजेज्जा । [७६५] . एवं खलु तस्स भिक्खुस्स मिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सवढे हिं सहिते सया जएज्जासि चि बेमि । [७६६] हेरोन करे के वस्त्रादि उपकरण लूटील्ये तो ते वात मुनिए गाममां के दरबारमा पंसराववी नहि. तेमज कोइ गृहस्थ पासे जइ तेने एवं पण नहि कहे, के “हे आयुष्मन् गृहस्थ, आ लूटारुओ वस्त्रादिवस्तु ढूंटवा पोताना दुष्ट रीवाजने अनुसरीने मने धमकावे छे, हेरान करे छ के टूटे छे." वळी आवी रीत मनधी के शरीरथी पण कशी हीलचाल न करवी. किंतु धीरपणे समाधियी यत्ना पूर्वक ग्रा. मानुग्राम फरता रहेई. (७६५) एज मुनि अने आर्याना आचारनी संपुर्णता छ के तेमणे वधी वायतोमा सावधानीथी वर्तता रहे→ एम हुँ कहुंछ. [७६६] Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५] अध्ययन वेरंमु.. भाषाजातं नाम त्रयोदश मध्ययनम् । [प्रमथ उद्देशः से भिक्खू वा भिक्षुणी वा इमाइ वइ आधाराई साँचा जिसम्म इमाइं अणायारयपुवाइं जाणेजा:- जे कोहा वायं विउंजंति, जे माण वा, जे मायाए वा, जे लोभा वा, वायं विउंजंति, जाणओ वा फ. रुसं वयंति, अजाणओ वा फरुप्त क्यंति; सब मेतं सावज्जं वजेज्जा विवेग मायाए । (७६७) - १ वाचि अध्ययन तेर. भापाजात पहेलो उद्देश. (मापाना सोल विभाग तया चार प्रकारो) मुनि अपवा आर्याए पोताने जे रीते वोलवू जोइए ते रीतो जाणीने जे रोतो खराब अने सत्पुरुपोए नहि वापरेली छ तेवी रीतो परिहार करवी. जेवी के:-क्रोपरी घोलाता वाक्यो, मानधी वोलाता याक्यो, कपटयी बोलावा वास्यो लोमयी पोशाता पाक्यो, जाणी बृसीने बोलाना वाक्यो, अजाणपणे बोलाला कटोर वाक्यो, इत्यादिक सर्वे दोपभरेला वास्यो मुनिए विवेक राखीने वर्जन कर वा. [७६७] Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७६ ] आचारांग - सूळ तथा भाषान्तर धुवं वेयं जाणेज्जा, अधुवं वा; असणं वा पाणं वा खाइमं वा वा साइमं वा लभिय, णो लभिय; भुंजिय, णो भुंजिय; अदुवा आगते, अदुवा णो आगते; अदुवा एति, अदुवा णो एति; अदुवा एहिति, अदुवाणो हिति; एत्थ आगते, एत्यवि णो आगते; एत्थवि एति, एत्यि णो एति; एत्थवि एहिति, एत्थवि णो एहिति । [ ७६८ ] अणुवीइ णिाभासी र समियाए संजए भासं भासेजा; तंजहा, एगवयणं, (१) दुवयणं (२) बहुवयणं, (३) इत्थवयणं, (४) पुरिसवयणं, १ साधुना नैव सावधारणं बचो वाच्यं यथा २ सावधारणभाषी. मुनिने कोइ कं पूछतां (जो पाकी खबर नहि होयतो ) सुनिए एवं नक्की ठेवीने नहि बोलवूं के आ नक्की एमज छे या एम नथीज, अथवा अमुक ing नक्की आहारपाणी लावशे के नहिज लावी शकशे, या त्यां खाइनेज आवशे या नहिज खाइ आवशे, अथवा ते आव्योज छे के नथीज आव्यो, या आवेज छे के नवीन आवतो; या अवशेज के नहि आवो, या अंही आवेलोज छे के नीज आलो, या अहीं आवेज छे के नथीज आवतो, या अंडी आवशेज के नहि आवशे, इत्यादि [ ७६८] किंतु काम पडतां विचार करीनेज पछी नक्कीयणे, बोलतां सावधान रहीने भाषासमिति साचवीने भाषा बोलवी ते भाषायां वोलाता वाक्योना सोळ भाग रहेला छे, जेओ ओ प्रमाणे छे: २ ૩ एक वचन, द्विवचन बहुवचन, स्त्रीजातिवचन, ४ पुरुषजातिवचन, "नपुंसक जातिवचन, अध्यात्म वाक्य, उत्कर्ष वाक्य,' अपकर्ष सेक्य, उत्पी१ घोडे। २ संस्कृतमां अवौ ३ घोडाओ ४ गाय ५ वळद ६ पर ७ पेटमा होय ते खोली जवानुं वाक्य नेमके "जळ पा" ने बदले " रुपा" ८. रुपवती स्त्री ९ कुरुपवती स्त्री Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन वारमुं.. [२७७] (५) णपुंसगवयणं, (६) अज्झत्यवयणं, (७) उवणीतश्यणं, (८) अव: तत्रयणं, (९) उवणीयावणीयश्यणं, (१०) अत्रणीय-उमणीय त्रयणं (११) तीयवयणं, (१२) पडुप्पन्नक्यणं, (१३) अणागतवयगं, (१४) प. चक्खवयणं, (१५) परोक्खवयणं । (१६) [७६९] से एगवयणं वदिस्सामीति एगवयणं वदेज्जा, जाव, परोक्ख-बयणं य दिस्सामीति परोक्खवयणं वदेज्जा । इत्थी वे-म, पुरिस वे- स, णपुंसग वे-स, एवं वा वेयं, अण्णहा वा वेयं, अणुबीइ गिट्टाभाती समियाए सं जए भासं भासेज्जा, इच्चेयाइं आयतणाई । उवातिकम्म । [७७०] अह भिक्ख णं जाणेज्जा चतारि भाताजायाइं; तंजहा, सच्चमेगं पढमं भासज्जायं, बीयं मोसं, तइयं सच्चानोस, जंणेव सञ्चं पंव मोसं " असच्चामोसं" णाम तं चउत्थं भालज्जानं। ७७१7 १ दोपस्थानानि. पकर्ष वाक्य, अपकर्पोत्कर्ष वाक्य,२ भूतकाळ चन, वर्तमानकाळ चन,अनागतकाळ वचन,५ प्रत्यक्ष वचन : अने परोक्ष रचन. ५ [७६०] मुनिए एक वचन ज्या कहेवा, हाय न्यां एकवचन वापर. एम परोल वचनना ठेकाणे परोक्षवचन वापरतुं. वळी आ चीन के पुरुपज छ के नपुंसकेंज छे अश्या आ वावत आमज छे के तवज छे ए मर्छ तराशी नदी का वाद भाषासमिति साचवी नकी पणे बोलदु. अने लथळी जालना वचनदोष परिहार करवा. [७७०] मुनिए नीचे लरखेला भाषाना चार प्रकारे नाणवा जं.हए:-पेहेली सत्य भाषा, वीजी असत्य भाषा, त्रीजी मिश्र भामा अने चाची भत्णलत्यहिन व्यवहार भाषा. [७७१] १ रुपवनी किंतु दुःशीला • कुल्ला पतु सनीळा ३ ब{ यार छ ५ यो ६ मा ७ ते. - - Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - [२७८] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. से बेमि जे अतीता जेय पडुप्पन्ना जे य अणांगता अरहंता भ-- गवंतो, सञ्चे ते एयाणि चेव चत्तारि भासज्जायाई भासिंसु वा भासंति वा भासिस्संति वा, पण्णविसु वा पणव्वंति वा पण्णविरसंति वा । सव्वाई च गं एयाणि वण्णमंताणि गंधमंताणि रसवंताणि फासमंताणि चओवचइयाइं विपरिणामधम्माइं भवतीति समक्खायाई । [७७२] से भिक्खू वा भिक्षुणी वा', पुवं भासा अभासा, मासमाणा भासा भासा, भासासमयवितिकता भासिया भासा अभासा। [७७३] से भिक्खू वा भिक्षुणी वा जाय भासा सच्चा, जायभासा मोसा। जाय भासा सच्चामोसा, जाय भासा असच्चामोसा, तहप्पगारं भासं सावमं सकिरिय' ककसं कडुयं णिहुरं फरसं अण्हयकार छेदकार १ एवं जानीयादिति शेषः २ अनर्थदंडप्रवृत्त्युपेतां. ३ चर्चिताक्षरां. ४ चित्तोडेगकरी. ५ हक्काप्रधानां. ६ मर्यादोघटनपरां. ७ आप्रवकरी. हुँ कहुं छ के यह गएला, वर्तमान, अने यनारा तीर्थंकरो भाषाना एल. चार प्रकार कही बतावे छे. ए चारे भेदोमां वपराती भाषाना पुद्गलो वर्ण-घ रस-अने स्पर्धवाला छे, तथा वधवट अने फेरफारने पामता पण कहेला . [७७२] मुनि अथवा आर्याए जाणवानुं छे के वाल्या अगाउनी भापा (अर्थात भाषाना पुद्गलो) ते अभाषा छे वोल्या पछीनी भाषा पण अभाषाज छे मात्र खोलाती भाषाज भाषा जाणवी. [७७३, मुनि अथवा आर्याए पापप्रहात फेलावनारी, निंदिताक्षरवाळी, मामा घ. णीनादिलमां कचवाट उपजावनारी, धमकी भरेली, सामा धणीना मर्मने खुल्डं करनारी, कर्मबंध करावनारी, कोइपण जीवना. अंगोपांगनो छेद करावनारी, परि Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९] अध्ययन तेरk. परितावणकरि उवद्दवकरि भूतोवघाइयं, अभिकंख णो भास भासेज्जा । [७७४] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा पुमं आमंतमाणे, आमंतिते वा अप. डिसुणमाणे णो एवं पदेजा;-होले-ति वा, गोले-ति वा, वसले ति वा, कुपक्खे ति वा, घडदासे ति वा, साणे ति वा तेणे ति वा, चारिए ति वा, माई ति वा, मुसावादी ति वा, एयाइं तुर्म, इतियाइं ते जणगा । एतप्पगारं भासं सावज्जं जाव अभिकंख णो भासेज्जा । [७७५] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा पुमं आमतेमाणे आमंतिए वा अपडिसुणमाणे एवं वदेज्जा:-अमुगेति वा, आउसो ति वा, आउसंतो ति __ था, सावगेति वा, उपासमेति वा, धम्मिएति वा धम्मपियेति वा । एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव अभूतोवधातियं अभिकंख भासेजा । ७७६] साप उपनावनारी, कोइने उपद्रव करनारी या जीवयात करावनारी-सत्य भाषा या मृपा भाषा या व्यवहारु भाषा जाणी झीने कदापि नहि बोलची. [७७४] ' मुनि अथवा भार्याए कोइ पण पुरुपने वोलायतां अथवा रोलान्या छ तां नहि सांभळतो होता सेने एम न कहे, के अरे होल, अरे गोल (गुलाम), __अरे पल (पांढाळ), अरे कुपक्ष, अरे घडदास, अरे कूतरा, अरे चोर, अरे व्य भीचारी भरे कपटी, अरे जूग, इत्यादि अथवा तुं भावो छे या तारां मायाप आवाणे इत्यादि भावी रीतनी दोपित भाषा मुनिए नहि घोलवी. [७७५) किंतु कोह पण पुरुपने मुनि अथवा आर्याप लावता अथवा बोलाव्या पता तेणे नडि सांभळतां आ प्रमाणे नेने योलाव हे अमुक, हे आयुष्णन्, हे आयुष्यत्वे, हे श्रायक, हे उपासक, हे धार्मिक, हे पपमिय, इत्यादि. आवी तरेही निदोष भाषा पापर. [७७६] . Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर जाव, महुमेही महुमेहीति वा, हथच्छिण्णे हत्थच्छिण्णे त्ति वा, एवं पा द-णक-कण्ण-उद्ध-च्छिण्णे ति वा । जेया वन्ने तहप्पगारा तहप्पगाराहिं भासाहि बूइया बूइया कुप्पति माणवा, तेयावि तहप्पगाराहि भासा हिं अमिकंख णो भासेज्जा । [७८२ __ से भिक्खू वा भिक्खुणी का जहावेगइयाई रूवाइं घासेज्जा तहावि ताइं एवं वदेज्जाः ओयंसी ओयंसीति वा, तेयंसी तेयसीति वा, बच्चसी बच्ांसीति वा, जसंसी जससिति वा अभिरूवं अभिरूवेति वा, पडिरुवं पडिरूवति वा, पासादियं पासादियेति वा, दरिसणिज्ज दरिसणीएति वा । जेयावण्णे तहप्पगारा एयप्पगाराहि भासाहिं बूइया बूइया णो कुप्पंति मा णवा, तेयावि तहप्पगारा एयप्पगाराहिं भासाहिं अभिकंख भासेज्जा । तहप्पगारं भासं असावज्जं जाव भासेज्जा। [७८३] से भिक्खू वा भिक्खूणी वा जहा थेगतियाई रूवाई पासेज्जा, तंज मेही, छिन्नहस्ती ने छिन्नहरत, एज रीते छिन्नपाद, छिननास, छिन्नकर्ण, तथा छिन्नओष्ठ कहीने बोलाव_ नहि. मतलब के जे मनुष्यो जे शब्दोवडे वोलाव्याथी नाखुश थता होय ते मनुष्याने ते ते शब्दोबडे चारीने नहि वोलाव. [७८२] मुनि अथवा आर्याए तेवां रुपो जोइने पण तेश्रोमा रहेला कोइ पण गुणने ग्रहण करीने काम प्रसंगे तेलने रुडां नामोधी बोलावj, जेमके पराक्रमीने पराक्रमी, तेजस्वीने तेजस्वी, वत्ताने वक्ता, यशस्वीने यशस्वी, सुरुपने सुरुप, मनोहरने मनोहर, रमणीयने रयणीय, अने.देखवालायकने देखवा लायक कहीने बोलागलं अने ए रीते वीजा पण जे मनुष्यो जे शब्दोवडे बोलाव्याथी नाखुश थता नहि होय तेवा निर्दोष शब्दोवडे तेमने वोलाव. [७८३] मुनि अथवा आर्याए कोट, किल्ला, के घर विगेरे देवीने एयूं कहेवू नहि के . १ जेना हाथ कपायला होय ते छिन्नहस्त कहेवाय, Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन तेरंमु. [२८३] हा, वप्पाणि वा, जात्र, भवणगिहाणि वा, तहावि ताई णो एवं वदेज्जा, तंजहा, सुकडे इ वा, सुटू कडे इ वा, साहु कडे इ वा. कल्लाणे इ.वा, करणिज्जे इ वा । एयप्पगारं भासं सावज्जं जाव णो भासेज्जा । से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जहावे याइं रूबाइं पासेजा, तंज हा, बप्पाणि वा जाव, अवणगिहाणि वा तहावि ताई एवं वदेजा, तंजहा, आरंभकडे ति वा, सावज्जकडे ति वा, पयत्तकडे ति वा, पासाड़ियं पासादिए ति वा, दरिसणीयं दरिसणीए त्ति वा अभिरुवं अभिरूवेति. चा, पडिरूवं पडिलवे ति वा एयप्पगारं भासं असावजं जाव भासेजा। [७८५] से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा असण वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उवक्खडियं पेहाए, तहावि त णो एवं वदेवा, तंजहाः-सुकडे ति वा, सुटकडे ति वा, साहुकडे ति वा, कल्लाणे ति वा, करणिज्जे ति वा । एयप्पगारं भासं सावजा जाब णो भासेज्जा । ७८६] ए रुडा बनेला छे या युव वनाव्या छे, या फायदाकारक छ या करवा लायक छे कारग के ए वोलडं सादय (सदोष) छे. [७८४] किंतु मुनि अवत्रा आर्याए कोट, किल्ला, के घर विगेरे देखीने काम पता एबु बोलधु के ए हिंसाधी करेला छे, या पापथी करेला छे, या बहु मेहेनते करेलां छे, या रमणीय छ; या देखवा गायक छः या सरखी वाधणीवाल के शोभीता छ एते निश्चय (निर्दोष) भाषा बोलबी. [७८२] एक रीते मुनि अथवा भाव आहारपाणी तयार करलां जोइ एन वो. लंबू के ए सारां की छे या गडी रीने का छे या फायदाकारक छ; या करवा लायक छे कारण के एम वोल, ए दोर भरे२. [७८६] Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८४] भाचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. से भिक्खू वा मिखुणी वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उवाखडिय पहाए एवं वदेवा, तंजहा, आरंभकडे ति वा, सावज्जकडे ति वा, पयत्तकडे ति वा, भदं भहएति वा, असढं ऊसढे ति वा. रसियं रसिए ति वा मणुणं सगुण्णे ति वा । एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव भासेजा । [७८७] से भिक्खू पा भिक्खुणी वा, मणुरस वा गोणं वा, महिसं वा, मिगं वा. पसं वा, पक्खि वा जलयरं वा, से तं परिवढकायं--पहाए जो एवं वदेवा-शुले ति वा पतिले १ ति वा बट्टे ति या, बझे ति वा, पाइमे ति वा । एयप्पगारं भासं सावलं जाव णो भासेज्जा । [७८८] से भिक्खू वा भिक्खूणी वा मणुस्सं जाव जलयरं वा से तपरियढकायं पेहाए एवं वदेज्जा;-परिवूढकाए ति वा, उचितकाए ति वा १ प्रमेदुरः किंतु मुनि अथवा आर्याए आहारपाणी तैयार थएला जोइ काय पहा एई बोलवू के ए हिंसाथी के पापथी करेलां छे, या मेहेनतथी करेला छे, वळी ते जो डां होय तो रुहां कहेवा; ताजा होय तो ताजां कहेबां, रसवाला होय तोर 'सिक कहेच अने मनोहर होय तो अनोइर कहेबां एम निदाप भाषा वापरपी., [७८७ सुनि अथवा भायांए मनुष्य, या पळद, या पाडा, या हरिण, या कोइपण जातमा जानवर, या पशि, या सर्प, या जळचारी जंतुने युवावस्था प्राप्त थएला देखी ए नहि बोलबुं के आ जाडाछे, अपना आनंदी छे, अथवा गोळ छे, अथवा मारवा लायक छ, अथवा पाडवा लायक छ, आधी रीतनी भाषा पाप, भरेली छे माटे नहि बोलवी. [७८८] :- सुनि अथवा आर्याए मनुष्य के यावत् जळचारी जंतुने अवस्थावंत थएला देखी काय पहतां एवं बोल के आशरीरे योहाटा थरला छ, या शरीरे सुधर Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन तेरम. २८५] उवचितमंससोणिए ति बा, बहुपडिपुण्णइदिए तिरा, एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव भासेज्जा । (७८९) रो सिक्ख वा भिक्खुणी वा विरूवरूवाओ गाओ पेहार णो एवं वदेज्जा, तंजहा, गाओ दोज्झा ति वा, दम्मा इ वा गोहरा, वाहिमा ति वा रहजोग्गा ति वा । एयप्पगारं भासं सावज्जं जाब जो भालेज्जा । से भिक्खू वा भिक्षुणी वा विरूवरूवाओ गाओ पहाए एवं वदेज्जा, तंजहा:-जुवं गवे ति वा, घेणू ति बा, रसवति ति वा; हस्से ति वा, महल्लए ति वा, महब्बए ति, संवाहणे ति वा । एयप्पगारं भासं अस्वावजं जाव आभिकख भासज्जा (७९१) से भिक्खू वा भिक्षुणी वा तहेव गंतु मुजाणाई पच्चयाई व'णाणि वा, रुकखा महल्ला पेहाए णो एवं वदेजा, तंजहा:--पासायजोग्गा लाछे, या लोहीमांसे सुधरेला छे, गा लगभग संपूर्ण अंगवाय थया छे, आवी री तनी थापा निर्दीप छे माटे ते बोलवी. [७८९] मुनि अथवा आर्याए जूदी चैदी तरेहनी गायो अथवा बळदो जोड़ने एवं नाहे वोलंबु क आ गायो दोहवा लायक छ, अथवा आ वायरडाओ खेडवा लायक छ, अपरा गाडीमां जोडवा लायक छ, आवी रीतनी भापा पाप भरेली छे, याटे नहि वापरवी. [७९०] मुनि अथवा आर्याए जूदी जूदी तरेहनी गायो अथवा पळदो जोइने काम पडतां ए, बोलघु के आ चळद युवान छे, अथवा आ गाय दूधवाळी के रसवाकी छ, या आ वळद नानो छ, या मोहाटो छे, या भार उपाडवा समर्थ छ, थापी रीतनी भाषा निदाप छ, मादे बोलत्री. [७९१] मुनि अथवा जाए, पाग पर्वत के वनमा जइ न्यां रहेया मोहांटा झाडाने जोइ एयु नहि पोलवू के आ झाडो हवेस्सीना कामना छ या दरवाजाना कामना Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८६ ] आचागंग- मूळ तथा भाषान्तर ति वा, तोरणजोग्गा ति वा गिजोग्गा तिवा, फलिहजोगा ति वा, अग्गल - णावा - उद्गदोणि- पीठ - चंगवेर - मंगल--- कुलिय- अंतलणालि - गंडी - आसण-सयण - जाण - उवरसय-जोग्गा ति वा । एयप्पगारं भासं सावज्जं जाव णा भासेज्जा । ( ७९२ ) से भिक्खु वा भिक्खुणी वा तहेव गंतु मुज्जाणाई याणिवणाणिय, रुक्खा महल्ला पहाए एवं वदेजा, तंजहा, जातिमंता ति वा, दीवट्टा ति वा, महालया ति वा, पयायसाला ति वा, विडिमसाला' ति वा, पासादिया ति वा, जात्र पडिरूवा ति वा । एयप्पगारं भासं असावज्जं जाब अभिकख भासेज्जा । ( ७९३) से भिक्खु वा भिक्खुणी बहुसंभूता बणफला पेहाए तहावि ते १ चतुर्षु दिक्षु चतुःशाखावंति छे, या घना कायना छे, या वांकडा करवाना कामना छे, या अगलाना कामना छे, या वहाण के मवाना कामना छे, या पाट के बाजोठना कामना छे, या हळ कुरिया के यंत्रष्टिना १ कामना छे, या पनाळ के गंडीना (कुडीना) कामना छे या वेशवाना, सूदाना, चडवाना के रहेवाना सामानना कामना छे, आवी रीतनी भाषा पाप भोल, छे, माटे नहि बोलवी. [ ७९२] सुनि अथवा आए बाग, पर्वत, के वनमां जड़ मोहोटा झाड जोने काम पडतां एवं केवं के आ· झाडो सारी जातना छे, या उंचा अने गोळ छे, या मोहोटा विस्तारवाळा छे, या वहु शाखावाळा छे चोमेर सरखी नीकळेली चार शाखावाळा छे, या रमणीय छे, आवी शतनी भाषा निर्दोष छे माटे काम पडतां बोलवी. [७९३] मुनि अथवा आर्याए नयां घणां फलो पाकेला जोइने एवं न बोलं के. १ गाडानी ऊंघ वगेरेना. Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन तेरसुं. [०८७) णो एवं वदेज्जा, तंजहा;-पका तिवा, पायखजा ति वा, वेलोचिया ति वा, टाला ति वा, वेहिया ति वा । एयप्पगारं भाप्तं सावज्जं जाब जो भासेज्जा । [७९४] से भिक्खू वा भिक्षुणी वा बहुसंसूतफला अंबा पेहाए एवं वदेज्जा, तंजहा:-असंथडा ति वा, बहुणिवट्टिमफला ति वा, बहुसंभूया ति वा, भतरूवा ति वा । एयप्पगारं भासं असावजं जाब भासेजा। [७९५] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुसंभूयाओ ओसहीओ पेहाए न. हावि ताओ णो एवं वदेजा, तंजहा:- पक्का ति वा, नीलिया ति वा, छवी इ वा, लाइमा इ वा, भन्जिमा इ वा बहुखल्जा इ वा । एयप्पगारं भासं सावजं जाव णो भासेज्जा । [७९६] १ कोमलानि २ द्विधाकर्तुयोग्यानि ३ असमर्थाः आ फळो पाकेलां छे अथवा पचावीने खावा लायक छे, अथवा हमणाज फोडवा लायक छ अथवा कोमल छे अथवा वे कटका करवा लायक छे, आवी रीतनी भाषा पाप भरेली छे, माटे नहि वोलपी. [७९४] मुनि अथवा आर्याए आंबानां झाड बहु फूलेला जोइ काम पडता एवं योलवू के आ पाडो भार श्रीली शरुतां नथी, या बहु फळेला छे या एओगां घणां फळो तैयार थएलां छे, या एयोमा फळेोतुं रूप धायुं छे. आवी रीतनी निर्याप भाषा काम पडतां बोलवी. [७९५] मुनि अथवा आर्याए धान्य बहु पासला जोइ एतुं नहि बोलघु के ए पाकेलांछे अथवा काचां छे. घटछे, या मुकवा योग्य छ, या मुंजवा योन्य छ, आरी रीतनी भापा पाप भरेली छ माटे नहि बोलवी. [७९६] Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२९० आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. -दस्त्र प्रणाख्यं चतुर्दश मध्ययनम्. PORAN [ प्रथम उद्देशः] से मिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकखेज्जा वत्थं एसित्तए । से जं पुण वत्थं जाणेज्जा, तंजहा,-जगियं वा, भंगियं २ वा, साणय' वा, पोत्तयं ४ वा, खोमियं ५ वा. तूलकडं वा, तहप्पगारं वत्थं [८०२] जे णिग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरसंघयणे, से एगं १ ऊर्णानिष्यत्रं २ लालानिष्पन्नं, ३ सणनिष्पन्नं ४ पत्रनिष्पन्नं ५ कासिकं ६ धारयेदितिशेषः . . . - अध्ययन चौदमुं. वस्त्रषणा. पहेलो उद्देश. २ . (मुनिए वस्त्रो केवां अने केम लेवा ?) मुनि अथवा आर्याए कपडा तपास पूर्वक लेवा. जेवां के जननां, रेशमी शणना, पानना, कपासना, अर्क तूलना, अने एवी तरेहनी वीजी जातीनां [८०२] जे मुनि युवान वळवान निरोगी अने मजबूत बांधावाळो होय तेणे ए १ दुर्वळ हद्ध के हलका संहननवाळो होय ते पोतानी समाधि प्रमाणे वे क वधु वस्त्रो पण धारे. जिनकल्पि तो पोतानी प्रतिज्ञा प्रमाणेज वर्ते-तेने अप' वाद नथी. Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • 'अध्ययन चौदमुंः [२९१] वत्थं धारेजा, णो बितियं । जाणिगंथी सा चत्तारि संघाडीओ धारेना; -एगं दुहत्यवित्थारं, दो तिहत्यवित्थाराओ, एगं चउहत्यवित्थाम् । एएई । वत्येहिं अविज्जमाणेहिं अह पच्छा एगमेगं संसीविजा । (८०३) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा परं अद्धजोयणमेराए वत्थपडियाए नो अभिसंधारेज्जा गमणाए । (८०४) . - . . से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण वत्थं जाणेजा, अस्संपडियाए " एगं साहम्मियं समुद्दिस पाणाई, (जहा पिंडेसणार)। (८०५) एवं-बहवे साहम्मिया, एग साहम्मिणि, बहवे साहस्मिणीओ, बहवे समणमाहणा, तहेव पुरिसंतरकडं [ जहा पिंडेसणाए ] (८०६) १ अस्वप्रत्ययं, निर्गनिमित्तं. का वस्त्र पहेरनु ; बीजु नहि पहेरवं. आर्याए चार साडीमो राखवीः-एक चे हाथनी, वे जग हायनी, अने एक चार हाथनी. अने ए मुजब कदाच वत्न न मळे । तो ते वीना साये सांधी पूरा करवा. [८०.] मुनि अथवा आय.ए वे गाऊरी लांचे कपडा मागवा माटे जवानो इरादो । न करचो. [८०४] __ मुनि अथवा आर्याए जे वस्त्र गृहस्थे एकज मुनिने माटे तैयार करेल होय . ते नहि लेबु. ( भाई वधारे विशेष पिंडेपणा नामना अध्ययन प्रमाण समजवो.) [८०५] एज गते घणा मुनि, एक आर्या, पणी आयोओ, नया प्रणा धरण त्रा. स्मणोना माटे तैयार करेलां वत्रा विरे पण पिंडपणा नामना अध्ययनमा कोला आवीज किशमना सूत्र प्रमाणे समजी ले. [८०६] Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२९२] आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से ज्जं पुण वत्थं जाणेज्जा, अस्संजए भिक्खुपाडियाए कीतं वा, रत्तं वा, धङ्कं वा, मङ्कं वा, संसकं वा, संपधूमितं वा तहप्पारं वत्थं अपुरिसंतरकडं जाव णो पडिग्गाहेज्जा । अहपुण एवं जाणेज्जा, पुरिसंतरकडं जाब पडिग्गाहेज्जा । (८०७ ) - सेभिक्खु वा भिक्खुणी वा से ज्जाइं पुण वत्थाइं जाणेजा विरूवरूवा महणमोल्लाइ, तंजहा; -- आजिणाणि वा, सहिणाणि वा, सहिकल्लाणाणि वा, आयाणिवा, कायकाणि वा, खोमियाणि वा, दु उ गुल्लाणि वा, पाणि वा, मलयाणि वा, पतुण्णाणि वा, अंसुयाणि वा, ど } चीर्णसुयाणि वा, देसरागाणि वा, अमिलाणि वा, गज्जलाणि वा, फालियाणि वा, कायहाणि वा, कंबलगाणि वा, पावरणाणि बा, अण्णयराणि १ लक्ष्णानि २ अजारोमनिष्पन्नानि ३ इंद्रनीलवर्णकपासोहवानि ४ दुकूलानि ५ वल्कलो हानि ६ देशप्रसिद्धानि अतः परंसर्वाणि मुनि अथवा आर्याए जे कपडां गृहस्थे साधुना मांद खरीदी लावेलां, या घोइ राखेल, या रंगी तैयार करेला, या साफ करेलां, या सुधारेलां, या धूप आ पी सुगंधित करी राखेलां होय तेवां वस्त्र तेज माणसे तेम करेलां होय तो तेना पासेथी नहि लेवां, पण जो वीजा माणसे, तेम करेला होय तो लइ शकाय. [4०७ ] A मुनि अथवा आर्याए नीचे जगावेला जूदी जूदी किशमनां बहु मूल्यवान वस्त्रो नहि लेवां:- चामडानां कपडi, सुंवाळां कपडi, सुवाळा अने शोभितां कपडां, चकरीना वाळथी बनेलां आशमानी रंगना स्था बनेलां, सफेद रन, बंगाळी रुनां बनेलां, पट्टसूत्रना वनेलां, मळय सूत्रनां वनेलां, छालना बनेलां, अंशुक, चीनांशुक, देशराग, आमिल, गज्जळ, फालिक, कायह, तथा ऊननां अ ૧ १ अंशुकधी कायह लगीनी जातो देशोना नामोथी घखली छे. Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन चाटमुं. तहप्पगाराइं वत्थाई महणतणमोल्लाई लाभे संते णो पडिग्गाहेज्जा । [८०८] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से ज्जाइं पुण आईणपाउरणाणि वत्थाणि जाणेज्जा, तंजहा; उद्दाणि । वा पेसाणि वा पेसलेसाणि वा, कि. एहमिगाईणगाणि वा, णीलमिगाईणगाणि वा, गोरभिगाईणगाणि वा, कणगाणि वा, कणगकंताणि वा, कणगपट्टाणि वा, कणगखइयाणि वा, क . णगफुसियाणि वा, वग्धाणि वा, विवग्धाणि वा, आभरणाणि वा, आभरणाविचित्ताणि वा, अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि आईणपाउरणाणि वत्थाणि लाभे संते णो पडिंगाहेजा । [८०९] इच्चेयाइं आयतणाइं उबातिकम्म अह भिकरबू जाणेज्जा चउहिं पडिमाहिं वत्थं एसित्तए । [८१०] १ मत्स्यचर्मनिप्पन्नानि ने मलमलना कपडां तथा एवी तरेहनां वीन पण सर्वे बहुमूल्यवान् कपडां मुनि ए नहि लेवा. [८०८] मुनि अथवा आर्याए नीचे जणावेलां चामडाना वस्त्रो न लेवा:-उद्र जातना मत्स्यना चामडानां, पेश नामना जानवरना चामडानां तथा पशमना बनेला काळा-नीला-तथा धोळा हरणना चामडाना, सोना जेवी कातिवाळा तारथी या सोनाना पाटथी या किनखावधी या जरीची भरेला चामडानां, वाघना चामडानां या वायना चामडाधी मटेलां, या आभूपण रुप या आभूपणयी जडेलां, तथा एवी जातना चीना चामडानां कपडां मुनिए पहेरवां नहि. [८०९] उपर जणावेला दोपो टाळीने मुनिए नीचे लखी चार प्रतिज्ञाओयी वस्त्र लेबां. [८१०] Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२९३] आचागंग-मूळ तथा भापान्तर तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उद्दिसिय वत्थं जाएज्जा, तंजहा, जंगियं वा, भंगिपं वा, साणयं वा, पोत्तयं वा, खेमियं वा, तूलकडं वा, तहप्पणारं वत्थं सयं वा णं जाएज्जा परो वा णं देजा, फासुयं एसणीयं लाभे संते पडिगाहेजा । पढमा पडिमा। (८११) अहावरा दोचा पडिमा.