Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90000 000000000 जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्रीघासीलालप्रति - विरचितया आचारमणिमञ्जूषाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतं श्रीदर्शवैकालिकसूत्रम् [ प्रथमो भागः अध्ययन १-५ ] -: नियोजक : संस्कृत - प्राकृतज्ञ - जैनागमनिष्णात- प्रियव्याख्यानिपं. मुनिश्री कन्हैयालालजी महाराजः । : प्रकाशिका : अखिल - भारत - श्वेताम्बर - स्थानकवासि - जैनशास्त्रोद्धार समितिः राजकोट. 000000000000000001 द्वितीयं संस्करणम् - १००० मूल्यम् रु.१० Goooooooo Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રા પ્તિ સ્થા ન શે પ્રકા શ ક મગનલાલ છગનલાલ માનદ્ભત્રી શ્રી અ જા. શ્વે સ્થાનકવાસી જૈન શા Àા દ્વાર્ સ મિ તિ ગ્રીન લેાજ પાસે, રાજકોટ. * બીજી આવૃત્તિ વીર સવત વિક્રમ સ વત ઇસ્વી સન્ * . પ્રત ૧૦૦૦ ૨૪૮૩ ૨૦૧૩ ૧૯૫૭ • મુદ્રક : મુ દ્ર ણુ સ્થા ન : જયતિલાલ દેવચંદ મહેતા જ ય ભા ર્ તપ્રે સ, ગારે ડી ચાકુ વા શ ડે શાક મારકીટ પાસે, રાજકાય. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી વર્ધમાન શ્રમણ સંઘના આચાય શ્રી મહારાજશ્રીએ પૂજ્ય આત્મારામજી આત્મારામજી શ્રી દ શ વૈ કા લી ક સૂત્ર માટે * ઠે. ગ્રીન લેાજ પાસે ગરેડીયા કુવા રોડ રાજકેટ : સૌરાષ્ટ્ર. આ પે લ સ સ્મ તિ પ ત્ર ઉ ૫ રાં ત પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજનાં ખનાવેલાં ખીજા સૂત્રા માટે તેઓશ્રીનાં મત * તે મ જ અન્ય મહાત્માઓ, મહાસતીજીએ, અધ્યતન પદ્ધતિવાળા કાલેજના પ્રેફેસરા તે મ જ શાસ્ત્રજ્ઞ શ્રાવકોના અભિપ્રાયા શ્રી. અખિલ ભારત વે. સ્થા. જૈનશાસ્ત્રોÇાર સમિતિ. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અત્યાર સુધીમાં બહાર પડેલાં શાસ્ત્રો ه ه م م ة ૧ શ્રી ઉપાસક દશાંગ સુત્ર પહેલી આવૃતી ખલાસ ૨ , દશવૈકાલિક સુત્ર ભાગ-૧ પહેલી આવૃતી ખલાસ ,, વિપાક સુત્ર પહેલી આવૃતી ખલાસ , આચારાંગ સુત્ર ભાગ-૧ પહેલી આવૃતી ખલાસ ય છે અનંતકૃત પહેલી આવૃતી ખલાસ છે આવશ્યક પહેલી આવૃતી ખલાસ અનુત્તરપપાતિક ૩-૮-૦ , દશાશ્રુત સ્કન્ધ ૭-૦-૦ ૯ નિરયાવલિકા સુત્ર (ભાગ ૧થી ૫) ૭ -૦ ૧૦ , દશવૈકાલિક ભાગ-૨ બીજે ૭-૮-૦ ૧૧ , ઉપાસકદશાંગ બીજી આવૃતી ૮-૮-૦ , આચારાંગ ભાગ-૨ બીજે ૧૦-૦૦ ૧૩ , દશવૈકાલિક ભાગ-૧ બીજી આવૃતી ૧૦-૦-૦ (હાલમાં છપાય છે.) ૧ શ્રી આચારાગ ભાગ-૧ લે બીજી આવૃતી ? ૨ , વિપાક સુત્ર ૩ » અનંતકૃત એ આવશ્યક ૫ , ઉવવાઈ સુત્ર , આચારાંગ ભાગ-૩ , ક૫ સુત્ર છુટાં પાના છાપવા માટે તૈયાર છે ૧ ઉત્તરાધ્યાયન સુત્ર ૨ નન્દી સુત્ર ૩ જ્ઞાતા સુત્ર ૪ સમવાયાંગ સુત્ર ૫ પ્રશ્ન વ્યાકરણ સુત્ર ૬ અનુગદ્વાર સુત્ર ૭ રાયપસેલું સુત્ર ૮ સ્થાનાંગ સુત્ર ه م م નેટ-ઘાટ પરના શ્રીયુત શેઠ માણેકલાલ એ. મહેતા તરફથી એક સુત્રની પ્રસિદ્ધિ માટે રૂા. ૩૦૦૦ ત્રણ હજાર સમિતિને તા. ૧૦–૧–૧૭ ના દિને મળ્યા છે. તે માટે તેમના આભારી છીએ. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. कपायलिप्त कर्मवन्ध से बन्धे हुए संसारी प्राणियों के हितार्थ जगत हितैपी भगवान् श्री वर्धमान स्वामीने श्रुतचारित्ररूप दो प्रकार का धर्म कहा है । इन दोनों धर्म की आराधना करने वाला मोक्षगति को प्राप्त कर सकता है, इसलिये मुमुक्षु को दोनों धर्मों की आराधना अवश्य करनी चाहिये ! क्यों कि-" ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः" ज्ञान और क्रिया इन दोनों से मोक्ष होता है । यदि ज्ञान को ही विशेषता देकर क्रिया को गौण कर दिया जाय तो वीतरागकथित श्रुतचारित्र धर्म की आराधना अपूर्ण और अपंग मानी जायगी, और अपूर्ण कार्य से मोक्ष प्राप्ति होना सर्वथा असंभव है, एतदर्थ वीतरागमणीत सरल और सुबोध मार्ग में निश्चय और व्यवहार दोनों नयों को मानना ही आवश्यक है। कहा भी है " व्यवहारं विना केचिद् भ्रष्टाः केवलनिश्चयात् । निश्चयेन विना केचित् , केवलं व्यवहारतः ॥१॥ द्वाभ्यां दृग्भ्यां विना न स्यात् सम्यग् द्रव्यावलोकनम् । यथा तथा नयाभ्यां चे,-त्युक्तं स्यावादवादिभिः ॥२॥ स्याद्वादके स्वरूप को निरूपण करने वाले भगवानने निश्चय और व्यवहार, इन दोनों को यथास्थान आवश्यक माना है । जैसे दोनों नेत्रों के विना वस्तु का अवलोकन बरावर नहीं होता है वैसे ही दोनों नयों के विना धर्म का स्वरूप यथार्थ नहीं जाना जा सकता, और इसी कारण व्यवहार नय के विना केवल निश्चयवादी मोक्ष मार्ग से पतित हो जाते हैं और कितनेकव्यवहारवादी केवल व्यवहार को ही मानकर धर्म से च्युत हो जाते हैं। आत्मा का ध्येय यही है कि सर्व कर्मसे मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करना; परन्तु उसमें कर्मों से छुटकारा पानेके लिये व्यवहाररूप चारित्रक्रिया का आश्रय जरूर लेना पडता है, क्यों कि विना व्यवहार के कर्मक्षय की Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्यसिद्धि नहीं हो सकती ! जो ज्ञानमात्रही को प्रधान मानकर व्यवहार क्रिया को उठाते हैं वे अपने जन्म को निष्फल करते हैं । जैसे पानी में पड़ा हुआ पुरुष तैरने का ज्ञान रखता हुवा भी अगर हाथ पैर हिलाने रूप क्रिया न करे तो वह अवश्य इव ही जाता है, जिस प्रकार नाइट्रोजन और ओक्सीजन के मिश्रण विना विजली प्रगट नहीं होती उसी प्रकार ज्ञान के होते हुए भी क्रिया विना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, इसीलिए भगवानने इस दशवैकालिक सूत्र में मुनिको ज्ञानसहित आचार धर्म के पालन करनेका निरूपण किया है। जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराज साहवने दशवकालिक सूत्र की आचारमणिमञ्जूषा नाम की टीका तैयार करके सर्व साधारण एवं विद्वान् मुनियों के अध्ययन के लिये पूर्ण सरलता कर दी है, पूज्यश्री के द्वारा जैनागमों की लिखी हुई टीकाओं में श्री दशवैकालिक सूत्रका प्रथम स्थान है । इस के दश अध्ययन है (१) प्रथम अध्ययन में भगवानने धर्म का स्वरूप अहिंसा, संयम और तप बतलाया है । इसकी टीका में धर्म शब्द की व्युत्पत्ति और शब्दार्थ तथा अहिंसा, संयम और तप का विवेचन विशदरूपसे किया है। वायुकायसंयमके प्रसंग में, मुनि को सदोरकमुखवस्त्रिका मुखपर वांधना चाहिये इस वात को भगवती सूत्र आदि अनेक शास्त्रों से तथा ग्रन्थों से सममाण सिद्ध किया है । मुनि के लिए निरवद्य भिक्षा लेनेका विधान है । तथा भिक्षाके मधुकरी आदि छह भेदों का निरूपण किया है। (२) दुसरे अध्ययन में संयम मार्ग में विचरते हुए नवदीक्षित का मन यदि संयम मार्गसे बाहर निकल जाय तो उसको स्थिर करनेके लिये रथनेमि और राजीमती के संवाद का वर्णन है । एवं त्यागी अत्यागी कौन है वह भी समझाया है। (३) तीसरे अध्ययन में संयमी मुनि को वावन (५२) अनाचीौँका निवारण बतलाया गया है, क्यों कि वावन अनाचीर्ण संयम के घातक है। इन अनाचीणों का त्याग करने के लिये आज्ञा निर्देश है । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) चौथे अध्ययन में - 'जो बावन अनाचीर्णी का निवारण करता है वही छह काया का रक्षक हो सकता है' इसलिये छहकाय के स्वरूप का निरूपण तथा उनकी रक्षा का विवरण है । मुनि अयतना को त्यागे यतना को धारण करे । यतना मार्ग वही जान सकता है जिसे जीत्र अजीव का ज्ञान है । जो जीवादि का ज्ञाता है वह क्रम से मोक्ष को प्राप्त करता है । पिछली अवस्था में भी चारित्र ग्रहण करनेवाला मोक्ष का अधिकारी हो सकता है (५) पांचवें अध्ययन में छकाया का रक्षण निरवद्य भिक्षा ग्रहण से होता है, अतः भिक्षा की विधि कही गई है । (६) छठवें अध्ययनमें 'निरवद्य भिक्षा लेने से अठारह स्थानोंका शास्त्रानुसार आराधन करता है, उन अठारह स्थानों का वर्णन है । उनमें सत्य और व्यवहार भाषा बोलनी चाहिये । (७) सातवें अध्ययन में 'अठारहस्थानों का आराधन करने वाले मुनिको कौनसी भाषा वोलनी चाहिये' इसके लिये ४ भाषाओं का स्वरूप कहा गया है । उनमें सत्य और व्यवहार भाषा बोलना चाहिये । (८) आठवें अध्ययन में - 'निरवद्य भाषा वोलनेवाला पांच आचाररूप निधान को पाता है' अतः उस आचाररूप निधान का वर्णन है । (९) नववें अध्ययन में 'पांच आचार का पालन करने वाला ही विनयशील होता है' अतः विनय के स्वरूप का निरूपण किया है । (१०) दशवें अध्ययन में - 'पहले कहे हुए नत्रों अध्ययनों में कही हुई विधिका पालन करने वाला ही भिक्षु हो सकता है' इस लिए भिक्षु के स्वरूप का वर्णन किया है | निवेदक समीर मुनि. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (श्री दशवैकालिकसूत्रका सम्मतिपत्र.) ॥ श्रीवीरगौतमाय नमः॥ सम्मति-पत्रम्. मए पंडियमुणि-हेमचंदेण य पंडिय-मूलचन्दवासवारापत्ता पंडिय-रयण-मुणि-घासीलालेण विरइया सकय-हिंदी-भाषाहिं जुत्ता सिरि-दसवेयालिय-नाम सुत्तस्स आयारमणिमंजूसा वित्ती अवलोइया, इमा मणोहरा अस्थि, एत्थ सदाणं अइसयजुत्तो अत्थो चण्णिओ विउजणाणं पाययजणाण य. परमोवयारिया इमा वित्ती दीसइ ! आयारविसए वित्तीकत्तारेण अइसयपुव्वं उल्लेहो कडो, तहा अहिंसाए सख्वं जे जहा-तहा न जाणंति तेसिं इमाए वित्तीए परमलाहो भविस्सइ, कत्तुणा पत्तेयविसयाणं फुडस्वेण वण्णणं कडं, तहा मुणिणो अरहत्ता इमाए वित्तीए अवलोयणाओ अइसयजुत्ता सिज्झइ ! सक्कयछाया सुत्तपयाणं पयच्छेओ य सुबोहदायगो अस्थि, पत्तेयजिण्णासुणो इमा वित्ती दवव्या। अम्हाणं समाजे एरिसविज-मुणिरयणाणं सम्भावो समाजस्स अहोभग्गं अधि, किं ? उत्तविज्जमुणिरयणाणं कारणाओ जो अम्हाणं समाजो सुत्तप्पाओ, अम्हकेरं साहिचं च लुत्तप्पायं अत्थि तेसिं पुणोवि उदओ भविस्सइ जस्स कारणाओ भवियप्पा मोक्खस्स जोग्गो भवित्ता पुणो निव्वाणं पाविहिइ अओहं आयारमणि-मंजूसाए कत्तुणो पुणो पुणो धन्नवायं देमि-॥ वि. सं. १९९० फाल्गुन इइशुक्लत्रयोदशी मङ्गले उवज्झाय-जइण-मुणी,आयारामो (अलवर स्टेट) (पचनईओ) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રનું સમ્મતિ પત્ર. શ્રમણુ સઘના મહાન આચાય આગમ વારિધિ સર્વાંતન્ત્ર સ્વતંત્ર જૈનાચાય પૂજ્યશ્રી આત્મારામજી મહારાજે આપેલા સમ્મતિ પત્રના ગુજરાતી અનુવાદ. મેં તથા પંડિત મુનિ હેમચંદ્રજી એ પંડિત મૂલચંદ વ્યાસ (નાનૌર્ માર્વાત રાજ્ય) દ્વારા મળેલી પડિંત રત્ન શ્રી. ઘાસીલાલજી મુનિ વિરચિત સંસ્કૃત અને હિન્દી ભાષા સહિત શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રની આચાર મણિમાષા ટીકાનું અવલેાકન કર્યું. આ ટીકા સુંદર બની છે. તેમાં પ્રત્યેક શબ્દના અર્થ સારી રીતે વિશેષ ભાવ લઇને સમજાવવામાં આવેલ છે. તેથી વિદ્વાના અને સાધારણ બુદ્ધિવાળાએ માટે પરમ ઉપકાર કરવાવાળી છે. ટીકાકારે મુનિના આચાર વિષયને સારા ઉલ્લેખ કરેલ છે જે આધુનિક મતાવલખી અહિંસાના સ્વરૂપ ને નથી જાણુતા, યામાં પાપ સમજે છે તેમને માટે અહિંંસા શું વસ્તુ છે' તેનું સારી રીતે પ્રતિપાદન કરેલ છે વૃત્તિકારે સૂત્રના પ્રત્યેક વિષયને સારી રીતે સમજાવેલ છે. આ વૃત્તિના અવલેકનથી વૃત્તિકારની અતિશય ચેાગ્યતા સિદ્ધ થાય છે. આ વૃત્તિમાં એક બીજી વિશેષતા એ છે કે મૂલ સૂત્રની સંસ્કૃત છાયા હાવાથી સૂત્ર, સૂત્રનાં પદ અને પદચ્છેદ સુમેધ દાયક અનેલ છે. પ્રત્યેક જીજ્ઞાસુએ આ ટીકાનું અવલેાકન અવશ્ય કરવું જોઇએ. વધારે શું કહેવું . અમારી સમાજમાં આવા પ્રકારના વિદ્વાન મુનિ રત્નનું હાવું એ સમાજનું અહેાભાગ્ય છે આવા વિદ્વાન મુનિ રત્નાના કારણે સુપ્તપ્રાય સુતેલે સમાજ અને લુપ્તપ્રાય એટલે લેપ પામેલુ સાહિત્ય એ મનેને ફરીથી ઉચ થશે. જેનાથી ભાવિતાત્મા મેક્ષ ચેગ્ય મનશે અને નિર્વાણુ પદને પામશે. આ માટે અમે વૃત્તિકારને વાર વાર ધન્યવાદ આપીએ છીએ વિક્રમ સંવત ૧૯૯૦ ફાલ્ગુન શુકલ ઇ તેરસ મંગળવાર (અલવર સ્ટેટ) ઇવજઝાય જઈણ સુણી આયારામાં પંચનઇઆ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराक्रमवाद हरएकको अवश्य देखना चाहिये । कहांतक कहें इस टीकामें प्रत्येक विषय सम्यक् प्रकारसे बताये गये हैं । हमारी सुसप्राय (सोई हुईसी) समाजमें अगर आप जैसे योग्य विद्वान् फिर भी कोई होंगे तो ज्ञान चारित्र तथा श्रीसंघका शीघ्र उदय होगा, ऐसा मैं मानता हूँ __ आपका उपाध्याय जैनमुनि आत्माराम पंजाबी. .....000000 इसी प्रकार लाहोरमें विराजते हुए पण्डितवर्य विद्वान् मुनिश्री १००८ श्री भागचन्दजी महाराज तथा पं. मुनिश्री त्रिलोकचन्दजी महाराजके दिये हुए, श्री उपाशकदशाङ्ग सूत्रके प्रमाणपत्रका हिन्दी सारांश निम्न प्रकार है श्री श्री स्वामी घासीलालजी महाराज कृत श्री उपासकदशाङ्ग सूत्रकी संस्कृत टीका व भाषाका अवलोकन किया, यह टीका अतिरमणीय व मनोरक्षक है, इसे आपने बड़े परिश्रम व पुरुषार्थसे तैयार किया है सो आप धन्यवादके पात्र हैं । आप जैसे व्यक्तियोकी समाजमें पूर्ण आवश्यकता है । आपकी इस लेखनीसे समाजके विद्वान् साधुवर्ग पढकर पूर्ण लाभ उठायेंगे, टीकाके पढनेसे हमको अत्यानन्द हुवा, और मनमें ऐसे विचार उत्पन्न हुए कि हमारी समाजमें भी ऐसे २ सुयोग्य रत्न उत्पन्न होने लगे-यह एक हमारे लिये बड़े गौरवकी बात है । वि. सं. १९८९ मा. आश्विन कृष्णा १३ चार भौम लाहोर. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र की 'अनगार धर्माऽमृतवर्पिणी' टीका पर जैनदिवाकर साहित्यरत्न जैनागमरत्नाकर परमपूज्य श्रद्धेय जैनाचार्य श्री आत्मारामजी महाराजका सम्मतिपत्र लुधियाना, ता. ४-८-५१. मैंने आचार्यश्री घासीलालजी म. द्वारा निर्मित 'अनगार-धर्माऽमृत-वर्पिणी' टीका वाले श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्रका मुनि श्री रत्नचन्द्रजीसे आयोपान्त श्रवण किया। __ यह निःसन्देह कहना पड़ता है कि यह टीका आचार्यश्री घासीलालजी म. ने बड़े परिश्रम से लिखी है। इसमें प्रत्येक शब्दका प्रामाणिक अर्थ और कठिन स्थलों पर सार-पूर्ण विवेचन आदि कई एक विशेषतायें हैं । मूल स्थलोंको सरल बनानेमें काफी प्रयत्न किया गया है, इससे साधारण तथा असाधारण सभी संस्कृतज्ञ पाठकों को लाभ होगा ऐसा मेरा विचार है। मै स्वाध्यायप्रेमी सज्जनों से यह आशा करूँगा कि वे वृत्तिकारके परिश्रम को सफल बनाकर शास्त्रमें दीगई अनमोल शिक्षायों से अपने जीवनको शिक्षित करते हुए परमसाध्य मोक्षको प्राप्त करेंगे। श्रीमान्जी जयवीर ___आपकी सेवामें पोष्ट द्वारा पुस्तक भेज रहे हैं और इसपर आचार्यश्रीजी की जो सम्मति है वह इस पत्रके साथ भेज रहे हैं पहुचने पर समाचार देवें। श्री आचार्यश्री आत्मारामजी म. ठाने ६ मुख शान्तिसे विराजते हैं। पूज्य श्री घासीलालजी म. सा. ठाने ४ को हमारी ओरसे वन्दना अर्जकर मुखशाता पूछे। __ पूज्य श्री घासीलालजी म.जी का लिखा हुआ (विपाकसूत्र) महाराजश्रीजी देखना चाहते हैं इसलिये १ कॉपी आप भेजने की कृपा करें; फिर आपको वापिस भेज देखेंगे। आपके पास नहीं हो तो जहां से मिले वहांसे १ काँपी जरूर भिजवाने का कष्ट करें, उत्तर जल्द देनेकी कृपा करें । योग्य सेवा लिखते रहें। लुधियाना ता. ४-८-५१ निवेदक प्यारेलाल जैन Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमवारिधि-जैनधर्मदिवाकर - उपाध्याय - पण्डित-मुनि श्रीआत्मारामजी महाराज (पंजाब) का आचाराङ्गसूत्र की आचारचिन्तामणि टीका पर सम्मति-पत्र । मैंने पूज्य आचार्यवर्य श्रीघासीलालजी (महाराज)की बनाई हुई श्रीमद् आचाराङ्गसूत्र के प्रथम अध्ययन की आचारचिन्तामणि टीका सम्पूर्ण उपयोगपूर्वक सुनी। यह टीका-न्याय सिद्धान्त से युक्त, व्याकरण के नियम से निबद्ध है। तथा इसमें प्रसंग २ पर क्रम से अन्य सिद्धान्त का संग्रह भी उचित रूप से मालूम होता है। टीकाकारने अन्य सभी विषय सम्यक् प्रकार से स्पष्ट किये हैं, तथा प्रौढ विषयों का विशेषरूप से संस्कृत भाषा में स्पष्टतापूर्वक प्रतिपादन अधिक मनोरंजक है, एतदर्थ आचार्य महोदय धन्यवाद के पात्र हैं। मैं आशा करता हूँ कि-जिज्ञासु महोदय इसका भलीभाँति पठन द्वारा जैनागम-सिद्धान्तरूप अमृत पी-पी कर मन को हर्षित करेंगे, और इसके मनन से दक्ष जन चार अनुयोगों का स्वरूपज्ञान पावेंगे। तथा आचार्यवयं इसी प्रकार दूसरे भी जैनागमों के विशद विवेचन द्वारा श्वेताम्बर-स्थानकवासी समाज पर महान उपकार कर यशस्वी बनेंगे। वि. सं. २००२ जनमुनि-उपाध्याय आत्माराम मृगसर सृदि १ । लुधियाना (पंजाब) -:*:- शुभमस्तु ।। थीकानेरवाळा समाजभूषण शास्त्रज्ञ भेरुदानजी शेठिआनो अभिप्राय आप जो शास्त्रका कार्य कर रहे हैं यह बडा उपकारका कार्य है। इससे जैनजनता को काफी लाभ पहुँचेगा. (ता. २८-३-५६ ना पत्रमाथी) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ ॥ श्रीः ॥ जैनागमवारिधि - जैनधर्म दिवाकर - जैनाचार्य - पूज्य - श्री आत्मारामजी - महाराजनां पञ्चनद - ( पंजाब ) स्थानामनुत्तरोपपातिकसूत्राणामर्थबोधिनीनामकटीकायामिदम्सम्मतिपत्रम्. आचार्यवर्यैः श्री घासीलालमुनिभिः सङ्कलिता अनुचरोपपातिकमूत्राणामर्थवोधिनीनाम्नी संस्कृतवृत्तिरुपयोगपूर्वकं सकलाऽपि स्वशिष्यमुखेनाऽश्रावि मया, इयं हि वृत्तिर्मुनिवरस्य वैदुष्यं प्रकटयति । श्रीमद्भिर्मुनिभिः सूत्राणामर्थान् स्पष्टयितुं यः प्रयत्नो व्यधायि तदर्थमनेकशो धन्यवादानर्हन्ति ते । यथा चेयं वृत्तिः सरला सुबोधिनी च तथा सारवत्यपि । अस्याः स्वाध्यायेन निर्वाणपदममीप्सभिर्निर्माण पदमनुसरद्भिर्ज्ञान - दर्शन - चारित्रेषु प्रयतमानैर्मुनिभिः श्रावकैश्च ज्ञानदर्शन - चारित्राणि सम्यक सम्माप्याऽन्येऽप्यात्मानस्तत्र प्रवर्तयिष्यन्ते । आशा से श्रीमदाशुकविर्मुनिवरो गीर्वाणवाणीजुषां विदुषां मनस्तोपाय जैनागममूत्राणां साराववोधाय च अन्येषामपि जैनागमानामित्थं सरलाः सुस्पष्टाथ वृत्तीर्विधाय तांस्तान् सूत्रग्रन्थान् देवगिरा सुस्पष्टयिष्यति । अन्ते च "मुनिवरस्य परिश्रमं सफलयितुं सरलां सुबोधिनीं चेमां सूत्रवृत्तिं स्वाध्यायेन सनाथयिष्यन्त्यवश्यं सुयोग्या हंसनिभाः पाठकाः । इत्याशास्ते " --- विक्रमाब्द २००२ श्रावण कृष्णा प्रतिपदा लुधियाना. उपाध्याय आत्मारामो जैनमुनिः । ऐसेही : मध्यभारत सैलाना - निवासी श्रीमान् रतनलालजी डोसी श्रमणोपासक जैन लिखते हैं कि : श्रीमान की की हुई टीकावाला उपासकदशांग सेवक के दृष्टिगत हुवा, सेवक अभी उसका मनन कर रहा है यह ग्रन्थ सर्वांगसुन्दर एवम् उच्चकोटि का उपकारक है । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ निरयावलिकासूत्रका सम्मतिपत्र. आगमवारिधि - सर्वतन्त्र स्वतन्त्र - जैनाचार्य - पूज्यश्री आत्मारामजी महाराज की तरफ का आया हुवा सम्मतिपत्र लुधियाना. ता. ११ नवम्बर ४८ श्रीयुत गुलाबचन्दजी पानाचंदजी । सादर जयजिनेन्द्र ॥ पत्र आपका मिला ! निरयावलिका विषय पूज्यश्रीजीका स्वास्थ्य ठीक न होने से उनके शिष्य पं. श्री हेमचन्द्रजी महाराजने सम्मति पत्र लिख दिया है आपको भेज रहे हैं ! कृपया एक कोपी निश्यावलिका की और भेज दीजिये और कोई योग्य सेवा कार्य लिखते रहें ? ! भवदीय. गुजरमल - वलवंतराय जैन ॥ सम्मतिः ॥ (लेखक जैनमुनि पं. श्री हेमचन्द्रजी महाराज ) सुन्दरबोधिनीटीकया समलङ्कृतं हिन्दी - गुर्जर भाषानुवादसहितं च श्रीनिरयावलिकासूत्रं मेधाविनामल्पमेधसां चोपकारकं भविष्यतीति सुदृढं मेऽभिमतम्, संस्कृतटीकेयं सरला सुबोधा सुललिता चात एव अन्वर्थनाम्नी चाप्यस्ति । सुविशदत्वात् सुगमत्वात् प्रत्येकदुर्योधपदव्याख्यायुतत्वाच टीकैषा संस्कृतसाधारणज्ञानवतामप्युपयोगिनी भाविनीत्यभिप्रैमि । हिन्दी - गुर्जर भाषानुवादावपि एतद्भाषाविज्ञानां महीयसे लाभाय भवेतामिति सम्यक् संभावयामि । जैनाचार्य - जैन धर्म दिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजानां परि श्रमोऽयं प्रशंसनीयो धन्यवादाहश्च ते मुनिसत्तमाः । एवमेव श्रीसमीरमलजी - श्री कन्हैयालालजी मुनिवरेण्ययोर्नियोजनकार्यमपि श्लाध्यं, तावपि च मुनिवरौ धन्यवादाह स्तः । सुन्दर प्रस्तावना विषयानुक्रमादिना समलङ्कते सूत्ररत्नेऽस्मिन् यदि शब्दकोषोऽपि दत्तः स्यात्तर्हि वरतर स्यात् । यतोऽस्यावश्यकतां सवऽप्यवेपकविद्वांसोऽनुभवन्ति । पाठकाः सूत्रस्यास्याध्ययनाध्यापनेन लेखकनियोजक महोदयानां परिश्रमं सफलयिष्यन्तीत्याशास्महे । इति । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ श्री उपासकदशाङ्ग सूत्र परत्वे जैन समाजना अग्रगण्य जैनधर्मभूषण महान विद्वान संतोए तेमज विद्वान श्रावकोए सम्मतिओ समर्पी छे तेमना नामो नीचे प्रमाणे छे. (१) लुधियाना - सम्वत् १९८९, आश्विन पूर्णिमा का पत्र, श्रुतज्ञान के भंडार आगमरत्नाकर जैनधर्मदिवाकर श्री १००८ श्री उपाध्याय श्री आत्मारामजी महाराज, तथा न्यायव्याकरणवेत्ता श्री १००७ तच्छिष्य श्री मुनि हेमचन्दजी महाराज. (२) लाहौर - वि० सं० १९८९ आश्विन वदि १३ का पत्र, पण्डित रत्न श्री १००८ श्री भागचन्दजी महाराज तथा तच्छिष्य पण्डित रत्न श्री १००७ श्री त्रिलोकचंदजी महाराज. (३) खिचन से ता. ९ - ११ - ३६ का पत्र, क्रियापात्र स्थविर श्री १००८ श्री भारतरत्न श्री समरथमलजी महाराज. (४) वालाचोर - ता. १४-११-३६ का पत्र, परम प्रसिद्ध भारतरत्न श्री १००८ श्री शतावधानीजी श्री रतनचन्दजी महाराज. (५) बम्बई - ता. १६ - ११ - ३६ का पत्र, प्रसिद्ध कवीन्द्र श्री १००८ श्री कवि नानचन्द्रजी महाराज. (६) आगरा-ता. १८-११-३६, जगत् वल्लभ श्री १००८ श्री जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज, गुणवन्त गणीजी श्री १००७ श्री साहित्यप्रेमी श्री प्यारचन्दजी महाराज. (७) हैद्राबाद (दक्षिण) ता. २५-११- ३६ का पत्र, स्थिवरपदभूषित भाग्यवान पुरुष श्री ताराचन्दजी महाराज तथा प्रसिद्ध वक्ता श्री १००७ श्री सोभागमलजी महाराज. (८) जयपुर - ता. २६ - ११-३६ का पत्र, संप्रदाय के गौरवर्धक शांतस्वभावी श्री १००८ श्री पूज्य श्री खूबचन्दजी महाराज. (९) अम्बाला - ता. २९ - ११ - ३६ का पत्र, परम प्रतापी पंजाब केशरी श्री १००८ श्री पूज्य श्री रामजी महाराज. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ निरयावलिकासूत्रका सम्मतिपत्र. आगमवारिधि-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-जैनाचार्य-पूज्यश्री आत्मारामजी महाराजकी तरफ का आया हुवा सम्मतिपत्र लुधियाना. ता. ११ नवम्बर ४८ श्रीयुत गुलाबचन्दजी पानाचंदजी । सादर जयजिनेन्द्र ॥ पत्र आपका मिला ! निरयावलिका विषय पूज्यश्रीजीका स्वास्थ्य ठीक न होने से उनके शिष्य पं. श्री हेमचन्द्रजी महाराजने सम्मति पत्र लिख दिया है आपको भेज रहै हैं ! कृपया एक कोपी निरयावलिका की और भेज दीजिये और कोई योग्य सेवा कार्य लिखते रहें ? ! भवदीय. गुजरमल-बलवंतराय जैन ॥सम्मतिः॥ (लेखक जैनमुनि पं. श्री हेमचन्द्रजी महाराज) सुन्दरबोधिनीटीकया समलङ्कतं हिन्दी-गुर्जरभाषानुवादसहितं च श्रीनिरयावलिकासूत्रं मेधाविनामल्पमेधसां चोपकारकं भविष्यतीति सुदृढं मेऽभिमतम् , संस्कृतटीकेयं सरला सुवोधा सुललिता चात एव अन्वर्थनाम्नी चाप्यस्ति । सुविशदत्वात् सुगमत्वात् प्रत्येकदुर्बोधपदव्याख्यायुतत्वाच टीकपा संस्कृतसाधारणज्ञानवतामप्युपयोगिनी भाविनीत्यभिप्रेमि । हिन्दी-गुर्जरभाषानुवादावपि एतद्भाषाविज्ञानां महीयसे लाभाय भवेतामिति सम्यक संभावयामि । जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री घासीलालजी महाराजानां परि श्रमोऽयं प्रशंसनीयो धन्यवादाश्चि ते मुनिसत्तमाः। एवमेव श्रीसमीरमल्लजी-श्री कन्हैयालालजी मुनिवरेण्ययोनियोजनकार्यमपि श्लाध्यं, तावपि च मुनिवरौ धन्यवादा स्तः। सुन्दरप्रस्तावनाविषयानुक्रमादिना समलते सूत्ररत्नेऽस्मिन् यदि शब्दकोपोऽपि दत्तः स्यातहि वरतरं स्यात् । यतोऽस्यावश्यकता सवऽप्यवेषकविद्वांसोऽनुभवन्ति । पाठकाः सूत्रस्यास्याध्ययनाध्यापनेन लेखकनियोजकमहोदयानों परिश्रमं सफलयिष्यन्तीत्याशास्महे । इति । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उपासकदशाङ्ग सूत्र परत्वे जैन समाजना अग्रगण्य जैनधर्मभूषण महान विद्वान संतोए तेमज विद्वान श्रावकोए सम्मतिओ समपी छे तेमना नामो नीचे प्रमाणे छे. (१) लुधियाना- सम्बत् १९८९, आश्विन पूर्णिमा का पत्र, श्रुतज्ञान के भंडार आगमरत्नाकर जैनधर्मदिवाकर श्री १००८ श्री उपाध्याय श्री आत्मारामजी महाराज, तथा न्यायव्याकरणवेत्ता श्री १००७ तच्छिष्य श्री मुनि हेमचन्दजी महाराज. (२) लाहौर-वि० सं० १९८९ आश्विन वदि १३ का पत्र, पण्डित रत्न श्री १००८ श्री भागचन्दजी महाराज तथा तच्छिष्य पण्डित रत्न श्री १००७ श्री त्रिलोकचंदनी महाराज. (३) खिचन से ता. ९-११-३६ का पत्र, क्रियापात्र स्थविर श्री १००८ श्री भारतरत्न श्री समरथमलजी महाराज. (४) वालाचोर-ता. १४-११-३६ का पत्र, परम प्रसिद्ध भारतरत्न श्री १००८ श्री शतावधानीजी श्री रतनचन्दजी महाराज. (५) बम्बई-ता. १६-११-३६ का पत्र, प्रसिद्ध कवीन्द्र श्री १००८ श्री कवि नानचन्द्रजी महाराज. (६) आगरा-ता. १८-११-३६, जगत् वल्लभ श्री १००८ श्री जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज, गुणवन्त गणीजी श्री १००७ श्री साहित्यप्रेमी श्री प्यारचन्दजी महाराज. (७) हैद्राबाद (दक्षिण) ता. २५-११-३६ का पत्र, स्थिवरपदभूषित भाग्यवान पुरुष श्री ताराचन्दजी महाराज तथा प्रसिद्ध वक्ता श्री १००७ श्री सोभागमलजी महाराज. (८) जयपुर-ता. २६-११-३६ का पत्र, संप्रदाय के गौरवर्धक शांत स्वभावी श्री १००८ श्री पूज्य श्री खूबचन्दजी महाराज. (९) अम्बाला-ता. २९-११-३६ का पत्र, परम प्रतापी पंजाब केशरी श्री १००८ श्री पूज्य श्री रामजी महाराज. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3wp १४ (१०) सेलाना - ता. २९-११-३६ का पत्र, शास्त्रों के ज्ञाता श्रीमान् रतनलालजी डोसी. (११) खीचन - ता. ९ - ११ - ३६ का पत्र, पंडितरत्न न्यायतीर्थ सुश्रावक श्रीयुत् माधवलालजी. ******** ता. २५-११-३६ सादर जय जिनेन्द्र आपका भेजा हुवा उपासक दशांग सूत्र तथा पत्र मिला यहां विराजित प्रवर्तक वयोवृद्ध श्री १००८ श्री ताराचंदजी महाराज पण्डित श्री किशनलालजी महाराज आदि ठाणा १४ सुख शांती में विराजमान हैं आपके वहां विराजित जैनशास्त्राचार्य पूज्यपाद श्री १००८ श्री घासीलाल जी महाराज आदि ठाणा नव से हमारी वन्दना अर्ज कर सुख शांति पूछे आपने उपासकदशांग सूत्र के विषय में यहां विराजित मुनिवरों की सम्मती मंगाई उसके विषय में वक्ता श्री सोभागमलजी महाराज ने फरमाया है कि वर्तमान में स्थानकवासी समाज में अनेकानेक विद्वान मुनि महाराज मौजूद हैं मगर जैनशास्त्र की वृत्ति रचने का साहस जैसा घासीलालजी महाराज ने किया है वैसा अन्य ने किया हो ऐसा नजर नहीं आता दुसरा यह शास्त्र अत्यन्त उपयोगी तो यों है संस्कृत प्राकृत हिन्दी और गुजराती भाषा होने से चारों भाषा वाले एक ही पुस्तक से लाभ उठा सकते हैं जैन समाज में ऐसे विद्वानों का गौरव बढे यही शुभ कामना है आशा है कि स्थानकवासी संघ विद्वानों की कदर करना सीखेगा । योग्य लिखें शेष शुभ भवदीय जमनालाल रामलाल कीमती आगरा से: श्री जैनदिवाकर प्रसिद्भवक्ता जगद्ववल्लभ मुनि श्री चोथमलजी महाराज व पंडितरत्न सुव्याख्यानी गणीजी श्री प्यारचन्द जी महाराज ने इस पुस्तक को अतीव पसन्द की है । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान् न्यायतीर्थ पण्डित माधवलालजी खीचन से लिखते हैं किःउन पंडितरत्न महाभाग्यवंत पुरुषों के सामने उनकी अगाधतत्त्वगवेषणा के विषय में मैं नगण्य क्या सम्मति दे सकता हूं। परन्तु :-- मेरे दो मित्रों ने जिन्होंने इसको कुछ पढा है बहुत सराहना की है वास्तव में ऐसे उत्तम व सबके समझाने योग्य ग्रन्थों की बहुत आवश्यकता है और इस समाज का तो ऐसा ग्रन्थ ही गौरव बढा सकते हैं-ये दोनों ग्रन्थ वास्तव में अनुपम है ऐसे ग्रन्थरत्नों के सुप्रकाश से यह समाज अमावास्या के घोर अन्धकार में दीपावली का अनुभव करती हुई महावीर के अमूल्य वचनों का पान करती हुई अपनी उन्नति में अग्रसर होती रहेगी। ता. २९-११-३६ अम्बाला (पंजाब) पत्र आपका मिला श्री श्री १००८ पंजाब केशरी पूज्य श्री काशीरामजी महाराज की सेवा में पढ कर सुना दिया। आपकी भेजी हुई उपासकदशाङ्ग सूत्र तथा गृहिधर्मकल्पतरु की एक प्रति भी प्राप्त हुई। दोनों पुस्तकें अति उपयोगी तथा अत्यधिक परिश्रम से लिखी हुई हैं, ऐसे ग्रन्थरत्नों के प्रकाशित करवाये की बडी आवश्यकता है। इन पुस्तकों से जैन तथा अजैन सबका उपकार हो सकता है। आपका यह पुरुषार्थ सराहनीय है। आपका शशिभूषण शास्त्री अध्यापक जैन हाई स्कूल अम्बाला शहर. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VOTE M . इ १६ शान्त स्वभावी वैराग्य मूर्ति तत्व वारिधि, धैर्यवान श्री जैनाचार्य पूज्यवर श्री श्री १००८ श्री खूबचन्दजी महाराज साहेबने सूत्र श्री उपासक दशाङ्गजी को देखा । आपने फरमाया कि पण्डित मुनि घासीलालजी महाराज ने उपासक दशाङ्ग सूत्रकी टीका लिखने में बडा ही परिश्रम किया है । इस समय इस प्रकार प्रत्येक सूत्रोंकी संशोधक पूर्वक सरल टीका और शुद्ध हिन्दी अनुवाद होने से भगवान निग्रन्थों के प्रवचनों के अपूर्व रस का लाभ मिल शकता है. वालाचोर से भारतरत्न शतावधानी पंडित मुनि श्री १००८ श्री रतनचन्दजी महाराज फरमाते हैं कि : उत्तरोत्तर जोतां मूल सूत्रनी संस्कृतटीकाओ रचवामां टीकाकारे स्तुत्य प्रयास कर्यो छे, जे स्थानकवासी समाज माटे मगरुरी लेवा जेतुं छे, वली करांचीना श्री संघे सारा कागलमां अने सारा टाइपमा पुस्तक छपावी मगट क छे जे एक प्रकारनी साहित्य सेवा बजावी छे. * बम्बई शहर में विराजमान कवि मुनि श्री नानचन्दजी महाराजने फरमाया है कि पुस्तक सुन्दर है प्रयास अच्छा है 1 * खीचन से स्थविर क्रिया पात्र मुनि श्री रतनचन्दजी महाराज और पंडितरa मुनि सम्रथमलजी महाराज श्री फरमाते हैं कि - विद्वान महात्मा पुरुषोका प्रयत्न सराहनीय है क्या जैनागम श्रीमद् उपासक दशाङ्ग सूत्र की टीका, एवं उसकी सरल सुवोधनी शुद्ध हिन्दी भाषा बडी ही सुन्दरता लिखी है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ श्री वीतरागाय नमः ॥ श्री श्री श्री १००८ जैनधर्म दिवाकर जैनागमरत्नाकर श्रीमज्जैनाचार्य श्री पूज्य घासीलालजी महाराज चरणवन्दन स्वीकार हो । अपरञ्च समाचार यह है कि आपके भेजे हुए ९ शास्त्र मास्टर सोभालालजी के द्वारा प्राप्त हुए, एतदर्थ धन्यवाद ! आपश्रीजीने तो ऐसा कार्य किया है जो कि हजारों वर्षों से किसी भी स्थानकवासी जैनाचार्य ने नहीं किया । आपने स्थानकवासी जैन समाज के ऊपर जो उपकार किया है वह कदापि भुलाया नहीं जा सकता और नहीं भुलाया जा सकेगा । हम तीनों मुनि भगवान महावीर से अथवा शासनदेव से प्रार्थना करते हैं कि आपकी इस वज्रमयी लेखनी को उत्तरोत्तर शक्ति प्रदान करें ता कि आप जैन समाज के ऊपर और भी उपकार करते रहें और आप चिरञ्जीव हों । हम हैं आपके मुनि तीन मुनि सत्येन्द्रदेव - मुनि लखपतराय - मुनि पद्मसेन उदेपुर. इतवारी बाजार नागपुर ता. १९ - १२-५६ प्रखर विद्वान जैनाचार्य मुनिराज श्री घासीलालजी महाराजद्वारा जो आगमोद्धार हुआ और हो रहा है सचमुच महाराजश्री का यह स्तुत्य कार्य है । हमने प्रचारकजी के द्वारा नौ सूत्रों का सेट देखा और कई मार्मिक स्थलोंको पढा, पढ़ कर विद्वान मुनिराजश्री की शुद्ध श्रद्धा तथा लेखनीके प्रति हार्दिक प्रसन्नता फूट पडी । वास्तव में मुनिराज श्री जैन समाज पर ही नहीं इतर समाज पर भी महा उपकार कर रहे हैं | ज्ञान किसी एक समाज का नहीं होता वह सभी समाज की अनमोल निधि है जिसे कठिन परिश्रम से तैयार कर जनता के सम्मुख रक्खा जा रहा है जिसका एक एक सेट हर शहर गांव और घर घर में होना आवश्यक है । साहित्यरत्न मोहनमुनि सोहनमुनि जैन. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ શ્રમણ સંઘના પ્રચાર મંત્રી પંજાબ કેશરી મહારાજ શ્રી પ્રેમચંદજી મહારાજ જેઓશ્રી રાજકેટમાં પધારેલા હતા ત્યારે તેઓના તરફથી શાસ્ત્રોને માટે મળેલ અભિપ્રાય શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ તરફથી પૂજ્યપાદ શાસ્ત્ર વારિધિ પડિતરાજ સ્વામીશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ દ્વારા શાસ્ત્રોદ્ધારનું જે કાર્ય થઈ રહ્યું છે તે કાર્ય જેન સમાજ તેમાં ખાસ કરીને સ્થાનકવાસી જૈન સમાજને માટે મૂળભૂત મૌલિક સંસ્કૃતિની જડેને મજબુત કરવાવાળું છે. એટલા ખાતર આ કાર્ય અતિ પ્રશંસનીય છે માટે દરેક વ્યક્તિએ તેમાં યથાશકિત ભેગ દેવાની ખાસ આવશ્યકતા છે અને તેથી એ ભગીરથ કાર્ય જલદીથી જલ્દી સંપૂર્ણપણે પાર પાડી શકાય અને જનતા શ્રુતજ્ઞાનને લાભ મેળવી શકે દરીયાપુરી સંપ્રદાયના પૂજ્ય આચાર્ય શ્રી ઈશ્વરલાલજી મહારાજ સાહેબના સૂત્રો સંબંધે વિચારે નમામિ વીર ગિરી સાર ધીરે પૂજ્ય પાદ જ્ઞાન પ્રવરશ્રી ઘસીલાલજી મહારાજ તથા પડિતશ્રી કનૈયાલાલજી મહારાજ આદિ થાણુ છની સેવામા અમદાવાદ શાહપુર ઉપાશ્રયથી મુનિ દયાનંદજીના ૧૦૮ પ્રણિપાત આપ સર્વે થાણુઓ સુખ સમાધિમાં હશો નિરતર ધર્મધ્યાન ધર્મારાધનમા લીન હશે સૂત્ર પ્રકાશન કાર્ય ત્વરીત થાય એવી ભાવના છે દશવૈકાલિક તથા આચારાંગ એક એક ભાગ અહીં છે ટીકા ખૂબ સુંદર, સરળ અને પતિજનેને સુપ્રિય થઈ પડે તેવી છે. સાથે સાથે ટકા વીનાના મુળ અને અર્થ સાથે પ્રકાશન થાય તે શ્રાવકગણ તેને વિશેષ લાભ લઈ શકે અત્રે પૂજ્ય આચાર્ય ગુરૂદેવને આંખે મોતી ઉતરાવ્યું છે અને સારું છે એજ. આસો સુદ ૧૦, મંગળવાર તા ૨૫-૧૦-૫૫ પુનઃ પુનઃ શાતા ઈચ્છતે, દયા મુનિના પ્રણિપાત. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દરીયાપુરી સંપ્રદાયના પંડિત રત્ન ભાઈચંદજી મહારાજને અભિપ્રાય રાણપુર તા. ૧૯-૧૨-૧૯૫૫ પૂજ્યપાદ જ્ઞાનપ્રવર પંડિતરત્ન પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ આદિમુનિવરેની સેવામાં આપ સર્વ સુખ સમાધીમાં હશે. સૂત્ર પ્રકાશનનું કામ સુંદર થઈ રહ્યું છે તે જાણું અત્યંત આનંદ. આપના પ્રકાશીત થયેલાં કેટલાંક સૂત્રે જેયાં. સુ દર અને સરલ સિદ્ધાંતના ન્યાયને પુષ્ટિ કરતી ટીકા પડિતરતનેને સુપ્રિય થઈ પડે તેવી છે. સૂત્ર પ્રકાશનનું કામ ત્વરિત પૂર્ણ થાય અને ભાવિ આત્માઓને આત્મકલ્યાણ કરવામાં સાધનભૂત થાય એજ અભ્યર્થના. લી. પંડિતરત્ન બાળબ્રહ્મચારી પૂ. શ્રી ભાઈચંદ મહારાજની આજ્ઞાનુસાર શાન્તિમુનીના પાયવંદન સ્વીકારશે તા. ૧૧-૫-૫૬. વીરમગામ ગચ્છાધિપતિ પૂજ્ય મહારાજ શ્રી જ્ઞાનચંદ્રજી મહારાજના સંપ્રદાયના આત્માથી, ક્રિયાપાત્ર, પંડિતરત્ન, મુનિશ્રી સમરથમલજી મહારાજને અભિપ્રાય ખીચનથી આવેલ તા ૧૧-ર-પ૬ના પત્રથી ઉધિત પૂજ્ય આચાર્ય ઘાસીલાલજી મહારાજના હસ્તક જે સૂત્રોનું લખાણ સુંદર અને સરળ ભાષામાં થાય છે તે સાહિત્ય, પડિત મુનિશ્રી સમરથમલજી મહારાજ, સમય એ છે મળવાને કારણે સંપૂર્ણ જોઈ શક્યા નથી. છતાં જેટલું સાહિત્ય જોયું છે, તે બહુ જ સારૂ અને મનન સાથે લખાયેલું છે તે લખાણું શાસ્ત્ર આજ્ઞાને અનુરૂપ લાગે છે આ સાહિત્ય દરેક શ્રદ્ધાળુ જીને વાંચવા ગ્ય છે આમાં સ્થાનકવાસી સમાજની શ્રદ્ધા, પ્રપણું અને ફરસણાની દૃઢતા શાસ્ત્રનુકુળ છે. આચાર્ય શ્રી અપૂર્વ પરિશ્રમ લઈ સમાજ ઉપર મહાન ઉપકાર કરે છે લી. કીશનલાલ પૃથ્વીરાજ માલુ મુ. ખીચન Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ લીંબડી સંપ્રદાયના સદાનંદી મુનીશ્રી છોટાલાલજી મહારાજને અભિપ્રાય શ્રી વીતરાગદેવે-જ્ઞાનપ્રચારને તીર્થ કર નામ ગોત્ર બાંધવાનું નિમિત્ત કહેલ છે. જ્ઞાન પ્રચાર કરનાર, કરવામાં સહાય કરનાર, અને તેને અનુમોદન આપનાર જ્ઞાનાવણિય કર્મને ક્ષય કરી-કેવળ જ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરી પરમપદનાં અધિકારી બને છે. શાસ્ત્રજ્ઞ–પરમ શાન્ત, અને અપ્રમાદિ પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પિતે અવિશ્રાન્તપણે જ્ઞાનની ઉપાશને અને તેની પ્રભાવના અનેક વિકટ પ્રસંગમાં પણ કરી રહ્યા છે તે માટે તેઓશ્રી અનેકશ: ધન્યવાદના અધિકારી છે. વંદનિય છેતેમની જ્ઞાન પ્રભાવનાની ધગશ ઘણુ પ્રમાદિઓને અનુકરણીય છે જેમ પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પોતે જ્ઞાનપ્રચાર માટે અવિશ્રાન્ત પ્રયત્ન કરે છે તેમજશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના કાર્યવાહકે પણ એમાં સહાય કરીને જે પવિત્ર સેવા કરી રહેલ છે. તે પણ ખરેખર ધન્યવાદના પૂર્ણ અધિકારી છે એ સમિતિના કાર્યકરોને મારી એક સુચના છે કે – શાસ્ત્રોદ્ધારક પ્રવર પંડિત અપ્રમાદિ સત ઘાસીલાલજી મહારાજ જે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ કરી રહેલ છે તેમાં સહાય કરવા માટે પંડિત વિગેરેના માટે જે ખર્ચો થઈ રહેલ છે. તેને પહોંચી વળવા માટે સારું સરખું ફંડ જોઈએ એના માટે મારી એ સુચના છે કેઃ-શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના મુખ્ય કાર્યવાહકે –જે બની શકે તે પ્રમુખ પિતે અને બીજા બે ત્રણ જણ ગુજરાત, સૌરાષ્ટ્ર, અને કચ્છમાં પ્રવાસ કરી મેમ્બર બનાવે અને આર્થિક સહાય મેળવે કે અત્યારની પરિસ્થિતિ વિષમ છે. વ્યાપારીઓ, ધંધાદારીઓને પિતાના વ્યવહાર સાચવવા પણ મુશ્કેલ બન્યા છે. છતાં જે સંભવિત ગૃહસ્થ પ્રવાસે નીકળે તે જરૂરી કાર્ય સફળ કરે એવી મને શ્રદ્ધા છે. આર્થિક અનુકૂળતા થવાથી શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પણ વધુ સરલતાથી થઈ શકે. પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જ્યા સુધી આ તરફ વિચરે છે ત્યાં સુધીમાં એમની જ્ઞાન શકિતને જેટલે લાભ લેવાય તેટલે લઈ લે કદાચ સૌરાષ્ટ્રમાં વધુ વખત રહેવાથી તેમને હવે બહાર વિહરવાની ઈચ્છા થતી હોય તે શાન્તિભાઈ શેઠ જેવાએ વિનંતી કરી અમદાવાદ પધરાવવા. અને ત્યાં–અનુકુળતા મુજબ-બે ત્રણ વર્ષની સ્થિરતા કરાવીને તેમની પાસે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પૂર્ણ કરાવી લેવું જોઈએ. ઘેડા વખતમાં જામજોધપુરમાં શાસ્ત્રોદ્ધાર કમીટી મળવાની છે. તે વખતે ઉપરની સુચના વિચારાય તે ઠીક Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફરી શાસ્ત્રોદ્ધારક પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજને એમની આ સેવા અને પરમ કલ્યાણકારક પ્રવૃત્તિને માટે વારંવાર અભિનંદન છે. શાસનનાયક દેવ તેમના શરિરાદીને સશકત અને દીર્ધાયુ રાખી સમાજ ધર્મની વધુ ને વધુ સેવા કરી શકે. અસ્તુ. ચાતુર્માસ સ્થળ. લીંબડી | સાં. ૨૦૧૦ શ્રાવણ વદ ૧૩. ગુરૂ | સદાનંદી જૈનમુનિ છોટાલાલજી લિ શ્રી વર્ધમાન સંપ્રદાયના પૂજ્ય શ્રી પુનમચંદ્રજી મહારાજને અભિપ્રાય શાસ્ત્ર વિશારદ પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજશ્રીએ જેન આગ ઉપર જે સસ્કૃત ટીકા વગેરે રચેલ છે. તે માટે તેઓશ્રી ધન્યવાદને પાત્ર છે. તેમણે આગ ઉપરની સ્વતંત્ર ટીકા રચીને સ્થાનકવાસી જૈન સમાજનું ગૌરવ વધાર્યું છે આગમે ઉપરની તેમની સંસ્કૃત ટીકા ભાષા અને ભાવની દૃષ્ટિએ ઘણીજ સુંદર છે. સંસ્કૃત રચના માધુર્ય તેમજ અલકાર વગેરે ગુણોથી યુક્ત છે. વિદ્વાનોએ તેમજ જૈન સમાજના આચાર્યો, ઉપાધ્યાયે વગેરે એ શાસ્ત્રો ઉપર રચેલી આ સંસ્કૃત રચનાની કદર કરવી જોઈએ અને દરેક પ્રકારને સહકાર આપ જોઈએ. આવા મહાન કાર્યમાં પંડિતરત્ન પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જે પ્રયત્ન કરી રહ્યા છે તે અલોકિક છે. તેમનું આગમ ઉપરની સંસ્કૃત ટીકા વગેરે રચવાનું ભગીરથ કાર્ય શીધ્ર સફળ થાય એજ શુભેચ્છા સાથે અમદાવાદ તા. ૨૨-૪-૫૬ રવિવાર મુનિ પૂર્ણચંદ્રજી મહાવીર જયંતિ ખંભાત સંપ્રદાયના મહાસતી શારદાબાઈ સ્વામીને અભિપ્રાય લખતર તા ૨૫-૪-૫૬ શ્રીમાન શેઠ શાંતીલાલભાઈ મંગળદાસભાઈ પ્રમુખ સાહેબ અખિલ ભારત . સસ્થા જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ મુ અમદાવાદ અમે અત્રે દેવગુરૂની કૃપાએ સુખરૂપ છીએ વિ માં આપની સમિતિ દ્વારા પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસલાલજી મહારાજ સાહેબ જે સુનું કાર્ય કરે છે તે પૈકીનાં સુત્રોમાંથી ઉપાસક દશાગ સુત્ર, આચારંગ સુત્ર, અનુત્તરપપાતિક સુત્ર Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ દશવૈકાલિક સુત્ર વિગેરે સુત્રે જેમાં તે સુત્ર સંસ્કૃત હીન્દી અને ગુજરાતી ભાષાઓમાં હોવાને કારણે વિદ્વાન અને સામાન્ય જનેને ઘણું જ લાભદાયિક છે. તે વાંચન ઘણુ જ સુંદર અને મનોરંજન છે. આ કાર્યમાં પૂજ્ય આચાર્યશ્રી જે અઘાત પુરૂષાર્થે કાર્ય કરે છે તે માટે વારંવાર ધન્યવાદને પાત્ર છે. આ સુત્રેથી સમાજને ઘણું લાભનું કારણ છે - હંસ સમાન બુદ્ધીવાળા આત્માઓ સ્વપરના ભેદથી નિખાલસ ભાવનાઓ અવકન કરશે તે આ સાહિત્ય સ્થાનકવાસી સમાજ માટે અપૂર્વ અને ગૌરવ લેવા જેવું છે માટે દરેક ભવ્ય આત્માઓને સુચન કરૂ છુ કે આસુ પિતા પોતાના ઘરમાં વસાવાની સુંદર તકને ચુકશે નહિ કારણ આવા શુદ્ધ પવિત્ર અને સ્વપરંપરા ને પુષ્ટીરૂપ સુત્રે મળવા બહુ મુશ્કેલ છે. આ કાર્યને આપશ્રી ત્થા સમિતિના અન્ય કાર્યકરો જે શ્રમ લઈ રહ્યા છે તેમાં મહાન નિર્જરાનું કારણ જેવામા આવે છે તે બદલ ધન્યવાદ. એજ લી. શારદાબાઈ સ્વામી ખંભાત સંપ્રદાય. બરવાળા સંપ્રદાયના વિદુષી મહાસતીજી સેંઘીબાઈ સ્વામીને અભિપ્રાય ધ ધુકા તા. ર૭–૧–૫૬ શ્રીમાન શેઠ શાન્તીલાલ મ ગળદાસભાઈ પ્રમુખ અ. ભર . સ્થા. જૈનશાસ્ત્ર ઉદ્ધાર સમિતિ મુ. રાજકેટ અત્રે બીરાજતા ગુ ગુના ભંડાર મહાસતિજ વિદુષી મોંઘીબાઈ સ્વામી તથા હીરાબાઈ સ્વામી આદિઠાણું બન્ને સુખશાતામાં બીરાજે છે આપને સુચન છે કે અપ્રમત અવસ્થામાં રહી નિવૃત્તિ ભાવને મેળવી ધર્મધ્યાન કરશોજી એજ આશા છે વિશેષમાં અમને પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના રચેલાં સુત્રે ભાઈ પોપટ ધનજીભાઈ તરફથી ભેટ તરીકે મળેલા તે રાત્રે તમામ આઘઉપાન વાંચ્યાં મનન કર્યા અને વિચાર્યા છે તે સુત્ર સ્થાનકવાસી સમાજને અને વિતરાગ માર્ગની ખૂબજ ઉન્મત્ત બનાવનાર છે. તેમાં આપણે શ્રદ્ધા એટલી ન્યાય રુપથી ભરેલી છે તે આપણા સમાજ માટે ગૌરવ લેવા જેવું છે. હસ સમાન Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ આત્માઓ જ્ઞાન ઝરણાઓથી આત્મરુપ વાડીને વિકસીત કરશે. ધન્ય છે આપને અને સમિતિના કાર્યકરને જે સમાજ ઉત્થાન માટે કોઈની પણ પરવા કર્યા વગર જ્ઞાનનું દાન ભવ્ય આત્માઓને આપવા નિમિત્ત થઈ રહ્યા છે. આવા સમર્થ વિદ્વાન પાસેથી સંપૂર્ણ કાર્ય પુરૂં કરાવશે તેવી આશા છે. એજ લિ બરવાળા સંપ્રદાયના વિદુષી મહાસતીજી મોંઘીબાઈ સ્વામી ના ફરમાનથી લી એડીદાસ ગણેસભાઈ-ધ ધુકા સ્થાનકવાસી જૈન સંઘના પ્રમુખ અધતન પદ્ધતિને અપનાવનાર વડેદરા કેલેજના એક વિદ્વાન પ્રોફેસરને અભિપ્રાય. સ્થાનકવાસી સ પ્રદાયના મુનિશ્રી ઘસીલાલજી મહારાજ જેનશાસ્ત્રોના સંસ્કૃત ટીકાબદ્ધ, ગુજરાતીમાં અને હિન્દીમાં ભાષાંતર કરવાના ઘણા વિકટ કાર્યમાં વ્યાપ્ત થયેલા છે શાસ્ત્રો પૈકી જે શાસ્ત્રો પ્રસિદ્ધ થયાં છે તે હું જોઈ શક્યો છું, મુનિશ્રી પિતે સંસ્કૃત, અર્ધમાગધી હિંદી ભાષાઓના નિષ્ણાત છે, એ એમને ટુંકે પરિચય કરતાં સહજ જણાઈ આવે છે. શાસ્ત્રોનું સંપાદન કરવામાં તેમને પિતાના, શિષ્યવગને અને વિશેષમાં ત્રણ પંડિતેનો સહકાર મળે છે, તે જોઈ મને આનંદ થયે, સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયના અગ્રેસરેએ પંડિતેને સહકાર મેળવી આપી મુનિશ્રીના કાર્યને સરળ અને શિષ્ટ બનાવ્યું છે સ્થાનકવાસી સમાજમાં વિદ્વતા ઘણી ઓછી છે, તે દિગંબર, મૂર્તિપૂજક વેતાંબર વગેરે જૈનદર્શનના પ્રતિનિધિઓના ઘણા સમયથી પરિચયમાં આવતા હું વિરોધના ભય વગર, કહી શકું. પૂ મહારાજને આ પ્રયાસ સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયમાં પ્રથમ છે એવી મારી માન્યતા છે. સંસ્કૃત સ્પષ્ટીકરણ સારાં આપવામાં આવ્યાં છે ભાષા શુદ્ધ છે એમ હું ચક્કસ કહી શકું છું, ગુજરાતી ભાષાતરે પણ શુદ્ધ અને સરળ થયેલાં છે અને વિશ્વાસ છે કે મહારાજશ્રીના આ સ્તુત્ય પ્રયાસને જેનસમાજ ઉત્તેજન આપશે અને શાસ્ત્રોના ભાષાંતરેને વાચનાલયમાં અને કુટુંબોમાં વસાવી શકાય તે પ્રમાણે વ્યવસ્થા કરશે. પ્રતાપગંજ, વડોદરા કામદાર કેશવલાલ હિંમતરામ, તા. ૨૭-૨-૧૯૫૬ એમ એ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ સુબઈની એ કાલેજના પ્રોફેસરાના અભિપ્રાય, સુખઇ તા ૩૧-૩-૫૬ શ્રીમાન શેઠે શાંતીલાલ મંગળદાસ પ્રમુખ : શ્રી અખિલ ભારત સ્પે. સ્થા જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, રાજકોટ પૂજ્યાચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે તૈયાર કરેલા આચારાંગ, દશવૈકાલીક આવશ્યક, ઉપાસકર્દશાંગ વગેરે સૂત્ર અમે જોયા આ સૂત્રેા ઉપર સંસ્કૃતમાં ટીકા આપવામાં આવી છે અને સાથે સાથે હીંદી અને ગુજરાતી ભાષાંતર પણ આપવામાં આવ્યા છે. સ ંસ્કૃત ટીકા અને ગુજરાતી તથા હીંદી ભાષાંતરે શ્વેતાં આચાર્ય શ્રીના આ ત્રણે ભાષા પરના એકસરખા અસાધારણ પ્રભુત્વની સચાટ અને સુરેખ છાપ પડે છે. આ સૂત્ર ગ્રંથામાં પાને પાને પ્રગટ થતી આચાર્યશ્રીની અપ્રતિમ વિદ્વતા મુખ્ય કરી દે તેવી છે. ગુજરાતી તથા હીંદીમાં થયેલા ભાષાંતરમાં ભાષાની શુદ્ધિ અને સરળતા નોંધપાત્ર છે. એથી વિદ્વદૃજન અને સાધારણ માજીસ ઉભયને સતષ આપે એવી એમની લેખિનીની પ્રતીતિ થાય છે. ૩૨ સૂત્રામાંથી હજુ ૧૩ સૂત્રા પ્રગટ થયાં છે બીજા છ સૂત્રા લખાઈને તૈયાર થઈ ગયાં છે. આ બધાં જ સૂત્ર જ્યારે એમને હાથે તૈયાર થઈને પ્રગટ થશે ત્યારે જૈન સૂત્ર-સાહિત્યમાં અમૂલ્ય સંપત્તિરૂપ ગણાશે એમાં સંશય નથી . આચાર્ય શ્રી આ મહાન કાર્યોને જૈન સમાજના—વિશેષત : સ્થાનક્વાસી સમાજના સૌંપૂર્ણ સહકાર સાંપડી રહેશે એવી અમે આશા રાખીએ છીએ પ્રે, રમણલાલ ચીમનલાલ શાહ સેંટ ઝેવિયર્સ કૉલેજ, સુખ. પ્રે તારા રમણલાલ શાહ. સેાષ્ટ્રીયા કેલેજ, મુંબઈ, રાજકોટની ધર્મેન્દ્રસિહજી કાલેજના મેડ્રેસર સાહેબને અભિપ્રાય. જયમહાલ જાગનાથ પ્લેટ રાજકાટ, તા ૧૮-૪-૫૬ પૂજ્યાચાય ૫. મુનિ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ આજે જૈન સમાજ માટે એક એવા કાર્યમાં વ્યાપ્ત થયેલા છે કે જે સમાજ માટે બહુ ઉપયેાગી થઇ પડશે. મુનિશ્રીએ તૈયાર કરેલાં આચારાંગ, દશવૈકાલિક, શ્રી વિપાકશ્રુત વિ. મેં જેયા, Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ આ સૂત્રે જતાં પહેલી જ નજરે મહારાજશ્રીને સંસ્કૃત, અર્ધમાગધી, હિન્દી તથા ગુજરાતી ભાષાઓ ઉપરને અસાધારણ કાબુ જણાઈ આવે છે. એક પણ ભાષા મહારાજશ્રીથી અજાણી નથી. આપણે જાણીએ છીએ કે એ સૂત્રે ઉચ્ચ અને પ્રથમ કેટિના છે તેની વસ્તુ ગભીર, વ્યાપક અને જીવનને તલસ્પશી છે આટલા ગહન અને સર્વગ્રાહ્યા સૂરોનું ભાષાંતર ૫ ઘાસીલાલજી મહારાજ જેવા ઉચ્ચ કેટિના મુનિરાજને હાથે થાય છે તે આપણું અહોભાગ્ય છે ય ત્રવાદ અને ભૌતિકવાદના આ જમાનામાં જ્યારે ધર્મભાવના ઓસરતી જાય છે એવે વખતે આવા તત્ત્વજ્ઞાન આધ્યાત્મિકતાથી ભરેલાં સૂત્રનું સરળ ભાષામાં ભાષાંતર દરેક જીજ્ઞાસુ, મુમુક્ષુ અને સાધકને માર્ગદર્શક થઈ પડે તેમ છે. જેન અને જૈનેતર, વિદ્વાન અને સાધારણ માણસ, સાધુ અને શ્રાવક દરેકને સમજણ પડે તેવી સ્પષ્ટ, સરળ અને શુદ્ધ ભાષામાં સૂત્રો લખવામાં આવ્યા છે. મહારાજશ્રીને જ્યારે જોઈએ ત્યારે તેમના આ કાર્યમાં સંકળાયેલા જોઈએ છીએ એ ઉપરથી મુનિશ્રીના પરિશ્રમ અને ધગશની કલ્પના કરી શકાય તેમ છે. તેમનું જીવન સૂત્રમાં વણાઈ ગયું છે. | મુનિશ્રીના આ અસાધારણ કાર્યમાં પિતાના શિષ્યને તથા પંડિતેને સહકાર મળે છે. મને આશા છે કે જે દરેક મુમુક્ષુ આ પુસ્તકને પિતાના ઘરમાં વસાવશે અને પિતાના જીવનને સાચા સુખને માર્ગે વાળશે તે મહારાજશ્રીએ ઉઠાવેલે શ્રમ સ પૂર્ણપણે સફળ થશે પ્રો. રસિકલાલ કસ્તુરચદ ગાંધી એમ એ એલ. એલ. બી. ધર્મેન્દ્રસિંહજી કેલેજ રાજકોટ (સૌરાષ્ટ્ર) મુંબઈ અને ઘાટકોપરમાં મળેલી સભાએ ભિનાર કેન્ફરન્સ તથા સાધુ સંમેલનમાં મેકલાવેલ ઠરાવ. હાલ જે વખતે શ્રી તાબાર સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ માટે આગમ-સશેધન અને સ્વત ત્ર ટીકાવાળા શાસ્ત્રોદ્ધારની અતિ આવશ્યકતા છે અને જે મહાનુભાએ આ વાત દીર્ઘ દ્રષ્ટિથી પહેલી પિતાના મગજમાં લઈ તે પાર પાડવા મહેનત લઈ રહ્યા છે તેવા મુનિ મહારાજ પંડિતરત્ન શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કે જેઓને સાદડી અધિવેશનમાં સર્વાનુમતે સાહિત્ય મંત્રી નીમ્યા છે તેઓશ્રીની દેખરેખ નીચે અ ભા . સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ જે એક મેટી વગવાળી કમિટી છે તેની માતે કામ થઈ રહ્યું છે જેને પ્રધાનાચાર્યશ્રી તથા પ્રચાર મંત્રીશ્રી Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ તથા અનેક અનુભવી મહાનુભાવાએ પાતાની પસદગીની મહેાર છાપ આપી છે અને છેલ્લામાં છેલ્લા વડેદરા યુનિવર્સીટીના પ્રેફેસર કેશવલાલ કામદાર એમ એ એ પેાતાનું સવિસ્તર પ્રમાણપત્ર આપ્યુ છે તે શાસ્ત્રોદ્ધાર કમિટીના કામને આ સ મેલન તથા કોન્ફરન્સ હાર્દિક અભિનંદન આપે છે અને તેમના કામને જ્યાં જ્યાં અને જે જે જરૂર પડે—પડિતની અને નાણાંની-પેાતાની પાસેના કુંડમાંથી અને જાહેર જનતા પાસેથી મદદ મળે તેવી ઇચ્છા ધરાવે છે. આ શાસ્ત્રો અને ટીકાસ્માને જ્યારે આટલી ખુધી પ્રશ'સાપૂર્વક પસંદગી મળી છે ત્યારે તે કામને મદદ કરવાની આ કારન્સ પેાતાની ફરજ માને છે અને જે કાંઇ ત્રુટી હાય તે ૫ ૨ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજની સાનિધ્યમાં જ', બતાવીને સુધારવા પ્રયત્ન કરવા આ કામને ટલ્લે ચઢાવવા જેવું કાઇપણ કામ સત્તા ઉપરના અધીકારીઓના વાણી કે વર્તનથી ન થાય તે જોવા પ્રમુખ સાહેબને ભલામણ કરે છે. * (સ્થા જૈન પત્ર તા ૪૫-૫૬) સ્વતંત્ર વિચારક અને નિડર લેખક જૈન સિદ્ધાંત'ના તંત્રીશ્રી શેઠ નગીનદાસ ગીરધરલાલના અભિપ્રાય શ્રી સ્થાનકવાસી શાસ્રોદ્ધાર સમિતિ સ્થાપીને પૂ શ્રી. ઘાસીલાલજી મહારાજને સૌરાષ્ટ્રમા ખેાલાવી તેમની પાસે ખત્રીસે સૂત્રા તૈયાર કરવાની હિલચાલ ચાલતી હતી ત્યારે તે હિલચાલ કરનાર શાસ્ત્રજ્ઞ શેઠ શ્રી દામેાદરદાસભાઇ સાથે મારે પત્રવ્યવહાર ચાલેલા ત્યારે શેઠ શ્રી દામોદરદાસભાઇએ તેમનાં એક પત્રમાં મને લખેલુ કે— “આપણા સૂત્રાના મૂળ પાઠ તપાસી શુદ્ધ કરી સ ંસ્કૃત સાથે તૈયાર કરી શકે તેવા સ્થાવકવાસી સપ્રદાયમાં મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મ. સિવાય મને કઇ વિશેષ વિદ્વાન મુનિ તેવામાં આવતા નથી. લાંખી તપાસને તે મે મુનિ શ્રી ઘાસીલાલજીને પસદ કરેલા છે” શેઠ શ્રી દામોદરદાસભાઇ પાતે વિદ્વાન હતા. શાસ્ત્રજ્ઞ હતા તેમ વિચારક પણ હતા. શ્રાવકે તેમજ મુનિઓ પણ તેમની પાસેથી જ્ઞાન ચર્ચા પણ કરતા એવા વિદ્વાન શેઠશ્રીની શીક્ષા વાંચના લેતા, તેમ પસ`ગી યથાર્થ જ હાય એમાં Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ નવાઈ નથી. અને પૂ. શ્રી. ઘાસીલાલજીના બનાવેલાં સત્ર જોતાં સી કેઈને ખાત્રી થાય તેમ છે કે દાદરદાસભાઈએ તેમજ સ્થાનકવાસી સમાજે જેવી આશા શ્રી ઘાસીલાલજી મ. પાસેથી રાખેલી તે બરાબર ફળીભૂત થયેલ છે શ્રી વર્ધમાન શ્રમણ સંઘના આચાર્ય શ્રી આત્મારામજી મહારાજે શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના સૂત્રે માટે ખાસ પ્રશંસા કરી અનુમતિ આપેલ છે તે ઉપરથી જ શ્રી ઘાસીલાલજી મ ના સુત્રેની ઉપયોગિતાની ખાત્રી થશે આ સૂત્રે વિદ્યાથીને, અભ્યાસીને તેમજ સામાન્ય વાંચકને સર્વને એક સરખી રીતે ઉપયેગી થઈ પડે છે. વિદ્યાથીને તેમજ અભ્યાસીને મૂળ તથા સંસ્કૃત ટીકા વિશેષ કરીને ઉપયોગી થાય તેમ છે ત્યારે સામાન્ય હિંદી વાંચકને હિંદી અનુવાદ અને ગુજરાતી વાંચકને ગુજરાતી અનુવાદથી આખું સૂત્ર સરળતાથી સમજાય જાય છે કેટલાકેને એ ભ્રમ છે કે સૂત્રે વાંચવાનું આપણું કામ નહિ, સૂત્ર આપણને સમજાય નહિ આ ભ્રમ તને છેટે છે બીજા કેઈપણું શાસ્ત્રીય પુસ્તક કરતાં સૂત્રે સામાન્ય વાચકને પણ ઘણું સરળતાથી સમજાઈ જાય છે. સામાન્ય માણસ પણ સમજી શકે તેટલા માટે જ ભ. મહાવીરે તે વખતથી લેક ભાષામાં (અર્ધ માગધી ભાષામાં) સૂત્રે બનાવેલાં છે. એટલે સૂત્ર વાંચવાં તેમજ સમજવામાં ઘણું સરળ છે માટે કઈ પણ વાંચકને એને ભ્રમ હોય છે તે કાઢી નાંખવો. અને ધર્મનું તેમજ ધર્મના સિદ્ધાંતનું સાચું જ્ઞાન મેળવવા માટે સૂત્ર વાંચવાને ચૂકવું નહિ એટલું જ નહિ પણ જરૂરથી પહેલા સૂત્રોજ વાંચવા. સ્થાનકવાસીઓમાં આ શ્રી સ્થા જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિએ જે કામ કર્યું છે અને કરી રહી છે તેવું કોઈ પણ સંસ્થાએ આજ સુધી કર્યું નથી સ્થા જેના શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના છેલા રિપોર્ટ પ્રમાણે બીજા છ સૂત્રે લખાયેલ પડયાં છે, બે સત્ર-અનુગદ્વાર અને ઠાણુગ સત્ર-લખાય છે તે પણ થોડા વખતમાં તૈયાર થઈ જશે. તે પછી બાકીના સૂત્રે હાથ ધરવામાં આવશે તૈયાર સૂત્રો જલ્દી છપાઈ જાય એમ ઈચ્છીએ છીએ અને સ્થા બધુઓ સમિતિને ઉત્તેજન અને સહાયતા આપીને તેમનાં સૂત્રો ઘરમાં વસાવે એમ ઈચ્છીએ છીએ જૈન સિદ્ધાન્ત” પત્ર – મે ૧૯૫૫. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રુત ભકિત (પૂ આચાર્ય શ્રી ઈશ્વરલાલજી મ. સા. ની આજ્ઞા અનુસાર લખનાર) દ. સં. ના જૈન મુનિ શ્રી દયાનંદજી મહારાજ તા. ૨૩-૬-૫૬ શાહપુર, અમદાવાદ, આજે લગભગ ૨૦ વર્ષથી શ્રદ્ધેય પરમપૂજ્ય, જ્ઞાન દિવાકર પં. મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મ ચરમ તીર્થકર ભગવાન મહાવીરના અનુત્તર, અનુપમ ન્યાય યુકત, પૂર્વાપર અવિધ, સ્વાર કલ્યાણકારક, ચરમ શીતળ વાણીના દ્યોતક એવા શ્રી જિનગમ પર પ્રકાશ પાડે છે. તેઓશ્રી પ્રાચીન, પિત્ય સંસ્કૃતાદિ અનેક ભાષાના પ્રખર પડિત છે અને જિન વાણીને પ્રકાશ સંસ્કૃત, ગુજરાતી અને હિંદીમાં મૂળ શબ્દાર્થ, ટીકા, વિસ્તૃત વિવરણ સાથે પ્રકાશમાં લાવે છે એ જૈન સમાજ માટે અતિ ગૌરવ અને આનંદને વિષય છે, ભ૦ મહાવીર અત્યારે આપણી પાસે વિદ્યમાન નથી પરંતુ તેમની વાણી રૂપે અક્ષરદેહ ગણધર મહારાજેએ શ્રુત પરંપરાએ સાચવી રાખે શ્રુત પરંપરાથી સચવાતું જ્ઞાન જ્યારે વિસ્મૃત થવાને સમય ઉપસ્થિત થવા લાગે ત્યારે શ્રી દેવદ્વિગણિ ક્ષમાશ્રમ વભીપુર–વળામાં તે આગમોને પુસ્તકે રૂપે આરૂઢ ક. આજે આ સિદ્ધાતો આપણી પાસે છે તે અર્ધમાગધી પાલી ભાષામાં છે અત્યારે આ ભાષા ભગવાનની, દેવેની તથા જનગણની ધર્મ ભાષા છે તેને આપણા શ્રમણે અને શ્રમણીઓ તથા મુમુક્ષુ શ્રાવક શ્રાવિકાઓ મુખપાઠ કરે છે, પરંતુ તેને અર્થ અને ભાવ ઘણા થોડાઓ સમજે છે - જિનાગમ એ આપણાં શ્રદ્ધેય પવિત્ર ધર્મસૂત્ર છે. એ આપણી આખે છે. તેને અભ્યાસ કરે એ આપણી સૌની–ને માત્રની ફરજ છે. તેને સત્ય સ્વરૂપે સમજાવવા માટે આપણાં સદ્ભાગ્યે જ્ઞાન દિવાકર શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે સત્સં૫ કર્યો છે અને તે લિખિત સૂત્રને પ્રગટાવી શાસ્ત્રોદ્ધાર સમીતી દ્વારા જ્ઞાન પરબ વહેતી કરી છે. આવા અનુપમ કાર્યમાં સકળ જેને સહકાર અવશ્ય હવે ઘટે અને તેને વધારેમાં વધારે પ્રચાર થાય તે માટે પ્રયત્નો કરવા ઘટે ભ૦ મહાવીરને ગણધર ગૌતમ પૂછે છે કે હે ભગવાન, સૂત્રની આરાધના કરવાથી શું ફળ પ્રાપ્ત થાય છે? ભગવાને તેને પ્રતિ ઉત્તર આપે છે કે શ્રુતની આરાધનાથી જીવેના અજ્ઞાનનો નાશ થાય છે. અને તેઓ સસારના કલેશેથી નિવૃત્તિ મેળવે છે અને સસાર કલેશેથી નિવૃત્તિ અને અજ્ઞાનને નાશ થતાં મેક્ષ ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે. - આવા જ્ઞાન કાર્યમાં મૂર્તિપૂજક જેને, દિગંબરે અને અન્ય ધર્મીઓ હજારે અને લાખ રૂપીયા ખચે છે. હિંદુ ધર્મમાં પવિત્ર મનાતા ગ્રંથ ગીતાના સેંકડો નહિ પણ હારે ટીકા ચશે દુનિયાની લગભગ સર્વ ભાષાઓમાં પ્રગટ થયા છે. ઈસાઈ ધર્મના પ્રચારકે તેમના પવિત્ર ધર્મગ્રન્થ બાઈબલના પ્રચારાર્થે તેનું જગતની સર્વ ભાષાઓમાં ભાષાંતર કરી, તેને પડતર કરતા પણ ઘણી ઓછી કિંમતે વેચી ધર્મ s Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ સત્રને પ્રચાર કરે છે. મુસ્લીમ લેકે પણ તેમના પવિત્ર મનાતા ગ્રન્થ કુરાનનું પણ અનેક ભાષાઓમાં ભાષાંતર કરી સમાજમાં પ્રચાર કરે છે. આપણે પૈસા પરને મેહ ઉતારી ભગવાનના સિદ્ધાંતને પ્રચાર કરવા માટે તન, મન, ધન સમર્પણ કરવાં જોઈએ. અને સત્ર પ્રકાશનના કાર્યને વધુ ને વધુ વેગ મળે તે માટે સક્રિય પ્રયત્ન કરવા જોઈએ આવા પવિત્ર કાર્યમાં સાંપ્રદાયિક મતભેદ સૌએ ભૂલી જવા જોઈએ અને શુદ્ધ આશયથી થતા શુદ્ધ કાર્યને અપનાવી લેવું જોઈએ. સમિતિના નિયમાનુસાર ૩ ૨૫૧ ભરી સમીતીના સભ્ય બનવું જોઈએ. ધાર્મિક અનેક ખાતાઓના મુકાબલે સૂત્ર પ્રકાશનનું–જ્ઞાન પ્રચારનું આ ખાતું સર્વશ્રેષ્ઠ ગણાવું જોઈએ " આ કાર્યને વેગ આપવાની સાથે સાથે એ આગભગવાનની એ મહાવાણીનું પાન કરવા પણ આપણે હરહમેશ તત્પર રહેવું જોઈએ જેથી પરમ શાંતિ અને જીવન સિદ્ધિ મેળવી શકાય. (સ્થા જૈન. તા. પ-૭–૧૬) શ્રી. એ ભા શ્વે સ્થા જેન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના પ્રમુખશ્રી વગેરે રાણપુર પરમ પવિત્ર સૌરાષ્ટ્રની પુણ્ય ભૂમિ પર જ્યારથી શાન્ત–શાસ્ત્રવિશારદ અપ્રમાદિ પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજનાં પુનિત પગલાં થયા છે ત્યારથી ઘણું લાંબા કાળથી લાગુ પડેલ જ્ઞાનાવરણિય કર્મનાં પડળ ઉતારવાને શુભ પ્રયાસ થઈ રહ્યો છે અને જે પ્રવચનની પ્રભાવના તેઓશ્રી કરી રહ્યા છે તે અનંત ઉપકારક કાર્યમાં તમે જે અપૂર્વ સહાય આપી રહ્યા છે તે માટે તમે સર્વને ધન્ય છે અને એ શુભ પ્રવૃત્તિને શુભ પરિણામને જનતા લાભ લ્ય છે. મને તે સમજાય છે કે સાધુજી છઠે ગુણસ્થાનકે હેાય છે પણ પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ તે બહુધા સાતમેં અપ્રમત ગુણસ્થાનકે જ રહે છે. એવા અપ્રમત માત્ર પાંચ-સાત સાધુઓ જે સ્થાનકવાસી જૈન સમાજમાં હોય તે સમાજનું શ્રેય થતાં જરાએ વાર ન લાગે. સમાજકાશમાં સ્થા. જૈન સંપ્રદાયને દિવ્ય પ્રભાકર જળહળી નીકળે ૫ણ દિન - શ્રી શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને મ્હારી એક નમ્ર સુચના છે કે–પૂજ્યશ્રીની વૃદ્ધાવસ્થા છે, અને કાર્યપ્રણાલિકા યુવાનને શરમાવે તેવી છે તેમને ગામેગામ વિહાર કરવા અને શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય કરવું તેમાં ઘણું શારીરિક-માનસિક અને વ્યવહારિક મુશ્કેલી વેઠવી પડે છે તે કઈ યોગ્ય સ્થળ કે જ્યાં શ્રાવકે ભક્તિવાળા હેય. વાડાના રાગના વિષથી અલીપ્ત હોય એવા કોઈ સ્થળે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય પૂર્ણ થાય ત્યાં સુધી સ્થીરતા કરી શકે એના માટે પ્રબંધ કરવું જોઈએ બીજા કેઈ એવા સ્થળની અનુકુળતા ન મળે તે છેવટ અમદાવાદમાં ગ્ય સ્થળે રહેવાની સગવડતા કરી અપાય તે વધુ સારું હારી આ સુચના પર ધ્યાન આપવા ફરી યાદ આપું છું. ફરીવાર પુજ્ય આચાર્યશ્રીને અને તેમના સત્કાર્યના સહાયકોને મારા અભિનદન પાઠવું છું તે સ્વીકારશોજી. લિ. સદાનદી જેનમુનિ છોટાલાલજી. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “જેન સિદ્ધાંતના” તંત્રીશ્રીને અભિપ્રાય સ્થાનકવાસીઓમાં પ્રમાણભૂત સૂત્રે બહાર પાડનારી આ એકની એક સંસ્થા છે અને એના આ છેલા રિપોર્ટ ઉપરથી જણાય છે કે તેણે ઘણી સારી પ્રગતિ કરી છે તે જોઈ આનદ થાય છે. મૂળ પાઠ, ટીકા, હિંદી તથા ગુજરાતી અનુવાદ સહિત સુત્ર બહાર પાડવા એ કાંઈ સહેલુ કામ નથી. એ એક મહાભારત કામ છે અને તે કામ આ શાસોદ્ધાર સમિતિ ઘણું સફળતાથી પાર પાડી રહી છે તે સ્થાનકવાસી સમાજ માટે ઘણું ગૌરવનો વિષય છે અને સમિતિ ધન્યવાદને પાત્ર છે સમિતિ તરફથી નવસૂત્ર બહાર પડી ચૂક્યાં છે, હાલમાં ત્રણ સૂત્ર છપાય છે. નવ સૂત્રે લખાઈ ગયા છે અને જે બુદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિ તથા નંદીસૂત્ર તૈયાર થઈ રહ્યાં છે. હાલમાં મંત્રી શ્રી સાકરચંદ ભાઈચંદ સમિતિના કામમાં જ તેમને આખો વખત ગાળે છે અને સમિતિના કામકાજને ઘણે વેગ આપી રહ્યા છે. તેમની ખત માટે ધન્યવાદ. અને આ મહાભારત કામના મુખ્ય કાર્યકર્તા તે છે વયેવૃદ્ધ પડિત મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ, મૂળ પાઠનું સંશોધન તથા સંસ્કૃત ટીકા તેઓશ્રી જ તૈયાર કરે છે મુનિશ્રીને આ ઉપકાર આખાય સ્થા જૈન સમાજ ઉપર ઘણે મહાન છે. એ ઉપકારને બદલે તે વાળી શકાય તેમજ નથી પરત આ સમિતિના મેમ્બર બની, તેને બહાર પડેલા સૂત્રે ઘરમાં વસાવી તેનું અધ્યયન કરવામાં આવે તે જ મહારાજશ્રીનું થોડું ઘણું અદા કર્યું ગણાય. ભગવાને કહ્યું છે કે રામ ના તમો રચાં પહેલું જ્ઞાન પછી દયા, દયા ધર્મને યથાર્થ સમજે હોય તે ભગવાનની વાણીરૂપ આપણું સૂત્ર વાંચવાં જ જોઈએ તેનું અધ્યયન કરવું જોઈએ અને તેને ભાવાર્થ યથાર્થ સમજવો જોઈએ. એટલા માટે આ શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિના સર્વ સુત્રો દરેક સ્થા જેને પિતાના ઘરમાં વસાવવા જ જોઈએ સર્વ ધર્મજ્ઞાન આપણું સુત્રોમાં જ સમાયેલું છે અને સૂત્ર સહેલાઈથી વાંચીને સમજી શકાય છે, માટે દરેક સ્થા જેન આ સુ વાચે એ ખાસ જરૂરનું છે. જેન સિદ્ધાંત ડીસેમ્બર- પદ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી ઉપાશક દશાંગ સત્રને માટે અભિપ્રાય. મૂળ સુત્ર તથા પૂ મુનિશ્રી ઘાસીલાલજીએ બનાવેલ સંસ્કૃત છાયા તથા ટકા અને હિંદી તથા ગુજરાતી-અનુવાદ સહિત. પ્રકાશક- અ. ભા. ઝવે. સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, ગરેડીઆ કુવા રેડ, ગ્રીન લેજ પાસે, રાજકોટ. (સૌરાષ્ટ્ર) પૃષ્ઠ ૬૧૬ બીજી આવૃત્તિ બેવડું (મો) કદ પાકું પુછું. જેકેટ સાથે સને ૧૯૫૬ કિમત રૂ ૮૮-૦ આપણું મૂળ બાર અગ સૂત્રમાંનું ઉપાશકદશાંગ એ સાતમું અંગ સૂત્ર છે, એમાં ભગવાન મહાવીરના દેશ ઉપાસકે શ્રાવકેનાં જીવનચરિત્ર આપેલાં છે તેમાં પહેલું ચરિત્ર આનંદ શ્રાવકનું આવે છે. આનદ શ્રાવકે જૈન ધર્મ અંગીકાર કર્યો અને બારવ્રત ભગવાન મહાવીર પાસે અગીકાર કરી પ્રતિજ્ઞા (પ્રત્યાખ્યાન) લીધાં તેનું સવિસ્તર વર્ણન આવે છે. તેની અતર્ગત અનેક વિષયે જેવા કે, અભિગમ, કાલકસ્વરૂપ, નવતત્ત્વ, નરક દેવલેક વગેરેનું વર્ણન પણ આવે છે આનદ શ્રાવકે બાર વ્રત લીધા તે બારે વ્રતની વિગત અતિચારની વિગત વગેરે બધુ આપેલું છે તે જ પ્રમાણે બીજા નવ શ્રાવકેની પણ વિગત આપેલ છે આનદ શ્રાવકની પ્રતિજ્ઞામાં રિહંત ક્યારું શબ્દ આવે છે. મૂર્તિપૂજકે મૂર્તિપૂજા સિદ્ધ કરવા માટે તેને અર્થ અરિહંતનું ચિત્ય (પ્રતિમા) એ કરે છે. પણ તે અર્થ તદન ખૂટે છે. અને તે જગ્યાએ આગળ પાછળના સબધ પ્રમાણે તેને એ અર્થ બંધ બેસતા જ નથી તે મુનિશ્રી ઘાસીલાલજીએ તેમની ટીકામાં અનેક રીતે પ્રમાણે આપી સાબિત કરેલ છે અને દંત ફિયાન્હેં ને અર્થ સાધુ થાય છે તે બતાવી આપેલ છે. આ પ્રમાણે આ સૂત્રમાંથી શ્રાવકના શદ્ધ ધર્મની માહિતી મળે છે તે ઉપરાંત તે શ્રાવકેની દ્ધિ, રહેઠાણ, નગરી વગેરેના વર્ણને ઉપરથી તે વખતની સામાજિક રિથતિ, રીતરિવાજ રાજવ્યવસ્થા વગેરે બાબતેની માહિતી મળે છે એટલે આ સૂત્ર દરેક શ્રાવકે અવશ્ય વાંચવું જોઈએ એટલું જ નહિ પણ વારંવાર અધ્યયન કરવા માટે ઘરમાં વસાવવું જોઈએ પુસ્તકની શરૂઆતમાં વદ્ધમાન શ્રમણ સંઘના આચાર્યશ્રી આત્મારામજી મહારાજનું સંમતિ પત્ર તથા બીજા સાધુઓ તેમજ શ્રાવકના સંમતિ પત્ર આપેલા છે, તે સૂત્રની પ્રમાણભૂતતાની ખાત્રી આપે છે. જૈન સિદ્ધાંત” જાન્યુઆરી, પછી Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૨ સમિતિના પ્રમુખ અને આધ મુર્ખ્ખી શ્રી, શેઠ શાન્તિલાલ મગળદાસના ટુ'ક પરિચય * શ્રી શાન્તિલાલ મંગળદાસના જન્મ ઈ. સ. ૧૯૦૧ નાં ઓગષ્ટની ત્રીજી તારીખે તેમનાં મેાસાળ ચારવડાદરામાં થયા હતા. વિદ્યાથી અવસ્થામાંજ એમનામાં રહેલી તિવ્ર બુદ્ધિ જુદી તરી આવતી હતી ઇ. સ. ૧૯૧૯માં અમદાવાદ કેન્દ્રમાંથી મેટ્રીકમા પાસ થનાર પ્રથમ દસ વિદ્યાર્થી એમાંના તેઓ એક હતાં, ત્યારખાદ ઈ. સ. ૧૯૨૩માં અર્થશાસ્ત્રના વિષય લઈ તે B. A. થયા. એ જમાનામાં બહુ થોડાં નિક કુટુંબે ઊચ્ચ અભ્યાસમાં રસ લેતા હતા. ગ્રેજ્યુએટ થયા ખાદ તુરતજ એમના ઉપર ધંધાની જવાબદારી આવી પડી. યુવાન વય, તિવ્ર બુદ્ધિ, વિશાળ વાંચન અને મનને તેમને નવીજ દૃષ્ટિ આપી હતી અને તેમની સમક્ષ આવતા ઉદ્યોગના અનેક વિકટ સવાલેને તેમણે અહુ કુશળતાથી ઉકેલવા માંડયા. ૧૯૪૫માં એ અમદાવાદ મિલ માલિક મડળના પ્રમુખ મન્યા, હિંદના તેમજ ખાસ કરીને ગુજરાત-સૌરાષ્ટ્રનાં વેપારનાં પ્રાણ પ્રશ્નોના તળપદા અભ્યાસે મિલમાલિક મંડળના પ્રમુખ તરીકેની કામગરીને વધુ દીપાવી. ૧૯૪૮થી હિંદી વેપારી મહામ’ડળના તેએ સભ્ય છે અને ૧૯૫૪૫૫ અને ૧૯૫૫-૫૬નાં વર્ષ માટેના દેશના આ સૌથી મેાટા વેપારી મહામડળના તે અનુક્રમે ઉપપ્રમુખ અને પ્રમુખ હતા આજે તે ગુજરાત-સૌરાષ્ટ્રને ખૂબજ ઉપયેગી નિવડેલી તેમની અસાધારણ શકિતઓને દેશવ્યાપી ક્ષેત્ર મળ્યું છે, ૧૯૩૮–૩૯માં તેઓ ઇન્ટરનેશનલ લેખર એગેનીઝેશન (।. ૫, ૦) માં ભાગ લેવા ગયેલ ભારતીય પ્રતિનિધિ મંડળના તેઓ સરકાર તરફથી નિયુકત થયેલ સલાહકાર હતા. ૧૯૪૬મા અને ૧૯૪૮માં પુરેલ્સ અને જીનીવા મુકામે ભરાયેલ 1. L. ૦, માં તેઓએ માલિકાના પ્રતિનિધિ તરીકે અગત્યને ભાગ લીધેા હતેા, Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સામાન્ય નિયમ છે કે શ્રી અને સરસ્વતીને બહુ સંબધ હેત નથી. શ્રી શાન્તિલાલ અને તેમનું કુટુંબ આમાં અપવાદરૂપ છે. ધનપતિ હોવા છતાં એ સાહિત્ય અને સંસ્કારીતાના પૂજક છે, એમની વિનમ્રતા અને સાદાઈ હજુએ એ જાળવી રહ્યા છે. અનેક શિક્ષણ સંસ્થાઓ માટે આજે પણ એ પિતાની અનેકવિધ પ્રવૃત્તિએમાંથી સમય બચાવી લે છે, એજ તેમનાં વિદ્યાપ્રેમને સચોટ પુરાવે છે ઉદ્યોગ તે તેમને વારસામાંજ મળે છે અને એ વારસાને તેમણે ભાળે છે. એમની દૃષ્ટિ આજનાં પ્રશ્નોને વૈજ્ઞાનીક રીતે છણવાની તે છે જ પણ આવતી કાલને પણ તેઓ એજ વૈજ્ઞાનીક અને વ્યવહારીક દૃષ્ટિથી નિહાળતાં હોય છે અને એટલે જ તે એમના સંચાલન તળે ચાલતી ચાર મિલે કાપડ ઉદ્યોગમાં સુંદર પ્રતિષ્ઠા જમાવી શકેલ છે. આ ઉપરાંત જુદી જુદી વ્યાપારી પ્રવૃત્તિઓ કરતી ઘણી કંપનીઓમાં તેઓ ડીરેકટર તરીકે રહી ગ્ય માર્ગદર્શન અને રવણ આપી રહ્યા છે સૌરાષ્ટ્ર ફાઇનેન્સીયલ કેરપરેશનનાં તેઓ ડીરેકટર છે સૌરાષ્ટ્ર મિલ માલિક મંડળમાં તો તેઓ તેની સ્થાપના થઈ ત્યારથી ઊડે રસ દાખવે છે. હજુ હમણાં સુધી સતત પાચ પાચ વર્ષ સુધી તેના પ્રમુખપદે રહી તેમણે સૌરાષ્ટ્રનાં આ ઉદ્યોગની કરેલી સેવાઓ ખરેખર અભિનંદનને ચગ્ય છે. જેના શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના તેઓ પ્રમુખ છે અને તેની પ્રવૃત્તિમાં ઘણું ઉત્સાહથી હંમેશાં મદદ કરી રહ્યા છે આ ઉપરાંત અનેક જેન ને જૈનેતર સામાજીક સંસ્થાઓને તેઓ સેવાઓ આપી રહ્યા છે Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આધ મુરબ્બીશ્રી, ભાણવડ નિવાસી શેઠ હરખચંદ કાલીદાસ વારીયાનું જીવન ચરિત્ર, આ સંસ્થાને રૂ. ૬૦૦૦) છ હજાર જેવી રકમનું વાતવાતમાં દાન આપનાર સ્વ શ્રીમાન હરખચંદ કાલીદાસ વારીયા ભાણવડ નિવાસી ટુંક જીવનચરિત્ર અત્રે આપવા પ્રયાસ કરીએ છીએ. સૂત્રમાં તેઓશ્રીને ફેટે આપવા માટે તેઓશ્રીની હયાતીમાં વાત થયેલ, પરંતુ તેઓ આ જાતની જાહેરાતથી વિરૂદ્ધ હતા. તેમના અવસાન બાદ તેમના સુપુત્રે આગળ પણ ફેટાની માગણી કરી પરંતુ તેઓએ પણ તેમના પૂ. પિતાજીના પગલે ચાલી ફેટે આપવામાં નારાજી બતાવી. એટલે તેઓશ્રીનું ટુંક જીવન આપીએ છીએ. આશા છે કે આવા ઉદાર અને વિચારશીલ મહાનુભાવના જીવનમાંથી વાચકને ઘણું મળી રહેશે. જન્મ સ્થાન : ઘડેચી (ઓખા મંડળ) તા. ૨૫-૧૧-૧૮૮૫. પિતાનું નામઃ વારીયા કાલીદાસ મેઘજીભાઈ માતાનું નામ: કેશરબાઈ અભ્યાસ : ભાણવડમા અને રિબંદરમાં રહી ફક્ત જરૂર પુરતું ભણ્યા. પરદેશગમનઃ માત્ર બારવર્ષની વયે તેમના કાકા નથુભાઈ મેઘજીને ત્યાં જેલા ખાતે અનુભવ મેળવવા રહ્યા દરમ્યાન જેલ (બી. સેમાલીલેન્ડ) છબુટી (ફૂન્ચ સેમાલી લેન્ડ) એડન અને ઈથીએપીઆ તરફ પણ અનુભવ મેળવ્યું પ્રથમ ભાગીદારી ? બુલહારમાં શ્રી કાલીદાસ વેલજીના ભાગમાં ભળ્યા પરંતુ સંવત ૧૯૬૭માં તે દુકાન વીટી લીધી અને લગ્ન માટે સ્વદેશ આવ્યા. લગ્ન : સંવત ૧૯૬૭માં તેમના લગ્ન બાજુના ગામ ગુંદા મુકામે ખૂબ જ પ્રતિક્તિ કુટુંબ મહેતા સુંદરજી પ્રેમજીના જ્યેષ્ઠ પુત્ર લેવાન સુદરજીનાં સુપુત્રી મણીબેન સાથે થયા Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પરિવાર : અત્યારે તેમના પાંચે પુત્ર શ્રી લાલચંદભાઈ, જયચંદ્રભાઈ, નગિનદાસભાઈ, વૃજલાલભાઈ અને વલભદાસભાઈ એ પાંચે ભાઈઓ તેઓશ્રીને બહાળે વ્યવહાર અને વ્યાપાર બરાબર સુગ્ય રીતે સંભાળી રહ્યા છે. ભાગીદારી : લગ્ન પછી સાં ૧૯૬૮માં પાછા પરદેશ ગમન થયું. શરૂમાં વસનજી નથુભાઈ કે ના નામથી પેઢી ચાલતી હતી તેમાં તેઓ ભાગમાં ભળ્યા તેમાંથી વારીયા નથુભાઈ મેઘજી, શ્રી વારીયા નથુભાઈ મુળજી, શ્રી વારીયા હરખચંદ કાલીદાસ, ફેફરીયા દેવજી જીવાભાઈ તથા શા વસનજી હીરજીભાઈ એમ પાંચ ભાગીદાર હતા. તે પેઢી સંવત ૧૯૭૨માં જુદી થઈ અને શ્રી વસનજી હીરજી કે જે સ્વબળે આગળ વધ્યા હતા તેમણે પિતાની પેઢી શા. વસનજી હીરજીના નામથી જુદી કરી અને શા નથુભાઈ મુળજીના નામથી પેઢી ખોલવામાં વારીયા નથુભાઈ મુળજી જેટલે જ હિસ્સે હરખચ દભાઈને હિતે ઉપરની પેઢી: ઉપરોકત નામથી એટલે કે શા નથુભાઈ મુળજીના નામથી જે પેઢી શરૂ થઈ તેના પ્રાણસમાં શ્રીયુત હરખચંદભાઈ તેમના જીવનના અંત સુધી રહ્યા હતા. અત્યારે પણ તે નામને શ્રી નથુભાઈ મુળજી તેમજ શ્રી હરખચંદ કાલીદાસના વારસો ઝળહળાવી રહ્યા છે દૂર દૂરના દેશાવરમાં એકધારું લગભગ ૪૫ વર્ષ થયાં કામકાજ ચાલે છે. તેને સચાલનની દેર શ્રી હરખચ દભાઈને હાથમા અંત સુધી રહી હતી અને તેઓશ્રીના અવસાન પછી પણ તેમના દેરેલા ચીલા ઉપર પેઢીને વ્યવહાર સરળ રીતે અત્યારે પણ ચાલે છે અત્યારના સુકાનીઓએ પિતાના પૂર્વજ શ્રી નથુભાઈ તથા શ્રી હરખચંદભાઈના અકિત કરેલ માગે પિતાની સફર ચાલુ રાખી છે અને તે સદાયે અવિચળ રહે તેવું આશિર્વચન કેઈપણ હિન્દી ઉચાર્યા વિના રહી શકે નહીં તેવી તેની ઉત્તમ છાપ ત્યા પડી છે અને તે નર્યું સત્ય જ છે. હિન્દની શાન : | વર્ષો થયા એકધારૂ બીઝનેસ” ચાલતું હોવા છતાં એક શાહ સોદાગરની જેમ નથુભાઈ મુળજીની પેઢી ઉત્તરોત્તર કુલતી ફાલતી રહી છે વ્યાપારી આંટ અને ઈજજતને એ નાદર નમુને આજે પણ એ જ ધીર ગંભીરપણે પિતાનું કાર્ય ધપાવ્યે જાય છે. એકધારી લગભગ અડધી સદી થયાં ચાલતી આ પેઢીને રજ માત્ર ડાઘ લાગ્યું નથી તે તે સોકેઈ જાણે છે અને શાહ નથુભાઈ મુળજીની પુરાણું પેઢી Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ માટે આજે પ્રત્યેક હિન્દી અભિમાન લઈ શકે છે તેમાં શ્રી નથુભાઇ વારીયાનું ધર્મ પ્રધાનપણું અને શ્રી હરખચંદભાઇનું દુર ંદેશીપણુ", કાર્યપ્રણાલીની ઉત્તમતા અને એકનિષ્ઠા મુખ્ય ગણાય વાંચન અને મનન : ઉપરની વાતે તે તેમના વ્યાપારી જીવનની સફળતા અને એક નાનામાં નાની વ્યકિત આગળ કઈ રીતે વધી શકે છે તેને આ ખ્યાલ આપવા પૂરતી થઈ, ત્યારે તેની ખીજી એક ખાસ ખાજુ છે. અતિ સામાન્ય અભ્યાસ પરંતુ સ્વાનુભવે મેળવેલ જ્ઞાનસિદ્ધિ, જે કાળમાં અણખેડાયેલા દેશેામા આવવા જવાનાં સાધના પણુ ન હતાં, એડન સુધીની મુસાફરી પછી જેલા ખરખરા જવામાં નાના વહાણાથી સફર થતી, જીબુટીથી ઈથાપિયા જવામાં દીરદવા પછી (ખગલ) ખર્ચના ઉપર અને પગપાળા મુસાફરી થતી. દેશા બધા ખુબજ જંગલી અવસ્થામાં હતા તેવા યુગમાં હિમ્મત હાર્યા વિના આંગળીને વેઢે ગણાય તેટલા હિન્દી વ્યાપારમાં આગળ વધ્યા હતા તે યુગમા શ્રી હરખચદભાઈ હતા. ખુબ જ અંધકારમાંથી પ્રકાશ મેળવવાને હતા. અત્યારે ઈથાપિયાના પાટનગર આડીસઅબાળા જવા માટે Air રસ્તે ૧૦ થી ૧૨ કલાકમા પહાંચાય છે ત્યારે તે જમાનામા આગોાટ વહાણુ ખડખડ પાચમ જેવી રેલ્વે અને તે પછી ખચ્ચરો ઉપર અને થાડુંક પગપાળા અગર તેા ગધેડા ઉપર પણુ સફર કરવી પડતી. જુના જમાના હતા એટલે હિન્દુ તરીકેના ધર્મો જાળવવામાં પશુ લેક ચુસ્ત હતા, કાઇનું અડેલું ખવાય નહીં રસાઇ તૈયાર હેાય પશુ એક સામાલી કે આરમ અગર થપિયનને હાથ અડકી જાય એટલે ખાવાનું તેને આપી દઈ કડાકા કરવા પડે અગર તે પલાળેલા ચણા કે મકાઈ ખાઈને ગુજારો કરવા પડે તેવા જમાનામા શ્રી હરખચંદજીભાઈએ ખુબ જ ધાકિય સફળતા મેળવી હતી તે સામાન્ય વાત તે નથીજ, અને પાતે ખુબજ ઓછુ ભણ્યા હૈાવા છતાં ભણતર કરતાં ગણતર તેમાં ઘણું હતું. સાહિત્ય અને તે પણ ધાર્મિક અને ગુજરાતી શિષ્ટ સાહિત્યનૢ વાંચન મનન એટલુ બધુ તેઓએ કરેલ કે પાતાના અભ્યાસ આછે છે એમ તેએ ખુલાસા કરે ત્યારેજ ખખર પડે, અજાણ્યા માણસને તે તેમનુ અગ્રેજી જ્ઞાન પણુ સારૂ હશે તેમ લાગતું વ્યાપારી તાર લખવા ઓછા શબ્દેમાં ઘણું સમળવી દેવું ઉપરાત અગ્રેજી પત્ર વ્યવહારના બહારથી આવતા પત્રા આંટીઘુંટી સહિત હાય તેા પણ થેછ રીતે સમજી લેવામાં તે એટલા પધા પારંગત થઇ ગયેલા કે જોનારને તેમની શકિત ઉપર માન થઇ જતું. અને તેએ નિખાલસ ભાવથી જ્યારે કહેતા કે હું માત્ર ગુજરાતી ચાર પાંચ ચેપડી ભણ્યે એમ વાત ધતી ત્યારે તે માન અનેકગણુ વધી જતુ. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અભ્યાસી : ધાર્મિક ઉંડામાં ઉંડુ જ્ઞાન તેમણે વાંચનથી મેળવેલું. દેશ પરદેશની વાતે થતી હોય ત્યારે તેમના આગળ પ્રખર અભ્યાસીઓ પણ ઝાંખા પડતાં, વર્તમાન પત્રને શોખ તેમને અજોડ હતે. દેશ પરદેશના નાણાકિય વહેવારે અને હુંડિયામણની વાત સાંભળીએ ત્યારે તેમના જ્ઞાનના અગાધ પણાની સાંભળનારને અતિ ઉત્તમ છાપ પડતી. ધાર્મિક : ધાર્મિક અભ્યાસ તેમને એટલે બધે બહાળે હતું કે તેમના આગળથી રેજ અવનવું જાણવા મળતું દરેક ધર્મને અભ્યાસ તેમણે જીજ્ઞાસાવૃત્તિથી કર્યો હતે ધમે તેઓ ચુસ્ત સ્થાનકવાસી શ્વેતાંબર જૈન હતા છતાં ધમ ધતાને તેમનામાં અશ પણ ન હતું મારું એટલું સારું એમ નહીં પણ સારું એટલું મારું એમ માનતા તેથી કદાગ્રહીપણું તેમનામાં જનમ્યું જ ન હતું. જૈનધર્મના દરેક પારકા ઉપર તેમને માન હતુ. શ્વેતાંબર મંદિરમાર્થિ ભાઈઓના વધેડાઓમાં તેઓ આનંદ અને ઉત્સાહથી જતા, પ્રસંગ આવે ભાઈચારે નભાવવા વ્યવહારૂપણાને ઉપયોગ કરી દેરાસરમાં ઘી બેલવાને પ્રસંગ આવે ત્યારે પણ તેઓ ઉત્સાહથી બોલતા. વરઘોડામાં પોતાના ઘરની પુત્રવધુઓને કળશ લેવડાવતાં તેમને અને આનંદ મળતે, જેનધર્મના દરેક ફિરકાઓની એક્તાને તેઓ પ્રખર ચાહક હતા છેલ્લે છેલ્લે સૌરાષ્ટ્રમા જૈન શ્વેતામ્બર તેરાપંથી સાધુઓ આવતા અને એમને સૌરાષ્ટ્રના જેને અને જૈન સાધુઓ તેરાપથી સાધુને સ્થાન અને આહારપાણ ન આપવાં તે પ્રયાસ જોર શેરથી કરતા તે બાબતને પિતે ગાંડપણ માનતા અને પિતાના ઘેર તેરાપંથી સાધુઓને માનથી ગોચરી આપતા સમાજથી જરાપણ ડરતા નહીં “વિચારભેદ તે દરેક જગ્યાએ બુદ્ધિવાદી લોકોમાં હેય મુખને વિચારભેદ શાને?” આમ તેઓ કહેતા પરંતુ એવા વિચાર ભેદને લઈને સાધુનું અને તે પણ પરદેશી સાધુઓનું અપમાન કરવું તેમા માનવતા ક્યાં રહી? જૈનત્વ કયાં રહ્યું ? તેમ તેઓએ જામનગરમાં એક વખત કહેલું કે મને બરાબર યાદ છે પ્રેમાળ : અસત્ય અગરતો જુઠ દગો આચરનાર તરક તેમને ઘણેજ રેષ હતું એટલે ઉગ્રતાથી આવા લેકેની ખબર લઈ નાખતા છતાં તેનું દિલ દુભાવ્યું તે ઠીક ન કર્યું તેમ માની તે જ વ્યકિત સાથે પ્રેમ અને મમત્વથી વાત કરતા. બીજાનું સારું જોઈ તેઓ ખરેખર રાચતા, તેમની આખમાં પ્રેમનું અમૃત ભારેભાર ભર્યું હતું Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮ પિતાને ત્યાં નેકરી કરી ગએલ મુનિમ કે કોઈપણ વ્યકિત કમાણી કરીને ખુબજ આગળ આવે, સારા અને સંસ્કારી થાય વ્યવહારમાં સવાયા થાય તેને ત્યાં લગ્ન પ્રસંગ હોય અગર તે સારામાં સારા મકાને તેણે ક્યાં હોય તેવા પ્રસંગે જવાનું થાય ત્યારે તેમના આનંદને અવધી થઈ જતે તે વખતે તેઓની આંખનું અમૃત જેમણે નજરોનજર જોયું હશે તે તેમને જીવન ભર નહીં ભૂલે આવી એક મહાન વિભૂતિના જીવનને ટુંક સાર જ આપી શકાય સાગપાંગ જીવન તે કયાંથી લખાય? કાળી : જનમ્યું તે જવાનું જ તે કુદરતને કમ છે તેને આધીન તે સારા નરસ દરેકને થવું જ પડે. સંવત ૨૦૦૭ માં તેઓશ્રી ૬૮ વર્ષનું આયુષ્ય ભેગવી ક્ષણભંગુર દેહને છેડી ગયેલા. પરંતુ તેમની સુવાસ સદાય પ્રસરતી જ રહેવાની, ભાણવડ જેવડા નાનકડા ગામમાં અને આસપાસના ગામમાં જ્યાં જ્યાં તેઓ ગએલા અગર તે તેમનું કાર્યક્ષેત્ર હતું ત્યાં ત્યાં તેમના અવસાનથી સન્નાટો છાઈ ગયેલું. એમનું મૃત્યુ વિશવર્ષના કૉતરને શેક હોય તે શેક સર્વત્ર આપતું ગયેલું. નામ ઠામના લેભ વિના કરેલાં તેમનાં ગુપ્તદાને એટલાં બધાં હતાં કે તેમના જવાથી નાના મોટા દરેકને એક સરખી ખટ લાગતી હતી. છતાં તેઓ જીવતર જીવી ગયાં. આવું ધન્ય જીવન અને ધન્ય મૃત્યુ જોઈને આર્તધ્યાન રૌદ્રધ્યાન ધરવું તે કરતા તેમના જેવા થવાના પ્રયત્ન કરવા. અને તેમના અમર આત્માની શાન્તિ માટે પ્રાર્થના કર્યા સિવાય બીજો માર્ગ જ કયાં છે? » શાન્તિ ! શાન્તિ !! શનિ !!! Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ આદ્ય સુરક્ખીશ્રી કાઠારી હરગાવીદભાઈ જેચ'દના ટુક પ રિ ચ ય પુ. શ્રી ૧૦૦૮ ઘાસીલાલજી મહારાજ રાજકેાટ પધારતાં પ્રાતઃ સ્મરણીય સ્તવનાવલી રાજકોટના રહીશ શુદ્ધ શ્રાવક વ્રતધારી જેચંદ અજરામર કોઠારીના સુપુત્ર હરગોવિંદકાકા તરફથી ૨૦૦૩માં છપાવવામાં આવી અને તે હિંદભરમાં જાહેરમાં મૂકી તેના ઉપયેાગ હાલ સ` જૈન જૈનેતર કરી રહેલ છે. કાકા રાજકાટમાંજ નહિ પણ સૌરાષ્ટ્ર, કચ્છ, ગુજરાત, મુંબઇ, દીલ્હી સુધી એક અજોડ ઉત્સાહી પુરૂષ છે એમને પ્રજા અને રાજા ઉપર ઘણેાજ સારો પ્રભાવ છે વેસ્ટ ઇન્ડીયા સ્ટેટ એજન્સી અને ગુજરાત સ્ટેટસ મહીકાંઠા સાબરકાંઠા અનાસકાંઠામાં રેસીડેન્સીમાં પણુ કાકા પ્રત્યે ઘણેાજ સારા ભાવ છે. તેને ધમ પ્રત્યે ઘણીજ સારી ધગશ હોઈ અંગત ખર્ચે પેાતાના ઘર આંગણે ધર્મ ધ્યાન માટે પાષધશાળા બંધાવી છે તેમજ આજી નદીને કિનારે વિશાળ વ્યાખ્યાન ભુવન હાલ બે માળનેા પાંચ હજાર માણસા વ્યાખ્યાન સાભળી શકે તેવા ખંધાવેલ છે. ઉદાર દીલના સખી માણુસ છે. કાઈ પણ ગરીખ ગુન્હાહિત માણસ દાદ માગવા આવે તો તરતજ બનતા ઉપાયે તેમને મદદ આપવા ચેવીસ કલાક 'તૈયાર રહે છે કાકાનું કુટુંખ પણ ઘણુજ ધર્મીષ્ઠ છે. તેમનાં ધર્મપત્નિ શ્રીમતી અખડ સૌભાગ્યવતી રૂક્ષ્મણીબેન વહેવારદક્ષ પ્રેમાળુ અને પૂ ધર્માત્મા છે. સાધુ સાધ્વી પ્રત્યે ત્યા દરેક કુટું ખ સજ્જન સ્નેહી અને સ્વધમી ઓ મહેમાના સાથે ઘણાજ સારા ઉચીત વહેવાર રાખવામા પુર્ણ નિષ્પન છે. નિત્ય પેાતાની ધર્મ પરાયણતા પ્રત્યેજ વફાદાર રહે છે. પુ ઘાસીલાલજી મહારાજ આદી થાણા છ (સમીરસુની, નૈયાલાલ મુની, દેવસુની, તપસ્વી માંગીલાલ, મદનલાલજી) મેવાડથી દામનગરના રહીસ દામેાદરભાઇના આગ્રહથી પાલનપુર નહિ શકાતાં તેમણે વિહાર શરૂ કર્યાં, અને મેારખી મુકામે તપસ્વી મદનલાલજી અને માંગીલાલજીની ૭૧ ઉપવાસની તપશ્ચર્યાં ચાતુર્માસમાં થયેલી જે પ્રસંગે રાજકાટથી હરગાવિંદકાકા કુટુંબ સહિત ગોકળ અષ્ટમીને દીવસે દર્શનાર્થે આવ્યા અને રાજકાટ પધારવાની વિનંતી કરી અને નવેમ્બર ૧૯૪૬માં ઘાસીલાલજી મહારાજ રાજકોટ પધાર્યાં કાકાના વ્યાખ્યાન ભુવનમાં ખીરાજ્યા અને તપસીજી માસખમણુાની તપશ્ચર્યાં કરી સ્થાનિક રાજકાટ સકલ સ ંઘે ઘણાજ ભક્તિભાવ બતાવ્યો અને રતાગઢ ખેડાના રહીશ જવાહીરલાલજી ચાંદમલજી ભંડારીની ૨૦૦૨ તા. ૨૭–૧–૪૭ના રોજ દીક્ષા વસતપ ંચમીને દીવસે હાવાથી સંઘમાં વધારે ઉત્સાહ આનદ આવ્યા. મહાસુદી એકમથી પાચમ સુધી ૬ વરઘોડાએ જુદે Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જુદે ઠેકાણેથી ચડયા મહા સુદી ૪ના દિવસે કાકાને ઘેરથી દીક્ષા ઓત્સવનો વરઘડે રાજકોટ ઠાકોર સાહેબ પ્રદ્યુમ્નસિંહજી અને કુ શ્રી બનેલી હજીની સંપૂર્ણ મદદથી રાજેશ્રીના ઠાઠને પણ વટાવી જાય તે રીતે સરકારી અને સ્ટેટ બેન્ડ પિલીસ ઘેડેસ્વાર ગાડી ઘોડા મેટો થા હજારે જૈન જૈનેતર માનવમેદની સાથે આખા શહેર સંદરના રસ્તા પર ફર્યો હતે. પાંચમના દીવસે તપગચ્છના ચાંદીના રથમાં દીક્ષાથીને બેસાડી ૪ ચાર બેલ જોડેલ રથને કાકા પિતે સારથી બની હાતા હતા. બંને દીવસે સેના રૂપાનાં પુલ તથા પિસા દિક્ષીત ઉડાવી રહેલ હતા. ઠેકાણે ઠેકાણે પિલીસે ગોઠવવામાં આવેલ હતી આ સરઘસ શહેર સદરમાં ફરી જુબીલી બાગમાં આવ્યું અને દસ હજાર માણસેની હાજરીમાં પૂ શ્રી ઘાસીલાલજીની જે નેશાય નીચે દીક્ષા આપવામાં આવી તે પ્રસંગે શાંતિ જળવાયેલી. આ પ્રસંગે બને દીવસેએ ફટાઓ તથા જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિની કમીટીના ફોટાઓ લેવામાં આવ્યા. અને ૩૦–૧–૪૭ના દિવસે શાસ્ત્રોદ્ધારની મીટીગ મળી જેમાં કાકા તરફથી સુત્રને માટે રૂપીઆ પાચ હજારની ભેટ મળી તે ઉપરાત પ્રસંગોપાત સુત્ર માટે જુદી ભેટ રોકડ રકમની આપવામાં આવી છે તેમજ જીવદયાના પ્રખર હિમાયતી પૂ શ્રી ૧૦૦૮ જેઠમલજી મ. ની નેશ્રાય નીચે તન મન ધનથી જીવદયાનું કાર્ય કરે છે અને જીવદયાનું પત્ર પિતાને ખર્ચે છપાવી પ્રસિદ્ધ કરી હિદભરમાં તેમજ યુરોપ અમેરીકા આફ્રીકામા મેકલે છે હાલ તે સેવાભાવી કાર્યની પ્રવૃત્તિ કાયમ કર્યા કરે છે રાજકેટની ફલેર મીલના ઓનરરી પ્રમુખ : જેન બેડીંગના ઓનરરી કાર્યકર્તા તથા જીવદયા મડળના મંત્રી અને s. P. C. A.ને મંત્રી, રાજકોટ શહેરી મંડળના સેક્રેટરી તરીકે ઓનરરી સેવા કરી દરેકને પિતાની સેવાને સાથ આપવામાં તન મન ધનથી કેઈની પણ સેવા કરવામા કાયમ તત્પર રહે છે. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આઇ મુરબ્બીશ્રી મહું ધારશીભાઈ જીવનભાઈ શાહને ટુંક પરિચય મહુમ ધારશીભાઈ જીવનભાઈ શાહ, જેને ઓઈલ જીનપ્રેસ સાથે આ સિકાની શરૂઆતથી સંબંધ, પુના સાતે ડીવીઝનના જુદા જુદા સ્થળેના જુનામાં જુના અને અગ્રગણ્ય એજન્ટ તરીકે, જાણીતા છે. તેને જન્મ કાઠિયાવાડમાં પીપળીયા ગામમાં થયેલ માત્ર પ્રાથમીક કેળવણી લઈ, ૧૧ વર્ષની નાની ઉંમરે આગળ વધવાની ધગશ સાથે, માત્ર ખીસ્સામાં ૨ રૂા. જેટલી નજીવી રકમ સાથે વતન છેડયું મુંબઈ આવી મનજી નથુભાઈની પેઢીમાં ઓફીસ બેય તરીકે નોકરી લીધી, ત્યાં ઉત્તરેતર દરેક કામમાં ખંત રાખી સંતોષ આપતાં તેમને પુના મેકલવામાં આવ્યાં. પુનાથી કરમાલા આવી ખભા ઉપર તેલ ઉપાડી ફેરી પણ કરી અને ત્યાંના સબ એજન્ટોને એકદમ પ્રમાણીકપણે સખત કામ બતાવી, કરમાલા ગામમાં તેલની સગડીલરશીપ પ્રાપ્ત કરી ધીરે ધીરે તેજ પ્રમાણે મહેનત ચાલુ રાખતાં ૧૯૩૧માં જ્યારે બમશેલ અને એસ. વી. ઓ સી વચ્ચે ભાવની હરીફાઈ ઉપડી ત્યારે પિતાની સતત સેવા બતાવી બમશેલ પાસેથી ઘડીયાલ બક્ષીસ મેળવી અને તે લાઈનને તમામ કાર્યવાહીઓની ચાહના પ્રાપ્ત કરી. ધીરે ધીરે પિતાની ખંતથી તેવીજ એજન્સીઓ લીટન કુ, સીમેન્ટ ક, આઈ સી. આઈ. વિગેરેની પણ મેળવી પિતાના વ્યાપારની સારી જમાવટ કરી. સેલાપુર ડીસ્ટ્રીકટમાં સારા આબરૂદાર શહેરી તરીકે વગ તેમજ ચાહના મેળવી અને લેકસેવા પણ સાથે સાથે ચાલુ રાખી કરમાલા યુ ના પ્રેસીડન્ટ થયા. સેલાપુર ડીસ્ટ્રીકટમાં દેશ હિતના અનેક કામમાં તન, મન, ધનથી સારી સેવા બજાવી. તેનું ખાનગી જીવન પણ બહુ સાદું હોવાથી બધા તેને ચાહતા અને ધંધામાં પણ સારે લાભ મળે અને તેજ પ્રમાણે સેવાના તથા ધર્માદાના અનેક કાર્યોમાં સારી રકમ વાપરી. - પિતાના કુટુંબના વડા તરીકે પણ કુટુંબીજને, સગાં, સબંધીઓને દરેક રીતે માર્ગદર્શન આપી જુદા જુદા ધંધા તેમજ એજન્સીઓ વિગેરે મેળવી સ્થિરતા પ્રાપ્ત કરવામાં ઘણે પરિશ્રમ લીધે. યાત્રિક ખેતીની પ્રગતીના કાર્યસર વિલાયત જઈ આવ્યા, અમેરીકા જવા પણ ધારણ હતી ત્યાં લંડનમાં ૧૪-૭-૪ત્ના રેજ હૃદય બંધ પડી જતાં સ્વર્ગવાસ કર્યો. તેમની પાછળ બહેલું કુટુંબ, ઘણાં સગાં તેમજ સ્નેહીઓ મુકી ગએલ છે. જેઓ સર્વને પિતાની મીઠી યાદગીરી મુકી જીવનનું સાર્થક કરી ગએલ છે. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _onm28 १०२ ॥श्रीः ।। श्रीदशवैकालिकसूत्रस्य विषयानुक्रमः विषयः पृष्ठ | सं. विषयः प्रथमाध्यायनम् (१) शय्यातर(२३)विचारः१६६ १ मङ्गलाचरणम् (२) वसतियाचनाविधिः १६९ २ अहिंसास्वरूपम् (३) शय्यातरगृहे कल्प्या३ संयमस्वरूपम् कल्प्यविधिः १७१ __ मुखवत्रिका विचारः (४) शय्यातराहारविवेकः १७४ ४ तपःस्वरूपम् (५) शय्यातरपिण्डग्रहणे ५ धर्ममहिमा दोषाः १७९ ६ अहिंसा-संयम-तपोविवेकः २१ (५२) अनाचीर्णत्यागि७ गोचरीविवेकः महपिस्वरूपम् १८६ २२ अनाचीर्णत्यागफलम् १९१ ८ भिक्षामकाराः ९ भिक्षायां शिष्यप्रतिज्ञा चतुर्थाध्ययनम् १० साधुस्वरूपम् २३ प्रवचनस्याप्तोपदिष्टत्वम् १९५ द्वितीयाध्ययनम् २४ भगवच्छन्दार्थः १९७ ११ धैर्यधारणोपदेशः १०७ २५ पड्जीवनिकाया१२ श्रामण्याधिकारि ___(छज्जीवणिया)-शव्दार्थः १९८ लक्षणानि २६ महावीरशब्दार्थः १९९ १३ त्यागिस्वरूपम् ११३ २७ पड़जीवनिकायस्वरूपम् २०१ १४ कामरागदोपानुचिन्तनम् ११६ (१) पृथिवीकायसचित्तना २०५ १५ कामरागनिराकरणोपायः १३० (२) अप्कायसचित्तता २०९ १६ त्यक्तभोगाङ्गीकरणे (३) तेजस्कायसचित्तता २१२ सपदृष्टान्तः १३९ (४) वायुकायसचित्तता २१५ .१७ रथनेमि प्रति राजीम (५) वनस्पतिकायसचित्तता२१७ त्युपदेशः १४१ । (६) सकायवर्णनम् २२१ १८० रथनेमेधर्म संस्थितिः १४६ २८ पदजीवनिकायानां दण्ड१८ रथनेमे पुरुषोत्तमत्वसिद्धिः १४८ परित्यागः २२६ तृतीयाध्ययनम् २९ दण्डपरित्यागस्य सामान्य१९ महर्पिस्वरूपम् १५२ । विशेषत्वेन वैविध्यम् २३४ २० महीणाम् (५२) अना. ३० (१) प्राणातिपातविरमण चीर्णानि ९५८-१८५ स्वरूपम् २३९ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० द्रव्य-भावकर्मणोः कार्य- २४१ ३५० ३५२ ३५५ दशवै० विषया० सं. विषयः पृष्ठ | सं. विषयः पृष्ठ ३१ (२) मृपावादवि० स्व० २४३ / ५९ अनुत्तरधर्मस्पर्श कर्मरजो (३) अदत्तादानवि० स्व०२४८ धुननम् ३३ (४) मैथुनवि० स्व० २५३ ३४ (५) परिग्रहवि० स्व० २५६ कारणभावः ३४३ ३५ (६) रात्रिभोजनवि० स्व०२५८ ६१ शुक्लध्यानस्वरूपम् ३४४ ३६ उपसंहारः २६४ ६२ कर्मरजोधुनने केवलज्ञान३७ भिक्षुत्वसिद्धिः २६५ दर्शनप्राप्तिः ३८ (१) पृथिवीकाययतना २७४ ६३ केवलज्ञानदर्शनप्राप्ती ३९ (२) अप्काययतना २७६ लोकालोकज्ञानम् ४० (३) तेजस्काययतना २७९ ६४ लोकस्वरूपम् ४१ (४) वायुकाययतना २८२ ६५ अलोकस्वरूपम् ४२ (५) वनस्पतिकाययतना २८५ ६६ लोकालोकज्ञाने शैलेशी४३ (६) त्रसकाययतना २८८ करणप्राप्तिः ४४ अयतनाया दुःखदफूलम् २९१ ६७ शैलेशीकरणप्राप्तौ सिद्धिः ३६१ ४५ यतनावतो न पापकमेवन्ध २९७ ६८ सिद्धिमाप्तौ सिद्धस्य लोकाग्रे . ४६ ज्ञानस्य मुख्यत्वम् ३०० शाश्वतत्वम् ३६२ ४७ ज्ञानप्राप्त्युपायः ३०१ ६९ सिद्धानामूर्ध्वगतिस्वरूपम् ३६३ ४८ जीवाजीवज्ञानेन संयम ७० सिद्धावगाहनास्वरूपम् ३६७ ज्ञानं जीवगतिज्ञानं च ३०४ ७१ सुगतेदौर्लभ्यम् ३६९ ४९ जीवगतिज्ञानेन पुण्यादि- ७२ सुगतेः सौलभ्यम् ज्ञानम् ७३ उपसंहारः ५० पुण्यस्वरूपम् पञ्चमाध्ययनम् ५१ पापस्वरूपम् ३१४ (प्रथमोदेशः) ५२ जीवकर्मणोबन्धसिद्धिः ७४ भक्तपानगवेषणविधिः ३७५ ५३ बन्धस्वरूपम् ३२० ५४ मोक्षस्वरूपम् ७५ गोच-चित्तस्थैयौंपदेशः ३७८ ७६ गोचर्या गमनविधिः ३८१ ५५ पुण्यादिज्ञाने भोगनिर्वेदः ३३७ ७७ विषममार्गगमने विराधना ३८३ ५६ भोगनिदे संयोगत्यागः ३३८ । ७८ गमने पृथिवीकायादि५७ संयोगत्यागे अनगारता । यतना ३८५ प्राप्तिः ३३९ , ७९ ब्रह्मचर्यव्रतयतना ३८७ ५८ अनगारताप्राप्तौ ८० मागेयतना अनुत्तरधर्मस्पर्शः ३४० ८१ गोचयाँ कायचेष्टाप्रकारः ३९३ ३०५ ന ന ന ന് ३२५ ३९१ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ ४०८ ४४ दशवै० विषया० सं. विषयः पृष्ठ । सं. विषयः पृष्ठ ८२ गोचर्या गृहमवेशविधिः ३९९ १०६ कारणेगोचर्याभोजनविधिः४७७ ८३ विनाज्ञां द्वारोद्घाटन- | १०७ उपाश्रयागतस्यभोजनविधिः४८३ निषेधः ४०० | १०८ गोचरीसंजातातिचारा८४ गोचर्या मलमूत्रत्याग लोचनविधिः ४८५ विधिः १०९ आहारपरिभोगविधिः ४८८ ८५ भिक्षार्थ गृहप्रवेशविधिः ४०२ ११० मुधादायि-मुधाजीविनो८६ भिक्षार्थ स्थितस्य काय र्मोक्षावाप्तिः ४९६ चेष्टापकारः ४०४ (द्वितीयोद्दशः) ८७ गृहस्थगृहे स्थानविधिः ४०५ ८८ आहारग्रहणविधिः १११ आहारपरिभोगविधिः ४९८ ११२ समयमर्यादया गोचरी८९ संहरणस्य चतुर्भङ्गन्यः ४११ गमनोपदेशः(कालयतना) ५०१ ९० निक्षेपणचतुर्भङ्गन्यः ४१५ ११३ गोचर्या विचरणविवेकः ५०६ ९१ संघट्टनमकारः ९२ पुरस्कर्मस्वरूपम् ११४ भिक्षार्थ गृहप्रवेशविधिः ५०६ ९३ पुरस्कर्मपिताहारनिषेधः ४२३ ११५ पुष्पसंस्पर्शकहस्ताद्भिक्षा निषेधः ९४ पश्चात्कर्मपिताहारनिषेधः ४२६ ११६ सचित्ताहारनिषेधः ५१३ ९५ आहारग्रहणविवेकः ४२७ ११७ भिक्षाचरणे विवेकोपदेशः५१८ ९६ शङ्कितमुद्रिताहारनिषेधः ४३४ ११८ भिक्षापहवनिषेधस्तदोपाश्च५२५ ९७ दानाघोंपकल्पिताहार- ११९ गुरुपरोक्षेभिक्षापहारहेतुः ५२७ निषेधः १२० भिक्षापहारे दोपाः ५२९ ९८ औदेशिकायाहारनिषेधः ४४४ १२१ मद्यनिषेधः ५३१ ९९ आदेशिकाद्याहारस्वरूपम् ४४५/ १२२ मद्यपायिनो दोपप्रकटनम् ५३३ १०० पुष्पमिश्रितादिदोपपिता- १२३ मघादिविरतस्य गुणप्रकटनम्५३९ हारनिपेधः ४५२ १२४ तपआदिचोरस्य दोप१०१ दुर्गममार्गगमननिषेधः ४५७ प्रकटनम् १०२ मालाहृतभिक्षानिषेधः ४५९ । १२० तपादिचोरस्य दुप्फल१०३ आहारग्रहणविवेकः माप्तिः १०४ त्याज्यफलनामानि ४६५ / १२६ मायामृपात्यागोपदेशः ५४८ १०५ पानग्रहणविधिः ४६८ । १२७ अध्ययनपरिसमाप्तिः ५५१ । इति । ४१८ ४२० ५४२ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रीवीतरागाय नमः॥ जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यनीघासीलालबतिविरचितया आचारमणिमञ्जूषाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतं श्रीदशवैकालिकसूत्रम् मङ्गलाचरणम्. नम्रीभूतपुरन्दरादिमुकुट, भ्राजन्मणिच्छायया, चित्रानन्दकरी सदा भगवतो, यस्याङ्घिलक्ष्मीः परा । यद्विज्ञाननिरन्तसिन्धुलहरी, मन्नाः स्वकर्मक्षयं, कृत्वाऽनन्तसुखस्य धाम भविनः, प्रापुः श्रये तं जिनम् ॥१॥ विमलः केवलाऽऽलोक,-प्रभासंभारभासुरः। त्रिजगन्मुकरो धीरो, वीरो विजयतेतराम् ॥२॥ श्रीसुधर्मा महावीर-लब्धरत्नोज्ज्वलो गणी। निबबन्ध तदुक्तार्थ, नमस्तस्मै दयालवे ॥३॥ अर्थतत्करुणालब्ध,-विवेकामृतबिन्दुना। दशवकालिकव्याख्या, घासीलालेन तन्यते ॥४॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - %3 प श्रीदशकालिकम 1 , अथ सूत्रमाहमूलम्-धम्मो मंगलमुक्टिं, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्म सया मणौ ॥१॥ ___ छाया-धर्मों मङ्गलमुस्कृष्टम् , अहिंसा संयमस्तपः । - देवा अपि तं नमस्यन्ति, यस्य धर्मे सदा मनः ॥१॥ सान्वयार्थः-अहिंसा-माणव्यपरोपणका त्याग करने तथा जीवोंकी रक्षा करनेरूप अहिंसा, संजमो-संयम और तवो-तप ( यह ) धम्मो धर्म उचिg= उस्कृष्ट-सवसे श्रेष्ठ मंगलं मगल है-कल्याणकारी है। जस्स-जिसका मणो= मन सया-सदा-हमेशां धम्मे धर्म में ( लगा रहता है ) तं-उसको देवाविदेवताभी नमसंतिम्नमस्कार करते हैं, अर्थात् निरन्तर धर्ममें लीन प्राणी देवोंद्वारा भी पूज्य हो जाते हैं ॥१॥ टीका-'धम्मो मंगल-मित्यादि । धर्म: धरति माणिनो दुर्गतौ पतनाद् रक्षति शुभे स्थाने च स्थापयति यः स तथोक्तः । उक्तञ्च "दुर्गतिप्रसृतान् जन्तुन , यस्माद्धारयते पुनः । : धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद्धर्म इति स्मृतः ॥ १॥" इति । हिन्दी-भाषानुवाद. 'धम्मो मंगल' मित्यादि । जो नरक आदि दुर्गतिमें गिरते हुए प्राणियोंको बचाने और स्वर्ग-मोक्ष आदि शुभस्थानोंमें पहुंचावे उसे धर्म कहते हैं। कहा भी है-"दुर्गतिमें पड़ते हुए जीवोंकी रक्षा करता है और फिर उन्हें शुभगतिमें पहुंचाता है, इसीसे वह धर्म कहलाता है" ॥अर्थात् जो गुती-सापानुवाद. 'धम्मोमंगल' मित्याह रे न२४ मा तिभा पता प्रमाने બચાવે અને સ્વર્ગ મોક્ષ આદિ શુભ સ્થાનમાં પોંચાડે તેને ધર્મ કહે છે કહ્યું પણ છે કે- દુર્ગતિમા પડતા ની રક્ષા કરે છે અને પછી તેમને શુભ ગતિમાં પહોંચાડે છે, તેથી તે ધર્મ કહેવાય છે. અર્થાત દુઃખેથી Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ धर्ममहिमा उत्कृष्टम् उत्तमं, मगलं मङ्गलस्वरूपम् , कस्तादृशो धर्मः ? इत्यत आहअहिंसा संयमस्तप इति । तत्राऽहिंसा नाम हिंसावर्जनं प्राणिमाणरक्षणं तदिच्छा चेति । न हिंसा-अहिंसेति विग्रहे अहिंसाया अभावरूपत्वेनाऽवस्तुतया किमपि कार्य प्रति कारणत्वाऽनापत्तिरतोऽहिंसाऽपि भावरूपैव, तेन प्राणरक्षणमप्यहिंसाशब्दार्थः सिध्यति । ये तु स्वतः परतो वा प्राणिमाणरक्षणमहिंसेति न मन्यन्ते ते तु अहिंसाशब्दरहस्यानभिज्ञा एवेति बोध्यम् ।। दुःखोंसे छुडाकर प्राणियोंको अनन्त सुखकी प्राप्ति कराता है वही धर्म है। धर्म: उत्कृष्ट मङ्गल है। अहिंसा, संयम और तप, ये तीनों उसके लक्षण हैं। अहिंसा ___ हिंसाका त्याग करना अर्थात् प्राणियोंके प्राणोंकी रक्षा करना और उनके प्राणों के रक्षण की इच्छा रखना अहिंसा है। हिंसा के अभाव को अहिंसा कहा जाय तो अहिंसा अभावरूप हो जायगी । अभाव किसी कार्य के प्रति कारण नहीं हो सकता, इस कारण अहिंसा से स्वर्ग मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी, अतएव अहिंसा को भावरूप (वस्तुरूप) मानना उचित है, और जब कि वह वस्तुरूप है तो प्राणों की रक्षा करना अहिंसाशब्द का अर्थ सिद्ध हुआ। . जो जीवोंकी रक्षा करने कराने को अहिंसा नहीं मानते वे अहिंसा के यथार्थ तत्त्वको नहीं जानते । છોડાવીને પ્રાણીઓને અનંત સુખની પ્રાપ્તિ જે કરાવે છે, તે ધર્મ છે. ધર્મ ઉત્કૃષ્ટ મંગલ છે, અહિંસા, સંયમ અને તપ, એ ત્રણ તેનાં લક્ષણ છે. महिंसा હિંસાને ત્યાગ કર અર્થાત્ પ્રાણીઓના પ્રાણની રક્ષા કરવી અને તેમના પ્રાણોની રક્ષા કરવાની ઈચ્છા રાખવી એ અહિંસા છે. - હિંસાના અભાવને અહિંસા કહેવામાં આવે તે અહિંસા અભાવ–રૂપ થઈ જશે. અભાવ કેઈ કાર્યને પ્રતિ કારણ થઈ શકતું નથી, તેથી કરીને અહિસાથી સ્વર્ગ મોક્ષની પ્રાપ્તિ નહિ થાય એટલે અહિંસાને ભાવરૂપ (વસ્તુરૂ૫) માનવી જ ઉચિત છે. અને જે તે વસ્તરૂપ છે, તે પ્રમાણેની રક્ષા કરવી એવો અહિ સા શબ્દનો અર્થ સિદ્ધ થયે જેઓ જીવોની રક્ષા કરવી-કરાવવી એને અહિંસા નથી માનતા તેઓ અહિંસાના યથાર્થ તત્વને જાણતા નથી. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे उक्तं हि भगवता प्रश्नव्याकरणे प्रथमसंवरद्वारे " इम च णं सचजीवरक्खणदयढाए पावयणं भगवया मुकहियं " इत्यादि। सकलजीवानां रक्षणं माणव्यपरोपणवारणं प्राणरक्षणोपयोगी व्यापार इति यावत् तदर्थ, दया परदुःखप्रहाणेच्छा तदर्थ चेदं प्रवचनं भगवता मुकथितमित्यर्थः, उक्तच दयाशब्दार्थों वाचस्पत्याभिधाने " यत्नादपि परक्लेश, हत्तुं या हृदि जायते । इच्छा भूमिसुरश्रेष्ठ ! सा दया परिकीर्तिता ॥१॥” इति । तस्मात् सर्वप्राणिनां रक्षणं रक्षणेच्छा चेति द्वयमेवाहिंसातत्त्वं सकलधर्ममूलश्चेति। उक्तञ्च संस्तारकमकीर्णकटीकायाम् ___“न तदानं न तद्धयानं, न तज्ज्ञानं न तत्तपः । ___ न सा दीक्षा न सा भिक्षा, दया यत्र न विद्यते ॥ १ ॥ इति । भगवानने प्रश्नव्याकरणके प्रथम संवरद्वार में कहा है-" समस्त जीवों की रक्षा (मरते हुएको, अपने या दूसरोंके द्वारा बचाना) और दया (दुःखोंसे छुडानेकी इच्छा ) के लिए इस प्रवचनका उपदेश दिया है। ____ वाचस्पत्य महाकोशमें कहा भी है-" हे भूमिसुरश्रेष्ट ! प्रयत्नसे पर प्राणियोंके क्लेशको निवारण करनेके लिए हृदयमें जो इच्छा उत्पन्न होती है उसे दया कहते हैं " ॥१॥ संथारगपइन्नाकी टीकामें कहा है-“वह दान दान नहीं, वह ध्यान ભગવાને પ્રશ્નવ્યાકરણના પ્રથમ સંવદ્વારમાં કહ્યું છે કે- “બધા જીની રક્ષા (મરતા જેને પિતે અથવા બીજાઓ દ્વારા બચાવવા) અને દયા (દુ:ખથી છેડાવવાની ઈચ્છા)ને માટે આ પ્રવચનને ઉપદેશ આપે છે.” વાચસ્પત્ય મહાકેશમાં પણ કહ્યું છે કે- “હે ભૂમિસુર શ્રેષ્ઠ ! પ્રયત્ન વડે પર પ્રાણીઓના કલેશનું નિવારણ કરવાને માટે હૃદયમાં જે ઈરછા ઉત્પન્ન થાય तेने या छे." ॥ १ ॥ સંઘારગપઈનાની ટીકામાં કહ્યું છે કે- “એ દાન દાન નથી, એ ધ્યાન Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन १ गा. १ अहिंसास्वरूपम् तथा- “मूलं धम्मस्स दया, तयणुगयं सव्वमेवऽणुट्ठाणं । सिद्धं जिणिंदसमए, मग्गिज्जइ तेणिह दयालू ॥१॥" इति धर्मरत्नप्रकरणे । भगवतीसूत्रेऽपि पञ्चदशे शतके प्रोक्तम् " तए णं अहं गोयमा ? गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अणुकंपणट्टयाए वेसियायणस्स चालतबस्सिस्स तेयपडिसाहरणट्टयाए एत्थ णं अंतरा अहं सीयलियं तेयलेस्सं निसिरामि, जाए सा ममं सीयलियाए तेयलेस्साए वेसियायणस्स वालतवस्सिस्स सा उसिणा तेयलेस्सा पडिहया" इति । ध्यान नहीं, वह ज्ञान ज्ञान नहीं, वह तप तप नहीं, वह दीक्षा दीक्षा नहीं और वह भिक्षा भिक्षा नहीं, जहाँ कि दया नहीं है। अर्थात् दयारहित सब क्रियाएं मिथ्या यानी निष्फल हैं" ॥२॥ धर्मरत्नप्रकरणमें भी कहा है-" धर्मका मूल दया है। यापूर्वक की हुई समस्त क्रियाएं सफल होती हैं, इसलिए जिनेन्द्रके मार्गमें दयावान् ही धर्मका अधिकारी हो सकता है " ॥३॥ उक्त कथनसे यह स्पष्ट हो गया कि मरते हुए प्राणीको बचाना भी अहिंसा है। भगवतीसूत्रके पन्द्रहवें शतकमें भगवान् श्रीगौतमसे कहते हैं "हे गौतम ! मंखलिपुत्र गोशालककी अनुकम्पा करनेके लिए मैंने शीतल तेजोलेश्यासे बालतपस्वी वैश्यायनके द्वारा निकाली हुई उष्ण तेजोलेश्याका तेज शान्त करके उसे बचाया"। ધ્યાન નથી, એ જ્ઞાન જ્ઞાન નથી, એ તપ તપ નથી, એ દીક્ષા દીક્ષા નથી, અને એ ભિક્ષા ભિક્ષા નથી કે જ્યાં દયા નથી, અર્થાત્ દયારહિત બધી ક્રિયાઓ મિથ્યા એટલે નિષ્ફળ છે ” મે ૨ છે ધર્મરત્નપ્રકરણમાં પણ કહ્યું છે કે–“ધર્મનું મૂળ દયા છે, દયાપૂર્વક કરેલી બધી ક્રિયાઓ સફળ થાય છે, તેથી જીનેન્દ્રના માર્ગમાં દયાવાન જ ધર્મનો અધિકારી થઈ શકે છે ” છે ૩ ! ઉક્ત કથનથી એ સ્પષ્ટ થઈ ગયું કે મરતા પ્રાણને બચાવ એ પણ અહિંસા છે. ભગવતીસૂત્રના પાદરમા શતકમાં ભગવાન શ્રી ગૌતમને કહે છે है-" गौतम ! सतपस्वी वैश्यायन द्वा२१ दवामां मावदी GY तनલેશ્યાના તેજને શીતલ તેલેસ્યાથી શાંત કરીને; મખલિપુત્ર ગોશાલકની ઉપર દયા કરવા માટે મે તેને બચાવ્યું ? Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे हे गौतम ! मवलिपुत्रस्य गोशालकस्यानुकम्पनार्थ वालतपस्विनो वैश्यायनस्य तेजःप्रतिसंहरणार्थ च मया शीतलां तेजोलेश्यामुद्भाव्य तदीयोप्णा तेजोलेश्या प्रतिहतेत्यर्थः । तत्र 'अणुकंपणट्ठयाए ' 'तेयपडिसाहरणट्टयाए ' इति पदद्वयेन गोशालकरक्षणार्थ भगवतस्तेजोलेश्यासमुद्भव इति स्पष्टीभवति । न च रक्षणं यदि धर्मस्तहि स्वसमवसरणे वर्तमानौ सर्वानुभूतिमनक्षत्रनामानौ शिष्यौ किं न भगवता रक्षितौ ? इति वाच्यम् , भगवतः सर्वज्ञतया तयोरायु:समाप्तिसन्दर्शनात् । ननु यथा समाप्तायुपं कोऽपि नैव रक्षितुं प्रभवति तथा विधमानायुपं न कोऽपि हन्तुं शक्नुयात् ? इति चेन्न, त्रिपष्टिशलाकापुरुषान् देवान् यहां यह संदेह हो सकता है कि यदि बचाने में धर्म होता तो भगवान्ने अपने समवसरणमें स्थित सर्वानुभूति और सुनक्षत्र नामक शिष्यों को क्यों न बचाया ? इसका समाधान यह है कि-भगवान् सर्वज्ञ थे, इसलिए किसका आयुष्य कितना अवशेष है या समाप्त हो चुका है इसे वे अपने निर्मल केवल ज्ञानसे जानते थे । सर्वानुभूति और सुनक्षत्र शिष्योंका वर्तमान आयुष्य समाप्त हो चुका था। प्रश्न-जैसे वर्तमान आयुष्य समाप्त होने पर कोई किसीको यचा नहीं सकता वैसे ही आयुष्य रहते हुए कोई किसीको प्राणरहित भी नहीं कर सकता? અહીં એ સંદેહ થઈ શકે છે કે જે બચાવવામાં ધર્મ થાય છે તે ભગવાને પિતાના સમવસરણમાં રહેલા સર્વાનુભૂતિ અને સુનક્ષત્ર નામના શિષ્યને કેમ ન બચાવ્યા ? એનું સમાધાન એ છે કે ભગવાન સર્વજ્ઞ હતા, તેથી કોનું આયુષ્ય કેટલું અવશેષ રહ્યું છે અથવા સમાપ્ત થઈ ચૂકયું છે તે ભગવાન પિતાના નિર્મળ કેવળ જ્ઞાનથી જાણતા હતા સર્વાનુભૂતિ અને સુનક્ષત્ર શિનું વર્તમાન આયુષ્ય સમાપ્ત થઈ ચૂકયું હતું. પ્રશ્ન–જેમ વર્તમાન આયુષ્ય સમાપ્ત થવાથી કઈ કઈને બચાવી શકતું નથી, તેમજ આયુષ્ય બાકી હોય તે કઈ કઈને પ્રાણરહિત પણ કરી શકતું નથી Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - D अध्ययन १ गा. १ अहिंसास्वरूपम् ‘नारकांध विहायान्येपां प्राणिनामायुपः सत्त्वेऽपि विपशस्त्रादिगिरकालमरणसंभवात् , ईदृशस्याकालमरणस्य बहुशः शास्त्रे प्रतिपादितत्वाच, अत एवाऽऽयुषः सत्त्वेऽपि प्राणिनां प्राणव्यपरोपणं संभवतीति ग्रन्थविस्तरभिया विरमामः । एवञ्चाहिंसाशन्दस्योक्तार्थः सुस्पष्ट एव ।। . . अथ प्राणिप्राणरक्षणं तदिच्छा चेति द्वयम् 'अहिंसे'-ति सिद्धान्तितम् । .अहिंसा-इत्यत्र का नाम हिंसेति चेदुच्यते___ हिंसा नाम प्रमादपारवश्यात् प्राणव्यपरोपणम् । प्रमादश्व मध-विषयकषाय-निद्रा-विकथाभेदात्पञ्चधा, यद्वा अज्ञान-संशय-विपर्यय-राग-द्वेष- उत्तर-एसी शङ्का करना भी उचित नहीं है। क्योंकि त्रिषष्टिशलाकापुरुष, देवता और नारकोंके सिवाय समस्त प्राणियोंकी आयु रहते हुए भी विष शस्त्र आदि कारणोंसे अकालमृत्यु भी हो सकती है, यह बात शास्त्रसिद्ध है, अत एव आयुष्य के सद्भावमें भी प्राणोंका व्यपरोपण हो सकता है। विस्तार भयसे इस प्रकरणको यहाँ ही समाप्त करते हैं।. . । प्राणिप्राणरक्षण और उसकी इच्छाको अहिंसा कहते हैं। यह सिद्धान्त हुआ। • अहिंसा शब्द घटक जो हिंसा शब्द है उसका अभिप्राय क्या है ? इस पर कहते हैं-प्रमादके वश होकर प्राणका अतिपात करना हिंसा है। प्रमाद-(१) मद्य, (२) विषय, (३) कषाय, (४) निद्रा और (५) विकथाके भेदसे पांच प्रकारका, अथवा (१) अज्ञान, (२) संशय, ઉત્તર–એવી શકા કરવી જ ઉચિત નથી, કેમકે ત્રિષષ્ટિશલાકા પુરૂષ, દેવતા અને નારકીઓ સિવાય બીજા બધા પ્રાણીઓનું આયુષ્ય બાકી હોય તે પણ વિષ, શસ્ત્ર, આદિ કારણેથી તેમનું અકાળમૃત્યુ પણ થઈ શકે છે. એ વાત શાસ્ત્રસિદ્ધ છે. એટલે આયુષ્યને અભાવ હોવા છતાં પણ પ્રાણેનું વ્યપરપણુ થઈ શકે છે વધારે વિસ્તાર નહિ કરવાને આ પ્રકરણને અહીં જ સમાપ્ત કરીએ છીએ. પ્રાણિપ્રાણરક્ષણ અને તેની ઈચ્છાને અહિંસા કહે છે એ સિદ્ધાન્ત થયે. અહિંસા શબ્દમાં જે હિંસા શબ્દ છે એને અભિપ્રાય શું છે? આ સંબંધમાં કહે છે– પ્રમાદને વશ થઈને પ્રાણને અતિપાત કરે તે હિ સા છે (१) मध, (२) विषय, () ४षाय, (४) नि मने (५) वि४था, ये हे ४ीने प्रभा पांय प्रार!; मथवा (१) मज्ञान, (२) सशय, (3) विषय. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %3D श्रीदशवैकालिकसूत्रे स्मृतिभ्रंश-योगदुप्पणिधान-धर्मानादरभेदादष्टविधः। सा च हिंसा विविधाद्रव्यतो भावत उभयतश्चेति, तत्र द्रव्यतो हिंसा-आत्मनो विशुद्धपरिणामस्य सत्त्वेऽप्यकस्मादनिच्छया जन्तुविराधनं, यथा-भिक्षाचर्यादौ प्रवृत्तस्य समितिगुप्त्यादिधारकस्य चलनार्थ पादोत्याने कृते एकेन चरणेन तिष्ठतः साधोरुत्यापितचरणतले तदानी कुतविद्भयाद् दुर्लक्ष्यकारणवशाद्वा वेगेन समागतस्य कस्य चिद् दीन्द्रियादिजन्तोरितस्ततः साधुना तद्रक्षणप्रयासे कृतेऽपि अकस्माचरणतलसंलग्नतया विराधनम् । (३) विपर्यय, (४) राग, (५) द्वेष, (६)स्मृति-नंश, (७) योगदुष्पणिधान, (८) धर्मानादर, के भेदसे आठ प्रकारका है। हिंसा तीन प्रकारकी है-(१) द्रव्यहिंसा, (२) भावहिंसा और (३) उभयहिंसा। (१) द्रयहिंसा-आत्माके परिणाम विशुद्ध होने पर भी अकस्मात् इच्छाके विना ही जन्तुको पीडा हो जाना द्रव्यहिंसा है, जैसे-आहार विहार आदिमें प्रवृत्त, समिति और गुप्तिके धारण करनेवाले मुनिने जब एक चरण उठाया तो उठाये हुए चरणके नीचे किसी भयसे या अन्य कारणसे कोई दीन्द्रिय आदि लघुकाय जीव अचानक नीचे आ जाय और साधु उसकी रक्षा करनेका प्रयत्न भी कर रहे हों, फिर भी अचानक व जानेसे विराधना होना । इस प्रकारकी हिंसा, शरीरके (४) २१, (५) दे५, (6) स्मृतिश, (७) योग प्रणिधान, (८) धर्मना અનાદર, એ ભેદે કરીને પ્રમાદ આઠ પ્રકાર છે. सा ए] प्रा२नी छ:- (१) द्रव्यडिसा, (२) सापडिसा, मने (3) Gen (૧) દ્રવ્યહિંસા-આત્માના પરિણામ વિશુદ્ધ હોવા છતાં અકસ્મા, ઈચ્છા વિના જંતુઓની વિરાધના થઇ જાય તે દ્રવ્યહિંસા છે. જેમકે–આહાર વિહાર આદિમ પ્રવૃત્ત, સમિતિ અને ગુણિને ધારણ કરવાવાળા મુનિએ જ્યારે એક પગ ઉપાડે ત્યારે ઉપાડેલા પગની નીચે કાંઈ ભયને લીધે અથવા બીજા કઈ કારણથી કોઈ બેઈદ્રિય આદિ લધુકાય જીવ અચાનક પગ નીચે આવી જાવ, અને મુનિ એની રક્ષા કરવાનો પ્રયત્ન પણ કરી રહ્યા હોય, તો પણું અચાનક દબાઈ જવાથી વિરાધના થાય. આ પ્રકારની હિંસા, શરીરના પેગની ચપલતાને Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन १-गाः १ अहिंसास्वरूपम् एवंविधा च हिंसा काययोगस्य चपलतया सर्वथा परिहर्तुमशक्येति व्यवहार-नयमात्रगम्या। भावतो हिंसा-माणव्यपरोपणेच्छालक्षण आत्मनोऽशुद्धपरिणामः, यथामकरनानो जलजन्तुविशेषस्य भूपदेशे लब्धजन्मा तण्डुलदघ्नोऽन्तर्मुहूर्त्तायुष्कोऽन्तर्मुहूर्त्तमात्रगर्भनिवासानन्तरमुत्पादशीलस्तण्डुलाभिधानो मत्स्यविशेषस्तत्र स्थित एवावलोकयति मकरोऽयं मत्स्यानशितुं तावत्तुण्डतस्तोयमाकर्षति, ततश्च जलवेगादान'नान्त:समागतेषु प्रचुरतरेषुः मीनेषु पश्चात्तानवरुध्याऽऽस्यगतं नीरं निस्सारयोगकी चपलताको सर्वथा दूर करना अत्यन्त कठिन होनेके कारण व्यवहारनयमात्र है। (२) भावहिंसा-प्राणोंसे रहित करनेकी इच्छारूप आत्माका अविशुद्ध परिणाम, भावहिंसा कहलाती है। जैसे-मगर नामके जलचर-जीव-विशेषकी भोंह पर घारीक चाँवलके समान शरीरवाला एक तन्दुल नामका मत्स्य होता है; वह अन्तर्मुहूर्त गर्भमें रहकर जन्म लेता है, उसकी आयु अन्तर्मुहूर्त्तमात्रकी ही होती है। गर्भज होनेके कारण उसको मन होता है। वह वहाँ (भौंह पर) बैठा हुआमगरका कृत्य देखता है कि वह मगर जलजन्तुओंको खानेके लिए पहले अपने मुँहमें पानीको खींचता है, फिर पानीके वेगसे आईहुई मछलियों को मुँहमें रोककर जब पानीको निकालता है तब दांतोंके સર્વથા દૂર કરવી અત્યંત કઠિન હોવાને કારણે વ્યંવહારનયમાત્ર છે. - _' । (२) सावहिंसा-प्राथा हित ४२वानी ४२७।३५ मात्मानो भविशुद्ध પરિણામ એ ભાવહિંસા કહેવાય છે. જેમકે– મગર નામના એક જળચર પ્રાણીની ભમ્મર પર ચેખા જેવા બારીક શરીરવાળે એક તદુલ નામને મત્સ્ય થાય છે , એ મત્સ્ય અતિમુહૂર્ત ગર્ભમાં રહીને જન્મ લે છે. તેનું આયુષ્ય અતર્મુહર્ત જેટલું હોય છે તે ગર્ભ જ જીવ હોવાને લીધે તેને મન થાય છે તે મગરની ભમ્મર પર બેઠેબેઠે મગરનું કૃત્ય જુએ છે કે આ મગર જળમાંના જીને ખાવાને માટે પહેલાં પિતાના મહામાં પાણીને ખેચે છે, પછી પાણીને વેગથી આવેલી માછલીઓને મોંમાં રેકીને જ્યારે પાણીને કાઢી નાખે છે, ત્યારે દાંતના છિદ્રો દ્વારા પાણીની Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे यति तदा दशनान्तरावकाशनिर्गतोदकवेगतो वहुतरं मीना लघुतरा निस्सरन्त्येव । एवं चहिजतस्तानिरीक्ष्यासौ तण्डुलमत्स्यो मनसि विभावयति " यदि मम वपुरीदृशं बृहत् स्यात् तर्हि मम मुखान्निर्गन्तुमेकोऽपि मत्स्यो न शक्नुयात् , मया सर्वेऽपि भक्षिता भवेयुः" इति। इत्यं कलपिताध्यवसायरूपया भावहिंसया स्वकीयमन्तर्मुहर्तममाणमायुष्य समाप्य त्रयस्त्रिंशत्सागरप्रमाणं नरकायुष्यं निवध्यासौ (तण्डुलमत्स्यः) तमस्तमाऽभिधायां सप्तम्यां नरकपृथिव्यां नारकत्वेन समुत्पद्यते । यद्वा-अल्पीयसि प्रकाशे रज्जुमालोक्य 'व्यालोऽय'-मित्यालोचयतः छिद्रों द्वारा पानीके साथ-साथ बहुतसी छोटी२ मछलियां निकल जाती हैं, तब उन निकलती हुई मछलियोंको देखकर तन्दुलमत्स्य विचारता है. कि इस (मगर) के तो दांतोंके छिद्रों द्वारा यहुतसी मछलियां निकल जाती हैं, किन्तु, अगर मेरा शरीर मगरके यरायर बड़ा होता तो मैं इनमेंसे एकको भी नहीं निकलने देता-सयको भक्षण कर जाता। इस प्रकार वह परम कलुषित अध्यवसायस्प भावहिंसासे तेंतीससागरप्रमाण नरकायुष्य वांधकर अन्तमहतकी अपनी आयुप्यको समाप्त करके तमतमा नामकी सातवी नरकपृथिवीके अन्दर नारकीपनमें उत्पन्न होता है। ___ अथवा जैसे-मन्द-मन्द प्रकाशमें किसी हिंसकने रस्सीको सर्प સાથે સાથે ઘણી નાની નાની માછલીઓ બહાર નીકળી જાય છે. એ નીકળી જેતી માછલીઓને જોઈને તંદુલ મત્સ્ય વિચારે છે કે આ મગરના દાંતનાં છિદ્રોની વાટે ઘણીય માછલીઓ બહાર નીકળી જાય છે, પરંતુ જે મારું શરીર મગરના જેટલું મોટું હેત તે હું એમાંથી એક પણ માછલીને બહાર નીકળવા ન દેતબધીયનું ભક્ષણ કરી જાત. આ પ્રમાણે એ પરમ કલુષિત અધ્યવસાયરૂપ ભાવહિંસાથી તેત્રીસ સાગરનું નરકાયુષ્ય બાંધીને અતર્મુહૂર્તનું આયુષ્ય સમાપ્ત કરે છે અને તમતમાં નામની સાતમી નરકમૃથિવીની અંદર નારકીપણે ઉત્પન્ન થાય છે. અથવા જેમ–મંદ મંદ પ્રકાશમાં કઈ હિંસકે દેરડાને સર્પ સમજીને કૂર Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन १ गा. १ संयमस्वरूपम् शस्त्रादिना तत्पहरणं तदभिलापमात्रं वा रज्जोरचेतनत्वेन प्राणव्यपरोपणाsभावेऽपि आत्मन उक्तस्वरूपाऽशुद्धपरिणामोदयाच्चतुर्गतिभवभ्रमणहेतुर्वन्धो नियतं भवति । उभयतो हिंसा-आत्मनोऽशुद्धपरिणामपूर्वकं प्राणव्यपरोपणं, यथा-केनचिद् व्याधेन मृगजिघांसया शरप्रक्षेपेण कृतं तद्धननम् । संयमः। संयमा संयमनं सम्यगुपरमणं सावधयोगादिति संयमः, स च सप्तदशविधः, समझकर क्रूर परिणामसे मारा, या मारने का प्रयास किया तो वहाँ रस्सीके अचेतन होने के कारण यद्यपि प्राणोंका व्यपरोपण नहीं हुआ तथापि आत्मामें अशुद्ध परिणामके उदय होनेसे वह भी भावहिंसा है। उस हिंसासे निश्चय ही चतुर्गतिमें परिभ्रमण करानेवाले कर्मोंका बन्ध होता है। _ (३) उभयहिंसा-अशुद्ध परिणामोंसे जीवका घात करना उभयहिंसा है, क्योंकि इस हिंसामें आत्माके अशुद्ध परिणाम और प्राणोंका नाश दोनों पाये जाते हैं, जैसे-कोई व्याध हरिणको मारनेकी इच्छासे बाण चलाता है और उससे उसके प्राणोंका नाश हो जाता है। __ संयम। सावद्ययोगसे सम्यक्प्रकारसे निवृत्त होनेको संयम कहते हैं । वह પરિણામથી માર્યો, અથવા મારવાનો પ્રયાસ કર્યો, તે તેમાં દોરડું અચેતન હવાથી જે કે પ્રાણુનું વ્યરે પણ થયું નહિ, તે પણ આત્મામાં અશુદ્ધ પરિણામને ઉદય હોવાથી એ પણ ભાવહિંસા છેઆ હિંસાથી નિશ્ચિતપણે ચતુર્ગતિમાં પરિભ્રમણ કરનારા કર્મોને બધ થાય છે. . (૩) ઉભયહિંસા અશુદ્ધ પરિણામેથી જીવને ઘાત કરે એ ઉભયહિંસા છે, કેમકે એ હિંસામાં આત્માને અશુદ્ધ પરિણામ તથા પ્રાણને નાશ બને રહેલા હોય છે જેમકે–કેઈ પારધી હરણને મારવાની ઈરછાથી બાણ છેડે છે અને એ રીતે હરણના પ્રાણને નાશ થઈ જાય છે. સંયમ સાવધેયેગથી સમ્યફ પ્રકારે નિવૃત્ત થવું તેને સંયમ કહે છે. સંયમ સત્તર Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्रीदशवकालिकमूत्रे तदुक्तं समवाया)___ " सत्तरसविहे संजमे पण्णचे तंजहा-(१) पुढवीकायसंनमे (२) आउकायसंजमे (३) तेउकायसंजमे (४) वाउकायसंजमे (५) वणस्सइकायसंजमे (६) वेइंदियसंजमे (७) तेइंदियसंजमे (८) चउरिदियसंजमे (९) पंचिंदियसंजमे (१०) अजीवकायसंजमे (११) पेहासंजमे (१२) उवेहासंजमे (१३) अवहट्ट(परिद्वावणा)संजमे (१४) पमज्जणासंजमे (१५) मणसंजमे (१६) वयसंजमे (१७) कायसंजमे" इति । छाया-सप्तदशविधः संयमः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-(१) पृथिवीकायसंयमः (२) अप्कायसंयमः (३) तेजस्कायसंयमः (४) वायुकायसंयमः (५) वनस्पतिकायसंयमः (६) द्वीन्द्रियसंयमः (७) श्रीन्द्रियसंयमः (८) चतुरिन्द्रियसंयमः (९) पञ्चेन्द्रियसंयमः (१०) अजीवकायसंयमः (११) प्रेक्षासंयमः (१२)उपेक्षासंयमः (१३) अपहत्यसंयमः । (१४) प्रमार्जनासंयमः (१५) मनःसंयमः (१६) वाक्संयमः (१७) कायसंयमः। तत्र (१) पृथिवीकायसंयमः सचित्तपृथिव्या हस्तपादादिना संघटनादिसतरह प्रकारका है। समवायाङके सतरहवें समवायमें कहा है(१)पृथिवीकायसंयम, (२)अपकायसंयम, (३)तेजस्कायसंयम,(४) वायुकायसंयम, (५) वनस्पतिकायसंयम, (६) हीन्द्रियसंयम, (७) श्रीन्द्रियसंयम, (८) चतुरिन्द्रियसंयम, (२) पञ्चेन्द्रियसंयम, (१०) अजीवकायसंयम, (११) प्रेक्षासंयम, (१२) उपेक्षासंयम, (१३)अपहृत्यसंयम (परिछापनासंयम),(१४)प्रमार्जनासंयम, (१५)मनःसंयम, (१६) वाक्संयम, (१७) कायसंयम । (१) पृथिवीकायसंयम हाथ पैर इत्यादिसे सचित्त पृथिवीका संघटन (संघटा) आदिका वर्जन करना। પ્રકારનું છે. સમવાયાંગના સત્તરમા સમવાયમાં તે પ્રકારો કહ્યા છે. (१) पृथिवीडायसयम, (२) २५५४ायसयम, (3) त यसयम, (४) वायुयसयम, (५) वनस्पतियसयम, (६) दीन्द्रियसंयम, (७) त्रीन्द्रिय यम, (८) यतुरिन्द्रयसयम, (८) ५येन्द्रियसयम, (१०) म९८५४ायसयम (११) प्रेक्षायम, (१२) पेक्षासयम, (१३) २५५त्यस यम ( पिनासय ), (१४) मनासयम, (१५) मनः सयम, (१६) पासयम, (१७) ४यसंयम. . (૧) પૃથિવીકાયસંયમ–હાથ પગ ઈત્યાદિથી સચિત્ત પૃથિવીનું સંઘટન વગેરેને વર્જવું Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ - अध्ययन १ गा. १ संयमस्वरूपम् विरतिः (२) अप्कायसंयमा सचित्तजलस्य संघटनाधकरणम् , (३) तेजस्कायसंयमा पचनपाचनादिनिमित्तकाऽनलारम्भनिवर्त्तनम् ; (४) वायुकायसंयमा= वस्त्रपात्रव्यजनवक्त्रादिसमुत्पन्नवायुजनितवायुकायोपमर्दननित्तिः, तत्र वस्त्रपात्राणामयतनया निक्षेपणादानप्रक्षेपनिपातनादिकारणवशात् , तथा तेषां (वस्त्रपात्राणां) व्यजनपर्णशाखादीनां च विधूननेन वायुकायविराधनं भवति । अनावृतमुखेन संभाषणे च तन्निर्गतोप्णवायुना तद्विराधनं जायते । (६) वनस्पतिकायसंयमः तरुलतिकादिहरितकायमात्रस्य संघटनादिवर्जनम् । (२) अप्कायसंयम सचित्त जलका संघटा आदि न करना। (३) तेजस्कायसंयम-पचन पाचन आदि किसी प्रयोजनके लिए अग्निके संघटा आदिका वर्जन करना। __ (४) वायुकायसंयम वस्त्र, पात्र, पंखा, फूंक आदिसे उत्पन्न हुए वायुद्वारा वायुकायकी विराधनाका वर्जन करना। वस्त्र, पात्रोंको अयतनासे रखनेसे, अयतनासे लेनेसे, फेंकनेसे, गिरानेसे, तथा वस्त्र, पात्र, पंखा आदिको हिलाकर वायुकायकी उदीरणा करनेसे तथा बोलते समय उष्णवायुनिकलनेके द्वारा मुखसे वायुकायकी विराधना होती है। (५) वनस्पतिकायसंयम-वृक्ष, लता आदि हरित कायके संघटा आदिसे निवृत्त होना। (૨) અકાયસયમ–સચિત્ત જલનું સ ઘટન આદિ ન કરવું (૩) તેજસ્કાયસંયમ–રાંધવું, રંધાવવું વગેરે કઈ પ્રજનને માટે અગ્નિનું સ ઘટન આદિને વર્જવું (४) वायुयस सम-१२, पात्र, ५, ४ त्याहिथी उत्पन्न थमेला વાયુદ્વારા વાયુકાયની વિરાધના વવી. વસ્ત્ર, પાત્રે ઈત્યાદિને અયતનાપૂર્વક રાખવાથી, અયતનાપૂર્વક લેવાથી, ફેકવાથી, પાડવાથી, તથા વસ્ત્ર–પાત્ર–પ વગેરેને હલાવીને વાયુકાયની ઉદીરણ કરવાથી તથા ખેલતી વખતે મુખના ઉના વાયુથી વાયુકાયની વિરાધના થાય છે. (૫) વનસ્પતિકાયસંયમ–વૃક્ષ, લતા આદિ હરિતકાયના સંઘટન આદિથી નિવૃત્ત થવું. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीदशबैकालिकसूत्रे एवं (६) द्वीन्द्रियादि- (९) पञ्चेन्द्रियपर्यन्तानां सर्वथाऽनुपमर्दनं तत्तसंयमः (१०) अजीवकायसंयमः बहुमूल्यवतां वस्त्रपारादीनामनुपादानम् , उपादेयवस्त्रपात्रादीनां सयत्नमुपादानं स्थानं च, (११) प्रेक्षासंयमा वसतिवस्त्रपात्रादीनां सयतनं सविधि प्रतिलेखनम् , (१२) उपेक्षासयमा संयममार्गे क्लेशमाकलयतोऽ संयममार्गे प्रवर्तमानस्य वा स्त्रात्मनः परस्य वा असंयमदोपान् संयम (६-७-८-२) डीन्द्रियादिसंयम-दीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और पञ्चेन्द्रिय जीवोंका सर्वथा उपमर्दन न करना तत्तत्संयम, अर्थात् हीन्द्रियसंयम, श्रीन्द्रियसंयम, चतुरिन्द्रियसंयम, पश्चेन्द्रियसंयम कहलाता है। (१०) अजीवकायसंयम बहुत मूल्यवाले वस्त्र पात्र आदिका ग्रहण न करना, तथा कल्पनीय वस्त्र पात्र आदि को यतनाके साथ लेना और रखना। (११) प्रेक्षासंयम वसती, वस्त्र, पात्र, पाट, पाटला आदिका यतनापूर्वक सविधि प्रतिलेखन करना। (१२) उपेक्षासंयम संयममार्गमें अनुकूल प्रतिकूल परिपहोंसे क्लेशका अनुभव करनेवाले, अथवा असंयनमें प्रवृत्ति करनेवाले स्वपरकीआत्माको संयमके गुण और असंयमके कोप समझाकर फिर संयममार्गमें प्रवृत्त (६-७-८-८) द्वीन्द्रियाशियम-दीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, यतुरिन्द्रिय, भने પંચેન્દ્રિય નું સર્વથા ઉપમન ન કરવું, તે તે પ્રકારને સંયમ, અર્થાત પ્રિન્દ્રિયસંયમ, ત્રીન્દ્રિયસંયમ, ચતુરિન્દ્રિયસંયમ અને પચેન્દ્રિયસંયમ કહેવાય છે (૧૦) અછવકાયસંયમ–મૂલ્યવાન વસ્ત્ર પાત્ર આદિને ગ્રહણું ન કરવાં, તથા કપે તેવાં જ વસ્ત્ર પાત્ર આદિ યતનાપૂર્વક લેવાં તથા રાખવાં. (११) प्रेमासयभ-सती, पक्ष, पात्र, पाट, पासा त्याने यतनाપૂર્વક તથા વિધિસર પ્રતિલેખન કરવા. (૧૨) ઉપેક્ષાસંયમ–સંયમમાર્ગમાં અનુકૂળ-પ્રતિકૂળ પરિપથી હેશને અનુભવ કરનારા, અથવા અસંયમમાં પ્રવૃત્તિ કરનારા, સ્વપરના આત્માને સંયમના ગુણ તથા અરયમના દેવ સમજાવીને પછી સંયમમાર્ગમાં Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ संयमस्वरूपम् गुणांश्चावबोध्य संयमयोगेषु प्रवर्त्तनं संयमसमीपानयनलक्षणं संयमसामीप्यदर्शनमित्यर्थः । यद्वा प्रेक्षासंयमा सकृत्पतिलेखनम् । उपेक्षासंयमा पुनः पुनः पतिलेखनम् । (१३) अपहत्य (परिष्ठापना) संयमा उच्चारादीनां विधिना समुत्सर्गः परिष्ठापनमित्यर्थः । (१४) प्रमार्जनासंयम विधिना वसतिपात्रादेः परि• शोधनम् । (१५-१६-१७) मनोवाकायसंयमः अकुशलानां मनोवाक्कायानां -निरोधेन कुशलानामुदीरणम् । तत्राऽऽतरौद्रध्यानपरिहारपूर्वकधर्मशुक्लध्यानप्रवर्त्तनं मनःसंयमः । सावधपरिहारपूर्वकनिरवद्यभापणं वाक्संयमः । अयतनापरिकरना । अथवा वस्त्र पात्र आदिके उपभोग करले समय एक बार प्रतिलेखन करना प्रेक्षासंयम है, और वारंवार चारों ओरसे प्रतिलेखन करना उपेक्षासंयम है। (१३) अपहृत्य(परिष्ठापना)संयमयतनापूर्वक उच्चार-प्रस्रवणको त्यागना। (१४) प्रमार्जनासंयमयतनाके साथ वसती वस्त्र पात्र आदिको पूँजना (प्रमार्जन करना)। (१५) मनःसंयम अकुशल मनकानिरोध करके कुशल मनकी प्रवृत्ति करना, अर्थात् आर्तध्यान और रौद्रध्यानकात्याग करके धर्म और शुक्लध्यानमें मनको लगाना। (१६) वचनसंयम अशुभ (सावद्य) वचनकात्यागकर शुभ (निरंवद्य) वचन बोलना। પ્રવૃત્ત કરવા અથવા વસ્ત્ર–પાત્ર આદિને ઉપલેગ કરતી વખતે એકવાર પ્રતિલેખન [ કરવું એ પ્રેક્ષારયમ છે, અને વાર વાર ચારે બાજુએથી પ્રતિલેખન કરવું. એ ઉપેક્ષાસ યમ છે (१३) मपत्य (परिष्ठा५) सयभ-यतनापूर्व' स्या२-प्रश्नपने પરિઠવવાં–ત્યજવાં (૧૪) પ્રમાર્જના સંયમ–ચતનાપૂર્વક વસતી વસ્ત્ર પાત્ર આદિને ५०वा (प्रभा i) (૧૫) મનઃ સંયમ–અકુશળ મનને નિરોધ કરીને કુશળ મનની પ્રવૃત્તિ કરવી, અર્થાત્ આર્તધ્યાન અને રોદ્રધ્યાનને ત્યાગ કરીને ધર્મધ્યાન તથા શુકલધ્યાનમા મનને લગાડવું (१६) क्यनसयम-मशुम क्यनना त्याग ४शन शुम क्यन मासi. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे हारेण यवनापुरस्सरकायप्रवर्तनं कायसंयम इति विवेकः । प्रकारान्तरेणापि संयमः सप्तदशविधः, यथा " पञ्चाववाद्विरमणं, पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कपायजयः । दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः ॥१॥” इति । तत्र पञ्चास्रवविरमणं-पञ्चास्त्रवाः प्राणातिपातादय एतेभ्यो विरमण-निवृत्तिः (५),पत्रेन्द्रियनिग्रहः तत्तद्विपयेवमवर्तनम् , इष्टानिष्टेषु शब्दादिषु रागद्वैपाकरणमित्यर्थः (१०), कपायजया उदयभावममाप्नुवतां क्रोधादीनां चतुर्णी निरोधः, उदयभावं प्राप्तानां च तेपां निप्पलीकरणम् (१४) दण्डत्रयविरतिः दण्डयतेरलत्रयैश्वर्यापहारादसारीक्रियते आत्मा यैरिति दण्डास्तेषां त्रयं दण्डत्रयं मनोदण्ड-बचोदण्ड-कायदण्ड-लक्षणास्त्रयो दण्डा इत्यर्थः, तस्माहिरतिः नित्तिः(१७) (१७) कायसंयम अयतनाको छोडकर यतनापूर्वक ही कायकी प्रवृत्ति करना। संयमके सत्तरह भेद दुसरे प्रकारसे भी होते हैं, जैसे-प्राणातिपात आदि पांच आस्रवोंका विरमण (५), पांच इन्द्रियोंके इष्ट विषयोंमें राग न करना, अनिष्ट विषयोंमें ढेष न करना(१०), उदयमें न आएहुए क्रोध आदि चार कपायोंका निरोध करना और उदयमें आये हुएको निष्फल करना, जैसे-क्रोधका उदय होने पर क्षमा रखना, मानका उदय होनेपर मादव भाव रखना, मायाका उदय होने पर सरलता रखना, और लोभकपायका उदय होने पर निर्लोभता धारण करना (१४), ज्ञान आदि गुणोंका अपहरण (नाश) करके आत्माको दरिद्र घनानेवाले मनदण्ड वचनदण्ड, और कायदण्डका त्याग करना (१७), (૧૭) કાયસંચમ–અયતનાને ત્યજીને યતનાપૂર્વકજ કાયાની પ્રવૃત્તિ કરવી. સંયમના સત્તર ભેદ બીજે પ્રકારે પણ થાય છે. જેમકે પ્રણાતિપાત આદિ પાંચ આસનું વિરમc. (૫), પાંચ ઇન્દ્રિયના ઈષ્ટ વિષયોમાં રાગ ન કર, અનિષ્ટ વિષયોમાં હેપ ન કર (૧૦), ઉદયમાં ન આવેલા કે આદિ ચાર કષાયે નિધ કરે અને ઉદયમાં આવેલાને નિષ્ફળ કરવા જેમકે ક્રોધને ઉદય થતા ક્ષમા રાખવી, માનને ઉદય થતાં માવાવ રાખ, માયાને ઉદય થતાં સરલતા રાખવી, અને લેભકષાયને ઉદય થતાં નિલભતા ધાર૩ કરવી (૧૪), જ્ઞાન આદિ ગુણે અપણુ (નાશ) કરીને આત્માને દરિદ્ર બનાવનારા મનદંડ, વચનદંડ અને કાયદાને ત્યાગ કરવા (૧૭), Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन १ गा. १ संयमस्वरूपम् पूर्व वायुकायसंयमविषये प्रोक्तं यत् – 'अनाहतमुखेन संभाषणे मुखनिर्गतोष्णवायुना वायुकायविराधनं जायते' इति, तत्र केचिदेवं वदन्ति-आत्मा हि भाषणकाले चतुःस्पर्शवतो भाषावर्गणापुद्गलान गृह्णाति तैर्वायुकायस्य विराधना न संभवति तस्यापि चतुःस्पर्शवत्वादिति. तेषामपर्याप्तमेतत्कथनम् , वस्तुतस्तु आत्मा पूर्व चतुःस्पर्शकपुद्गलानेच गृह्णाति किन्तु संभाषणसमये तैजसशरीरं संगृह्मैव भाषापुद्गला निस्सरन्तीति तैजसशरीरसम्बन्धेन तेऽष्टस्पर्शवन्तो जायन्ते तस्मादनिवार्या वायुकायविराधना। पहले वायुकायसंयममें कहा है कि-बोलते समय मुखसे निकलनेवाली वायु गर्म होती है और इसी कारण उससे वायुकायके जीवोंकी विराधना होती है। ___ यहां कुछ लोगोंका कहना है कि आत्मा चार स्पर्शवाले भाषावर्गणाके पुद्गलोंको ग्रहण करती है और चार स्पर्शवाले पुद्गलों से वायुकायकी विराधना नहीं हो सकती, क्योंकि वायुकायके जीवभी चार स्पर्शवाले होते हैं । उनका यह कथन अधूरा है। बात वास्तव में यह है कि आत्मा ग्रहण तो चार स्पर्शवाले पुद्गलों का ही करती है किन्तु भाषण करते समय तैजस शरीरको ग्रहण करके ही भाषा-पुद्गल निकलते हैं।तेजस शरीरके सम्बन्धसे भाषा-पुद्गल आठ स्पर्शवाले हो जाते हैं, और आठ स्पर्शवाले होने से उनसे वायुकाय आदि की विराधना अवश्य होती है। પૂર્વે વાયુકાય-સંયમમાં જે કહ્યું છે કે – ખુલે મેં બેલવામાં મુખમાથી નીકળતા ગરમ વાયુ વડે વાયુકાયના જીની વિરાધના થાય છે. ત્યાં કેટલાક લેકેનું કહેવું એવું છે કે આત્મા ચાર સ્પર્શવાળા ભાષાવર્ગણના પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરે છે અને ચાર સ્પર્શવાળા પગલેથી વાયુકાયની વિરાધના થઈ શકતી નથી કેમકે વાયુકાયના જી પણ ચાર સ્પર્શવાળા હોય છે. એમનું એ કથન અધૂરું છે. વસ્તુતઃ વાત એવી છે કે આત્મા ગ્રહણ તે ચાર સ્પર્શવાળા પુદગલોનું જ કરે છે, કિન્તુ બોલતી વખતે તેજસ શરીરને ગ્રહણ કરીને જ ભાષાપુગલે નીકળે છે તેજસ શરીરના સંબંધથી ભાષા-પુદગલ આઠ સ્પર્શવાળા થઈ જાય છે, અને આઠ સ્પર્શવાળા થવાથી, તેનાથી વાયુકાય આદિની વિરાધના અવશ્ય થાય છે. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ श्रीदशवकालिकस्त्रे । मुखवस्त्रिकाविचारः। ननु मुखोप्णवायुनाऽपि यदि वायुकायविराधनं तहि मुनीनां कथं वायुकायसंयमः? इति चेत् न, यतो भगवता श्रीतीर्थङ्करेण मुनीनां वायुकायसंयमार्य मुखवस्त्रिकावन्धनं प्रतिपादितम् । तद्विना हि श्रीव्याख्यामज्ञप्तौ पोडशतमशतकस्य द्वितीयोद्देशे भगवता शक्रेन्द्रस्यापि भाषणं सावधत्वेन परिकथितं, तथाहि___'गोयमा! जाहे णं सक्के देविदे देवराया सुकुमकायं अगिजूहिताणं भासं भासति ताहे णं सके देविदे देवराया सावज्ज भासं मासह। जाहे णं सके देविंदे देवराया मुहुमकायं णिहिताणं भासं भासइ ताहे सके देविदे देवराया असावन्नं भासं भासह' इत्यादि। ___'गौतम ! यदा शक्रो देवेन्द्रो देवराजः सूक्ष्मकायमपोह्य मापां भापते तदा शक्रो देवेन्द्रो देवराजः सावद्यां भाषां भापते । यदा शक्रो देवेन्द्रो देवराजः सूक्ष्मकायं दत्त्वा भापां भापते तदा शक्रो देवेन्द्रो देवराजः असावयां भापां भाषते' इति संस्कृतम् । मुखवस्त्रिकाविचार. जय मुखसे निकलनेवाली वायुसे वायुकाय की विराधना होती है, तो मुनि वायुकायका संयम कैसे पाल सकते हैं ? इस प्रभ का उत्सर यही है कि वायुकायके संयमके लिए ही तीर्थकर गणधर भगवान्ने मुखवस्त्रिका धारण करना बताया है। भगवतीसूत्र सोलहवें शतक के दूसरे उद्देशमें भगवानने विना मुखवत्रिकाके इन्द्र महाराजके भाषणको भी सावध बताया है; यथा-" गोयमा !" इत्यादि । સુખસ્ત્રિકાવિચાર જે મુખમાંથી નિકળનારા વાયુથી વાયુકાયની વિરાધના થાય છે, તે મુનિ વાયુકાયને સંયમ કેવી રીતે પાળી શકે છે? એ પ્રશ્નને ઉત્તર એ છે કે વાયુકાયના સંચમને માટે જ તીર્થંકર ગણધર ભગવાને મુખવસ્ત્રિકા ધારણ કરવાનું બતાવ્યું છે. ભગવતીસૂવના એળમા શતકના બીજ ઉદેશમાં મુખવઝિકા વિનાના - भान पाने लगाने साप ताब्यु - 'गोत्यमा'त्या. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः अयमाशयः-मुखवत्रिकाधारणं विना भाषणे वायुकायादिविराधनस्य दुर्वारतया भाषा सावद्या भवतीति । एतद्वयाख्याने अभयदेवमूरिणाऽपि-"जीवसंरक्षणतोऽनवधा भाषाभवति, अन्या तु सावधे" त्युक्तम् । 'सुहुमकायं अणिजूहित्ताणं' इत्यस्य हि वस्त्रमपोध मुखोपरि वस्त्रमदत्त्वे (मवद्ध्वे)त्यर्थः । यदन्वयव्यतिरेकाभ्यां भाषाया निरवद्यत्वं सावधत्वं च भवति, भाषाभिव्यक्तिश्च मुखाद्भवतीति मुखे ध्रियमाणं वस्त्रं 'मुखवस्त्रिका' शब्देन शास्त्रे व्यवहियते । 'शक' इत्येव वक्तव्ये 'देवेन्द्रो देवराजः' इति विशेषणोक्त्या दिव्यशक्ति___ तात्पर्य यह है कि मुखवस्त्रिका धारण किये बिना भाषण करनेसे वायुकायकी विराधना अनिवार्य है, अत एव वह भाषा सावध है। इसका व्याख्यान करते हुए अभयदेवसूरि लिखते हैं-"जीव संरक्षणतोऽनवद्या भाषा भवति अन्यातुसावथा।" अर्थात् जीवों की रक्षा होनेसे भाषा निरवध होती है और इससे भिन्न (जीवों की घात करने वाली) भाषा सावध होती है। मूल पाठके 'सुहुमकायं अणिज्जूहित्ताणं' इस पदका अर्थ यह है कि-'मुख पर वस्त्र नधारण करके' जहाँ वस्त्र धारण नहीं वहाँ भाषा सावध होती है, और जहां वस्त्र धारण होता है वहाँ भाषा निरवद्य होती है। भाषा मुखसे निकलती है, इसलिए मुख पर धारण किया जानेवाला वस्त्र 'मुखवस्त्रिका' कहलाता है। मूलमें 'शक' कहनेसे ही इन्द्रका बोध हो सकता था; किन्तु તાત્પર્ય એ છે કે મુખવસ્ત્રિકા ધારણ ક્યાં વિના ભાષણ કરવાથી વાયુકાયની વિરાધના અનિવાર્ય છે, તેથી કરીને એ ભાષા સાવદ્ય છે. એનું વ્યાખ્યાન ४२तi मलयव सूरि समे छ " जीवसंरक्षणतोऽनवधा भाषा भवति अन्या तु सावधा" अर्थात् वानी २क्षा पाथी भाषा निरव थाय छ मन मेथी ભિન્ન ( જીની ઘાત કરવાવાળી ) ભાષા સાવદ્ય હોય છે. મૂળ પાઠનાં 'मुहुमकायं अणिज्जूहिताणं' पहना अर्थ में छे ? ' भुम ५२ प न पाए કરીને, જ્યાં વસ્ત્ર ધારણ નથી, ત્યાં ભાષા સાવદ્ય છે અને જ્યાં વસ્ત્ર ધારણ થાય છે ત્યાં ભાષા નિરવદ્ય છે. ભાષા મુખમાંથી નીકળે છે તેથી મુખ પર ધારણ કરવામાં આવનારૂં વસ્ત્ર “મુખવસ્ત્રિકા” કહેવાય છે. મૂળમાં “શિક્ર' કહેવાથી ઈન્દ્રને બોધ થઈ શક્યું હતું, પરંતુ દેવેન્દ્ર Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - श्रीदशवकालिकसूत्रे मत्वेऽपि तस्य मुखवत्रिकाधारणाभावे यदि सावद्या भाषा तर्हि औदारिकशरीरधारिणां का वार्ते ? ति ध्वनितम् ।। सा च मुखवस्त्रिका वायुकायादिमाणिमाणसंरक्षणोपयोगि-मुखोपरिवन्धनीय -मुखपरिमित-सदोरकाऽटपुटवस्त्रखण्डविशेषः । अत्रायं सङ्ग्रहः “वाउकायाइरक्वटं, वज्झई जं सया मुहे । सदोरहपुडं वत्थं, वृत्ता सा मुहवत्यिया ॥ १ ॥ मुहमाणा जईलिंगं, सबसंजमकारणं । पसत्यभावणावुडी-हेऊ य मुहबत्यिया ॥२॥” इति । देवेन्द्र और देवराज विशेषणों का देना यह सिद्ध करता है किजय दिव्य शक्तिमान् होने पर भी मुखयस्त्रिका न धारण करने से उसकी भाषा सावध होती है तो औदारिक-शरीर-धारियों की बात ही क्या है? उनकी भाषा अवश्य ही सावध होगी। _ वह मुखवस्त्रिका वायुकाय आदिके प्राणियोंकी रक्षाके लिये 'उपयोगी, मुख पर बांधने योग्य, मुखके बरावर डोरा सहित आठ पुटवाला, वस्त्रका खण्डविशेष है। यहां संग्रहगाथाएँ हैं-'वाउ' इत्यादि, ___ अर्थात्-वायुकाय आदिकी रक्षाके लिये जो सदा मुख पर यांधी जाती है, वह डोरासहित आठ पुटवाला वस्त्र "मुखवस्त्रिका" कहलाती है ॥१॥ वह मुखवत्रिका मुख-प्रमाण होती है, यह मुनिका चिह सर्व संयमका कारण तथा प्रशस्त भावना की वृद्धिका कारण है ॥२॥ અને દેવરાજ વિશપણે એ સિદ્ધ કરે છે કે જે દિવ્ય શક્તિમાન હોવા છતાં પણ મુખત્રિકા ન ધારણ કરવાથી એની ભાષા સાવધ થાય છે તે દારિકશરીરધારીઓની વાત જ શી? એની ભાષા પણ જરૂર જ સાવ જ થાય. એ મુખવઝિકા વાયુકાય આદિના પ્રાણીઓની રક્ષાને માટે ઉપયોગી, મુખ પર બાંધવા ગ્ય, મુખની બરાબર, દોરાદિત આઠપુટવાળે અને भविशे५ छे. सही समय मायामो -'वाउ०' त्या અર્ધા-વાયુકાય આદિની રક્ષાને માટે જે સદા મુખ પર બાંધવામાં આવે છે, તે દેરાસહિત આઠપટવા વસ્ત્ર મુખવઝિક” કહેવાય છે (૧) એ મુખસિકા મુખ-પ્રમાણુ હોય છે. એ મુનિનું ચિહન સર્વ સંયમનું કારણ તથા પ્રશસ્ત ભાવનાની વૃદ્ધિનું કારણ છે (૨) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - अध्ययन १ गाः १ मुखवस्त्रिकाविचार: पुनरपि" मुखे वांधी ते मुंहपती, हेठे पाटो धारी। अति हेठी दादी थई, जोतर गले निवारी ॥१॥ "एक काने धजसम कही, खंधे पछेड़ी ठाम । केड़े खोसी कोथली, नावे पुण्यने काम ॥२॥" इति । (श्रावक-ऋषभदासकृते हितशिक्षारासे पृ० ३८ पं० १६) " मुल्लभ बोधी जीवड़ा, मांडे निज पटकर्म । साधु जन मुख मोंपती, वांधी है जिन-धर्म ॥१॥" (मुनिलब्धिविजयकृते हरिवलमच्छीरासे पृ० ७३ दोहा ५)) और भी कहा है "मुखे बांधी ते मुंहपती, हेठे पाटो धारी। अति हेठी दाढी थई, जोतर गले निवारी ॥१॥ ' एक काने धज सम कही, खंधे पछेडी ठाम । केडे खोसी कोथली, नावे पुण्यने काम" ॥२॥ ___ (श्रावक-ऋषभदास-कृत हितशिक्षारासे पृ० ३८ ५ १६) - "सुलभ-बोधी जीवडा, मांडे निज षट-कर्म। साधुजन मुख मोंपती बांधी है जिन-धर्म" ॥१॥ (हरिवलमच्छीरास-मुनिलब्धिविजयकृत पृ० ७३ दोहा ५) વળી કહ્યું છે કે ___" भुणे मांधा ते मुंडपती हे पाट पारी, मति ही हादी था त२ गणे, निवारी. (१) मे आने पर, सम ही, मधे पछी हम, 3 मोसी थी, नावे पुश्यने म” (२) (श्राव-पलास-कृत हित-शिक्षा-रास' પૃષ્ઠ ૩૮ પં. ૧૬) "सुन मोधी 431, भांड निकर घट-भ. સાધુ જન મુખ મેંપતી બાંધી હૈ જિન-ધર્મ” (૧) (७२-भरछी-रास-मुनि सन्धिविनय त ५.४ ७३, s! ५) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशवैकालिकमुत्रे ननु भाषणसमये हस्तेनापि वस्त्रमादाय मुखाच्छादने उक्तजीवरक्षा निर्वहति किमन्यदापि मुखवत्रिकाबन्धनेन ? इति वेदुच्यते २२ न केवलं भाषणसमय एव जीवविराधनासंभवः, यतो हस्तेन वखमादाय मुखाच्छादने जीवरक्षा संभवेत्, किन्तु दीर्घश्वासनिःश्वासाभ्यां, जृम्भातः, स्वभावादकस्मादपि च, तथा निद्रावस्थायां मुखन्यादानाच्च तत्सम्भव इति न हस्तेन मुखोपरि वस्त्रं धारयन्तः सम्यग् जीवरक्षां सर्वदा कर्तुं प्रभवन्ति, वस्त्रेण मुखमाच्छाद्य स्यापि निद्रायां पार्श्वपरिवर्त्तनेन वखापसरणे सति क उपायस्तदानीं सूक्ष्म यहाँ यह आशङ्का की जा सकती है कि जय बोलनेका काम पडे तब हाथमें कपडा लेकर मुँह ढँक लेनेसे वायुकाय आदि जीवोंकी रक्षा हो सकती है, जय बोलते नहीं उस समय भी मुखवत्रिका बांध रखनेसे क्या लाभ है ? इसका उत्तर यह है कि केवल बोलते समय ही मुखसे हवा नहीं निकलती जिससे हाथमें वस्त्र लेकर मुँह ढँक लेनेसे जीवोंकी रक्षा हो जाय । किन्तु दीर्घ श्वासोच्छ्वास लेनेसे, जंभाई लेनेसे, स्वभावसे, अकस्मात्, तथा निद्रावस्था में मुख खुला रहने से भी हवा निकलती है। अतएव मुख पर हाथ से वस्त्र लगानेसे जीवोंकी सम्पक प्रकार सर्वदा रक्षा नहीं हो सकती । चत्रसे मुँह ढाँक कर सोया हुवा व्यक्ति नींद में करवट (पसवाडा) बदलता है तब वस्त्र खिसक जाता है। उस समय सूक्ष्म, અહીં એવી આશંકા કરી શકાય છે કે જ્યારે બેાલવાનું કામ પડે ત્યારે હાથમાં કપડું લઈને મ્હાં ઢાંકી લેવાથી વાયુકાય આદિ છવાની રક્ષા થઈ શકે છે. જ્યારે ભાલતા ન હાઈએ, ત્યારે પણ મુખવસ્ત્રિકા બાંધી રાખવામી ગ્રે લાભ છે? એને ઉત્તર એ છે કે કેવળ માલતી વખતે જ મુખમાંથી હવા નીકળતી નથી કે જેથી હાથમાં વસ્ર લઈને મડાં ઢાંકી લેવાથી જીવાની રક્ષા થઈ જાય. કિન્તુ દીર્ઘ ધામેચ્છ્વાસ લેવાથી, ખગાસું ખાવાથી, સ્વભાવથી, અકસ્માત તથા નિદ્રાવસ્થામાં ડૅાં ખુલ્લું રહેવાથી પણ હવા નીકળે છે. તેથી મમ્હાં પર પાથ વડે વત્ર લગાડવાથી જવાની સમ્યક્ પ્રકારે સત્તા રહ્યા થઇ શકતી નથી, વસ્ત્રથી મડાં ઢાંકીને સૂતેલી વ્યક્તિ ઉંઘમાં જ્યારે પાસ બદલાવે છે ત્યારે વસ્ત્ર ખસી Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ अध्ययन १. गा. १ मुखवत्रिकाविचारः व्यापिसम्पातिमजीवसचित्तरजःप्रवेशवारणार्थ दीर्घोप्णनिःश्वासोच्छ्वासजनितवायुकायविराधनापरिहारार्थं च । तथा चोक्तं योगशास्त्रे तृतीयप्रकाशे सप्ताशीतितमश्लोकस्य स्वोपज्ञविवरणे हेमचन्द्राचार्येण "मुखवसमपि सम्पातिमजीवरक्षणादुष्णमुखवातविराध्यमानवाह्यवायुकायजीवरक्षणान्मुखे धूलिप्रवेशरक्षणाचोपयोगी"ति । तथा चोत्तराध्ययनसूत्रे तृतीयाध्ययने श्रीलक्ष्मीवल्लभीयायां नवमगाथाव्याख्यायां सप्तमनिहवोदाहरणेऽपि " तथा सम्पातिमाः सत्त्वाः, सूक्ष्माश्च व्यापिनोऽपरे । तेषां रक्षानिमित्तं च, विज्ञेया मुखवस्त्रिका ॥१॥” इति ।। व्यापी और संपातिम जीव तथा संचित रज आदि मुखमें जानेसे कैसे रुक सकते हैं ?, तथा दीर्घश्वासोच्छवाससे होनेवाली वायुकायकी विराधना का क्योंकर परिहार हो सकता है ? इन्हें रोकने का उपाय ही क्या है । हेमचन्द्राचार्य कहते हैं "मुखवस्त्र " इत्यादि___ अर्थात् "मुखवस्त्र, संपातिम जीवोंकी रक्षा करता है, मुख से निकलने वाले उष्ण वायु द्वारा विराधित होनेवाले वाह्य वायुकायके जीवोंकी रक्षा करता है, तथा मुँहमें धूली नहीं घुसने देता, इसलिये वह उपयोगी है।" उत्तराध्ययन सूत्र के तीसरे उद्देशकी टीकामें कहा है-" सन्ति" .इत्यादि, अर्थात् “संपातिम, सूक्ष्म और व्यापी जीवोंकी रक्षाके लिये मुखજાય છે. તે સમયે સૂકમ, વ્યાપિ અને સપાતિમ જીવ તથા સચિત્ત રજ આદિ મુખમાં જવાથી કેવી રીતે રોકાઈ શકે? તથા દીર્ધ શ્વાસે શ્વાસથી થનારી વાસુકાની વિરાધનાને કેવી રીતે પરિહાર થઈ શકે ? તેને રોકવાને उपाय छ ? भन्यायाय छे "मुखवस्त्र०" त्यादि. અર્થાતુ-મુખવઝ સંપતિમ જીવોની રક્ષા કરે છે, મુખથી નીકળતા ઉષ્ણ વાયુ દ્વારા વિરોધિત થતા વાયુકાયના છાની રક્ષા કરે છે, તથા મુખમાં ધૂળ પેસવા દેતું નથી, તેથી તે ઉપયોગી છે.” उत्तराध्ययन सूत्रना alon उदेशनी आमा है "सन्ति" त्या અર્થ-“સંપાતિમ, સૂક્ષમ અને વ્યાપી જીવની રક્ષાને માટે મુખવસ્ત્રિકા Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'श्रीदशवैकालिकसूत्रे' निर्युक्त द्वादशाधिकसप्तशततम (७१२ ) - गाथाऽप्येवमेव वोधयति - " संपातिमरयरेणु, पमज्जणट्टा वयंति मुहपत्ति । नासं मुहं च वंधर, तीए वसहिं पमज्जंतो ॥ ७१२ ॥ " " संपातिमरजो रेणुममार्जनार्थं वदन्ति मुखपत्रीम् । नासिकां मुखं च बध्नावि, तया वसतिं प्रमार्जयन् ॥७१२ || इति संस्कृतम् । वसतिं प्रमार्जयता घ्राणे मुखे चैतद्वयेऽपि मुखवत्रिका बन्धनीया, अन्यदा मुख एवेत्याशयः, अन्यथा भगवतीसूत्राद्यनेकागमविरोधापत्तिर्दुर्वारा स्यात् । एवमेव प्रवचनसारोद्वारे त्रयोविंशत्यधिकपञ्चशततमगाथा विद्यते, तथा प्रकरणरत्नाकरस्यापि तृतीयभागे, उत्तराध्ययन सूत्रस्य कमलसंयमोपाafant समझनी चाहिये " ॥१॥ ओघनियुक्ति ७१२ वीं गाधामें कहा है- " संपातिम० " इत्यादि । अर्थात् " संपातिम जीव, सचित्त रज तथा रेणुकी रक्षा करनेके लिये मुखवत्रिका का कथन करते हैं। और जय वसतिकी प्रमार्जना करे तय नाक और सुख दोनों बांधे । ” २४ - अर्थात् अन्य समयमें सिर्फ मुखही यांचे, यह तात्पर्य हुआ, अन्यथा भगवतीसूत्र आदि अनेक आगमोंका विरोध अनिवार्य होगा । इसीप्रकार प्रवचनसारोद्धारकी ५२३ वीं गाधामें कहा है । तथा प्रकरणरत्नाकर के तीसरे भागमें, फिर उत्तराध्ययनसूत्रकी कमलसंयमी સમજવી જોઇએ ” (૧) शोधनियुति ७१२ भी गाधामां है है-संपातिम० छत्याहि अर्थात्“ સપાતિમ જીવ, સચિત્ત રજ, તથા રેશુની રક્ષા કરવાને માટે મુખવસ્રિાનું કચન કરે છે. અને જ્યારે વસતિની પ્રમાના કરે ત્યારે નાક અને મુર્ખ मे गांधे " અર્થાત્“અન્ય સમયમાં સિ અથ નહીં કરવામાં આવે તે અનિવાર્ય આવશે. મુખજ બાંધે, એ તાત્પર્યાં થયું, અગર એવું ભગવતીસૂત્ર આદિ અનેક આગમાના વિધ એવીજ રીતે પ્રવચનસારાદ્ધારની પર૩ મી ગાથામાં કહ્યું છે તથા પ્રકરણરત્નાકરના ત્રીજા ભગમાં, અને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રની કમલસયમે પાધ્યાયરચિત Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ - अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः ध्यायविरचित-सर्वार्थसिद्धि-टीकायां तृतीयाध्ययनेऽप्येवमेव । एवं विशेषावश्यकबृहद्वृत्तावप्युक्तम् । . किञ्चाऽऽगमविरोधोऽपि तेषां ( अबद्धमुखवत्रिकाणां) दुर्वार एच, तथाहि -भगवतीसूत्रे द्वितीयशतकस्य प्रथमोद्देशके स्कन्दकानगारस्यानशनकाले 'नमोत्यु णं' पाठविधौ "पुरत्याभिमुहे संपलियंकनिसणे करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी" इत्याधुक्तम् , ... तत्राञ्जलिवद्धस्य करद्वयस्य शिरसि स्थापने पद्मासनसंस्थः स्कन्दकोऽनगारः कथं तन्मते 'नमोत्यु णं' पाठमनादृतमुखेन व्यधात् । अनास्तमुखेन हि मुनयो न भाषन्ते, तथाविधभाषणस्याऽऽगमप्रतिषिद्धस्वात् । पाध्यायरचित सर्वार्थसिद्धि नामकी तीसरे अध्ययनकी टीकामें भी इसी प्रकार कहा है और ऐसेही विशेषावश्यक बृहपृत्तिमें भी कहा है। ___ जो मुख पर मुखवस्त्रिका नहीं वांधते, उनके मतमें आगम-विरोध अनिवार्य है। भगवतीसूत्र २ श०, १ उ० में स्कन्दक अनगारके अनशन समय में 'नमोत्युणं' के पाठकी विधिमें कहा है-"पुरत्था०" इत्यादि। इसमें विचारणीय विषय यह है कि अञ्जलि बांध कर दोनों हाथ सिर पर धर कर पद्मासन लगाकर पूर्व दिशाकी ओर मुख करके बैठे हुवे स्कन्दक अनगारने 'नमोत्थु णं' पाठ खुले मुखसे कैसे उच्चारण किया, क्योंकि दोनों हाथ सिर पर रखे हुए थे। और खुले मुखसे तो मुनि बोलते नहीं, क्योंकि ऐसा बोलना तो शास्त्रसे निषिद्ध है। સર્વાર્થ-સિદ્ધિ નામની ત્રીજા અધ્યયનની ટીકામાં પણ એવું જ કહ્યું છે, એવી જ રીતે વિશેષાવશ્યક બૃહદવૃત્તિમાં પણ કહ્યું છે - જેઓ મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા બાંધતા નથી, તેમના મતમાં આગમ-વિરોધ અનિવાર્ય છે. ભગવતીસૂત્ર ૨ ૨ ૧ ઉ. માં સ્ક દક અનગારના અનશન સમયમાં 'नमोत्थु गं' ना पानी विधिमा ४यु छ-"पुरत्था०" त्याहि. એમાં વિચારણીય વિષય એ છે કે અંજલિ બાંધીને, બેઉ હાથ શિર પર ધારણ કરીને, પદ્માસન લગાવીને, પૂર્વ દિશા તરફ મુખ કરીને બેઠેલા સ્કંદક मनारे 'नमोत्थु णं' पाउनु मुदता भुमे व शत प्यार ज्यु ? भ8 मा હાથ માથા પર રાખેલા હતા. અને ખુલે મુખે તે મુનિ બેલે નહિ, કારણ કે એમ બોલવું શાસ્ત્રથી નિષિદ્ધ છે. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ - श्रीदशवकालिकमले किञ्च-अन्तकृद्दशाङ्गपप्ठे वर्गेऽतिमुक्ताख्ये पञ्चदशाध्ययने "तए णं अइमुत्ते कुमारे भगवं गोयम एवं वयासी-एह णं भंते ! तुम्भे जाणं अहं तुम्भं भिक्खं दवावेमि त्ति कटु भगवं गोयमं अंगुलीए गेण्हइ, गिण्हित्ता जेणेव सए गेहे तेणेव उवागए" इत्यभिहितम् । ... तत्र भिक्षाचर्या गतस्य गौतमस्वामिनो भिक्षापात्रधारणमतिवद्धैकहस्तारणलित्वं सुतरामेव सिद्धम् । इतरस्य तु करस्यागुलौ अतिमुक्तकुमारेण गृहीतायां सत्यां तस्य भगवतो गौतमस्वामिनो हस्तेन मुखोपरि मुखवत्रिकाधारणं नोपपद्यते, सूक्ष्मव्यापिसम्पातिमजीवसचित्तरजाप्रवेशादिवारणाय तदानीमपि मुखवत्रिकाधारणमावश्यकमेव । किश्वावश्यके 'इच्छामि खमासमणो ! वंदिलं' इत्यादि-क्षमाश्रमण अन्तकृतदशागके ६ वर्गमें 'अतिमुक्त' शीर्षक पन्द्रहवें अध्ययनमें कहा है-"तए णं इत्यादि । ____ इस कथनसे भिक्षाचरी (गोचरी) के लिए- गये हुवे गौतमस्वामीने हाथमें भिक्षाका पात्र लिया था, यह यात स्वयं सिद्ध है और दूसरे हाथ की अंगुली अतिमुक्त कुमारने पकड़ ली थी। इस प्रकार जब दोनों हाथ गौतमस्वामीके रुंधे हुए थे तो मुखस्त्रिका नहीं रही होगी। किन्तु सूक्ष्म, व्यापी, संपातिम जीव तथा सचित्त रजका प्रवेश रोकनेके लिए मुखवत्रिकाकी उस समय भी आवश्यकता थी। आवश्यक मूत्रमें “इच्छामि खमासमणो! वंदिउं" इत्यादि क्षमा मन्तYEinना ६ मा 'अविमुक्त' ५४ ५२मा मध्ययनमा ४ , 'तए थे' त्या આ કથન મુજબ શિક્ષાચરી (ગોચરી) ને માટે ગએલા ગૌતમ સ્વામીએ હાથમાં શિક્ષાનું પાત્ર લીધું હતું એ વાત સ્વયંસિદ્ધ છે અને બીજા હાથની આંગળી અતિમુક્ત કુમારે પકડી લીધી હતી એ પ્રકારે જે ગૌતમ સ્વામીના બેઉ હાથ રોકાઈ ગયા હતાં, તે તે વખતે હાથવટે મુખત્રિકા મુખ પર કેવી રીતે રાખી હોય? કિન્તુ સૂમ. વ્યાપી, સંપતિમ છે તથા સચિત્ત રજને પ્રદે, રોકવાને માટે એ સમયે પણ મુખત્રિકાની આવશ્યક્તા હતી. मावस्य-सूत्रमा 'इच्छामि खमासमणो वंदिउं' त्या सामान Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिका विचारः दानसूत्रस्य व्याख्यायां तट्टीकाकारेण हरिभद्रसूरिणाऽभिहितम् “ अयं च प्रकृतसूत्रार्थः- अवग्रहाद्बहिः स्थितो विनेयोऽर्द्धावनतकाय: करद्वयगृहीतरजोहरणो वन्दनायोद्यत एवमाह - इच्छामि - अभिलापामि हे क्षमाश्रमण ! वन्दितुं नमस्कारं कर्त्तुं भवन्तमिति गम्यते " इत्यादि । २७ अत्र ' करद्वयगृहीत रजोहरण:' इति विशेषणं कथयता हरिभद्रसूरिणा 'खोपरि मुखबखिकावन्धनं भगवदभिप्रेत ' मिति प्रकटीकृतम्, अन्यथा क्षमाश्रमणसूत्रोच्चारणकाले करद्वयस्य रजोहरणग्रहणे प्रतिबद्धतया मुखोपरि मुखव स्त्रिफास्थापनस्योपायान्तरासम्भवात् क्षमाश्रमणदानमेव निर्विषयं स्यात् । अनावृतमुखेन तु मुनीनां भाषणमेवाऽऽगमप्रतिषिद्धमिति नात्र केषाञ्चिद्विवादः । किञ्च क्षमाश्रमणदाने सम्वोधनशब्दप्रयोगे गुरोः स्वाभिमुखीकरणार्थं सविश्रमणदान सूत्रकी व्याख्यामें व्याख्याकार हरिभद्रसूरिने भी कहा है" अयं " इत्यादि, यहाँ " दोनों हाथों में रजोहरण लेकर" ऐसा कहने वाले हरि भद्रसूरिने यह प्रगट किया है कि मुख पर मुखवत्रिका घांधनेकी भगवानकी आज्ञा है । अन्यथा जब दोनों हाथोंमें रजोहरण ले लिया तब मुख पर मुखafant धारण करनेके लिए अन्य उपाय असंभव है । और खुले मुख बोलने से क्षमाश्रमण देना ही व्यर्थ हो जायगा । साधुओंको खुले मुखसे बोलना शास्त्रविरुद्ध है, इस विषयमें किसीको विवाद नहीं है । दूसरी बात यह है कि क्षमाश्रमणदान में ' हे क्षमाश्रमण !' इस सम्बोधनका प्रयोग किया है। इसलिए गुरुको अपनी ओर अभिमुख करने के लिए सूत्रनी व्याभ्यामां ब्याभ्याअर रिलद्रसूरिये पशु ह्युं छे – 'अयं' इत्याहि. 6 અહીં મેઉ હાથમાં રજોહરણુ લઈને ' એમ કહેતાં હરિભદ્રસૂરિએ એમ પ્રકટ કર્યું છે કે મુખ પર મુખવસ્તિકા ખાંધવાની ભગવાનની આજ્ઞા છે. નહિ તા ો બેઉ હાથમાં રજોહરણ લઈ લીધેા એટલે મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા ધારણ કરવાને માટે અન્ય ઉપાય અસ ભવિત છે, અને ખુલ્લે મુખે ખેાલવાથી ક્ષમાશ્રમણુ આપવાનું જ બ્ય અની જાય સાધુએાએ ખુલ્લે મુખે ખેલવું એ શાસ્ત્રવિરૂદ્ધ છે, એ સખધમાં તે કાઇના વાંધા નથી ખીજી વાત એ છે કે ક્ષમાશ્રમણુદાનમાં ‘હું ક્ષમાશ્રમણુ' એવે સખાધનના પ્રયાગ કહેલેા છે. તેથી કરીને ગુરૂને પાતાની તરફ અભિમુખ કરવાને માટે વિશેષ–પ્રયત્ન—પૂર્ણાંક સ્પષ્ટ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकमुत्रे शेषप्रयत्नपूर्वकीचैःस्वरेण सुस्पष्टोच्चारणं विधेयमस्ति न स्वव्यक्तध्वनिनेत्युपायान्तरेण मुखावरणस्य कर्त्तुमशक्यतयोक्तं जीवविराधना परिहर्तुमशक्यैव । " अन्यच तत्रैव क्षमाश्रमणदाने गुरुनिदेशानन्तरम् - " अहोकायं, कायसंफासं” इत्यस्य व्याख्यायां तेनैव हरिभद्रसूरिणा व्याख्यातं, तथाहिततः शिष्यो नैषेधिक्यां प्रविश्य गुरुपादान्तिकम्, निधाय तत्र रजोहर - णम्, तत् (रजोहरणं ) ललाटं च कराभ्यां संस्पृशन्निदं भणति - अधस्तात्कायः अधः कायः पादलक्षणस्तमधः कार्यं प्रति कायेन निजदेहेन संस्पर्शः = काय संस्पर्शस्तं करोमि, एतच्चानुजानीते - "ति । २८ तत्र संमिलितकरद्वयेन रजोहरण - ललाटयोः संस्पर्शे सति 'अहोकायं काय संफा सं' इत्यस्योच्चारणं मुखवस्त्रिकाबन्धनं विना नोपपद्यते, हस्तेन मुखोपरि सुख त्रिकास्थापनं तदानीं न संभवति, हस्तद्वयस्यापि रजोहरणललाटसंस्पर्शप्रविषद्धत्वात् । अपि च- ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे चतुर्दशाध्ययने विशेषप्रयत्नपूर्वक स्पष्ट उच्चारण करनेकी आवश्यकता है । अव्यक्त भाषा से संयोधन करना संभव नहीं है। इस प्रकार जय दूसरे उपायसे मुख नहीं ढँका जा सका तो उल्लिखित जीवों की विराधना अनिवार्य है। इसके सिवाय इसी क्षमाश्रमणदानमें गुरुकी आज्ञाके अनन्तर "अहोकायं कायसंफासं" इसका उच्चारण मुखवत्रिका यांचे विना नहीं हो सकता और हाथसे मुख पर मुख्यस्त्रिका धारण करना उस समय संभव नहीं है, क्योंकि दोनों हाथ रजोहरणको ग्रहण करके ललाटमें लगाये जाते हैं। ज्ञाताधर्मधाङ्ग सूत्र के चौदहवें अध्ययनमें कहा है- "तए णं" इत्यादि । ઉચ્ચારણુ કરવાની જરૂર છે. અવ્યકત ભાષાથી સંખેાધન કરવાને સંભવ નથી. એ રીતે જો બીન ઉપાયથી મુખ નથી ઢાંકી શકાય તે ઉપ લખ્યા મુજબ છવાની વિરાધના થયા વિના રહે નહિ એ ઉપરાંત એ ક્ષમાશ્રમણુદાનમાં गुउनी आज्ञानी यष्टी 'अहोकार्य, कायसंफासं ' मेनुं भ्याश शुणवत्रि ध्या વિના થઈ શકતું નથી. અને એ સમયે હાથથી મુખર્વસ્ત્રકા ધારણ કરવાનું સાવિત નથી, કારણ કે બેઉ હાથ રોડરણને ગ્રહણુ કરીને કપાળે ડાડવાના होय है. સતાધર્મ કયાંગ સૂત્રના ચૌદમા અધ્યયનમાં કહ્યું છે કે સર્ જૈ ઇત્યાદિ. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतिको वातव साध्वी यावत् गुनहायात ही कण अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः ___ "तएणं ताओ अजाओ पोहिलाए एवं वुत्ताओ समाणीओ दोवि कने ठाइंति, ठाइत्ता पोहिलं एवं क्यासी-अम्हे णं देवाणुप्पिए ! समणीओ निग्गंथीओ जाव गुत्तवंभयारिणीओ, नो खलु कप्पइ अम्हं एयप्पयारं कन्नेहिवि निसामित्तए किमंग पुण उबदिसित्तए वा" इत्याधुक्तम् । पोटिलया भिक्षार्थ स्वगृहमनुप्रविष्टास साध्वीषु काचित् पतिं वशीकतुं चूर्णयोग-मन्त्रयोगादिकानुपायान् पृष्टा सती को पिधाय प्रोवाच-हे देवानुपिये। वयं श्रमण्यो निन्थ्यो यावद् गुप्तब्रह्मचारिण्यः स्मः, नो खलु कल्पते अस्माकमेतत्पकारं कर्णाभ्यामपि निशामयितुं किमग पुनरुपदेष्टुमित्यर्थः। . - ___लोके हि अनुचितवार्ताश्रवणसमये झटिति कर्णपिधानं हस्ताभ्यामेव विधीयमानं दृश्यते तस्मात् साव्या हस्ताभ्यां कर्णी पिधाय प्रतिवचनदाने मुखवस्त्रिकाधारणं वन्धनं विना नोपपद्यते, तदभावे वायुकायादिजीवविराधनाऽवश्यम्भाविनी। अर्थात्-"पोटिलाके घरमें साध्वियाँ भिक्षाके लिए गई उसने अपने पतिको वश करनेके लिए एक साध्वीसे चूर्णयोग और मंत्रयोग आदि उपाय पूछे। तव साध्वीने तत्काल दोनों कान मूंद कर कहा-हे देवानुप्रिये! हम निर्ग्रन्थ आर्यिका हैं यावत् गुप्तब्रह्मचारिणी है। ऐसी बात सुनना भी हमें नहीं कल्पता तो उपदेश देनेकी बात ही क्या है ? ___अनुचित बात सुनते समय लोकमें भी झटपट हाथोंसे कान मूंदना देखा जाता है । ऐसी हालतमें दोनों हाथोंसे दोनों कान मूंद लेने पर विना मुखवस्त्रिका वांधे उत्तर देना युक्त नहीं हो सकता। यदि मुखवत्रिका के बांधे बिना उत्तर दिया तो वायुकाय आदि जीवोंकी विराधना अवश्य हुई। અર્થાત “પિફ્રિલાના ઘરમાં સાધ્વીઓ ભિક્ષાને માટે ગઈતેણે પિતાના પતિને વશ કરવાને માટે એક સાધ્વીને ચૂર્ણાગ અને મત્રગ આદિ ઉપાસે પડ્યા, ત્યારે સાધ્વીએ તત્કાળ બેઉ કાને હાથ મૂકીને કહ્યું–હે દેવાનુપ્રિયે! અમે નિર્ચ થ આર્થિકા છીએ તેમજ ચાવત્ ગુપ્તબ્રહ્મચારિણી છીએ. આવી વાત સાંભળવી પણ અમને કઢપતી નથી તે પછી ઉપદેશ આપવાની તે વાત જ શી ?” અનુચિત વાત સાંભળતી વખતે લેકેમાં પણ ઝટપટ, હાથથી કાન ઢાંકવામાં આવે એવું જોવામાં આવે છે એવી હાલતમાં બેઉ હાથથી બેઉ કાન ઢાંકી લેતાં, મુખવસ્ત્રિકા બાંધ્યા વિના ઉત્તર આપ યુકત નથી હોતો જે મુખ વસ્ત્રિકા ખાધ્યા વિના ઉત્તર આપવામાં આવે તે વાયુકાય આદિ જીની विराधना अवश्य थाय. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे किञ्च मुखवत्रिकावन्धनमन्तरेण पट्कायविराधना दुष्परिहार्या, तथाहिमुखे सूक्ष्मसचित्तरजः प्रवेगेन पृथिवीकायस्य वृष्ट्यादिवशात्सचित्तजलकणानामाकस्मिकनिपातेन धूमिकायाः प्रवेशेन वाऽपकायस्य, तथा यत्र कुत्रापि स्फुलिङ्गा उत्पतन्ति तत्राऽऽकस्मिकसूक्ष्मस्फुलिङ्गनिपातेन तेजस्कायस्य, मुखस्यो - श्वासनिःश्वासाभ्यां वाद्यवायुकायस्य, ' जत्थ जलं तत्थ वणं' इतिश्रामाण्याअलनान्तरीयकतया मुखे सचित्तजलविन्दुनिपातेनैव वनस्पतिकायस्यापि तथा सम्पातिम-व्यापि सूक्ष्म जीवसम्पातेन त्रसकायस्य विराधना भवतीति । किञ्च मुखंत्रिकावन्धने प्रमादवतः पट्कायविराधना दुर्वारा, यतः प्रति ३० मुत्रिकाके यांचे विना षटकायकी विराधनाका परिहार नहीं हो सकता। मुखमें सूक्ष्म सचित्त रजका प्रवेश होने से पृथ्वीकायकी विराधना होती है । यरसा होने पर सचित्त जलकणोंके अकस्मात् ही मुखमें चले जानेसे अथवा मुखमें घूँअर के चले जाने से अपकायकी विराधना होती है । इधर-उधर उड़नेवाली अग्निकी चिनगारी कदाचित् मुखमें घुस जाय तो तेजस्कायकी हिंसा होती है। मुखसे निकलती हुई गर्म सांससे बाह्य वायुकायकी विराधना होती है। 'जहाँ अपूकाय है वहाँ वनस्पतिकाय भी होता है " ( जत्थ जलं तत्थ वर्ण ) इस प्रमाणसे मुखमें सचित्त जल गिरने से ही वनस्पति कायकी विराधना होती है। तथा संपातिम, व्यापी और सूक्ष्म जीवोंके घुसने से सकायकी भी विराधना होती है । मुखवत्रिका यांधने में जो साधु प्रमादी होता है उसको पट्का की મુખવસ્ત્રિકા માંધ્યા વિના પકાયની વિરાધનાના પરિહાર નથી થઇ શકતા. મુખમાં સૂક્ષ્મ સચિત્ત રજને પ્રવેશ થવાથી પૃથ્વીકાયની વિરાધના થાય છે (૧). વરસાદ પડતાં ચિત્ત જલકણે અકસ્માત્ મુખમાં જવાથી અથવા મેઢામાં ઝાકળ જવાથી અકાયની વિરાધના થાય છે. (૨). અડ્ડી-તહીં ઉડતી અગ્નિની ચિણગારી કદાચ મુખમાં પેસી જાય તે તેજસ્કાયની હિંસા થાય છે (૩) મુખમાંથી નીકળતા ગરમ શ્ર્વાસથી ખાદ્ય વાયુકાયની વિરાધના થાય છે (૪) ત્યા અકાય છે ત્યાં વનસ્પતિ हाय होय हे ' ( जत्य जलं तत्म वर्ण ) मे प्रभाथी भुणभां सत्ति स પડવાથી વનસ્પતિકાયની પણ વિરાધના થાય છે (૫) તથા સ ંપાતિમ, વ્યાપી અને સૂક્ષ્મ જીવા પૈસી જવાથી ત્રસકાયની પણ વિરાધના થાય છે (૬). મુખસિકા બાંધવામાં જે સાધુ પ્રમાદી હોય છે તેને ટ્કાયની વિરાધના Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा.१ मुखवत्रिकाविचारः लेखनकालेऽन्यस्मै तत्पत्याख्यानदानेऽपि प्रतिलेखनोपयोगाभावेन प्रमाददोषाविष्टः सन् षट्कायविराधको भवतीति भगवतोत्तराध्ययनसूत्रे प्रतिपादितम् , तथाहि पडिलेहणं कुणतो , मिहो कहं कुणइ जणवयकहं वा। । देह व पचक्खाणं वाएइ सयं पडिच्छइ वा ॥ १ ॥ पुढबी-आज्काए,तेऊ-वाऊ-घणस्सइ-तसाणं । पडिलेहणापमत्तो, छण्हपि विराहओ होइ ॥ १" इति । , वहि का वार्ता ये मुखवत्रिकावन्धनमन्तरेण तिष्ठन्ति तेषां प्रमाददोषस्तजनितषट्कायविराधना नापतेत् ? आगमे हि मुखवस्त्रिकाबन्धनपरित्यागे दोषबाहुल्यं प्रदर्शितं तच्च प्रागेष प्रतिपादितम् । इत्थं च यथा नौकादौ सूक्ष्मेऽपि मुपिरे सति नद्यादौ तन्निमज्जनान्महती विराधना अवश्य लगेगी क्योंकि भगवानने उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि-"प्रतिलेखन करनेमें जो साधु प्रमादी है तथा प्रतिलेखनके समय साधु परस्पर बातें करे, जनपद आदिकी कथा करे, पचक्खाण देवे, वांचे. अथवा बंचावेतो वह षटकायका विराधक होता है" तो जोमुखवस्त्रिका बांधे विना रहते हैं उनको प्रमाद-दोष तथा प्रमादजन्य षट्कायकी विराधनाका दोष कैसे नहीं लगेगा ? अर्थात् जरूर लगेगा। मुखवस्त्रिकाके नहीं यांधनेमें आगमोंमें जो बहुतसे दोष कहे हैं वे तो पहले प्रतिपादित कर ही चुके हैं। इस प्रकार जैसे नावमें छोटासा छेद होनेपर नदी आदिमें डूब जानेसे અવશ્ય થાય છે કેમકે ભગવાને ઉત્તરાધ્યયનસૂત્રમાં કહ્યું છે કે-“પ્રતિલેખન કરતી વખતે જે સાધુ પરસ્પર વાર્તાલાપ કરે, દેશકથા આદિ કથા કરે, પચફખાણું કરા, પિતે વાંચે અને વાચા તે તે ષકાયને વિરાધક થાય છે જે એમ છે તે જે મુખવસ્ત્રિકા બાંધ્યા વગર રહે છે તેને પ્રમાદેદેષ અને પ્રમાદજન્ય કાચની વિરાધનાને દોષ કેમ નહી લાગે ? અર્થાત્ અવશ્ય લાગે. મુખવસ્ત્રિકા નહીં બાંધવામાં આગમમાં દોષ બતાવ્યા છે તે તે પહેલાં કહી ચુક્યા છીએ એ પ્રકારે જેમ નાવમાં નાનું છિદ્ર પડવાથી તે નદી આદિમાં ડૂબી Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीदनवैकालिकसूत्रे (किञ्च विधिप्रपाग्रन्थे चारित्रातिचारप्रायश्चित्ताधिकारे मुखवत्रिकामन्तरेण भाषणनिषेधः प्रतिपादितः ।। किञ्च पूर्वोक्तदिशा पटकायविराधकस्य तद्विराधनावर्जनपरकभगवदामामादोषप्रसङ्गः। । तथा च सति अविधिविधान, ततो मिथ्यात्वं, तस्माचारित्रविराधना, ततश्च दीघसंसारित्वं प्रपद्येत, अत एवाऽऽजाभङ्गकर्तुगुरुतरमायवित्तं प्रदर्शितम् । उक्तं हि वृहत्कल्पभाष्ये"अवराहे लहुगयरो, आणाभंगंमि गुरुतरो किहणु। आणाए चिय चरणं, तभंगे किं न भग्गं तु ? ॥१॥” इति। सर्वमेव चारित्रं भगवदाज्ञायामेव व्यवस्थितम् , अतस्तो मूलोत्तरगुणादिक वस्तु किं न भग्नम् ? अपि तु सर्वमपि भन्ममिति हेतोस्तत्र गुरुतरप्रायश्चित्तं युक्तमे फिर 'विधिप्रपा' नामके अन्यमें भी चारित्रके अतिचारोंका प्रायश्चित्त कहते समय मुखवत्रिकाके विना बोलनेका स्पष्ट निषेध किया गया है। -तथा-पूर्वोक्त रीतिसे षट्कायकी विराधना करनेवालेको भगवानकी "षटकायकी विराधनाका त्याग करना" इस आज्ञाके भंग करनेका दोष लगता है। यह दोष लगनेसे अविधिका विधान, अविधिका विधान करनेसे मिथ्यात्व, मिथ्यात्वसे चारित्रकी विराधना और चारित्रकी विराधनासे दीर्घसंसारित्वकी प्राप्ति होती है। इसीसे आज्ञाभंगका गुरुतर मायश्चित्त लगता है। वृहत्कल्पभाष्यमें कहा है-"अवराहे” इत्यादि, समस्त चारित्र भगवानकी आज्ञामें ही है। भगवानकी आज्ञाका भंग होने पर मूलगुण उत्तरगुण आदि सभी नष्ट हो जाते हैं । अतः વલી “વિધિપ્રા” નામના ગ્રન્થમાં પણ ચારિત્રનાં અતિચારોની શક્તિના પ્રકરણમાં મુખવસ્ત્રિકા વગર બેલવાને નિષેધ કર્યું છે! તથા–પૂર્વોક્ત રીતિથી ષયની વિરાધના કરનારને ભગવાનની “ષટ્રાયની વિરાધનાને ત્યાગ કરે” આ આજ્ઞાને ભ ગ કરવાને દોષ લાગે છે આ દોષ લાગવાથી અવિધિનું વિધાન, અવિધિ-વિધાનથી મિથ્યાત્વ, મિથ્યાત્વથી ચારિત્રની વિરાધના અને ચારિત્રની વિરાધનાથી દીર્ઘ સંસારિત્વની પ્રાપ્તિ થાય છે. એથી આજ્ઞાભાગનું ગુરૂતર પ્રાયશ્ચિત્ત લાગે છે ४८५माध्यमा यु छ- 'अवराहे त्याहि. સમસ્ત ચારિત્ર ભગવાનની આજ્ઞામાં જ રહેલું છે. ભગવાનની આજ્ઞાને ભંગ થવાથી મૂળગુણ ઉત્તરગુણ આદિ બધું નષ્ટ થઈ જાય છે. તેથી આજ્ઞા Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः वेति भावः। तस्मात्-मुखोपरि मुखवत्रिकावन्धनं सकलजैनागमप्रतिपाद्यमिति सिद्धम् । एवं च भगवतीसूत्रे 'सुहुमकायं अणिज्जूहित्ताणं' इति वाक्यस्य सूक्ष्मकार्य-मुखवत्रिकाम् 'अणिज्जहित्ता'अपोह्य परित्यज्य अवद्ध्वेत्यर्थों वोध्या, एवमन्यत्राऽप्यूहनीयम् । __यत्तु-आचारागसूत्रे उच्छ्वासादिकाले मुखपिधानोपदेशेन मुखवत्रिका करेणैव धारणीया न तु दोरकेणेति तत्तत्समये एव मुखवस्त्रिकया घ्राणमुखादिपिधानं विधेयमिति च प्रतीयते, दोरकावलम्बेन मुखवस्त्रिकायाः सदा धारणीयत्वे तु पुनर्मुखपिधानोपदेशो व्यर्थः स्यादिति वदन्ति तदज्ञानमूलम् । आचाराङ्गआज्ञाभंगमें गुरुतर प्रायश्चित्त देना युक्त ही है। इसलिये यह सिद्ध हुआ कि मुख पर मुखवस्त्रिका बांधना सर्व जैनशास्त्रोंमें प्रतिपादन किया गया है । इस प्रकार भगवती-सूत्रके 'सुहुमकायं अणिज्जूहित्ताणं' वाक्यका अर्थ यह समझना चाहिये कि 'मुखवत्रिकाका त्याग करके अर्थात् न .