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आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर.
तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेदिता । इमस्स चैव जीवियस्स. परिवंदणमाणणपूयणाएजातीमरणमायणाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव वणस्सतिसत्थं समारंभइ, अण्णेहिं वा वणस्सइसत्थं समारंभावेति, अण्णे वा वणस्सइसत्थं समारंभमाणे समणुजाणति; तं से अहियाए, तं से अबोहिए । (४२)
से त्तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए सोच्चा भगवओ, अणगाराणं वा अंतिए; इह मेगेसिं णायं भवति - एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए । इच्चत्थं गढ़िए लोए; जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सइकम्मसमारंभेणं वणस्सइसत्थं समारंभमाणे अन्ने अणेरूवे पाणे विहिंसति । (४३)
से बेमि, इमपि १ जाइधम्मयं, एयंपिं २ जाइधम्मय; इमंपि
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१ इदं ( मनुष्य शरीरं ) २ एतत् (वनस्पति शरीरं )
अहं भगवाने शुद्धरीते समजाव्युं छे के आ जींदगीनी कीर्त्ति, मान, तथा, खानपानने अर्थे, जन्म जरामरणथी छूटवामाटे, तथा दुःखो टाळवा माटे जीवो, जाते वनस्पतिनी हिंसा करे छे, वीजा पासे करावे छे, अने तेना करनारने रुडं माने छे. पण ते तेमने अहित कर्त्ता तथा अज्ञान वधारनार थवानुं. (४२)
एवं जाणीने केलाएक सत्पुरूषों भगवान् अथवा तेमना साधुओं पासेथी स्वरुप सांभळीने आदरवा लायक वस्तु आदरे छे. तेवा पुरुषो एवं समजें छे के वनस्पतिनी हिंसा ए खररेवर कर्म बंधनी हेतु छे, मोहनी हेतु छे, मरणनी हेतु छे, अन नरकनी हेतु छें. तेम छतां लोक, कीर्त्त्यादिकना अर्थे विचार शून्य वनेला छे, जे माटे आ वनस्पतिकायनो विविध शस्त्रोवडे समारंभ करता थका वीजा अनेक प्राणीओनी हिंसा करता रहे. छे. (४३)
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हुं (जेम सांभल्युं छे तेम) कहुंछु के वनस्पति सजीव छे केमके जेम आ आपणुं शरीर पेदा थती चीज छे तेम ए वनस्पति पण पेदा धती चीज छे; जेम