-से भिक्खू वा भिक्षुणी वा पेहाए पेहाए वत्थं जाएज्जा, तंजहा, गाहावती वा, जाव, कम्मकरी वा,-से पुवामेव आलोएज्जा, “ आउसो ति" वा भगिणी ति” वा “ दाहिसि मे एत्तो अण्णतरं वत्थं ? " तहप्पगारं वत्थं सयं वा णं जाएज्जा, परो वा से देखा जाब फासुर्य एसणीयं लाभे संते पडिग्गाहेजा दोच्चा पडिमा । ८१२ अहावरा तच्चा पडिमा:-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से ज्जं पुण वत्थं जाणेजा, तंजहा; अंतारेज्जगं वा, उत्तरिज्जगं वा तहप्पगारे वत्थं सर्य त्यां पहेली प्रतिज्ञा आ प्रमाणे छः मुनि अथवा आर्याए उननां, रेशमनां, शणनां, पाननां, कपाशनां, के तूलनां कपडांमार्नु अमुक जातज कपड़े लेवानी धारणा करवी. अने तेवु कपड़े पोते मागतां अथवा गृहस्थे आपया मांडतां निर्दोष होय तो ग्रहण करतुं. ए पेहेली प्रतिज्ञा. [८१?] वीजी प्रतिज्ञाः-मुनि अथवाआर्याए पोताने खप लागतुं वस्त्र गृहस्थना घरे जोइने ते मागवू. ते आ रीते के शरुआतमांज गृहस्थना घरमा रहेता माणमो तरफ जोइने कहेयं के हे आयुष्मन् अथवा हे वेहेल, मने आ वमारा वस्त्रोमांथी एकाद वस्त्र आपशो? आवी रीते मागा अथवा गृहस्थे पोतानी मेळे ते वस्त्र आपतां निप जाणीने ते वस्त्र ग्रहण कर. ए चीजी प्रतिज्ञा. [८१२] त्रीजी प्रतिज्ञाः-मुनि अथवा आर्याए जे वस्त्र गृहस्थे अंदर पहेरीने वापरेलूं . या उपर पहेरीने वापरे, होय तेवू वस्त्र पोते मागी लेबु, या गृहस्थे आश्वा मांड Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन चौदमुं. [२९७] वा णं जाएज्जा, जाव पडिग्गाहेज्जा । तच्चा पडिमा । (८१३) अहावरा चउत्था पडिमा:-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उझिचम्मियं वत्थं जाएज्जा। जंचण्णे बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमगा णावखंति, तहप्पगारं उज्झियधम्मियं वत्थं सयं वाणं जाएज्जा, परो चा से देना फासुयं जाव पडिगाहेज्जा । चउत्था पडिमा । (८१४) इच्छेयाणं चउण्हें पडिमाणं जहा पिंडेसणाए । (७१५) सिया णं तीए एसणाए एसमाणं परो वदेज्जा “आउसंतो समणा एजाहिं तुमं मासेण वा दसराएण वा, पंचराएण वा, सुए वा सुयतरे वा, तो ते वयं आउसो अण्णयरं वत्थं दासामो,” तहप्पगारं णिग्घोसं सोचा जिसम्म से पुयामेव आलोएज्जा “आउसो त्ति वा भइणि ति वा, णो खलु मे कप्पति, एयप्पगारे संगारे वयणे पडिसुणेत्तए । अभिकखसि मे तां निर्दोष जणातां ग्रहण करवू. ए त्रीजी प्रतिज्ञा. [८१३] चोथी प्रतिज्ञाः-मुनि अथवा आर्याए फेंकी देवा लायक वस्त्रो मागवां एटले के जे वस्त्रो वीजा कोइ पण श्रमण, ब्राह्मण, मुसाफर, रांक, के मि खारी चाहे नहि तेवां पोते मागी लेवां या गृहस्थे पोतानी मेळे आपतां निदर्दोष जणातां ग्रहण करवां. ए चोथी प्रतिज्ञा. [८१४] ए चारे प्रतिज्ञाओ माटे वधु खुल सो पिंडेपणा नामना अध्ययनथी धारवो. [८१५] ___ कदाच उपरनी प्रतिज्ञाओने अनुसरीने जोइतां वस्त्र लेवा जतां मुनिने कोइ गृहस्थ एवं कहे के हे आयुष्मन् श्रमण, तमो एक मास रटीने अथदा दस दिवस रहीने अथवा पांच दिवस रहीने अधवा आयती काले अथवा परम दहाडे अत्रे आवजो तो तमाने अमे कोइ पण वस्त्र आपी " आवा बोल सांभळी मुनिए कहे जोइए के "हे आयुप्मन् अथवा वेहेन, माराधी आवी रीतनुं वोलवू कबूल Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२९६ ] आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर. दातुं, इयाणिमेव दयाहि. " से णेवं वदतं परो बढ़ेज्जा “आउसंतो समणा अणुगच्छाडि तो ते वयं अण्णयरं वत्थं दासामो, " से पुव्यामेव आलोएज्जा, “उसो ति वा भइणि त्ति वा णो खलु मे कइ एयप्पगारे सगारे पडिसुणेच्ए । अभिकखंसि मे दातु, इमाणिमेव दलयाहि ।” से सेव वदतं परो णेत्ता वदेज्जा " आउसो त्ति वा भयणी त्ति वा, आहरेयें वत्थं, समणस्स दास्सामो; अवियाई वयं पच्छावि अप्पणो सयगाए पाणाई भूयाई जीवाई सताई समारम्भ समुद्दिरस जाव चेइस्सा - मो. " एयप्पगारं णिग्घोसंसाच्चा णिसम्म तहप्पगारं वत्थं अफासुर्य जाव जो पडिग्गाहेज्जा । (८१६) ין सिया णं परो णेत्ता वएज्जा " आउसो ति वा, भइणी ति वा, आहरेयं वत्थं, सिणाणेणत्रा जाव आघंसित्ता वा पघंसित्ता वा समणस्स १ आहरखैतत् करी शकाय तेम नथी माटे जो देवा चाहाता हो तो हमणांज आपो आम कहाथी गृहस्थ कदाच कहे के हे आयुष्मन् श्रमण त्यारे मारी पाछल चाल्या आवो तो तमने कोइ पण जोतुं वस्त्र आपीशुं." त्यारे मुनिए जवाब आपको जोइए के हे आयुष्मन् अथवा वेहेन माराथी एवा बोल कबूल थइ शके तेम नथी. माटे जो देवा चहाता हो तो हमणाज द्यो. " आवी रीते मुनिए कह्याथी गृहस्थ पोताना घरमा रहेला माणसने कहे के “हे आयुष्मन् अथवा वेहेन, पेहेलुं वस्त्र लड् आव, आपणे ते वस्त्र आ साधुने आपीशुं; अने आपणे आपणा माटे पाछु बनावी लेशुं." आवा बोल सांभळी मुनिए तेवी जातनां वस्त्र सदोष धारीने ग्रहण करवां नहि. [८१६] कदाच सुनिने तेडी जनार गृहस्थ पोताना घरना माणसाने आई कहे के "हे आयुष्मन् अथवा बेहेन, पेयुं वस्त्र लइ आवो, एने आपणे स्नानादिकमां प t Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन चौदमुं. [२९७] णं दास्सामो. " एयप्पगारं गिग्घोसं सोचा णिसम्म से पुवामेव आलोए ज्जा, आउसो त्ति वा, भयणी ति वा, मा एयं तुमं वत्थं सिणाणेण वा जात्र पघंसाहि वा । अभिकंखसि मे दातुं, एमेव दलयाहि । " से वं वदंतस्स परो सिणाणेण वा जाव पांसित्ता दलएज्जा, तहप्पगारं वत्थं अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा ।[८१०] से णं परो णेत्ता वदेजा " आउसो त्ति वा भइणी ति वा, आहर एतं वत्थं, सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेणवा उच्छोलेता वा पधोवत्ता वा समणरस दासामो " एयप्पंगारं णिग्घोस-तहेव, णवरं, "मा एयं तुमं वत्थं सीओदगवियडेग वा, उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेहि वा पधोवेहि वा। अभिकखसि-सेसं तहेब, जाव णो पडिग्गाहेज्जा । [८१८] से णं परो णेत्ता वदेजा,- आउसो ति वा भयणीत्ति बा, आ१ सुगंधिद्रव्येण गता सुगंधी द्रव्यो बडे घसी के वासी करीने साधुने आपीशुं' आवा शब्दो सांभळीने मुनिए पेहेलेथीज कहेवू के “ हे आयुष्मन् अथवा वहेन, ए वस्त्रने तमे तेवा सुगंधि द्रव्यो बडे घसता के चासता महि. जो देवा चाहता हो तो घस्या के वा स्या वगर एमज आपो. तेम छतां गृहस्थ घसी के वासीने आपे तो तेवू वस्त्र अयोग्य गणीने लेबु नहि. [८१७] कदाच मुनिन तेडी जनार गृहस्थ पोताना घरना माणसोने एवू कहे के हे आयुष्मन् अथवा वेहेन, पेलं वस्त्र लइ आवो, आपणे तेने थंडा या गरम पाणीथी छांटीने अथवा धोइन आ साधुने आपीशं. आवा बोलो सांभळी मानीए तेम करवा ग्रहस्थने ना पाडवी; अने कहे, के जो तमे मने देवा चाहाता हो तो एमने एमज आपो. तेम कया छता गृहस्थ माने नहि तो ते वस ग्रहण न करवं. [८१८] कदाच मुनिने तेडी जनार गृहस्य घेर जा पाताना माणसाने कहे के " हे Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९८] आचाग-मूळ तथा भाषान्तर हरेतं वत्थं, कंदाणि वा हरियाणि वा विसोधेत्ता समणस्स दासामो." एयप्पगारं णिग्घोसं सोचा णिसम्म जाव, “ भइणी चि वा, मा एयाणि तुम - कंदाण वा जाब विसोहेहि, णो खलु मे कप्पति एत्तप्पगारे वत्थे पडि गगाहित्तए । " से सेवं वदंतस्स परो कंदाणि वा जाव विसोहेचा दलएजा तहप्पगारं वत्थं अफासुयं जाव णो पडिग्गाहेज्जा । (८१९) सिया से परो णेत्ता वत्थं णिसिरेज्जा से पुवामेव आलोएज्जा “आउसो त्ति वा भइणी शि वा तुमंचेवणं संतियं वत्थं अंतोमंतेण प. डिलेहिस्साभि.” केवली बूया 'आयाण-मेय;-वत्थंतेण ओबहे सिया कुंडले वा, गुणे वा, हिरणे वा, सुवण्णे वा, मणी वा, जाव, रयणावली वा पाणे वा, बीए वा, हरिए वा । अह भिक्खूणं पुयोवादिष्ट्वा जाव जं पुच्चामेव वत्थं अंतोअंतेण पडिलेहिज्जा। (८२०) १ दद्यात् २ त्वदीय मेव ३ रूप्यं आयु म । अथवा बेहेन, पेटु वस्त्र लाने आपण एना उपर अडेला कंद के लीलो तरी ऊतारी साफ करीने ए वस्त्र साधुने आपाशं." आवा वोलो सांभळीने तेम करवा गृहस्थने ना पाडवी. ना पाड्या छतां गृहस्थ माने नहि तो ते वस्त्र ग्रहण न कर. (८१९) __कदाच मुनिने तेडी जनार गृहस्थ मुनिने कोइ पण वस्त्र आपवा मांडे -तो मुनिए शरुआतमांज कहेवू के "हे आयुष्मन् अथवा बेहेन हुँ एकवार तमारा वस्त्रने चारे बाजु तपाशी लर, पछी ग्रहण करीश. जो तपास्या वगरज ते वस्त्र मुनि ग्रहण करे तो केवळ ज्ञानिओए तेमा दोष वताव्या छे. कारण के ते वस्त्रना छडामां कदाच कुंडळ, सांकळ, रु', सोनु, मणि के रत्ननी माळा विगेरे पण वांघेला होय (अने ते कंइ मुनिने लेवा योग्य नथी.) तथा वळी ते वस्त्र साथे जीवजंतु के धान्य या लीलोतरी वळगेला होय, माटे मुनिने खास एज भलामण छे के तेणे शरुआदमांज वस्त्रन चारे बाजु तपाशी पछी ग्रहण करवू. (८२०) , Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२९९ अध्ययन चौदमुं. ., से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण वत्थं जागजा सअंडं जाव संताणगं, तहप्पगारं वत्थं अफासुयं जाव णो पडिग्गाहेज्जा । [८२१] . से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से ज्जं पुण वत्थं जाणेजा अप्पंडं जाव संताणगं अलं अथिरं अधुवं अधारणिज्जं रोइज्जतं ण रोच्चइ तहप्पगारं वत्थं अफासुयं जाव णो पडिग्गाहेज्जा । [८२२] . . . से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से ज्जं पुण वत्थं जाणेज्जा, अप्पंड जाव संताणगं अलंथिरं धुवं धारणिज्जं रोइज्जतं रुच्चाइ तहप्पगारं वत्थं फासुयं जाव पडिग्गाहेजा। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा " णो णवए मे वत्थे " ति कट्ट णो बहुदेसिएग सिणाणेण वा जाव पवंसेज्जा ।[८३३] मुनि अथवा आर्याए जे वस्त्र, इंडों के जीवजंतुथी भरेलुं जगाय अने जे पोताना वरतुं पण न होय तथा जे झाडं टकी शके नहि तथा जे थोडा वखत सूधी ज वापरवा मळतुं होय तया जे धरवा लायक न होय तथा कोइ पण रीते . पसंद पडतुं पण न होय तेवा अयोग्य वसने ग्रहण न कर. [८२१] हुनि अथवा आए जे वस्त्र इंडों के जीवजंतुथी रहित, पोताना सपना व, टकाउ, हमेशना माटे मळतुं, अने धरवा लायक तथा पसंद पडतुं होय ते. __.. निर्दोष वस्त्रने ग्रहण करवू. [८२२] मुनि अथवा आर्याए " मारं वस्त्र नबुं नयी अर्थात् जुर्नु धड गएटुं छे" एम धारीने तेने जरा झारा सुगंधी द्रव्योयी घसई के मसळg नदि, [८२३] Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०० आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर से भिक्खू वा भिक्खुणी वा " णो णवए मे वत्थे." त्ति कटु णो बहुदेसिएण सीतोदगवियडेण वा जाव पधोवेज्जा । (८२४) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा " दुब्भिगंधे मे वत्थे ” त्ति कटु णो बहुदेसिएण सिणाणेण वा, तहेव, सीतोदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा, (आलावओ) । (८२५) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज वत्थं आयावेत्तए वा पयावेत्तए वा, तहप्पगारं वत्थं णो अणंतरहियाए पुढवीए, णो समणिहा ए, जाव संताणाए आयावेज्ज वा पयावेज वा । (८२६) . से भिक्खू घा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा वत्थं आयावेत्तए वा पयावेत्तए वा तहप्पगारं वत्थं थूणसि वा, गिहेलगंसि वा, उसुयालंसि २ - उंबरे वा. २ उदूषले वा. . एज प्रमाणे जूना थएला वस्त्रने जरा झाझेरा थंडा के गरम पाणीथी धोवू पण नहि. [८२४] मुनि अथवा आर्याए "मारं वस्त्र मेलं थएल छे" एम धारीने जरा झाझेरा सुगंधि द्रव्योथी तेने घस मसळवू नहि तथा थंडा के गरम पाणाथी तेने धोवू करवू नहि. [८२५] मुनि अथवा आर्याने ज्यारे कोइ पण वस्त्रने तडके सुकववानी जरुर पडे त्यारे ते वस्त्री तेमणे तरतनी सूकेली, या भींजेली या जीवजंतुवाळी जमीन पर न सुकाववां, [८२६] एज प्रमाणे ते वस्त्रो लाकडानी स्थूणी उपर या दरवाजा पर या ऊखल १ मच्छ निर्गत अर्थात् जिनकल्पि साधुना माटे आ सूत्र छे. गच्छमां रहेला मुनिए तो यतनापूर्वक वस्त्र धोवां पण खरां एम टीकाकार जणावे छे. Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन चौदमुं.. [३०] . वा, कामजलंसि । वा, अण्णयरे वा तहप्पगारे अंतलिक्खजाए दुम्बद्ध दुन्निक्खत्ते अणिकंपे चलाचले णो आयावेज वा णो पयावेज वा । [८२७] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंज्जा वत्थं आयावेत्तए वा पयावेत्तए वा, तहप्पगारं वत्थं कुलियंसि२ वा, भित्तिसि वा, सेलसि वा, अण्णतरे वा तहप्पगारे अंतलिक्खजाए जाव णो आयावेज्ज वा पयावेज वा । [८२८] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अमिकखेज्जा वत्थं आयावेत्तए वा पयावेत्तए वा, तहप्पगारे वत्थे खंधसि वा, चंचंसि वा, मालंसि वा, पासायंसि वा, हम्मियतलंसि या, अण्णयरे वा, अंतलिक्खजाए जाव णो आ. यावेज वा पयावेज वा । [८२९] - से-त-मादाय एगंत मवकमज्जा; अहे ज्झामथंडिलांस वा, जाव, अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि पडिलहिय पमज्जिय पम १ स्नानपीठे वा. २ भित्तौ ३ नदीतटे उपर या स्नान करवाना वाजोठ उपर या एवीन किशमनी कोइ जमीनयी उंची रहेती वस्तु उपर आमतेम लटकतां टांगीने नहि सूकववां [८२७] वळी ते वस्त्रो भीतउपर या नदीना तट उपर या पापणो उपर अथवा एवीज किशमना हरेक जमीनथी उंचा रहेता पदार्थ पर पण नहि मुकववां [८२७] वळी ते वस्त्रो कोइ पण चीजोना ढगला उपर या मांचा उपर या माळ उपर या घर उपर या हवेली उपर अथवा एवी जातना वीजा कोइ पण उंचा पदार्थों उपर पण नहि सूकववा. [८२९] किंतु ते वस्त्रो लइने एकांत स्थळमां ज. अने त्यां जीवजंतुरहित स्थळ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०४]] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. वा परिहरित्तए वा; " थिरं वा णं सतं णो पलिच्छिदिय पलिच्छिदिय प.. रिट्टवेजा; तहप्पगारं ससंधितं वत्थं तरस चेव णिसिरेजा; णो अचर्णि साइज्जेज्जा । [८३४) ' से एगतिओ तह पगारं णिग्घासे सोच्चा णिसम्म जे भयंतारो तहप्पगाराणि वत्थाणि ससंधियाणि महत्तगं महत्तगं जाइत्ता जावं एगाहेण वा दुयाहेण वा तियाहेण वा चउयाहेण वा पंचाहेण वा विप्पवसिय विप्पवत्तिय उवागच्छंति, तहप्पगाराणि वत्थाणि णो अपणो गेण्हति अण्ण मण्णस्स अणुवयंति, तं चेव, जाव, णो सातिज्जंति, बहुवयणेण भासियव्वं (८३५) से हंता “ अहमवि मुहत्तं परिहारियं वत्थं जाइत्ता जाब एगाहेण वा दु-ति-चउ-पं वाहेण वा विप्पवस्सिय विप्पवसिय उवागच्छिरसामि, अवियाई एथं गमेव सिया” माइट्टाणं संफासे । णो एवं करेज्जा (८३६ १ उपहत डीने परठवबुं नहि किंतु एवी जातवें वस्त्र पार्छ आफ्नार मुनिनज साप.... [८३४ एज प्रमाणे घणा मुनिओ पासेथी घणा मुनिओ वस्त्र मागी बीजे गाम ... एक वेत्रण चार के पांच दिवस रही पाछा अवी वस्त्र पाछा आपदा मांडे ता । घणा मुनिओए ते वस्त्र जो कंइ पण वगडेलां होय तो लेवां नहि-किंतु तेमनेज सॉपवा. [८३५] . आी वात सांभळीने कोइ मुनि एवं विचारे के “पण कोइ मुनि पार थी उधारु वस्त्र मागी वीजे माम जइ आबु के जेथी ए वस्त्र वगडी अवाया ज मळशे," तो ते मुनि दोष पात्र थाय छे. माटे तेम नहि विचार. [८२६]. ? छोडी देवू नहि Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन चौदमुं. [३०] वा, कामजलंसि ' बा, अण्णयरे वा तहप्पगारे अंत. लिक्खजाए दुब्बडे दुन्निक्खत्ते अणिकंपे चलाचले णो आयाज वा णो पयाज वा । [८२७] सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा वत्थं आयावेत्तए वा पयावेत्तए वा, तहप्पगारं वत्थं कुलियंसि वा, भित्तिसि वा, सेलसि वा, अण्णतरे वा तहप्पगारे अंतलिक्खजाए जाव णो आयात्रेज्ज वा पयावे वा । [८२८] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा वत्थं आयावेत्तए वा पयावेत्तए वा, तहप्पगारे वत्थे खंधंसि वा, चंचंसि वा, मालंसि वा, पासायंसि वा, हम्मियतलांस या, अण्णयरे वा, अंतलिक्खजाए जाव णो आया वा पयाज वा । [८२९] से-त-मादाय एगंत मवकमेज्जा ; अहे ज्झामथंडिलंांसि वा, जाव, अण्णयरांस वा तहप्पगारं से थंडिलंसि पडिले हिय पमज्जिय पम१ स्नानपीठे वा. २ भित्तौ ३ नदीतटे उपर या स्नान करवाना बाजोट उपर या एवीज किशमनी कोइ जमीनयी उंची रहेती वस्तु उपर आमतेम लटकतां टांगीने नहि सूकवचां [ ८२७] वळी ते वस्त्रो भींतउपर या नदीना तट उपर या पापणो उपर अथवा एवीज किशमना हरेक जमीनधी उंचा रहेता पदार्थ पर पण नहि शुकवचां [८२७] P चळी ते वस्त्रो कोइ पण चीजोना ढगला उपर या मांचा उपर या माळ उपर या घर उपर या हवेली उपर अथवा एवी जातना वीजा कोइ पण उंचा पदार्थों उपर पण नहि मूकवत्रां. [८२९] किंतु ते वस्त्रों लड़ने एकांत स्थळमां जयं, जने त्यां जीवजंतुरदित स्थल Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०२] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. ज्जिय ततो संजयामेव वत्थं आयावेज वा पयावेज वा । (८३०) एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुगीए वा सामग्गियं । (८३१) ! 6 (द्वितीय उद्देशः) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहेसणिज्जाइं१ वत्थाई जाएज्जा अहापरिग्गहाई वत्थाई धारेज्जा, णो धोएज्जा, णो रइज्जा, णो धोयरत्ता इं वत्थाई धारेज्जा, अपलि उंचमाणे २ गामंतरेसु ओमचेलिए । एयं खलु वत्थधारिरस सामग्गिय । (८३२] १ अपरिकर्माणि २ अगोपयन् ३ एतच्च सूत्रं जिनकल्पिकोद्देशेन द्रष्टव्य, वस्त्रधारित्व विशेषणात् गच्छांतर्गतेपि चाविरुद्धं । जोइ तपाशी पुंजी प्रमार्जी यर न पूर्वक ते वस्त्रो सूकववा. [८३०] एज खरेखर मुनि अने आर्याओना आचारनी संपूर्णता छे. [८३१] बीजो उद्देश (वस्त्र संवधी वधु आज्ञाओ) मुनि अथवा आर्याए वस्त्रोने सुधारवां करवां नहि, किंतु जेवा मळे सेवांज, पहेरवां तथा धोवां के रंगवां पण नहि, अने जो धोएलां के रंगेला शेय तो पहेरयां नहि. अने ग्रामांतरे जतां पोतानां वस्त्रो संताडवां नहि, ए वस्त्राधार मुनिनो आचार ले. [८३२] आ सूत्र जिनकल्पि मुनिना माटे छे अने वस्त्रधार एवा विशेषणथी स्थविर कल्पिना माटे पण घटी शके छे. (वृत्ति.) Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अध्ययन चौदमुं. [३०३] से भिक्खू बा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिउकामे सव्वं चीवर मायाए गाहावइकलं पिंडवायपडियाए । णिक्खमेज वा पविसेज वा। एवं बहिया विचारभूमी विहारभूमी वा गामाणुगाम दूइजेज्जा । अह पुण एवं जाणेज्जा तिव्वदेसियं वा वासं वासमाणं पेहाए जहा पिंडेसणाए, णवरं, सव्वं चीवर-मायाए । (८३३) से एगइओ मुहत्तगं मुहुत्तगं पडिहारियं बीयं वत्थं जाएजा,जाव एगाहेण वा दुयाहेण वा तियाहेण वा चउयाहेण पंचाहेण वा विप्पवसिय उवागच्छेजा । तहप्पगारं वत्थं णो अप्पणा गिण्हेज्जा', णो अण्णमण्णस्स देजा, णो पामिच्चं कुज्जा, णो वत्थेण वत्यपरिणामं करेजा, णो परं उबसंकमित्तु-एवं वदेजा " आउसंतो समणा, अभिकंखसि वत्थं धारेत्तए महादिकालोदेशेन । १ वस्त्रस्वामी मुनि अथवा आर्याए भिक्षा लेवा जतां या खरच पाणी जतां या ग्रामासुग्राम विहार करतां सघळां वस्त्र साये लेवा. अने जो थोडो के घणो वरसाद वरसतो जणाय पिंढपणा नामना अध्ययनमां का मुजब वर्तव. [८३३] कोइ मुनि पासथी कोइ मुनि, वे घडी या एक वे त्रण चार के पांच दि. चस सूधी वापरवा मारे उधारं पत्र मागी तेटलो वखत बीजे गाम एकलो रही आची पाछो भावतां ते वस्त्र पार्छ आपवा मांडे तो (जो से वस्त्र ते मुनिए त्यां एकला रह्याथी सूतां करतां घगाडयुं होय तो) ते तेवू पहेला मुनिए पोता सारूं लेबुज नहि, तथा लइने चीनाने देवू नहि, तथा उधारु टेरची राख नहि के हरणा तुंज वापर पछी मने घीजू देजे, तथा तेना बदले वी© पत्र बदलवामां ले नहि, तथा यांना मुनिने पण एम नहि कह के आ पत्र तमाने जोड्नु होय त ल्यो;" बळी ते बन लांबो बखत चाली शक तं मनवृत होय तो तेने ताडी फ.. Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०४] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. वा परिहरित्तए वा; " थिरं वा णं सतं णो पलिच्छिदिय पलिच्छिदिय परिट्वेज्जा; तहप्पगारं ससंधितं २ वत्थं तरस चेत्र णिसिरेजा; णो अनाणं साइजेज्जा । [८३४) : से एगतिओ तहप्पगारं णिग्यासं सोचा णिसम्म जे भयंतारो तहप्पगाराणि वत्थाणि ससंधियाणि मुहुत्तगं मुहत्तगं जाइत्ता जाव एगाहेण वा दुयाहेण वा तियाहेण वा चउयाहेण वा पंचाहेण वा विप्पवसिय विप्पवत्तिय उवागच्छंति, तहप्पगाराणि वत्थाणि णो अप्पणो गेण्हति अण्णमण्णस्स अणुवयंति, तं चेव, जाव, णो सातिजंति, बहुवयणेण भासियव्वं (८३५) से हंता “ अहमवि मुहुत्तं परिहारियं वत्थं जाइत्ता जाव एगाहेण वा द-ति-चउ-वाहेण वा विप्पवस्सिय विप्पवसिय उवागच्छिरसामि, अवियाइं एवं गमेव सिया” माइट्टाणं संफासे । णो एवं करेज्जा । (८३६ १ उपहत डीने परठव नहि किंतु एवी जातवें वस्त्र पार्छ आफ्नार मुनिनेज साप. [८३४) . . एज प्रमाणे घणा मुनिओ पासेथी घणा मुनिओ वस्त्र मागी वीजे गाय एक वेत्रण चार के पांच दिवस रही पाछा अवी वस्त्र पाछा आपदा मांडे तो घणा मुनिओए ते वस्त्र जो कंइ पण वगडेलां होय तो लेवां नहि-किंतु तेमनेज सोपवा. [८३५] आदी वात सांभळीने कोइ मुनि एवं विचारे के "हुँ पण कोइ मुनि पासे थी उधारं वस्त्र मागी वीजे गाम जइ आ के जेथी ए वस्त्र बगडी जवाथी मनेज मळशे," तो ते मुनि दोष पात्र थाय छे. माटे तेम नहि विचारवं. [८३६] १ छोडी देवू नहि Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , अध्ययन चौद . . [१०५] से भिक्खू वा भिक्षुणी वा णो वण्णमंताई वत्थाई विवण्णाई करे। , न्जा; जो विवष्णाई घण्णमंताई करेज्जा; “अण्णं वा वत्थं लभिस्सामि ति" कटु अण्णमण्गरस देजा; णो पामिच्छ कुन्जा; णो बत्थेण वत्थपरि णाम करेजा; णो परं उबसंकमित्तु एवं वदेशा, “ आउसंतो समणा, अभिकखसि मे वत्थ धारित्तए वा परिहरित्तए वा;" थिरं वा ण संतं जो पलिच्छिदिय पलिच्छिदिय परिवेज्जा, जहाचेयं वत्थं पारगं-परो मम्नड । परं चणं अदत्तहार । पडिपहे पहाए तरस वत्थस्स णिदाणे णो तेसिंभीओ उम्मग्गेणं गच्छेज्जा । जाव अप्पुस्सुए जाव ततो संजयामेव गामा णुगामं दूइज्जेज्जा । [८३७] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगाम दूइज्जेचा अंतरासे विहं २ सिया । से जं पुण विहं जाणज्जा 'इमंसि खलु विहंसि बहवे आ १ अदत्वहारिणं तस्कर. २ अटीप्रायः पंथाः । सुनि अथवा आर्याए शोभीती दाने (चोगेना एयण) कुगोभीता न करवाः कुशोभितां वस्त्रोने मुगाभिन न करवा "पदलाया हुं बीज बल मेळपशि" एग विचारी एक बीजाने वो आपयां नहि; वळी वलो उधारे पण आएवा नाह तथा एक वस्त्र आरी वी वस्त्र लेवू नहि तथा वीजा मुनिने ते वस्त्र लेवानुं पृछयु नहि, नया वस्त्र मजबुत छ्ता “ए वस्त्र वीजाओने सारु नी देग्वानु" एग दिचारी नेना फटका करी परठवयं नहि. वळी रस्ते जतां चोरोने देखी आडे मार्गे नहि च,लघु, किंतु धीरनधी यातनापूर्वक चाल्या . [८३७] मुनि अथवा आर्याने ग्रामानाम जतां बच्चे योदो गेदान आवी पडता बने त्यां एy जणाय के आ मेदानमां पणा लूंधाराओ स्टेमागुओना कपडा लत्ता १ मुख्यत्वे में तवां पर लेवांज नहि. Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर भोसगा वत्थपडियाए संपिंडिया, ' णो तेसि भीओ उम्मग्गेण गच्छेजा। जाव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा । (८३८) ' से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामें दूइञ्जमाणे अंतरा' से आमोसगा पडियागच्छेज्जा, ते णं आमोसगा एवं वदेजा " आउसंतो समंणा; आहरेत्तं वत्थे, देहि निविख्वाहि, ” जहा इरियाए' णाणत्तं वस्थपड़ियाए । [८३९] एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गिय । १ ईर्याध्ययनवत् नानात्वं बोध्यं । टूटया माटे भराइ वेठा छे. तो तेमनाची घीही नहने आडे मार्गे नहि ज, किंतु धीरजथी तेज रस्ते चाल्या जवू. [८३८] . मुनि अथवा आर्याने ग्रामानुग्राम जतां बच्चे लूंटाराथो आवी मळे अने तेओ कहे के 'आयुप्मन् तपस्वी, आ वस्त्र लाव, दे, के छोड़ी दे" तो जेम इयाध्ययनमां कहेलुं छे सेम वर्तवं. [८३९] - . ए मुनि अथवा आर्याना आचारनी संपूर्णता छ. [८४०] , . . । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. अध्ययन पंदरम .. पात्रेषणाख्यं पंवदश मध्ययनम्. - . [३०] .. [प्रथम उद्देशः ] से भिक्खू वा भिक्खणी वा अभिकंखेज्जा पार्य एसित्तए । सेजं पुण पायं जाणेज्जा तंजहा,-अलाउपायं वा, दारुपायं वा, मट्टियापार्य, चा तहप्पगारं पाय जे णिगंथे तरुणे जाव थिरसंघयणे से एगं पायं घारेज्जा, णो बीयं । [८४१] से भिक्खू वा भिक्खणी वा परं अद्वजोयणमेराएं पायपडियाए णो अभिसंधारेज गमणाए । [८४२] . , जिनकल्पिकादिः अध्ययन पदरमुं. पात्रपणा. पहेलो उद्देश. . - (पात्र केवां अने शी रीत लेखा?) मुनि अथवा आर्याए उयारे पात्र जोइतुं होय त्यार तुंवर्नुि पात्र अथवा मान पात्र अथवा एवीज तरेहतुं पीजु कोइ पण पात्र ले. अने ज मुनि युवरान अने मजबूत बांधागलो होय तेणे मात्र एकज पात्र राखवु. १८४१] सुनि अथवा आर्याए पात्र लेखा माटे वे. गाऊनी इदी बाहर न जई. ? आ नियम पण निनकल्लि साधुने माटे छे, एम टीकाकार ज णारे Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२९८] आचागंग-मूळ तया भापान्तर से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जपुण पाय जाणेज्जा, अस्सिपडियाए एगं साहम्मियं समुहिस्स पागाई; जहा पिंडेसणाए चत्तारि आला वगा । पंचमे बहले समणमाहणा पगणिते तहेव ।८४३] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अस्संजए भिक्खुपडियाए यहवे समणमाहण ( वत्थेसणा लावओ) 1.४४] । से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से ज्जाई पुण पादाई जाणेजा विरूबरूवाइं महद्धणमुल्लाई, तंजहा, अयपादाणि वा, नंबपादाणि वा, सीसग-हिरण्ण-सुवण्ण-रीरिया-हारपुड । पायाणि वा, मणि-काय-कंससंख-सिंग दंत-चेल-सेल-पायाणि चा, चम्मपायाणि वा, अण्णयराणि वा तहप्पगाराई विरूवरूवाई महद्धणमोल्लाई पायाई अफासुयाइं जाव जो पडिग्गाहेज्जा । [८४५] १ लोहपात्रं. मुनि अथवा आर्याए जे पात्र गृहस्थ एफज मुनिने माटे उद्देशाने तैयार कर्य होय ते नहि लेवू. अहीं पिंडेपणा ना ना अध्ययन प्रमाणे चार आलापक बोली जवा. [८४३] तेमज अनेक भमण-ब्रामण माटेनो आलापक वस्त्रपणा मुजव जाणले. [८४४] . मुंनि अथवा आर्याए जे पात्रो बहु मूल्यवाळा जणाय जेवा के लोहान त्रांवाना, सीसाना, रुपानां, सोनानी, पीतळना, पालादनां, मणिनां, काचनां, मांसाना, शंखना, शीगडानां, दांतनों, कपडाना, पत्थरना, चामडाना, के एकी कोइ पण मोहना बहु मूल्यवान पात्रो होय ते तेमणे ग्रहण करवां नहि. [८४-] Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन पंदर. [800] सेभिक्खु बा, भिक्खुणीचा से उजाई : पुण पादाई जाणेज्जा विरूवत्वाइं महणबंधणाणि वा, अयबंधणाणि वा, जाव चम्मबंधणाणि वा तहप्पगाराई महणबंधणाई अफासुयाई णो पडिग्गाहेज्जा । इच्चेयाइं आयतणाई उचातिकम्म | [ ८४६ ] अह भिक्खु जाणेज्जा चउहिं पडिमा हि पाढ़े एतिए । तत्थ खल इमा पढमा पडिमा :- से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उदिसिय उद्दिसिय पाये जाएज्जा, तंजहा, लाउयपायं वा, दारुपायं वा, मट्टियापायं वा, तहप्पारं पायं सयं वाणं जाएज्जा, जाव पडिगाहेज्जा । पढमा पडिमा | [ ८४७ ] अहावरा दोच्चा पडिमा :- से भिक्खू वा क्खुिणी वा पेहाए पहा ए पायं जाएज्जा, तंजहा, गाहावई वा जाब कम्मकरी वा से पुव्यामेव आलोएज्जा " आउसो तिवा, भइणी ति वा, दाहिति मे एतो अण्ण し वळीजे पात्रो उपर लोढा के चामड के कोड़ पण तेवी चीजना बहु मूल्यचान पट्टा लगाडेला होय ते पण ग्रहण नहि करवा. ए रीते पापना स्वयी अ लगा रही वर्त्तं. [८४६] सुनिए चार प्रतिज्ञाओची पात्र गवगवा जवं. ते चार प्रतिज्ञा ओनांनी पेहेली प्रतिज्ञा आ प्रमाणे:-मुनि अथवा आर्या अमुक जतनुं नाम ला तेज पात्र मागे - बुं के बीपत्र, काष्टपात्र, मृत्तिकापात्र, वगेरे, अने ते माग्याची या पोतानी मेळे आप तो ते ग्रहण करे. ए पहेली प्रतिज्ञा. [८४७] चीजी प्रतिज्ञा आ ममाणे:-मुनि अथवा आर्या अमुक जातनुं पात्र गृहस्थना घरे जोया वाइज मागे अने ते नत्र गृहस्थ के चाकरटीने शुरुभानम जो कहे के " हे आसन या वन, आ तूंचीपात्र, काष्टपात्र के मृत्तिकापात्र वर्ग Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , [३१०] आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर. यरं पादं, तंअहा, लाउयपादं वा " जाब तहपगारं पायं सयं वा णं जा• एज्जा, परो वा से देज्जा जाव पडिगहिज्जा । दोच्चा "पडिमा । (८४८) अहाघरा सच्चा पडिमा; - से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से ज्जं पुण पादं जाणेज्जा संगतियं वा वैजयंतियं वा, तहपगारं पायं सयं वा जात्र पडिग्गाहेज्जा । तच्चा पडिमा । (८४९) अहावरा चउत्था पडिमा - से. भिक्खू वा भिक्खुणी वा उज्झियघ 1 2 स्मियं पादं जाएजा जं च - ण्णे बहवे समणमाहणा जात्र वणमगा णाचकंखंति, तहप्पारं पादं सयं वाणं जाब पढिग्गाहेज्जा । चउत्था पडि मा । (८५०) [549] रेमानं अमुक पात्र मने आपशो?" ए रीते माग्याथी या पोतानी मंळे गृहस्य के चाकर ते आपे तो ग्रहण करे. ए वीजी प्रतिज्ञा. [ ४४८ ] . ד' इच्चेयाणं चउण्हं पडिमाणं. अण्णयरं पडिमं ( जहा पिंडेसणाए ) त्रीजी प्रतिज्ञा आ. प्रमाणे:-मुनि अथवा आर्या, गृहस्थे वापरेल. या गृहस्वना पराता वे ऋण पात्रोमातुं एक पात्र माग्यायी या पोतानी भेळे गृहस्थे, आपर्ता ग्रहण करें. ए त्रीजी प्रतिज्ञा. [ ८४९ ] î चौथी प्रतिज्ञा आ प्रमाणेः-मुनि अथवा आर्या जे पात्र फेंकी देवा जे होय अने तेथी ने वीजा. कोइ (बौद्ध) भिक्षुक ब्राह्मण के भीखारी लोक ले नहि ते पात्र सापायी या पोतानी मेळे गृहस्थे आपता ग्रहण करे. ए. चोथी प्र-निशा. [८५० ] ए चार प्रतिज्ञाओमांनी कोड पण प्रतिज्ञाने अंगीकार करनार मुनिए उस्कप न करवो के “ के हुं उग्रतपनो करनार हूँ; या, बीजो साथ एम करी. शके नहि. " किंतु "जिनाज्ञा पाळनार सर्व साधु महापुरुपत्र छे" एम. जाणी शुद्ध संयम पाळवो. [८५१] f Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन चौदमुं. [३] से णं एताए एसणाए एसमाणं परो पासित्ता बदेज्जा “ आउसतो समणा एजासि तुमं मासेण वा " ( . जहा वत्सणाए. .) (८५२) से णं परो णेत्ता वदेज्जा, “ आउसो ति वा भइणी ति वा आहरे यं पादं, तेल्लेण वा, धएण वा, णवणीएण घा, बसाए वा, अब्भधेचा वा तहेव, सिणापाइ तहेव, सीतोदगंकदादि तहेव । (८५३) . ... . से णं परो णेत्ता वदेज्जा “आउसंतो समणा, मुहत्तगं मुहत्तगं अत्याहि जाव, ताव अम्हे असणं या उबकरेसु वा उवक्खडेसु वा, तो ते वयं आउसो सपाणे संभोयणं पडिग्गहगं दास्सामो. तुच्छए पडिग्गहए दिण्णे समणस्स णो सुदृ साह भवति.” से पुवामेव आलोएज्जा "आ आ रीतनी तजवीजयी मुनिने पात्र मागता जोइ गृहस्थ कहे "हे आगुष्मन् श्रमण, तमो एक महिनो रहीने आवनो" इत्यादि सांभळी मुनिए जेम पिढपणाध्ययनमा कांछे तेम करखं. [८५२] । ___मुनि के आयोने तेही जनार गृहस्थ की मुनि के आशेने तेडी जनार गृहस्थ कहे के "हे आयुष्मन् श्रमण, या रहेन, पहेलं पात्र लाव; के जेथी तेने तेल, घी, माखण के चरवी चोपडी या या सुगंधि चीजो बडे सुवासित करी या उना के नाढा पाणीथी धोइ या कंद के वन म्पतिधी स्वच्छ करी मुनिन आपशुं." आवां घोल सांभळी मुनिए तरत ते का यत मनाई पाडयी अने कहेयु के जो आपना चाहता हो तो एमज आपो." तेम कन्या छतां गृहस्थ नाह माने तो तें पात्र मुनिए के भार्याए ले नहि. [८५३] तेडी जनार गृहस्थ कहे के " आयुप्मन् श्रमण, तसे घाडीवार उभा रही, 1 तेटलामां अमे आ रसोइपाणी तयार फरी लेश; अने त्यारे है आयुप्मन् तमाने रसादपाणी सहित पात्र आपीशं, वेमके खाली पात्र साधुने आप्याथी सा. १ कारण के अमार पास चीजें वर्तु पात्र नभी दर्शका) . . - Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J [3] आचारांग-मूळ तथा भापन्निर. उसो त्ति वा भइणी नि बा, णो खलु मे कप्पइ आधाकाम्मए असणे वा पाणे वा खाइमे वा साइमे वा, भोत्तए बा पायए वा। मा उरकरहि . मा उवक्खडेहि; अभिकखसि मे दातुं, एमेव दलयाहि " से सेव बरतस्त परो असणं वा जाव उपकरेना उववरखडेत्ता सपाणं सभोयण पडिग्गह गं दलएज्जा, तहपगारं पडिग्गहं अफासुयं जाय णो पडिग्गाहेज्जा । (८५४) सिया सेवं परो णेत्ता पडिग्गहगं णितिरेजा, से पुयामेव आलोएजा “ आउसो ति वा भइणी ति वा तुमं चैव णं संतियं अंतोअंतण पडिलेहिरपामि (८५५) . केवली बूया आयाण-मेयं । अंतो पडिग्गहांस पाणाणि वा धी याणि वा हरियाणि वा जाव अह भिक्खूणं पुल्चोवदिट्ठा एस पतिग्णा जं . पुयामेव पडिग्गहरगं अंतोअंतेण पडिलहिज्जा । (८५६) रुं न देखाय" आवे प्रसंगे साधुए जोइ तपाशी कह के "हे आयुष्मन् अथवा चेहेन, मने मारा माटे करलां रसोइपाणी काम लागवाना नथी. माटे मारा माटे ते तयार करता ना. जो पात्र देवा चाहता हो तो एमज खाली भापो." आम कह्या छतां गृहस्थ आहारपाणी तैयार करी ते सहित पात्र आपवा मांडे तो ते अयोग्य जाणी ग्रहण कर नहि.,[८५४] सेडी जनार गृहस्थ पात्र आपया मांडे त्यारे मुनिए शरुआतमा जोइ करी कहेवू के के “हे आयुप्मन् या अहेन, आ पात्र तमार, छतांज हुँ चारे बाजुयी जोइने लइश.८५५] जो जोया वगर मुनि पात्र ले तो केवळनानी कहे छ के एयी कर्मबंध थाय. कारण के कढाच ते पाचना अंदर जीवजंतु के धनस्पति (लीलफूल) पण आवी जा. ते मोटे मुनिने उपर मुजव भलामण छे के तेणे शरुआतमांज पात्र. ने बी वाजु नोइ तपाशी ग्रहण कर. [८५६]. Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __. अध्ययन पंदर. सअंडादि सव्वे आलावगा जहा वत्थेसणाए; णाणतं, तेल्लेण वा घएण चा णेवणीएण वा वसाए वा सिणाणादि जाव अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि पडिलेहिय पडिलोहय पमज्जिय तओ संजयामेव आमज्जेज वा । [८५७] एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं 'जं सबटोह सहितेहिं सया जएज्जासि त्ति बेमि । [८५८]. द्वितीय उद्देशः] से निभावू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पवि सअंडादि। सर्व आलापक वस्त्रैपणा मुजव जाणवा मात्र ए विशेष छे के जो तेल, घी, माखण, के चरवी विगैरेथी खरडेल पात्र जणाय तो निर्जीव स्थंडिल भूमिमां जइ जोइ पुंजी प्रयार्जी यतना पुर्वक तेने घसी नाखवं. [८५७] एज खरखर मुनि अथवा आर्याना आचारनी संपूर्णता छे के वधी वावतामां सदा यत्ना पुर्वक वर्त. एम हुँ गाई छ. [८५८] वीजो उद्देश. पात्र दिपे वधु आज्ञाओ. मुनि अथवा आर्याए आहार लेदा माटे गृहस्वना घरे जतां शरुआनमांज १ वतपणा नामना चौदमा अध्ययनमांनी कलम ८२१ थी ८० लगी नी कन्टमो ममाणे अहिं पण सर्व हकीकत जाणी लेकी. Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर. समाणे पुव्वामेव पेहाए पडिगहगं, अवहट्टु पाणे, पमज्जिय रयं ततो संजयामेव, गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए णिवखमेज्ज वा पविसेज्ज - वा । (८५९) 1 1 केवली बूया 'आयाण मेयं.' अंतोपडिग्गहंसि पाणे वा, बीए वा, रए वा परियावज्जेज्जा । अह भिक्खुणं पुव्वोवादिना एस पतिष्णा, जं पुव्यामेव पेहाए पडिग्गहूं, उवहद्दु पाणे, पमज्जिय रयं, ततो संजयामेव गाहावर कुलं पिंडवायपडियाए पविसेज्ज वा णिक्खमेज्ज वा । [८६० ] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ - जाद- समाणे सिया. से परो अभिहद्दु अंतो पडिग्गहगंांसि सीओदगं परिभाएत्ता णीहरु दलएजा तहप्पमारं पडिग्गहगं परहत्थंसि वा परपादंसि वा अफासुयं जाव णो पडिग्गाहेज्जा । [ ८६१ ] १ निस्सार्य. २ ( अग्र मूलसूत्र पुस्तके " तह पगारं पडिग्गहगं' इति लिखितं लभ्यते परं टीकाकारेण तथा प्रकारं शीतोदक मिति व्याख्यातत्रात् तहप्पगारं सीओदगं" इति शुद्ध पाठः संभाव्यते, न ज्ञायते बालावबोधकारः कथं वृत्तिं नानुसृतः ! ) पात्रने जोइ तपाशी, जीवजंतु दूर करी, रंज प्रमाजी यतनापूर्वक आहार लेवा जवं आव. [८५९ ] जो पात्र जोया प्रमा विना आहार लेवा जाय तो केवळ ज्ञानी कहे छे के तेथी कर्मबंध थाय छे. जे माटे कढाच ते पात्रनी अंदर जीवजंत, लीलफूल के रज पण रहेली होय माटे मुनिने ऊपर मुजव भलामण छे के तेणे शरुआतमांज पात्रने जोइ तपाशी पुंजीप्रमार्जी यतना पूर्वक आहार देवा जÎ आव. [८६० ] मुनि अथवा आर्या गृहस्थना घरे आहारपाणी लेवा गएला होय, अनेकदाच त्यां ते गृहस्थ पोताना पात्रमां टाढुं पाणी नाखीने ते मुनिने आपना मांडे तो ते गृहरूना हाथमां के पात्रमा रहे ते टाढुं पाणी अयोग्य जाणीने ग्रहण करो नहीं [८६१] Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन पदर. [३१५] सेय आहच्च पडिगाहिए सियार से खिप्पामेव उदगंसि साहरेज्जा, सप डिग्गह-मायाए च णं परिहवेज्जा, ससणिडाए चणं भूमीर पियमेा । (८६२) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उदउल्लं वा ससद्धिं वा पंडिग्ग णो आमज्जेज्ज वा जाव पयावेज़ वा १ (८६३) अह पुण एवं जाणेज्जा, - त्रियडोदए मे पडिग्गहे छिष्णसिणेहे, तहप्पगारं पडिग्गहं ततो संजयामेद आमज्जेज वा जाव पयावे वा । (८६४) से भिक्खू वा भिक्खुणी या गाहाबइ. पविसिउकामे सपडि गह: मायाए गाहाब३कुलं पिंडवायपडियाए पविसेज्ज वा णिक्खमेज्ज वा । एवं बहिया विहारभूमिं वा गामाणुगासँ दुइजेना । (८६५ ) १ कदाचित् २ प्रथमं तस्य दातु रुदकभाजने प्रक्षिपेत् तदनिच्छायां शेषसूत्रं. कदाच ते भूलचूकथी लेवाइ जाय तो तरतज' (ते देनार घणीने त्यां पाई आपी आवकुं पण जो ते लेवानी ते ना पांडे तो) वीजा वा विगेरेना सरखी जाताना पाणीमां तेने नाखी देवं; तेम नं बने तो पात्र सहित परठवी देवं; अथवा भीनाशवाळी जमीनयां ढोळी आव. [८६२] मुनि अथवा आर्याए पाणी भीजे के भीनाशवाळु पात्र मशळं के सूकवं नहि. [८६३] किंतु ज्यारे एवं जगाय के मारा पात्र उपरतुं पाणी के भीनाश दूर थयां छे, त्यारे ते मगळं के सूकवनुं [ ८६४ ] मुनि अथवा आर्याए गृहस्थना घेर आहार लेवा जतां पात्रों सहित, ज आव ने एज ते बाहेर विहारभूमिमां गामांगाम फरतां पण पात्रो सहित फ खुं॰ [८६५] Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. तिव्वदेसियादि जहा बीयाए वत्थेसणाए. णवरं, एत्थ पडिग्गहतो। (८६६) एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सबहेहिं सहितेहिं सया जएज्जा सि, त्ति बेमि । (८६७) . मुनिए पात्र लेवा जतां जो थोडो या घणो बरसाद वरसतो होय तो जेम पिंडेपणामां विधि वतावी छे तेम वर्तवं. ८६६] एज खरेखर मुनि तथा आर्याना आचारनी संपूर्णता छ के तेओए सर्व वावतमां सदा यत्नवंत रहे; एम हुं कहुं छु. [८६७] Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन सोळमुं. . . अवग्रह-प्रतिमाख्यं षोडश मध्ययनम्, [प्रथम उद्देशः ] " समणे भविस्सामि अणगारे अकिंचणे अपुत्ते अपसू परदत्तभोगी पावं कम्म णो करिस्सामी ति, समाए, सव्वं भंते अदिण्णादाणं ' पञ्चक्खामि " | [८६८] से अणुपविसित्ता गामं वा जाव रायहाणि वाणेव सयं अदिन्नं गिण्हेज्जा; णेव-पणेणं अदिन्नं गिण्हावेज्जा; णेव-पणेणं अदिगं गिण्ह अध्ययन सोळमुं अवग्रह-प्रतिमा. पहेलो उद्देश. (रहेवार्नु मकान केg पसंद कर.) 'हुँ श्रमण छ माटे हुँ घर, दौलत, पुत्र, परिवार, तथा चतुष्पदादिक सवे वस्तुनी ममता छोडीने भिक्षात्तिथी वीजा पासेवी जे कंइ मळशे तेनावडे निर्वाह करतो थको पापकर्म नहि करीश. आ रीते सावध थइ हुँ एवी प्रतिज्ञा लङ छ के हे पूज्य, मारे सर्व जातनी वीनाए नहि आपेली वस्तु ग्रहण करवी नहि." [८६८] आवा प्रतिज्ञावंत मुनिए गाम के शहेरमा जइ पोते जाते, वीजाए नहि आपेली वस्तु लेवी नाह; वीजान कहिने लेवरायची नहि, तथा जे लेतो हाय तेने Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१८ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर तं समणजाणेज्जा । जेहि वि सहि संपवइए, तेसिपि वाइं मिक्ख, छत्तयं वा मत्तयं वा दंडगं वा जाव, चम्मच्छेदणगं वा, तेसिं पुवामेव उग्गहं अणुग्णविय अपडिलेहिय अपमज्जिय णो गिज्ज वा पगिण्हेज्ज वा; तेसिं पुयामेव उग्गहं अणुण्णविय पडिलेहिय पब्जिय गिण्हेज्ज वा पगिण्हेज वा । [८६९] से आगंतरेसु वा (४) अणुवीइ उग्गहें जाएजा:-जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समाहिद्वाए, ते उग्गहं अणुण्णवेज्जा, “ कामं खलु आ-- उसो, अहालंद अहापरिण्णात् २ वसामो । जाव आउसंतस्स उग्गहे, १ वर्षाकल्पादि, यदिवा कारणिकः क्वचित् कुंकुणदेशादा वतिकृष्टि संभवात् छत्रकमपि गृह्णीयात्. [टीका ] २ यावन्मानं कालं..३ यावन्मात्रं क्षेत्रं. भलु मानवु नहि किं बहुना जओनी साथे दीक्षा लीधेली होय. तेओनां पण छत्रक, मात्रक, दंडक के चर्मछेदनक तेमनी रजा, लीधा शिवाय तथा. जोया प्रमा या शिवाय नहि लेखां, किंतु, तेओनी रजा लइ जोइ प्रमाजीने ते ग्रहण करवां. [८६९] मुनिए ज्यारे मुसाफरखाना के घर विगेरे स्थळे पोताने रहेवानी जग्या मागवी होय त्यारे पहेला "आ जग्या मने योग्य छ ?' एम विचार करीने पछीं त्यां जे मालेक के मुखी हाय तेयोनी आ प्रमाणे रजा लेवी:-“हे आयुष्मन्, जो आपनी मरजी होय तो जेटला वखत लगी जेटली जसा वापरखा आपशो तेटला वखत लगी तेटली जग्यामां अमे रहीशु, अने ज्यां लगी. हे आयुष्ान्, तपारी १ वर्षाकल्प नामर्नु कपडं अथवा कोंकण विगेरे देशोमां वह वरसाद होत्राथी कदाच मुनिने ते कारणे छत्र पण, राखपहे (टीका) Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 अध्ययन एंदरम्. [१९] जाब साहम्मियाए, ताव उग्गहं गिव्हिरसामो, तेणपरं विहरिरसामो | " (८७०) ૧ से किंपुण तत्थो - हंसि पयोगहियंसि ? जे तत्थ साहम्मिया संभोतिया समणुष्णा उवागच्छेज्जा, जे तेण सय मेसियए असणे वा (४) तेण ते साहस्मिया संभोइया उवणिमंतेजा णो वेव णं परवडियाए उगिज्झिय उगिज्झिय उवणिमंतेजा । (८७१) से आगंतारेसु वा ( ४ ) जाव से किंपुण तत्थोग्गहंसि पयोगहियं सि; जे तत्थ साहम्मिया अण्णसंभोइया समणुन्ना उवागच्छेज्जा, जे तेगं सयमेसियए पीढे वा फलए वा सेज्जासंथारए वा, तेण ते साहम्मिए अण्णसंभोइए समणुन्ने उवणिमंतेज्जा; णो चेवणं परवडियाए उगिज्झिय उगिज्झिय उवणिमंतेजा । (८७२) १ एकसामाचारीप्रविष्टाः परवानगी छे त्यां लगी जेटला अमारा समानधर्मी साधु आवशे तेओ साधे रहीशुं त्यारवाद चाल्या जशु. " [८७० ] रहेवानी जग्या मेळव्या बाद त्यां जे सदाचारवंत सांयोगिक (साथै वेशी जमनारा) साधुओ आवे तो तेओने मुनिए पोते लावला आहारपाणीथी निमंत्रित करवा, पण बीजाए लावला आहारपाणीथी वहु बहु चीने निमंत्रण न कर. [८७१ ] रहेवानी जग्या मेळाव्या वाद त्यां जे सदाचारवंत समानधर्मीपण असांभीगिक (साथै नहि जभी शकनार) साधुओ आदे तो तेओने सुनिए पोते लावेला बाजोठ, पाट, के शय्याना पाथरणाथी निमंत्रित करषा; पण बीजाए लावेलाथी वहु बहु खेंच मे निमंत्रण न कर. [ ८७३ ] Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२२] आचागंग-मूळ तथा भाषान्तर से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जपुणं उग्गहं जाणेज्जा गाहाइकुलस्स मज्झेमज्झण गंतुं पंथेपडिबद्धं वा, णा पण्णस्स-जाव से एवं गच्चा तहप्पगारे उवस्सए णो उग्गहं उगिण्हेज वा [२] (८७९) । से भिक्खू वा भिक्षुणी वा सेज्जपुण उग्गहं जाणेज्जा-इहखल गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा अण्णमणं अकोसंति वा-तहेव तेल्लादि-सिणाणादि-सीओदगवियडादि-णगिणादि य-जहा सेज्जाए आलावगा । णवरं उगवत्तवता । (८८०) से भिक्खू वा भिक्खणी वा सेज्जपुण उग्गहं जाणेज्जा आइण्णसंलेक्खं णो पण्णस्स जाव चिंताए, तहप्पगारे उवस्सए णो उगगहं उगिण्हेज वा [२] (८८१) एयं खलु तस्स भिक्खुस्स [२] सामग्गियं । (८८२) मुनि अथवा आर्याए जे मकानमा गृहस्थोना समुदायमाथी थइने दाखर थइ शकातुं होय अने तेना लीधे प्राज्ञ पुरुषने नीकलवा पेशवामां अगवड भरेलु होय ते, मकान न लेवू [८७९] मुनि अथवा आर्याए जे मकानमां घरधणी के चाकरडीओ अरसपरस लढता शेय, तेज मुजव ज्यां तैलादिकथी अभ्यंगन करता होय, नहाता होय, अथवा नग्न थइ रहेता होय तेवा मकानमा रहेवू नहि. [८८०] मुनि अथवा आर्याए जे मकान चित्रामणथी भरपूर होय अने तेथी धर्मध्यानने अनुकूळ न होय तेवा मकानमा रहेवू नहि. [८८१] एज मुनि अथवा आर्याना आचारनी संपूर्णता छ के सर्व पावतोमा सावधान रहे. [८८२) Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन सोळमुं. [३२३] [ द्वितीय उद्देशः ] से आगंतारेसु वा [३] अणुवीइ उग्गहं जाएजा - जे तत्थ ईसरें समाहिट्ठाए ते उग्गहं अणुण्णवित्ता, “कामं खलु आउसो, अहालंं अहापरिणायं वसामो, जाव आउमो. आउस्संतस्स उग्गहे, जाव साहम्पियाए, ताव उग्गहुँ उग्गिहिस्सामो; तेणपरं विहरिस्तामो " । (८८३) से किंपुण तत्थ उग्गहंसि पवोग्गहियसि ? जे तत्थ समणाण या माहणाण वा, दंडए वा छत्तए वा जात्र चम्मच्छेदणए वा, तं णो अंतोहिंतो बाहिं णीणेज्जा; बहियाओ वा णो अंतो पवेसेज्जा णो सुत्तं वा णं पडिबोहेजा; णो तेसिं किंचिवि अप्पतियं' पडिणीयं करेज्जा । (८८४) १ मनसः पीडां बीजो उद्देश. ( रहेवानुं मकान पसंद करवानी रीत तथा ते चावतनी सात प्रतिज्ञाओ ) मुनिए मुसाफरखाना विगेरे स्थळे विमर्ग - पूर्वक' अवग्रह (मुकाम) मागतां ते स्थळना मालेक अथवा मुखीनी आ प्रमाणे रजा लेवी:- "हे आयुष्मन्, जेवं स्थळ अने जेवी तेना मालेकनी रजा होय ते ममाणे अमे रहिए छीए. माटे ज्यां सूधी तमो अहीं छो अथवा ज्यां लगी तमारी रजा छे त्यां लगी अने जेटला अमारा संघाती आवशे ते प्रमाणे अवग्रह (मुकाम) लेशुं; त्यार वाद चाल्या जशुं." [८८३] अवग्रह (मुकाम) लीघा बाद शंकरं त्यां जे श्रमगो के ब्राह्मणोना दंड, छत्र, के चम्मच्छेदक शस्त्र पडयां होय ते अंदरथी बाहेर न लाववां; बाहेरथी अंदर न मोकलबों; तेओ सूतेला होय तो तेमने जगाडवा नहि; तथा तेमने कंह अणगम के प्रतिकूळ नहि कर. [ ८८४ ] १ निश्चयपूर्वक Having effected on his fitness, Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२२) आचागंग-मूळ तथा भाषान्तर से भिक्खू वा भिक्षुणी वा सेजपुणं उग्गहं जाणेज्जा गाहाइकुलस्स मझेमञ्झण गंतुं पंथेपडिबद्धं वा, णा पण्णस्स-जाब से एवं गच्चा तहप्पगारे उवस्सए णो उग्गहं उगिण्हेज वा [२] (८७९) ___ से भिक्खू वा भिक्षुणी वा सेज्जपुण उग्गहं जाणेज्जा-इहखलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा अण्णमणं अकोसंति वा-तहेव तेल्लादि-सिणाणादि-सीओदगवियडादि-णगिणादि य-जहा सेज्जाए आलावगा । णवरं उगवत्तवता । (८८०) । से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जपुण उग्गहं जाणेज्जा आइण्णसंलेक्खं णो पण्णस्स जाव चिंताए, तहप्पगारे उबस्सए णो उगहं उगिण्हेज वा [२] (८८१) एयं खलु तस्स भिक्खुस्स [२] सामग्गियं । (८८२) मुनि अथवा आर्याए जे मकानमा गृहस्थोना समुदायमांथी थइने दाखल थइ शकातुं होय अने तेना लीधे प्राज्ञ पुरुषने नीकलवा पेशवामां अगवड भरेलु होय ते मकान न लेवू [८७९] मुनि अथवा आर्याए जे मकानमां घरधणी के चाकरडीओ अरसपरस लढता शेय, तेज मुजब ज्यां तैलादिकथी अभ्यंगन करता होय, नहाता होय, अथवा नग्न थइ रहेता होय तेवा मकानमा रहेवू नहि. [८८०] मुनि अथवा आर्याए जे मकान चित्रामणथी भरपूर होय अने नेथी धर्मध्यानने अनुकूळ न होय तेवा मकानमा रहेवू नहि. [८८१] एज मुनि अथवा आर्याना आचारनी संपूर्णता छे के सर्व वावतोमा सावधान रहे. [८८२] Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२३] अध्ययन सोळमुं. [ द्वितीय उद्देशः ] से आगंतासु वा [३] अणुवीइ उग्गहं जाएजा - जे तत्थ ईसरें समाहिडाए ते उग्गहं अणुण्णवित्ता, “कामं खलु आउसो, अहालंं अहापरिण्णायं वसामो, जाव आउमो. आउस्संतस्स उग्गहे, जाव साहम्पियाए, ताव उग्गहं उग्गहिस्सामो; तेणपरं विहरिस्सामो " । (८८३) से किंपुण तत्थ उग्गहंसि पवोग्गहियांस ? जे तत्थ समणाण वा माहणाण वा, दंडए वा छत्तए वा जाव चम्मच्छेदणए वा, तं णो अंतोहिंतो बाहिं णीणेज्जा; बहियाओ वा णो अंतो पवेसेज्जा; णो सुत्तं वा णं पडिबोहेजा; णो तेसिं किंचिवि अप्पतियं' पडिणीयं करेज्जा । (८८४) १ मनसः पीडां बीजो उद्देश. - ( रहेवानुं मकान पसंद करवानी रीत तथा ते वावतनी सात प्रतिज्ञाओ) सुनिए मुसाफरखाना विगेरे स्थळे विमर्श - पूर्वक अवग्रह (मुकाम) मागतां ते स्थळना मालेक अथवा मुखीनी आ प्रमाणे रजा लेवी:- "हे आयुज्मन्, जेवं स्थळ अने जेवी तेना मालेकनी रजा होय ते प्रमाणे अमे रहिए छीए. माटे ज्यां सूधी तमो अहीं छो अथवा ज्यां लगी तमारी रजा छे त्यां लगी अने जेटला अमारा संघाती आवशे ते प्रमाणे अवग्रह ( मुकाम) लेशुं; त्यार वाद चाल्या जशुं." [८८३] अवग्रह (मुकाम) लीघा बाद शुं कखं । त्यां जे श्रमगो के ब्राह्मणोना दंड, छत्र, के चर्मच्छेदक शस्त्र पडयां होय ते अंदरथी बाहेर न लाववां; वाहे - रथी अंदर न मोकलबों; तेओ सूतेला होय तो तेमने जगाडवा नहि; तथा तेमने कंड अणगम के प्रतिकूळ नहि कर. [ ८८४] १ निश्चयपूर्वक Having reflected on his fitness• Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२४] आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर. से भिक्खु वा [२] अभिकखे ना अंबवणं उवागी छत्तए : जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समाहिट्ठाए, ते उग्गहं अणुजाणावेज्जा " कामंखलु जाव विहरिस्लामो " ८८५) से किंपुण तत्थोग्गहंस पवोग्गाहियसि ? अह भिक्खू इच्छेज्जा अंब भोत्तर वा, से पुण अंब जाणेज्जा सअंडं जनि संसताणं तहप्पगारं अब अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा | (८८६) से भिक्खु वा [२] से जंपुण अंब जाणेज्जा अप्पंडं जाव संताणगं अतिरिच्छच्छिष्णं अवोच्छिणं अफासुयं जाव णो पडिग्गाहेज्जा । (८८७) से भिक्खु वा [२] सेज्जं पुण अंब जाणेज्जा अपंडं जाव संतागंग तिरिच्छछिष्णं वोच्छिणं फासूयं जाव पडिग्गाहेजा । ( ८८८ ) साधु अथवा साध्वी आंवाना वनमां (मुकाम लेवा ) जतां तेना मालेक के मुखीनी पण उपर मुजवज रजा लेवी. [ ८८५ ] वाना वनमां मुकाम लीवा वाद शुं करवं ? त्यां जो साधु आंवाना फळ खावा इच्छे तो जे आंवानुं फळ (केरी) इंडा तथा कीडीओधी भरे होय तेवं अयोग्य फळ नहि लेवु. [८८६] ܬ साधु अथवा साध्वी जे आंबा फळ डंडा तथा कीडीओधी रहित छत कापेलुं के कटका पाडेलुं न होय ते अयोग्य जाणी लें नहि. [८८७] साधु अथवा साध्वीए जे आंवानुं फळ इंडा तथा कीडीओथी रहित छत आ अवकुं कापेयुं होय के तेना जुदा जूदा कटका करेला होय ते फळ योग्य जाणीने लें. [८८८] * करे १ कारणयोगे टाका. कलम ८८५ थी ८९९ सुत्री आंवा गॅलडी कसण आवे त्यां ते अचित्त होय तोज वापरवाना भावार्य छे. Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन सोळमुं. [३२५] से भिक्खू वा [२] अभिकंखेजा अंबभित्तय वा अंबपसि पर वा अंबचायगं वा अंबसालगं वा अंबदालगं वा, भोत्तए वा पायए वा सेजं पुण जाणेजा अंबमित्तगंवा जाव अंबदालगं वा सअंडं ाव संताणगं अफासुयं जाव णो पडिग्गाहेज्जा । (८८९) से भिक्खू वा (२) सेजं पुण जाणेज्जा अंबभित्तगं वा अप्पंडं जाव संताणगं अतिरिच्छच्छिण्णं वा अवोच्छिण्णं वा अफासुयं जाव णो पडिग्गाहेज्जा । (८९०) से भिक्खू वा (२) सेज्जं पुण जाणेज्जा अंबभित्तगं वा अपंडं जाव संताणगं तिरिच्छच्छिणं वोच्छिण्णं फासुयं जाव पडिग्गाहेजा। (८९१) १ आम्राई २ आम्रफाली ३ आमृच्छी ४ रसं ५ सूक्ष्म खंडानि. साधु अरवा साध्वीए आवाना फळना अर्धकटका, अथवा फाल, अथवा छाल, अथवा रस, अथवा झीणा कटका खावा पीवाना होय तो जे कटका विगरे इंडां के कीड,ओनी भरेला होय ते अयोग्य जाणीने नहि ले . ८८९] साधु अथवा साध्वी र आंचाना फळना अर्थ कटवा विगेरे, इंडों के कीडीओथी रहित छत आडा अवळा कापेला के छूटा पाडेला न होय तो अयोग्य जाणी नहि लवां. [८९०] किंतु जो ते आंवाना अर्थ कटका विगेरे, इंडों के कीडीपी रहित छतां कापेला कू.पेला के छूटा पाडेला होय तो लेवां. [८९१] Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२६] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर से भिक्खू वा (२) अभिकंखेज्जा उच्छवणं उवागच्छित्तए; जे तत्थ ईसरे, जाव, उग्गहंसि । (८९२) अह भिक्खू इच्छेज्जा उच्छु भोत्तए वा पायए वा, से जं उच्छु जाणेज्जा सअंडं जाव णो पडिग्गाहेज्जा । अतिरिच्छच्छिण्णं तहेव । तिरिच्छच्छिण्णं तहेब । (८९३) से भिक्खू वा (२) सेज्ज पुण अभिकंखेज़ा अंतरुच्छयं १ बा, उच्छुगंडियं वा, उच्छुचोयगं वा, उच्छसालगं वा, उच्छुदालगं बा, सअंडं जाव णो पडिग्गाहेज्जा । [८९४] से भिक्खू वा [२] से ज्जं पुण जागेज्जा अंतरुच्छुथं वा जाव डालगं वा सअंडं जाव णो पडिग्गाहेजा । [८९५] से भिक्खू वा (२) से ज्जं पुण जाणज्जा अंतरुच्छुयं वा जाव डालगं वा अप्पंडं जाव णो पडिग्गाहेज्जा अतिरिच्छच्छिण्णं । (८९६) तिरिच्छच्छिणं तहेव पडिग्गाहेज्जा ।। ८९७] १ पर्वमव्यं । साधु अथवा साध्वीए सेलडीना वनमा मुकाम करता तेना मालेक के मुखीनी रजा लइ रहे. [८९] * त्यां जो सेलडी साधुने खावी पीवी पड़े तो जे सेलडी इंडों के कीडीओथी भरेली हाय के कापेली कूपेली न हे.य ते नहि लेवी किंतु इंडां-कीडिओथी रहित छतां कापेली के छूटी पाडेली होय ते लेबी. [८९३] एज मुजब सेलडीनी गांठो, गंडेरी, फाळियां, रस, के कटका पण इडांकीडीवाळां के कापकूप विनाना हाय ते न लेवां [८९४-८५५-८९६] किंतु इडां फीडीआधी रहित छतां कापेलां कूऐलां देय ते लेदां. [८९७] * जुओ फुटनोट कलम ८८५ नी. Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन सोळमुं. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेजा ल्हसुण्णवणं उवागछित्त ए । तिण्णिआलावगा तहेव । णवरं ल्हसुणं । (८९८) से भिक्खू वा [२] अभिकंखेसा रहसुणं वा, ल्हसुणकंदं वा, ल्हनुणचोयगं वा, ल्हसुणणालग वा, भोत्तर वा पायए वा, से ज्जं पुण जागेजा ल्हसुणं वा, जाव, ल्हसुण बीयं वा सअंड जाव णो पडिग्गाहेज्जा । एवं अतिरिच्छच्छिण्णेवि । तिरिच्छछिणे पडिग्गाहेजा । (८९९) से भिक्खू वा [२] आगंतारेसु वा [४] जाव; उग्गहियसि, जे तत्थ गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा इच्छेयाई आयतणाई उवातिस्म। - अह भिक्खू जाणेज्जा इमाहिं सत्तहिं पडिमाहिं उग्गहं उगिण्हित्तए । १९०१] १ आम्रादिसूत्राणा मवकाशो निशीथषोडशोद्देशका दवगंतव्यः २ अवग्रहंगृहीतुं जानीयादितिशेषः साधु अथवा साध्वीए लसणना वनमा जतां पण एज मुजव वर्तवू [८९८] * साधु अथवा साध्वीए लसण, लसणर्नु कंद, लसणनी फाळ, के लसणनी नाळ खावा पीचा इच्छतां ते जो इडां-कीडीओथी भरेलां के कापकूप वगरनां हाय तो न लेवां किंतु इडां-कीडिओथी रहित छतां कापेला कूपेला होय तो लेखा. [८९९] * साधु अथवा साध्वीए मुशाफरशाळा विगैरे स्थळोमा निवास कर्या वाद त्यां गृहस्थोनी कर्मजनक प्रतिधी दूर रही वर्त्त [९००] . . पहेली प्रतिज्ञाः-मुशाफरखाना विगेरे स्थळोमा मुकाम मागी तेना मालेकनी रजा लगी रहीशं. ए पहेली प्रतिज्ञा . [९०१] * जुओ फुटनोट कलम ८८५ नी. Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [320] आचारांग - मूळ तथा भाषान्तरे. तत्थ खलु इमा पढमापडिमा :- से आनंतारेसु वा [ ४ ] अणुवीइ उग्गहं जाएज्जा, जाव, विहरिरसामो । पढमा पडिमा । ( ९०२) अहावरा दोचा पडिमा : - जस्सणं. भिक्खुस्स एवं भवति, "अहं च खलु अण्णसिं भिक्खूणं अडाए उग्गहं गिण्डिस्सामि; असिं भिक्खूणं उगलिए उमड़े उद्धस्त मे " । दोच्चा पडिमा । (९०३) अहावरा तच्चा पडिमा : - जस्सणं भिक्खुस्स एवं भवति, " अहं १ द्वितीया प्रतिमा सामान्येन इयं गच्छांतर्गतानां संभोगिकाना मसंभोगिकानां चोद्युक्तविहारिणां यत स्तेन्योन्यार्थ याचंत इति. २ तृतीया - एषा त्याहालंदिकानां यतस्ते सूत्रार्थवशेष माचार्यादभिकांक्षंते, आचार्यार्थ याचते वीजी प्रतिज्ञा:- कोइ साधु एवो ठराव करे के “ हुं बीजा साधुओने माटे अवग्रह मागीश. अने वीजाओए लोधेला अवग्रहमां रहीश. " ए व.जी प्रतिज्ञा. [१०३] त्रीजी प्रतिज्ञाः २ - कोई साधु एवो ठराव करे के “ हुं बीजा साधुओना अर्थे अवग्रह (मुकाम) लइश; पण बीजाओना लीवेला अवग्रहमां रहीश नहि. “ए त्रीजी प्रतिज्ञा. [९०४] " चोथी प्रतिज्ञा : - कोई साधु एवो ठराव करे के “ हुँ वीजा माटे अवग्रह 3 ? वीजी प्रतिज्ञा; गच्छमां रहेल सांभोगिक या अस/भोगिक उद्युक्त विहारवाळाने होय; कारण के तेओ एक वीजा माटे मागे छे. जुओ फुटनोट कलम ८५५ नी २ त्रीजी प्रतिज्ञा, आहालंदिक मुनिने होय; जे माटे तेओ सूत्रार्थनो अवशेष आचार्य पाथी चाहे छे तेमज आचार्य माटे याचे छे. ३ चोथी प्रतिमा, गच्छमां रहेला अभ्युद्यत विहारि मुनिओ जेओ जिनकल्पी आदिका माटे तैयारी करता होय तेमने होय. Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन सोळमुं.. __[२९] च खलु अण्णेसि भिक्खूणं अटाए उग्गहं गिहिस्सामि; अण्णेसिं च उग्गहिए उग्गहे णो उवलिस्सामि । तच्चा पढिमा । (९०४) .. . अहावरा चउत्था पडिमा ?:-जस्सणं भिक्खुस्स एवं भवति, "अ हंच खलु अण्णेसिं भिक्खूणं अहाए उग्गह णो उगिहिस्सामि; अण्णेसि च उग्गहे उग्गहिए उवल्लित्सामि । " चउत्था पडिमा । (९०५) , ' अहाबरा पंचमा पडिमा २:-जस्सणं भिक्खुस्स एवं भवति "अ. हं च खलु अप्पणो अट्टाए उग्गहं उगिहिस्सामि, णो दोण्हं, णो तिहं, णो चउण्हं, जो पंचण्डं । पंचमा पडिमा. । (९०६) । अहावरा छट्वा पडिमा :-से भिक्खू वा (३) जस्सेव उग्गहे . १ चतुर्थी, इयंतु गच्छएवाभ्युद्यतविहारिणां जिनकल्पाद्यर्थ परिकर्म कुर्बतां. २ पंचमी-इयंतु जिनकल्पिकस्य. .३ षष्टी, 'एषापि जिनकल्पिकादेः -~ नहि लइश; पण वीजाओना लीधेला अवग्रहमा रहीश. " ए पोथी प्रतिज्ञा. . * सुनिए अवग्रह (मुकाब) लेता आए सात प्रतिज्ञाओ जाणवी जोइए:.[९०१] पांची प्रतिज्ञा :- कोई साधु अथवा साध्वी एवो ठराव करे के 'हु फक्त मारा माटेज अवग्रह लइश; शिवाय वे, त्रण, चार, के पांचना माटे नहि लइश." ए पांचमी प्रतिज्ञा. [९०६] छटी प्रतिज्ञाः४ -कोइ साधु अथवा साध्वी कोइना अवग्रहमा रही जो १ पांचमी जिनकल्पिने होय. २ छठी जिनकल्पि विगेरेने होय. * ३२७ मा पानामां ९०१ कलमनु भाषांतर रही जवाथी अही दाखल करेलुं छे. माटे वांचनारे तेनो संबंध मेळवी लेवो. Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [230] याचारांग मूळ तथा भाषान्तर. उवल्लिएज्जा, जे तत्थ अहासमागते, तंजहा, इक्कडे जाव पलाले वा, तरस लाभे सबसे ज्जा; तस्स अलाभे उकुड्डए वा णेसज्जिए वा विहरेन्जा | पडिमा । (९०७) सत्तमा पडिमा;-से भिक्खू वा [२] अहासंथडमेव उग्गहं जाएजा; तंजहा, पुढविसिलं वा, कडसिलं वा, अहासथडमेव, तस्स लाभे सबसेज्जा; तरस अलने उक्कुड्डुओ वा प्तज्जिओ वा विहरेज्जा । सचमा पडिमा । ( ९०८) इचेतासि सतह पडिमाणं अण्णपर, जहा पिंडेसणाए । ९०९) सुयं मे आउ, तेणें भगवया एव मक्खायं; इह खलु थेरो भगवंतेर्हि पंचविहे उग्गहे पण्णत्ते:- तंजहा, देविंदोग्गहे, रायोग्गहे, गा त्यो इक्कट के पराळ विगेरे शय्या मळे तो सुए; नहि तो उत्कटुक भासने अथवा वेशीने रात्रि कहाडे. ए छठ्ठी प्रतिज्ञा. [९०७] सातमी प्रतिज्ञा:- साधु अथवा साध्वी अमुक प्रकारनोज अवग्रह मागे, जेवसे के, पत्थरना तळवाळो या, काटना तळवाळो विंगरे, अने तेवोज जो मळे तो त्यां सुए, नहिं. तो चीजी तरेहनो मळतां उत्कुट्टक आसने अथवा बेशीने रात कहाड़े ए सातमी प्रतिज्ञा. [ ९०८ ] ए सात प्रतिज्ञाओमी गमे ते प्रतिज्ञाथी वर्तकुं. या स्थळे आत्मोत्कर्ष - वर्जनादिक पिंडेपणा सुजव जाणवो. [ ९०९ ] हे आयुष्मन् में सांभळ्युं छेः ते भगवाने आ रीते कर्तुं छे - स्थविर भगवंतोए पांच प्रकारनो अवग्रह को छे, जेमके, देवेंद्रना अवग्रह, राजानोर अव १ जव, गहूं विगेरेनुं पराळ. २ राज बन्दे चक्रवर्त्ति राजा इहां लेवो. Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ] - -- ___ अध्ययन सोळमुं.. .. हावइउग्गहे, सागारियउग्गहे, साहम्मियउग्गहे । (९१०) ___ एवं खलु तस्स भिक्खुस्स [२] सामग्गिय ९११) [प्रथमा न्यूला समाप्ता] ग्रह, गाथापतिनो अवग्रह, सागारिकनोर अवग्रह, साघम्मिको अवग्रह, (९१०) एज वधी साधु अथवा साध्वीना आचारनी संपूर्णताछ के सर्व यावतम : वजवीजयी रहे. [९११] (पहेली पूला पूर्ण पर) mer - - - - - --- - गायापति शब्दे जे जग्यानो राजा राय से सेवो. २ सानारिक सन्दयी एहस्य मेवो. Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [332] आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर. द्वितीया चूला स्थाननाम सप्तदश मध्ययनम्. RY, # ( एकोद्देशं ) . सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेइ ठाणं ठाइए; से अगुपविसेज्जा गामं वा, नगरं वा, जाव सष्णिवेसं वा । से अणुपविसित्ता गामं वा, जाव सण्णिवेसं वा, से ज्जं पुण ठाणं जाणेज्जा सअंडं जाव समक्कडासंताणयं, तं तहप्पगारं ठाणं अफासुयं अणेसणिज्जं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा । एवं सेज्जाग़मेणं णेयव्वं । जाव. उदयपसूयाईति । [89.x] Vi" बीजी धूळीका. अध्ययन सत्तरमुं. स्थान. पहेलो उद्देश. (उभा रहेवा माटे जग्या केवी पसंद करवी ? ) साबु अथवा साध्वीर उभा रहेवा माटेनी जग्या गेळववा सारु नाम नगर के सन्निवेशमां जतां जे स्थान इंडी-मकोडी विगेरेथी भरेलं जणाव तेवं स्थान मळतां छतां अयोग्य गणी नहीं लेतुं ए रीते सघळु शय्याध्ययन माफक जाण. यावत् जे स्थान पाणीथी पेदा थतां कंद्रादिकथी व्याप्त होय तेयुं स्थान पण नहि, वं. [ ९१२] Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन सत्तर. [३३३] ___ इच्चेयाइं आयतणाई उवातिकम्म अह भिक्खू इच्छेज्जा- चउहिं पडिमाहिं ठाणं ठाइत्तए । (३१३) । तत्थिमा पढमा पडिमा:-" अचित्त खलु उवसज्जेज्जा; अवलंबे ज्ज कारण, विपरिकम्मादी ; सवियार.२ ठाणं ठाइस्सामि "। पढमा पडिमा. (९१४) __ अहावरा दोच्चा पडिमा:-अचित्तं खलु उवसज्जेज्जा; अवलंबे ज्जा काएण । विपरिकामाइ; णो सवियारं ठाणं ठाइरसामि । दोच्चा पडिमा । (९१५) अहावरा तच्चा पडिमा:-अचित्तं खलु उवसलेला; अवलंबेजा णो कारण; विप्परिकम्माइ; णो सवियारं ठाणं ठाइस्सामि ति। तच्चा पडिमा । (९१६) , आकुंचनप्रसारणादि २ पादविहरणं. ए उपर बतावेला कर्मजनक स्थानोथी दूर रही साधुए घार प्रतिज्ञाओथी स्था रहेदानुं सुकरर कर. [९१३] ., त्यां पहेली प्रतिज्ञा आ प्रमाणे:-अचित्त स्थळमा रहे अचित वस्तुतुं अपलंघन करवू, हाथ पगर्नु आकुंचन-प्रसारण कखं, तथा थोड़ें फरवार्नु राखवू. ए पहेली प्रतिज्ञा. [९१४] पीजी प्रतिज्ञाः-अचित्त स्थळमा रहेवू; अचित्त वस्तु अवलंबन करखं ___ हाथ पगर्नु भाकुंचन-प्रसारण फखं, किंतु फरवावें घंध राख. ए पीजी प्रतिज्ञा [९१५] __त्रीमी प्रतिज्ञाः-अचित्त स्थळमां रद्देवू; अवलंबन कंह पण न कर; इंथि पगर्नु आकुंचन-प्रसारण करखं, अने फरवावें वंध राखg. ए पीजी प्रतिज्ञा... [९१६] Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३३४] आचागंग-मूळ तया माषान्तर ___ अहावरा चउत्था पडिमाः-अचित्तं खलु उवराज्जेज्जा, णो अवलंबेज्जा कारण, णो विपरिकम्मादी, णो सविचारं ठाणं ठाइस्सामि, वो सहकाए वोसहकेसमंसुलोमणहे संगिरुद्धं वा ठाणं ठाइस्सामि त्ति; चउत्था पडिमा । (९१५) इच्चेयासिं चउण्हं पडिमाणं जाव पग्गहियतरायं विहरेज्जा । णो तत्थ किंचिवि वदेज्जा । (९१८) ___..एयं खलु तस्स भिक्खुस्स - भिक्खुणीए वा सामग्गियं जाव जएज्जासि त्ति बेमि । (९१९) ठाप्पसचिक्कयं समत्तं पढमं. चोथी प्रतिज्ञाः अचित्त स्थळा न रहे, अचित्त वस्तुर्नु पण अवलयन न करवू, हाय पगर्नु आकुंचन के प्रसारण न करई, तेमज हर फरवू पण नहि; किंतु शरीर तथा गोश, स्मश्रु, १ लोग२, अने नखाने (मुकरर वलत सुधी) वासरावीने एटले के मारा नयाँ एस गणीने नि:प्रकपंपग रहे. ए योथी प्रतिज्ञा. [९१७) ९ चार प्रतिज्ञाओमाथी गमे से प्रतिज्ञा धारीने वधु- कदाच कोइ ए प्रतिज्ञाओं नहि धार लेनो अवर्णवाद न करतो. [१.१८] ....ए-सपळी साधु तया साध्वीना आचारनी संपूर्णला छे के तेमणे सर्व वा पतोमा सावधानपणे वर्ग [९२१] . . ' ____., . . . . . .:.; १ दादी Beard २ रुवाटा हाल्या चाल्या विना perfectly mo ticn Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • भव्ययन मटार. निषीथिका १ नामक मष्टादश मध्ययनम्.. , [एकोदेश] से भिक्खू वा मिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा णितीहियं गमणाए; से पुण णिसीहियं जागेज्जा सअंडं सपाणं जाव मक्कडासंताणय, तहप्पगा रं णिसीहियं अणेसणिज्ां लाभे संते णो चेतिस्सामि । [९२०] . से भिक्खू वा (२) अभिकंखइ णिसीहियं गमणाए से जं पुण णिसीहियं जाणेज्जा अप्पंडं अप्पपाणं जाव मकडासंताणयं, तहप्पगार णिसीहियं फासुयं एसणिज लाभे संते चेतिस्सामि एवं सेज्जागमेणं णेयच्वं जाव उदयपसूयाए त्ति । [९२१] .. १ स्वाध्याय भूमिः अध्ययन अढारमुं. निपीथिका, पहेलो उद्देश. . ( अभ्यास करवा माटे जग्या केवी पसंद करवी ?) साधु अथवा साध्वीए स्वाध्याय करया माटे [पोतानो उपाश्रय छाडी] घीनी जग्याए जतां ते जग्या जीवजंतुवाळी जणाय तो मळतां छतां अयोग्य गपणी नहि लेवी. [९२०] साधु अथवा साध्वीए स्वाध्याय करया माटे (पोतानो उपाश्रय छोडी) दीजी जग्याए जतां ते जग्या जीवजंतुथी रहित जणाय ने ते मळे तो पोग्य जा णीने लेवी. ए रीते सबळी विना शय्या नामना अध्ययनना मुजब लेबी. (९२९) ? अभ्यास करवा माटे बीजी जग्या. - - - -- - Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचारांग-मूळ तया भापान्तर जे तथं दुबग्गा वा, तिवग्गा वा, चउवग्गा वा, पंचवग्गा वा, अभिसंधारेइ णिसीहियं गमणाए, ते णो अण्णमण्णस्स कायं आलिंगेज्ज वा विलिंगेज वा चुंबेज्ज वा दंतेहिं वा पहेहिं वा अच्छिदेज वा । . . एयं खलु तस्स भिक्खुस्स मिक्खुणीए वा. सामग्गियं जं सवढेहिं सहिए समिए सदा जएजा सेयमिणं मण्णेजासित्ति बेमि. [९२३] .. (णिसीहियासत्तिक्कयं समत्तं बिइयं ) जो त्यां बवे, त्रण प्रण, चार चार, के पांच पांच साधुओ तेवी स्वाध्याय भूमिमां जाय तो त्यां तेमणे एक वीजाना शरीरने आलिंगन के स्पर्श अथवा दंत के नखथी छेदन नहि कर. [९२२] ए सघळी साधु तथा साध्वीना आचारनी संपूर्णता छे के तेमणे सर्व पा. यतामा सावधान रही इमेशा उद्यमवंत थइ रहेई. अने एज कल्याण का छे एम मान. [९२३] Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ओगणीशमु. उच्चार-प्रश्रवणं नाम एकोनविंश मध्ययनम् [एकोद्देशं ] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उच्चारपासवणकिरियाए उच्चाहिज्जमाणे सयरस पायपुच्छणस्स ! असतीए तओं पच्छा साहम्मियं जाएजा । (९२४) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण थंडिलं जागेज्जा सअॅडे संपाणं जाव मक्कडासंताणयं, तहप्पगारंसि थंडिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरेंज्जा । (९२५) . १ पादपुच्छनं समाध्यादिकमिति. अध्ययन ओगणीशमुं. उच्चार प्रश्रवण. पहेलो उद्देश. (स्थंडिल माटे केवी जग्या पसंद करवी?) साधु अथवा साध्वीए खरचुपाणीमी पीडा थतां पोतांना मात्रकमार ते फाया; पण जो पोतापासे मात्रक न होय तो पछी वीजा साधुना पासथी मागी लइ नेमां करचा. [९२४] साधु अथवा सावीए जे जग्या जीव जतुंबाळी जगाय ला खरचुपाणी करवा नहि. [२२५] खरचुपाणी-शाहो पेगाव, २ झाडो पेशाव करपा माटे राखे भाजन सरावलं ( Broonu-Jacobi) - Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याचारांग-मूळ तथा भाषान्तर से भिक्खू वा. [२] से जं पुण थंडिलं जाणेज्जा अप्पपाणं अप्पवीयं जाव मकडासंताणय, तहप्पगारति थंडिलांस उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा । (९२६) . से भिक्खू वा (२) से जं पुण थंडिलं जाणेज्जा:-अस्सिपडियाए एग साहम्मियं समुदिस्त, अस्सिपडियाए बढे साहम्मिया समुद्दिस्स, अ. स्सिपडियाए एगं साहम्मिणि समुदिस्स, अस्सिपाडियाए बहवे समणमाहण वणीमगा पगणिय पगाणिय समुद्दिस्स पाणाइं (e) जाव उद्देस्सियं चेतेति, तहप्पगारं थंडिलं पुरिसंतरकडं जाव बहिया णीहडं वा, अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंति णो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा । (९२७) - से भिक्खू वा (२) रोजं-पुण थंडिलं जाणेज्जा बहवे समण. माहण-किवण-वणीमग-अतिही समुद्दिस्स पाणाई.(४) जाब उद्देसि साधु अथवा सावीए जे जग्या निर्जीवने निज जणाय त्यां खरचुपाणी करवा. [९२६] साधु अथवा साध्वीने जे जग्या एवी जणाय के आ जग्या एक अमुक सावुना माटे दनावेली छे या एक अमुक साध्वीना माटे वनावेली छे या घणी साध्वीओना माटे वनावेली छे अथवा घणा श्रमण ब्राह्मण के भीखारीओमांना दरेकना माटे पृथक् पृथक् ठेरावी ठेगवीने घणा जीव जंतुनी हिंसा पूर्वक बनावामां आवी छे. ए रीते जे जग्गा औदेशिकदोषदुष्ट जणाय तेवी जग्या पुरुषां. सरस्वीकृत अथवा अस्वीकृत छतां तेमा तेमणे खरचुपाणी करवां नहि. [९२७] साधु अथवा साबीए जे जग्या घणा श्रमण, ब्राह्मण, कृपग, भिखारी, तया मुसाफरोना माटे सामान्यपणे करवामां आवेली नणाय, तेवी जग्या अपुरु १ आधा की दोपथी दुपित साधु माटे नीपजावेल. Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ओगणशिk. [३३९] ये चेतेति, तहप्पगारं थंडिलं अयुरिसंतरकडं जाव बहिया अगीहडं वा, अण्णयरंस वा तहप्पगारंसि १ थंडिलंति णो उच्चारपासवणं वोतिरेज्जा । [९२८] अह पुण एवं जाणेज्जा पुरिसंतरकडं जाव बहियाणीहडं वा, अण्णयांसि तहप्पगारंसि थंडिलंसि उच्चारपासवणं वोतिरेज्जा । (९२९) , से भिक्खू वा [२] से ज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा अस्सिपडियाए कयं वा, कारियं वा, पामिचियं वा, छण्णं वा, घट्ट वा, लितं वा, मटुं वा, सपधूवितं वा, अण्णयरंस तहप्पगारंसि २ थंडिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिज्जा । (९३०) से भिक्खू या (२) से ज्ज पुण थंडिलं जाणेज्जा--इह खलु गाहावई वा गाहावइ पुत्ता वा, कंदाणि वा मूलाणि वा जाव हरियाणि घा अंतातो बाहिं णीहरितं, बाहाओ वा अंतो साहरति, अण्णयरंसि वा तहप्पगारांसे थंडिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा । [९३१] .. ' १ यावंतिके २ उत्तरगुणाशुद्धे पांतरकृत अथवा रगर वपराएल होता तेा खरचुपाणी करवा नहि. [९२८] पण जो तेवी जग्या पुरुषांतरकृत अथवा वपरायेल जणाय तो तेमां खर-. चुपाणी करा. [९२९] साधु अथवा साध्वीए, जे जग्या तेमना माटे ज करेली ोय या करावेली होय, या भाडे राखली होय, या छजादेली होय, या समरावेली होय, या लीपा-. चेली होय, या टेकरी भांगी सरखी करावेली होय, या धुप आपीने मुगंधित क. रेली हेग्य तेवी जग्यामां खरचुपाणी करवां नहि [९३०] साधु अधदा सादीने जे जग्या एवी जणाय के आ जग्यामां गृहग्यो के. गृहस्योना पुत्रो कंद मूळ चीज के लीलोनरी अंदरथी बाहेर लावे छे या बाडेर.. अंदर लावे छे, तेजी जन्यामां तेमगे खरचुपाणी करवां नहि. (१३१) Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०]] आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर. से भिक्खू वा (२) से ज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा - खंधसि वा पीढ़ास वा, मंचंसि वा, मालंसि वा, अहंसि वा, पापायंसि वा, - अण्णयरंसिंथंडिलंसि णो उच्चारपासवणे वोसिरेज्जा । ( ९३२) से भिक्खू वा [२] सेज्जंपुण थंडिलं जाणेज्जा अनंत रहियाए पुढेवी, सरणिडाए पुढवीए, ससरक्खाए पुढदीए, सट्टियामक्कडाए, चित्तमंतार, सिलाए चितमंताए, लेहुए चित्तमंताए, कोलावासांसि वा दारुयंसि वा, जीवपइडियसि वा, जात्र मक्कडा संताणयांस वा, अण्णयरंसि वा' तहप्पगारांत थंडिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा । (९३३) - से. भिक्खू वा [२] सेज्जंपुण थंडिलं जाणेज्जा -- इह खलु गाहावई वा गाहावइपुत्ता, वा, कंदाणि वा जात्र बीयाणि वा परिसाडेंस वा परिसांडेंति वा परिसाडिस्संति वा - अण्णयरंसि वा तहप्पगारसि थंडिलंसि णो उच्चारपासवणे वोसिरेज्जा । ( ९३४ ) १ घुणवासे. - साधु अथवा साध्वी धांगला, वाजोठ, मांचा, माळ, अगासी, प्रासाद के तेवी जातनी जग्याओ पर खरचुपाणी करवां नहि. [९३२] साधु अथवा आर्याए सचित्तमाटीवाळी जमीनमां, लीलीमाटीवाली जमीनमा काची माडीवाळी जमीनमां, सचितशिलामा, सचित्तपत्यराम, कीडावाळा लाकडापर. अथवा एवी जातना जीव जंतुसहित स्थळयां खरपाणी नहि करवां[९३३] साधु अथवा साध्वीए जे जग्यामां गृहस्य के गृहस्थपुत्रो कंद, मूळ, के aft भय हतां या भरेछे या भरशे तेवी जातना स्थळमां खरचुपाणी नदि : . [९३४] Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Irrad अध्ययन ओगणीशम ३४१] • से भिक्खू वा (२) सेज्जंपुण थंडिलं जाणेज्जा-इहखलु गाहावइ गाहाहावइपुत्ता वा, सालीण वा, वीहीणि वा, मुग्गाणिवा, मासाणि वा, कुलत्थाणि, जवाणि वा, जवजवाणि वा, पतिरिंसु वा पतिरिति२ वा पतिरिरसंति वा-अण्णयसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा । (९३५) से भिक्खू वा [२] सेज्जंपुण थंडिलं जाणेजा-आमोयाणि । वा घसाणिवा, भिलुपाणि वा, विज्जुलाणि" वा, खाणुयाणि वा, कडया णि वा, पगडाणिवा, देशीण वा, पदुगागे वा, समाणि वा विसमाणि वा-अण्णयरंस वा तइप्पगारंसि थंडिलसि णो उच्चारपासवर्ण बोसिरेजा। [९३६] १ उप्तवंतः २ वपति ३ वप्स्यति. ४ आमोकानि कचवरपंजाः ५ घसा बृहत्योभूमिराजयः ६ श्लक्ष्णाभूमिराजयः ७ पिच्छलानि ८ इक्ष योतिकादिदंडकः ९ प्रग- महागा १० कुडयप्राकारादीनि.. साधु अथवा साध्वीर जे स्थळमा गृहस्थ या गृहस्थपुत्रोए भात, जव, मग, अदद, कुलत्थी', जव, तथा जवजव पाल्या. होय यावता होय के वावाना होय: सेवा स्थळे खरचुपाणी नहि करा. [९३५] साधु अथमा साध्वीए, कचराना ढगलामा, वह फाटेली जमीनमा, थोडी फाटेली जमीनमा, कादवयां, ज्यां धांगलाओ होय त्यां, ज्यां सेलडी के जारना सांठा पल्या हाय त्यां गर्दाओमां,२ गुफाआमां, अथवा कोटफिल्लामा तेओ सपाट या खरवडा छतां त्यां वराणी नदि करवा. [२३६] - १ कळयी कटोळनी जात २ खाडावाळी जग्याओ. Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४] माचारंग- मूळ तथा भान्तर पकायपणेसु वा उग्घाययणेसु वा सेयणवहां वा अण्णयरस वा तह पगा रंसि थंडिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा । (९४३) से भिक्खू वा [२] सेज्पुण थीडलं जाणेज्जा - गवियासु वा मट्टियखाणियासु, णवियासु वा गोप्पलेहियासु गवादणीसु वा, खणीसुवा, अण्ण यसि वा तहप्पगारसि थंडिलंसि णो उच्चारपासवर्ण वोसिरेला 1, (९४४) १ से भिक्खु वा सेज्पुण थंडिलं नाणेज्जा : - डागवच्चांस ' वा, सागवांसि वा, मूलगवच्चांस वा, हत्थंकरवच्चसि वा, अण्णयरांस वा तहपगारीसे थंडिलांस णो उच्चारप सवर्ण वोसिरेज्जा । (९४५) M से भिक्खू वा [२] सेज्जंपुण थंडिलं जाणेज्जा — असणवणासे वा, सणवणंसि वा, धायईवणंसि वा, केयईवर्णसि वा अंबवणसि वा, असो'गवणास वा, नागवणंसि वा, पुण्णागवणांसे वा, चुष्णगवर्णसि वा, अण्ण यरेसु वा तहप्पगारे पत्तोवएसु वा, पुप्फोवएस वा, फलोवएस वा, बीओवएस वा, हरिओएस वा, णो उच्चारासवणं वोसिरेज्जा । [ ९४६ ] १ डालप्रधानशाकं तइति. वंशपरंपरायी चालता आवेला पूजनीय स्थऴोमां, के पाणी सींचवानी नीक विगेरे स्थळ खरच पाणी नहि करवां [९४७] साधु अथवा साध्वी माटींनी नवी खाणोमां, गायोंने परवाना नवा गौचर स्थळोम, के खाणोमां खरच पाणी नहि करवां [९४४] साधु अथवा साध्वी दाळवाळा स्थळामां, शाकचाळा स्थळोमां के मूळादि कंदवाळा स्थळोमां खरच पाणी नहि करवां [२४५] - साधु अथवा साध्वीए बीयांना वनमां, सपना वनमां, घाउडाना वनमां, केतकीना वनमां, आंवाना बनमां, अशोकना वनमां, नागना वनमां, पुन्नागना बनमां, चूर्णकना वनमां, अथवा एवी जातना बीजां पत्र पुष्प फळ वीज तथा लोनरी सहित स्थळामां खरच पाणी नहि करवां [९:४६] . Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ओगणीशर्मु.. [३४५] • से भिक्खू बा (२) सयपाययं वा परपाययं वा गहाय सेत्तमायाए एगंत मवकमेज्जा अणावायंसि-असंलोइयंसि अप्पपाणंसि जाव मक्कासंताणयंसि अहारामंसि वा उवस्सयंसि उच्चारपासरणं बोसिरेज्जा; वोसिरित्ता सेत्तमादाय एगंतमवक्कमज्जा अणावायंसि जाव मक्कडासंताणयंसि अहारामं सि वा ज्झामथंडिलंसि वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि अचित्तंसि ततो संजयामेव उच्चारपासवर्ण परिवेजा। (९४७) एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं जाव जएज्जासि त्ति बेमि । (९४८) उच्चारपासवणसत्तिक्कयं समत्तं तइयं साधु अथवा साध्वीए पोतार्नु अथवा वीजानुं पात्र लइ एकांत स्थळा ज्यां कोइ आवे नहि तथा ज्या कोइ देख नहि तेवा निर्जीव स्थळमां खरचुपाणी करवां-करीने ते पात्र लइ आराम के वळेला स्थळमां अथवा एवी जातना अन्य अचित्त स्थळमा यतना पूर्वक परठवा. [९४७] ___ या वधू साधु अथवा साध्वीना आचारतुं संपूर्णपणुं छे के तेमणे सर्व वावतोमा सावधानपणाची वर्त्तव. [९४८] Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४६] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. शब्दनामकं विंशतितम मध्ययनम्. [एकोदेशं ] . से भिक्खू वा भिक्खुणी वा मुईगसदाणि वा, नंदीमुइंग सदाणि वा, ज्झल्लरिसद्दाणि वा, अण्णथराण वा तहप्पगाराणि विरूवरूवाणि वितताई. सदाई कण्णसोयपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए । (९४९) से भिक्खू वा [२] अहावेगइयाइं सद्दाई सुणेति, तंजहा, वीणा सदाणि वा, विपचिसद्दाणि वा, वच्चीसगसद्दाणि वा, तुणयसदाणि वा, पणयसदाणि वा, तुंबवीणियसद्दाणि वा, दुकुलसहाणि वा, अण्णयराइं वा तहप्पगाराई विरूवरूवाणि सहाणि तताइं कण्णसोयपडियाए णो अभिसं अध्ययन बीशमुं. शब्द. पहेलो उद्देश. (मुनिए शब्दमां मोहित न थ.) साधु अथवा साध्वएि मृदंग, नांदीमृदंग, तथा झालर विमरेना वितत शब्दो सांभळवा जई नहि. [९४९]. साधु अथवा साध्वीए वीणा, विपंची, वशिक, तुनक, पणव, तुंवीवणिा, ? आ कलमयी ९५२ सुधीगां चार नातनां वा त्रो गणावेला छे. विततमिशेष विस्तारना अवाजवाळां Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन वीशमुं. [३४७] धारेज्जा गमणाए । (९५०) से भिक्खू वा (२) अहावेगइयाइं सदाई सुणेति, तंजहा, तालसदाणि वा, कंसताललदाणि वा, लत्तिय १ सदाणि वा. गोहिय २ सहाणि वा, किरिकिरिय3 सदाणि वा, अण्णयराणि वा तहप्पगाराइं विरूवरू वाई तालसदाई कण्णसोवपडिपाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए । [९५१] से भिक्खू वा (२) अहावेगइयाई सद्दाई सुणेति, तंजहा, संखसदाणि वा, वेणुसदाणि वा, वससहाणि वा, खरमुहीसदाणि वा, पिरिपिरियसदाणिं वा, अण्णयराइं वा तहप्पगाराई विरूवरूबाई सदाई झुसिराई कण्णसोयपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। [९५२ से भिक्खू वा [२] अहावेगइयाइं सदाई सुणेति, तंजहा, वप्पाणि वा, फलिहाणि वा, जाव सराणि वा, सरपंतियाणि वा, सरस्सरपंति १ लत्तिका कंशिका. २ गोहिका भांडानांकक्षा. ३ किरिकिरिया वंशादिकंविका. दुकुल विगैरेना तत शब्दो सांभळया जई नहि. [९५०] साधु अथवा साध्वीए ताल, कंसताल,कंशिका, किरिकिरिका विगेरेना ताल,२ शब्दो सांभळवा जर्बु नहि. [९५१] साधु अथवा साध्वीर शंख, वेगु, वंग, खरमुखी, पिरपिरिका विगेरेना शुपिर' शब्दो सांभळवा जई नहि. [६.५२] साधु अथवा साध्वीए, खेतरोना क्यारटां, राइ, तळाव, विगेरे स्वळोगा १ सामान्य विस्तारना अवाजवाद र ताल पडता अवाजवाळा. ३ पोकळ अवाजवाळां Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४८] आचारांग-मूळ तथा भापान्तर. याणि वा, अण्णयराई वा तहप्पगाराई विरूवरूवाइं सदाई कण्णसोयपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए । (९५३) से भिक्खू वा [२] अहावेगइयाई सद्दाई सुणेति, तंजहा, कच्छाणि वा, णूमाणि वा, गहणाणि वा, वणाणि वा, वणदुग्गाणि बा, पच्च याणि वा, पव्ययदुग्गाणि वा, अण्णयराइं वा तहप्पंगाराइं विख्वरूवाई सदाई कण्णसोयपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गभणाए । (९५४) से भिक्खू वा (२) अहावेगइयाइं सदाई सुणेति, तंज़हा, गामाणि वा, णगराणि वा, गिगमाणि वा, रायहाणिओ वा, आसमपदणसांज वेसाणि वा, अण्णयराइं वा तहप्पगाराइं सहाई गो अभिसंधारेज्जा गमणा ए। [९५५] से भिक्खू वा [२] अहावेगइयाई सदाइं सुणेति, तंजहा, आरामाणि वा, उज्जाणाणि वा, वणाणि वा, वणसंडाणि वा, देवकुलाणि वा, सभाणि वा, पवाणि वा, आग्गदरई वा तहप्पगाराइं सदाइं णो अभिसं थता शब्दो समिळवा त्यां नहि जवं .१ [९५३] . साधु अथवा साध्वीए, जळबहुल प्रदेश, वनस्पतिनी घटा, घीच झाडी, वन, वनदुर्ग, पर्वत, पर्वतदुर्ग इत्यादि स्थळोमां थत्ता शब्दो सांभळवा त्यां नहि जबु. [९५४] साधु अथवा साध्वीए गाम, नगर, निगम, राजधानी, आश्रम, पाटण, के सन्निवेश विगैरे स्थळोमा थता शब्दो समिळवा नहि जई. [१५] साधु अथवा साध्वीए, आराम, उद्यान, वन, वनखंड, देवळ, सभा, पा, .? (मूळ पक्षमा एम छे के क्यारडा, खाइ, तलाव, विगरे शब्दो समिळवा नहि ज. एम अगाउ पण जाण) Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन वीशमुं. . धारेज्जा गमणाए । (९५६) से भिक्खू वा [२] अहावेगइयाइं सदाइं सुणेति, तंजहा, अहा णि वा, अद्यालयाणि वा, चरियाणि वा, दाराणि घा, गोपुराणि वा, अण्ण यराइं वा तहप्पगाराई सदाई णो अभिसंधारेज्जा गमणाए । (९५७) ' से भिक्खू वा (२) अहावेगइयाइं सद्दाई सुणेति, तंजहा, तियाणि वा, चउक्काणि वा, चच्चराणि वा, चउम्मुहाणि वा, अण्णयराइं वा तहप्पगाराइं सदाई णो अभिसंधारेज्जा गमणाए । (९५८) से भिक्खू वा [२] अहावेगझ्याइं सदाइं सुणेति, तंजहा, महिसाणकरणाणि वा, वसभाणकरणाणि वा, अस्सट्टाणकरणाणि वा, हत्थिद्वाणकरणाणि वा, जाव, कविंजलढाणकरणाणि वा, अण्गयराइं था तद्द प्पगाराई सदाइं णो अभिसंधारेज गमणाए । (९५२) नीयशाळा, विगेरे स्थळोमा थता शब्दो समिळवा नहि जवं. [९८६] साधु अथवा साध्वीए, अगासी, भमती, २ दरवाजा, के गोपुर : विगरे स्थळोमां थवा शब्दो सांभळवा नहि जवू [९५७] साधु अथवा साध्वीए, त्रिक (त्रिखुण), चोक, चोवाई, के चौमुख विगैरे स्थळे थता शन्दो सांभळवा नदि जवं. [१५८] साधु अथवा साध्वीए, महिपस्थान, पभम्यान, अश्वगाळा, हाधीस्थान, तथा कपिंजळ विगरे पक्षीओना स्थानमा थता शब्दो सामळवा नदि ज. पाणीनां परव मुळमां पाणि वा शदछ तेतुं संस्कृत प्रपा थाय छ तपन्थी पानीयगाळा अर्थ को ( Wells Jacobi) २ फरती चालीभी pathicays ३ महरना दरवाजा toungates. Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर ___से मिक्खू बा [२] अहावेगइयाई सद्दाई सुणेति, तंजहा, महिसजुद्धाणि वा, वसभजुद्धाणि वा, अस्सजुडाणि, वा, हथिजुडाणि या, जाव कविंजलजुद्धाणि वा, अण्णयराई वा तहप्पगाराइं, णो अभिसंधारेज्ज गमणाए । [९६०] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाई सदाई सुणे ति तंजहा,पुवट्टाणाणि वा, हयजूहियट्टाणाणे वा, गयजूहियट्ठाणाणि वा, अण्णयराई वा तहप्पगाराई णो अभिसंधारेज्ज गमणाए । ९६१] ।' से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव सुणेति, तंजहा,-अक्खाइयदाणाणि वा २, माणुस्माणियट्टाणाणि बा, महयाहयणट्ट गीय-वाइय-तंति-तल-ताल-तुडिय-पडुप्प वाइयटाणाणि वा, अण्णयराई वा तहप्पगाराई णा अभिसंधारेज्ज गमणाए । [९६२] १ पूर्वमिति द्वंद्व वधूवरादिकं तत्स्थानं वेदिकादि तत्र श्राव्यगेयादिशब्दश्रवणप्रतिज्ञया न गच्छेत् । २ आख्यायिकास्थानानि वा। साधु अथवा साध्वीए पाडा, चळद, घोडा, हाथी, के कपिजल पक्षि विगेरेना युद्ध थता सांभळी त्या सांभळवा नहि जबु. [९६०] साधु अथवा साध्वीर वर फन्यानी चोरीना स्थाने, अथवा हाथी के घोडाओ ज्या रहेता होय ते स्थाने शब्दो सांभळवा नहि ज. [९६१] साधु अथवा सावीए, वार्त्ताओ थती होय तेवा स्थळे, तोल माप थता होय तेवा स्थळे, तथा ज्यां महोदां नाच गीत के वीणा-ताल मृदंगादिकना वादिन यता हाय ते स्थणे शब्दो सांभळवा नाहे जर्बु. [९६२] Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन वीशमुं. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव सुणेति, तंजहा,---कलहाणि का. डिंबाणि वा, डमराणि वा, दोरज्जाणि वा, विरुद्धरज्जाणि वा, अण्णयराई वा तहप्पगाराई णो अभिसंधारेज्ज गमणाए । (९६३) . से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव सदाइं सुणेति खुड्डियं दारियं परिभुयं मंडियालंकिय-नित्तुसमाणियं पेहाए, एगं पुरिस वा वहाए पाणिज्जमाण पेहाए अण्णयराई वा तहप्पगाराइं णो अभिसधारेज गमणाए । (९६४) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अण्णयराइं विरूवरूवाइ महासवाई: एवं जाणेज्जा, तंजहा, बहुसगडाणि वा, बहुरहाणि वा, बटुमिलकरणि वा, बहु पच्चंताणि वा, अण्णयराइं वा तहप्पगाराई विरूवरूवाई महासवाई कण्णसोयपडियाए णो अभिसंधारेज गमणाए । (९६५) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा विरूवरूवाई महुस्सबाई एवं जाणे. ज्जा, तंजहा, इत्थीणि वा, पुरिसाणि वा, थेराणि वा. डहराणि वा, माझि १ परिवृतां. २ नीयमानां अश्वादिना. ३ महाश्रवस्थानानि स्थणे अथवा ज्या वे राज्य के विरुद्ध राज्य होय सेवा स्थळे शब्दो सांभळवा नहि जई, [९६३] साधु अथवा साध्वीए सारी रीते शणगारेल नानी छोकरीने घणा जणोए वीटायली अने घोडापर चडावीने लइ जवाती जोई, अथवा कोइ पुरुषने वध क. रखा लइ जवातो जोइ त्यां सांभळवा नहि जई. [९६४] __साधु अथवा साध्वीए अनेक मकारना महा आश्रवना स्थान, जेओमां घणां गाडा, घणा स्य, घणा म्लेच्छ, के घणा आजुबाजुना लोक एकटां थयां होय तेवा स्थानोमां कानधी शब्द सांभळवाने नहि ज. [९६६] साधु अथवा साध्वीर अनेक प्रकारना महोत्सवो के जेमां स्त्री, पुरुष, वृद्ध, बाळ, तथा जुवानो शणगार सजी गाता होय, बजावता होय, नाचना होय, Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३५२] आचागंग- मूळ तथा भाषान्तर माणि वा, आभरणविभूसियाणि वा, गायताणि वा, वायंताणि वा णचंताणि वा, हसंताणि वा, रमंताणि वा, मोहाणि वा, विपुलं असणपाणखाइमसाइमं परिभुंजंताणि वा, परिभाईताणि वा, विच्छड्डयमाणाणि वा, विग्गोवयमाणाणि वा, अण्गयराई वा सहप्पगाराएं विरूवरूवाई महस्तवाएं कण्णसोयपडियाए णो अभिसंधारेज्ज गमणाए । (९६६) से भिक्खु वा भिक्खुणी वा णो इहलोइएहिं सहेहिं णो परलोइएहिं । सदेहिं णो सुतेर्हि सदेहिं णो असुतेहिं सदेहिं णो दिवहिं सहि, णो अदिहिं सदेहिं णो सज्जेज्जा, णो रज्जेज्जा णो गिज्झेज्जा, णो मु झज्जा, णो अझोज्जा । (९६७) 9 एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिखुवणीए वा सामग्गियं जाव जएज्जासित्ति बेमि । (९६८) सदसत्तिक्कयं चठत्यं. + १ पारापतादिकृतैः हसता होय, रमता होय, मोह पामता होय, तथा घणुं अशनपान खादिमस्वादिमरुप आहार जमता होय, अरसपरस देता लेता होय, छोडता होय, के साचवी राखता होय देवा महोत्सवोना स्थळे शब्द सांभळवा नहि ज. (९६६) साधु अथवा साध्वीए स्वजातिना शब्दोवडे अथवा विजातीयना शब्दोवडे, सांभळेला शब्दोवडे अथवा घमर सांभळेला शब्दोवडे, तेमज दीठेला शब्दोवडे अथवा अणदीठेला शब्दोवडे, आसक्त, रक्त, गृद्ध मोहित, के तन्मय न धवं. (९६७) एज ते साधु अथवा साध्वीनो परिपूर्ण आचार छे के तमणे व वाघसदा यत्मवंत रहें. (९६८) Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३५३] अध्ययन एकवींसमुं. रुपाख्य मेकविंशतितम मध्ययनम्. . [एकोदेशं ] से भिक्खू वा (२) अहावेगयाई रूवाई पासइ, तंजहा, गंथिमाणि वा, वढिमाणि २ बा, पूरिमाणि वा, संधाइमाणि ४ वा, कटकम्मा णि वा', पोत्थकम्माणि वा, चित्तकम्माणि वा, मणिकम्माणि वा, दंतक, . म्माणि वा, मालकम्माणि वा, पत्तच्छेज्जकम्माणि वा. विविधाणि वा वेढिमाई, अण्णयराई तहप्पगाराई विरूवरूवाइं चक्खुदंसणपडियाए णो अभिसंधारेज्ज गमणाए । (९६९) १ ग्रथितपुष्पादिनिर्मितस्वस्तिकादीनि २ वस्त्रादिनिर्वलितपुत्तालकादीनि. ३ यान्यतः पुरुषाधाकृतीनि. ४ चोलकादीनि ५ स्थादीनि. अध्ययन एकवीसमुं.. पहेलो उद्देश. (रुप जोड़ मोहित न धq.) साधु अथवा साध्वीए फूलथी रचेल सस्तिकादिक, वसवडे रचेल पुतछीओ. पुतळांओ, कपडांगो, लाकडकाम, पुस्तको, चित्रकाम, मणिकाम, दांतकाम, मानाओ, कोतरकाम, विगैर अनेक कशवना कामो आंखथी जोवाना इरादे नहि जवं. [९६१] १ सा आना आकारमा गुंधला फुलोना गोटा-तोग. Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळ तथा भापान्तर ' एवं होयव्वं जहासद्दपडियाए सव्वा वाइत्तवज्जा रूवपडियावि। [९७०] [रुवसत्तिक्कयं पंचमं] ए प्रमाणे शब्दाध्ययननी माफकज रुपाध्ययननी विना जाणी लेवी. [९७०] rime Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन वावीसमुं. परक्रियाख्यं द्वाविंश मध्ययनम् । . [एकादेशं] पकिरियं अन्भत्थिी संसेसियं यो तं सातिए, यो त निय. में। (९७१) से से परो पाए आमज्जेज वा, णोतं सातिए, णोतं नियम। से से परो पायाई संवाहेज्ज वा, पलिमदेज्ज वा, जो तं सातिए, जो तं • १ आध्यात्मिकी आत्मनि क्रियमाणां २ संश्लैषिकी ३ स्वादयेत् अभिलषेत् ४ नियमयत्-कारयेत् वाचा कायेनच. ५ तस्य ६ स पर: अध्ययन चावीशम. परक्रिया. पहेलो उद्देश वीजानी क्रियामां मुनीए केय वर्तवं. मुनिना शरीरने कोइ गृहस्य कर्मबंधजनक क्रिया करें तो ते मुनिए इच्छर्नु नहि अने नियम, 1 पण नहि. [९७१] [दाखल्य तरीके 7 कोइ ग्रहस्थर मुनिना पग साफ करे चां, दावे, अ. डके, रंगे, तेल, घी, के घरवीथी मसले के चोपडे, लेदर क्षार लोट के मुकावडे ? इहां टीकाकार तथा बालावबोधकर्ता " नियम " ए पढ़नो अर्थ एवो करे ले के इच्छ नहि ते मनवडे चहाई नहि अने नियमई नहि ते वचन त्या फायावडे कराग नहि. परंतु ग्रेजी भाषांनर का एम अध कर इन्दु नादि अने " नियमg " एटले अटकाव पण नदि, check २ धर्मादायी टीका Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-ळ तथा भाषान्तर नियमे । से से परो पादाइं फुसज्ज वा, रएज्ज वा, णो तं सातिए, जो तं नियमे । से से परो पादाइं तेल्लेण वा, धएण वा, वसाए वा, मक्खेज वा, भिलिंगेज वा, णो तं सातिए, जो तं नियमे । से से परो पादाई लोद्देण वा, कक्केण वा, चुन्नेण वा, वन्नेण वा, उल्लोलेज्ज वा, उवलिवेज्ज वा, णो तं सातिए, णोतं. नियमे । से से परो पादाइं, सीतोदगवियडेण वा, उसिणोदगवियडेण वा, उच्छोलेज्ज वा, पधोएज्जा बा, जो तं सातिए, णो तं-नियमे । से से परो पादाई अण्णयरेण विलेवणजातेण आलिंपेज वा, विलिंपेज-वा, णो तं सातिए णो तं नियमे से से परो पादाइं अण्णयरेण धूवजाएण भूवेज्ज वा, पधूवेज्ज वा- णो तं सातिए, णो तं नियमे । से से परो पादाओ खाणुं वा कंटयं वा णीहरेज वा, विसोहेज वा, जो तं सातिए, जो तं नियमे । से से परो पादाओ पूर्व वा सोणियं या णीहरज वा विसाहज्ज वा, णो तं सातिए, णो तं नियमे । (९७२) से से परो कायं आमज्जेज्ज.वा पमज्जेज्ज वा, णो त सातिए जो तं नियमे । से से परो कार्य संवाहेज्ज वा, पलिमदेज वा, णो तं सातिए, जो तं नियमे । से से परो काय तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा मक्खन वा, अभंगे ज वा, णो तं सातिए, जो तं नियमे। से से परो ऊंवटे । के ल.पे,२ ठंडा के गरम पाणीथी छांटे के धुवे, गमे ते जातना विलपनवडे लींपे, गमे ते जातनाधृपथी धूपित करे, अथवा पगमाथी खोली के काटा कहाडी चाखू करे अथवा परु के लोही कहाडी चोखं करे ता तेने इच्छयूँ पण नहि अने नियम, पण नहि. [९७२] एज़ रीते मुनिना शरीर, शरीरमा रहेला नण (चाठा), गड गृमडां, अर्ग, ५ घसे rubs २ लेपकरे shainpaos. Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन वाशिम. [३५७] कायं लोद्देण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा, उल्लोलेज्ज वा, उव्वलेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे । सें से परो कार्य सीओदगवियडेण वा उसिणोद्गवियडेण वा उच्छोलेन्ज वा पहोएन्ज वा णो तं सातिए, णो तं नियमे । से से परो कार्य अण्णय रणं विलेवणजातेणं आलिंपेज्ज वा विलिंपेज्ज वा णो सं सातिए णो तं नियमे । से से परो कायं अण्णयरेणं धूवणजातेण धूवेज्ज वा, पधूव्वेज्ज वा, जो तं सातिए णो तं नियमे । (९७३) 1 r 1 से से परो कार्यंसि वणं आमज्जेज्ज-वा, पमज्जेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे । से से परो कार्यसि वणं संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वाणो तं सातिए णो तं नियमे । से से परो कार्यसि वर्ण तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा मक्स्वेज्ज वा भिलंगेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे । से से परो कार्यसि वणं लोद्देण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा उल्लेोडेज्ज वा, उव्वलेज्ज वा, जो तं सातिए णो तं नियमे । से से परो कायंसि वणं सीतोद्गवियडेण वा उसिणोद्गवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा, पधोवेज्ज बा, जो तं सातिए, णो तं नियमे । से से परो कार्यसि वणं अण्णयरेणं सत्थजातेणं अच्छिदेज वा विच्छिदेज्ज वा णो तं सातिए, णो तं नियमे । से से परो अण्णयरेणं सत्थजातेणं अच्छिदत्ता, पूयं वा सोणियं वा, णीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा णो तं सातिए णो तं नियमे । (९७४) से से परो कार्यसि गंडं वा, अरतियं वा, पुलयं वा, भगंदलंबा, - आमजेन वा पमज्ञेन चा, णो तं सातिए, णो तं नियमे । से से परो का 1 बाळ तथा भगंदर पे पण प्रत्येक वावतमां समजी लेवें. (९७३-०७४-०७३ ) Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५८] आचारोंग-मूळ लथा मापान्तर. यसि गंडं वा, अरतियं वा, पुलयं वा, भगंदलं वा संवाहेज वा पलिमद्देज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे । से से परो कायंसि गंडं वा जाव भगंदलं वा तेल्लेण वा घएण घा वसाए वा मक्खेज वा भिलिंगेज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे । से से परो कायसि गंडं वा जाव भगंदलं वा लोदेण वा कोण वा चुण्णेण वा घण्णण वा उल्लोडेज्ज वा उव्वलेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे । से से परो कायसि गंड वा जाव भग दलं बा, सीतोदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे । से से परो कायांस गंडं वा जाव भगंदलं वा अण्णयरेणं सत्थजाएणं अछिदेज्ज विच्छिदेज्ज वा, से से परो अण्णयरेण सत्थजाएणं अच्छिादित्ता वा पूयं वा सेणियं वा णीहरेज्ज वा, णो. तं सातिए णो तं नियमे (९७५) से से परो कायाओ सेयं वा जल्लं वा णाहरेज्ज वा विसोधेज्ज । वा. णो तं सातिए णो तं नियमे । (९७६) से से परो अच्छिमलं वा, कण्णमलं वा, जहमलं वा, णीहरेज वा विसोहेज्ज वा णो तं सातिए ० (९७७) से से परो दीहाइं वालाई, दीहाई रोमाइं, दीहाइं भमुहाई, दीहा इं कक्खरोमाइं दीहाई वत्थिरोमाइंकप्पेज वा संठवेज वा, णो तं सातिए • [९७८] - वळी कोइ गृहस्थ सु.नना शरीरनो मळ उतारे के तेने साफ करे के आक्ष मळ१ कर्णमळ अथवा नखमळ उतारे के साफ करे तो ते पण इच्छबु के नियमबुं नहि. (९७६-९७७) वळी कोइ मुनिना घाळ, रोम, भवां, करिखना रोम, सथा गुह्य प्रदेशना रोम लांवां देखी कापे के सुधारे तो ते पण इच्छबुं क नियम नहि. [९७८] .. १ आंखना चीपटा विगेरे Meas Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन वावीशी वा बिसहेज जज अध्ययन वावीशमुं. से से परो सीसाओ लिक्खं वा जूयं वा णीहरेव वा विसोहेज चा, णो तं सातिए ० [९७९] से से परो अंकसि पलियकसि वा तुयहावा, पादाई आमजेज चा पमजेज वा-एवं हेटिंमो गमो पायादि भाणियव्यो । से से परो अंकसि वा पलियंकसि वा तुयावेचा हारं का, अद्धहारं वा, उरच्छं वा, गेवेयं वा, मउडं वा, पालेबं वा, सुबण्णसुत्तं वा) आविधेज वा, पिगिंधज्ज वा णो तं सातिए ० [९.८०] ___ से से परो आरामसि वा उजागसि वा जीहरित्ता वा विसोहित्ता वा पायाई आमजेज वा, पमजेज वा णो तं सातिए • [९८१] एवं णेतव्वा अण्णमण्णकिरियावि । [९८२] से से परो सुद्धेणं वतिबलेणं १ तेइच्छं २ आउट्टे, स से परो असु हेणं वतिबलेणं तेइच्छं आउट्टे, से से परो गिलाणस्स सचित्ताई कंदाणि । १ वाग्बलेन-मंत्रादिसामर्थ्येन २ चिकित्सा. वळी कोइ मुनिना माथामांधी लीख के जू काढे के शोधे तो ते पण इच्छ बुं के नियम नहि. [९७९] वळी कोइ मुनिने खोळामां के पलंग पर मुबाढी पग विगेरेनी पूर्वोक्त क्रिया करे अथवा हार, अर्धहार, उरस्था आभरण, ग्रेवाभरण२, मुगट, भलंब [माळा) के सुवर्ण सूत्र (सोनानो दोरो) पहेरावे तो ते पण इच्छबू के नियमबुं नहि [९८०) ___ एज रीते कोइ मुनिने आराम के उद्यानमा लइ जइ पग विगरेनी पूर्वोक्त क्रिया करे तो त्या पण तेयज समज. [१८१] आज रीते अन्योन्य क्रिया (मुनिओमां एकवीजा तरफची करेली क्रिया) वाचन पण समजी लेवू. [२.८२] कोड गृहस्थ शुद्ध के अशुद्ध वचनवळ (मंत्र) थी, अथवा कंद, मुळ, छाल, .. १ छातीए लटकता २ गळागां परवानां आमरण. Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३६० आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर वा मूलाणि वा तयाणि वा हरियाणि वा, खणेण वा कद्वेण वा कदावेण वा, तेइच्छं आउद्देशा, जो तं सातिए । [९८३] । ___कट्ट वेयणा, पाणभूतजीवसत्ता वेयणं वेदेति । (९८४] एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गिय, नं सबटेहिं सहिते समिते सदाजए, सेय मिणं मण्णजासि त्ति बेमि. [९८५] (परकिरियासत्तिकयं समत्तं छर्ट) १ कृत्वा वेदनाः ( परेषां.) के लीलोतरी कहाडी के कढावी लावी मांदा मुनिनी चिकित्सा करे तो ते पण इच्छयूँ के नियमवू नहि. [९८३] कारण के दरेक प्राण-भूत-जीव-सत्व [पूर्वे] वीजाने उपजावेल वेदनो हुमणा पोते भोगवे छे. (एम विचार) [९८४] एज खरेखर साधु तथा साध्वीना आचारनी सपूर्णता छ के तेमणे सर्व बावतोमा यत्ववंत रहे, अने एज श्रेय मानवं, एम हुँ कहुं हूं. [९८५] Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अध्ययन त्रेवीशमुं. अन्योन्यक्रियाख्यं त्रयोविंशतितम मध्ययनम्, [एकोद्देशं] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अण्णमग्णकिरियं अन्भत्थियं' सं-- सेइयं २, नो तं सातिए, नो तं नियमे । (९८६) से से अण्णमण्णो पाए आमज्जेज्ज वा पमनेज वाणो तं सातिए,णो ते नियमे । [९८७] सेसं तं चेव. [९८८] एवं खलु तस्स भिक्खुरस भिक्खुणीए वा सामग्गियं । (अन्नुन्नकिरियासत्तिक्कयं सैमत्तं सत्तम) आध्यात्मिकी २ सांश्लेषिकी अध्ययम त्रेवीशमुं अन्योन्य क्रिया उद्देश पहेलो. - (मुनिओप अरमपरस यती क्रियामा केम वर्ततुं ?) साधु अथवा साध्वीए पोतामां कराती अन्यान्य कर्मबंधननक क्रिया परे इच्छाई के नियम, नहि. [९८६] इहां पण परक्रियामा वर्गवेला पग विगरना दरेक आलापरु लागु पाडया .