बांध करके।' ऐसा सब जगह समझना चाहिए। प्रश्न-आचारागसत्र में उच्छ्वास आदि लेते समय मुख ढंकने का उपदेश दिया है। इससे यह प्रतीत होता है कि मुखवस्त्रिका हाथमें ही रखनी चाहिए डोरेसे नहीं बाँधनी चाहिए; अमुक-अमुक समय पर ही जब उच्छास आदि आवे तब ही नाक या मुख ढंक लेना चाहिए। डोरेसे मुखवस्त्रिका धारण करना उचित हो तो पुनः मुख ढंकनेका उपदेश व्यर्थ हो जायगा। ભંગમાં ગુરુતર પ્રાયશ્ચિત્ત આવે છે એ રીતે સિદ્ધ થયું કે મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા બાંધવી એવું બધાં જેનશાસ્ત્રોમાં પ્રતિપાદન કરેલું છે. એટલા भाटे मावती-सूत्रना 'महुमकायं अणिज्जूहित्ताणं' में वायने। म मेम समय। જોઈએ કે “મુખવસ્ત્રિકાને ત્યાગ કરીને અર્થાત્ ન બાંધીને ” એજ પ્રમાણે બધી જગ્યાએ સમજવું પ્રશ્ન-આચારાંગ-સૂત્રમાં ઉચ્છવાસ આદિ લેતી વખતે મુખ ઢાંકવાને ઉપદેશ આપે છે. એથી એમ પ્રતીત થાય છે કે મુખવસ્ત્રિકા હાથમાં જ રાખવી જોઈએ, દોરાથી બાંધવી જોઈએ નહિ. અમક અમુક સમયે જ જ્યારે ઉચ્છવાસ આદિ આવે ત્યારે જ નાક ચા મુખ ઢાકી લેવું જોઈએ, દેરાથી મુખવસ્ત્રિકા ધારણ કરવી ઉચિત હોય તે પછી પુન: મુખ ઢાંકવાને ઉપદેશ વ્યર્થ થઈ જશે. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीदशवकालिकसूत्रे सूत्रपाठो हि तावदेवं विद्यते "से भिक्खू वा२ उस्सासमाणे वा नीसासमाणे वा कांसमाणे वा छीयमाणे वा जंभायमाणे वा उड्डोए वा वायनिसग वा करेमाणे पुन्यामेव आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहित्ता तओ संजयामेव ऊससिज्ज वा जाव वायनिसर्ग वा करेजा” (सूत्र १०९) इति । । __छाया-"स भिक्षुर्वार उच्छ्वसन् वा निःश्वसन्वा, कासमानः (कासं कुर्वन्) वा, क्षुवन् (क्षुतं कुर्वन् ) वा, जृम्भमाणो वा, उनिरन् वा, ((अधिष्ठानेन) वातनिसंगै वा कुर्वन् पूर्वमेव आस्यकं वा पोपकं वा पाणिना परिपिधाय ततः संयत एव उच्छ्वसेद् वा यावद् वातनिसर्ग वा कुर्यात्.” इति संस्कृतम् ।। ____ अत्र "आसयं" इति लक्षणात्त्या घ्राणस्यापि वोधकम् , “ उस्सासमाणे वा नीसासमाणे वा छीयमाणे वा” इति पदानि लक्षणायां तात्पर्यग्राहकाणि। 'आसयं' इत्यस्य मुखमात्रपरत्वे तु पाणिना तत्परिविधानेऽपि घ्राणजन्योच्छ्वा उत्तर-ऐसाप्रश्न करना अज्ञानता है। आचारागसूत्रका पाठ ऐसा है "भिक्षु श्वासोच्छास लेते समय, खांसते समय, छींकते समय, 'जंभाते समय, डकारते समय तथा अधोवायुका त्याग करते समय, पहले मुख अथवा मलद्वारको हाथसे ढंककर फिर यतनापूर्वक श्वास लेवे यावत् अधोवायुका त्याग करे"। ___यहाँ 'आसयं' (मुख) पद लक्षणाके द्वारा घ्राणकाभी बोधक है। 'उस्सासमाणे वा निस्सासमाणे वा छीयमाणेवा' ये पद लक्षणा तात्पर्यके 'ग्राही हैं । 'आसयं' पदसे केवल मुखका अर्थ लिया जाय तो हाथसे ઉત્તર–એ પ્રશ્ન કરે અજ્ઞાનતા છે. આચારાંગસૂત્રને પાઠ એ છે– “ભિક્ષ શ્વાસે રવૃવાસ લેતી વખતે, ઉધરસ ખાતી વખતે, છી કતી વખતે, બગાસું ખાતી વખતે, ઓડકાર ખાતી વખતે તથા અધેવાયુને ત્યાગ કરતી વખતે, પહેલાં મુખ અથવા મળદ્વારને હાથથી ઢાકીને પછી યતનાપૂર્વક શ્વાસ લે ચાવત અધોવાયને ત્યાગ કરે” मही 'आसयं' (भुम), २४ Rana प्रानो या माध छ 'उस्सासमाणे वा निस्सासमाणे वा छीयमाणे वा' ने पह! सक्षयाम तापयानां आडी छ. आसयं शपथी ठेवण भुभनी मर्थ सेवाभा मा त डायथी भुभ दी Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः सादियतनाया अनुपपत्तेः । अनेन सूत्रेण 'उच्छ्वासादिकाले आस्यकपोषकपरिपिधानं पाणिना विधेय' मिति बोधयतो भगवतस्तात्पर्य मुखवस्त्रिकया पिधाने कल्पयन्तः पण्डिताभिमानिन एवमनुयोक्तव्याः - 'पाणि' शब्दस्य मुखवस्त्रिकारूपोऽर्थः किं वाच्यो लक्ष्यो व्यङ्गयो वा ? । नायः, अभिधाशक्तिग्राहकव्याकरण कोशादिभिरुक्तार्थालाभात्, 'पञ्चशाखः शयः पाणि' - रित्यमरकोशव्याख्यायां पञ्च शाखा इवाङ्गुलयोऽस्येति पञ्चशाखः, शेतेऽस्मिन् सर्वमिति शयः, ( ' पुंसि ' ३।३।१२१। ) घः । पणायमुख ढँक लेनेपर भी नाकसे निकलनेवाले उच्छास आदिकी यतना नहीं हो सकती । ३७ " इस सूत्र से 'उच्छास लेते समय आस्यक और पोषक (मलद्वार) को हाथसे ढँक लेना चाहिए, ऐसा भगवान् बताते हैं, फिरभी नामधारी पंडित 'मुखत्रिका से ढँकना चाहिए' ऐसा अर्थ निकालते हैं। उनसे हम पूछते हैं कि तुम हाथका अर्थ मुखवत्रिका करते हो सो वह अर्थ वाच्य है, या लक्ष्य है या व्यङ्गय है ? । पहला पक्ष तो ठीक नहीं हैं, क्योंकि अभिधा शक्तिके ग्राहक व्याकरण कोश आदिकों में यह अर्थ नहीं मिलता । अमरकोशमें हाथके तीन नाम दिये हैं- (१) पञ्चशाख (२) शय और (३) पाणि । व्याख्या में बताया है कि शाखा जैसी पाँच अंगुलियाँ होती हैं इसलिए इसे पञ्चशाख कहते हैं । उसमें सब वस्तुएँ सोती (रखी जाती हैं इसलिए शय कहते हैं। उससे सब लेनदेन લેવા છતાં પણ નાકથી નીકળનાર ઉચ્છ્વાસ આદિની યતના થઇ શકતી નથી. આ સૂત્રથી ઉચ્છ્વાસ લેતી વખતે આસ્યક અને પોષક ( મલદ્વાર ) ને હાથથી ઢાંકી લેવું જોઇએ એમ ભગવાન્ મતાવે છે, છતાં પણ નામધારી પતિ · મુખવસ્તિકાથી ઢાંકવું જોઈએ' એવા અર્થ કાઢે છે. એમને અમે પૂછીએ છીએ કે તમે હાથના અર્થ મુખગ્નિકા કરી છે, તેા એ અ વાત્મ્ય છે, યા લક્ષ્ય છે કે વ્યંગ્ય છે ? પહેલા પક્ષ તેા ખરાખર નથી કારણ કે અભિધા શક્તિના ગ્રાહક વ્યાકરણુ કાશ આદિમાં એ અર્થ નથી મળતા અમરકેશમાં હાથનાં त्रषु नाभ माध्यां छे. (१) पथशाम, (२) शय भने (3) पाणि व्यायामां ખંતાવ્યુ છે કે શાખા જેવી પાંચ આંગળીએ હાય છે તેથી તેને ' 'यशा' કહે છે. એમાં બધી વસ્તુએ સૂએ ( રાખવામાં આવે ) છે તેથી તેને ‘ શય Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीदशवकालिकसूत्रे न्त्यनेनेति पाणिः 'पण व्यवहारे स्तुतौ च ' इत्यस्मात् 'अशिपणाप्योरुडायलुको च' (उ० ४।१३३-) इतीण् , ' आयप्रत्ययस्य लुक् चे'-ति व्युस्पादनेन तत्र करवाचकत्वस्यैव लाभाच।। . नापि द्वितीयः, मुख्यार्थकरकरणकपिधानतात्पर्यस्य निर्वाधेन तात्पर्यानुपपत्तिरूपलक्षणावीजस्याभावात् । . . नापि तृतीयः, मुख्यार्थतात्पर्यकत्वेनैवककरण पायुपिधानस्यापरकरेण मुखघ्राणपिधानस्य चोपपत्त्या व्यङ्गयार्थ मुखवस्त्रिकातात्पर्यकत्वकल्पनाया अनावश्यकत्वात् , अनौचित्याच । वायुनिसर्गानन्तरं क्षुते जायमाने पायुनिर्गतवायुआदि व्यवहार होते हैं अतः उसे पाणि कहते है। “अशिपणाग्यो रुडायलुको च" (उ०४।१३३) इस सूत्रसे 'इण' होता है और 'आय' प्रत्ययका लुक होता है । ऐसी व्युत्पत्ति करनेसे 'कर'का वाचक ही होता है। दूसरा भी पक्ष (लक्ष्य अर्थ मानना) ठीक नहीं है । लक्ष्य अर्थ वहाँ माना जाता है जहाँ मुख्य (शाब्दिक) अर्थ लेने में किसी प्रकारकी बाधा आती हो । यहाँ पर 'हाथसे ढंक कर' ऐसा अर्थ करने में कोई बाधा नहीं आती, इसलिए लक्षणा नहीं हो सकती, अतः यह लक्ष्य अर्थ भी नहीं है। तीसरा (व्यङ्ग्य अर्थ मानना) भी पक्ष बाधित है । जब प्रधान अर्थ लेनेसे एक हाथसे मलद्वार ढंकना और दूसरे हाथसे नाक-मुखका ढंकना युक्त है तो व्यङ्गय अर्थ (मुखवत्रिकाके तात्पर्यकी कल्पना करना) अनाघश्यक और अनुचित है । अधोवायु निकलते ही किसीको छींक आने કહે છે. તે વડે બધે લેણદેણ વગેરેને વહેવાર થાય છે તેથી એને “પાણિ' કહે છે. अशिपणाय्यो रुडायलुकौ च (उ० ४ । १३३) मे सूत्रथी इणू थाय छ भने आय प्रत्ययन। लुक थाय छे. कवी व्युत्पत्ति ४२वाथी कर न वाय १ मने छ. બીજે પક્ષ પણ ( લક્ષ્ય અર્થ માનવે ) બરાબર નથી લક્ષ્ય અર્થ ત્યાં માનવામાં આવે છે કે જ્યાં મુખ્ય ( શાબ્દિક ) અર્થ લેવામાં કઈ પ્રકારની બાધા આવે. અહીં “હાથથી ઢાંકીને ” એવો અર્થ કરવામાં કઈ બાધા આવતી નથી, તેથી લક્ષણ થઈ શકતી નથી, એટલે એ લક્ષ્ય અર્થ પણ નથી. - ત્રીજો પક્ષ ( વ્યગ્ય અર્થ માન) પણ બાધિત છે જ્યારે પ્રધાન અર્થ લેવાથી એક હાથથી મળદ્વાર ઢાકવું અને બીજા હાથે નાક-મુખને ઢાકવું યુક્ત છે તે વ્યગ્યાર્થ ( સુખવસ્ત્રિકાના તાત્પર્યની કલ્પના કરવી ) અનાવશ્યક અને અનુચિત છે અધેવાયુ નીકળતી વખતે જ કેઈને છીંક આવવા લાગે તે Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गाः १ मुखवस्त्रिकाविचारः संसृष्टया मुखस्त्रिया मुखप्राणपिधानस्यानौचित्यमापामरमतीतमेव । पाणिशब्देऽजहल्लक्षणावृत्तिं स्वीकृत्य 'पाणिस्थितमुखवस्त्रिकये' त्यर्थकल्पनेऽपि नोक्तानौचित्यदोपनिस्तारः । अपिच - आस्यक - पोपकैतदुभयपरिपिधाने पाणिनेत्येकमेव साधनमुक्तं, तत्र पाणिस्थितमुखवत्रिकयेत्यर्थाङ्गीकारे दीर्घोच्छ्वासादीनामधोवायु निसर्गस्य च यौगपद्ये सति कथमेकयैव पाणिस्थितया मुखवस्त्रिकया युगपदेव घाणं मुखं पायुश्वाऽऽवरीतुं शक्यत इति " पाणिणा परिपेहित्ता ” इति भगवद्वाक्यस्यानुपपत्तिः । न च 'एकपाणिस्थितया मुखवस्त्रिकयाऽऽस्यकम्, अपरपालगे तो उसी अधोवायुवासित मुखवस्त्रिकासे ' मुख' और नाक मूंदना बिलकुल अनुचित है और इस अनौचित्यको हरेक समझ सकता है । यदि 'पाणि' शब्द में अजहल्लक्षणा वृत्ति मानकर 'पाणि' (हाथ) से पाणिमें स्थित मुखवस्त्रिका अर्थ लोगे तो भी अनौचित्य दोष नहीं हट सकता । दूसरी बात यह है कि मुख और मलद्वार ढँकनेका पाणिरूप एक ही साधन बताया है। यदि इसका अर्थ मुखवस्त्रिका किया जावे तो जब एक ही साथ अधोवायु और दीर्घ उच्छ्वास आवेगा तब एक ही मुखरित्रका मलद्वार पर लगाई जावेगी या मुँहपर ? और यदि साथ ही छींक भी आयगी तो वही नाकमें कैसे लगाई जावेगी ? क्योंकि एक मुखवविकासे एक साथ ही सब द्वार नहीं ढाँके जा सकते। अतः 'पाणिणा परिपेहित्ता' यह भगवान्‌का वचन ठीक नहीं बैठेगा। यदि ऐसा समाधान करना चाहो कि एक हाथकी मुँहपत्ती से मुँह और दूसरे એ અધેાવાયુથી વાસિત મુખવશ્રિકાથી મુખ અને નાક ઢાંકવાં એ મિલકુલ અનુચિત છે. અને એ અનૌચિત્યને સૌ કાઇ સમજી શકે છે ३९ ले' चाथि ' शब्दमां अतक्षावृत्ति मानीने, 'पाथि ' ( हाथ ) थी પાણિમાં સ્થિત મુખવસ્તિકાને અ લેશે તાપણુ અનૌચિત્ય દોષ દૂર થઈ શકતા નથી. બીજી વાત એ છે કે મુખ અને મળદ્વાર ઢાંકવાનું પાણિરૂપ એકજ સાધન મતાવ્યુ છે. જો એના અર્થ મુખવસ્ત્રિકા કરવામા આવે તે જ્યારે એકી સાથે અધાવાયુ અને દીઘ ઉચ્છ્વાસ આવશે ત્યારે એક જ મુખસ્રિા મળદ્વાર લગાડવામાં આવશે કે મુખ પર ? અને જો સાથે જ છીંક પણ આવશે તે તે નાક પર કેવી રીતે લગાડવામાં આવશે ? કારણ કે એક મુખવસ્રિકાથી એકી साथै मघां द्वार ढांडी शातां नथी तेथी 'पाणिणा परिपेहित्ता' मेवुं लगवाननुं વચન ખરાખર ખધ બેસશે નહિ. જો એવું સમાધાન કરવા ઇચ્છે કે એક હાથની પર Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ' श्रीदशवकालिकात्रे णिस्थितया पायुवत्रिकया पोपकं परिपिधाये' त्यागीकारेण समाधानं मुशकमिति वाच्यम् , सकृदुच्चरितन्यायविरोधेन तादृशार्थकल्पनायाः कर्तुमशक्यत्वात् । किञ्च तेषामयोगपद्येऽपि पायुपिधायकवस्त्रखण्डे मुखवस्त्रिकात्वकल्पनं परमभ्रान्तिमूलम् , मुखपालोरक्याभावात् । अनास्तस्यैव मुखादेरावरणे तात्पर्यसत्त्वे परिपिधायेत्यत्र परीत्युपसर्गप्रयोगस्याऽऽनर्थक्यापत्तिश्च, अपिपूर्वकादपि ल्यपूप्रत्ययसिद्धेः। किञ्च-'आहतस्य पुनरावरणं व्यर्थमेवेति हेतोरनाहतस्यैवाऽऽवरणार्थमयमुपदेशः' इति वदतस्तव इस्तवत्रिकाधारकस्य मते पोषकस्य परिधानवसनानावरणीयहाथके पायुवस्त्रसे मलद्वार ढक लेवेंगे, सो ठीक नहीं है। 'सकृदुचरितन्याय' से ऐसी कल्पना करना शक्य नहीं है। ___ अघोवायु और छोंक आदि एक साथ न भी हों तो भी अधोवायुकी यतना करनेवाले वस्त्रको मुखवस्त्रिका कहना भारी भूल है, क्योंकि मुख और मलद्वार एक चीज नहीं हैं-दोनों अलग अलग हैं। यदि खुले मुख योलनेका तात्पर्य हो तो 'परिपेहित्ता' पदमें 'परि' उपसर्ग व्यर्थ हो जायगा, क्योंकि 'अपि' उपसर्गपूर्वक धातुसे भी ल्यप् प्रत्यय होता है। 'के हुएको फिर ढाँकना पृथा ही है, इसलिए वगैर ढंके हुए को ढंकनेके लिए यह उपदेश दिया है। यदि हाथमें मुँहपत्ति रखने वाले ऐसा कहेंगे तो यह सिद्ध हो जायगा कि उनका मलद्वार सदा अनावृत ( उघड़ा हुआ) रहता है। नहीं तो आवृतको મુહપત્તિથી મુખ અને બીજા હાથના પાયુવઐથી મળદ્વાર ઢાકી લેવાશે, તે તે २५२ नथी, २९ सकृदुच्चरितन्यायथा मेवी ४८पना ४२वी २४५ नथी. ' અધેવાયુ અને છીક આદિ એકી સાથે ન હોય તોપણું અધેવાયુની યતના કરનારા અને મુખવસ્ત્રિકા કહેવી એ મેટી ભૂલ છે, કારણ કે મુખ અને મળદ્વાર એક ચીજ નથી. બેઉ અલગ અલગ છે જે ખુલે મુખે બોલવાનું તાત્પર્ય હોય तो परिपेहित्ता शण्डमा परि उपस व्यर्थ थ ये ४२५ अपि SYA પૂર્વક ધાતુથી પણ પ્રત્યય થાય છે ઢકિલાને ફરીથી ઢાંકવું એ વૃથા છે, તેથી ઢાંકયા વગરનાને ઢાંકવાને માટે આ ઉપદેશ આપે છે.”—જે હાથમાં સુહપત્તી રાખનાર એમ કહેશે તે એમ સિદ્ધ થશે કે એનું મળદ્વાર સદા અનાવૃત ( ઉઘાડું) રહે છે Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन १ गो. १ मुखवस्त्रिकाविचारः तापत्तिः, अन्यथा परिधानवस्त्रावृत पोषकावरणोपदेशस्य वैयर्थ्यापत्तिरित्युभयथाऽपि न दोषनिस्तारः । तस्मात् - " आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहित्ता " इति भगवद्वाक्यस्य ' मुखवस्त्रिका करेणैव धारणीया नतु दोरकेणे ' - त्यर्थकल्पनं साहसमात्रम् । ४१ मम तु सूक्ष्मव्यापिसम्पातिमवायुकायादिजीवविराधनापरिहारार्थं वद्धमुख- वस्त्रिकस्योच्छ्वासादिकाले मुखोद्गतवायुवेगेन मुखतो दोरकावलम्बिततदपंगमसम्भावनायाः सत्त्वेन तन्निवारणाय मुखवस्त्रिकाऽऽनृतस्यापि मुखस्य पाणिना परिविधानमावश्यकमेव । एवं परिधानवस्त्राssवृतस्यापि पोषकस्य परिपिधानं विधेयमेत्र, उच्छ्वासादीनां यौगपद्येऽयौगपद्ये वा एकेन करेण घ्राणमुखपिधानम्, फिर आवरण करनेका उपदेश व्यर्थ हो जायगा । अतएव "आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहित्ता " इस भगवद्वाक्य का यह अर्थ निकालना कि- "मुखवस्त्रिका हाथ ही में रखनी चाहिए डोरेसे मुख पर नहीं बांधना चाहिए,' ऐसी कल्पना करना साहसमात्र है । हमारे मत से सूक्ष्म, व्यापी, संपातिम तथा वायुकाय आदि जीवोंकी विराधना से बचनेके लिए मुखवत्रिका बँधी हुई होने पर भी उच्छ्वास आदि के समय मुख से निकलने वाले वायुके वेगसे मुखवस्त्रिकाके खिसक जानेकी संभावना रहती है, इसलिए उस संभावनाको दूर करने के वास्ते मुखवत्रिका से आवृत मुखको फिर हाथसे आवृत करना आवश्यक है । इसी प्रकार चोलपट्ट होने पर भी अधोवायुके विषय में समझना चाहिए | उच्छ्वास आदि यदि एक ही साथ होवें तो एक हाथसे मुख નહિ તે। આવૃતને ફરી આવરણ કરવાના ઉપદેશ વ્યર્થ મની જશે. તેથી કરીને 'आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहित्ता' मे भगवद्द्वाभ्यनो मेव अर्थ કાઢવા કે ' મુખવસ્ત્રિકા હાથમાં જ રાખવી જોઇએ, દેારાથી મુખ પર ખાંધવી ન જોઇએ ’ એવી કલ્પના કરવી એ સાહસમાત્ર છે અમારે મતે સૂક્ષ્મ, વ્યાપી, સંપાતિમ તથા વાયુકાય આદિ જીવાની વિરાધનાથી ખચવાને માટે મુખસ્ત્રિકા બાંધી હાવા છતાં ઉચ્છ્વાસ આદિને સમયે મુખથી નીકળતા વાયુના વેગથી મુખગ્નિકા ખસી જવાની સભાવના રહે છે તેથી એ સભાવનાને દૂર કરવાને માટે મુખવસ્તિકાથી · ઢાંકેલા મુખને પણ હાથથી ઢાંકવાની આવશ્યકતા છે એજ રીતે ચાલપટ્ટ હાવા છતાં પણ અધેવાયુના વિષયમાં સમજવું ઉચ્છ્વાસ અદ્દિ જો એકી સાથે જ થાય તા એક હાથથી Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. .४२ श्रीदशवकालिकसूत्रे न । अपरेण पायुपिधान विधेयमिति भावः । । । पाणिनेत्यत्रैकवचनमपि पाणित्वजातावन्वयविवक्षयेत्युभयपाणिवोधकत्वेऽप्यनुकूलमेव । किश्च पाणिशब्दस्य मुख्यार्थवाधाऽभावेन मुख्यार्थवाधमूलिका लक्षणापि नाङ्गीकरणीया भवति । तथा चोक्तसूक्ष्मव्यापिप्रभृतिविविधजीवहिंसावारणाय सदैव सदोरकमुखवस्त्रिकाधारणं नैतत्सूत्रतो विरुध्यते, किन्तु परिपिधायेत्यत्र परिशब्दप्रयोगेण भगवान् मुखवस्त्रिकापिहितस्यैव मुखस्य पिधानमावेदयतीत्यलं पल्लवितेन। केचित्तु-'विपाकसूत्रे मृगापुत्राध्ययने-"तए णं सा मिया देवी तं कट्टसगडियं अगुकड्ढेमागी२ जेणेव भूमिघरे तेणेव उवागच्छति, उवाग और नाक ढंक ले और दूसरे हाथसे अधोवायुकी यतना करे। ' "पाणिणा" यद्यपिएक वचन है तथापि पाणित्वजातिमें अन्वय होनेसे दोनों हाथोंका योधक होता है, इसलिए हमारे मतके अनुकूल ही है। यहाँ 'पाणि' शब्दके मुख्य अर्थमें बाधा नहीं है अतः लक्षणा भी मानने योग्य नहीं है, क्योंकि लक्षणा वहीं होती है जहाँ मुख्य अर्थ में बाधा आती हो। इसलिए उक्त सूक्ष्म व्यापी वगैरह विविध जीवोंकी विराधनासे बचने के वास्ते सदैव डोरा सहित मुखवत्रिका मुख पर बाँधना इस सूनसे विरुद्ध नहीं है । परन्तु 'परिपेहित्ता' में 'परि' उपसर्गके प्रयोगसे प्रगट है कि महावीर प्रभुने मुँहपत्ति से पिहित (के हुए) मुखको पुनः पिधान करना प्रतिपादित किया है। ___ कोई कोई ऐसा कहते हैं कि विपाकसूत्र में मृगापुत्रके अध्ययनमें મુખ અને નાક ઢાકી લેવાં અને બીજા હાથથી અધેવાયુની યતના કરવી. पाणिणाने वन्यन तोपा पाशुपतिमा मन्वय थवाथ AG હાથને બેધક થાય છે તેથી અમારે મતે તે શબ્દ અનુકૂળ જ છે. અહીં પણ શબ્દના મુખ્ય અર્થમાં બાધા નથી તેથી લક્ષણ પણ માનવા ગ્ય નથી, કારણ કે લક્ષણ ત્યા થાય છે કે જ્યાં મુખ્ય અર્થમાં બાધા આવતી હોય તેથી કરીને ઉક્ત સૂમ, વ્યાપી વગેરે વિવિધ જીની વિરાધનાથી બચવાને માટે સદેવ દેરા સાથે મુખત્રિકા બાધવી એ સૂત્રથી વિરૂદ્ધ નથી પરંતુ परिपेहित्ता सही परि. सन प्रयोगथी स्पट थाय छ भापी२ प्रधुमे મુડપત્તથી પિહિત (ઢાકેલા) મુખને પુનઃ પિધાન કરવાનું પ્રતિપાદિત કર્યું છે. - કઈ કઈ એમ કહે છે કે વિપાસૂત્રમાં મૃગાપુત્રના અધ્યયનમાં લખ્યું છે Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिका विचारः ४३ च्छित्ता चउप्पुडेणं वत्थेणं मुहं बंधमाणी भगवं गोयमं एवं वयासि - तुभेविणं भंते! मुहपोत्तियाए मुहं बंधेह । तए णं से भगवं गोयमे मियाए देवीए एवं वृत्ते समाणे मुहपोतियाए मुहं बंधइ " इत्युक्तं, तस्यायमाशयःमृगापुत्रं दर्शयितुं प्रवृत्ता मृगादेवी भूमिगृहद्वारोद्घाटनकाले दुर्गन्धाघाणवारणाय चतुष्पुटेन वस्त्रेण स्वमुखं बध्नती भगवन्तं गौतमं जगाद - हे भदन्त । त्वमपि मुखपोतिकया मुखं वधान, ततः स भगवान् गौतमो मृगादेव्यैवमुक्तः सन् मुखपोतिकया मुखं वध्नाति (स्म) इति । इदमनेन सुस्पष्टं प्रतीयते - गौतमस्वामिनो मुखोपरि मुखस्त्रिका वृद्धा नासीत् किन्तु हस्त एव धृतेति, अत एव मृगादेवी दुर्गन्धाघ्राणप्रतिवन्धाय “तुम्भेवि णं भंते! मुहपोतियाए मुहं बंधेह " इति प्रार्थितवतीत्याहु:' तन्न सम्यक् उष्णमुखवायुतः सम्पातिमसुक्ष्मव्यापिजीवानां रक्षणार्थ ऐसा लिखा है - " तए णं सा " इत्यादि । इसका आशय यह है कि मृगादेवी जब मृगापुत्रको आहार देनेके लिए भोयरे किवाड़ खोलने लगी तब नाकमें दुर्गन्ध आनेका निवारण करनेके लिए चार पड़वाला वस्त्र मुख पर बांधकर भगवान् गौतमस्वामीसे कहने लगी- 'हे भदन्त । आप भी मुखवस्त्रिकासे मुख बांध लीजिये' । मृगादेवीका कथन सुनकर भगवान् गौतम मुखवस्त्रिका से मुख बांधते हैं ( बांध लिया) । ' इससे यह बिलकुल स्पष्ट है कि पहले गौतमस्वामीके मुख पर मुखवस्त्रिका नहीं बंधी हुई थी, किन्तु हाथ में थी, इसीसे मृगादेवीने मुखवखिका बांधने की प्रार्थना की थी । उनका यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि मुखकी उष्ण वायुसे संपातिम, सूक्ष्म और व्यापी जीवोंकी रक्षा करनेके लिए तथा बाह्य वायुकायकी 'तए णं सा' इत्यादि सेना माशय मे छे ! भृगाहेवी न्यारे भृगापुत्रने महार દેવાને માટે ભાયરાના કમાડ ખેાલવા લાગી ત્યારે નાકમાં દુર્ગંધ આવતી નિવારવાને માટે ચાર પડવાળું વસ્ત્ર મુખ પર ખાધીને ભગવાન્ ગૌતમ સ્વામીને કહેવા साथी - हे लहन्त ! આપ પણ મુખવશ્રિકાથી મુખ માધી રહ્યા. મૃગાદેવીનું કથન સાભળીને ભગવાન્ ગૌતમ મુખવસ્રકાથી મુખ ખાધે છે ( ખાંધી લીધું ) આથી એ તદ્દન સ્પષ્ટ થાય છે કે પહેલાં ગૌતમ સ્વામીના મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા આંધેલી નહેાતી, કિન્તુ હાથમા હતી, તેથી મૃગાદેવીએ મુખવગ્નિકા ખાધવાની પ્રાર્થના કરી હતી એમનું એ કહેવું ખરાખર નથી, કારણુ કે મુખના ઉષ્ણુ ત્રાયુથીસંપાતિમ, સૂક્ષ્મ અને વ્યાપી જીવાની રક્ષા કરવાને માટે તથા ખાદ્ઘ વાયુકાયની Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४४ "श्रीदशवकालिकसूत्रे बाह्यवायुकायरक्षार्थं च मुखवस्त्रिकावन्धनस्य सकलजैनागमतात्पर्यविषयतया मुखवस्त्रिका बद्धा नासीदिति कल्पनं तावन्मिथ्यात्वविलसितं सकलागमविरुद्धं च । इदमत्र तत्त्वम्-दुर्गन्धाघ्राणवारणाय 'मुहं बंधेह' इति प्रार्थनाऽनुपपन्ना, मुखेन गन्धग्रहणानुपपत्तेः, तस्मादत्र ' मुह ' शब्दो न मुखमात्रपरः किन्तु यथा गङ्गायां घोषः' इत्यत्र गङ्गाशब्दस्य प्रवाहरूपे शक्याथ (मुख्यार्थे) घोपान्वयतात्पर्यानुपपत्या तत्समीपवर्तिनि तीरे लक्षणावृत्त्या तात्पर्यमिति मन्यते, तथा मुखे वद्धाया एव तस्याः पुनस्तत्रैव बन्धनार्थमार्थना निष्फलतया नोपपद्यते, रक्षा करनेके लिए मुखवत्रिका वांधना सब जैन-आगमोंमें तात्पर्यरूपसे विधान किया गया है, इसलिए 'उनके मुख पर मुखवत्रिका नहीं बंधी थी' ऐसा कहना मिथ्यात्वका ही प्रताप है और सय शास्त्रोंसे विरुद्ध है । तात्पर्य यह है कि दुर्गन्धसे बचनेके लिए मुख घांधनेकी प्रार्थना उचित नहीं है, क्योंकि मुखसे गन्धका ग्रहण नहीं होता। अतएव यहाँ मुखसे केवल मुखही अर्थ नहीं है । जसे "गंगामें घोष (अहीरोंकी वसती) है। इस वाक्यसे ऐसा मतलब नहीं निकल सकता कि गंगाकी वीचधारमें अहीरोंकी वसती है, क्योंकि ऐसा होना अनुपपन्न है। अतएव जब वाक्यके मुख्य (शाब्दिक) अर्थमें वाधा आती हो तय लक्षणासे दूसरा मतलव लेना पडता है कि-गंगाके किनारे अहीरोंकी वसती है। इसीप्रकार मुखवस्त्रिकाका जब पहलेसे बंधी हुई है तब पुनः बांधनेकी प्रार्थना व्यर्थ पडती है, तथा दुर्गन्ध नाकमें न घुसने देनेके રક્ષા કરવાને માટે મુખવસ્ત્રિકા બાંધવી એવું બધાં જૈન-આગમમાં તાત્પર્યરૂપે વિધાન કરવામાં આવ્યું છે તેથી એમના મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા બાંધેલી નહોતી એમ કહેવું એ મિથ્યાત્વને જ પ્રતાપ છે અને બધાં શાસ્ત્રોથી વિરૂદ્ધ છે. તાત્પર્ય એ છે કે દુર્ગધથી બચવાને માટે મુખ બાંધવાની પ્રાર્થના ઉચિત નથી, કારણ કે મુખથી ગંધનું ગ્રહણ થતું નથી એટલે અહીં મુખથી કેવળ મુખને જ અર્થ થતું નથી. જેમ “ગંગામાં શેષ (આહીરની વસતી) છે” એ વાકયથી એવી મતલબ નથી નીકળી શકતી કે ગંગાની વચ્ચે પાણીના પ્રવાહમાં આહીરની વસતી છે, કેમકે એમ હોવું અનુપપન્ન છે. એટલે કે જ્યારે વાકયના મુખ્ય (શાબ્દિક) અર્થમાં બાધા આવે છે ત્યારે લક્ષણાથી બીજી મતલબ લેવી પડે છે, કે ગંગાને કિનારે અહીરેની વસતી છે. એ રીતે ખચિકા જે પહેલેથી ખાધી રાખેલી છે તે પુનઃ બાંધવાની પ્રાર્થને વ્યર્થ બને છે તથા દુર્ગધ નાકમાં ન Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः ४५ किञ्च दुर्गन्धाघ्राणवारणोद्देशेनापि तत्मार्थना नोपपद्यते, मुखमात्रबन्धने कृतेऽपि घ्राणेन्द्रियस्याsनावरणेन तदुद्देशसिद्धय संम्भवादिति मुखमात्रे बन्धनान्वयतात्पस्यानुपपत्त्या तत्समीपवर्तिनि घ्राणेऽपि लक्षणावृत्त्या तात्पर्यमिति गम्यते । लक्षणाश्रयणस्याऽऽवश्यकत्वादेवाऽऽचाराङ्गसूत्रेऽपि - " से भिक्खू बार उस्सासमाणे वा नीसासमाणे वा कासमाणे वा छीयमाणे वा जंभायमाणे वा उड्डोए वा वायनिसगं वा करेमाणे पुव्वामेव आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहित्ता" इत्यादिपाठः संगच्छते, तत्राप्यास्यकशब्दे लक्षणाश्रयणाभावे तु पाणिनाऽऽस्यकपरिपिधाने सति तज्जन्योच्छ्वासादियतनाया उपपत्तावपि घ्राणजन्योच्छ्वासनिःश्वासक्षुतयतनाया अनुपपत्त्या तेषामागमविरोधः सुस्पष्ट एव । लिए मुख बांधनेकी प्रार्थना करना युक्त नहीं है, क्योंकि मुख बांध लेने पर भी दुर्गन्धका आना नहीं रुक सकता, अतः यहाँ मुख बाँधनेका अर्थ अयुक्त होनेसे मुखके समीपवर्ती नासिका बाँधनेका तात्पर्य लक्षणासे विदित होता है । लक्षणाका आश्रय लेना आवश्यक होनेसे ही आचाराङ्गसूत्रका " से भिक्खू वा० " इत्यादि पाठ ठीक बैठता है । 6 वहाँ पर भी यदि ' आसयं ' (मुख) शब्द में लक्षणाका आश्रय न लिया जाय तो हाथसे मुख ढँक लेने पर मुखजन्य उच्छ्वास निःश्वास आदि की यतना संभव हो सकती है किन्तु घ्राणजन्य उच्छ्वास निःश्वास छोंककी यतना नहीं हो सकती । अतः उन लोगोंके मतमें आगमसे विरोध होना स्पष्ट है । પેસવા દેવાને માટે મુખ બાંધવાની પ્રાર્થના કરવી યુક્ત નથી. કારણ કે મુખ ખાંધી લેવા છતાં દુગ`ધ આવવાનું રોકી શકાતુ નથી એટલે અહીં મુખ માંધવાના અ અયુક્ત હેાવાથી મુખની નિકટ આવેલું નાક માંધવાનું તાત્પર્ય લક્ષણાથી વિદિત થાય છે, લક્ષણાના આશ્રય લેવા આવશ્યક હાવાથી જ આચારાંગ સૂત્રને सेभिक्खू वा० ” ઇત્યાદિ પાઠે ખરાખર મધ બેસે છે. तेमां पशु ले आसयं (सुख) शण्डमा તા હાથથી મુખ ઢાકી લેતા મુખજન્ય સંભવિત થઇ શકે છે, કિંતુ ઘ્રાણુજન્ય 44 શકતી નથી. એટલે એ લેાકેાના મતમાં આગમથી વિરોધ થાય છે એ સ્પષ્ટ છે. सक्षयानो आश्रय सेवासां न आवे ઉચ્છ્વાસ નિ:શ્વાસ આદિની ચુતના ઉચ્છ્વાસનિ:શ્વાસ છીંકની ચુતના થઈ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीदशवैकालिकसूत्रे नन्वेवं मुखवस्त्रिका भवतु वन्धनीया तथापि दोरकस्य बन्धने निवन्धनता-ऽऽगमतो न लभ्यते, तथा च तत्मान्तभागेनापि वन्धनं मुसम्पादम् , अलमेतेन दोरकपरिग्रहेणेति चेन्न, मुखवस्त्रिकावन्धनस्य शास्त्रप्रतिपाधतायां सिद्धायां तत्राल्पमेव दोरकमपेक्ष्य निरवद्यप्रकारेण तद्वन्धनसिद्धौ सत्यां चारित्रमालिन्यापादकप्रकारान्तराश्रयणस्यानौचित्यात्, मुखवस्त्रिकाप्रान्तभागेन शिरःपञ्चाद्भागे न्यूनतावशादन्थिविरहमाप्तावुचिताधिकतन्मानकल्पनायामुत्सूत्रप्ररूपणापत्तेश्च । किश्व-मुखोपरि मुखवत्रिकाया वन्धनं दोरकेणैव समुचितं भगवदभिप्रेतं च, प्रश्न-उक्त प्रकारसे मुख पर मुखवस्त्रिका वाँधना तो सिद्ध हुआ किन्तु डोरा लगाकर वाँधना आगममें कहीं नहीं पाया जाता । इसलिए मुखवस्त्रिकाके छोर (पल्ला) से भी उसे वाँध सकते हैं, डोराकी क्या आवश्यकता है? उत्तर-उनका यह कथन ठीक नहीं है । क्योंकि जब यह सिद्ध हो चुका कि आगममें मुखवत्रिकाका बाँधना प्रतिपादित किया गया है तो छोटेसे डोरेसे निर्दोषतापूर्वक बन्धनकी सिद्धि होने पर चारित्रको मलिन करने वाले दूसरे तरीके काममें लानाअनुचित है। मुखवत्रिकाके छोरसे, सिरके पीछे न्यूनताके वशसे गांठ न लगा सकनेसे मुखवत्रिकाके उचित प्रमाणसे अधिककी कल्पना करनी पड़ेगी, और ऐसी कल्पना करनेसे उत्सूत्रप्ररूपणाका दोष लगेगा। दूसरी बात यह है कि डोरेसे ही मुख पर मुखवत्रिका बांधना પ્રશ્ન–એ પ્રકારે મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા બાંધવાનું તે સિદ્ધ થયું, પરંતુ દેરો લગાવીને બાધવાનું આગમમાં કયાંય મળી આવતું નથી. તેથી કરીને મુખવસ્ત્રિકાના છેડાથી પણ તેને બાંધી શકાય છે. દોરાની શી આવશ્યકતા છે. ઉત્તર–એનું કથન બરાબર નથી, કારણ કે જે એ સિદ્ધ થઈ ચૂકયું કે આગમમાં મુખવસ્ત્રિકા બાંધવાનું પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યું છે તે નાના સરખા દેરાથી નિર્દોષતા–પૂર્વક બે ધનની સિદ્ધિ થતાં ચારિત્રને મલિન કરનાર બીજે પ્રકાર કામમાં લે એ અનુચિત છે, મુખવસ્ત્રિકાને છેડાથી શિરની પાછળ ન્યૂનતાને કારણે ગાંઠ ન બાધી શકાવાથી મુખવસ્ત્રિકાને ઉચિત પ્રમાણથી વધારે (લાંબી) રાખવાની કલ્પના કરવી પડશે, અને એવી કલ્પના કરવાથી ઉત્સુત્રપ્રરૂપણાને દેપ લાગશે બીજી વાત એ છે કે દેરાથી જ મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા બાંધવી ઉચિત છે Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिका विचारः लोके हि बन्धनं गुणेनैव प्रसिद्धं तत्रापि यथायोग्यमेव सूत्रदो रकादयस्तदर्थमादीयन्ते, यथा पुष्पपुस्तकवसनादिवन्धनार्थी यथाक्रमं मृदुमेव दोरकमुपादत्ते । किञ्च - सामाचारीग्रन्थे - "मुखवस्त्रिकां प्रतिलेख्य मुखे बद्ध्वा प्रतिलेखयति रजोहरणम्" इत्युक्तं देवचन्द्रसूरिणाऽपि । अत्र मुखवस्त्रिकाया बन्धनक्रियाकर्मत्वेन प्रतिपादनात् तदौचित्याच्च ला दोरकरूपमनुरूपं करणमपेक्षत एव । तत्प्रान्तभागेन ग्रन्थिदाने तु तत्र करणत्वकल्पनं देवचन्द्रसूरिविरुद्धमयुक्तं च, कर्मत्व- करणत्वयोर्विरोधात् । ४७ उचित है और यही बात भगवानको भी इष्ट है । लोकमें किसी वस्तुका बाँधना डोरे से ही प्रसिद्ध है । उसमें भी यथायोग्य सूत्रका डोरा आदि बाँधने काम में लाये जाते हैं, जैसे फूल, पुस्तक या कपड़ा बाँधने वाले क्रमशः कोमल डोरेको हो काममें लाते हैं । ( सामाचारी ग्रन्थ में देवचन्द्रसूरिने लिखा है- "मुखवत्रिकां प्रतिलेख्य मुखे बद्ध्वा प्रतिलेखयति रजोहरणम् । " इस वाक्य में मुखवत्रिकाको बाँधनेरूप क्रियाका कर्म बताया है और वह उचित भी है। इसलिये वह (क्रिया) मुखवत्रिकाके अनुरूप डोरारूप करणकी अपेक्षा रखती है। तात्पर्य यह है कि जब मुखवस्त्रिका कर्म है तब करण भी कोई होना चाहिये और वह करण अर्थात् जिससे बाँधनारूप क्रिया होती है, डोरा ही होना चाहिए। गांठ लगानेमें करणत्वकी कल्पना करना देवचन्द्रसूरि से विरुद्ध है और अयुक्त है, क्योंकि कर्मत्व और करणत्वका विरोध है । અને એ જ વાત ભગવાનને પણ ઈષ્ટ છે. લેાકેામાં કાઈ વસ્તુને ખાંધવાનું કા દ્વારાથી જ પ્રસિદ્ધ છે. તેમાં પણ થાયેાગ્ય સૂતરના દોરે વગેરે ખાંધવાના કામમાં લેવામાં આવે છે, જેમકે ફૂલ, પુસ્તક ચા કપડું બાંધનારા ક્રમશ: કમળ દારાને જ કામમાં લે છે. J साभायारी ग्रंथमां देवयन्द्रसूरि सच् छे: "मुखवत्रिकां प्रतिलेख्य मुखे बद्ध्वा प्रतिलेखयति रजोहरणम् ” मे वाध्यमां भुवस्त्रिाने गांधवाइय डियानु ક ખતાવ્યું છે. અને તે ઉચિત પણ છે તેથી કરીને એ (ક્રિયા) મુખવમિકાને અનુરૂપ દ્વારારૂપકરણની અપેક્ષા રાખે છે તાત્પર્ય એ છે કે જો મુખવસ્ત્રિકા ક છે તેા કરણ પણ હોવું જોઇએ અને એ કરણ અર્થાત જેવડે માધવારૂપ ક્રિયા થાય છે તે દ્વારા જ હાવા જોઇએ ગાઠ માંધવામાં કરણત્વની કલ્પના કરવી એ દેવચન્દ્રસૂરિથી વિરૂદ્ધ છે અને અયુક્ત છે, કારણ કે કત્વ અને કરણત્વના વિધિ છે. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ श्रीदशवकालिकसूत्रे नन्वेवं मुखवस्त्रिका भवतु वन्धनीया तथापि दोरकस्य वन्धने निवन्धनताऽऽगमतो न लभ्यते, तथा च तत्मान्तभागेनापि वन्धनं मुसम्पादम् , अलमेतेन दोरकपरिग्रहेणेति चेन्न, मुखवस्त्रिकावन्धनस्य शास्त्रप्रतिपाद्यतायां सिद्धायां तत्राल्पमेव दोरकमपेक्ष्य निरवद्यमकारेण तद्वन्धनसिद्धौ सत्यां चारित्रमालिन्यापादकमकारान्तराश्रयणस्यानौचित्यात्, मुखवस्त्रिकामान्तभागेन शिरःपञ्चाद्भागे न्यूनतावशाहन्थिविरहमाप्तावुचिताधिकतन्मानकल्पनायामुत्सूत्रमरूपणापत्तेश्च ।। किश्च-मुखोपरि मुखवत्रिकाया वन्धनं दोरकेणैव समुचितं भगवदभिप्रेतं च, • प्रश्न-उक्त प्रकारसे मुख पर मुखवस्त्रिका वाँधना तो सिद्ध हुआ किन्तु डोरा लगाकर वाँधना आगममें कहीं नहीं पाया जाता । इसलिए मुखवस्त्रिकाके छोर (पल्ला) से भी उसे बाँध सकते हैं, डोराकी क्या आवश्यकता है? उत्तर-उनका यह कथन ठीक नहीं है। क्योंकि जब यह सिद्ध हो चुका कि आगममें मुखवत्रिकाका वाँधना प्रतिपादित किया गया है तो छोटेसे डोरेसे निर्दोषतापूर्वक बन्धनकी सिद्धि होने पर चारित्रको मलिन करने वाले दूसरे तरीके काममें लानाअनुचित है। मुखवत्रिकाके छोरसे, सिरके पीछे न्यूनताके वशसे गांठ न लगा सकनेसे मुखचत्रिकांके उचित प्रमाणसे अधिककी कल्पना करनी पडेगी, और ऐसी कल्पना करनेसे उत्सूत्रप्ररूपणाका दोप लगेगा। दूसरी बात यह है कि डोरेसे ही मुख पर मुखपत्रिका बांधना પ્રશ્ન– એ પ્રકારે મુખ પર મુખત્રિકા બાંધવાનું તે સિદ્ધ થયું, પરન્તુ દેરો લગાવીને બાધવાનું આગમમાં કયાંય મળી આવતું નથી. તેથી કરીને મુખવસ્ત્રિકાના છેડાથી પણ તેને બાંધી શકાય છે. દેરાની શી આવશ્યકતા છે. ઉત્તર–એનું કથન બરાબર નથી, કારણ કે જે એ સિદ્ધ થઈ ચૂકયુ કે આગમમાં મુખવસ્ત્રિકા બાંધવાનું પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યું છે તે નાના સરખા દેરાથી નિર્દોષતા–પૂર્વક બંધનની સિદ્ધિ થતાં ચારિત્રને મલિન કરનારે બીજે પ્રકાર કામમાં લે એ અનુચિત છે, સુખત્રિકાના છેડાથી શિરની પાછળ ન્યૂનતાને કારણે ગાઠ ન બાધી શકાવાથી સુખસ્ત્રિકોને ઉચિત પ્રમાણુથી વધારે (લાંબી) રાખવાની કલ્પના કરવી પડશે, અને એવી કલ્પના કરવાથી ઉસૂત્રપ્રરૂપણને દેવ લાગશે - બીજી વાત એ છે કે દેરાથી જ સુખ પર મુખવસ્ત્રિકા બાંધવી ઉચિત છે Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः ४७ लोके हि बन्धनं गुणेनैव प्रसिद्धं तत्रापि यथायोग्यमेव सूत्रदोरकादयस्तदर्थमादीयन्ते, यथा पुष्पपुस्तकवसनादिवन्धनार्थी यथाक्रमं मृदुमेव दोरकमुपादत्ते । किञ्च-सामाचारीग्रन्थे-"मुखवस्त्रिका प्रतिलेख्य मुखे बद्ध्वा प्रतिलेखयति रजोहरणम्" इत्युक्तं देवचन्द्रसरिणाऽपि । अत्र मुखवस्त्रिकाया वन्धनक्रियाकर्मत्वेन प्रतिपादनात् तदौचित्याच ला दोरकरूपमनुरूपं करणमपेक्षत एव । तत्यान्तभागेन ग्रन्थिदाने तु तत्र करणत्वकल्पनं देवचन्द्रसूरिविरुद्धमयुक्तं च, कर्मत्व-करणत्वयोविरोधात् । उचित है और यही बात भगवानको भी इष्ट है । लोकमें किसी वस्तुका बाँधना डोरेसे ही प्रसिद्ध है। उसमें भी यथायोग्य सूत्रका डोरा आदि याँधनेके काम में लाये जाते हैं, जैसे फूल, पुस्तक या कपड़ा बाँधने वाले क्रमशः कोमल डोरेको ही काममें लाते हैं। (सामाचारी ग्रन्थ में देवचन्द्रसूरिने लिखा है-"मुखवस्त्रिका प्रतिलेख्य मुखे बद्ध्वा प्रतिलेखयति रजोहरणम् ।"इस वाक्य में मुखवत्रिकाको बाँधनेरूप क्रियाका कर्म बताया है और यह उचित भी है। इसलिये वह (क्रिया) मुखवस्त्रिकाके अनुरूप डोरारूप करणकी अपेक्षा रखती है। तात्पर्य यह है कि जब मुखवस्त्रिका कर्म है तब करण भी कोई होना चाहिये और वह करण अर्थात् जिससे बाँधनारूप क्रिया होती है, डोरा ही होना चाहिए। गांठ लगानेमें करणत्वकी कल्पना करना देवचन्द्रसूरिसे विरुद्ध है और अयुक्त है, क्योंकि कर्मत्व और करणत्वका विरोध है। અને એ જ વાત ભગવાનને પણ ઈષ્ટ છે. લેકમાં કઈ વસ્તુને બાંધવાનું કાર્ય દેરાથી જ પ્રસિદ્ધ છે. તેમાં પણ ચ ગ્ય સૂતરને દેરે વગેરે બાંધવાના કામમાં લેવામાં આવે છે, જેમકે ફૂલ, પુસ્તક યા કપડું બાંધનારા ક્રમશ: કમળ દેરાને જ કામમાં લે છે ' साभा-यारी थमा हेवयन्सुश्मि भ्यु छ: “ मुखवस्त्रिका प्रतिलेख्य मुखे बध्वा प्रतिलेखयति रजोहरणम्" पायम भुभवनिजाने मांधवा३५ छियानु કર્મ બતાવ્યું છે. અને તે ઉચિત પણ છે. તેથી કરીને એ (ક્રિયા) મુખવસ્ત્રિકાને અનુરૂપ દેરારૂપ કરણની અપેક્ષા રાખે છે તાત્પર્ય એ છે કે જે મુખવસ્ત્રિકા કર્મ છે તે કરણ પણ કહેવું જોઈએ અને એ કરણ અર્થાત જેવડે બાંધવારૂપ ક્રિયા થાય છે તે દેરે જ હવે જોઈએ ગાઠ બાંધવામાં કરણત્વની કલ્પના કરવી એ દેવચન્દ્રસૂરિલી વિરૂદ્ધ છે અને અયુક્ત છે, કારણ કે કર્મ અને કરણત્વને વિરોધ છે. Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदर्शवैकालिकसूत्रे मुखवत्रिकाबन्धनार्थं कर्णयुगले शस्त्रेण छिद्रकरणं तु अतीवाऽज्ञानविजृम्भितम्, छिद्रकरणस्य शास्त्रानुक्ततया शस्त्रमयोगसाध्यतया दुष्करतया च तदपेक्षया निरवद्यत्वेन दोरकाश्रयणस्यैवौचित्यात् । ४८ नन्वेवं दोरकाश्रयणे सदोरकमुखवस्त्रिकाधारकाणां भाषणकाले मुखोत्पतितजलकणैरार्द्रीभूतायां सुखवस्त्रिकायामशुचिन्थानतया संमूच्छिमजीवा उत्पद्येरन्, हस्तेन मुखवस्त्रिकाधारणे तु न तथाविधजीवोत्पत्तिसम्भवः, तथा च दोरकपरिग्रहो दुराग्रहमात्रमिति चेन्न, मुखोत्पन्नजलकणानां भगवता जीवोत्पत्तिस्थानतयाऽनुक्त मुखवस्त्रिका बाँधनेके लिए-कानों में छेद कर लेना तो बड़ी भारी अज्ञानता है। क्योंकि साधुपनेके लिए किसी अवयवको छेदना शास्त्रों में निषिद्ध है और शस्त्रसाध्य होने से दुष्कर भी है । उसकी अपेक्षा निर्दोषरूप से डोरेका आश्रय लेना ही उचित है । प्रश्न- डोरेका आश्रय लेने से डोरा सहित मुखवस्त्रिका मुख पर धारण करनेवालों की मुखवस्त्रिका भाषण करते समय मुख से निकलनेवाले पानी के कणोंसे गीली हो जायगी और गीली होने से अशुचिस्थान हो जानेके कारण वहाँ संमूच्छिम जीवों की उत्पत्ति होगी। हाथमें मुखवस्त्रिका धारण करनेसे संमूच्छिम जीवोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । इसलिए डोराका ग्रहण करना दुराग्रहमात्र है । उत्तर- ऐसा कहना उचित नहीं है। क्योंकि मुखसे निकलने वाले जलके कणोंको भगवान्ने जीवोत्पत्तिका स्थान नहीं बताया है। ऐसा भी મુખઅા ખાધવાને માટે કાનમાં છિદ્ર પડાવી લેવા એ તે ભારે અજ્ઞાનતા છે, કારણ કે સાધુપણાને માટે કઈ અવયવને છેદવું શાસ્ત્રમાં નિષિદ્ધ છે અને શસ્ત્રસાધ્ય હોવાથી દુષ્કર પશુ છે. એને ખદલે નિર્દોષ રૂપે દારાને આશ્રય લેવા જ ઉચિત છે પ્રશ્ન—દેરાને આશ્રય લેવાથી દેરા-સહિત મુખવસ્ત્રિકા મુખ પર ધારણ કરનારાઓની મુખવસ્ત્રિકા ભાષણુ કરતી વખતે મુખમાંથી નીકળતા પાણીના કણાથી ભીની થઇ જશે અને ભીની થવાથી અશુચિસ્થાન થઈ જવાને કારણે ત્યા સ પૂર્ણિમ જીવોની ઉત્પત્તિ થશે. હાથ!! મુખત્રિકા ધારણ કરવાથી સ’મૂર્છાિમ જીવાની ઉત્પત્તિ થતી નથી તેથી કરીને દોરાનું ગ્રહણ કવુ એ દુરાગ્રહ થાય છે ઉત્તર્—એમ કહેવું ઉચિત નથી, કારણ કે મુખથી નીકળતાં જળનાં કણાને ભગવાને જીવાત્પત્તિનું સ્થાન બતાવ્યું નથી, એમ પણ ન કહી શકાય Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ ग्रा. १ मुखवस्त्रिका विचारः स्वात् । न चैतेषां जलकणानां खेलांशतयाऽशुचिस्थानतया वा जीवोत्पत्तिस्थानत्वं प्रतीयत इति वाच्यम्, तत्र खेलांशतामती तेर्भ्रान्तिमूलकत्वात् । वैद्यकशास्त्रे हि खेलस्य मुखजलकणानां च भेदः सुस्पष्टः, तथाहि खेलशब्दः श्लेष्मण्यर्थे वर्त्तते, आमाशयो, हृदयं, कण्ठः, शिरः, सन्धयश्चैतानि श्लेष्मणः स्थानानि, तथाचोक्तं भावप्रकाशे " आमाशयेऽथ हृदये, कण्ठे शिरसि सन्धिषु । स्थानेष्वेषु मनुष्याणां श्लेष्मा तिष्ठत्यनुक्रमात् ॥ " इति, अस्य स्वरूपं धर्माश्रोक्ताः सुश्रुतसंहितायां यथा " श्लेष्मा श्वेतो गुरुः स्निग्धः, पिच्छलः शीत एव च । मधुरस्त्वविदग्धः स्याद्, 'विदग्धो लवणः स्मृतः ॥ " इति, ४९ नहीं कहना चाहिए कि वे जलकण खेलके अंश हैं, इसलिए अशुचिस्थान हैं और अशुचिस्थान होनेसे जीवोत्पत्तिके स्थान हैं। क्योंकि उन जलकणोंको खेल (कफ) का अंश समझना भ्रान्तिमूलक है । 