८७.१.८० एसर्व मुनि तथा आर्याना भाचारनी संपूर्णताछ के नेमणे यधी चारतोमा पत्नवन प वन [...] Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर ' तृतीया चूला. भावनाख्यं चतुर्विंशतितम मध्ययनम्. - M940120 - तेणे कालेण तेणं समएणं, समणे भगवं महाबीरे पंचहत्थुत्तरे । यावि होत्थाः-हत्युत्तराहिं चुए-चइत्ता गम्भं वक्ते; हत्थुत्तराहिं गन्माओ गम्भं साहरिए; हत्युत्तराहिं जाए; हत्युत्तराहिं सव्वओ सबताए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए; हत्थुत्तराहि कसिणे पडिपुण्णे अ व्वाघाए निरादरणे अणंते अणुचरे केवलवरणाणदंसणे समुप्पण्णे । साइणा भगवं परिनिव्वुए । [९९०] १ हस्त उत्तरो यासा सुत्तरफाल्गुनीनां ता हस्तोत्तराः ताश्च पंचसु स्थानेषु संवृत्ता. यस्य स पंचहस्तोत्तरः श्रीजी चूलिका अध्ययन चोबीसमुं भावना (महावीर चरित्र तथा पंच महावतानी भावनाओ.) ते काळे ते समये श्रमण भगवान् महावीरना संबंधे पांचवार उत्तराफाल्गु नी नक्षत्र आव्यु; ते एम के उत्तराफाल्गुनीमां गर्भयी गीतरगां संहराया, उत्तराफाल्गुनीयां जन्म्या, उत्तराफाल्गुनीमां सर्व (वस्तु) थी सर्वरीते (अलमा थइ) मुंडपणु धरी घरवास छोडी अगगार थया, अने उत्तराफाल्गुनीमांज संपूर्ण प्रतिपूर्ण व्यायानरहिन आवरणरहित अनंत उत्कृष्ठ केवळज्ञानदर्शन पाम्या, मात्र भगवान्, निर्वाण स्वालिनक्षत्रमा थy. [१०] Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन चोवीशमुं. [३६३] समणे भगवं महावीरे, इमाए ओसप्पिणीए सुतमसुसमाए समाए वीतिर्कताए, सुसमाए समाए बीतिकंताए, सुसमदुसमाए समाए वीतिताइ, दुसमसुतमाए समाए बहुवीतिकताए, पण्णत्तरीए वासेहिं, मासेहिय अणवय सेसेहिं, जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे अठ्ठमें पक्खे आसाढसुद्धे - तरसणं आसाढसुद्धस्स छट्टीपक्खेणं हत्थुत्तराहिं णक्खचेणं जोगो गएणं, महाविजय - सिद्धत्थ - पुप्फुतर - पवरपुंडरीय - दिसासोबत्थिय वद्धमाणाओ महाविमाणाओ, वीसं सागरोत्रमाई आउयं पालइत्ता आउक्खएर्ण भवक्खएणं ठितिखएणं चुए; चईता इहखल जंबुद्दीचे दीवे, भारहे वासे, दाहिणड्डूभरहे, दाहिण-माहणकुंड पुरसाणिवेसंसि, उसभदत्तरस माहणरस कोडालसगोत्तरस, देवाणंदाए माहणीए जालंधरायणसगोत्ताए सीहम्भ यभूएणं अप्पाणेणं कुच्छिसि गमं वते । ( ९९१ ) + समणे भगवं महावीरे तिणाणो गए यावि होत्या । चस्साि चि आणइ चुए मित्ति जाणइ, चयमाणे ग जाणइ; सुहमे णं से काले पण्णत्ते । (९९२) श्रमण भगवान् महावीर आ अवसर्पिणीना मुपपना, सुपमा, अने सुपमदुःपमा, ए व्रण आरा व्यतीत तो अने चोथा दुःस्मयुपमाना पण मात्र पंचोतेर व अने साधन मास बाकी रहेता उनाळांना चोवा मासे आठमा पत्रे पाद छुट्टी ६ नाहिने उनी नेपुर महाविमान के जैने महाविनय, सिद्धार्थ मालक पण कहे हे त्यांची वीस ता आनुभव, तथा स्थितिनो क्षय थतां चवीने हां जंदीप क्षेत्र दक्षिणार्धमा कुंडपुराने कोडायगोत्री कप मामणीनी कूले नाकक णना घरे जागवी देवा ती. [९९१] वेळा त्रासहित हता. ती चवी नहि जाणना. वा. एवं जाणताः चन्यो पत्र जाणता कळवण [22] Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६४ ] आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर. तओणं समणे भगवं महावीरे अणुकंपंतेणं देवेणं " जीय मेयं" ति कडु, जे से वासाणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे आसोयबहुले, तस्सणं आसोयबहुलरस तेरसीपक्खेणं हत्थुत्तराहिं णक्खत्तेणं जोगोवगतेणं, बासीतीहिं रातिदिएहिं वीतिकंतेहिं तेसितिमस्स रातिंदियस्स परियाए वहमाणे दाहिण-माहणकुंडपुरसणिवेसाओ उत्तर -- खत्तिय कुडपुर साणिवेसंसि, णाया णं खचियाणं सिद्धत्थस्स खतियरस कासवगोतस्स तिसलाए खत्तियाणीए वासिहसगोताए असुभाणं पोग्गलाणं अवहारं करेता सुभाणं पोग्गलाणं पक्खेवं करेत्ता कुच्छिसि गब्र्भ साहरिए । जे विय तिसलाए खत्तियाणीएकुच्छिसि गमे, तंपिय दाहिण - माहणकुंडपुरसंणिवेसंसि उस भक्तरस माहणस्स कोडालसगोत्तस्स देवाणंदाए माहणीए जालंधरायणसगोत्ताए कुच्छिसि गमं साहरिए । [९९३] समणे भगवं महावीरे तिष्णाणो गए यात्रि होत्था: - साहरिज्जि - स्सामि त्ति जाणइ, साहरिएमित्ति जाणइ; साहरिज्जमाणे वि जाणइ समपाउसो | [ ९९४ ] 14 त्यांरवाद श्रमण भगवान महावीरने अनुकंपावान एटले भक्तिवाळा देवताए पीताना जीत एटले हमेशना आचारने अनुसरी वर्षाऋतुमा त्रीजा मासे पांचमा पक्षे आसो वदि १३ना दिने उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रे व्यासी दिन बीत्या केडे त्यासीमा दिने दक्षिण ब्राह्मणकुंडपुर स्थानथी उत्तरमां आवेला क्षत्रियकुंडपुरस्थानमां शातवंशी काश्यपगोत्रीय सिद्धार्थ क्षत्रियना घरे वाशिष्टगोलवाळी विशला क्षत्रियाणीनी कूखे अशुभ पुद्गलो अपहरी शुभ पुद्गलोनो प्रक्षेप करी गर्भमां दाख'ल कर्या (९९३) आ वेळा पण श्रमण भगवान महावीर ॠणज्ञानवंत होवाथी हे आयुष्मन् श्रमणो, गर्भारमा मारुं संहरण थशे, थयुं, तथा थाय छे, ए त्रणे काळ जाणता. (९९४) 1 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन चोवीसमुं. तेणं कालेणं तेणं समएणं तिसला खत्तियाणी, अह अन्नया कयाइ णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अदृट्टमाणं राइंदियाणं वीतिकंगाणं जे से गिम्हाणं पढमे मासे दोचे पक्खे चित्तसुद्धे तस्न णं चित्तसुद्धस्स तेरसीपक्खेणं हत्थुत्तराहिं जोगोवगतेणं, समणं भगवं महावीरं आरोयारो. यं पसृया । (९९५) जंणं राइं तिसला खत्तियाणी समणं भगवं महावीरं आरोयारायं पसूया, तं गं राइं भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिय-विमाणवासि-वेहि य देवीहि य उवयंतेहिय उप्पयंतेहि य एगे महं दिव्वे देवज्जोए देवसगिणवाते देवकहकहे उप्पिजलगभूतेयावि होत्था ॥ (९९६) जणं रयणि तिसला खत्तियाणी समर्ण भगवं महावीरं आरोयारोयं पसया, तं णं रयणि बढे देवा य देवीओ य एगं महं अमयवासं च, गंधवासं च, चुण्णवासं च, पुप्फवासं च, हिरण्णवासं च, रयणवास च, वासिंसु । (९९७) ते काळे ते समये त्रिशला क्षत्रियाणीए नवमास पूरा पया बाद साडी सात दिन चीते छते उनाळाना पेला मासे वीजे पक्षे चैत्र सूदि १३ ना दिने उत्तरा. फाल्गुनी नक्षत्रे श्रमण भगवान महावीरने क्षेमकुशले जन्म आप्यो. [१९५] जे राते त्रिसला क्षत्रियाणीए भगवानने जन्म आप्यो ते राते भुवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिपिक, तया विमानवासि देवदेवीओना उतरवा तथा उपद्रवाची एक मदान दिन्य देवोनो ऽद्योत, देवोनो मेळावडी, देवोनी कथंकथा (बातचीन) तथा प्रकाश थइ रह्यो नो. [९९६] वणी ते राने घणा देवदेवीओए. एक महोती अगृतनी दृष्टी, गंयनी दृष्टी चूर्णनी रष्टी, फूलनी दृष्टी, सोनारुपानी दृष्टी तया रत्नोनी टी वर्षावी. [५५७) Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचारांग-मूळ तथा मापान्तर. जंगं त्यणि तिसला खत्तियाणी समर्ण भगवं महावीरं आरोयारोय पसूया, तंणं रयणि भवणवइ-वागमंतर-जोतिसिय विमाणवासिणो देवाय देवीओ य समणस्त भगवओ महावीरम्स कोतुगभूतिकम्माइं तित्थयरामिसेयं च करिसु । [९९८] जतोणंपमिति भगवं महावीरे तिसलाए खत्तियाणीए कुच्छिसि गम्भं आहुए, ततोणं पभितिं तं कुलं विपुलणं हिरपणेणं सुवण्णेणं धणेणं घण्णेणं माणिकगं मोतिएणं संखसिलप्पवालेणं अतीव परिवइ । ततोणं समणस्त भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो एयम जाणिवा, णिव्यत्तदसा. हंसि चोकंतसि सुविभूतंसि विपुलं असणपाणखाइससाइमं उवक्खडावंति; विपुलं असणपाणखाइमसाइमं उवक्खडावेत्ता मिक्षणातिसयणसंबंधिवग्गं उवणिमंतेति; उवणिमंतेत्ता बहवे समणमाहणकिवणवणमिगभि छंडगपंडगारतीण विच्छ ति विग्गोवोत विस्ताणेति लतारेसणंदायं पज्जाभाऐंति; विच्छडिचा विग्गोविता विरसाणिचा दायारेसु णं दायं पज्जाभाइता मितणाइसयणसंबंधिवग्गं सुंज्जावेंति मिलणाइसयणसंबंधिवगं भुंजावेंचा मितणाइसयणसंबंधिवग्गेण इमेयारूवं णामधेज करेंति; जओणं पभिई इमे कुमारे तिसलाए खचियाणीए कुच्छिसि गम्भे आहए, ततोगं पभिइ अने एज राते चारे जातना देवदेवीओए मळी भगवान महावीरतुं कौतुकर्म, भूतिकर्म, तथा तीर्थकराभिषेक कर्यो. [१९८] ज्यारयी भगवान महावीर त्रिशला क्षत्रियाणीनी कूखे आज्या त्यारली ते. गर्नु कुळ घणा सोनारुपा, धनधान्य, माणेक, मौनी, तथा (उत्तम जातना) शंख पत्थर अने परवानाधी बहु बहु वधवा मांडयुं तेथी भगवानना गावापे ए अर्थ जाणीने दश दिइस व्यतिक्रांत यतां चोखाइ अने पवित्रता थनां घरों असनमान खादिमत्वादिमस्प आहार तैयार करावी, मित्र, ज्ञाति, वन्न नथा संबंधि वर्गले. नोदरी घणा श्रमण प्रात्मण कृपग भिखारी आंश्ला पांगळा अने. दोन आधार Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन एकवीसन इमं कुलं, विपुलणं हिरण्गणं, सुवण्गेणं, धण्ण, धणेणं, माणिक्षेणं, मोरिए णं, संखसिलप्पवालेणं, अतीव अतीव परिबइ-तं होउणं कुमारे "बहमाणे" । (९९९) तओणं समणे भगवं महावीरे पंचधातिपरिबुडे-तंजहा; खीरधाईए, मज्जणधाईए, मंडावणधाईए, खेल्लावणधाईए, अंकवाईए-अंकाओ अंकं साहारज्जमाणे रस्मे प्रणिकोहिमतले, गिरिकंदरसमल्लीणे व चंपयपायवे, अहाणपुच्चीए संवदइ । (१०००) तओगं समणे भगवं महावीरे विण्णायपरिणये विणियचवालभावे अण्णुस्सयाइ, उरालाई माणुस्सगाई,पंचलखणाई कामभोगाई सद्दफरिसरसरूवगंधाई परियारेमाणे ओमं वति विहरति । (१००१) आधी तेमज पोतानी न्यातमां वेंची करीने पछी (नोतरेला) मित्र जाति स्वजन संबंधिोने जमाडी करीने तेमनी स्वरुमा कुळनी थती वद्धि जगादीने कुमारर्नु "वर्द्धमान" एवं नाम आप्यु. {१९९] हवे श्रमण भगवान् महावीरना मांटे पांच धात्री (दाइओ) राखवामां आ. वी, जवी के दूध धवाडनार धात्री, स्नान करावनार पानी, शणगार करारनार धात्री, खलावनार धात्री, अने खोळाम संभाळनार धानी. ए पांच धावीमा परिक्यों थका अने एकना सोळामांची वीजाना सोळामां जनाथका रम्य रत्नतळवाळा पकानमा रही गिरिगुफामां (पत्नी) बची रहेला चंपकलनी माफक अनुनामे यथा लाग्या १००० याबाद श्रमण भगवान महावीरे विरोपज्ञान अने अनुभवाला होइ थाल्यावस्था टळता अनुत्सुकपणे उत्तम काला गनुप्य मरंधी मन्द-पर्श-सकप-नांध ए पांचे प्रकारना कामभोग भोगरतां धकां काळ व्यतिम करो. [१००१] Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचागंग-मूळ तथा भाषान्तर समणे भगवं महावीरे कासावगोरे; तस्सणे इमे तिष्णि णामधेउजा एव माहिज्जतिः-अमापिउसंतिए " बद्धमाणे; " सहसमुदिए “ समणे;" भीमभयभेरवं उरालं अचेलयं परीसह सहइ वि कट्ट देवेहिं से णामं कयं “ समणे भगवं महावीरे " । [१००२] समणस्स भगवओ महावीरस्स पिता कासवगोषेणं; तस्सणं तिणिणामधेज्जा एव माहिज्जति, तंजहा-सिद्धत्येति वा, सेजसेति वा, जससे ति वा । [१००३] समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अम्मा वासिद्धसगोता; तीसेणं तिणि णामधेज्जा एव माहिज्जति, तंजहा-तिसला ति वा, विदेहदिण्णा तिवा, पियकारिणी ति वा ।।१०६४] समणस णं भगवओ महावीरस्स पिचियए सुपासे कासवगोत्रण। समणस्स णं भगवओ महावीरस्स जेटे भाया णदिवणे कासवगोरेगे। समणस्स णं भगवआ महावीरस्स जेट्टा भइणी सुदंसणी कासवगोण। भगवान् काश्यपगोत्रीय हता. तेमना आ त्रण नाम बोलाय छे मावापे वर्द्धमान एबुं नाम पाडयु; सहजगुणोथी श्रमण नाम पडलं, अने भयंकर महान् अचेल परीपद सहन करतां देवाए "श्रमण भगवान् महावीर" एवं नाम कयु. (१००२) ___ भगवान्ना पिता काश्यप गोत्रीय; तेमना नण नाम छ:-सिद्धार्थ, श्रेयांरा, यशस्वी. (१००३) - भगवान्नी माता वाशिष्ठ गोगनी तेमना गण नाम :-शिला, विदेहदिन्ना, प्रियकारिणी. (१००४) भगवान्ना काका मृपार्थ, मोटा भाइ नदिवर्धन, मोटी वेहेन सुदर्शना, ए. घधा काश्यपगोत्रीय हता. भगवाननी भार्या यशोदा काँडिन्य गोत्रनी इसी. भगः, Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , अध्ययन चोवीशमुं. [३६९ समणस्स णं भगवओ महावीरस्स भज्जा जसोया गोषेण कोडिण्णा । समणस्स णं भगवओं महावीरस्स धूया कासवगोत्तेणे; तीसे णं दो णामधे ज्जा एव माहिज्जति, तंजहा-अणोज्जा ति वा, पियदसणा ति वा समणस णं भगवओ महावीरस्सं णत्तुई कोसियगोत्तेणं; तीसे ण दो णा मधेज्जा एव माहिज्जति, तंजहा-सेसवई ति वा, जसवती ति वा __ संमणस्लेण भगवओ महावीरस्सं अम्मापियरो पासावच्चिज्जा संम गोवासगा बावि होत्था; तेणं. बहूइं वासाई समणोवासगपरियानं पालयित्ता छण्हं जीवनिकायाणं संरक्खणनिमित्तं आलोइत्ता निंदित्ता गरहित्त पडिक्कमित्ता अहारिहं उत्तरगुणपायच्छित्तं पडिवज्जित्ता कुससंथारं दुरुहित भत्तं पञ्चस्खाइंति; भत्तं पञ्चक्खाइत्ता अपच्छिमाए सारणतियाए सरीरसं लेहणाए सुसियसरीरा कालमासे कालं किच्चा तं सरीरं विप्पजहिता अ. - - चान्नी पुत्री काश्यपगोत्रीनी तेना वे नाम छ: अनवद्या, प्रियदर्शना. भगवान्न दाहिनी कौशिक गोगनी तेना वे नामः-शेपवती, यशोमती. [१००५] भगवान्ना मावाप पार्श्व संतानिय श्रमणोना उपासक हता. तेओ धणा वर्ष श्रमणोपासकपणुं पाळी छकायना जीवनी रक्षार्षे [पापनी] आलोचना २ करी निंदी गहीं पडिकमी यथायोग्य प्रायश्चित लइ दर्भसंस्तारक उपर वेशी भक्त प्रत्याख्यान3 करी छेली मरणपर्यंतनी शरीर-संलेखना बडे शरीर शोषी काळसमये काळ करी ते शरीर छोडी अच्युत कल्पमा देवपणे उत्पन्न थयां. त्यांची आयुक्षय थतां ? पार्श्वनाथनी परंपराना २ यादगिरी ३ आज्ञरनो त्याग रुप अणसण ४ 'शरीर-शोपणा. ५ वारमा देवलोकमां. (आवश्यक नियुक्तिमां चोथा देवलोकमा गया एम कयु छे.) - Manoramen Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३७०] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. च्चुए कप्पे देवत्ताए उववण्णा; तओणं आउक्खएणं ठिइक्खएण चुए, चवित्ता महाविदेहे वासे चरिमेणं ऊसासेणं सिज्झिरसंति, बुझिस्संति, मच्चिस्संति, परिणिव्वाइसंति, सव्वदक्खाणं अंतं करिस्सति ।[१००६] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे णाये णायपुत्ते ___णायकुलणिवत्ते विदेहे । विदेहदिण्णे २ विदेहजच्चे विदेहसुमाले ४, ती सं वासाइं विदेहत्ति ५ कट्ट अगारमझे वसित्ता अम्मापिउहि कालगहिं देवलोग मणुपत्तेहिं समत्तपइण्णे, चिच्चा हिरणं, चिच्चा सुवणं, चिच्चा ब लं, चिच्चा वाहणं, चिच्चा धणधण्णकणयरयणसंतसारसावदेजं , विच्छड्डे त्ता, विगोवित्ता, विस्साणित्ता, दायारेसुणं दायं पज्जाभातिता, संवच्छरं दाणं दलइत्ता, जे से हेमंताणं पढमे मासे पढमे पक्खे मग्गसिरबहले, तस्सणं मग्गसिरबहुलस्स दसमीपक्खेण हत्युत्तराहिं णक्खत्तेणं जोगोवतेणं अभिणिक्खमणाभिप्पाए यावि होत्था । [१००७] १ विशिष्टदेहः २ विदेहदिन्ना त्रिशल्या तस्या अपत्यं ३ विदेहजायाः जाता अर्जा शरीरं यस्य सः यहा विदेहः कंदर्पः यात्यो यस्य सः ४ विदेहे गृहवासे सुकुमाल: ५ विदेहे गृहवासे ६ स्वापतेयं द्व्यं. चवीने महाविदेह क्षेत्रमा छेल्ले उसासे सिद्धबुद्ध मुक्त थइ निर्वाण पामी सर्व दुःखनुं अंत करशे. [१००६] ते काले ते समये जगत्ल्यात, ज्ञात (सिद्धार्थ) पुत्र, ज्ञानवंशोत्पन्न, विशिटदेहधारी, विदेहा (त्रिगला) पुत्र ,कंदर्पजेता, गृहवासथी उदास एवा श्रमण भगवान् महावीरे त्रीश वर्ष घरवासमां वसी, मावाप कालगत थइ देवलोक पहोचतां पोतानी प्रतिज्ञा समाप्त थइ जाणी, सोनुं रु', सेना वाहन, धन धान्य, कनकरत्न, तथा दरेक कीमती द्रव्य छोडी [दानार्थे] पाधलं करी, दान दइ, सीआळाना पेला , पले मागसर वदि १० ना दिने उत्तरा फाल्गुनी नक्षदना योगे दीना लदानो अभिप्राय कार्यो. [१००७] Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन चौवीसमुं... [३७१, संवच्छरेण होहिंति, अभिणिक्खमणं तु जिणवारदाणं; तो अत्थि संपदाणं, पव्यत्ती पुव्वसूराओ। १ (१००८) एगा हिरण्यकोडी, अहेव अणूणया सयसहस्सा; सुरोदयमादीय, दिजइ जा पायरासोत्ति। २ (१००५) तिष्णेव य कोडिंसया, अहासीतिंच होति कौडीओ, असियं च सयसहस्सा, एयं संवच्छरे दिण्णं । ३ (१०१०) वेसमणकुंडलधरा, देवा लोगंतिया महिडीया बोहिंति य तित्थयरं, पण्णरस्ससु कम्मभूमीसु. । ४ (१०११) बंझमि य कप्पंमि य, बोदुव्वा कण्हराइणो मज्झे लोगंतिया विमाणा, अडसुवत्था असंखेज्जा। ५ (१०१२) एते देवणिकाया, भगवं बोहिंति जिणवरं वीरें सबजगजीवहियं, अरहं तित्थं पव्वत्तेहि । ६ (१०१३) गया ? (१००८) २ (१००९) [ दोहरा.] वपीते लेनार छे, दीक्षा जिनवरराय तेथी सूरज ऊगतां, दान प्रवृति कराय, प्रतिदिन सूर्योदय थकी, पहोर एक ज्यां थाय एक नोडने आठ लाख, सोना म्होर अपाय, वर्प एकमां त्रणशो, अने अठयागी क्रोड एंसी लाख यहोरनी, संख्या पूरी जोड. कुंडळधारी वैश्रमण, बळी लोकांतिक देव. कर्मभूमि पंदर विपे, प्रतियोधे जिनदेव.. ब्राह्म कल्प मुरलोकमां, कृष्णराजीना मांहि असंख्यात लोकांनिको-तणा विमान कहाय. ए. देवो जिन वीरने, समजाये ए वात सर्व जविहित तीर्थ तुं, प्रदर्याच साहान्. ४ (१०११) ५ (१०१२) Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग - सूळ तथा भाषान्तर तओणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अभिणिक्खमणाभिप्पायं जाणेत्ता भवणवइ-बाणमंतर - जोइसिय- विमाणवासिणो देवाय देवीओ य एहिं सएहिं रूहिं, सएहिं सएहिं णेवत्येहिं, सएहिं सएहिं चिंधेहि, सव्विदीए, सव्वजत्तीए, सव्वबलसमुदएणं, सयाई सयाई जाणविमाणाई दुरुहंतिः सयाई सयाई जाणत्रिमाणाई दुरुहिचा अहाबादराई पोग्गलाई परिसाडेंति, अहाबादराई पोग्गलाई परिसाडिचा अहासुहुमाईं पोग्गलाई परियाईति, अहासुहुमाई पोगलाई परियाइत्ता उङ्कं उप्पयंति, उड्ड उप्पइत्ता ताए उक्किट्ठाए सिग्घाए चवलाए तुरियाए दिव्याए देवगइए अहणं उवयमाणा उवयमाणा तिरिएणं असंखेज्जाहूं दीवसमुद्दाई वीतिकममाणा चीतिक्कममाणा, जेणेवं जंबूदीवे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छिचा जेणेव उत्तरखतियकुंड पुरसंणिवेसे तेथेव उवागच्छिता जेगेव उत्तरखतियकुंडपुरसंणिवैसस्स उत्तरपुरत्थिमे दिसिभाए तेणेव झाचि वेगेण उवदिया । [ १०१६ ] [३७२] तओणं सके देविदे देवराया सणियं सणियं जाणविमाणं ठवेति, सणयसणि विमाणं ठवेशा सनियं जाणमिणाओ पच्चोतरति, साणेयं सणीयं ते पछी भगवान्नो निष्क्रमणाभिप्राय जाणीने चारे निकायना देवो पोत पोताना रूप, वेग, तथा चिन्हो धारण करी सघळी ऋद्धि, श्रुति, तथा वळ साथे पोतपोताना विमानोपर चडी वादर पुलो पलटावी सूक्ष्म बुद्धलोमां परीणमावी ऊंचे ऊपडी अत्यंत शीघ्रता अने चपळतावाळी दिव्य देवगतिथी नीचे उतरता तिर्यक लोकमां असंख्याता द्वीपसमुद्र उल्लंघीने ज्यां जंबूद्वीप छे त्यां आवा क्षत्रियकुंड नगरना इशान कोणमां ऊतावळा आवी पहोंच्या. [१०१४ ] त्यावाद शक्र नामे देवना इंदे धीमे धीमे विमानने त्यां थापी, धीमे धीमे मांगी करी, एकांते जड़ मोहोटो विक्रिय समुद्यात करी एक महान् मणि Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन चोवीश. [३७] सनियं जाणविमाणाओ पञ्चोतरिता एगंत मवकमेति, एगंत मत्रकभेत्ता महया वेउच्चिएणं समुग्धाएण समोहणति, महया वेउच्चिएणं समुन्वाणं समोहणित्ता, एवं सहं णाणामणि कणगरयण मत्तिचित्तं सुभं चाकं तरूवं देवच्छंदयं विउव्वति; तस्सणं देवच्छेदयस्त बहुमज्झ देसमाए एगं महं सापायपीठं सीहासणं णाणामणिकणयस्थणभत्तिचित्तं सुभं चारुकं तरूवं विन्ध, विव्वित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेथेन उवागच्छतिः तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्ता आयाहिणं पयाहिणं करेइ; समणं भगवं महावीरं तिक्खुतो आयाहिणं पयाहिणं करेत्ता समणं भगवं महावीरं बंदति णसंसति; वंदित्ता णमंसिचा समणं भगवं महावीरं गहाय जेणेव देवच्छंद, तेगेव उवागच्छति; उवागंच्छिता सणियं सा यं पुरस्थाभिमुहे सीहासणे निसीयावेइ; सनियं सणियं पुरत्याभिमुहं णिसीमानेता सयपागसहस्सपाहिं तेहिं अभंगेति; असंगेचा गंधक साइ सुवर्ण तथा रत्नजडीत, शुभ, ममोहर रूपवानुं देवच्छेदकविकु (बनाव्यं) ते देवच्छेदकनी वच्चावच्च मध्यभागे एक तेयुंज रमणीय पादपीठिकासहित एक महान् सिंहासन विकु, पछी ज्यां भगवान हता त्यां आवीने भगवानने त्रणवार दक्षिणा करी वांदी नमी भगवान्ने लड़ ज्यां देवच्छंद हतुं त्यां आवी धीमे धी पूर्वदिशा सामे भगवान्ने सिंहासनमां बेसाडया. पछी शतपाकर अने सहस्त्रपाक तेलोवडे मर्दन करी गंधकापायिक बवडे लुंछीने पवित्र पाणीथी नयगवी लक्षमूल्यवानुं थंड रक्तगोशीर्षचंदन वसी तैयार करी तेहा बड़े लेपन करें. त्यास वाद निश्वासना लगारेकवायुथी चलायमान बनाएं, वखणायला नगर के पाटणम वनेलां, चनुरजनेोमांखणाएलां, घोडानी फीण जेवांमनहर, चतुर कारीगरोए सोनाथी खचला हंस समान स्वच्छ वे वो पहेराव्यां पछी हार, अर्धहार, उरस्य, एका १ कमानदार घुमटवाएं दिव्य आसनस्थान Divine parillion. २-३-शो तथा हजार आपधीओना पाकधी एल, ४ सुवासित भने पारंगना. Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३७४] आचागंग- मूळ तथा भाषान्तर इहिं उल्लेोलेति; उल्लोलिता सुद्धोदएणं मज्जावेइ, मजाविता जरस य मुल्लं सय सहस्से हिं ति पडोलमितर पसाहिएणंण सीतएणं गोसी सरतचंदणेणं अलिंपति, अणुर्लिपिता इसि निस्सासवातबोज्झं वरणगरपट्टणुग्गतं कुसल - णरपसंसितं अस्सलाला पेलवं छेयायरियकणगखचियंतकम्मं हंसलक्खणं पट्टजुयलं नियंसावेइ; णियंसावेचा हारं अनुहारं उरत्थं एगावलि पालंबसुतपट्ट -मउड - रयणमालाइ आविधात्रेति; आविधावेचा गंठिम-वेदिमपूरिम- संधातिमेणं मल्लेणं कप्परुक्खमिव समालंकेति; समालंकेचा दोचेपि महयां वेत्रियसमुग्धाएणं समोहणइ, समोहणिचा एगं महं चंदप्पभं सिवियं सहस्सवाहिणिं विउव्वइ : - तंजहा, ईहामिय - उसभ - तुरग-र-मकर - विहग-बाणर - कुंजर – रुरु - सरभ चमर – सद्दूल - सह - चणलय - वि चिचविज्जाहरराम हुणजुगल - जैतजोग - जुतं अच्चीसहस्समालिणीयं सुणिरू वितमिसिमिसित रूवगसहस्सकलियं इसिभिसमाणं चक्खूल्लोयणलेस्सं मुता • चाळे, प्रालंब, सूत्रपट्ट मुकुट, तथा रत्नमाळादि आभरणो पहेराव्यां पछी जूढ़ी जूदी जातनी फूलनी मा ओयी पुष्पतरुना माफक सणार्या. पछी इंद्रे पाछां बीजीवार वैकि-समुद्घात करी हजार जण उपाडी शके एवी एक महान् चंद्रप्रभा नामे शिविकार विकुवी. ए शिविकानुं वर्णन आ प्रमाणे छे:- शिविका इहामृग, ४ वळद, घोडा, नर, मगर, पक्षी, वानर, हाथी, रुरु, ५ सरभ, चमरीगाय, वाघ, सह, वननी लताओ, तथा अनेक विद्याधरयुग्मना यंत्रयोगे करी युक्त हती तथा हजारो तेजराशिओयी भरपुर हती, रमणीय अने झगझगायमान हजारो चिमागणाथी भरपुर अने देवमान अने आंखयी साये जोड न शकाय तेवी हती, अनेक मोतीथी विराजित सुवर्णमय मतर बळी हती, तथा झुलती मोतीओनी माळा, हार, अर्द्धहार, विगेरे भूपणोथी शोभती हती, अतिशय देखवा लायक हती, पद्म १ लंवायमान माळा २ कंदो ३ पालखी ४ शहामृग ५ अष्टापद. Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन चोवीसमुं. [७] हडं मुतजालंतरोधियतवणीयपयरलंबूणं पलंबंतमुतदामं हारनुहारभूसणसमो णयं अहियपेच्छणिज्जं पउमक्यभतिचितं णाणालयभतिविरइयं सुमं चारुकंतरुवं णाणामणिपंचवण्ण घंटापडायपरिमंडियग्गसिहरं पासादीयं दरिसणीयं सुरुवं । (१०१५) सीया उवणीया जिण, वरस्स जरमरणविप्पमुक्कस्स उवसंतमल्लदामा, जलथलयं दिव्वकुसुमेहि सिवियाइ मज्झयारे, दिव्वं वररयणरूवचेवतिय सीहासणं महरिहं, सपादपीढं जिणवरस्स । आलइयमालमउडे, भासुरबोंदी वराभरणधारी खोमयवस्थणियत्थो, जस्सय मोल्लं सयसहस्सं। ३ ___ लता, अशोकलतो, विगैरे अनेक लताओथी चित्रित हती, शुभ तथा मनोहरआका वाळी हनी, अनेक प्रकारनी पंचवर्णी मणिओवाळी घंटा तथा पताकावडे शोभिता अग्रभागवाळी हती, तथा मनोहर, देखवालायक अने सुंदरआकारवाळी हति. [१०१५] [अर्था छंद] जरमरणमुक्त जिनवर-माटे शिविका तिहां भळी आवी; जळ्थळज दिव्य पुप्पनी, माळाओ झूलती टावी. शिविकाना बचगाळे, थाप्यु छ रनरप झळहन्तुं; सिंहासन बहु कीमती, पदपीठसहित गिनवरतुं. माळा मुकुट विगेरे. उत्तम भूपण धरी प्रवानि थइ ; लान्य मूल्यना उत्तम भौमिक वो पहरी करी. ? मसलीन-मलमलनां वखो. Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३७३] आधारांग-मूळ तथा भान्तर छट्टेणउ भतेणं, अज्यवसाणेण सोहणण जिणो लेपार्ह विसुझतो, आरुहई उतमं सीयं । सीहासंणे णिविट्टो, सक्कीसाणायें दोहि पाशेहि बीयांत चामराहिं मणिरयणवितितदंडाहिं । पुर्वि उक्खिता माणुस्सेहिं सा हटुरोमपुलएहि पच्छा हवांत देवा, सुरअसुरा गरुलणागिंदा । पुरओ सुरावहंती, असुरा पुणं दाहिणमि पासमि अको बहंति गरुला, णागा पुण उतरे पासे। वणसंडं यहुसुमिय, पउमसरो वा जहा सरयकाले सोहइ कुसुमभरेणं, इय गमणतलं सुरगणेहिं । सिद्धत्थवणं व जहा, कणियारवणं व चंपयवणं वा सोहइ कुसुमभरणं, इय गगणतलं सुरगणेहि। ७ ८ ९ वे उपवास कर्राम, पवित्र परिणाम साथ मिनदेव, शुभ लेश्याए चडता, शिविका उपर चडे देव. सिंहासन पर येशे, वे पडखे शक्रने इशान रहि मणिरत्नम्डयाळा चामर ढोळे स्वहाथ नहीं. पेला ते शिविकाचे, उपाडे माणसो सहर्प धइ, ते पछी सुर असुर गरुड, नाग उपाडे सुसज्ज रही. पूर्व दिशाए देवो, दक्षिणमा असुर उचके शिविका पश्चिम वाजू गरुडो, नाग रहे उतरे धरता. गगन विराजे देवथी, शोथे फूलेढुं जम बनखंड अथवा शरद ऋतुमां, पदाकार पद्म विकसंत. गगन धीगजे देवधी, गोभे सरसवतुं जेम वनखंड कणियर के चंपकर्नु, बन शोभे पुप्प विकसन, Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन चोवीशर्मु. _ [३७७] वरपडह-मेरि-झल्लरि-संख-सयसहस्सिएहि तुरेहिं गगणतले धरणितले, तुरियणिणाओ परमरम्मो। १० ततवितयं घणसुसिरं आउजं चउविहं बहुविहीयं वायंति तत्थ देवा बहहिं आणगसएहिं ११ [१०१६] तेणं कालेणं, तेणं समएणं, जे से हेमंताणं पढमे मासे पढने पक्खे मग्गसिरबहुले, तस्सणं मग्गसिरबहुलस्स दसमीपक्खेणं सुव्वएणं दिवसेणं विजएणं मुहुत्तेणं हत्थुत्तराणक्खत्तेणं जोगोवगतेणं पाईणगामिणीए छायाए वियचाए पोरिसीए छटेणं भत्तेणं अपाणएणं एगसाडग मायाए चंदप्पहाए सिवियाए सहस्सवाहिणीए सदेवमणुयासुरापरिसाए समन्निज्जमाणे समन्निज्जमाणे उत्तरखत्तियकुंड पुरसणिवेसस्स मझमझेणं णिगच्छिता जेणेव णायसंडे उज्झाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ईसिरयाणप्पमाणं अच्छोप्पणं भूमिभागेणं सणियं सणियं चंदप्पमं सिवियं पडह भेरीने झालर शेखाटिक लाख वाजियां वाजां गगनतळ धरणितळमां, अवाज पसर्या अति झाझा. तत वितत धन शुपिर ए, चारे जातितणा बहु वाजा नाटक साथे देवो, वजाडवा वलगिया झाझा ११ [१०१६] ते काले ते समये शीयाळाना प्रथममासे प्रथमपक्षे मागसर बदि १०ना सुन व्रतनामना दिने विजयमुहुर्ते उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रनो योग आवतां पूर्वमा छाया वळतां छल्लां पहोरमां पाणी वगरना वे अपवासे एक पोतनुं वस्त्र धारी सहस्रवासीनी चंद्रप्रभा नामनी शिविका उपर चडी देव मनुष्य तथा अनुरोनी पर्पदाओ साथै चालता चालता भत्रियकुंडपुर संनिवेशना मध्यमां थइने ज्यां ज्ञातवंड नामे उद्यान हतुं त्यां भगवान आल्या, आवीन धीमे धीमे भूमिथी एक हाय दंची शिवि Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३७८] आचारांग-मूळ तथा भापान्तर. सहस्सबाहिणि ठवेइ; ठवेता सणियं चंदप्पभाओ सिबियाओ सहस्तवाहिणीओ पच्चोयरइ; पच्चोयरित्ता सणियं सणियं पुरस्थाभिमुहे सहिासणे णिसीयेइ; आमरणालंकारं उमुयइ, तओणं वेसमणे देवे जंतुवायपडिए समणस्स भगवओ सहावीरस्त हंसलक्खणेणं पडेणं आभरणालंकारं पडिच्छा तओणं समणे भगवं महाबीरे दाहिणेणं दाहिणं, वामणे वाम पंचमुष्ट्रिय लोयं करेइः तओणं सक्के देविदे देवराया ससणस्स भगवओ महावीरस्स जंतुवायपडिये बयरामयेणं थालेणं केसाइं पडिच्छइ पडिच्छित्ता' "अणुजाणेसि भंते ति कट्ट खीरोयसायरं साहरइ तओणं समणे भगवं महावीरे दाहिणेणं दाहिणं, वामेण वाम पंचमुट्टियं लोयं करेत्ता सिद्धाण णमोकारं करेइ; करेत्ता “सव्वं मे अकरणिज्जं पावकम्म” ति कट्ट सामाइयं चरितं पडिवज्जइ, सामाइयं चरित्तं पडिवज्जेता देवपरिसं च मणुयपरिसं च आलेखाचित्तभूय मिव हवेइ । [१०१७] दिव्यो मणलघोसो, तरियणिणाओ य समवयणेण खिप्पामेव णिलुको जाहे पडिवज्जइ चरि का स्थापी धीमे धीमे तेमांथी उता. उतरीने धीमे धीये पूर्वाभिमुख सिंहासन पर वेशी आभरण-अलंकार उतारवा लाग्या. त्यारे वैश्रवण देवे गोढोहासने रही लफेदवस्खमां भगवानना ते आभरणालंकार ग्रहण कर्या. पछी भगवाने जमणा हाथी जनणा अने डावा हायवी डावा नो पंचपुष्ठियी लोच कर्या त्याने शकु देवेंद्रे गोदाहासने रही भगवानना ते काळ राना थालनां ग्रहण करीने भगवानने ज. णाने धीरसमुद्रयां पहोंचाइया. एरमाणे भगवाने लोच कर्या पछी सिद्धाने नमस्कार करी "मारे कंइ पण पाप नहि करवू" एम ठराव करी सामायिकचारित्र स्वीकार्यु ए वेळा देवो तथा मनुष्योनी पर्पना चित्रामणनी माफक (गठवड रहि तपणे स्तब्ध) बनी रही [१०१७] जिनवर चारित्र लेतां, इंद्र वचनधी ततक्षणे सपळा . देव मनुष्य अवाजो, तेमज वाजित्र बंध रह्या. Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३७९] अध्ययन चोवीशk. पडिबज्जित्तु चरितं, अहोणिसिं सबपाणमूतहितं साहट लोमपुलया पयया देवा निसामोते. २१०१८] तओणं समणस्स भगवओ महावरिस्त सामाइयं खाओवसामिय चरित्तं पडिवन्नरस मणपज्जवणाणे णामं णाणे समुत्पन्ने; अड्डाइज्जेहिं दीहि, दोहिंय समुद्देहि सणीर्ण पचेंदियाणं पज्जत्ताणं वियत्तमणसाणं मणोगयाइं भावाई जाणेइ ; [१०१९] तओणं समणे भगवं महावीरे पव्वइते समाणे मित्तणाइसयणसंबंधिवग्गं पडिविसज्जेति, पडिविसजित्ता तओणं इस एयाख्वं अभिग्गहें आभागण्हइ “बारसवासाइं वोसट्टकार चत्तदेहे जे केइ उबसग्गा समुप्प-- ज्जति, तंजहा;-दिव्वा वा, माणुस्सा वा, तेरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुत्पन्ने समाणे सम्म सहिस्सानि खमिस्सामि अहियासइस्सामि ।" [१०२० जिनवर चारित्र लेता, हमेशा प्राण भूत हित कर्ताः । हर्पित पुलकित थइने, सावध थइ देवता मुणता. २ १०१८] ए रीते भगवाने लायोपामिक सामायिकचारित्र लीपापछी तेमने मनपर्यवज्ञान उत्पन्न थy; तेथी अढी द्वीप तथा वे समुद्ना पर्याप्त अने व्यकतमनवाळा संज्ञि पंचेद्रियोना मनोगत भाव जाणता लाग्या. [१०१९] पछी प्रनित थएला भगवाने मित्र, शाति, सगा, तथा संबंधिोने विसर्जित करी एवो अभिह लीधो के “चार वर्प लगी हुँ कायानी सार संभाळ नाहि करतांज कंह देव मटप्य के तिर्योत्तरपच उपसर्गो थशे, ते पधा एटी रीते सहीश, खगीग अने अहियान [१०२०] १ खपाश (sutler) -ra. . . ... Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८०] आचारांग-मूळ तया भाषान्तर तओणं समणे भगवं महावीरे इमेयारूबं अभिग्गहं अभिगिहिता वोसट्टकाए चत्तदेहे दिवसे मुहत्तसेसे कुम्मारगाम समणुपत्ते । [१०२१] .. तओणं समणे भगवं महावीरे वोसट्टचनदेहे अणुत्तरेणं आलएर्ण, अणुत्तरेणं विहारेणं, एवं संजमेण, पग्गहेणं, संवरेणं, तवणं, बभचेरवासणं खंतीए, मोत्तीए, तुट्रीए, समितीए, गुत्तीए, ठाणेणं, कम्मणं, सुचरियफलणेव्याणमुत्तिमग्गणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । [१०२२] ____एवं वा विहरमाणस्त जे केइ उवसग्गा समुपजिस-दिव्या वा, माणुसा वा, तेरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पण्णे समाणे, अणाइले, अव्वहिते, अदीगमाणसे तिविह मगव्यणकायगुत्ते सम्म सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ । (१०२३) तओणं समणस्त भगवओ महावीरस्स एतेणं विहारेण निहरमाणस्स वारस वासा वितिकता; तेरसमस्स वासरत परियाए बट्टमाणस्स, जे से आवो अभिग्रह लइ शरीरनी ममताथी रहित थया थका एक महत्तं जेटलो दिवस होतां कुम्मार गामे आवी पहोच्यां. [१०२१] __ पछी भगवान उत्कृष्ट आलय, उत्कृष्ट विहार, तेमज तेवाज संयय, नियम, संवर, तप. ब्रह्मचर्य, शांति, त्याग, संतोप, समिति, गुप्ति, स्थान, कर्म, तथा रुडा फळवाळा निर्वाण मार्गवडे पोताने भावता यका विचरवा लाग्या. [१०२२] एम विचरतां जे काइ देव मनुष्य तथा तियचोतरफथी उपसर्ग थया ते सर्वे भगवाने स्वच्छ भावमा रही अगपीडाता अदीनमन धरी मनवचनकायाए गुप्त रही सम्यक् रीते सद्या खम्या तथा अहियाश्या. [१०२३] __ आवी रीत विचरतां भगवानने वार वर्ष व्यतिक्रम्या. हवे तेरमा वर्पनी अंदर उनाळाना वीजा मासे वाजे पक्षे वैशाख मुदि १० ना सुचत नामना विजयमुहर्ने उत्तराफाल्गुनीन रेगे पूर्वदिशाए छाया वळता छल्ले पहोरे जंभिकगाम Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन चौबीसमुं. [३८१] गिम्हाण दोच्चे मासे चउत्थे पक्खे वइसाहसुद्धे-तस्तणं वइसाहसुद्धस्स दसमीपक्वेणं, सुव्वएणं दिवसणं, विजएणं मुहत्तेणं, हत्थुत्तराहिं णक्खतेणं जागोवगतण, पाईणगामिणीए छायाए, वियत्ताए पोरिसीए, जमियगामस्स गरस्स बहिया, णदीए उज्जुवालियाए उत्तरे कूले, सामागस्त गाहावइस्स कठ्ठकरणंसि, वेयवत्तस्स चेइयस्स उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए, सालरुक्खस्स अदूरसामंते, उक्कुडुयस्स गोदोहियाए आयावणाए आयावेमाणस्स छट्टेणं भत्तेगं अपाणएणं उड्डूंजाणु-अहोसि रस ज्झाणकोट्रोवगयस्स सुकझाणंतरियाए वट्टमाणस्स निबाणे कसिणे पडिपुणे अव्वाहए णिरावरणे अणंने अणुत्तरे केबलवरणाणदंसणे सम्मपणे । (१०२४) से भयवं अरहा जिणे जाए केवली सवण्णू सवभावदारसी सदेवमणुयासुरस लोयस्स पज्जाए जाणइ, तंजहा;-आगति, गति, ठिति, चवणं, उववाथ, भुत्तं, पायं, कडं, पडिसेवियं, आवीकम्म, रहोकम्म, लविय, कहियं, मणोमाणासियं, सत्यलोए सबजीवाणं, सबभावाइं नगरनी बाहेर जुवालिका नर्दाना उत्तर किनारे श्यामाक गायापतिना कर्पण स्थळमां व्यारत नामना चैत्यना इशानकोणमां शाळक्षनी पासे अर्था उभा रही गोदोहिका आसने आतापना करतां यकां तथा पाणीवगरना ये उपवासे जंघाओ उंची गखी माथु नीचे घाली ध्यानकोष्टमा रहेतां धका शुक्लध्यानमां वर्त्ततां छेवतुं संपूर्ण प्रतिपूर्ण अव्याहत निरावरण अनंत उत्कृष्ट केवळज्ञान तथा केवळदर्शन उपज्यु. [१०२४] हवे भगवान अहन् निन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वभावदर्शी, थइ देव मनुष्य, तथा अपुर प्रधान (आखा) लोकना पर्याय जाणवा लाग्या एटले तेनी आग ति-नि, स्थिति च्यवन, उपपात, खाद्युपीई, करलं कारवे, प्रगटकाम, छानांकाम, बोल, कहेन, एम आरखा लोकमां सर्व जीवाना सर्वभाव जाणता देखता Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचागंग-सूळ तथा भाषान्तर जाणमाणे पासमाणे एवंवाए विहरइ । (१०२५) जण्णं दिवसं समणस्त भगवओ महावीरस्स व्याणे कसिणे जाव समुप्पण्णे, तण्णं दिवसं सवणवइ-वाणमंतर-जोइसिय-विमाणवासि -देहि य देवीहि य उव्ययंतहि य जाव उप्पिजलगभूएयावि होत्था । (१०२६) तओणं समणे भगवं महावीरे उपाणणाणदसणधरे अप्पाणं च लोगं च आभिसमक्ख पुच्चं देवाणं धम्म माइक्खति; तओं पच्छा मगुस्साणं (१०२७) तओणं समणे भगवं महावीरे उप्पण्मणाणदंसणधरे गोयमाईणं समणाणं गिग्गंथाणं पच महव्वयाई सभावणाई छन्जीवनिकायाइं आइस्खइ, भासइ, परूबेइ; तंजहाः- पुढविकाए जाव तसकाए । (१०२८) पढमं भंते महब्वयं, पच्चक्खामि सव्वं पाणाइवायं; से सुहुमं वा बायर वा, तसं वा, थावरं वा, व सयं पाणाइवायं करजा [३] थका विचरवा लाग्या.. [१०२५] जे दीने भगवानले केवलज्ञान दर्शन उपना ते दिने भवनपत्यादि चारे जातना देवदेवीओ आवतां जतां आकाश देवमय तथा धोछं थइ रा. [१०२६] . ए रीते उपजेलां ज्ञानदर्शनने धरनार भगवाने पालाने तथा लोकने संपूर्णपणे जोइने पहेला देदोने धर्म कही संभळाव्यो अने पछी मनुष्योने. [१०२७] __ पछी उपजेला ज्ञानदर्शनना धरनार श्रमण भगवान महानारे गौतमादिक श्रमण निग्रंथोने भावना सहित पांच महावत तथा पृथिवीकाय विगरे छ जीवनीकाय कही जणाव्या. (१०२८) (पांच पांच भावना सहित पांच मह व्रत) पहेलु महावतः-हे.भगवान् हुं सर्व प्राणातिपात त्याग करं -त ए रीते. Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर. [३८३] जावज्जीवाए तिविहंतिविहेणं मणसा वयसा कायसा । तरस भंते पडिक्कसामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पार्ण वोसिरामि । ( १०२९) तस्सिमाओ पंच भावाणाओ भवंति : - (१०३०) तत्विमा पढसा भावणाः - इरियासमिए से णिग्गंथे, णो अणइरियासमिए त्ति; केवली बूटा - अणइरिया समिते णिग्गंथे पाणाई [४] अभिहज्ज वा, वत्तेज्ज वा परियावज्ज वा, लेसेज्ज वा, उद्दवेज्ज वा । इरियासमिए से विग्गंथे, णो इरियाअसमिए त्ति पढमा भावणा । (१०३१) अहावरा दोच्चा भावणा:- मणं परिजाणाइ से णिग्गंथे; जय मणे पावए सावज्जे सकिरिए अण्हयकरे छेयकरे भेयकरे अधिकरणिए पाउसिए परिताविते पाणातिवादिते भृतोवघातिए, तहप्पगारं मणं णो पधारेज्जा । के सुक्ष्म के बादर, सके स्थावर जीवनो यावज्जीवपर्यंत मनवचनकायाए करी त्रिवि पाते घात न करीश, बीजा पासे न करावीश अने करताने रुडुं न मानीश तथा ते जीवधातने पदमुं हुं, निदुद्धं, गरहुं हुं अने तेवा स्वभावने वोसरावुछ. (१०२९) तेनी आ पांच भावनाओ छे: - (२०३०) त्यां पेली भावना ए के सुनिए इर्शनमिति सहित था वर्त्तवं पण ति थड न वर्त्तं. कारण के केवळ ज्ञानी कहे छे के इर्ष्यासमिति रहित होय ते मुनि प्राणादिको घात विगेरे करतो रहे छे. माटे निवेदयमिति वर्त्त ए पेली भावना. [१०३१] बीजी भावना ए के निर्णय सुनिए मन ओळख पटोले के जे मन पाप भरें, सदोप, (भुंडी) किया सरित, कर्म वैधकारि छेद करनार भेद करनार, कलहकारक, महेष भरे, परिवस तथा जीव-भूतनुं उपचातक होय वा मनने Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८४] अध्ययन चोवीसमुं. मणं परिजाणाति से णिगंथे; जेय मणे अपावते ति दोच्चा भावणा। (१०३२) अहावरा तचा भावणा:-वतिं परिजाणाति से णिग्गंथे; जाय वती पाविया सावज्जा सकिरिया जाव भूतोवघाइया तहप्पगारं बई णो उच्चहिज्जा । वइं परिजाणाइ से णिगंथे; जाय वइ अपाविय ति तच्चा भावणा । (१०३३) .. अहावरा चउत्था भावणा:-आयाणभडणिक्खवणासभिए से णिगंथे, णो अणायाणभंडणिक्खेवणासमिए णिगंथे; केवली बूया-आयाणभंडणिक्खेवणाअसमिए णिग्गंथे पाणाई भूयाइं जीवाइं सत्ताई अभिहणेज्ज वा जाव उद्दवेज वा । आयाणभंडणिक्खेवणासमिए से णिग्गंथे, णो आयाणभंडणिस्खेवणाअसलिए त्ति चउत्था भावणा । (१०३४) अहावरा पंचमा भावणा:-आलोइयपाणभोई से णिग्गथे, जो नहि धारखं एम मन जाणीने पापरहित मन धार, ए वीजी भावना. (१०३२) । त्रीजी भावना ए के निग्रंथे वचन ओलखवू एटले के जे वचन पाप भरखें सदोप, (मंडी) क्रियावालं, यावत् भूतोपयातक होय -ते, वचन नहि उच्चर. एम वचन जाणीने पापरहित वचन उचर. ए त्रीजी भावना. (१०३३) चोथी भावना ए के निग्रंथे भंडोपकरण लेतां राखता समिति सहित यह वर्ग, पण रहितपणे न वर्ग. कमके केवली कहे छे के आदानमांडानिक्षेपणासमिति-रहित निग्रंय प्राणादिकनो घात विगैरे करतो रहे छे. माटे निवे समितिसहित धइ वर्गवं ए चाथी भावना. [१०३४] पांचमी भावना ग के निग्रंथे आहारपाणी जोइने वापरबा, वगर जाए, न Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन चोवीशमुं. [३८५ ] अणालोइयपाणभोई; केवली बूया - अणालोइयपागसोयण भोई से णिग्गंथे पाणाई अभिहण्जेज्ज वा जाव उद्दवेज्ज वा । तम्हा आलोइयपाणभोयण भोई से णिग्गंथे, णो अणालोइयपाणभोई चि पंचमा भावणा । [ १०३५ ] एतावता महाए सम्मं कारण फासिए पालिए तीरिए किट्टिते अवहिते आणाए आराहिए यावि भवति । [ १०३६ ] पढमे भंते महच्च पाणाइवायाओ वेरमणं । [ १०३७] अहावरं दोच्चं महव्ययं; - पञ्चकखामि सव्वं सुसावायं वतिदासं से कोहावा, लोहावा, भयावा, हासावा, व सयं मुसं भासेज्जा, नेवणं मुखं भासावज्जा, अण्णं पि सुतं भासतंग समाजाणेज्जा, तिहिं तिविहेणं, मणसा वयसा कायसा, तरस भंते पडिक्कमासि जाव वोसिराभि । [१०३८] तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंतिः - [१०३९] वापरा. केमके केवळी कहेछ के बगर जोए आदारपाणी वापरनार निर्बंध प्राणादि-' कनो घात विगेरे करे. माटे निग्रंथे आहारपाणी जोड़ने वापरवा, नहि के वगर जोड़ने, ए पांची भावना. [१०३५ ] ए भावनाओ मत रुडी रीते कायाए स्पर्शित, पालित, पार पाडेलुं कीर्त्तित, अवस्थित अने आता प्रमाणे आराधित थाय छे. [१०३६ ] ए पेहेतुं प्राणातिपात विरमण एप महात्रत छे. [१०३७ ] aj महाव्रत:- "कृपावादरूप वचनदोष त्याग करूं छं एटले के कोध, लोग, भय, के हारी जीव पर्यंत त्रिविधे त्रिविधे एटले मनवचनकाए क्रीन कृपाण करूं नहि करा ना अने भरताने अनुमोदुं नहि; तथा ते मृपाभाषण दिने वा स्वभावने शेतरा." [१०३८] तेनी पांच भावनाओ :-- [१०३०] Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८६ ] आचारांग मूळ तथा भाषान्तर तत्थिमा पढमा भावणाः - अणुवीइभासी से णिग्गंथे, जो अणुवीइभासी; केवली बूया - अणवइिभासी से णिग्गंथे समावदेज्जा मोसं वयणाए । अणुवइभासी से णिग्गंथे, णो अणणुवी भासीति पढमा भावणा । [ १०४० ] अहावरा दोच्चा भाणा. - कोहं परिजाणाइ से णिग्गंथे, णो कोहणे सिया; केवली बूया कोहप्पत्ते कोही समावदेज्जा मोसं वयणाए । कोहं परिजाणाइ से णिग्गंथे, णय कोहणे सियत्ति दोच्चा भावणा । [ १०४१] अहावरा तच्चा भवर्णाः - लोभं परिजाणाइ से णिगंथे, णो य लोभणे सिया; केवली बूया - लोभपत्ते लोभी समावदेज्जा मोसं वयणाए । लोभं परिजाणइ से णिग्गंथे, णो य लोभणए सियति तच्चा भावणा । [१०४२ ] त्यां पेली भावना आ :- निर्ग्रथे विमासीने बोलवं, वगरविचारेधी न बोलवं केमके केवळी कहे छे के बंगर विमासे वोलनार निर्ग्रथ मृपा वचन बोली जाय. माटे निर्ग्रथे विमासीने वोलं, नहि के वगर विमासे. ए पेली भावना [१०४०] वीजी भावना ए के निर्व्रये क्रोधनुं स्वरूप जाणी क्रोधी न थवं. केमके केबळी कहे छे के क्रोध पामेल क्रोधी जीव मृपा बोली जाय. माटे निर्व्रये क्रोनुं स्वरुप जाणी क्रोधी न थवं. ए बीजी भावना. [१०४१] जीजी भावना ए के निग्रंथे लोभनुं स्वरुप जाणी लोभी न थवं. केमके के वली कहे छे के लोभी जीव मृपा वोली जाय. माटे निग्रंथे लोभी न थवं ए त्रीगी भावना. [१०४२ ] १ विचार पूर्वक (with deliberation ) Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन बोनासन अहावर उत्या भावना:- परिजाइ ले गये, पो भयसीए सियाः देवली या मयारे भी तनावग्जा मोसे व्यपार । न्यं परिजाइ के लिये, स्यमील लिया। चडत्या भावना __ अहावरा पंचना भावगाः-हानं परिजाणइ से निगये, पो य हारगर सिया: बली व्या-हात्तपत्ते हाती समावनेजा नाले व्यपार। हानं परिजाप से गिगये, पो यहासागर लिय चि पचना भावणा । एतावनाब महलए सन्नं शरन पसलिए जाव आ र आराहिते या वि भवति । बोचं भले महत्वयं (२०४५) अहा नई महद:-पत्रस्तति सवं अदिगा दान ले गाने वा णारे वा अरन्गे का अयं वा हुं वा अणु वा थूल वा चि चायी भावना ए के निये भयर्नु स्वल्प जानी भभीरू न यो केमके जेवजी कई के के भी पुरुष मृषा बोली जाप. मटे भीरू र यदु ए चोर्थी भारना-१०४ पांचमी भावना ए के ज्ञातुं स्वरूप जागी निये हास्य करनार न यई मो केरी कहे छ के हाव करनार पुल मा बोली माय, माटे प्रिय हास्य करनार न यई ए पांचमी भावना. [१०४४) ए भावनाओयी मानन रखीरीले पाए को सभित अने या आजा प्रमागे आराधित याय . ए बाहुं महात. [१०४३ - बाई महान्तः-"सर्व अनुत्ताजन नजुई. एटल के गाम नगर के अरण्यमां रलं. याई के , ना मोहोई. सचिन के अवित्त अगदोधे (1) हूं Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८८] आचारांग-मूळ तथा भापान्तर त्तमंतं वा अचित्तनंतं वा णेव सयं अदिगं गिण्हेज्जा, बल्गेहिं अदिगं गेण्हावेजा, अगंपि अदिगं गिण्हतं ग समणुजाणज्जा, जावजीसए, जाव वोसिरामि । (१.०४६) तस्सिसाओ पंच भावणाओ भवंतिः-(१०४७) तथिमा पढमा भावणा अणुशीइ मिउगहजाती से गिरने, णो अणणुवीइमिउग्गहजाई से णिग्गंथे केवली बूया-अगणुवीइमि हो- ' गहजाती से णिग्गंवे अदिण्णं गिण्हेज्जा। अणवीइ मिउगगहजाती से णिगंथे, जो अगणवीइसितोगहजाइ ति पढमा भावणा । (१०४८) अहावरा दोचा भावणा:-अजगवियपाणलोयणभोती से निगंथे णो अपणुप्णवियपागमायणयोई केली ब्या-अगमुण्मवियपाणसोयणभोई से णिग्गंथे अदिवं भुजेज्जा। तम्हा अगुग्नवियपाणभोयणभाई से णिगथे, जो अणणुण्णवियपाणभोयणमोती ति दोबा भावणा । (२०४९) यावज्जीव त्रिविधे एटले मन-वचन-कायाए करी लउँ न, लेबरावू नहि, लेनारने अनुमत करं नहि तथा अदत्तादानने पडिको यावत् तेवा स्त्रमादा दोसराबुंछु." [१०४६] तेनी आ पांच भावनाओ छ:- [१०४७] त्यां पेहेली भावना आ के निथे विचाशने परिमित अन्नाह गायो, पण वंगर विचारे अपरिमित्त अनाद न मागको. केमके केवळी कहे छ के नगर विचारे अपरिमित अन्नद माननार निीय अदत्त लेनार थइ जाय. माटे विचारीने परिमित अवग्रह मागयो. ए पहेली भावना. [१०४८] वीजी भावना ए के निथे रज. मेळ्याने आहारपानी वापरबा, पण रजा मेळव्या वगर न दापरवा. वायके केवळी कहे छे के बगर रजा भेळवे आहारपाणी वापरनार निम्रय अदत्त लेनार थइ पंडे माटे रजा मेळवीने आहारपाणी वापरवा ए बीजी भावना. ] १०४९ १गुरु अगर पंडरानी. Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन चोवीशमुं. __ [३८९] अहावरा तचा भावणा:-णिगंथे णं उग्गहसि उग्गाहितसि एत्तावताव उम्गहणसीलए पिया; केवली बूया-णिगंथेणं उग्गहसि उ. गहितसि एन्तावताव अणोरगहणसीले अदिणं गिण्हेज्जा । णिगंथेणं उग्गहसि उग्गहिसि एतावताव उग्गहणसीलए सिय ति तचा भावणा। (१०५०) अहावरा चउत्था आत्रणा:-णिगंथेणं उग्गहसि उग्गहियसि अभिक्खणं [२] उग्गहणसीलए सिया; केवल, बूया-ग्गिंथेण उग्गहांस उग्गहियसि अभिक्खणं [२] अगोग्गहणतीले अदिण्णं गिण्हेज्जा । णिग्गंथे उग्गहसि उग्गहियंसि अभिक्खणं [२] उग्गहणसीलए सिय त्ति चउत्था भावणा । (१०५१) अहावरा पंचमा भावणा:-अगुवीइमितोगहजाती से णिग्गंथे साहम्मिएस, णो अपणुवीइमिउग्गहजाती; केवली व्या-अणणुवीइमिमगहजाती से णिगंथे साहम्भिएसु अदिणं उगिण्हेजा। अणुवीइमितो त्रीजी भावना ए के निथे अवग्रह यागतां प्रमाण सहित (काळक्षेत्रनी हदवांधी) अवग्रहं लेबो. केमके केवळी कहे छे के प्रयाण बिना अवग्रह लेनार निग्रंथ अदत्त लेनार थइ जाय; माटे प्रयाण सहित अवह लेवो. ए त्रीजी भावना [१०५०] । चोधी भावना ए के निर्माथे अवग्रह मागतां वारंवार हद बांधनार थर्बु, केमो केवळी को छे के वारंवार हद नहि बांधनार पुरुष अदत्त लेनार थइ जाय. माटे वारंवार हद अंधनार ई. ए चाची भावना. [१०५१] पांची भावना ए के विचारीने पाताना माधर्मिक पासेथी पण परिमित अवग्रह मागयो. केमके वेवळी कहेछ के तेम न करनार निग्रंथ अदत्त लेनार थइ जाय. माटे साधर्मिक पासेथी पण विचाराने परिमित अवग्रह मागवो, नहि के बगर विचारे Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३०० ] आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर. गृहजाती से णिग्गंथ साहम्मिएस, णो अणुवी मिते गहजाती । पंचना भावणा । (१०५२) एतावताव महव्वर सम्नं जात्र आणाए आराहिते आवि भवति, तच्चं भते महव्वयं । ( १०५३) अहावरं चउत्थं महव्वयं; - पच्चक्खामि सव्वं मेहुणं; - से दिव्यं वा माणुस वा तिरिक्स्व जोणियं वा, णेव सयं मेहुणं गच्छे, तं चैव अदिण्णादाणवत्तव्या भाणियव्या जाव वोसिरामि । (१०५४) तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति : - (१०५५) तत्थिमा पढमा भावणाः -- णो णिगंथे अभिक्खणं [२] इत्थीणं कहं कहइत्तए सिया; केवली बूया - णिग्गंथे णं अभिक्खणं [२] इत्थीणं कहं कहमाणे संतिभेदा, ' संतिविभंगा, संतिकेवलिपण्णत्ताओ धम्माओ १ शांतिभेदात् अपरिमित, ए पांचमी भावना. [१०५२] ए भावनाओ श्री महाकृत रुडी रीते यावत आज्ञा प्रमाणे आराधित थाय छे. एत्री महावृत. [१०५१] चौथं महावृत:- " सर्व मैथुन तनुं हुं एटले के देव मनुष्य तथा तिर्यचसवंधी मैथुन हुं यावज्जीवत्रिविधे त्रिविधे करूं नहि." इत्यादि अदत्तादान माफक बोलकं. [१०५४ ] ती आ पांच भावनाओ छे:- (१०५५) त्यां पेहेली भावना ए के नि वारंवार खीनी कया कया करवी नहि. केमके केवळी कह छे के वारंवार स्त्रीकथा करतां शांतीना भंग याची निर्यय शां Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन चोवीस मुं. [३९१] अभिक्खणं [२] इत्थीगं कई कहए सियत्ति मँसेज्जा | णो णिग्गंथे पढमा भावणा । ( १०५६) अहावरा दोच्चा भावणा:- णो णिगंथे इत्थीणं मणोहराइ इंदियाई आलोएत्तए णिज्झाइत्तए सिया; केवली बूया - णिग्गंथे णं मणोहराई इंदियाई आलोएमाणे णिज्झाएमाणे संतिभंगा संतिविभंगा जाव धम्माओ मँसेज्जा । जो णिग्गंथे इत्थीण मणोहसइं इंदियाई आलोएत्तए गिज्झाइत्तए सियत्ति दोच्चा भावणा । ( १०५७ ) अहावरा तच्चा भावणा:-णो णिग्गंथे इत्थीणं पुव्वरयाई पुत्रकीलियाई सुमरित्तए सिया; केवली बूया - णिग्गंथे णं इत्थीणं पुव्वरयाई पुव्वकीलियाई सरमाणे संतिभेया जाव भंसेज्जा । जो निन्गंथे पुव्यरयाई पुब्वकीलियाई सरिए सियति तच्चा भावणा । ( १०५८) तिथी तथा वाभाति धर्म भ्रष्ट थाय. माटे निर्ग्रथे वारंवार स्त्रीकथाकारक न ए पेली भावना. (१०५६) 1 वीजी भावना ए के निर्ग्रथे स्त्रीओनी मनोहर इंद्रियो जोवी चिंतaat नहि केमके केवळी कहे छे के तेम करतां शांतिभंग थवाथी धर्मभ्रष्ट धवाय. माटे निग्रंथे ओनी मनोहर इंद्रियो जोबी तपासवी नहि ए वीजी भावना. (१०५७) त्रीजी भावना ए के निर्ग्रये स्त्रीओ साथ पूरे रमेली रमक्रीडाओ याद न करवी. केमके केवळी कहे छे के ते याद करतां शांतिभंग थवाथी भ्रष्ट - चाय. माटे निर्प्रये स्त्रीओ साथे रमेली रमतगमत संभारवी नहि ए त्रीजी भावना (२०५८) १ सीओ सुंदर रूप. (forw9) Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] आचारांग मूळ तथा थापान्तर. अहावरा चउत्था भावणाः - णातिमत्तपाणभोयणभाई से णिग्गंथे णोपणीयरसभोयणभोई; केवली वृथा - अतिमत्तपाणभोयणभाई से ि पणीयरसभोयणभोयण भोई यत्ति संतिभेदा जाव भंसेज्जा । णो तिमत्तपाणभोयणभोई से णिगंथे, णो पणीयरसभोयणभोइ ति चउत्था भावणा । (१०५९) अहावरा पंचमा भावणा: - णा णिग्गंथे इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेवितए सिया; केवली बूया - णिग्गणं इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेवमाण संतिभेया जाव भसेज्जा । णो णिग्गंथे इत्थीपसुपंडगसंसचाई सयणासणाई सेविचए सियहि पंचमा भावणा । ( १०६०) एतावयव महत्वए सम्मं कारण जात्र आराहिते या विभवति चउत्थं भंते महव्त्रयं । (१०६१) अहावरं पंचमं भंते महव्वयः - सव्वं परिग्राहं पच्चवखाभि; से अप्पं वा बहुं वा अणूं वा थूलं वा चित्तमतं वा अचित्तमतं वा णेव रा चोधी भावना ए के निर्णये अधिकरखानपान न वापर, तथा धरता रसवाळु खानपान न वापर. केमके केवळी कहे छे के अधिक तथा झरता रसवाळु खानपान भोगवतां शांतिभंग थवा धर्मभ्रष्ट वाय. माटे अधिक आहार के झरता रसवाळा आहार निगथे न करवो ए चौथी भावना. [२०५९ ] पांचमी भावना ए के निर्ग्रथे स्त्री, पशु, तथा नपुंसकथा घेरायल शय्या तथा आसन न सेववां केमके केवळी कछे के तेवा शय्या-आसन सेवतां शांति भगवान धर्मभ्रष्ट धाप, माटे निर्णये स्त्री पंडकथी घेरायल व्या आसन न सेवां. ए पांचमी भावना. [१०६०] ए रीते महात्रत रुडी रीत कायाए करी स्पर्शित तथा यावत् आराधित धाय छे. ए यो महारत (१०६१) पांचमुं महावृतः - " सर्व परिग्रह तनुं हुं एटले के थोडं के घणुं, नानुं के Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन चोवीशर्मु, [३९३] परिग्रहं गिव्हज्जा, णवण्णेण परिग्गहं गिण्हविज्जा, अण्णंपि परिग्रहं गिव्हतं ण समणुजाज्जा जात्र वोसिरामि । (१०६२) J तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवतिः - ( १०६३) तत्यिमा पढमा भावणा:- सोतत्तेणं जीवे मणुष्णामणुष्णाई सदाई सुणेइ, मगुण्णामगुण्णेहिं सदेहिं णो सज्जेज्जा, णो रज्जेज्जा, णो गिझज्जा, णो मुज्झेज्जा, णो अज्झेोवजेज्जा, णो विणिग्घाय मावदेज्जा; केवली बूया–णिग्गंथे णं सगुण्णामणुष्णोहिं सदेहिं सज्जमाणे जाव विणिग्घाय मावज्जमाणेसंतिभेयासंतिविभंगासंति - केवलिपण्णत्ताओ धम्मा. ओ सेज्जा । [ १०६४ ] ण सकाण साउं सदा, सायविसय मागता ; रागदासाउ जे तत्थ, तं भिक्खू परिवज्जए १ [१०६५ ] मोई, सचिच, के अचित, हुं पोते लडं नहि, बीजाने लेवराखुं नहि अने लेतानें अनुमत करुं नहि. यावत् तेवा स्वभावने वोसरा है. [१०६२ तेनी भा पांच भावनाओ छे. [१०६३] त्या पेली भावना ए के कानथी जीवे भला भुंडा शब्द सांभळतां तेम मासक्त, रक्त, गृद्ध, मोहित, तल्लीन के विवेक भ्रष्ट न थवं केमके केवळी कहे छे के तेम थतां शांति भंग यवाथी शांति तथा केवळ भाषित धर्मथी भ्रष्ट यवाय छे. [१०६४] काश पडतो तो, अटकावाय ना कदि; किंतु त्यां राग द्वेषोने, परिहार करे यात. १ [१०६५ ] Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-मूळं तथा भापान्तर. - सायंओ जीवो मणुण्णामणुण्णाइं सहाई सुणति । पढमा । [१०६६] अहावररा दोच्चा भावणा:-चक्खूओ जीवो मणण्णामणुण्णांई रूवाई पासइ,. माण्णामणुण्णेहिं रूबेहिं जो सज्जेज्जा को रज्जेज्जा जाव गोविणिग्धाय मावज्जेजा ; केवली बूयामणुण्णामणुण्णेहिं स्वेहिं सज्जमा-णे रज्जमाणे जाव विणिन्याय मात्रजमाणे सतिभेया संतिसिंगा जाव भेसज्जा । [१०६७] ण सक्का रूव मदहुँ, चक्वुविसय मागय; . रामोसा उ जे तत्य, तं भिक्खू परिवज्जए. १ [१०६८] चक्खूओ जीयो मणुप्णामणुण्णाई ख्वाई पासति • दोच्चा भावणा । [१०६९], अहावरा तच्चा भावणाः-धाणतो जीवो मणुण्णामणुण्णाइं गंधा ... एम कानधी जीये भला भूटा शव. सांभळी गग द्वेष न करयो, ए पेली भावना [१०६६] पीजी भावना ए के चक्षुथी जीवे भला मूंडा रूप देखतां तेमां आसक्त के यावर विवेक भ्रष्ट न थ. देमके केवळी कहे छ के तेम थतां शांति भंग पवायी यावत् धर्म भ्रष्ट थवाय छे. [१०६७] . .. आंख रूप पहता तो, अटकायाय ना काद. किंतु त्यां राग द्वेपोन, परियार करे वति, १ [१०६८) एम चनुयी जीवे भला मुंडा रूप देखी राग द्वेष न करदो. ए बीसी भावना. [१०६९] । श्रीनी भावना ए के नाक्यी जीवे भली मुंदी गंध सूचनां तेमां आसक्त Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन चोवीसमुं... [३९५१ इं अग्घायइ; मणुष्णामणुणेहि गंधेहिं णो सज्जेज्जा, णो रज्जेज्जा, जाव जो विणिग्धाय मावज्जेज्जा; केवली बूया_मणुग्णाभणुण्णेहिं गंधेहि. सजमाणे रज्जमाणे जाव विणिग्याय मावज्जमाणे संतिभेदा सतिविभंगा जाव भंसेज्जा । (१०७०) णो सक्का गंध मग्घाउं, णासाविसय मागयं; रागदासो उ जे तत्थ, 'तं भिक्खू परिवज्जए. १ (१०७१) घाणओ जीवो मणुण्णामणुण्णाई गंधाइ अग्धायति० तच्चा भा-- वणा । (२०७२) ...अहावरा चउत्था भावणाः-जिब्भाओ जीवो मणुणामणुगाई रसाइं अस्सादेति, मगुग्गामणुण्णेहि रसेहिं णो रज्जेज्जा, जाव णो विणिग्वाय मात्रज्जेजा; केवली बूया-णिग्गंधेणं मणुष्णामणुष्णेहिं. रसेहि सज्जमाणे जाव विणिग्याय"मावजमाणे संतिभेदा जाव भेसेज्जा ।। (१०७३) के यावद् विवेक भ्रष्ट न. थर्बु, केमके केवळी कहे छ के सेम धतां शांति भंग थवाथी यावत् धर्म भ्रष्ट थनाय छे. [१०७०] नाले गंध पढता तो अटकावाय ना कदि । किंतु त्यां राग घेघोने, परिहार करे यति. १ [१०७१] । - एम नाकयी जीवे भला डा गंध सूधी रागदेष न करदी ए बीजी भावना २०७२] चोथी भावना के जीमधी जीये भला हा रस चालनां तेना भावत के विवकभ्रष्ट न घई, केय के केळी दोहे के तग पता लतिभा कापी धर्मद धवाय छे.[१०७ .. .7 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३९६ ] आचारांग- मूळ तथा भाषान्तर णो सक्क रस मणासातुं, जीहाविसय मागयं; रागदोसा उ जे तत्य, ते भिक्खू परिवज्जए १ (१०७४) जीहाओ जीवो मणुण्णामजुण्णाइं रसाई अस्सादेति चउत्था भावणा । ( १०७५) अहावरा पंचमा भावणा:- मणुण्यामणुण्णाई फासाई पडिसंवेदेति, मणुणामणुण्णेहिं फासेहिं णो सज्जेज्जा, णो रज्जेज्जा, णो गिज्झेज्जा, णो मुज्झेज्जा, जो अज्झोवज्जज्जा, णो विणिग्धाय मावन्जेज्जा; केवली - बूया - णिग्गंथे णं मणुण्णामगुण्णेहिं फासेहिं सज्जमाणे जाव विणिग्घाय मावज्जमाणे संतिभेदा संतिविभंगा, संति केवलिपण्णत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा । (१०७६) • , णो सका फार्स ण वेदेतुं, फार्स विसय मागये रागदोसाउ जे तत्य, ते भिक्खू परिवज्जए. जीभे रस चढतां तो, अटकावाय ना कदि किंतु त्यां रागद्वेष, परिहार करे यति १ १ (१०७७) 1 [१०७४] एम जीभयी जीवे भला भूंडा रस चाखी राम द्वेष न करवो. ए के.पी भावना. [१०७५ ] पांचमी भावना ए के भलाभूंडा स्पा अनुभवर्ता तेमां आसक्त के विवेक भ्रष्ट न थ. केमके केवळी कहे छे के तेम थतां शांतिभंग यवायी धर्मभ्रष्ट थवाय छे. [१०७६ ] स्पर्शेद्रिये स्पर्श आवे, अटकावाय ना कदि; किंतु त्यां रागद्वेषोने, परिहार करे यति. [१०७७] Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन घोबीसमं. [३९७] फासओ जीवो मणुण्णामणुष्णाई फासाईं पडिसंवेदेति • पंचमा भावणा । [ १०७८ ] एतावयाव महव्वते सम्मं कारण फासिए पालिए वीरिए किट्टिए अहिद्विते आणाए आराहिये यावि भवति । पंचमं भंते महय्वयं । [१०७९] इच्वेतेसिं महव्वतेस पणवीसाहिं य भावणार्हि संपणे अणगारे अहासुयं अहाकप्पं अहामग्गं सम्मं कारण फ. सिसा पालित्ता तीरिचा किट्टित्ता आणाए आराहियावि भवति । [ १०८० ] ( भावना समाप्ता ) 1 एम स्पर्शयी जीवे भलाभूंडा स्पर्श अनुभवी रागद्वेप न करवो ए पांचमी भावना, (१०७८) परीते महाव्रत रुडी रीते कायाथी स्पर्शित, पाळीत, पारपहचाडेल, कीचिंत, अवस्थित, अने आज्ञाथी आराधित पण थाय. ए पांचमुं महात्रत. [१०७९] ए महात्रतोनी पची भावना वढे संपन्न अणगार सूत्र, कल्प, तथा मा ने यथार्थपणे रुडी रीते कायाथी स्पर्शी, पाळी, पापहोंचाडी, कीर्त्तित करी आज्ञानो आराधक पण थाय छे. [१०८०] Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारांग-मूळ क्या भाषान्तर जो सक्कं रस मणासातुं, जीहाविसय मागय; रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिस्व परिवज्जए. १ (१०४४) जीहाओ जीवो मणुण्णामणुण्णाइं रसाइं अस्सादेति. चउत्था भावणा । (१०७५) अहावरा पंचमा भावणाः-मणुण्मामणुण्गाई फासाई पडिसंवेदेति, मणुण्णामणुण्णेहिं फासेहिं णो सज्जेज्जा, णो रज्जेज्जा, गो गिज्झेग्जा, जो मुज्ज्जा , जो अन्झोवज्जज्जा, णो विणिग्याय मावन्जेज्जा; केवली. व्या-णिग्गंथे ण मणुण्यामगुण्णेहि फासेहिं सज्जमाणे जाब विणग्याय मावज्जमाणे संतिभेदा संतिविभंगा, संतिकेवलिपण्णताओ धम्माओ भंसेज्जा । (१०७६) णो सका फासं. ण वेदेतं, फासं विसय मागयं रागदोसाउ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए. १ (१०७७) जीभे रस चढतां सो, अटकावाय ना कदि। किंतु त्या रागद्वेष, परिहार करे पति १ [१०७४] एम जीभयी जीवे भला मुंडा रस चाखी राम द्वेष न करवो. ए के.पी भावना. [१०७२] पांचमी भावना ए के भलामुंडा स्पश अनुभवर्ता तेमां आसक्त के विवेक भ्रष्ट न यq. केमके केवळी कहे छे के तेम पता शांतिभंग क्वायी धर्मभ्रष्ट थवाय छे. [१०७६] म्पशेंद्रिये स्पर्श आवे, अटकावाय ना कदि; किंतु त्यो रागदेषोने, परिहार करे यति. [१०७७] Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - -- अध्ययन पंचीशम. तुदति बोयाहिं अभिहवं णरा सरोहि संगामगयं व कुंजरं . २ (१०८२) तहप्पगारेहिं जणहिं हीलिए, , ससईफासा फरुसा उदीरिया तितिक्रखए णाणि अदुट्ठचेतसा, गिरिव्व वातेणं ण संपवेवए. ३ (१०८३) (रूप्यदृष्टाताधिकार) उवेहमाणे कुसलेहि संवसे, अकंत दुक्खा तस थावरा दुही अल्सए संब्बसहे महामुणी। 'तहाहि से सुरसमणे समाहिए ४ (१०८४) १ अभिद्रवंति लेप्टुपहारादिभिः २ गीताथैः सह ३ अक्रांतदुः खा अनभिप्रेतदुःखाः ४ समाख्यातः २ [१०८२] तेने नरों वाणी तथा महारे • संग्रागेना होथीपरे ज मारे. तेवा जनो 'जो अपकीर्ति घोले, कठोर शब्दादिकथी उखोले ज्ञानी अदुष्टाशयंथी सहे ते, 'ध्रुने नहि पर्वत जेम वाते. मध्यस्थमा रहि विज्ञसाये हणे न दुःखी बस थायरा जे, दुःखोथी पीता. गणि, ते महामुनि क्षमानिधि उत्तम साधु माख्यो. [१०८३] हप्याधिकार ४[१०८४] Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३९८] (अनित्यत्वाधिकारः) अणिन्च मात्रास मुत्रेति जंतुणो, पलोयए' सुच्च' मिदं अणुत्तरं ; (पर्वताधिकारः) i I आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर चतुर्थी चूला : विमुक्ति नामकं पंचविंश मध्ययनम् .. i : • विऊसिरे विन्नु" अगार बंधणं ४ अभीरु आरंभपरिग्गर्ह चएं तहोगहं भिक्खु मणंत संजयं अणेलिसं चित्र चरंत भेसणं अनंतेषु एकेंद्रियादिपुसंयतं ७ विज्ञ् १ प्रलोकयेत् २ श्रुत्वा ३ प्रवचनं ४ व्युत्सृजेत् ५ विज्ञ: ६ १ अनित्यत्वा • 14 अध्ययन पशj. विमुक्ति 1 (उपजाति छंद) अनित्य आवास' फरेज जंतुओं सिद्धांत ए सांभाळने विचारो; अगारनुं बंधन छोडी विज्ञा, परिग्रहारंभ (सदा ) निवारो. खरा अंन जीवदयाळु भिक्षुओ उत्कृष्ट ने विन फेरे नपाशी; पर्वताधिकार १ अनित्य एकेंद्रियादि गतिओमां. २ घर. (family) ; (१०८१) ... १ [१०८१] Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . : अध्ययन पचीशमः ____ [३९९] तुदति बायाहि अभिद्दवं णरा 'सरेहि संगामगय व कुजेर - २ (१०८२) तहप्पगारेहिं जणहिं हीलिए, मसइफासा फरुसा' उदीरिया तितिखए णाणि अदुट्टचेतसा, गिरिव्य वातेण ण संपवेवए. ३ (१०८३) (रूप्यदृष्टाताधिकार) उवेहमाणे कुसलेहि संवसे, अकंत दुक्खा तस थावरा दुही अलूसए सव्वसहे महामुणी। तहाहि से सुरसमणे समाहिए४ ४ (१०८४) १ अभिद्रवंति लेष्टुप्रहारादिभिः २ गीतार्थः सह ३ अक्रांतदुः खा अनभिप्रेतदुःखाः ४ समाख्यातः २ [१०८२] तने नरो वाणी तथा महारे संग्रामना हाथीपरे ज मारे. तेवा जनो 'जो अपकीर्ति बोले, कठोर शब्दादिकथी उखोले ज्ञानी गदुष्टाशयथी सहे ते, धुने नहि पर्वत जेम वाते. मध्यस्थमा रहि विज्ञसाय हणे नं दुःखी बस थावरा जे, . “दुःखोधी वीता गणि, ते महामुनि क्षमानिधि उत्तम साधु भाख्यो ३ [१०८३] रुप्याधिकार ... ४ [१०८४] Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४००] - आवारांग-मूळ तथा भाषान्तर. विद। णते धम्मपयं अणुत्तरं विणीयतहण्हस्स मुणिस्स ज्झायओ समाहियस्स ग्गिसिहा व तेयसा तबो य पण्णा य जसो य वति ५ (१०८५ दिसोदिसि गंतजिणे ण ताइणा महब्बया खेमपदा पवेदिता महागुरू णिस्सयरा उदीरिता तमं व तेऊ तिदिसं पगासया ६ (१०८६) सितेहिं भिक्खू असितो परिव्वए, असज्ज मित्थीसु चएज्ज पूअणं १ विद्वान्.२ नतः ३ निःस्वकरा:-कर्मापनयनकराः विद्वान ने धर्मपदानुचारी वृष्णा तनी निर्मळ ध्यानधारी समाधियाळा मुनिना तपादि अमिशिखा जेम पधे प्रकाशी. ५ [१०९६] प्राता अनंता जिनदेव मांखे महानतो क्षेम करे पधाने महागुरु कर्म हरू प्रकाशे, यथा वधे२ तेजयी आध्यः नाशे. ६ [१०८६] पद्धो विषे भिक्षु अबद चाले स्त्रीमा असंगी रहि मान वाले ? तप, प्रहा, मने यन. २ वधी दिशाओमां. ३ अंधारूं. ४ मावासमा बंधाय. - - - Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन पचीशमुं. [४०१] अणिस्सिओं लोग मिणं तहा परं। ण मज्जती कामगुणेहिं पंडिएं ७ (१०८७) तिहा विमुक्कस्स परिणचारिणी धितीमतो दुक्खखमरस भिक्खुणो विसुज्झए जं सि मलं पुरेकडं समीरियं रुप्पमलं, व जोइणा ८ (१०८८) (भुजगत्वाधिकार) से हु प्परिण्णासमयंमि वट्टइ णिराससे उवरयमहुणे चरे; भुजंगमे जुण्णतयं जहा जहे विमुच्चती से दुहसेज्ज माहणे. ९ (१०८९) १ ज्योतिषा-अग्निना. निश्रा निवारी इंह अन्य लोकनी, न स्वीकरे? कामगुणो (ज) ज्ञानी. ७ [१०८७] धरी परिज्ञार त्रिविध चिमुक्त दुःखो सहे छे यति धैर्ययुक्त तेना टळे कर्म मळो करेल अग्निथी रूपात' जेम मेल. ८ [१०८८] ते तो परिज्ञाक्रमयांज चाले ' आशंस ने मथुन दूर टाले भुजंग मेले जिम जीर्ण कांचली तथा मुनि दूर करे दुःस्वावळी ९ [१०८९] भुजगाधि १ कबुल करे. २ शुद्ध समज. ३ आशंसा. Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०२ ] (समुद्राधिकारः) आचारांग - मूळ तथा भापान्तर. ज माहु ओहं सलिलं अपारगं महासमुदं वं सुयाहिं दुत्तरं अहेवणं परिजाणाहि पंडिए से हू मुणी अंतकडे तिचइ. १० समुद्राधिकार जहाहि बद्धं इह मागवेहि, जहाय तेसिं तु विमक्ख आहिओ, अहातहाबंधविमोक्ख जे विऊ. से हु सुगी अंतकडे ति वुच्चइ ११ इममि लोए परते य दोवि पण विज्जइ बंधणं जस्स किंचिवि १ अपारसलिलं अपारपानीयमा योगे दुस्तार महासागर र जेम लगे तेवोज संसार विचारी एह खरे सु. ने अंत कांज तेह. यथा इहां मानव व थाय, यथ, वळी बंध की मुकाय; खरे खरे बंध मोक्ष ए. जे ओलखे अंत करेन ते. आलोक मांन परलोक मा जेने नहि बंधन होय कांइ १ वणा पाणीना लीये २ महासागर. [2030] [? ०९१ ] १० [१८९०] ११ [१०९१] Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन पचीसमुं. [४०३] से हुणिरालंबणे अप्पतिहे कलंकली भावपहं' विमुच्चइ. १२ त्ति बेमि । [१०९२ इत्याचारसूत्रं नाम प्रथमांगं समाप्तं. [ग्रंथागू. २५००] १ संसापर्यटनात्. निराश ने अप्रतिबद्ध जेह संसार भारी अटके न तेह. १२ [१०९२] (आचारांग सूत्रहुँ यापान्तर समाप्त.) Page #420 --------------------------------------------------------------------------  Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल पाठस्य शुद्धि पत्रम् , TOM [प्रथम श्रुत स्कंध] कलम पंक्ति अशुद्धं शंद्ध । अप्पेगे उरु ५ cc अप्पगे ऊरू को वीरे हिं लञ्जमाणा कयबर 0 0 वीरेहि लज्जमाणा कयवर 0 एग मेत्ति 0 0 10 । मत्ति लाए सपेहाए जाणि-तु खूज्जतं परिण्णाय कराई अ मोहतरा संपेहाए जाणित्तु खुज्जतं परिण्णाय, कूराइं अणोहतरा तीरं परियडीत जाणित्तु थो " १०१ परियदट्टति जाणि-तु १०४ १२० । १ थोधं Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरिए. घिणयपणे १२६ १२९ | आरिए आरियपणे विणयपणे बहुंपि वहुंपी लधुं विपन्सी १३२ १४३ १४४ विपस्सी १४३ । . cccा मुणी मण न जस्स, जरस १६१ त १९२ लधुं लढुं १९४ १९४३ ल on ल ल 7 १९७ १९८ २०८ जमिणं खुदिएइिं छिज्जइ उवरयसत्यस्त . २१२ जमिण खुदिएहिं छिज्जा, उबरयसत्थरस पलियंतकर स २०८ वीरा माणंच, मरणंच सत्यस्ल अरहंता भगवंतो सोरहिए आइत्तु रहियापास अग्घाति वीर २१८ माणेच. 'मरण चं | सत्यस्त २२१ । भगवंतो २२२ २.३, सोवाहिए १ आइ-तु २३० १ वहिया अग्वाति २४३ । १ । विन्नु - - - Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २४१ |णिरूढाउयं विफंदमाणी णिरुद्धाउयं विप्फंदमाणे दारुणं २५९ २६० पलिछिंदिय सफलतं संघडदाक्षिणो विज्जति मोहण २६२ २६३ २६६ २ ૨૮૨ २९० २९१ - २ ३०३ , २ ० पलिछिदिय सफलत | संघडंदसिणो विज्जति माहेणं परिरगाहावंति अरिएहिं | तारितए वियाहित तनीवेसणे पलिबाहिर पडिझमाणे कायलं किति आरंभोपयार वेयव्वति ३०६ । १ . . ० ०. परिग्गहावंति आरिएहिं तारिसए । वियाहिते उन्नीवेसणे पलिबाहिरे पडिक्कममाणे कायसंफास किद्वति आरंभोवरया वेयव्यंति . | एत्पथ विणे-तुं किन्हे एत्थ विणेतं णकिन्हे ३३१ उवमा ३६१ उयमा उचाए लाए ३४० ३४२ उन्यावए लोए Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | अणुपुत्रेणं अणुपुवेण . .. ३४८ मुणी 9 अग्घायं असंभवेता . फरुसं ३७७ ३८१ ३८५ २ उवेहइ णममाणेहि लाघावियं पडिगहं पायपुंछणं वियत्तुणवि ३९४ अग्धाय असंभवेत्ता | फरूस | उवहइ णममाणेहि लाधवियं पहिल्गहं पापपुंछणं वियत्तणवि णेण इसे | सव्वंतो दंडमी रूक्खमलसि सुताई समारम्भ ३९५ ___ गेव ४०२ सव्वतो दंडेभी रूक्खमूलसिं لم भूताई م : ४०८ भिक्खू समारम भिक्खु परिग्गहा. » ل ४१५ परिप्पाहा० खेय खयन्ने ४१८ سه. م. ب मायाणे कालगु. ४१९ ? भिक्खु उजालतए ४२४१ } तस्तण मायण्णे कालेणु० भिक्खं उजालेत्तए तस्सणं Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! तस्स . . م ت २ णा तरस वत्थ लाधवियं अमि० वत्या ي س re س इत्तरिय o س ४ लाघवियं अभि. इत्तिरियं । दलइस्सामिः जरसणं -अधा. भेरव दलइस्समि "जरसण अघा. भेख و م m 0 0 cc and و م बक्कमे डत्तमे विहे चिट्ट ६ م वक्रमे उत्तमे विहरेचिट्ट बहुतरेसु एगतिया و 0 बहुतरसु ४५९ । ४९१ , २ एगति या 0 0 दुक्रा दुक्खं ५०९ ५२१ चाएति सद्दरूवेसु रियतिते भिक्खुणि 0 ० ० जं चएंति संदरुवेसु ५२२ रियतित्ति ५२६ भिक्खूणि ५२७ ५२८ गाहेजा ५३६ जब. ५३८ पविसित्तु कमो ५४२ मोग ५५६ । १ । पविसिकामे " ccc गाहेज्जा अव० | पविसितुकामे भोग. परिसिउकामे Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हीरमाणं णिक्न ५६५, ४ हरिमाणं णिक्ख पुण पुवामेव पित्तेणवा सक्करं वग्धं केवली । दलएज्जा पुवाव. ववण्णे पुवामेव पितेणवा सकर वग्धं . केवळी दलएज्ज पव्वावा. वज्ण्णे परिमा० अग्गापडर्सि णा असंण तहप्पगरेण भिक्खु सज्ज यित्तमंताए कोहिति चाउलप. पारभा० अगापिडसि पो असणं तहप्पगारण भिक्खू सेज्ज चित्तमंताए कोहिति चाउपल ५८३ ५८. एयं - एवं आह९ सरभिगधाणि | पिप्पल. बोय आह? सुरमिगंधाणि पिप्पलि.. - बीयं - - Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभंग , विभंग له ६१२ م. जाणेजा जाणेज्जा चोयं चोय م ६१७ و ६२७ बिवन्नं विवन्नं م ६२८ م व वा wr ه अट्टि अहि. ه ६३७ م चाउपलंयं | सजयामेव سه لم काटेए ६५१ م ه ه पडियए सुप्हाओ भवति पडिलोमे भिक्खूणि चाउपलंब संजयामव. कहिए पडियाए सुण्हाओ भवंति पडिलोभे भिक्खुणि भुज्जो दाहिणं णिग्योसं ६६६ मुज्जो ६७१ ६७३ दाहिण णिग्धोसं गंतु गंतुं पण पणरस विण. अप्पडं सते अहा जाणज्जा पुण पण्णस्स विष्ण. अप्पंड संते अहासं जाएज्जा ७०१ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ मि खुणि भिकाणि उद्द? उजयं ७३८ ७४५ ७४७ ७४९ उज्जयं ससिणि. विवाजे लया आगसाह भिक्खणी | वियाल चतारि सकिरिय आमंतमाणे ७६३ ७७१ ७७४ ससिणि. विकुन्जियं लयाओ आगसह भिक्खणि वियालं चत्तारि सकिरियं आमंतेमाणे घातियं. अंतलिवखे. एयप्पगाराहिं माणवा असणं भिक्वाणिया रूढा ७७२ ७७६ धातियं ७८० ७८३ अतीलक्खे - एयप्पगाराहि मा वा असण भिक्खुणि रूडा क्खूः भिक्खू भिक्खू० भिक्खु. ८२३ । १ वग्धा अप्पंड भोगी उ गह. वाचा अप्पंडं भोगा . - & १ । उवागाछि. उवागन्छिन् Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ससंताणं ع | संसताण पढिमा अण्णयरंसि . ه भिक्खु पडिमा अण्णयसि . भिक्खू थंडिलंसि م ९३६ ९३९ थंडिलंसि ९४२ سر م ढहेसु डाहेसु مه ९४४ ९४६ थोडलं बणांस م ९५१ सदाइं थंडिलं वर्णसि सद्दाई अण्णयराइं णिणिज्जमाणे अभिस० ९५६ ه س ३ س अण्णयरइं णिणिज्जमाण अभिस० सदेहि सद्देहि अभंगे ज अन्भगेज वा - - १००० अण्णयरेण | पमज्जज्ज वणमिग पुचीएं १००२ वद्धमाणे गोसीसरत. १० १६, ८ लेपाहि ११ मेरी १०१८ ३ मृत अण्णयरेणं पमजेज वणीमग पुबीए वद्धमाणे गोसिसरत. लेसाहि १०१६/ १० भेरी भत लोभ संजमेणं १०२२ २ संजमेण Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४२ १०४५ 9 १०४६ २ १०४८ 9 १०६२ ३ १०६८ २ O भवणा आ ए थूल जाती गिण्हज्जा राम भावणा आणाए धूलं जाई गिण्हेज्जा गग Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ट न्यासनं ६ 9. १० ३ १ ܗ ३७ ७७ ७९ ८२ 326 ३ ९५ ६ २ १०१ १०४ ११६ १२९ १४० १४२ १७८ १९३ 34 ४ २६७ २९६ ५ ५ २१६ १ २१८ २४० ટ न्यम शुद्धिपत्रम् (फुटनोट) (प्र० श्रु० ) अशुद्धं अभिद्यात् इत्युकत्वा शांतिर्मरणं जिनमते. अवग्रहा-दु बघ प्रतिकलान विद्वासो अनतिक्राम्य सयमस्य कुया पाकस्थाम तद लोभटकं कंदल्या दि आद्रक कायेत्सर्ग काप्राहिभिः चित्राक व्यतरा ० आहरवत् (द्वि० शु० ) शुद्धं आभद्यात्. इत्युक्त्वा शांतिमरणं अवग्रहाद् चा प्रतिकूलान विद्वांसो अनतिक्रम्य संयमस्य कुर्याः पाकस्थानं तदधः लोमटकं कंदल्यादि आईक कायोत्सर्ग काष्ठादिभिः चित्राकीर्ण व्यंतरा० आहारस्यैतत् Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषांतर- शुद्धि पत्र. श्रुत स्कंध पहेलो. - कलम | पंक्ति अशुद्ध शुद्ध कलम पंक्ति अशुद्ध । शुद्धं तार्थकर तीर्थकर तमने ३२४ | २ जिनप्रमाद जिनमवाद ३३६१ रहेता रहेतो श्लीपदेराग श्लीपदरोग ३ तेग्ने थरण | मर्ण 30 min" on | करवा घर ळा ४२२ वकवावे ५ तेवा ** *. ° 0 0 » orm 9 sxi vadoor तेवा m G ० .. . १०.००MMARCH - ० ० ०n an ar ... . . . .... U .. १८६ : २ करा ३४८ वत्तनारा वतनारा सगळा सघळा ३५८ २ निदाप निर्दोष आचारवा- आचारवा ३९५ ४ घ ४०१ नि त नित १/२ आसंयम असंयम ४१५ धारत धारता ३८२ केवाळी केवळी |हितपणामा रहितपणामां बकवाद ? पाग ४२८ | ४ हाये ? दंद्रियो इंद्रियो ४३२ । १२ कहूँ २५९ २ मा माटे ४३५ प्रतिपा प्रतिज्ञा सत्य निष्पजन निष्प्रयोजन आर्तव्यान आतेध्यान २८९/ २ वजन वचन . ४७२ भावना भावना मुमुक्षाओ मुमुक्षुओ सजवि सजीव शाक्ता शाक्या | ५०९ १ रागा रागों ६०२ | १ मायावा मायावा । सूत्राथमीं सूत्राधमां । १ कटलाएक केटलाएदा त्याग | होय सत्म ४४० गटावी घटावी or or o° • o oora ४७३ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिंघा ... राख्यो वेटेमागु سه سه له (७९२ م 1८०८ N होय वरनु पात्र पा .. . SEEFFERRENTERTER : SHRIKE (द्वि० श्रु०) 1? अन्यताथि- अन्यतीथि ७४१ ९ जंघा क | क ७५७ | आयाए आयोए राख्या ७५९ वटमागु वहोवू वहोर ३ घना घिरना ५५२ त्या त्यां अगला अर्गला |३ वकरी बकरी ४ हाथ २ व ५६७/ २ चडाववा चडाववा १ पाषणो पापाणो ५७४ | ३ | पूर्वे | पूर्वे संवधी संबंधी ५७६१ श्रमणं श्रमण वस्त्राधारी वस्त्रधारी भिः भिक्षार्थेज-८३३ जणाय जणायतो आयुप्मन् आयुष्मन् " राथरस चामड चामडा जातसर्यु- लोलुपी ८४७ | पत्र ८५१ उत्कष | उत्कर्ष चरवी फरवो करवो वावतो वावतो मांड | आंवा । २ वनपति | वनस्पति कटवा कटका वडि वाद वाद वावतम वावतमां जणाथ जणाय निजि निर्वीज तथा गुफाआमा गुफाओमा मकान स्थळामा स्थळोमां वितके पाणी पाणी गृहस्थो |तळाव तळाव ६७० तेवा सपूर्णता संपूर्णता । ७०८ प्रमाजा प्रमार्जी धात्रीओ धात्रीओर्थी ७१८३ र तो रस्तो शक रस्ताम रस्तामा १०२०/? संबंधि २ आपवी आवी (२०२४ ३न रोगे नायोगे ७२०४ कवण केवळ ७२३/३ यमी संयमी १०७१ २ देशो शो . . . . . .७.७.० ७.mu do to a wo or aur deus चरवी 2006 माडे ८८९ ww आवा ० वीड ० ० हाय होय . - M ६३५ - & nou ६६४ गृह थो १०१७ . . . शकु. ० ७१९ ? . त्रिविधे त्रिविधे Page #434 --------------------------------------------------------------------------  Page #435 -------------------------------------------------------------------------- _