'खेल' शब्दका अर्थ श्लेष्म है। आमाशय, हृदय, कठ, सिर और सन्धियाँ श्लेष्म के स्थान हैं । भावप्रकाश में लिखा है आमाशयेऽथ हृदये, कण्ठे शिरसि सन्धिषु । 3 स्थानेष्वेषु मनुष्याणां श्लेष्मा तिष्ठत्यनुक्रमात् ॥ १ ॥ 'अर्थात् - " आमाशय, हृदय, कण्ठ, शिर और संधिभाग; "इन स्थानों में मनुष्यों को अनुक्रम से कफ रहता है । " सुश्रुतसंहिता में श्लेष्मका स्वरूप और गुण इस प्रकार बताये हैं કે એ જળકણુ ખેલ ( કફ્ ) ના અશરૂપ હોય છે અને તેથી અશુચિસ્થાન છે અને અશુચિસ્થાન હાવાથી છાત્પત્તિના સ્થાન છે. એ જળકણામાં કફના અશ સમજવા એ ભ્રાન્તિમૂલક છે વેજી શબ્દના અર્થ શ્લેષ્મ છે. આમાશય, હૃદય, કઠ, શિર અને સધિ એ શ્લેષ્મનું સ્થાન છે, ભાવપ્રકાશમાં લખ્યુ છે કેआमाशयेऽथ हृदये, कण्ठे शिरसि सन्धिषु । स्थानेवेषु मनुष्याणां श्लेष्मा तिष्ठत्यनुक्रमात् ॥ 3 ८८ અર્થાત્ “ આમાશય હૃદય કઠે શિર અને સધિભાગ એ સ્થાનેમાં મનુષ્યને અનુક્રમથી કક્ રહે છે ” સુશ્રુતસહિતામા શ્લેષ્મનુ સ્વરૂપ અને ગુણુ આ પ્રકારે બતાવ્યા છે: १ विदग्ध - पका या जला हुआ । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . . श्रीदशवकालिकसूत्रे मुखजलस्य तु रसनामूलं तदग्रभागश्चेतिद्वयमुत्पत्तिस्थानम् , इदं च चर्वितस्यान्नस्य पिण्डीभवने कण्ठनलिकयाऽधोनयने पाचने च निमित्तम् । अत एव योगचिन्तामणौ प्रथमाध्याये " रसाऽमृङ्मांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राणि धातवः । इत्युक्त्वा कस्य धातोः किं मलम् ? इति प्रदर्शयितुं पुनरभिहितम्"जिहानेकपोलानां जलं पित्तं च रञ्जकम् ," इत्यादि । श्लेष्मा श्वेतो गुरुः स्निग्धः पिच्छलः शीत एव च। मधुरस्त्वविदग्धः स्याद्, विदग्धो लवणः स्मृतः ॥१ अर्थात्-श्लेष्म (कफ) सफेद, गुरु, चिकना, पिच्छल और शीत होता है । नहीं जला हुआ या कचा कफ मधुर होता है और पका या जला हुआ नमकीन होता है। मुखजलके केवल दो उत्पत्तिस्थान हैं-(१) जिहाका मूल और (२) जिहाका अग्रभाग । यह मुखजल चवाये हुए अन्नको पिण्ड बनाने तथा कण्ठकी नलीके नीचे लेजाने तथा पचानेका कारण है। इसीसे योगचिन्तामणि ग्रन्थके प्रथम अध्यायमें "रसामृङ्मांसमेदोऽस्थिमजाशुक्राणि वातवः" ऐसा कह कर किस धातुका क्या मल है, सो यतानेके लिए फिर कहा है-"जिहानेत्रकपोलानां, जलं पित्तं च रञ्जकम्" । अर्थात् श्लेष्मा श्वेतो गुरुः स्निग्धः पिच्छलः शीत एव च । मधुरस्त्वविदग्धः स्यात् विदग्धो लवणः स्मृतः ॥ अर्थात-" म ( ) स, शु३, dि, पिस, भने शीत डाय छे. નહિ બળેલે યા કા કફ મધુર હોય છે અને પાકે યા બળેલે કફ ખારે हाय छे." | મુખજળનાં માત્ર બે ઉત્પત્તિ સ્થાન હોય છે : (૧) જીલ્લાનું મૂળ અને (૨) જીલ્લા (જીભ)ને અગ્રભાગ. એ મુખજળ ચાવેલા અન્નનો પિંડ બનાવવાનું તથા કઠની નળીની નીચે લઈ જવાનું તથા પચાવવાનું કારણ છે તેથી વેગयिन्तामणि अयना प्रथम अध्यायमा रसामृट्मासमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राणि धातवः એમ કહીને કઈ ધાતુને કયે મળે છે તે બતાવવાને માટે પછી કહ્યું છે કે जिहानेकपोलानां जलं पित्तं च रञ्जकम् । अर्थात्-छस नत्र भने सतुं cra Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः - जिहानेत्रकपोलानां जलं रसधातोमलं, रञ्जकं पित्तं रुधिरस्य मलमिति तदर्थः । इत्थं जिहाकपोलदेशे जायमानं जलं मुखजलं, तदीयकणिका एव भाषणकाले कदाचिद् वहिरुत्पतन्तीति विशदीभवति, श्लेष्मा तु न कस्यचिद् धातोमलं, स हि दोषत्रयान्तःपातित्वात्तत्स्वरूपम् , अत एव योगचिन्तामणी प्रथमाध्याये धातुमलतः पृथक्कृत्य दोषत्रयोपादानं कृतं, यथा शारीरकप्रकरणे " कलाः सप्ताशयाः सप्त, धातवः सप्त तन्मला। सप्तोपधातवः सप्त, त्वचः सप्त प्रकीर्तिताः॥१॥ त्रयो दोषा नवशतं, स्नायूनां सन्धयस्तथा । दशाधिकं च द्विशतमस्थ्नां च द्विशतं मतम् ॥ २॥ सप्तोत्तरं मर्मशतं, शिराः सप्तशतं तथा । चतुर्विंशतिराख्याता, धमन्यो रसवाहिकाः ॥३॥ मांसपेश्यः समाख्याता, नृणां पञ्चशतं बुधैः। स्त्रीणां च विंशत्यधिकाः, कण्डराश्चैव षोडश ॥ ४ ॥ नृदेहे दश रन्ध्राणि, नारीदेहे त्रयोदश । एतत्समासतः प्रोक्तं, विस्तरेणाधुनोच्यते ॥ ५॥" इति । जीभ, नेत्र और गालका जल रसधातुका मल है तथारंजक पित्तरुधिरका मल है । इसप्रकार जीभ और गालोंमें उत्पन्न होनेवाला जल मुखका जल कहलाता है और उसीकी कणिका भाषण करते समय कभी-कभी बाहर निकल जाती है, यह बात स्पष्ट है। श्लेष्मा किसी धातुका मल नहीं है, वह तीन दोषोंमेंसे एक दोष है, इसीसे योगचिन्तामणिमें धातुओंके मलोंसे पृथक् करके तीन दोष अलग बताये हैं, देखो शारीरक प्रकरण "कलाः ससाशयाः" इत्यादि श्लोक ५। રસ ધાતુને મલ છે તથા ૨જક પિત્ત રૂધિરને મલ છે. એ રીતે જીભ અને ગાલમાં ઉત્પન્ન થનારૂ જલ મુખનું જ કહેવાય છે અને તેની કણિકાઓ ભાષણ કરતી વખતે કઈ-કઈ વાર બહાર નીકળી જાય છે તે વાત સ્પષ્ટ છે. તેમ કઈ ધાતને મલ નથી, તે ત્રણ દેશમાં એક દેશ છે. તેથી રોગચિન્તા મણિમાં ધાતુઓના મલેથી જૂદા પાડીને ત્રણ દેષ અલગ બતાવેલા છે. જુઓ 'शाN२४ ४२ " कलाः सप्ताशयाः" त्याहि ४ ५. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - ५२ श्रीदशबैकालिकसूत्रे एवं च मुखजलस्य खेलतो भेदः स्पष्ट एव । न च खेलशब्दस्य निष्ठीवनार्थकतया निष्ठीवनात्मके मुखजले खेलशब्दप्रवृत्त्या तस्यापि जीवोत्पत्तिस्थानत्वं दुर्वारमेवेति वाच्यम् , निष्ठीन्यते-निरस्यते अक्षिप्यते यत्तनिष्ठीवनमिति 'नि'पू कात् 'छीवु निरसने' इति धातो हुलकात् कर्मणि ल्युटि निष्पन्नस्य निष्ठीवनशब्दस्य योगेन मुखनिर्गतपदार्थमात्रे प्रयोगो भवति, एवं च निष्ठीवनशब्दस्यैव प्रक्षिप्तखेलाधर्थकत्वं सिध्यति न तु खेलशब्दस्य निष्ठीवनार्थकत्वम् , तथा च मुखनिर्गतजलकणेषु न जीवोत्पत्तिसिद्धिः, जीवोत्पत्तिस्थानपरिगणने निष्ठीवन इस प्रकार स्पष्ट है कि मुखका जल श्लेष्मसे भिन्न है। प्रश्न-'खेल' शब्दका अर्थ 'थूक' है, और थूक तथा मुखजल एक ही है। अतः मुखजलमें खेल शब्दकी प्रवृत्ति होनेसे वह जीवोत्पत्तिका स्थान होगा ही। उत्तर-ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्योंकि 'निष्ठीवन' शब्द 'नि'उपसर्गपूर्वक 'ठीवु निरसने' धातुसे बना है। अतः मुखसे निकलने वाला कोई भी पदार्थ निष्ठीवन कहलाता है । इससे यह सिद्ध होता है कि त्यागा हुआ खेल आदि निष्ठीवन कहला सकता है किन्तु निष्ठीवन 'खेल' नहीं कहला सकता। इसलिए मुखसे निकलने वाले जलकणोंमें जीवोत्पत्तिकी सिद्धि नहीं होती, क्योंकि जीवोत्पत्तिके स्थानोंमे 'निष्टीवन' शब्द नहीं दिया है । वास्तवमें निष्ठीवन शब्द भावल्युडन्त होनेसे प्रक्षेपणरूप निरसन क्रियाका वाची है, ऐसा मानना युक्त है। अर्थात् એ રીતે સ્પષ્ટ થાય છે કે મુખનું જલ એ શ્લેષ્મથી ભિન્ન છે. प्रश्न-'मेट' शनी अर्थ ' थूछे, मने थू तथा भुमत मे २१ છે. એટલે મુખજલમાં ખેલ શબ્દની પ્રવૃત્તિ થવાથી તે ઉત્પત્તિનું સ્થાન થશે જ. ઉત્તર–એમ કહેવું બરાબર નથી, નિણીવન શબ્દ “નિ—ઉપસર્ગ–પૂર્વક છg નિસને ધાતુથી બન્યું છે એટલે મુખથી નીકળતે કે પદાર્થ નિકીવન કહેવાય છે. તેથી એમ સિદ્ધ થાય છે કે ત્યાગેલે ખેલ આદિ નિકીવન કહી શકાય છે, પરંતુ નિષ્ઠીવન “ખેલ નથી કહી શકાતે તેથી મુખથી નીકળતા જલકણમાં 1. છત્પત્તિની સિદ્ધિ થતી નથી, કારણ કે છત્પત્તિનાં સ્થાનમાં “નિષ્ઠીવન શબ્દ આપે નથી વસ્તુતઃ નિષ્ઠીવન શબ્દ ભાવલ્યુડન્ત હોવાથી પ્રક્ષેપણરૂપ નિરસન ક્રિયાને વાચક છે. એમ માનવું યુક્ત છે. અર્થાત્ નિકીવનને વાસ્તવિક । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन (गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः शब्दानुपादानात् । वस्तुतस्तु निष्ठीवनशब्दस्य भावल्युडन्ततया प्रक्षेपणात्मकनिरसनक्रियावाचित्वं युक्तम् , अतएव " रक्तनिष्ठीवनं दाहो, मोइश्छदन-विभ्रमौ । प्रलापः पिटिका तृष्णा, रक्तप्राप्ते ज्वरे नृणाम् ॥” इति, रक्तज्वरलक्षणं प्रतिपादयता माधवनिदानकृता निर्गमनेऽप्यर्थे निष्ठीवनशब्दः प्रयुक्तः । कवलीकृतस्य द्रव्यस्य मुखान्निरसनेऽपि निष्ठीवनत्वमुक्तं, भावप्रकाशे यथा "वातपित्तकफघ्नस्य द्रव्यस्य कवलं मुखे ।। अर्धे निःक्षिप्य संचऱ्या, निष्ठीवेत् कवले विधिः ।।" इति, तिब्बअकबराख्ये वैद्यकग्रन्थे पञ्चमाध्याये प्रथमप्रकरणेऽपि जिह्वामूलतो निष्ठीवनका वास्तविक अर्थ है क्षेपण करना, या त्यागना। इसीसे 'माध वनिदान' कर्ताने रक्तज्वर के लक्षण बताते समय निकलनेके अर्थमें निष्ठीवन शब्दका प्रयोग किया है रक्तनिष्ठीवनं दाहो, मोहश्छईनविभ्रमौ । प्रलापः पिटिका तृष्णा, रक्तप्राप्ते ज्वरे नृणाम् ॥१॥ भावप्रकाशमें कौर (कवल)के बाहर निकालनेको निष्ठीवन कहा है"वातपित्त०" इत्यादि, _. “तिब्च अकबर" नामक यूनानी वैद्यक ग्रन्थमें भी जिह्वाके मूलसे मुखजलकी उत्पत्ति स्पष्टरूपसे बताई गई है "जीभकी जड़में एक मांसकालोथडा है जिसमें से लुआब और मुखका पानी निकलता है और जीभको तर रखता है और खानेकी चीजोंमें मिला करता है।" तथा અર્થ છે-ક્ષેપણ કરવુ યા ત્યાગવું. તેથી “માધવનિદાન” કર્તાએ રક્તવરનાં લક્ષણે બતાવતી વખતે નીકલવાના અર્થમાં નિષ્ઠીવન શબ્દનો પ્રયોગ કર્યો છે : रक्तनिष्ठीवनं दाहो, मोहश्छद्दनविभ्रमौ । प्रलापः पिटिका तृष्णा, रक्तमाप्ते ज्वरे नृणाम् ॥ १ ॥ ભાવપ્રકાશમાં કેળીયાનું બહાર નીકાળવું અને નિષ્ઠીવન કહેલ છે – वातपित्त. त्यादि - “ તિમ્બ અકમ્બર” નામક યૂનાની વૈદ્યક ગ્રંથમાં પણ જીલ્લાના મૂલમાંથી મુખજલની ઉત્પત્તિ સ્પષ્ટરૂપે બતાવી છે. “ જીભના મૂળમાં માંસને લાગે છે જેમાંથી લુઆબ અને મુખનું પાણી નીકળે છે અને જીભને તર રાખે છે અને रखता है और खान और सुखका पाभिकी जड़में एक Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ श्रीदशवकालिकसूत्रे मुखजलोत्पत्तिः स्पष्टं प्रतिपादिता । शरीरविज्ञाने च मुखजलस्य पाचनशक्तिमत्त्वं प्रकटितम् । ___अशुचिस्थानतया मुखजलस्य जीवोत्पत्तिस्थानत्वापादनं तु सर्वथा निर्मूलमेव, तथाहि-यावन्ति जीवोत्पत्तिस्थानानि सन्ति तानि प्रज्ञापनासूत्रे निर्दिष्टानि, यथा___ "उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा सिंघाणएसु वा वंतेसु वा पित्तेसु वा पूयेसु वा सोणिएसु वा सुक्केसु वा सुक्कपुग्गलपरिसाडेसु वा विगयजीवकलेवरेसुवा थीपुरिससंजोएसुवा णगरनिद्धमणेतु वासव्वेतु चेव असुइटाणेसु, एत्थ णं समुच्छिममणुस्सा संमुच्छति” इति । 'शरीर विज्ञान' नामक ग्रन्थमें मुखजलके विषयमें लिखा है कि उसमें पचानेकी शक्ति होती है। 'अशुचिस्थान होनेसे मुखजल जीवोत्पत्तिका स्थान है ' ऐसा कहना विलकुल वेजड़ है । जीवोत्पत्तिके जितने स्थान हैं उन सयका निर्देश प्रज्ञापनासूत्रमें किया है " उच्चारेसु वा” इत्यादि, ___ अर्थात् “ उच्चार (विष्ठा) में, प्रस्रवण (मृत्र) में, कफमें, नाकके मैलमें, कैमें, पित्तमें, पीवमें, खूनमें, शुक्रमें, शुक्रपुद्गलपरिशाट (शुष्क शुक्रपुद्गलोंके फिर भीने होने ) में, प्राणीकी लाशमें, स्त्रीपुरुषके संयोगमें, नगरकी गटरमें, इन सब अशुचियोंके स्थानों में संमृच्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं।" ખાવાની ચીમાં મળ્યા કરે છે ” અને “શરીરવિજ્ઞાન” નામના ગ્રંથમાં મુખજલના વિષયમાં લખ્યું છે કે એમાં પચાવવાની શક્તિ હોય છે અશુચિસ્થાન હોવાથી મુખજલ ઉત્પત્તિનું સ્થાન છે” એમ કહેવું બિલકુલ અમૂલક છે ઉત્પત્તિનાં જેટલા સ્થાને છે એ બધાંને નિર્દેશ પ્રજ્ઞાપનાસૂત્રમાં ४२ छ : उच्चारेसु चा त्या “ या२ (वि४)भां, प्रसपाय (पिसा)भां, भी, नाना सीमां, वमन-CGटीमा, पित्तमा, ५३भां, सोडीभां, शुर-वाय भां, શુકપુદ્ગલપરિશાટમાં (શુક્રના સુકાયેલા પુદગલ ભીના થવામાં ), પ્રાણીના મુડદામાં, પુરૂષના સમાગમમાં, નગરની પાળ (ગટર)મા, એ બધાં અશુચિનાં સ્થાનમાં સમૃમિ મનુષ્ય ઉત્પન્ન થાય છે.” Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः अत्र " सव्वेसु चेव असुइट्ठाणेसु" इत्यस्य " सर्वेषु चैव अशुचिस्थानेषु” इति संस्कृतम् , अशुचीनां स्थानानि अशुचिस्थानानि तेषु अशुचिस्थानेषु, यत्रानेकेपामशुचीनामुच्चारादीनां स्थितिस्तत्रेत्यर्थः। ____ अयमाशयः-यथा पृथिव्यादीनां परकायशस्त्रेण परिणतत्वे सति सचित्तत्वमपगच्छति तथोच्चारादीनां मस्रवणादिसावर्ये सति संमूच्छिमजीवोत्पत्तिस्थानत्वापगमः स्यादिति शिष्यशङ्कासंभावनायां तनिरसनार्थमेव पृथक्कृत्येदमुक्तम्-"सव्वेसु चेव असुइट्ठाणेसु" इति, न त्वत्रानुक्तानामशुचीनां स्थानेषु, इति तदाशयः । एतेनोच्चारादीनां संमूच्छिमजीवोत्पत्तिस्थानत्वादेव तत्साकर्येऽपि तादृशजीवोत्पत्ति___ यहाँ सब अशुचियोंके स्थानोंसे तात्पर्य यह है कि जहाँ उच्चार आदि अनेक अशुचियोंकी स्थिति हो वह स्थान । __ मतलब यह कि-परकाय शस्त्रसे परिणत होने पर पृथिवीकाय आदि अचित्त हो जाते हैं, उसी प्रकार जब उच्चार आदि प्रस्रवण आदिके साथ मिल जाते हैं, तब उनमें संमूच्छिम जीवोंको उत्पन्न करनेकी शक्ति रहती है या नहीं ? शिष्यके ऐसे प्रश्नकी संभावना होने पर खुलासा करनेके लिए अलग कहा है कि "सब अशुचिस्थानोंमें।" इस वाक्यका “उक्त अशुचियोंके स्थानोंके सिवाय अन्य स्थानोंमें" यह अर्थ नहीं है। उपर्युक्त कथन करनेसे यह स्वयं सिद्ध हो गया कि जव उच्चार आदि संमूच्छिम जीवोंकी उत्पत्तिके स्थान हैं तब उन स्थानोंमेंसे यदि दो या तीन आदि मिल जावें तो भी वे जीवोंकी उत्पत्तिके स्थान रहेंगे। अतएव जो लोग - અહીં સર્વ અશુચિઓનાં સ્થાનેનુ તાત્પર્ય એ છે કે જ્યાં ઉચ્ચાર આદિ અનેક અશુચિઓની સ્થિતિ હોય તે સ્થાન મતલબ એ છે કે–પરકાય શસ્ત્રથી પરિણત થતાં પૃથિવીકાય આદિ અચિત્ત થઈ જાય છે, એ રીતે જ્યારે ઉચાર આદિ પ્રસવણ આદિની સાથે મળી જાય છે, ત્યારે તેમાં સંમૂચ્છિમ જીને ઉત્પન્ન કરવાની શક્તિ રહે છે કે નહિ ? શિષ્યના એવા પ્રશ્નની સંભાવના હોવાથી ખુલાસો કરવાને માટે જૂદુ કહ્યું છે કે સર્વ અશુચિસ્થાનમાં ” આ વાકયનો અર્થ “ઉકત અશુચિઓનાં સ્થાને સિવાય અન્ય સ્થાનમાં” એ નથી ઉપર મુજબ કથન કરવાથી એ સ્વયંસિદ્ધ થઈ ગયું કે જે ઉચ્ચાર આદિ સંમૂછિમ જીની ઉત્પત્તિનાં સ્થાન છે તે એ સ્થાનોમાં જે બે યા ત્રણ આદિ મળી જાય તે પણ તે જીવની ઉત્પત્તિનાં સ્થાને રહેશે તેથી કરીને જે લેકે એમ કહે છે કે પૂર્વોકત અર્થ કરવાથી Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे स्थानत्वं सुतरां सिद्धमिति “सव्वेसु चेव असुइटाणेसु" इति पुनरभिधानमसद्गतं व्यर्थ च स्यादिविवादिनः परास्ताः, उक्तशङ्कावारणाय तथाऽभिधानस्याऽऽवश्यकत्वात् । ' अयमर्थश्च भगद्वाक्यादेव स्फुटीभवति, तथाहि-सर्वेषां मुखनिर्गतपदार्थानां जीवोत्पत्तिस्थानत्वे लाघवानुरोधेन " मुहनिग्गएसु सब्वेसु चेव दव्वेसु" इत्येव वक्तव्ये पुनः " खेलेसु वा तेसु वा पित्तेसु वा” इति तत्तन्नामनिर्देशप्रयत्लो भगवत्कृतो व्यर्थः स्यात् , तस्मानिर्दिष्टेतरपदार्थे जीवोत्पत्तिर्न भवतीति स्पष्टं प्रतीयते । अथवा अणीयस्सु भापणकालिकेषु मुखोत्पतितजलकणेषु जीवोऐसा कहते हैं कि पूर्वोक्त अर्थ करनेसे 'सव्वेसु चेव असुइट्ठाणेसु" कहना व्यर्थ और असंगत हो जायगा, वे परास्त हो गये। क्योंकि शिष्यकी पूर्वोक्त शंकाका निवारण करनेके लिए उस कथनकी आवश्यकता है। ___यह अर्थ भगवान्के वचनसे ही निकलता है, क्योंकि यदि मुखसे निकलने वाले सब पदार्थ जीवोत्पत्तिके स्थान होते तो संक्षेप करनेके लिए केवल इतना कह देते कि 'मुहनिग्गएसु सव्वेसु चेव दवेसु' अर्थात् मुखसे निकलने वाले सब पदार्थोंमें संमृच्छिम जीव उत्पन्न होते हैं। "खेलेसुवा वंतेसु वा पित्तेसु वा” इस प्रकार अलग अलग भगवान् न फरमाते। इसलिए सूत्र में निर्देश किये हुए पदार्थोंके सिवाय अन्य किसी पदार्थमें जीवोंकी उत्पत्ति नहीं होती, यह बात स्पष्ट प्रतीत होती है। अथवा यदि भाषण करते समय निकले हुए थोड़ेसे जलकणोंमें जीवोंकी सम्वेस चेव अमुइहाणेस हे व्यर्थ भने असगत गये, तेम्मा ५२२५त ગયા. કારણ કે શિષ્યની પૂર્વોક્ત શંકાનું નિવારણ કરવા માટે એ કથનની આવશ્યકતા છે આ અર્થ ભગવાનનાં વચનમાંથી જ નીકળે છે કારણ કે જે મુખથી નીકળનારા બધા પદાર્થો છત્પત્તિનાં સ્થાને હોત તે સક્ષેપ કરવાને કેવળ એટલું જ ही रेत से मुहनिग्गएर सम्वेमु चेव दवेश अर्थात् भुमयी ना२६ गधा ५४ाभिमभूमि ७वो 6पन्न थाय छे. खेलेर वा वंतेम वा पित्तेनु वा से પ્રમાણે ભગવાન્ અલગ અલગ કહેત નહિ. તેથી કરીને સૂત્રમાં નિદેશેલા પદાર્થો સિવાય અન્ય કોઈ પદાર્થમાં જેની ઉત્પત્તિ થતી નથી એ વાત સ્પષ્ટ પ્રતીત થાય છે અથવા જે ભાષણ કરતી વખતે નીકળતા શેડા જલકમાં છની Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः त्पत्तौ सत्यां भगवता शिष्याणां स्पष्टपतिपत्तये- “खेलेसु वा वंतेसु वा" इत्यादिवत् “ मुहजलकणेतु वा” इति वाक्येन तेऽपि पृथक्कृत्य निर्देष्टन्याः स्युः, इति मुखजलकणानां भगवदनुक्तत्वान्न तत्र जीवोत्पत्तिर्भवतीति निश्चीयते । इदमत्र तत्त्वम् शिष्याणां जीवोत्पत्तिस्थानप्रतीति विना सम्यक् संयमपालनं न स्यादिति हेतोः स्पष्टीकृत्य सकलानि संमूच्छिमजीवोत्पत्तिस्थानानि वोधयितुं भगवता तत्तनामनिर्देशप्रयत्नोऽङ्गीकृतः, साकल्येन संमृच्छिमजीवोत्पत्तिस्थानपरिगणनतात्पर्याभावे तु भगवान्-" सव्वेसु चेव असुइटाणेसु" इत्येव ब्रयात् , उच्चारप्रसवउत्पत्ति होती तो शिष्योंको स्पष्ट बोध करानेके लिए भगवानने जैसे 'खेलेसु वा वंतेसु वा' इत्यादि अलग अलग नाम गिनाये हैं वैसे ही "मुहजलकणेसु वा" ऐसा और एक सूत्रपाठ रख देते। अतः निश्चित है किमुखसे निकलने वाले जलकणोंमें संमूच्छिम जीव उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि भगवान्ने उसे जीवोत्पत्तिका स्थान नहीं बताया है। तात्पर्य यह है कि शिष्य जबतक यह न जानलें कि जीवोंके उत्पत्तिस्थान कौन कौन हैं ? तब तक संयमका सम्यक् प्रकार परिपालन नहीं कर सकते। इसीसे भगवान्ने जीवोत्पत्तिके स्थानोंका खुलासा ज्ञान करानेके लिए अलग अलग नाम गिनाये हैं। यदि संमृच्छिम जीवोंकी उत्पत्तिके सव स्थान गिनानेका मतलब न होता तो सिर्फ सब्वेसुचेव असुइट्ठाणेसु' (अशुचि ઉત્પત્તિ થતી હેત તે શિષ્યને સ્પષ્ટ બંધ કરાવવાને ભગવાને જેમ વેણુ વાં वर्तम् वा त्या मला मसा नाम गाव्या छ तभ मुहजलकणेस वा मेवा એક વધારે સૂત્રપાઠ રાખ્યું હોત. તેથી કરીને નિશ્ચિત છે કે સુખથી નીકળનારાં જલકણોમાં સામૂછિમ જીવો ઉત્પન્ન થતા નથી, કારણ કે ભગવાને એને છોત્પત્તિનું સ્થાન બતાવ્યું નથી તાત્પર્ય એ છે કે-જ્યા સુધી શિષ્ય જાણ ન લે કે જીનાં ઉત્પત્તિ સ્થાન કયાં કયાં છે, ત્યાં સુધી તે સ યમનું સભ્ય પ્રકારે પરિપાલન કરી શકતા નથી. તેથી ભગવાને જીત્પત્તિનાં સ્થાનનું ખુલાસાથી જ્ઞાન કરાવવાને અલગ અલગ નામે ગણાવ્યાં છે જે સ મૂર્ણિમ જીવેની ઉત્પત્તિનાં બધાં સ્થાને ગણાવવાની भत नडात तो मात्र सम्वेस चेव अमुइहाणेमु (मशुथिनां मां स्थानमा) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + श्रीदशनैकालिकसूत्रे णादीनामप्यशुचिस्थानतयैव तादृशजीवोत्पत्तिस्थानत्वप्रतीतिसिद्धेः, तथा च तत्तदशुचिस्थाननिर्देशस्य वैयर्थ्यापत्तिः । जीवोत्पत्तिस्थान परिगणनतात्पर्याङ्गीकारे तु कियत्स्वशुचिस्थानेषु संमृच्छिमजीवा उत्पद्यन्ते ? इति जिज्ञासोपशमो न स्यादिति तत्तदशुचिस्थाननिर्देशस्य नानर्थक्यं, प्रत्युताऽऽवश्यकतया सार्थक्यमेव, अतएव " उवत्थिदियनिग्गएसु दव्बेसु वा " ( उपस्थेन्द्रियनिर्गतेषु द्रव्येषु ) इत्यनुक्त्वा पुनः पुनः - " पासवणेसु वा सुक्केसु वा सुक्कपुग्गलपरिसाडेसु वा सोणिएस वा धीपुरिससंजोएस वा " इति तत्तन्नाम्ना भगवानुपादिशत्, ५८ के सब स्थानों में ) इतना ही कह देते । क्योंकि उच्चार प्रस्रवण आदि सभी अशुचिस्थान होनेके कारण संमूच्छिम जीवोंकी उत्पत्ति के स्थान हैं, यह बात प्रतीतिसे सिद्ध है । ऐसी अवस्थामै अलग-अलग नाम गिनाना अकारथ हो जायगा । अगर ऐसा मानें कि जीवोंकी उत्पत्तिके स्थान गिनानेका मतलब है तो जिज्ञासु शिष्योंका सन्देह तब तक दूर नहीं हो सकता जब तक उन्हें साफ न बता दिया जाय कि किन-किन जगहों में संमृच्छिम जीवोंका जन्म होता है। इसलिए अलग-अलग गिनाना वृथा नहीं है, किन्तु आवश्यक होनेसे सार्थक है, इसी कारण " उवस्थिदियनिग्गएसु वा " ( उपस्थेन्द्रियनिर्गतेषु ) ऐसा न कहकर बारंबार ' पासवसु वा सुक्सु वा सुक्कपुग्गलपरिसाडेसु वा सोणिएस वा थोपुरिससंजोए वा 35 इस प्रकार हरेकका अलग-अलग नाम गिना कर भगवान्ने कथन किया है। ऐसा कथन न करते तो यह संशय बना रहता એટલુ જ કહી દેત કારણ કે ઉચ્ચાર પ્રસ્રવણુ આદિ ખધા અશુચિસ્યાના હવાને કારણે સમૃષ્ટિમ જીવાની ઉત્પત્તિનાં સ્થાન છે, એ વાત પ્રતીતિથી સિદ્ધ છે એવી સ્થિતિમાં અલગ અલગ નામે ગણાવવાં અહેતુક થઇ જાય. અગર એમ માના કે વાની ઉત્પત્તિનાં સ્થાને ગણાવવાની મતલખ છે તે જિજ્ઞાસુ શિષ્યને સદેહ ત્યાં સુધી દૂર નહિ થઇ શકે કે જ્યાં સુધી તેમને સાર્ક ન પતાવી દેવામાં આવે કે કઇ કઇ જગ્યાઓમાં સસૃષ્ટિમ જીવાના જન્મ ધાય છે. તેથી કરીને અલગ અલગ ગણાવવું એ વૃથા નથી, કિન્તુ આવશ્યક હાવાથી સાઈ છે. એ 31२] उवस्थित्रियनिग्गएसु वा (उपस्थेन्द्रियनिर्गतेषु) सेभ न देता बारवा२ पासवणेस वा सुकेस वा सुकपुग्गलपरिसाडेमु वा सोणिएसचा थीपुरिसनंजोए वा એ રીતે દરેકનાં અલગ અલગ નામે ગણાવીને ભગવાને કથન કર્યું છે એવું કયન ન કરત તે એ સંશય પડત કે સ્ત્રી-પુરૂષના સભાગ વિના કેવળ શુક્રાણુત Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः ५९ अन्यथा " स्त्रीपुरुष संयोगातिरिक्तेषु केवलशुक्रशोणितादिषु संमूच्छिमजीवा उत्पद्यन्ते न वा ? " इति संशयानपगमे सति मुनीनां संयमपालनं संकटापन्नं स्यादिति । वस्तुतस्तु भाषणकाले मुखोत्पतितानां जलकणानामशुचित्वमेव निर्मूलतया दुर्वचम्, शास्त्रे प्रज्ञापनासूत्रोक्तेपूञ्श्चारादिष्वेवाशुचिशब्दमयोगदर्शनात्, मुखोत्पतितजलकणार्थे तत्प्रयोगानुपलब्धेश्व, तथाहि व्यवहारसूत्रभाष्ये तृतीयोदेश के— 66 दव्वे भावे असुई भावे आहारवंदणादीहिं" इत्यादिगाथा - (२८६) व्याख्यानावसरे – “ अशुचिर्द्विधा - द्रव्यतो भावतश्च तत्र योऽशुचिना लिप्तगात्रो कि स्त्रीपुरुष संभोग के सिवाय केवल शुक्र शोणित आदिमें संमूच्छिम जीव उत्पन्न होते हैं या नहीं ? इस प्रकारके सन्देहसे मुनियोंको संयमपालन करना मुश्किल हो जाता । वास्तवमें मुखसे निकलने वाले जलकणोंको अशुचि कहना ही खोटा है, क्योंकि शास्त्र में प्रज्ञापनासूत्रोक्त उच्चार आदि ही 'अशुचि' शब्द से कहे गये है, और मुखसे निकलने वाले जलकणके अर्धमें 'अशुचि' शब्दका प्रयोग नहीं पाया जाता । व्यवहारसूत्रके भाष्य में, तीसरे उद्देशमें "दव्वे भावे असुई " इत्यादि २८६ वीं गाथाका व्याख्यान करते समय कहा हैअशुचि दो प्रकारकी है (१) द्रव्य अशुचि और (२) भाव अशुचि । जिस व्यक्तिका शरीर अशुचिसे लिप्त हो अथवा जो विष्ठाका त्याग આદિમાં સમૂમિ જીવા ઉત્પન્ન થાય છે કે નહિ ? એ પ્રકારના સદેહથી મુનિઓને સયમ પાલન કરવાનુ મુશ્કેલ થઇ પડત. વાસ્તવમા મુખમાંથી નીકળનારા જળકાને અશુચિ કહેવા એ ખાટું છે, કારણુ કે શાસ્ત્રમાં પ્રજ્ઞાપનાસૂત્રાકત ઉચ્ચાર આદિને જ અશુચિ શબ્દથી એળખવામાં આવ્યાં છે અને સુખમાથી નીકળનારા જળકણુના અર્થમાં અશુચિ શબ્દને प्रयोग भजी भावतो नथी, व्यवहार सूत्रना भाष्यमां, त्रीन्न उद्देशभां दव्वे भावे અરૂં ઇત્યાદિ ૨૮૬ મી ગાથાનું વ્યાખ્યાન કરતી વખતે કહ્યું છે—— અશુચિ બે પ્રકારની છે: (૧) દ્રવ્ય અશુચિ અને (૨) ભાવ અચિ. જે વ્યકિતનું શરીર અશુચિથી લેપાયલ હાય અથવા જે વિષ્ઠાને ત્યાગ કરીને (જાજરૂ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे यो वा पुरीपमुत्सृज्य पुतौ न निर्लेपयति स द्रव्यतोऽशुचिः" इत्युक्तम् । किञ्च-" दन्वे भावे असुई दव्बंमि विठ्ठमादिलित्तो उ ।” इत्यादिगाथा(२८७) व्याख्यानावसरे " अशुचिद्विधा द्रव्ये भावे च, तत्र द्रव्ये विष्ठादिना लिप्तः, आदिशब्दान्मूत्रश्लेष्मादिपरिग्रहः " इत्यभिहितम् । प्रज्ञापनासूत्रोक्ता उच्चारादय एवाशुचिपदस्यार्थ इत्याशयेनैव प्रकृते द्रव्यभावभेदेन द्विधा विभाजितेऽप्यशुचिपदार्थे मुखनिर्गतविमुपामनुपादानं कृतम् । आवश्यकसूत्रे वन्दनाख्यतृतीयाध्ययने एकादशाधिकैकशततम-( १११ )-गाथाव्याख्यायां हरिभद्रसूरिणाऽप्यशुचिस्थानशब्दस्य विट्मधानस्थानार्थकत्वमुक्तम् । एवमेव दर्शनशुद्धिकरके (टट्टी जाकर ) मलद्वार नहीं धोता उस व्यक्तिको द्रव्यसे अशुचि कहते हैं, इत्यादि। - तथा इसी व्यवहार भाष्यके तीसरे उद्देशेकी ' वे भावे असुई दमि विट्ठमादिलित्तो उ" इस २८७ वी गाथाकी व्याख्या करते समय टीकाकारने कहा है-विष्ठाआदिसे लिप्सको द्रव्य अशुचि कहते हैं। यहाँ आदि शब्दसे मूत्र और श्लेष्म आदिको ग्रहण करना चाहिए, ऐसा कहा है । प्रज्ञापनासूत्रमें कहे हुए उच्चार आदि ही अशुचि पदका अर्थ है, इसी आगयसे प्रकृतमें द्रव्य भावका भेद कर देने पर भी अशुचि पदार्थों में मुखसे निकलने वाले जलकणोंका ग्रहण नहीं किया है।। आवश्यकसत्रके वन्दना नामकतीसरे अध्ययनमें हरिभद्रसरिने १११वीं गाथाकी व्याख्या करते समय अशुचि शब्दका अर्थ विप्रधान स्थान જઈને) મળદ્વાર નથી તો એ વ્યકિતને દ્રવ્યથી અશુચિ કહે છે; ઇત્યાદિ. तथा-से व्यवहारसूत्र मायनी दचे भावे असूई दव्वंमि विद्वमादिलित्तो उ એ ૨૮૭ મી ગાથાની વ્યાખ્યા કરતી વખતે કહ્યું છે— વિઠા આદિથી લિસને દ્રવ્ય અશુચિ કહે છે અહીં “આદિ' શબ્દથી મૂત્ર અને લેમ આદિનું ગ્રહુણ કરવું જોઈએ એમ કહ્યું છે પ્રજ્ઞાપના સૂત્રમાં કહેલા ઉચ્ચાર આદિ જ અશુચિ શબ્દને અર્થ છે, એ આશયથી પ્રકૃતમાં દ્રવ્યભાવને ભેદ કરતાં છતાં પણ અશુચિ પદાર્થોમાં મુખથી નીકળતા જળકણોને ગ્રહણ કર્યા નથી આવશ્યક સૂત્રના વંદના નામક ત્રીજા અધ્યયનમાં હરિભદ્ર સૂરિએ ૧૧૧ મી ગાથાની વ્યાખ્યા કરતાં અશુચિ શબ્દનો અર્થ વિદ્ભધાન સ્થાન કર્યો છે. દર્શન Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः नामके ग्रन्थेऽपि प्रतिपादितम् । उत्तराध्ययनसूत्रे एकोनविंशेऽध्ययने द्वादशगाथाव्याख्यायां भावविजयगणिनाऽपि-"अशुचिभ्यां शुक्रशोणिताभ्यां संभवम् उत्पन्नम् अशुचिसम्भवम् " इत्युक्तम् । तत्रैव कमलसंयमोपाध्यायेनापि सर्वार्थसिद्धिटीकायाम्-" अशुचिसम्भवम् = अशुचिरूपशुक्रशोणितोत्पन्नम्" इति व्याख्यातम् , सूत्रकृताङ्गे द्वितीयश्रुतस्कन्धे द्वितीयाध्ययने नरकवर्णने पट्पष्टितम(६६) सूत्रे-' अमुई ' इत्यस्य टीकायाम्-" अशुचयो विष्ठासृक्क्ले दप्रधानत्वात् " इति शीलाझाचार्येण कथितम् । क्लेदः प्रस्वेदः (पसीना) इति हिन्दी'शब्दसागरकोशः। स च मुखजलाद्भिन्न इत्यतिरोहितमेव सर्वेपाम् । प्रस्वेदेऽपि किया है। दर्शनशुद्धि नामक ग्रन्थमें भी ऐसा ही प्रतिपादन किया है। 'उत्तराध्ययनसूत्र में उन्नीसवें अध्ययनकी बारहवीं गाथाकी व्याख्या करते समय भावविजयगणिने कहा है-"अशुचिभ्यां शुक्रशोणिताभ्यां संभवम्उत्पन्नम् अशुचिसंभवम्।" इसीसूत्रकी सर्वार्थसिद्धि नामक टीकामें कमलसंयम उपाध्यायने ऐसा व्याख्यान किया है-"अशुचिसंभवम् अशुचिरूप-शुक्रशोणितोत्पन्नम् । सूत्रकृताङ्गसूत्र में द्वितीय श्रुतस्कन्धके द्वितीय अध्ययनमें नरकके वर्णनमें ६६ वे सूत्र में 'असुई' पदकी टीकामें शीलाझाचार्य ने कहा है"अशुचयो विष्ठामुक्क्लेदप्रधानत्वात् ।" यहाँ क्लेद पसीनाको कहा है। यह यात सबको विदित ही है कि मुखसे निकलने वाले जलकण और पसीना एक नहीं हैं दोनों अलग-अलग हैं। पसीनेमें भीसंमृच्छिम जीव उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि संमूच्छिम जीवोंके उत्पत्ति-स्थानोंकी गिनती "શુદ્ધિ નામક ગ્રંથમાં પણ એવુ જ પ્રતિપાદન કર્યું છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં ૧૯ મા અધ્યયનની બારમી ગાથાની વ્યાખ્યા કરતાં ભાવવિજયગણિએ કહ્યું છે કેअशुचिभ्यां = शुक्रशोणिताभ्यां संभवम् = उत्पन्नम् अशुचिसंभवम् । ॥ सूत्रनी સર્વાર્થસિદ્ધિ નામક ટાંકામાં કમલસંયમ ઉપાધ્યાયે એવું વ્યાખ્યાન કર્યું છે કેअशुचिसंभवम् अशुचिरूप-शुक्रशोणितोत्पन्नम् । સૂત્રકૃતાગ સૂત્રમાં દ્વિતીય શ્રુતસ્કંધના બીજા અધ્યયનમાં નરકના વર્ણનમાં .६६ मा सूत्रमा असुई शनीमा शीसागाच्या अशुचयो विष्ठामृक्, क्लेदभधानत्वात् । माही से पसीनान घो छ. से वात सोपी छे , भुमथी નીકળતા જળકણ અને પસીનો એક નથી–બેઉ જુદા–જુદા છે. સોનામાં પણ . સ મૂર્ણિમ જી ઉત્પન્ન થતા નથી, કારણ કે સંમચ્છિમ છાનાં ઉત્પત્તિ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे न समूच्छिमजीवोत्पत्तिः, तत्परिगणने तस्यानुक्तत्वात् । पिण्डनियुक्तौ च पूर्तिक । मंदोपभेदस्य द्रव्यपूतेरुदाहरणे अशुचिगन्धशब्दस्य पुरीपगन्धार्यकत्वं निगदितम् । मानवधर्मशास्त्रेऽपि भाषणकालिकमुखोद्गतविमुषां मेध्यत्वमेवोक्तं नवरचितं, यथा मनुस्मृतौ पञ्चमाध्याये " मक्षिका विमुप'छाया, गौरश्वः सूर्यरश्मयः । रजो भूर्वायुरग्निश्च, स्पर्श मेध्यानि निर्दिशेत् ।। ५ ॥" १३३ ॥इति । किञ्च दोरकाश्रयणमेव हिसानिदानं मत्वा हस्तेन शिरःपश्चादागे अन्धिदानेन वा मुखवत्रिकां धारयताऽपि भापणकालिकमुखोत्पतितजलकणेपु संमूच्छिमनीवोत्पत्तिस्थानत्वाभावोपपादनाय प्रकृतोपात्तानि प्रमाणान्यवश्यं शरणीकरणीयानि, करते समय भगवान्ने पसीना नहीं कहा है । पिण्डनियुक्तिमें पूतिकर्मदोषके भेद द्रव्यपूतिके उदाहरणमें 'अशुचिगन्ध' शब्दको विष्ठा-गन्ध वाले अर्थमें प्रयोग किया है। मानवधर्मशास्त्रमें भाषण करते समय निकलने वाले जलकणोंको अशुचि नहीं कहा है । मनुस्मृति पाँचवाँ अध्याय " मक्षिका विघुषश्छाया, गौरश्वः सूर्यरश्मयः।। रजो भूर्वायुरग्निश्च, स्पर्श मेध्यानि निर्दिशेत् ॥” १३३ । डोरा धारण करनेको ही हिंसाका कारण मान कर हायसे अथवा सिरके पीछे गांट लगा कर मुखवत्रिका धारण करने वालोंको भी इन प्रमाणोंकी शरण लेनी चाहिए; जो यह यतानेके लिए यहाँ दिये गये हैं कि भाषण करते समय मुखसे निकलने वाले जलकणोंमें संमृच्छिम जीव સ્થાનની ગણત્રી કરતી વખતે ભગવાને પસીને કહેલું નથી. પિડનિર્યુક્તિમાં पतिमहोपना से द्रव्यपूतिना Galsरमा अशुचि-गंध शहना विपणा અર્થમાં પ્રવેશ કર્યો છે. માનવધર્મશાસ્ત્રમાં ભાષણ કરતી વખતે નીકળતા જળકને અશુચિ કહ્યા નથી. મનુસ્મૃતિના પાંચમા અધ્યાયમાં કહ્યું – मक्षिका विमुपश्छाया, गौरश्वः सूर्यरश्मयः । रजो भूर्वायुरग्निश्च, स्पर्शे मेध्यानि निर्दिशेत् ।।१३३॥ દરે ધારણ કરવાને જ હિંસાનું કારણું માનીને હાથથી અથવા શિરની પાછળ ગાંઠ વાળીને મુખવસ્વિકા ધારણ કરનારાઓએ પણ આ પ્રમાણેનું શરણુ લેવું જોઈએ, જે એ બતાવવાને માટે અહીં આપવામાં આવ્યાં છે કે–ભાષણ કરતી વખતે મુખથી નિકળતા જલકમાં સમૃ૭િમ જીવ ઉત્પન્ન નથી થતા, અન્યથા વ્યાખ્યાન Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा.१ मुखवस्त्रिकाविचारः ६३ अन्यथा तेपामपि धर्मोपदेशकाले द्वित्रहोरापर्यन्तं भाषणे मुखोपरि मुखवस्त्रिकाधारणस्याऽऽवश्यकतया तत्र मुखोत्पतितजलकणैरार्द्रतापत्तिारयितुमशक्यैव, लोके हि अनादृतमुखेन पुस्तकं पठतां परं प्रति ब्रुवतां च मुखविभुपः पुस्तके परदेहे चे पतन्त्यो लक्ष्यन्ते, पुनः समीतरवत्तिमुखवस्त्रिकायां न ताः पतिष्यन्तीति कल्पना किं दुराग्रहं नावेदयेदित्यलम् । नन्वेवं सूक्ष्मव्यापिसम्पातिमवायुकायादिजीवविराधनापरिहारार्थमेव यदि सदा सदोरकमुखवत्रिकावन्धने सावधानता विधीयते तर्हि भोजनकाले तदपसारणावश्यकतया कथं तादृशजीवविराधनापरिहारः ?, इति चेचित्तमवधेहि । उत्पन्न नहीं होते। अन्यथा धर्मोपदेश देते समय वे दो-दो तीन तीन घण्टे बोलते हैं उस समय मुखवस्त्रिका धारण करना आवश्यक होनेके कारण मुखसे निकलने वाले जलकणोंसे मुखवस्त्रिका गीली हो जायगी और इस आपत्ति का निवारण करना शक्य नहीं है। __लोकमें खुले मुंह पुस्तक पढनेवालोंके तथा दूसरोंसे वार्तालाप करने वालोंके मुखसे जलकण निकल कर पुस्तक पर तथा दूसरेकी देह पर गिरते हुए देखे जाते हैं । फिर मुखके पास ही रहनेवाली मुखवस्त्रिका पर कण नहीं गिरेंगे, ऐसी कल्पना करना दुराग्रहको ही प्रगट करता है। प्रश्न-सूक्ष्म, व्यापी, संपातिम तथा वायुकाय आदि जीवोंकी विराधनासे बचनेके लिए ही यदि सदा डोरा सहित मुखवस्त्रिका बाँधने में सावधानी रखी जाती है तो भोजन करते समय उन जीवोंकी विराधनासे कैसे बच सकते हैं?क्योंकि उस समयमुखवत्रिकाखोल लेना आवश्यक है। વાંચતી વખતે બબે ત્રણ-ત્રણ કલાક સુધી બેલે છે, ત્યારે મુખવસ્ત્રિકા ધારણ કરવી આવશ્યક હોવાથી મુખથી નીકળતા જલકથી મુખવસ્ત્રિકો ભીની થઈ જશે અને એ આપત્તિ નિવારવાનું શક્ય નથી લેકેમાં ખુલ્લે મુખે પુસ્તક વાંચનારના તથા બીજા સાથે વાર્તાલાપ કરનારના મુખમાંથી જલકણું નીકળીને પુસ્તક પર તથા બીજાના શરીર પર પડતા જોવામાં આવે છે તે પછી મુખની પાસે જ રહેનારી મુખવસ્ત્રિકા પર કશુ નહિ પડે, એવી કલ્પના કરવી એ દુરાગ્રહને પ્રકટ કરે છે. પ્રશ્ન-સૂમ, વ્યાપી, સંપતિમ તથા વાયુકાય આદિ ની વિરાધનાથી બચવાને માટે જ જે સદા દેરા સાથે મુખવસ્ત્રિકા બાંધવામાં સાવધાની રાખવામાં આવે છે તે ભજન કરતી વખતે એ જીવેની વિરાધનાથી કેવી રીતે બચી શકાય? કારણ કે એ વખતે મુખવસ્ત્રિકા છેડી નાંખવાની જરૂર પડે છે. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकमरे ___ अत्रैव चतुर्थाध्ययने- " जयं भुंजतो भासंतो पावं कम्मं न पंधह" इति भगवताऽभिहितम् , 'प्रागुक्तरीत्या मुखवत्रिकावन्धनस्याऽऽवश्यकत्वेऽपि तदपसारणमन्तरेण 'भुंजंतो' इति पदवोध्याया भोजनक्रियाया अनुपपत्त्या भोजनकाले मुनिना मुखवस्त्रिका मोचनीयेति गम्यते, अत एवात्र-'जयं भुंजतो इत्यस्य यथाकल्पलब्धान्तप्रान्तायेवाशनं मण्डलदोपवर्जनपूर्वकमभ्यवहरमाणः' इत्ये. वाशयो न तु मुखवत्रिकां वचैव भुञ्जान इति, तथा चोक्तयतनापूर्वकमोजनकाले मुखवस्त्रिकापसारणमागमानुकूलमेवेति न तस्य पापकर्मवन्धनहेतुत्वम् , अनेनैवाऽऽ. १ पूर्वोक्तप्रमाणानुसारेण ' इत्यर्थः । ___ उत्तर-चित्त लगाकर सुनो। इसी (दशवैकालिक) के चौथे अध्ययनमें भगवान ने कहा है “जयं भुजंतो भासंतो पावं कम्मं न बंधइ।" अर्थात् यतनापूर्वक आहार करने और भाषण करनेसे पापकर्मका बन्ध नहीं होता है पहले कहे गये प्रमाणोंसे मुखवस्त्रिका बांधना सिद्ध होने पर भी उसके निकाले विना 'भुंजतो' पदसे बोध्य भोजनक्रिया नहीं हो सकती। इससे ऐसा तात्पर्य निकलता है कि भोजन करते समय मुनिको मुखवखिका हटा देनी चाहिये । अतः 'जयं भुंजतो" पदका “ कल्पके अनुसार प्राप्त हुआ अन्त प्रान्त आदि आहार मण्डलदोपोंका त्याग करके भोगता हुआ" ऐसा अर्थ समझना चाहिए। ऐसा नहीं कि मुखवस्त्रिका बाँधे-याँधे आहार करे। अत एव उक्त-यतना-पूर्वक भोजनकालमें मुखवखिका त्याग देना आगमके अनुकूल है, अतः उससे पापकर्मका बन्ध ઉત્તર-ચિત્ત રાખીને સાંભળે એના (દશવૈકાલિકના) જ ચોથા અધ્યયનમાં भगवाने घुछ जयं भुंजतो भासंतो पावं कम्मं न बंधइ अर्थात् यतनाम આહાર કરવાથી પાપકર્મને બધ થતું નથી પૂકત પ્રમાણેથી મુખવઝિકા બાંધવી એ સિદ્ધ થયા છતાં પણ એને કાઢી નાખ્યા વિના મુંન્નતિ શબ્દથી બાહ્ય ભજનક્રિયા થઈ શકતી નથી. તેથી એવું તાત્પર્ય નીકળે છે કે ભજન કરતી વખતે મુનિએ મુખવશ્વિક હહાવી દેવી જોઈએ. એટલે ગયે મુંનંતો પદને અર્થ “કલ્પને અનુસાર પ્રાપ્ત થએલો અતિ પ્રાંત આદિ આહાર મંડલ-દેન ત્યાગ કરીને જોગવતાં ” એ પ્રમાણે સમજવા જોઈએ. એમ ન સમજવું જોઈએ કે મુખવશ્વિકા બાધી રાખીને આહાર કરે. એટલે ઉકત-યતના પૂર્વક ભેજનકાળમાં મુખવસ્ત્રિકાને ત્યાગ કરે એ આગમને અનુકૂળ છે, તેથી પાપકર્મને બધ થતું નથી Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः शयेन च-"पावं कम्मं न बंधइ" इत्युक्तं भगवता। ___ एवं च भगवत्तीर्थङ्करगणधरादिवचनपर्यालोचनेन निरवशेपसंशयतिमिरापगमपुरस्सरं प्रकाशमाने मानसे वायुकायादिविराधनापरिहाराय सदोरकमुखवत्रिकावन्धनं साहादं स्थानमासादयति । रागद्वेषदोषाकलितचेतसां भगवद्वचनामृतरसास्वादवञ्चितानां विविधसंशयपराहते चेतसीममथै दुर्लक्ष्यमभिलक्ष्य हस्तदुप्पाप्यमर्थमाकलयितुं सोपानमिवालम्बनं तेभ्यः पुरस्कर्तुं सममाणमेतत् सम्यगुपपादितम् । नहीं होता। इसी आशयसे भगवान्ने 'पावं कम्मं न बन्धइ' कहा है। इस प्रकार भगवान् तीर्थङ्कर गणधरादिकोंके वचनोंकी पर्यालोचना करनेसे सकलसंशयरूप अन्धकारले दूर हो जानेके कारण प्रकाशमान ऐसे हृदय में वायुकाय आदिकी विराधनाका दोष टालनेके लिए दोरासहित मुखवत्रिकाका बान्धना आल्हादपूर्वक स्थानको धारण करता है। रागद्वेषरूपी दोषसे दूषित भगवद्वचनामृतके रसास्वादसे वञ्चित पुरुषोंके अनेक दुर्विकल्पोंसे पराहत हुए चित्तमें इस अर्थको दुर्लक्ष्य समझकर उनके लिए हाथसे न प्राप्त होनेवाली वस्तुकी प्रासिके लिए सोपान (सीढी) की तरह आलम्बन अगाडी रखकर यह सब सप्रमाण प्रतिपादित किया गया है । मे माशयथी मावाने पावं कम्मं न वंधइ यु छ. એ પ્રકારે ભગવાન્ તીર્થકર ગણધરાદિનાં વચનની પર્યાલચના કરવાથી સકલ સંશયરૂપ અધકાર દૂર થઈ જવાને લીધે પ્રકાશમાન એવા હૃદયમાં, વાયુકાય આદિની વિરાધનાને દેષ ટાળવાને માટે દેરાસહિત મુખત્રિકાનું બાંધવું તે આલાદપૂર્વક સ્થાનને ધારણ કરે છે. રાગદ્વેષ રૂપી દષથી દૂષિત, ભગવદુવચનામૃતના રસાસ્વાદથી વચિત એવા પુરૂષના અનેક દુર્વિકલ્પથી પરાહત એવા ચિત્તમાં આ અર્થને દુર્લક્ષ્ય સમજીને તેમને માટે હાથથી ન પ્રાપ્ત થનારી વસ્તુની પ્રાપ્તિને માટે સોપાન (સીડી)ના જેવું આલબન આગળ રાખીને આ બધું સપ્રમાણ પ્રતિપાદિત ! “ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकास्त्र अत्र प्रमाणतयोपन्यस्तग्रन्थनामानि विनेयबुद्धिवैमल्याय निर्दिश्यन्ते(१) श्री-भगवतीसूत्रम् । . (१५) निशीथमूत्रम् । (२) हितशिक्षारासः । (१६) बृहत्कल्पभाष्यम् । ... (श्रावकऋपभदासकृतः) (१७) व्यवहारभाष्यम् । (३) हरिवलमच्छीरासः (१८) आचारागसूत्रम् । (मुनिलब्धिविजयकृतः) (१९) विपांकसूत्रम् । (४) योगशास्त्रम् (हेमचन्द्राचार्य०) (२०) सामाचारी । (५) ओघनियुक्तिः । (देवचन्द्रमरिकृता) (६) प्रवचनसारोद्धारः । (२१) प्रज्ञापनासूत्रम् । (७) प्रकरणरत्नाकरः । (२२) भावप्रकाशः । (१०) उत्तराध्ययनसूत्रटीकाः ३। (२३) सुश्रुतसंहिता । (१) सर्वार्थसिद्धिटीका। (२४) योगचिन्तामणिः । (२) भावविजयकृतरत्तिः। (२५) माधवनिदानम् । (३) पाईटीका । (२६) तिब्बअकबर । (११) विशेपावश्यकबृहदृत्तिः (२७) शरीरविज्ञानम् । (१२) अन्तकृद्दशाङ्गम् । (२८) मानवधर्मशास्त्रम् । (१३) आवश्यकमृत्रटीका । (२९) पिण्डनियुक्तिः । (हारिभद्रीया) (३०) सूत्रकृताङ्गम् । (१४) ज्ञाताधर्मकथागम् । (३१) दशवैकालिकसूत्रम् । इति । ॥ इति मुखवस्त्रिकाविचारः ।। यहां विनीत शिष्यकी वुद्धिका विकाशके लिए प्रमाणरूपसे दिये गये ग्रन्थोंकी कुछ नामावली संस्कृत टीकामें दी गई है, पाठकगण वहां देख लेवें ॥ ॥ इति मुखवस्त्रिकाविचार ॥ અહીં વિનીત શિષ્યની બુદ્ધિના વિકાસને માટે પ્રમાણુરૂપે આપેલા ની નામાવલી સંસ્કૃતટીકામાં આપવામાં આવી છે, ત્યાથી પાઠકે એ જોઈ લેવી. ઈતિ મુખવસ્ત્રિકાવિચાર Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ तपः स्वरूपम् ६७ तपः तपः- तपति - ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधं कर्म दहतीति तपः, तत्तु वाह्याभ्यन्तरभेदाद्विधा, तत्र वाह्यं तपः षड्विधम्, तथा चोक्तम् " अणसणमूणोयरिया, भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ । कायकिलेसो संलीणया य बज्झों तवो होइ ॥ १ ॥ " इति । छाया - " अनशनमूनोदरिका, भिक्षाचर्या च रसपरित्यागः । कायक्लेशः संलीनता च, बाह्यं तपो भवति ॥ १ ॥ " (१) अनशनं = चतुर्थभक्तादिषाण्मासिकान्तं यावज्जीवनं वाऽशेषाहारपरिहारः । । तप । जिससे ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म भस्म हो जावें उसे तप कहते हैं । वह दो प्रकारका है - (१) बाह्य और (२) आभ्यन्तर । बाह्य तप छह प्रकारका है (१) अनशन, (२) ऊनेादरी, (३) भिक्षाचर्या, (४) रसपरित्याग, (५) कायक्लेश, (६) संलीनता । (१) अनशन - इहलोक परलोक सम्बन्धी कामनारहित चतुर्थभक्त - षष्ठभक्त, अष्टमभक्त आदि छहमासी तप पर्यन्त, अथवा यावज्जीवन संपूर्ण आहारका परित्याग करना अनशन तप कहलाता है । 5 तथ જેથી જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ ક ભસ્મીભૂત થઈ જાય તેને તપ કહે छे, तय में अारो छे. (१) मा भने (२) माभ्यंतर बाह्य तय छ प्रश्नो छे—– (१) नशन, (२) अनोहरी, (3) मिक्षायर्या, (४) रसपरित्याग, (4) अयउसेश, (६) संलीनता. (१) अनशन —डिसो परसोई संबंधी अभना रडितयो, यतुर्थ भक्त, षष्ठ लडत, अष्टम लत ( समंग मे उपवास, मे उपवास, प्रभु उपवास ) આદિ છ માસી તપ સુધી અથવા જીવનપર્યંત સંપૂર્ણ આહારના પરિત્યાગ કરવા थे अनशन - तथ डेवाय छे. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिको (२) ऊनोदरिका यावताऽन्नादिनोदरं परिपूर्यते तत्र कवलमात्रमपि न्यूनयित्वाऽभ्यवहरणम् । (३) भिक्षाचर्या स्वाध्यायाविरोधियथाविधिविशुद्धभिक्षाकृते चरणम् (४) रसपरित्यागः दुग्धादिविकृतित्यागः। (५) कायक्लेशः शीतोष्णादिसहिष्णुत्वं केशलुश्चनं च । (६) सलीनता स्त्रीपशुपण्डकरहितवसतौ कूर्मवदकोपागाधाकुञ्चनपूर्वकावस्थानम् । (२) ऊनोदी-जितने अन्नसे उदरकी पूर्ति हो जाती है उससे एक ग्रास भी कम आहार करनेको ऊनोदरी तप कहते हैं। इससे स्वाध्याय, ध्यान आदि क्रियाएँ अच्छीतरह निभती हैं। (३) भिक्षाचर्या-जिससे स्वाध्याय, ध्यान आदि क्रियाओंमें विघ्न न आवे, इसप्रकार शास्त्रानुकूल विधिसे विशुद्ध भिक्षाके लिए पर्यटन करना भिक्षाचर्या तप कहलाता है। __ (४) रसपरित्याग दूध, दही, घृत, तेल, मीठेका त्याग करनेको रसपरित्याग कहते हैं। () कायक्लेश- शीत, उष्ण आदिकासहन करना, अथवा केशलोच करनेको कायक्लेश तप कहते हैं । (६) संलीनता स्त्री-पशु-पण्डकरहित वसतीमें कछुवेकीतरह अङ्गोपाङ्ग संकुचित करके स्थित होना संलीनता तप कहलाता है। (૨) ઉનેદરી–જેટલા અન્નથી ઉદર ભરાય તેથી એક કેળિયે માત્ર પણ એ છે આહાર કરે તે ઊોદરી તપ કહેવાય છે. તેથી સ્વાધ્યાય, ધ્યાન, આદિ ક્રિયાઓને સારી રીતે નિભાવ થાય છે (3) भिक्षाय-या स्वाध्याय, ध्यान मा याममा विन न આવે, એ પ્રકારે શાસ્ત્રાનુકૂલ વિધિથી વિશુદ્ધ ભિક્ષા માટે પર્યટન કરવું એ ભિક્ષાચર્યા તપ કહેવાય છે (४) २सपरित्याग-ध, दही, घी, तेल, भीrsat त्या ४२वो मेने રસપરિત્યાગ કહે છે. (५) अयsan-ट, ताप, माहिन सन ४२i. माशय ४२यो એ કાયમલેશ તપ કહેવાય છે. (6) संतान-श्री-पशु-३४-डित पसतीमा (स्थानमi) ४यानी પડે અંગે પગ સ કોચીને રહેવું તે સંલીનતા તપ કહેવાય છે. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ९ गा. १ तपःस्वरूपम् ६९ आभ्यन्तरमपि तपः षडूविधं, तथा चोक्तम् " पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ । झाणं च विउस्सग्गो एसो अभितरी तवो ॥ १ ॥ " इति । छाया - “ प्रायश्चित्तं विनयः, वैयावृत्यं तथैव स्वाध्यायः । ध्यानं च व्युत्सर्गः, एतदाभ्यन्तरं तपः ॥ १ ॥ 93 तत्र (१) प्रायश्चित्तम् = उपचिताऽतीचारशोधनं, यथाऽऽलोचनाप्रतिक्रमणादि । (२) विनयः = गुर्वाधाराधनं, यथाऽभ्युत्थानाऽऽसनप्रदानाभिवादनतन्मनोऽनुकूलप्रवृत्त्यादि । (३) वैयावृत्त्यं= साधूनामशनपानाद्यानयनादिना साहाय्यकरणम् । (४) स्वाध्याय: = श्रुतधर्माराधनं, सच वाचना- प्रच्छना - परिवर्त्तनाऽनुप्रेक्षा- धर्म - आभ्यन्तर तपके भी छह भेद हैं- (१) प्रायश्चित्त, (२) विनय, (३) वैयावृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान, (६) व्युत्सर्ग | (१) प्रायश्चित्त = लगे हुए अतिचारोंकी विशुद्धि करना प्रायश्चित्त तप है, जैसे आलोचना, प्रतिक्रमण आदि करना । (२) विनय = गुरु आदिकी आराधना करना विनय है । गुरु आदिके आने पर खड़ा होना, आसन देना, वन्दना करना, उनके मनके अनुकूल प्रवृत्ति करना आदि अनेक प्रकारका विनय होता है । (३) वैयावृत्य = अशन पान आदि लाकर मुनियों को सहायता पहुंचाना वैयावृत्य (वैयावच) तप कहलाता है । (४) स्वाध्याय = श्रुतज्ञानकी आराधना करना स्वाध्याय है । स्वाध्यायके पांच भेद है - (१) वाचना, (२) पृच्छना, (३) परिवर्तना, (४) अनुप्रेक्षा भाभ्यंतर तपना यागु छ लेहो छे. (१) प्रायश्चित्त, (२) विनय, (3) वैयावृत्य, (४) स्वाध्याय, (4) ध्यान, (६) व्युत्सर्ग. (૧) પ્રાયશ્ચિત્ત—લાગેલા અતિચારેની વિશુદ્ધિ કરવી એ પ્રાયશ્ચિત્ત તપ छे, नेम भयोयना, प्रतिभा वगेरे ४२वां. (૨) વિનય— ગુરૂ આદિની આરાધના કરવી એ વિનય છે. ગુરૂ આદિ આવે ત્યારે ઊભા થવું, આસન આપવું, વંદના કરવી, એમના મનને અનુકૂળ પ્રવૃત્તિ કરવી વગેરે અનેક પ્રકારે વિનય થાય છે (૩) વૈયાનૃત્ય-અશન પાન આદિ લાવીને મુનિઓને સહાય આપવી આદિ વૈયાવૃત્ય (વૈયાવચ્ચે) તપ કહેવાય છે (૪) સ્વાધ્યાય—શ્રુતજ્ઞાનની આરાધના કરવી એ સ્વાધ્યાય છે. સ્વાધ્યાયના यांग लेहो छे. (१) वायना, (२) पृच्छना, (3) परिवर्तना, (४) अनुप्रेक्षा, Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - श्रीदशवैकालिकसूत्रे कथाभेदात् पञ्चविधः । (५) ध्यानम् एकमात्रावलम्बनेन पवनासंपृक्तदीपशिखाया इव चित्तस्य स्थिरीकरणम् । यद्यपि तच्चतुर्विधम् आर्त-रौद्र-धर्म-शुक्लभेदात् , तथापि धर्म-शुक्ल-लक्षणं द्वयमेवोपादेयं पूर्वद्वयस्य कर्मवन्धहेतुत्वात् । (६) व्युत्सर्ग:-कायादिसंचालनऔर (६) धर्मकथा । शिष्योंको आगम पढ़ानेको 'वाचना' कहते हैं । सद्भावसे संशय दर करनेके लिए, अथवा तत्त्वका निश्चय करनेके लिए पूंछना 'पृच्छना' कहलाता है। शुद्ध उच्चारण करके वार-वार मनन करना 'अनुप्रेक्षा' है। धर्मकी चर्चा या उपदेश करनेको 'धर्मकथा' कहते हैं । () ध्यान-वायुके स्पर्श नहीं होनेसे जैसे दीपककी ज्योति स्थिर हो जाती है, वैसेही मनको किसी एक विषयमें स्थिर करलेने को ध्यान कहते हैं । ध्यान यद्यपि आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल भेदसे चार प्रकारका है, तथापि यहाँ धर्म और शुक्ल ये दो शुभ ध्यान ही उपादेय है, यही दोनों तपमें अन्तर्गत हैं, पहलेके दो अशुभ ध्यान कर्मवन्धनके कारण हैं। (६) व्युत्सर्ग-काय आदिके व्यापारको, तथा कपाय आदिको त्यागकर उपयोगसहित रहनेको 'व्युत्सर्ग कहते हैं। भने (५) धर्म था. શિષ્યને આગમ ભણાવવા અને પિતે ભણવું એ વાચને કહેવાય છે. સદભાવપૂર્વક સંશય દૂર કરવા માટે, અથવા તત્ત્વને નિશ્ચય કરવા માટે પૃછા કરવી– પૂછવું એ પૃચ્છના કહેવાય છે શુદ્ધ ઉચ્ચારણ કરીને વારંવાર આવૃત્ત કરવું તે પરિવર્તન કહેવાય છે ભણેલા અર્થનું વારંવાર મનન કરવું એ અનુપ્રેક્ષા છે. ધર્મની ચર્ચા અથવા ઉપદેશ કરે એ ધર્મકથા કહેવાય છે કે , (૫) ધ્યાન–વાયુને સ્પર્શ નહિ થવાથી જેમ દીવાની જ્યોત સ્થિર રહે છે, તેવી રીતે મનને કેઈ એક અલબનમાં સ્થિર કરી લેવુ એ ઇયાન કહેવાય છે. થાન આર્ત, રોડ, ધર્મ અને શુકલ એવા ભેદે કરીને ચાર પ્રકાર છે, તે પણ અર્દી ધર્મ અને શકલ એ બે ભ યાન જ ઉપાદેય છે એ બે થાન તપમાં અંતર્ગત છે, પહેલાં બે અશુભ ધ્યાન કર્મબંધના કારણે છે. (૬) વ્યુત્સર્ગ–કાયા આદિના વ્યાપારને તથા કપાય આદિને ત્યજીને ઉપગ સહિત રહેવું એ વ્યુત્સર્ગ કહેવાય છે. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ तपःस्वरूपम् निवृत्तिपूर्वकसोपयोगावस्थानम् । एवं वाह्याभ्यन्तरभेदेन द्वादशविधं तपः सिद्धम् । ननु अहिंसा-संयम-तपः-स्वरूपस्य धर्मस्योत्कृष्टमङ्गलत्वं प्रतिपाद्यते तत्र तपसोऽनशनादिलक्षणदुःखरूपत्वेन मोक्षहेतुत्वं न प्रामोति, तद्धि अशातवेदनीयकर्मोदयात्मकम् , भगवताऽपि क्षुत्पिपासादयः परीपहा वेदनीयकर्मोदयस्वरूपत्वेनाऽभ्यधायिषत । कर्मक्षयो हि यद्यपि मोक्षाङ्गत्वेन श्रूयतेऽपि शास्त्रे, कर्मोदयस्य तु न कचिन्मोक्षहेतुत्वं शास्त्रे लोके वा प्रथितम् । एवं सति तस्योत्कृष्टमङ्गलात्मकधर्मरूपत्वकथनमयुक्तम् । इस प्रकार बाह्य और आभ्यन्तरके भेद मिलकर तपके सब बारह भेद होते हैं। प्रश्न-अहिंसा, संयम और तपरूप धर्मको उत्कृष्ट मंगल बतलाया है, लेकिन अनशन आदि तप भोजन आदिका त्याग करनेसे होते हैं, इसलिए वे दुःख हैं और दुःख मोक्षका कारण नहीं हो सकता, क्योंकि दुःख असातवेदनीय कर्मके उदयसे होता है। भगवान ने भी यही प्रतिपादन किया है कि-"क्षुधा पिपासा आदि परिषह वेदनीय कर्मके उदयसे होते हैं।" कर्मका क्षय तो मोक्षका कारण हो सकता है, परन्तु यह कहीं नहीं सुना कि कर्मका उदय भी मोक्षका कारण है । यह बात न किसी शास्त्र में है और न लोकमें ही प्रसिद्ध है, इसलिए जब कि तप, कर्मोदयजन्य होनेसे मोक्षका कारण नहीं हो सकता तो उसे उत्कृष्ट मंगल क्यों એ પ્રમાણે બાહ્ય અને આત્યંતરના ભેદ મળીને તપના એક દર બાર ભેદ થાય છે પ્રશ્ન–અહિંસા, સયમ અને તપ રૂપ ધર્મને ઉત્કૃષ્ટ મંગલ બતલાવેલ છે, પરંતુ અનશન આદિ તપ ભોજનાદિને ત્યાગ કરવાથી થાય છે, તેથી એ દુઃખ છે અને દુ:ખ મેક્ષનું કારણ થઈ શકતું નથી; કારણ કે દુખ અસાતાવેદનીય કર્મના ઉદયથી ઉત્પન્ન થાય છે ભગવાને પણ એમ જ પ્રતિપાદન કર્યું છે કે–“ભૂખ તરસ આદિ પરિષહ વેદનીય કર્મના ઉદયથી જ થાય છે. કર્મને ક્ષય તે મેક્ષનું કારણ હોઈ શકે છે પરંતુ એવું કયાય સાભળ્યું નથી કે કર્મને ઉદય પણ મેક્ષનું કારણ છે એ વાત કેઈ શાસ્ત્રમાં નથી તેમજ લેકમાં પ્રસિદ્ધ નથી, તેથી જે તપ કર્મોદયજન્ય હેઈને મેક્ષનું કારણ થઈ શકતું નથી તે Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकसूत्रे दुःखरूपत्वेन तपसो मोक्षसाधनत्वस्वीकारे तु व्याधिनाऽऽतुरस्य, राजदण्डेन तस्करस्य, कशादिघातेनाश्वादेः, दशविधक्षेत्रवेदनया नारकाणां श्वासोच्छ्वासमात्रममितकालेऽपि सार्द्ध सप्तदशमितजन्ममरणनिमित्तकाऽनन्तघोर वेदनायुक्तानां निगोदजीवानां च मोक्षापत्तिः, तेपामपि भवदभिमतमोक्षहेतु दुःखसद्भावादिति । किश्ञ्चालमेतेन विशेषविचारेण जन्मजरामर णेष्टवियोगाऽनिष्टसंयोगाद्यनेकविधदुःखयुक्ताः सर्व एव संसारिण इत्यविशेषेण सर्वेषां मोक्षापत्तिः स्यात् । एतदुक्तं भवति- तपः समाचरतः क्षुत्पिपासादयः समुद्भवन्ति, ततश्च प्रबलकहा है ?, यदि दुःखरूप तपको मोक्षका कारण मानलिया जाय तो अनेक दोष आते हैं, वे ये हैं कि जो पुरुष रोगसे अत्यन्त पीड़ा पा रहा है उसे मोक्ष होजाना चाहिये, राजदण्डसे दुःख भोगनेवाले चोर डाकुओंको मोक्ष होना चाहिए, घोडोंपर कोड़ोंकी मार पड़ती है, वे दुःखी होते हैं; अतः उन्हेंभी मोक्ष मिलना चाहिये । इसी प्रकार, क्षेत्रवेदनासे दुःखी नारकी जीवोंको तथा एक श्वासोच्छ्वास में साढ़े सतरह वार जन्ममरणके अनन्त काल तक दुःख पाने वाले निगोदिया जीवोंको मुक्तिकी प्राप्ति होनी चाहिये । अधिक कहां तक कहें ? संसारके समस्त प्राणी जन्म, मरण, इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग आदि भांति-भांति के दुःखोंसे दुःखी हैं अत एव सबहीको मोक्ष मिलजाना चाहिये, क्योंकि दुःखको यहां मोक्षका कारण माना है । ७२ जो अनशन आदि तप करता है उसे क्षुधा पिपासा आदि परिषह તેને ઉત્કૃષ્ટ મંગલ કેમ કહ્યો છે ? એ દુ:ખરૂપ તપને સેક્ષનું કારણુ માનવામાં આવે તે અનેક દેખે આવે છે, જેમકે-જે પુરૂષ રાગથી અત્યંત પીડા પામી રહ્યો હોય તેને મેક્ષ થઇ જવા જોઇએ, રાજદંડથી દુ:ખ ભોગવવા વાળા ચાર ડાકુઓને મેક્ષ થવે ોઇએ, ઘેાડા પર ચાબૂકને માર પડે છે તેથી તે દુ.ખી થાય છે, તેથી તેને પણ મેક્ષ મળવા જોઇએ એજ પ્રમાણે ક્ષેત્રવેદનાથી દુખી એવા નારકી જવાને તથા એક ધઞાસા સાડી સત્તરવાર જન્મ-મરણનાં દુ:ખેા અનતકાળ સુધી પામનારા નિગેદિયા વેને પણ મુક્તિની પ્રાપ્તિ થવી ોઇએ. વધારે શું કડીએ ? જગતનાં બધાં પ્રાણીએ જન્મ, મરણ ને વિયેગ, અનિષ્ટને સંચળ વગેરે તરેડ તરેડનાં દુઃખેથી દુ.ખી છે એટલે એ પ્રધાને મેથ્યુ મળી જવા જેઈએ, કાણુ કે દુખને અહીં મેક્ષના કારણ રૂપ માન્યા છે. જે અનશન આદિ તપ કરે છે તેને ભૂખ–તરરા આદિ પરિષદ્ધ થાય છે Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा.१ तपःस्वरूपम् दुःखम् , एतच चित्तविक्षेपस्य हेतुः, सति च तस्मिन् अप्रशस्तं ध्यानं, तस्माचावश्यं कर्मवन्धः, ततश्च चतुर्गतिकससारपरिभ्रमणरूपं महदमङ्गलमिति कथंकथमप्यहिंसासंयमविशिष्टस्यापि तपसो मोक्षहेतुत्वरूपमुत्कृष्टमङ्गलत्वं न सम्भवदुक्तिकमिति । ___अत्रोच्यते-तपो न तावदुःखात्मकं, दुःखं हि नामाऽशातवेदनीयकर्मोदयविपाकः पीडालक्षण आत्मपरिणामः, तपश्चर्या गर्भिताऽनशनादिव्यापारस्य न पीडात्मकाऽऽत्मपरिणामरूपत्वम् । किञ्च तपः पक्षीकृत्य मोक्षसाधनत्वाभावसाध्ये यदुक्तं दुःखरूपत्वसाधनं होते हैं। परिषह होनेसे तीव्र दुःख होता है । दुःखसे चित्तका विक्षेप होता है। चित्तके विक्षेपसे अशुभ ध्यान होता है । अशुभ ध्यानसे कर्मका बन्ध होता है। कर्मवन्धसे चार गतियोंमें भ्रमण करना पड़ता है, इसप्रकार यह बड़ा अमंगल है । जो प्रवल अमंगल है वह अहिंसा और संयमसे युक्त होनेपर भी उत्कृष्ट मंगल नहीं हो सकता । अमृतमें विष मिला देनेसे क्या विष अमृत हो सकता है। कदापि नहीं । इसलिए तपको मोक्षका कारण मानना उचित नहीं है। उत्तर-तपको दुःख कहना युक्त नहीं है, वह दुःखरूप नहीं है। क्योंकि असातावेदनीय कर्मके फलको, जो आत्माका ही एक विभाव परिणाम है, और पीड़ारूप है उसे दुःख कहते हैं । अनशन आदि तप पीड़ारूप परिणाम नहीं है, अतः उन्हें दुःख नहीं कहा जा सकता । दूसरी बात यह है-शंकाकारने कहा है कि तपमोक्षका कारण नहीं है । क्योंकि वह दुःख है। यहां “तप मोक्षका कारण नहीं" यह પરિષહથી તીવ્ર દુઃખ થાય છે દુઃખથી ચિત્તને વિક્ષેપ થાય છે ચિત્તના વિક્ષેપથી અશુભ ધ્યાન થાય છે અશુભ ધ્યાનથી કર્મને બધ થાય છે કર્મબંધથી ચારે ગતિઓમાં પરિભ્રમણ કરવું પડે છે એ રીતે એ માટે અમગળ છે જે પ્રબળ અમંગળ છે તે અહિંસા અને સંયમથી યુક્ત થવા છતાં પણ ઉત્કૃષ્ટ મગળ થઈ શકતું નથી અમૃતમાં વિષ મેળવવાથી શુ વિષ અમૃત થઈ શકે છે ? કદાપિ નહિ તેથી તપને મોક્ષનું કારણ માનવું એ ઉચિત નથી ઉત્તર–તપને દુઃખ કહેવુ એ યુ નથી તે ટુ ખરૂપ નથી કારણ કે એ સાતવેદનીય કર્મ કે જે આત્માને જ એક વિભાવ પરિણામ છે અને પીડારૂપ છે, તેને દુઃખ કહે છે અનશન આદિ તપ પીડારૂપ પરિણામ નથી, તેથી તેને દુખ કહી શકાય નહિ. બીજી વાત આ છે શ કાકરે કહ્યું કે તપ મોક્ષનું કારણ ___ नथी, ४१२६५ ते दु:म छ, परन्तु मही " त५ मेसिनु ४२ नथी” से क्योंकि असातावदानाडारूप है उसे दुःख उन्हें दुःख नहीं कारण Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ७४ श्रीदशवैकालिकसूत्रे तदयुक्तं, तस्य दुःखजयरूपत्वेन स्वरूपासिद्धेः । । तत्र (तपसि) जायमानाः क्षुत्पिपासादयः आत्मनः प्रवर्द्धमानविशुद्धपरिणामेन विजिताः सन्तः पीडालक्षणं कार्य न जनयन्ति । एतेन क्षुत्पिपासादीनां कर्मोदयस्वरूपत्वेऽपि स्वकार्यकरणाऽक्षमतया चित्तविक्षेपाजनकत्वं सिद्धम् । प्रतिज्ञा है और "क्योंकि वह दुःख है" यह हेतु है । हेतुका सदा ऐसा ही प्रयोग करना चाहिए जो प्रतिवादीको भी सिद्ध होवे । यदि "वह दुःख है" यह हेतु सिद्ध होता तो शंकाकारका साध्य सिद्ध हो सकता, परन्तु वह सिद्ध नहीं है। क्योंकि पहले बतला चुके हैं कि तप दुःख नहीं है। अत एव यह हेतु स्वरूपसेही असिद्ध है । तप दुःखरूप नहीं, बल्कि दुःखको विजय करना तप कहलाता है। ___ अनशन आदि तपसे होनेवाले क्षुधा आदि परिषद्द आत्माके बढ़ते हुए विशुद्ध परिणामसे जीत लिये जाते हैं। क्षुधा दुःख अवश्य है परन्तु उसे तप नहीं कहते, बल्कि क्षुधा पर विजय पानेको तप कहते हैं। क्षुधाको जीतना दुःख नहीं परन्तु सुख है अत एव तप सुखरूप है। क्योंकि तपश्चर्या करनेवालेको भृग्वकी परवाह ही नहीं रहती । इसलिए शंकाकारका यह कहना ठीक नहीं है कि तपसे पीड़ा उत्पन्न होती है। इस कथनसे यह बात अच्छीतरह सिद्ध हो गई कि क्षुधा आदि परिपह પ્રતિજ્ઞા છે અને “કારણ કે તે દુ ખ છે” એ હેતુ છે. હેતુને પ્રગ સદા એ કરવો જોઇએ કે જે પ્રતિવાદીને મને પણ સિદ્ધ હોય જે “તે દુઃખ છે” એ હેતુ સિદ્ધ હેત તે શંકાકાનું સાધ્ય સિદ્ધ કરી શકાત, પરંતુ એ સિદ્ધ નથી, કારણ કે પહેલા બતાવી ચૂક્યા છીએ કે તપ એ દુ:ખ નથી. એટલે એ હેતુ સવરૂપથી જ અસિદ્ધ છે. તપ દુ:ખરૂપ નથી, બકે દુખ ઉપર વિજય મેળવે એ તપ કહેવાય છે અનશન આદિ તપથી થનારા સુધા આદિ પરિષદુ આત્માના વધતા જતા વિશુદ્ધ પરિણામથી છવાઈ જાય છે. સુધા એ દુખ અવશ્ય છે, પરંતુ તેને તપ કહી શકાય નહિ, બલકે સુધા પર વિજય પ્રાપ્ત કરે એ તપ કહેવાય છે સુધાને જીતવી એ દુખ નથી પરંતુ સુખ છે એટલે તપ મુખરૂપ છે, કેમકે તપશ્ચર્યા કશ્નારાઓને ભૂખની પરવા જ નથી હોતી તેથી શકાકાનુ એ કહેવું ગબર નથી કે–તપથી પીડા ઉત્પન્ન થાય છે... આ કથનથી એ વાત સારી રીતે સિદ્ધ થઈ ગઈ કે સુધા આદિ પરિપડ વેદનીય કર્મના ઉદયથી થાય છે પરંતુ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ९ गा. १ तपःस्वरूपम् ७५ अतएव भगवताऽपि क्षुत्पिपासादिपरीषद्स्य तपसश्च पृथक्त्वेन प्रतिपादनं विहितम् । यद्यनशनादिकं सर्वत्र दुःखात्मकमेव मन्येत तदा - सिद्धानामपि अशनाद्यग्राहितयाऽनन्तदुःखसद्भावप्रसङ्गः केन वार्येत । एवं च मोक्षमार्गे प्रवर्त्तकस्य शास्त्रस्य तदुक्तधर्मानुष्ठानस्य च वैयर्थ्यापत्तिः । अयं भावः - यथा व्याधितस्य व्याधिपरिजिहीर्षया स्वयमेव लङ्घनादिप्रवृत्तिः वेदनीय कर्मके उदयसे होते हैं, परन्तु वे पीड़ा नहीं उत्पन्न कर सकते । और जब उनसे पीड़ा नहीं उत्पन्न हो सकती तो चित्तमें विक्षेप भी नहीं हो सकता । चित्त में विक्षेप न होने से कर्मका बन्ध भी नहीं हो सकता । उल्टा क्षुधा आदिको जीतनेसे कर्मोंकी निर्जरा होती है और आते हुए कर्मोंका निरोध होनेसे संवर भी होता है । इसलिए भगवान् महावीर स्वामीने क्षुधा आदि परिषह और तपको अलग अलग कहा है । एक बात और भी है-सिद्ध भगवान् कभी आहार नहीं लेते । यदि अनशनको दुःख मानलिया जाय तो उन्हें भी दुःखी मानना पड़ेगा । जब सिद्ध भी दुःखी होंगे तो मोक्षमार्गकी प्ररूपणा करनेवाले शास्त्र व्यर्थ होजावेंगे, और उन शास्त्रोंके अनुसार की हुई क्रियाएँ भी व्यर्थ जायँगी । क्योंकि दुःखी बनने के लिए कोई बुद्धिमान तैयार नहीं होगा। मतलब यह है कि जैसे अपना रोग दूर करनेके लिए रोगीकी स्वयं ही लंघनमें તે પીડા ઉત્પન્ન કરી શકતા નથી અને જો તેથી પીડા ઉત્પન્ન નથી થતી તા ચિત્તમાં વિક્ષેપ પણ થઇ નથી શકતા, ચિત્તમા વિક્ષેપ નહિં થવાથી કર્મોના ખંધ પણ નથી થઈ શકતા ઉલ્ટુ ક્ષુધા આદિને જીતવાથી કર્માંની નિશ થાય છે અને આવતાં કર્માંના નિધ થવાથી સંવર પણ થાય છે. તેથી ભગવાન મહાવીર સ્વામી ક્ષુધા આદિ પરિષદ્ધ અને તપને જુદાંજુદા કહેલાં છે એક બીજી વાત એમ છે કે સિદ્ધ ભગવાન કદાપિ આહાર લેતા નથી. જો અનશનને દુ.ખ માની લેવામાં આવે તે તેમને પણ દુ.ખી જ માનવા પડે. જે સિદ્ધ પણ દુ.ખી હાય તે મેક્ષમાર્ગની પ્રરૂપણા કરનારૂં શાસ્ર બ્ય ખની જાય, અને એ શાસ્ત્રોને અનુસરીને કરવામાં આવતી ક્રિયા પણ વ્યર્થ થાય, કારણ કે દુ.ખી થવાને કાઇ બુદ્ધિમાન તૈયાર નહિ થાય મતલબ એ છે કે જેમ પેાતાના રોગ દૂર કરવાને માટે રાગી પોતાની મેળે જ લાઘણુ કરવામાં પ્રવૃત્ત Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ७६ श्रीदशवकालिकसूत्रे मणि-मौक्तिक-प्रवाल-हेम-हीरक-रजतादीनां व्यवहणुः स्वयमेव सिन्धुतरणगहनभयानकवनगमनदुर्गमपथभ्रमणपत्तिः पीडालक्षणात्मपरिणामं न जनयति, अन्यथा हि प्रतिकूलकर्मणि समुत्साहपूर्वकस्वतःमतिर्नोपपद्यते, तथा मुनयोऽपि वक्ष्यमाणभावनया तपसि पीडां नानुभवन्ति, तथाहि___ इह संसारे (१) स्वकृतदुष्कृतसन्ततिवशान्नरकेषु नारकाः कियन्तो भिधन्ते, प्रवृत्ति होती है । अथवा हीरे, मोती, मंगे, सोने, चांदी आदिकी प्राप्तिके लिए मनुष्य, दुस्तर समुद्र तरते हैं, अथवा अपनी इच्छाँसे ही मोती आदिकी प्राप्तिके लिए गहरे समुद्रमें गोते लगाते हैं। बड़े बड़े गहन और भयानक जंगलोंमें गर्मी आदि अनेक कष्ट उठाते हैं, दुर्गम मार्गमें लाभके लिए घूमते फिरते हैं, फिर भी अपने मनमें उसे दुःख नहीं मानते न पीडाका अनुभव करते हैं, यदि लंघन करनेमें और गोते लगाने आदिमें कष्ट मालूम होता तो विना किसीके दवावके अपनी इच्छासे ही उत्साहपूर्वक क्यों प्रवृत्ति करते ? इसी प्रकार मुनिराज भी अपनी आत्माकी विशुद्धिके लिए अपने आपही प्रमुदित भावसे अनशन आदि तपस्या करते है । ऐसा करने में उन्हें तनिकभी दुःख नहीं होता। (१) संसारमें अपने किये हुए कर्मों के कारण कई एक नरकमें जाकर परमाधर्मीद्धारा भाले आदिसे भेदे जाते हैं। कईएक घानीमें तिल या થાય છે, અથવા હીરા, મેતી, માણેક, સોનું, ચાદી આદિની પ્રાપ્તિ માટે મનુષ્ય દુસ્તર સમુદ્રને તરે છે અથવા પિતાની ઇરછાથી જ મતી આદિની પ્રાપ્તિ માટે ઉડા સમુદ્રમાં ડૂબકી મારે છે, મેટાં મોટાં પીચ અને ભયાનક જંગલમાં ટાઢ તાપનાં અનેક કષ્ટ ઉઠાવે છે. દુર્ગમ રસ્તાઓને લાભને માટે ભટકતે ફરે છે, તેપણ પિતાના મનમાં તેને દુ:ખ માનતા નથી કે પીડાને અનુભવ કરતે નથી; જે લઘન કરવામાં અને ડુબકી મારવા આદિમાં કષ્ટને અનુભવ થતે હેત તે કેઈએ દબાવ્યા કે આગ્રહ કર્યા વિના પિતાની જ ઈરછાથી મનુષ્ય ઉત્સાહ પૂર્વક કેમ પ્રવૃત્તિ કરત? એજ રીતે મુનિરાજ પણ પિતાના આત્માની વિશુદ્ધિને માટે પિતાની મેળે જ પ્રમુદિત ભાવથી અનશન આદિ તપશ્ચર્યા કરે છે. એમ કરવામાં તેને જરા પણ દુખ થતું નથી (૧) જગતમાં પિતાના કરેલા કર્મોને કારણે કઈ કંઈ છે નરકમાં જઈને પરમધમી દ્વારા વાલા આદિથી છેદાય-ભેદાય છે. કેટલાક ઘાણીમાં તલ અથવા Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ तपास्वरूपम् कियन्तस्तैलयन्त्रे तिलसर्पपादिवनिष्पीडयन्ते, ताम्रादिभाजनवच्च कियन्तः कुटयन्ते, कियन्तो दारुवद्विदार्यन्ते, कियन्तः शूलशव्यायां स्वाप्यन्ते, कियन्तः शिलोपरि वस्त्रवत्ताडयन्ते, अनन्तक्षुत्पिपासादिभिः परिभूयन्ते, इत्येवं विविधदुःखसन्ततिमनुभवन्ति । (२) अथ तियश्चोऽपि केचित् सक्लेशं शीतोष्णे सहमानाः, केचिद् गुरुतरं भारं वहमानाः, केचित्तोत्रादिना ताड्यमानाः, केचिन्मांसार्थिभिर्विविधैस्तीक्ष्णानशस्वैश्छिद्यमानाः, केचिच्च शङ्कुनिबद्धाः प्रवलैः क्षुत्पिपासादिभिः परिभूयमाना लक्ष्यन्ते । सरसोंकी तरह पीले जाते हैं। कईएक तांबे पीतल आदिके वर्त्तनोंकी तरह कूटे जाते हैं। कईएक काठकी भाँति करवतसे चीरे जाते हैं । कईएक तीक्ष्ण कांटोंके बिछौने पर सुलाये जाते हैं । कईएक शिलापर कपड़ोंकी तरह पछाड़े जाते हैं, और अनन्त भूख प्यास आदि नाना प्रकारके असह्य क्लेश पाते हैं । इस प्रकार भाँति-भाँतिके दुःखोंका अनुभव करते हैं। (२) तिर्यश्च गतिमें भी कोई२ तिर्यश्च दुःखके साथ गर्मी सर्दी सहते है, किसी पर भारी बोझ लादा जाता है, कोई-कोई कोड़ोंकी मार खाते हैं, कोई२ पैने (तीखे) शस्त्रोंसे छेदे जाते हैं, कोई-कोई खूटीसे बंधे हुए भूख-प्यास आदि नाना प्रकारके दुःख भोगते हुए देखे जाते हैं। સરસવની પેઠે પીલાય છે. કેટલાકે તાંબા-પીતળનાં વાસણની જેમ કુટાયપીટાય છે. કેટલાકે લાકડાની પેઠે કરવતથી વહેરાય છે. કેટલાકને તીણ કાંટાના બિછાના પર સુવાડવામાં આવે છે. કેટલાકને કપડાની પેઠે શિલાપર પછાડવામાં આવે છે, અને અન ત ભૂખ-તરસ આદિ નાના પ્રકારના અસહ્ય કલેશ પમાડવામાં આવે છે. એ પ્રમાણે તરેહ તરેહનાં દુઃખેને અનુભવ એ જ કરે છે. (૨) તિર્થં ચ ગતિમાં પણ કઈ કઈ તિર્યંચ દુઃખ સાથે ટાઢ-તાપ સહન કરે છે, કેટલાક પર ભારે બે લાદવામાં આવે છે, કઈ કઈ ચાબૂકના માર ખાય છે, કે કોઈને કાતીલ . શસ્ત્રોથી છેદવામાં આવે છે, કઈ કઈ ખૂટે બધાએલા ભૂખ-તરસ આદિ નાના પ્રકારનાં દુખ જોગવતા જોવામાં भाव छ । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ - श्रीदशवैकालिकसूत्रे (३) एवं मनुष्यगति प्राप्ता अपि केचिदन्यत्वं, केचिदधिरत्वं, केचित् पात्वं, केचित्कासश्वासादिरोगं, केचिद्दारियं च संप्राप्य, हीना दीनास्तत्तत्पीडापरिहाराक्षमा विविधदुर्दशामापन्नाः, स्थाविरे कलत्रपुत्रादिभिरप्यनादृताः क्षुत्पिपासादिभिर्वाध्यमाना म्रियन्ते । (४) देवा अपि परोकपनिरीक्षणेया॑द्वेपादिजनिताऽन्तस्तापस्य प्रतिकर्तुमशक्यतया मायो दुःखमाज एव दृश्यन्ते । (३) यदि भाग्योदयसे मनुष्यगति मिल जाय तो उसमें भी सैकड़ों दुःख भोगने पड़ते हैं। कोई मनुष्य अन्धा होजाता है, कोई घहिरा हो जाता है, कोई लंगडा होजाता है। किसीको श्वास या खाँसीका रोग हो जाता है । कोई दरिद्रताके दुःखोंसे दीन हीन होकर अनेक प्रकारकी दुर्दशाका अनुभव करता है। वृद्धावस्थामें पत्नी पुत्र आदि तिरस्कार करते हैं । अन्तमें क्षुधा-पिपासा आदिके भी दुःख उठाकर मरणकी शरणमें जाना पड़ता है ।। (४) कभी देवगति पाकर देवता होजाय तो वहां भी तरह-तरहके दुःख विद्यमान हैं। किसी देवाताकी विभूति अधिक होती है, किसीकी कम होती है, कम विभूतिवाला अधिकविभृतिवाले देवताको देखकर ईर्ष्या-द्वेष करता है, ऐसा करनेसे मनमें अत्यन्त सन्ताप होता है। उस सन्तापको मिटाने में जब अपनेको असमर्थ पाता है तो दु:ग्वी होता है । इसलिये संसारमें कहींभी सुख नहीं दिखलाई पड़ता है । | (૩) જે ભાગ્યેાદયથી મનુષ્યગતિ મળી જાય તે તેમાં પણ સેંકડે દુઓ જોગવવાં પડે છે. કેઈ માણસ આધળા થઈ જાય છે, કેઈ બહેરો બની જાય છે, કેઈ લંગડા થાય છે. કેઈને શ્વાસ ચા ખાંસીને રોગ થાય છે. કોઈ દરિદ્રતાનાં દુઃખેથી દીન-દ્દીન થઈને અનેક પ્રકારની દુર્દશાને અનુભવ કરે છે. વૃદ્ધાવસ્થામાં પત્ની પુત્ર આદિ તેને તિરસ્કાર કરે છેછેવટે ભૂખ-તરસ આદિનાં દુઃખે પણ વેડીને તેને મરણ શરણ થવું પડે છે. (૪) કદાચ દેવગતિ પામીને દેવતા થઈ જાય છે ત્યાં પણ તરેહ તરેહનાં દુઃખે વિદ્યમાન હેય છે. કેઈ દેવતાની વિભૂતિ અધિક હોય છે, કેઈની ઓછી હોય છે. એથી વિભૂતિવાળા અધિક વિભૂતિવાળા દેવતાને જોઈને ઈર્ષા–દેપ કરે છે. એમ કરવાથી મનમાં અત્યંત સંતાપ, થાય છે. એ સંતાપને શમાવવાને ત્યારે તે પિતાને અસમર્થ જુએ છે ત્યારે તે દુખી થાય છે. તેથી સંસારમાં કયાંય પણ સુખ જોવામાં આવતું નથી Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ तपःस्वपरूम १२ इत्येवमपारपारावारतरलतरतरङ्गभङ्गमालायमानजन्मजरामरणाधिव्याधीष्टवियोगाऽनिष्टसंयोगादिजनितविविधसन्तापकलापमाकलयन्तः 'कथमेतस्मात्क्लेशकदम्बकादुन्मुक्ता भविष्यामः? इत्युपायं समन्तात् संमार्गयन्तो मुनयोऽपि जिनेन्द्रमतिपादितं मोक्षमार्गमारुह्य, तत्रापि शुक्लध्यानाहितकेवलज्ञानसमनन्तरजायमानाऽव्यावाधामन्दानन्दसन्दोहलक्षणमोक्षस्याऽपुनरात्तिलक्षणं महिमानं विनिश्चित्य, ईपत्क्षुत्पिपासाऽऽपादितदुःखं मनागपि न गणयन्ति, अत एव तदनशना जिसतरह अपार सागरमें चञ्चल तरंगे उत्पन्न होती हैं उसी तरह संसारमें जन्म, मरण, बुढ़ापा, मानसिक चिन्तायें, शारीरिक व्याधियाँ, इष्टवस्तुओंका वियोग, अनिष्टका संयोग आदि अनेक प्रकारके नये-नये दुःख उत्पन्न होते रहते हैं। इन विविध प्रकारके दुःखोंको भली भाँति सम्यग्ज्ञानद्वारा जाननेसे यह जिज्ञासा होती है कि इस दुःखसमूहसे हम कैसे छूटेंगे? इसप्रकार छूटनेका उपाय ढूँढ़ते २ मुनिमहात्मा जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्रतिपादित मोक्षके मार्ग पर आरूढ़ हो जाते हैं । फिर क्रमशः शुक्लध्यान द्वारा केवलज्ञान पाकर अव्यायाध अनन्त आत्मिकसुख और पुनरागमनरहित मोक्षको प्राप्त करते हैं । ऐसा अपने मनमें विचार कर तपमें लीन होनेवाले तपस्वी जन क्षुधा-पिपासाके थोड़ेसे दुःखको तनिक भी नहीं गिनते । उनके सामने अनन्त सुखका स्थान मोक्षका ध्येय सदा रहता है और उस ध्येयकी प्राप्तिमें क्षुधा आदि જેવી રીતે અપાર સાગરમાં ચંચલ તરગો ઉત્પન્ન થાય છે, તેવી રીતે ससारमा म, भ२], मुढापा, मानसि वितासी, शारी२ि४ व्याधिया, ४० વસ્તુઓને વિયેગ, અનિષ્ટને સ ગ આદિ અનેક પ્રકારનાં નવાં નવાં : ઉત્પન્ન થતાં રહે છે એ વિવિધ પ્રકારનાં દુ:ખને સારી પિઠે સમ્યગજ્ઞાનદ્વારા જાણવાથી એવી જિજ્ઞાસા થાય છે કે આ દુખસમૂહથી આપણે કેવી રીતે છૂટીશું ? એ રીતે છૂટવાને ઉપાય શોધતાં મુનિ મહાત્મા જિનેન્દ્ર ભગવાને પ્રતિપાદિત કરેલા મેક્ષના માર્ગ પર આરૂઢ થઈ જાય છે પછી ક્રમશ: શુકલધ્યાન દ્વારા કેવલ જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરીને અવ્યાબાધ અન ત આત્મિક સુખ અને પુનરાગમનરહિત મેક્ષને પ્રાપ્ત કરે છે. પિતાના મનમાં એ વિચાર કરીને તપમાં લીન થનાર તપસ્વજન ભૂખ-તરસના થડા દુ અને લગારે ગણતા નથી. તેમની સામે અનત સુખના સ્થાન મેક્ષનું ધ્યેય સદા રહે છે અને એ ધ્યેયની પ્રાપ્તિમાં સુધા આદિ પરિષહથી થનારૂ દુ ખ નહિવત્ બને છે તે પિતાના Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. श्रीदशवकालिकम्त्रे दिलक्षणं तपः परिणामपरमपदसुखजनकतया मुनीनामात्मपरिणामविकृतिकारणं न भवितुमीष्टे नापि च तत्कर्मोदयस्वरूपमिति प्राक् प्रतिपादितमिति तपसः सर्वया मोक्षाइत्वेनोत्कृष्टमगलात्मकधर्मरूपत्वं सिद्धम् । अधोत्कृष्टमङ्गलत्वसम्पादकं धर्मस्य महिमानमावेदयति-'देवा वि' इत्यादि । धर्म अहिंसादित्रयस्वरूपे यस्य प्राणिनः मनः चित्तं सदा-निरन्तरं तिष्ठती ति शेषः, धर्मचित्तं प्राणिनं देवा अपि भवनपत्यादिचतुर्निकाया अपि परिपहोंसे होनेवाला दुःख नहीं के यरायर है । वे उन तुच्छ दुग्वोंको अपने अन्तकरणमें स्मरण भी नहीं करते । तात्पर्य यह है कि-अनशनआदि तप, परमपद मोक्षके अनन्त अविनाशी सुखका प्रयल कारण होनेसे मुनियोंकी आत्माके परिणामोंमे विकार उत्पन्न नहीं कर सकता है और न औदयिक भावमें ही है, अर्थात् तप क्षायोपशमिक भावोंमें है। इस विषयका विस्तारसे प्रतिपादन पहले किया जा चुका है । अय यह यात अच्छी तरह सिद्ध हो चुकी कि तप मोक्षका कारण है और उस्कृष्ट मंगलरूप धर्म है। धर्म उत्कृष्ट मंगल है, किन्तु धर्ममें ऐसी कौनसी विचिन महिमा है जिससे उसे उत्कृष्ट मंगल कहते हैं ?, इस प्रश्नका समाधान करनेके लिए कहते हैं जिस प्राणीके मनमें अहिंसा, संयम और तपरूप धर्मका निरन्तर निवास रहता है, उस धर्मात्मा प्राणीको भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिपी અંતઃકરણમાં એ તુચ્છ દુઃખનું સ્મરણ પણ કરતા નથી. તાત્પર્ય એ છે કેઅનશન આદિ તપ, પરમપદ મેલના અનંત અવિનાશી સુખનું પ્રબલ કારણ હોવાથી મુનિઓના આત્માના પરિણામોમાં વિકાર ઉત્પન્ન કરી શકતું નથી અને એ ઓદયિક ભાવમાં પણ નથી અર્થાત તપ શાપથમિક-ભાવમાં છે આ વિષયનું પ્રતિપાદન પહેલાં વિસ્તારથી કરવામાં આવ્યું છે. હવે એ વાત સારી રીતે સિદ્ધ થઈ ચૂકી કે તપ મેલનું કારણ છે અને ઉત્કૃષ્ટ મંગલરૂપ ધર્મ છે ધમ ઉત્કૃષ્ટ મંગલ છે, પરંતુ ધર્મમાં એક વિચિત્ર મહિમા છે. જેથી તેને ઉત્કૃષ્ટ મંગલ કહ્યો છે ? આ પ્રશ્નનું સમાધાન કરવાને કહે છે – જે પ્રાણીના મનમાં અહિંસા, યમ અને તરૂપ ધર્મને નિરંતર નિવાસ રહે છે. તે ધર્માત્મા પ્રાણીને ભવનવાસી, બેનર, તિષી અને વૈમાનિક એ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ धर्ममहिमा नमस्यन्ति नमस्कुर्वन्ति सम्मानयन्तीति यावत् , किं पुनश्चक्रवर्त्यादयो मनुष्या इत्यर्थः । एतादृशोऽयं समुत्कृष्टो धर्मः स्वसमाराधनवद्धपरिकराणां वृन्दारकन्दवन्दनीयपदारविन्दतां जनयति, यदि पुनत्रिविधकरणयोगेन तदाराधनपरायणो भवेत् तदा शिवमचलमरुजमनन्तमक्षयमव्यावाधमपुनराशत्ति सिद्धिगतिनामधेयं मोक्षपदमपि समासादयेदेव, कैव कथा तदपेक्षया तुच्छतरदेवेन्द्रचक्रवर्त्यादिपद्माप्तिजनितसौख्यस्य संस्यानुगतपलालवदिति । और वैमानिक इस प्रकार चारों निकायोंके देवता नमस्कार करते हैं अर्थात् संमान करते हैं । गाथामें आये हुए 'अपि' शब्दसे प्रकट है कि जव देवताभी धर्मात्मा प्राणीका संमान करते हैं तो राजा, महाराज, सम्राट् और चक्रवर्ती आदिकी बात ही क्या है ? वे भी उसके चरणोमें गिरते हैं । इस प्रकार इस उत्कृष्ट धर्मकी आराधना करनेवाले प्राणी देवोंके द्वारा वन्दनीय हो जाते हैं। यदि कोई तीन करण और तीन योगसे उस धर्मकी आराधना भली-भाँति करे तो वह अवश्यही ऐसी सिद्धिगति (मोक्ष)को प्राप्त करेगा जो परम कल्याणरूप है, अचल है, जिसमें किसी प्रकारका रोगदोष नहीं है, जिसका कभी अन्त नहीं होता, जिसमें पहुँच कर क्षय नहीं होता, और न किसी प्रकारकी बाधा शेष रहती है। अहो ! उस मोक्षका क्या कहना है, जिसके आगे नरेन्द्र, इन्द्र, अहमिन्द्र आदिका सुख इतना तुच्छ है जैसे धान्यके आगे भूसा तुच्छ होता है। ચારે નિકાના દેવતા નમસ્કાર કરે છે અર્થાત્ તેમનુ સમાન કરે છે ગાથામાં मावेसा 'अपि' श०४थी २५ट थाय छे न्यारे देवता पाय धर्मात्मा प्राणीनु સંમાન કરે છે તે રાજા, મહારાજા, સમ્રાટ અને ચક્રવતી આદિની તો વાત જ કયાં રહી? તેઓ પણ તેમના ચરણમાં પડે છે એ રીતે આ ઉત્કૃષ્ટ ધર્મની આરાધના કરનારે પ્રાણી દેવે વડે વંદનીય બને છે જે કઈ ત્રણ કરણ અને ત્રણ યુગથી એ ધર્મની આરાધના ભલી પેઠે કરે છે તે અવશ્ય એવી સિદ્ધિ ગતિ (મોક્ષ) ને પ્રાપ્ત કરે કે જે પરમ કલ્યાણરૂપ છે, અચલ છે, તેમાં કઈ પ્રકારને રગદોષ નથી, જેનો કદાપિ અતિ આવતો નથી જેમાં પહોચવાથી ક્ષય થતું નથી અને કોઈ પ્રકારની બાધા-પીડા થતી નથી અહા ! એ મોક્ષની શી વાત કહીએ, જેની આગળ નરેદ્ર, ઈદ્ર અહર્નિદ્ર આદિનું સુખ એવું તરછ છે કે જેમ ધાન્ય આગળ તરાં તુરછ છે. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૨ श्रीदशवकालिकसूत्रे ननु सर्वधर्माणामहिंसामूलकत्वादहिंसायामेव संयमतपसोरपि धर्मयोः समावेशे सति किं पुनस्तयोः पृथनिर्देशः ? इति चेन्न,___ तपो विना संयमो यथावत्स्वरूपनैर्मल्यं न लभते, संयममन्तरेणाऽहिंसाऽपि न परिशुद्धिमेति इत्याशयेनाहिंसां प्रतिपाद्य तन्निर्मलीकरणाथै संयमस्य प्रतिपादनम् , तस्य च प्रभूतशक्तिसम्पादनाय तपसः समाराधनमावश्यकमित्याशयेन, त्रयाणां पृथनिर्देशः कृतः । किश्च संयमतपसोविपयेऽपरोऽपि विशेषो दृश्यते-संयमात्संवरः, तपस्तु मुख्यतो निर्जरामुद्भावयत् संवरमपि निष्पादयति । संयमस्तपश्चैते द्वे-राज्ञ आत्म प्रश्न-संयम तप आदि सब धर्मोंका मूल अहिंसा है, इसलिए संयम और तपका अहिंसामें ही समावेश हो जाता है तो फिर संयम और तपको अलग अलग क्यों कहा है ? सुनो उत्तर-अलग अलग कहनेका कारण यह है कि तपके विना संयम की जैसी चाहिए वैसी निर्मलता नहीं होतीऔर विनासंयमके अहिंसाका ठीक २ पालन नहीं हो सकता । इस अभिप्रायसे अहिंसाका प्रतिपादन करके उसे निर्मल बनानेके लिए तपका अलग कथन किया गया है। इससे तीनोंका अलग २ कथन उचित है। ___ संयम और तपके अर्थमें और भी विशेषता है और वह यह है किसंयमसे संवर होता है, परंतु तपसे संयम और निर्जरा दोनों होते हैं। अथवा यह समनना चाहिये कि संयम और 'तप' ये दोनों પ્રશ્ન–સંયમ તપ આદિ સર્વ ધર્મોનું મૂલ અહિંસા છે, તેથી સંચમ અને તપને સમાવેશ અહિંસામાં ‘જ થઈ જાય છે. તે સંયમ અને તપને જુદા म ४६ छ ? साजो ઉત્તર–જુદા જુદા કહેવાનું કારણ એ છે કે તપ વિના સંયમની જોઈએ તેવી નિર્મળતા થતી નથી અને સંયમ વિના અહિંસાનું બરાબર પાલન થઈ શકતું નથી એ કારણથી અહિંસાનું પ્રતિપાદન કરીને તેને નિર્મળ બનાવવાને માટે તપનું જુદું કથન કરવામાં આવ્યું છે એથી ત્રણેનું જુદું જુદું કથન ઉચિત છે સ યમ અને તપના અર્થમાં બીજી પણ વિશેષતા છે અને તે એ કેસંયમથી સ વર થાય છે, પણુ તપથી સંયમ અને નિર્જરા બેઉ થાય છે. અથવા એમ સમજવું જોઈએ કે રાંચમ અને તપ એ બેઉ રાજાના Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ अहिंसासंयमतपोविवेकः रक्षकाविवाऽहिंसाव्रतस्य संरक्षके। यद्वा एतद्द्वयस्याहिंसापरिपोषकतया पृथङ्निर्देशः संगच्छते । ___ अन्यच्च अहिंसा प्राणव्यपरोपणनिवृत्तिप्रधाना, संयमस्तु श्रोत्रादीन्द्रियनिग्रहप्रधान इति महद्वैलक्षण्यमुपलभ्य पृथनिर्देशः। तपसो वैलक्षण्यं तु न कस्यचित् संशयगोचरः स्वरूपत एव परस्परं भेदात् , तथाहि-अहिंसा नाम स्वतः परतो वा प्राणव्यपरोपणनिवृत्तिकरणं, तपस्तु क्षुत्पिपासाशीतोष्णादिसहिष्णुत्वरूपमिति । राजाके आत्मरक्षकोंकी तरह अहिंसाव्रतके रक्षक हैं, जबतक संयम और तप न हों तबतक अहिंसाका सम्यक पालन नहीं हो सकता। एक समाधान औरभी है-अहिंसामें प्राणोंके व्यपरोपणकी निवृत्तिकी प्रधानता है, और संयममें श्रोत्र आदि इन्द्रियोंके निग्रहकी प्रधानता है। इस प्रकार इनमें कितनी ही प्रकारकी बड़ी २ विशेषताएँ देखकर सूत्रकारने पृथक् कथन किया है। तपके स्वरूपमें तो इतना भेद है कि किसीको सन्देह हो ही नहीं सकता। अपने या दूसरेके द्वारा प्राणव्यपरोपणकी निवृत्ति रनेको अहिंसाकहते हैं, और क्षुधापिपासाशीत उष्ण आदिको सहन करना तप कहलाता है । प्रश्न-भगवान्ने अहिंसा संयम और तप इन तीनोंमें तपको ही अन्तमें क्यों कहा? આત્મરક્ષકેની પેઠે અહિંસાવ્રતના રક્ષક બને છે. જ્યાં સુધી સયમ અને તપ ન થાય ત્યાં સુધી અહિંસાનું સમ્યક્ પાલન થઈ શકતું નથી એક સમાધાન બીજું પણ છે અહિંસામાં પ્રાણના વ્યાપણની નિવૃત્તિની પ્રધાનતા છે. અને સંયમમાં શ્રોત્ર આદિ ઈદ્રિના નિગ્રહની પ્રધાનતા છે. એ રીતે એમાં અનેક પ્રકારની મેટી મેટી વિશેષતાઓ જોઈને સૂત્રકારે પૃથક કથન કર્યું છે. તપના સ્વરૂપમાં તે એટલે ભેદ છે કે કેઈને સદેહ થઈ શકે નહિ પિતાની અથવા બીજાની દ્વારા પ્રાણના વ્યપરોપણની નિવૃત્તિ કરવી તેને અહિંસા કહે છે, અને ભૂખ તરસ ટાઢ તાપ આદિને સહેવાં તે તપ કહેવાય છે. . પ્ર—ભગવાને અહિંસા, સંયમ અને તપ એ ત્રણમાં તપને છેલ્લે Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे कोटिभवसञ्चितानि कर्कशतमान्यपि कर्माणि तपसाऽऽशुतरं विनश्यन्तीति दुस्तरसंसारसागरं शीघ्रमुत्तर्त्तुमभिलष्यतामहिंसासंयमाऽऽराधनतत्पराणां मुमुक्षूणामुग्रतपोऽवश्यमाश्रयणीयमित्याशयेनान्ते तपसः पृथनिर्देशः कृत इति भावः । इति प्रथमगाथार्थः ॥ १ ॥ ननु धर्मः शरीरेण रक्ष्यते, शरीररक्षणं चाहारेण भवति, स च परजीवनिकायोपमर्दनरूपाऽऽरम्भेण निष्पाद्यते, यत्र चारम्भो न तंत्र धर्मः संभवति, यथोक्तं श्रीस्थानाङ्ग सूत्रे - ८४ " दो ठाणाई अपरियाणित्ता आया णो केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्जा सवयाए, तंजा - आरंभे चेत्र परिग्गहे चैव " इति, अस्य हि - " द्वे वस्तुनी अपरिज्ञाय आत्मा न केवलिमज्ञप्तं धर्म श्रोतुं लभेत, तद् यथा - आरम्भव परिग्रहश्च " उत्तर-करोड़ों भवोंमें संचित किये हुए अत्यन्त कठोर कर्म, तपके द्वारा शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं । इसलिए दुस्तर संसाररूपी सागरको शीघ्र पार करनेकी अभिलाषा रखनेवाले, अहिंसा और संयमकी आराधनामें तत्पर रहनेवाले मोक्षाभिलाषियोंको अवश्य ही उग्र तपस्या करनी चाहिये, इस उद्देश्यसे भगवान्ने तपको अन्तमें अलग कहा है ॥१॥ धर्मका रक्षण शरीरसे होता है और शरीरका निर्वाह आहार से होता है। आहार पृथिवी आदिक षड्जीवनिकायके आरंभके बिना नहीं बन सकता, और 'जहां आरम्भ है वहां धर्म नहीं' यह सर्वज्ञ भगवान्ने कहा है, क्योंकि ठाणांग (स्थानाङ्ग) सूत्रके दूसरे ठाणेसे यह बात स्पष्ट है। ઉત્તર—કરોડા ભવામાં સચિત કરેલાં અત્યંત કઠોર કમ તપની દ્વારા શીઘ્ર નષ્ટ થઈ જાય છે. એથી દુસ્તર સંસારરૂપી સાગરને શીઘ્ર પાર કરવાની અભિલાષા નખનારા, અહિંસા અને સંચમની આરાધનામાં તત્પર રહેનારા, મેાભિલાષીએએ અવશ્ય ઉગ્ર તપસ્યા કરવી જોઇએ એ ઉદ્દેશથી ભગવાને તપને છેલ્લુ જીદ કહ્યુ છે ॥ ૧ ॥ ધર્મનું રક્ષણ શરીરથી થાય છે અને શરીરને નિર્વાહ આહારથી થાય છે આહાર પૃથિવી આદિ છ જીવનિકાયના આરંભ વિના નથી અની શકતે, અને જ્યાં આક્ ભ છે ત્યા ધનથી' એમ સજ્ઞ ભગવાને કહ્યુ છે. ઠાણાંગ ( સ્થાનાંગ ) સૂત્રના ખીન્ત દાણામાં એ વાત સ્પષ્ટ છે. અર્થાત્ આરંભ અને Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ अध्ययन १ गा. २ गोचरीविधौ भ्रमरदृष्टान्तः अर्थादारम्भ-परिग्रहौ ज्ञ-परिज्ञया जन्ममरणादिदुःखहेतू विज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया तयोस्त्यागमकृत्वा जिनोक्तं धर्म श्रोतुमपि न शक्नोति, पालयितुं शक्नोतीति तु दुरापास्तमित्यर्थः, तस्मादुक्तरीत्या त्यागसम्पन्नस्यापि श्रमणस्य शरीरसंरक्षणावश्यकता वर्तते तदर्थ चाहारो ग्रहीतव्यः, तत्र का वृत्तिः समादतव्ये ? त्याह-'जहा दुमस्स' इत्यादि मूलम् जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं । ण य पुप्फ किलामेइ, सो अपीणेइ अप्पयं ॥२॥ छाया-यथा द्रुमस्य पुष्पेषु, भ्रमर आपियति रसम् । न च पुष्पं क्लामयति, स च मीणात्यात्मानम् ॥ २ ॥ अर्थात् आरंभ और परिग्रह इन दोनोंके यथार्थ स्वरूपको आत्मा ज्ञपरिज्ञासे सम्यक् प्रकार जानकर कि ये ही दोनों जन्म जरा मरणके दाता चतुर्गतिरूप अनन्त संसारमें परिभ्रमण करानेवाले, छेदन-भेदनआधि-व्याधि-क्लेशरूप दुःखोंके कारण तथा आत्माके विशुद्ध स्वरूपके घातक हैं, परंतु जबतक प्रत्याख्यानपरिज्ञा द्वारा तीन करण और तीन योगसे इनको त्याग न देवे तब तक जिनेन्द्र भगवान द्वाराप्ररूपितधर्मको सुनने योग्य भी नहीं होता, पालनेकी तो बात ही कहां है ? तात्पर्य यह है कि आरंभ और परिग्रहका त्याग किये विना धर्मका पूर्ण पालन नहीं हो सकता। इसलिए धर्मके आराधक मुनियोंको निरवद्य आहारकी विधि कहते हैं-'जहा दुमस्स' इत्यादि । પરિગ્રહ એ બેઉના યથાર્થ સ્વરૂપને આત્મા, પરજ્ઞાથી સમ્યક-પ્રકારે જાણે કે એ બેઉ જન્મ જરા મરણના દાતા, ચતુર્ગતિરૂપ અનંત સંસારમાં પરિભ્રમણ કરાવનારા, છેદન-ભેદન–આધિ-વ્યાધિ–કલેશરૂપ દુખના કારણે તથા આત્માના વિશુદ્ધ સ્વરૂપના ઘાતક છે, પરંતુ જ્યાં સુધી પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞા દ્વારા ત્રણ કરણ અને ત્રણ વેગથી તેને ત્યજી ન દેવાય ત્યાં સુધી જિનેન્દ્રભગવાને પ્રરૂપેલા ધર્મને સાંભળવા ગ્ય પણ થવાતું નથી, પછી પાળવાની તે વાત જ કયાં ? તાત્પર્ય એ છે કે આરંભ અને પરિગ્રહને ત્યાગ કર્યા વિના ધર્મનું પૂર્ણ પાલન થઈ શકતું નથી તેથી ધર્મના આરાધક મુનિઓને નિરવદ્ય આહારની વિધિ ४ छ-"जहा दुमस्स" त्या Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकसूत्रे सान्वयार्थः-जहा=जैसे, भमरो =भौंरा, दुमस्स = वृक्षके पुष्फेसु - फूलों में ( रहे हुए ) रसं = रसको आवियइ = मर्यादानुसार पीता है, य=और पुप्फं= फूलको ur कीलाइ पीडित नहीं करता है, अन्तोभी सो वह भौंरा अप्पयं = अपनेको पीणेइ सन्तुष्ट कर लेता है । अर्थात् - जैसे भौंरा अनेक वृक्षोंके फूलोंसे थोड़ा थोड़ा रस उचित मात्रामें लेता है, ऐसा करनेसे वह सन्तुष्ट भी होजाता है और फूलोंकोभी कष्ट नहीं देवा ॥ २ ॥ ८६ " टीका- यथा भ्रमरः - भ्राम्यति = एकत्र नावतिष्ठत इति भ्रमरः = चतुरिन्द्रियजातिमान् भृङ्गपर्यायवाच्यः प्राणिविशेषः । द्रुमस्य, जात्येकत्वादेकवचनम्, 'सर्वो गच्छति' इत्यादिवत् तेन द्रुमाणामित्यर्थः, द्रुमपदेन योगमर्यादया लतादीनामपि ग्रहणं बोद्धव्यम्, पुष्पेषु स्थितमित्यस्याध्याहारः, रसं = मकरन्दम् आपिवति = आ=मर्यादा-पूर्वकम् उचितादधिकं परित्यज्य पिवति = पानविषयं करोति, अल्पं गृह्णातीति भावः । चकारो हेत्वर्थे, तेन च अत एव पुष्पं न क्लामयति-न पीडयति - लेशतोऽपि न म्लानयतीति यावत्, च = किञ्च सः = भ्रमरः आत्मानं = स्वं प्रीणाति = तोपयतीत्यर्थः । पुष्पाणि तु द्रुमलतादीनामेव भवन्ति पुनद्रुमपदोपादानम् - यथा भ्रमरः सर्वेपामेव द्रुमलतादीनां पुष्पेषु रसमापिवति न चोच्चनीचादिभेदभावं रक्षति 'वृक्षोऽय जैसे भ्रमर भ्रमण करके अनेक वृक्ष लता आदिकोंके पुष्पों का थोडार रस मर्यादासे लेता है, अधिक नहीं, यानी ऐसा कि किसीको भी पीडा न देते हुए वह अपनी आत्माको तृप्त कर लेता है । प्रश्न-वृक्ष और लताओं में ही फूल होते हैं फिर हम (वृक्ष) शब्द देनेका क्या अभिप्राय है ? | પુષ્પને उत्तर - जैसे भौरा सभी वृक्षों और लताओंके फूलोंका रस पीता है. ऊंच-नीच भेद-भाव नहीं रखता कि इस वृक्षमें कम फूल है और જેમ ભ્રમર ભ્રમણુ ીને અનેક વૃક્ષ લતા આદિનાં થાડા ચેડા રસ મર્યાદાપૂર્ણાંક લે છે, વધુ લેતા નથી, અને એવી રીતે લે છે કે કાઇ પણુ પુષ્પને જરાએ પીડા થાય નહિ; એમ તે પેાતાના આત્માને તૃપ્ત કરી લે છે. प्रश्न—–वृक्ष अने सतायो १२ ४ ड्रेस थाय छे, तो वजी द्रुम (वृक्ष) शह કહેવાના શે! હેતુ છે ઉત્તર-જેમ ભમરા બધાં વૃક્ષો અને લતાઓનાં ફૂલેને રસ પીએ છે, ઉંચ-નીચને ભેદભાવ રાખતે નથી કે આ વૃક્ષ પર એાછાં ફૂલે છે અને Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. २ गोचरीविधौ भ्रमरदृष्टान्तः ८७ मल्पपुष्पफलोऽयं च बहुपुष्पफलसमृद्धः' इति, तथा साधुरप्युच्चनीचादिभेदभावं विहाय सर्वत्र समानभावो गृहस्थकुलानां सकाशाद् यथोचितां भिक्षामाददीतेति सूचनार्थम् । ___यद्वा 'दुमस्स' इत्यत्र सम्बन्धसामान्यपष्ठया द्रुमसम्बन्धिविति, अर्थादयं दृष्टान्तो द्रुमसंसक्तपुष्परसग्राहिणो भ्रमरस्य वोद्धव्यो नेतरस्य, ततश्च यथा भ्रमरो द्रुमसम्बद्धेषु स्थितं रसमापिवति तथा साधुरपि गृहस्थसम्बन्धिनमेव, अर्थात तत्स्वत्वयुक्तमेवाऽऽहारं गृह्णीयान्न तु स्वामिविरहितमित्यर्थः ।। इसमें अधिक, इसी प्रकार साधुभी द्रव्य-भावसे ऊंच-नीच भेद-भाव न रखकर समानदृष्टिले गृहस्थियोंके कुलोमें भिक्षा-वृत्तिके लिए भ्रमण करते हैं । इस आशयको प्रगट करनेके लिए गाथामें 'द्रुम' शब्द दिया गया है। ___ अथवा यो समझिये कि गाथामें 'द्रुम' शब्दके साथषष्ठीविभक्तिका प्रयोग किया गया है, षष्ठी विभक्तिका अर्थ है 'सम्बन्ध' । इसलिए यह दृष्टान्त द्रुममें लगे हुए पुष्पके रसको ग्रहण करनेवाले भौरेका ही समझना चाहिए, दूसरे भौं रेका नहीं । इससे यह अर्थ निकलता है कि जैसे भ्रमर, दुम (वृक्ष) सम्बन्धी पुष्परसको ही ग्रहण करता है, अन्य रसको नहीं, इसीभाँति साधुभी गृहस्थसे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थात् जिसपर गृहस्थका अधिकार है उसी आहारको ग्रहण करते हैं; जिस आहारका कोई गृहस्थ स्वामी नहीं होताउसे नहीं ग्रहण करते। આ પર વધારે છે, એ પ્રમાણે સાધુ પણ દ્રવ્ય-ભાવથી ઉચ-નીચને ભેદભાવ ન રાખીને સમાન દષ્ટિથી ગૃહસ્થના કુળમાં ભિક્ષાવૃત્તિને માટે બ્રમણ કરે છે मे भाशयने ५४८ ४२वा भाटे थामा द्रुम (वृक्ष) १४ माघेही छे. અથવા એમ સમજવું કે ગાથામાં ટ્રમ શબ્દની સાથે છઠ્ઠી વિભક્તિને પ્રયોગ કરવામાં આવ્યું છે છઠ્ઠી વિભક્તિને અર્થે સબંધ થાય છે એથી આ દૃષ્ટાંત દમમાં લાગેલા પુના રસને ગ્રહણ કરનારા ભમરાનું જ સમજવું જોઈએ, બીજા ભમરાઓનું નહિ એટલે એ અર્થ થાય છે કે જેમ ભ્રમર, द्रुम (वृक्ष) संधी पुष्परसने ४ प्रड ४२ छ, ollot २सने नाड, तेम साधु પણ ગૃહસ્થથી સ બંધ રાખનારા અર્થાત્ જેની ઉપર ગૃહસ્થને અધિકાર હેય તે આહારનેજ ગ્રહણ કરે છે જે આહારને કઈ ગૃહસ્થ સ્વામી નથી હોતે તેને સાધુ ગ્રહણ કરતે નથી Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ८८ श्रीदशवकालिकसूत्रे 'पुप्फेम' इति प्रमूनकुसुमादिपर्यायान्तरं परिहाय पुष्पपदोपादाने विकसितार्थोऽभिप्रेतस्ततश्च यथा भ्रमरो विकसितेष्वेव पुष्पेषु स्थितं रसं गृह्णाति तथा साधुरपि दातृत्वभावप्रसन्नेभ्यो निर्जुगुप्सेभ्यश्च कुलेभ्य आहारं गृह्णीयादित्यर्थः । ___ 'भमरो' इत्यनेन इतस्ततो भ्रमणेन किञ्चित्किञ्चिदाहारग्रहणं सूचितम् । मर्यादार्थकेनोपसर्गेणाऽऽडा ' यावानाहारोऽपेक्षितस्तावानेव ग्रहीतव्यः । इति सूचितम् ।। 'पुप्प' शब्दके प्रसून कुसुम आदि अनेक पर्याय शब्द होनेपर भी गाथामें प्रसून या कुसुम आदि अन्य शब्द न देकर 'पुष्प' शब्द ही दिया है, इससे सूत्रकारका आशय खिलेहुए फूलोंसे है ऐसा स्पष्ट होता है, क्योंकि खिले हुए फूलका ही नाम पुष्प है, इसलिए भ्रमर, जैसे खिले हुए फूलों पर ही ठहरता है और उन्हींका रसपान करता है उसी प्रकार साधुभी उन्हीं गृहस्थोंसे आहार लेते हैं जिनका साधुओंको आहार देनेका भाव हो, तथा जो कुल दुगुंछित न हो।। भ्रमरके भी षट्पद द्विरेक आदि अनेक नाम हैं, उनमेंसे दूसरा कोई शब्द न देकर 'भ्रमर' पद दिया है, 'भ्रमर' शब्दका अर्थ है भ्रमण करने वाला-एक स्थानपर न ठहरने वाला; इस शब्दको देनेका आशय यह है कि साधुको इधर-उधर भ्रमण करके थोडारआहार लेना चाहिए, जिससे गृहस्थ फिर आरंभन करें।मर्यादा अर्थवाले 'आ' उपसर्गको देनेका तात्पर्य यह है कि जितने आहारकी आवश्यकता हो उतनाही लेवे,अधिक नहीं। પુષ્પ શબ્દના પ્રમૂન કુસુમ આદિ અનેક પર્યાય શબ્દો હોવા છતા ગાથામા પ્રસૂન કે કુસુમ આદિ અન્ય શબ્દ ન આપતાં પુષ્પ શબ્દ જ આવે છે એમાં સૂત્રકારને આશય ખીલેલાં લે છે એમ સ્પષ્ટ થાય છે, કારણ કે ખીલેલા ફૂલનું જ નામ પુષ્પ છે એથી ભ્રમર, જેમ ખીલેલા ફૂલે પર જ બેસે છે અને તેનું રસપાન કરે છે, તેમ સાધુ પણ એવા ગૃહસ્થ પાસેથી આહાર લે છે કે જેમને ભાવ સાધુઓને આહાર આપવાને હેય અને જે કુળ દુગુ છિત ન હોય ભ્રમરનાં પણ પક્ષદ દ્વિરેફ આદિ અનેક નામે છે, તેમાંથી બીજે કઈ શબ્દ ન આપતાં “બ્રમર' શબ્દ આપે છે ભ્રમર શબ્દનો અર્થ થાય છે બ્રમણ કનાર-એક સ્થાન પર બેસી ન રહેનાર, એ શબ્દ આપવાનો આશય એ છે કે સાધુએ અહીં-તહીં ભ્રમણ કરીને છેડે શેડ આહાર લેવું જોઈએ, જેથી 50 ફરી આભ ન કરે મર્યાદા અર્થવાળે મા ઉપસર્ગ આપવાનુ તાત્પર્ય એ છે કે જેટલા આહાગ્ની આવશ્યકતા હેય એટલો જ કે વધારે નહિ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. २ गोचरीविधौ भ्रमरदृष्टान्तः ८९ " पुष्कं ' इत्येकवचनेन ' यथा भ्रमर एकमपि पुष्पं न क्लामयति तथा साधुरपि कञ्चिदेकमपि दातारं न विपादयेदिति सूचितम् । यथा जलधरो न कञ्चिदुद्दिश्य जलं मुञ्चति, यथा वा शाखिनः स्वीयनामगोत्रकर्मोदयेन you - फलानि स्वभावत एव समुत्पादयन्ति तथा गृहस्था अपि स्वक्षुधा वेदनीयोदयेन यथासमयं दिवसे निशायां वा रन्धयन्ति, यथा च यत्र भ्रमरा न गन्तुं शक्नुवन्ति तत्रापि द्रुमाः पुष्यन्त्येव तथा साधूनां तपोऽवस्थायां रात्रौ साधुसंस्थितिरहितेषु ग्रामनगरनिगमादिषु च गृहस्थाः पाकं सम्पादयन्त्येवेति नास्ति गृहस्थसम्पादितपाकस्य साधुभिक्षा हेतुत्वम् । गाथा उत्तरार्द्धमें 'पुप्फं' इस एकवचनसे ऐसा सूचित होता है। कि जैसे भौंरा एकभी पुष्पको पीड़ा नहीं पहुंचाता है वैसे ही साधु किसी एकभी दाताको कष्ट न पहुंचावे | जैसे मेघ, किसीको उद्देश्य करके पानी नहीं वरसाता अथवा जैसे वृक्ष, अपने नाम - गोत्र कर्मके उदयसे ही बिना किसीको उद्देश्य करके स्वभाव से ही फल-फूल उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार गृहस्थ अपने क्षुधावेदनीय कर्मके उदयसे जब आवश्यकता होती है भोजन बनाते हैं । अथवा जैसे जहाँ भौरे नहीं जा सकते वहां पर भी वृक्ष फूलते ही हैं, वैसे ही साधु जब तपस्या करते हैं, या जहां साधु नहीं होते उस ग्राम नगर आदिमें भी दिन या रात्रिमें गृहस्थ भोजन बनाते ही हैं, इसलिए गृहस्थ जो भोजन बनाते हैं वह साधुओंके निमित्त होता है' ऐसा नहीं समझना चाहिये । 6 गाथाना उत्तरार्धमा 'पुप्फं' से मेम्वयनथी खेभ સૂચિત થાય છે કે જેમ ભમરા એક પણ પુષ્પને પીડા ઉપજાવતા નથી, તેમજ સાધુએ કોઇપણ દાતાને કષ્ટ ન ઉપજાવવા જેમ મેઘ, કાઈને ઉદ્દેશ્ય કરીને પાણી વરસાવતા નથી, અથવા જેમ વૃક્ષ, પેતાના નામ-ગેાત્ર કર્રના ઉદયથી જ કેાઈને ઉદ્દેશ્ય કર્યાં વિના સ્વભાવથી જ ફળ-ફૂલ ઉત્પન્ન કરે છે, તેમ ગૃહસ્થ પેાતાના ક્ષુધા–વેદનીય કર્મીના ઉદયથી જ્યારે આવશ્યકતા લાગે છે ત્યારે ભાજન બનાવે છે અથવા જેમ જ્યાં ભમરા ન જઈ શકે તેવે સ્થળે પણ વૃક્ષ ફૂલે છે, તેમ જ સાધુ જ્યારે તપસ્યા કરે છે ત્યારે, અને જ્યા સાધુ નથી હતા તે ગ્રામ નગર આદિમાં પણ દિવસે યા રાત્રિએ ગૃહસ્થે ભેજન તે મનાવે જ છે, એથી ગૃહસ્થ જે ભાજન અનાવે છે તે સાધુઓને નિમિત્ત હાય છે’ એમ ન સમજવુ જોઇએ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे ननु विषमोऽयं भ्रमरदृष्टान्तः, तथाहि-भ्रमरो द्रुमाज्ञामन्तरेणैव पुष्परसमादत्त भिक्षुः पुनर्याचित्वैव, किञ्च तदर्थ कदाचिदेकस्मिन्नपि दिने मुहुर्मुहुरेकं द्रुममुपैति तत्किं साधवोऽपि तथैव गृहस्थेभ्यो भिक्षां गृह्णीयुः ? किञ्च भ्रमरोऽसज्ञी, साधवस्तु सज्ञिनो जिनवचननिपुणाच, भ्रमरोऽव्रती साधवस्तु वतिनः, भ्रमरोऽप्रत्याख्यानी साधवस्तु प्रत्याख्यानिनः, भ्रमरोऽसंयतः साधवस्तु संयताः, इत्यादिविरुद्धधर्मशालित्वादिति चेन्न, सर्वत्र दृष्टान्तस्यैकदेशिरूपत्वात् , अनेकपुष्पतः पुष्पाऽलान्तिपूर्वककिञ्चित्किञ्चिदुपादानमात्रे दृष्टान्ततात्पर्यमिति निष्कर्षः, स्फुटी प्रश्न-भ्रमरका उदाहरण विषम है, कारण यह कि उसका साधुओंके साथ ठीक मिलान नहीं होता। क्योंकि, भ्रमर वृक्षकी आज्ञा प्राप्त किये विना ही पुष्परस पीता है, साधु याचना करके ही भिक्षा लेते हैं, भ्रमर एक दिनमें एकही वृक्षके पास वारम्बार जाता है और पुष्परसको पीता है, साधु एक दिन में बारम्बार एक गृहस्थके घरसे भिक्षा नहीं ले सकते, भ्रमर असञी होता है, साधु सञी होते हैं, भ्रमर अप्रत्याख्यानी होता है, साधु प्रत्याख्यानी होते हैं, भ्रमर असंयत होता है, साधु संयत होते हैं, इत्यादि अनेक भिन्नताएँ पायी जाती है । उत्तर-ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि दृष्टान्त सब जगहोंमें एकदेशीय ही होता है, 'पीड़ा न पहुंचाते हुए अनेक पुष्पोंसे थोड़ा थोड़ा लेना' इतने अंगोमें यह दृष्टान्त समझना चाहिये। इस विषयका स्पष्टी પ્રશ્ન–ભ્રમરનું ઉદાહરણ વિષમ છે, કારણ કે તે સાધુઓની સાથે બરાબર બંધ બેસતું નથી ભ્રમર વૃક્ષની આજ્ઞા પ્રાપ્ત કર્યા વિના જ પુષ્પને રસ પીએ છે. સાધુ યાચના કરીને જ ભિક્ષા લે છે ભ્રમર એક દિવસમાં એક જ વૃક્ષની પાસે વારંવાર જાય છે અને પુષ્પરસને પીએ છે, સાધુ એક દિવસમાં વારંવાર એક ગૃહસ્થના ઘેરથી ભિક્ષા નથી લઈ શકતા, ભ્રમર અસશી હોય છે, સાધુ સંસી હોય છે, ભ્રમર અવતી હોય છે, સાધુ વ્રતી હોય છે, ભ્રમર અપ્રત્યા ખ્યાની હેાય છે, સાધુ પ્રત્યાખ્યાની હોય છે ભ્રમર અસંયત હેાય છેસાધુ સયત હોય છે ઈત્યાદિ અનેક ભિન્નતાઓ રહેલી છે ઉત્તર—એ શકા બરાબર નથી, કારણકે દાન્ત બધી જગ્યાએ એકદેશીય જ હોય છે “પીડા ઉપજાવ્યા વિના અનેક પુષ્પમાથી છેડો ડો રસ લેવ” એટલા અંશમાં જ આ દષ્ટાન્ત સમજવું જોઈએ આ વિષયનું સ્પષ્ટી Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रहरहित समणा मरोंकी तरह दाणभनीत जैसे पूर्वोक्त अध्ययन १ गा. ३ गोचरीविधौ भ्रमरदृष्टान्तः करिष्यति चैतत्सूत्रकारः स्वयम्-'महुगारसमा' इति पञ्चमगाथया ॥२॥ एतदेव विशेषेण स्फोरयितुं दान्तिकमाह-'एमए' इत्यादि मूलम् एमेए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो। विहंगमा व पुप्फेसु, दाणभत्तेसणे रया ॥३॥ छाया-एवमेते श्रमणा मुक्ता, ये लोके सन्ति साधकः । विहङ्गमा इच पुष्पेषु, दानभक्तपणे रताः ॥३॥ सान्वयार्थः-एमेए-इसीप्रकार ये लोए-लोकम जे-जो मुत्ता द्रव्यभावपरिग्रहरहित समणा-तपस्वी साहुणो साधु संति हैं, (वे) पुप्फेसु-फूलोंमें विहंगमा व-पक्षियों-भमरोंकी तरह दाणभत्तसणे दाता द्वारा दियेजाने वाले आहारकी गवेषणामें रया लीन रहते हैं । अर्थात्-जैसे पूर्वोक्त प्रकारसे भौंरा पुष्परसका पान करता है उसी प्रकार साधु गृहस्थियोंको अमुविधा न पहुंचाते हुए अनेक घरोंसे थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करते हैं ॥ ४ ॥ टीका-एवम् उक्तप्रकारेण ये लोके समयक्षेत्रे सन्ति वर्तन्ते एते ते सर्वे श्रमणाः। 'श्रमणाः, शमनाः समनसः, समणाः' इत्येतेषां प्राकृते 'समणा' इति रूपं करण सूत्रकार स्वयं 'महुगारसमा' इस पांचवीं गाथामें करेंगे ॥२॥ अव विशेष खुलासा करनेके लिए दान्तिक कहते हैं इस प्रकार अढाइ द्वीपमें जितने श्रमण, मुक्त, साधु हैं वे सब दाताद्वारा दिये जाते हुए आहारकी एषणामें इस प्रकार प्रयत्न करें जैसे भ्रमर पुष्पोंके रसके अन्वेषणमें लीन होता है। श्रमण, शमन, समनस, समण, इन सब शब्दोंका प्राकृत भाषामें ४२९१ सूत्रा२ पोते ४ महुगारसमा से पांयमी गाथामा ४२२. (२) હવે વિશેષ ખુલાસો કરવાને દાચ્છનિક કહે છે – આ પ્રમાણે અઢી દ્વીપમાં જેટલા શ્રમણું, મુક્ત, સાધુઓ છે તેઓ બધા દાતા દ્વારા આપવામાં આવતા આહારની એષણામાં એવા પ્રયત્ન કરે કે જેમ ભ્રમર પુષ્પના રસના શોધનમાં લીન થાય છે. શ્રમણ, શમન, સમાસ, સમણું, એ બધા શબ્દોનું પ્રાકૃત ભાષામાં Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे भवति, तत्र श्राम्यन्ति = तपस्यन्त्याहारादिनिरासेन शरीरं क्लेशयन्तीति, भवभ्रमणहेतुभूतविषयेषु खिद्यन्तीति यद्वा अन्तर्भावितण्यर्थत्वात् श्राम्यन्ति-दमनेन श्रमयन्तीन्द्रियनोइन्द्रियाणीति श्रमणाः शमयन्ति = शान्ति नयन्ति कषायनोकपायरूपाऽनलमिति, शाम्यन्ति = विशङ्कटभवाटवीपर्यटद्भोगानलोज्ज्वलज्वालामालाजनितसन्तापकलापतो निवृत्ता भवन्तीति वा शमनाः । समानानि = स्वपरेषु तुल्यानि मनांसि येपामिति, कुशलमयैर्मनोभिः सह वर्त्तन्त इति वा समनसः, सम् = सम्यक् अणन्ति = प्रवचनं ब्रुवत इति, सम्यक् अण्यन्ते = कपायचतुष्टयं जित्वा 'समण' रूप होता है । इनमें 'श्रमण' का अर्थ यह है कि जो अनशन आदि तप करते हैं- परिषह सहते हैं, संसारमें परिभ्रमण कराने वाले इन्द्रियोंके विषयोंसे उदास रहते हैं, अथवा जो पांच इन्द्रियोंका तथा मनका दमन करते हैं । 'शमन ' का अर्थ यह होता है कि कपाय- क्रोध मान माया और लोभ तथा नोकपाय - हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा स्त्रीवेद पुरुषवेद और नपुंसकवेद-रूपी अग्रिको शान्त कर देते हैं, विशाल भवाटवीमें पर्यटन करते हुए भोगरूपी अग्निकी धधकती हुई ज्वालाओंसे उत्पन्न हुए संतापके समूहको शुद्ध भावनासे शान्त करदेते हैं। 'समनस्' शब्दका यह अर्थ है कि जिनका मन स्व और पर में समान है, अथवा जिनके मनोयोग सदा शुद्ध रहते हैं । 'समण ' शब्दका अर्थ यह है कि जो सम्यक् प्रकार से प्रवचनका प्रतिपादन करते हैं अथवा चारों कपायोंको जीत लेते हैं । 9 * સમણુ ” રૂપ થાય છે - શ્રમણ 'ના અર્થ એવા છે કે જે અનશન આદિ તપ કરે છે—પરિષહ સહે છે, સસારમાં પરિભ્રમણ કરાવનારા ઇન્દ્રિયાના વિષયેથી ઉદાસ રહે છે, અથવા જે પાંચ ઇન્દ્રિયનું તથા મનનું દમન કરે છે, ‘શમન' ના અ એવા થાય છે કે-વાય-ક્રોધ માન માયા અને લેાભ, તથા નાકષાય– હાસ્ય રતિ અતિ શેક ભય જુગુપ્સા સ્રવેદ પુરૂષવેદ અને નપુ સવેદ રૂપી અગ્નિને શાન્ત કરી નાંખે છે, વિશાળ ભવાટવીમાં પ`ટન કરતાં ભાગરૂપી અગ્નિની ભભકતી જ્વાલાઓમાંથી ઉત્પન્ન થતાં સતાપના સમૂહને શુદ્ધ ભાવનાથી શાન્ત કરી નાખે છે ઃ સમનસૂ’શબ્દને અથ એવા છે કે—જેનું મન સ્વ અને પરમાં સમાન હોય અથવા જેનાં મનાયેગ હંમેશ શુદ્ધ રહે. સમણું ’ શબ્દને અર્થ અવે થાય છે કે જે સમ્યક્ પ્રકારે પ્રવચનનું પ્રતિપાદન કરે છે અથવા ચારે કાયાને જીતી લે છે " Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. ३ गोचरीविधौ भ्रमरदृष्टान्तः ९३ जीवन्तीति वा समणाः । मुक्ताः = परिग्रहबन्धनरहिताः धर्मोपकरणं विहाय सूचीकुशाग्रमात्रेणापि परिग्रहेण रिक्ता इति यावत्, तत्र परिग्रहो वाह्याभ्यन्तरभेदाद्विविधः, तयोरायो धनधान्यादिरूपो नवविधः । द्वितीयस्तु " मिच्छत्तं वेयतिगं, हासाइयछकगं च नायव्वं । , कोहाईण चउक्कं चउदस अभितरा गंठी ॥ " इत्युक्तरूपः । साधवः = साध्नुवन्ति-निष्पादयन्ति स्वपरशिवमुखं येते, पुष्पेषु = व्याख्यातपूर्वेषु विहङ्गमाइव, विहायसा = गगनेन गच्छन्तीति तथोक्ताः, प्रकरणादत्र भ्रमरा इत्यर्थः, त इव, भ्रमरतुल्या इति यावत् । एवं दृष्टान्तदाष्टन्तिकयोर्मिथः सादृश्यं प्रदर्श्य सम्प्रति यः कश्चिद् भेदस्तमाहपरिग्रहके बन्धन से रहित अर्थात् धर्मके उपकरणोंके सिवाय सुई या कुशकी नोंकके बराबर भी परिग्रह न रखनेवालोंको मुक्त कहते हैं । परिग्रहके दो भेद हैं- (१) बाह्य और (२) आभ्यन्तर । पहला बाह्य परिग्रह धन-धान्य आदि नौ प्रकारका है । दूसरा आभ्यन्तर परिग्रह(१) मिथ्यात्व, (२) स्त्रीवेद, (३) पुरुषवेद, (४) नपुंसकवेद, (५) हास्य, (६) रति, (७) अरति, (८) शोक, (९) भय, (१०) जुगुप्सा, (११) क्रोध, (१२) मान, (१३) माया और (१४) लोभके भेदसे चौदह प्रकारका है । स्व और परके मोक्ष सम्बन्धी सुखको साधनेवाले साधु कहलाते हैं । ऐसे साधु, दिये जानेवाले अशन आदिकी एषणामें प्रवृत्त होवें - आहार- पानी की विशुद्धिमें लीन रहें । यहां तक दृष्टान्त और दाष्टन्तिककी परस्परमें समानता बतलाई है । પરિગ્રહના અંધનથી રહિત અર્થાત્ ધર્મના ઉપકરણેા સિવાય એક સાય કે તણખલા જેટલા પણ પરિગ્રડુ ન રાખનારાઓને મુક્ત કહે છે परिवहना मे लेह छे (१) मा भने (२) माल्यतर पहेलो माह्य परिગ્રહ ધન-ધાન્યાદિ નવ પ્રકારના છે. ખીજ આભ્યંતર પરિગ્રહ−(૧) મિથ્યાત્વ, (२) स्त्रीवेह, (3) यु३षवेध, (४) नयुंसम्बेध, (4) हास्य, (९) रति, (७) शारति, (८) शोड, (ङ) लय, (१०) लुगुप्सा, (११) डोध, (१२) भान, (१३) भाया, भने (१४) बोल, मे तेथे उरीने १४ प्रहारनो छे, સ્વ અને પરના મેક્ષ સબંધી સુખને સાધનારા સાધુ કહેવાય છે. એવા સાધુ, આપવામાં આવતા અશન આદિની એષણામા પ્રવૃત્ત થાય, આહાર પાણીની વિશુદ્ધિમાં લીન રહે અહીં સુધી દૃષ્ટાન્ત અને દૃષ્ણન્તિકની પરસ્પર સમાનતા બતાવી છે. હવે Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ श्रीदशवैकालिकसूत्रे यद्वा यथा विहङ्गमाः पुष्पेषु तथा साधवः कुत्र रताः ? इत्याह- 'दानभक्तपणे रताः' इति, दीयत इति, अदायीति वा दानं दीयमानमथवा दत्तं तच्च तद्भक्तम् = अन्नादिकं च दानभक्तं तस्य एपणम् = अन्वेषणं तस्मिन्, अथवा दानं दत्तं, भक्तं =मायुकम्, एपणा = अन्वेषणम् एतेषां समाहारद्वन्द्वे दानभक्तपणं तस्मिन् रता:-आसक्ता इत्यर्थः । , वोटिक - शाक्य- वापस गैरिका-ऽऽजीवा अपि लोके श्रमणपदेनोच्यन्ते तेषां निरासार्थमुक्तं 'मुक्ता' इति । निहत्रादिष्वपि व्यवहारतो मुक्तत्वमस्त्यतस्तद्वयावृत्त्यर्थमाह-'साहुणो' इति । मधुकरा अदत्ताऽऽदानवृत्त्या कुसुमरसं पिवन्ति श्रमणास्तु दावभिरदत्तस्यान्नादेर्जिघृक्षामपि न कुर्वते ग्रहणस्य तु कथैव केति भ्रमरापेक्षया साधूनां व्यतिरेकं दर्शयितुमाह- 'दाण' इति । 'भत्त' पदेन सचित्त - अब उनमें जो अन्तर है उसे भी बतलाते है । वह अन्तर यह है कि जैसे भ्रमर पुष्पोंमें अनुरक्त होता है वैसे साधु गृहस्थद्वारा दिये जाने वाले अशन पान आदिके अन्वेषण में प्रवृत्त होवें । वोटिक, शाक्य, तापस, गैरिक और आजीविक आदिभी, लोकमें श्रमण कहलाते हैं, उनका निराकरण करनेके लिए गाधामें 'मुत्ता' (मुक्ताः) कहा है । निहव आदिभी व्यवहारसे मुक्त कहलाते हैं अतः उनका निराकरण करनेके लिए 'साहुणो' (साधवः) पद दिया है । भ्रमर विना दिये हुए पुष्पके रसका पान करते हैं किन्तु श्रमण विना दिये हुएको ग्रहण करनेकी इच्छाभी नहीं करते, ग्रहण करने की तो बात ही दूर है, इस भेदको प्रगट करनेके लिए 'दान' शब्द, सचित्त आहारका તેમાં જે અંતર રહેલુ છે તે ખતાવે છે તે અતર એ છે કે—જેમ ભ્રમર પુષ્પામાં અનુરક્ત થાય છે તેમ ગૃહસ્થે આપેલા અનશન પાન આદિના ચેધનમાં સાધુ પ્રવૃત્ત થાય બેટિક, શાય, તાપસ, વૈરિક અને આજીવિક આદિ પણ જનતાभां श्रभ] हेवाथ छे, तेन निगः ४२वा भाटे गाथामां मुत्ता (मुक्ताः ) કહ્યુ છે નિહનવ આદિ પણ વ્યવહાર કરીને મુક્ત કહેવાય છે, તેથી તેનું નિશ२खाने साहुणो ( साधवः ) यह मापे हे अभर आयुमापेक्षा पुष्पना સનું પાન કરે છે, કિન્તુ શ્રમણ અણુઆપેલા ભેજનનું ગ્રહણ કરવાની ઈચ્છા પશુ કરતા નથી, પછી ગ્રણ કરવાની વાત જ કયા રહી ? આ ભેદને પ્રકટ કરવાને भारे दान राष्ट, सत्ति हान्नु निराश्य खाने भाटे भत्त शुण्ड, भने Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. ३ भिक्षाप्रकाराः मपि व्यवच्छिद्यते । आधाकर्मादिदोषव्यावृत्तये 'एसणा - पदमुपात्तम् । J एवमुक्तगाथाभ्यां दृष्टान्त - दाष्टन्तिकप्रदर्शनपुरस्सरं साधुभिः कथं भिक्षा ग्रहीतव्येत्युक्तं, तत्र भिक्षा द्विविधा - लौकिकी लोकोत्तरा च । तयोराद्या दीनवृत्ति- पौरुषनी-भेदाद् द्विविधा, तत्र स्वोदरभरणासमर्थानां हीना - नाथ- पगुप्रभृती - नामाद्या, पञ्चास्रवभाजामिन्द्रियपञ्चकविषयासक्तचित्तानां प्रमादपञ्चकमवृत्तानां भोगामिषगृध्नूनां सन्ततिसमुत्पादकानां निरुद्यमानां द्वितीया । लोकोत्तराऽपि निराकरण करनेके लिए 'भत्त' शब्द और आधाकर्मी आदि दोषवाले आहारका व्यवच्छेद करनेके लिए 'एषणा' शब्द गाथामें दिया गया है । इन दो गाथाओंमें दृष्टान्त और दाष्टन्तिक बतलाकर यह प्रगट किया है कि साधुओं को किस प्रकार भिक्षा लेनी चाहिये?, अतः भिक्षाके भेद कहते हैं भिक्षा दो प्रकारकी है-लौकिक भिक्षा और लोकोत्तर भिक्षा | लौकिक भिक्षाके भी दो भेद हैं- (१) दीनवृत्ति, (२) पौरुषघ्नी । अपना पेट भरने में असमर्थ, दीन, हीन, अनाथ, लूलों, लंगड़ोंकी भिक्षा दीनवृत्ति कहलाती है । पांच आस्रवोंका सेवन करनेवाले, पाँचों इन्द्रियोंके विषयों में चित्तको सदा आसक्त रखनेवाले, पांचों प्रकार के प्रमादोंमें प्रवृत्ति करनेवाले, भोगरूपी आमिषमें अभिलाषा रखनेवाले, बाल-बच्चोंको उत्पन्न करनेवाले निकम्मे मनुष्योंको दी जानेवाली भिक्षा पौरुषघ्नी कहलाती है, क्योंकि इससे उनका पौरुष नष्ट हो जाता है । ९५ આધાકમી આદિ દાષવાળા આહારના વ્યવછેદ કરવાને માટે છુ” શબ્દ ગાથામાં આપવામાં આવેલે છે. આ બે ગાથાઓમાં દૃષ્ટાંત અને હૃષ્ણન્તિક ખતાવીને એમ પ્રકટ કરવામાં આવ્યુ છે કે સાધુઓએ કેવા પ્રકારની ભિક્ષા લેવી જોઇએ. માટે ભિક્ષાના ભેદે કહે છે – ભિક્ષા બે પ્રકારની છે. લૌકિક ભિક્ષા અને લેાકેાત્તર ભિક્ષા. લૌકિક ભિક્ષાના પણ એ ભેદે છે. (૧) દીનવૃત્તિ, (૨) પૌરૂષની પેાતાનું પેટ ભરવામા અસમ हीन, हीन, अनाथ, सूझा, सगानी लिक्षा हीनवृत्ति अहेवाय छे. यांय मासવેનું સેવન કરનારા, પાચે ઇન્દ્રિયાના વિષયમાં ચિત્તને સદા આસકત રાખનારા પાચે પ્રકારના પ્રમાદામાં પ્રવૃત્તિ કરનારા, ભેગરૂપી આમિષમા અભિલાષા રાખનારા, બાળ-ખચ્ચાને ઉત્પન્ન કરનારા, એવા નકામા મનુષ્યને આપવામાં આવતી ભિક્ષા પૌરૂષની કહેવાય છે, કારણ કે તેથી એમનું પૌરૂષ નષ્ટ થઇ જાય છે. Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ श्रीदशवैकालिकसूत्रे द्विविधा - अप्रशस्ता प्रशस्ता च तत्राऽवसन्न - पार्श्वस्थादीनामप्रशस्ता भिक्षा, प्रशस्ता पुनः पञ्चमहाव्रतधारिणां पट्कायरक्षकाणां समितिपञ्चक- गुप्तित्रयवतां मुनीनां प्रतिमाधारिश्रावकाणां च यत एवंभूताः श्रावका अपि श्रमणकल्पा एव । इयमेव ' सर्वसम्पत्करी - त्युच्यते, अस्या अन्यान्यपि पडू नामानि यथा - (१) माधुकरी, (२) गोचरी, (३) गडुलेपा, (४) अक्षाञ्जना, (५) गर्तापूरणी, (६) दाहोपशमनी चेति । तानु माधुकरी - समनन्तरसृत्रोक्तस्वरूपा (१) । लोकोत्तर भिक्षा भी दो प्रकारकी है - (१) अप्रशस्त और (२) प्रशस्त । अवसन्न और पार्श्वस्थ आदिकी भिक्षा अप्रशस्त और पंचमहाव्रतधारी, पट्कायरक्षक, पांच समिति तीनगुप्सिका पालन करनेवाले मुनिकी तथा प्रतिमा - ( पडिमा ) - धारी श्रावकोंकी भिक्षा प्रशस्त कहलाती है । प्रतिमा - ( पडिमा ) - धारी श्रावकों की भिक्षा प्रशस्त इस कारण है कि वे श्रावक होते हुए भी साधुसरीखी उत्कृष्ट क्रियाका पालन करते हैं । इस भिक्षाको 'सर्वसम्पत्करी' भी कहते हैं, क्योंकि इससे आत्माकी समस्त सम्पत्ति ज्ञान दर्शन सुख आदिकी प्राप्ति होती है । इस भिक्षा के छह नाम और भी कहते हैं (१) माधुकरी (भ्रामरी), (२) गोचरी, (३) गडलेपा, (४) अक्षाञ्जना, (५) गर्तापूरणी और (६) दाहोपशमनी । (१) माधुकरी ( भ्रामरी) का स्वरूप इससे पहलेकी गाथामें कहा जाचुका है । લેાકેાત્તર ભિક્ષા એ પ્રકારની છે. (૧) પ્રશસ્ત, (૨) પ્રશસ્ત અવસન્ન અને પાવસ્થ આદિની ભિક્ષા અપ્રશસ્ત અને પંચ મહાવ્રતધારી, ષટ્કાયરક્ષક, પાંચ સમિતિ ત્રણ ગુપ્તિનું પાલન કરનારા મુનિની તથા પ્રતિમા–( પડિમા )–ધારી શ્રાવકાની ભિક્ષા પ્રશસ્ત કહેવાય છે. પ્રતિમા–( પડિમા )-ધારી શ્રાવકાની ભિક્ષા પ્રશસ્ત એ કારણથી છે કે એ શ્રાવક હોવા છતાં સાધુના જેવી ઉત્કૃષ્ટ ક્રિયાનું પાલન अरे छे. આ ભિક્ષાને ‘ સર્વ સમ્પકરી ’ પણ કહે છે, કારણ કે તેથી આત્માની સમસ્ત સમ્પત્તિ જ્ઞાન દર્શન સુખ આદિની પ્રાપ્તિ થાય છે એ ભિક્ષાનાં ખીજા છ નામ પણ કહેલાં છે. (१) भाधुरी ( भरी ), (२) गोयरी (3) गरुडझेपा, (४) अक्षांना, (4) गर्ता, मने (६) हाडापशमनी. (१) भाधुरी ( आभरी ) नुं स्व३५ महेसांनी गाथामा उधुं छे. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - अध्ययन १ गा. ३ भिक्षाप्रकाराः द्वितीया-यथा गौर्यत्र लघुतणादिकं पश्यति तत्राऽल्पं यत्र चाधिकं तत्र पूर्वापेक्षयाऽधिकं कवलं गृह्णाति न तु तृणादिकमुन्मूलयति तथा मुनिरपि गृहस्थगृहे यथाsवसरं यथासामग्रि च यां भिक्षां गृह्णाति सा । अथवा विविधवसनरत्नालङ्करणविभूपिता मुन्दरी युवतिगवे घासादिकं समर्पयति तदा तदीयरूपलावण्यादिकमपश्यन्ती गौर्दीयमानं घासादिकमुपादत्ते, तद्वद् भिक्षुणाऽपि दातृवसनसुवेपरूपलावण्यादेः सानुरागावलोकनं विहाय केवलमशनपानादिशुद्धौ दृष्टिः स्थापनीयेति गोचरीभिक्षासमाचारः (२)। तृतीया गडुलेपा-यथा गडूपरि समधिकलेपप्रदानेन प्रसृतलेपतो नीरुजोऽपि (२) गोचरी-जैसे गाय जहां कम घास देखती है वहाँ कम कवल ग्रहण करती है, जहां अधिक देखती है वहां पहलेसे कुछ अधिक ग्रहण करती है, घासको जड़से नहीं उखाड़ती, उसीप्रकार भिक्षु एक स्थानसे ही पूर्ण अशन पान आदि न ग्रहण करे किन्तु गृहस्थको फिर आरम्भ न करना पड़े इस प्रकार विचार कर अशनादि ले उसे गोचरी कहते हैं। अथवा जैसे विविध बहुमूल्य वस्त्र आभूषणोंसे आभूषित सुन्दरी युवती स्त्री गायको घास डालने आती है तो गाय उसकी सुन्दरता नहीं देखती वरन् घास पर ही दृष्टि रखती है, उसीप्रकार भिक्षु आहारादि देती हुई स्त्रीके सौन्दर्य, सुवेष, आभूषण आदिका निरीक्षण न करे किन्तु अशनादिकी शुद्धि पर ही दृष्टि रखे उसे गोचरी कहते हैं। (३) गडुलेपा-जैसे फोड़ेके ऊपर आवश्यकतासे अधिक लेप करनेसे (૨) ગોચરી-જેમ ગાય જ્યા એછું ઘાસ જુએ છે ત્યાં એક કેળિયે લે છે, જ્યાં વધુ ઘાસ જુએ છે ત્યા પહેલાથી વધુ માટે પ્રારા (કેળીયે) લે છે, ઘાસને મૂળમાંથી ઉપાડતી નથી. એ રીતે ભિક્ષુ એક સ્થાનેથી જ પૂરાં અશન પાન આદિ ગ્રહણ ન કરે, કિંતુ ગૃહસ્થને ફરીથી આરંભ-સમારંભ ન કરે પડે એ વિચાર કરીને અશનાદિ લે, તેને ગોચરી કહે છે. અથવા જેમ વિવિધ બહુમૂલ્ય વસ્ત્રાભૂષણોથી સજજ થએલી સુન્દર યુવતી સ્ત્રી ગાયને ઘાસ નીરવા આવે છે, તે ગાય તેની સુંદરતા જેતી નથી, પરન્તુ ઘાસ પર જ દષ્ટિ રાખે છે, તે પ્રમાણે ભિક્ષુ આહારાદિ આપતી સ્ત્રીનું સૌદર્ય વેશ, આભૂષણ આદિનું નિરીક્ષણ ન કરે, કિંતુ અશનાદિની શુદ્ધિ પર જ દષ્ટિ રાખે તેને ગોચરી કહે છે (૩) ગડુલેપા–જેમ ગુમડા ઉપર જરૂર કરતા વધારે લેપ કરવાથી લેપ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकसूत्रे गसन्निहितदेशो विहन्यते, तदेकदेशमात्रे यत्किञ्चिल्लेपप्रदाने गडप्रदेशसाकल्येन लेपाभावाद्रोगो नोपशाम्यति, तद्वत्साधुरपि, निर्दोषपरिमिताहारेण क्षुधां निवर्तयति तद्रूपा ( ३ ) । , चतुर्थ चास्या अक्षाखनेति नाम - यथा शकटेन दुरं गन्तुकामस्तत्र यदि तैलदानं न कुर्यात् तदा चलितुमेवाक्षमं तन्न पारयति शकटारोहिणं प्रापयितुमभीष्टं स्थानम् तत्राधिकतर तैलनिक्षेपस्तु न केवलं निष्फलः प्रत्युत हानिं जनयतीति तद्वन्निरवद्याशनपानप्रदानं विना मोक्षप्रापकसंयमपथे चलितुमक्षमं शरीरलेप इधर-उधर फैल जाता है और आस-पासका नीरोग प्रदेश भी खराय हो जाता है, और यदि फोड़े पर बिलकुल ही लेप न किया जाय तो भी रोग शान्त नहीं होता, वैसेही साधु यदि प्रमाणसे अधिक आहार करे तो प्रमाद आदि दोप उत्पन्न होनेसे स्वाध्याय आदि क्रियाओंका पूर्ण पालन नहीं कर सकता, और बिलकुल ही थोड़ा आहार करे तो क्षुधावेदनीयको शान्ति न होनेसे वैयावृत्त्य आदि साधुकी क्रियाएँ नहीं हो सकतीं, इसलिए निर्दोष और परिमित आहार लेना 'गडलेपा' भिक्षा कहलाती है । (४) अक्षाञ्जना - जैसे कोई गाडीद्वारा इच्छित स्थान पर जाना चाहता है परन्तु गाडीको बिलकुल तैल नहीं देवे तो वह गाडी चल नहीं सकती और अधिक तेल दे दिया जाय तो वह वृथा ही नहीं वरन् हानिकारक भी है, इसीप्रकार मोक्षपुरी तक पहुंचनेके लिए शरीर - रूप शकट (गाडी) આમતેમ ફેલાઇ જાય છે અને આસપાસના નીરંગ પ્રદેશ પણ ખરાખ થયું ન્તય છે અને જે ગુમડા ઉપર બિલકુલ લેપ ન કરવામાં આવે તે રોગ શાન્ત થાય નહિ, એવી જ રીતે સાધુ જે પ્રમાણથી અધિક આહાર કરે તે પ્રમાદ આદિ દેષ ઉત્પન્ન થવાથી સ્વાધ્યાય આદિ ક્રિયાઓનુ પૃથું પાલન કરી શકતા નથી, અને બિલકુલ ઘેાડા આહાર કરે તે। ક્ષુધાવેદનીયની શાન્તિ નહિ થવાથી વૈયાવૃત્ય આદિ સાધુની ક્રિયાઓ થઇ શકતી નથી તેથી નિર્દોષ અને પરિમિત આહાર લેવે એ ‘ ગડ્ડલેપા ’ ભિક્ષા કહેવાય છે. (૪) જેમ કેઇ માણસ ગાડામાં બેસીને ઇચ્છિત સ્થાન પર જવા ઇચ્છે છે. પરન્તુ ગાડાને બિલકુલ તેલ ન ઉંજે તે એ ગાડું ચાલી શકતું નથી અને તે વધારે પડતુ તેલ ઉજે તે તે વૃધા ન્તય છે એટલું જ નહિ પણું હાનિકારક પણ નીવડે છે એ રીતે મેક્ષપુરી સુધી પહેાચવાને માટે રી-શકટ (ગાડા) ९८ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. ३ भिक्षामकाराः मपि नालं मुनीन् मोक्ष प्रापयितुम् , अधिकतराहारपूरितं तु निद्राप्रमादादिदोषजातं जनयन्नूनमेव विनयश्रुतादिसमाधि विध्वंसयति, अतः परिमितं विशुद्धं चाशनपानमुपादेयं भिक्षुणेति सेयं भिक्षा 'अक्षाञ्जना नाम' (४)। ___ पश्चमी गर्तापूरणी, सा यथा-कस्यापि श्रेष्ठिनो भवनसम्बन्धिनि गमनागमनमार्गे यदि केनापि कारणेन गतः संजायते तदा तमवलोक्य स तदानीं यदेव सद्यो लोष्टपाषाणखण्डादिकमुपलभते तदेवादाय तं गत परिपूरयति न तूत्तमेनेवेष्टकप्रभृतिना गर्तोऽयं पूरयितव्य इति विचारयति, तथा सति महाऽनर्थोत्पत्तिसंभवः, एवमेव मुनिरपि क्षुधावेदनीयोदयवशाद्रिक्तमुदरमैषणिकैरन्तमान्तादिभिराहारैर्बिभत्तीति । (५) को आहारादिरूप तेल बिलकुल न दिया जाय तो संयमयात्राका सम्यक निर्वाह नहीं हो सकता और अधिक आहार देनेसे रोगादि होजाने के कारण विनय श्रुत आदि समाधि नहीं हो सकती, इसलिए परिमित आहार लेना अक्षाञ्जना भिक्षा कहलाती है ॥ (५) गर्तापूरणी-जैसे यदि किसी रईसके घर जाने-आनेके मार्गमें किसी कारणले गडढा होजाय तो उसे देखते ही वह रईस शीघ्रतासे मिट्टी-पत्थरके टुकड़े आदि जो कुछ पाता है उन्हीं को लेकर खड्डेको भर देता है। परन्तु ऐसा नहीं विचारता है कि अच्छे २ ईट-पत्थरों से ही इसे भरना चाहिये । यदि न पूरे तो बड़ी आपत्ति आनेकी संभावना रहती है । इसीप्रकार मुनि, क्षुधावेदनीयके वशसे अन्त-प्रान्त आदि निरवद्य आहार लेकर खाली उदर भर लेते हैं । इसलिए इसे गर्तापूरणी कहते हैं। ને આહારાદિ રૂપ તેલ બિલકુલ ન ઉજવામાં આવે તે સ ચમ-યાત્રાને સભ્ય નિવહ થઈ શકતું નથી, અને અધિક આહાર આપવામાં આવે તે રોગાદિ થવાથી વિનય શ્રત આદિ સમાધિ થઈ શકતી નથી તેથી પરિમિત આહાર લેવા એ “અક્ષાજના” ભિક્ષા કહેવાય છે (૫) ગર્તાપૂરણી–જેમ કેઈ ગૃહસ્થને ઘેર જવા-આવવાના માર્ગ પર કે કારણથી ખાડે પડી જાય છે તે તેને દેખતાં જ તે ગૃહસ્થ શીધ્ર માટી, પત્થરના ટુકડા, વગેરે જે કંઈ મળે તે લઈને ખાડાને પૂરી નાંખે છે પણ એમ નથી વિચારતે કે સારી ઈ ટે પથથીજ પૂરીએ જે ન પૂરે તે ભારે આપત્તિ આવી પડવાની સંભાવના રહે છે એ રીતે મુનિ ક્ષુધા–વેદનીયને લીધે અંત–પ્રાંત આદિ નિરવ આહાર લઈને ખાલી ઉદર ભરી લે છે તેને ગપૂરણ કહે છે. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० श्रीदशवैकालिकमुत्रे पष्ठी दाहोपशमनी यथा - भवने ज्वलनज्वालामालादन्दद्यमाने गृही यदेव सद्यो जलकर्दमधूलिलोष्टप्रभृतिकमुपलभते तदेव प्रक्षिप्य पावकं प्रशमयति न तु गङ्गादिसलिलं प्रतीक्षते, तथा संयमरक्षार्थी निर्दोषेण रूक्षादिनाऽप्याहारेण शमयति क्षुधां मुमुक्षुर्भिक्षुरिति (६) ॥ ३ ॥ ८ प्रशस्तै भिक्षा साधुभिर्ग्रहीतव्या नेतरेति निशम्य शिष्यो गुरुं प्रत्याहवयच - इत्यादि । " ૧ २ 3 ७ ५ ९ मूलम् - वयं च वित्तिं लब्भामो, न य कोइ उवहम्मइ । ४ e ૧૦ 13 ૧૨ tt अहागडे रीयंते, पुप्फेसु भमरा जहा ॥ ४ ॥ (छाया) - वयं च वृतिं लप्स्यामहे, न च कोऽपि उपहन्यते । यथाकृतेषु रीयन्ते, पुप्पेषु भ्रमरा यथा ॥ ४ ॥ (६) दाहोपशमनी - जिस समय घर में अग्नि धधक जाय उस समय घरका स्वामी जल्दी २में जल कीचड़ धूल मिट्टी आदि जो कुछ मिलजाय उसीको डालकर आग बुझाता है । उस समय वह यह नहीं सोचता कि जब गंगासिन्धुका निर्मल नीर मिलेगा तभी आग बुझाऊंगा, उसीप्रकार संयम की रक्षा के लिए मुमुक्षु भिक्षु तुच्छ आदि निर्दोष भिक्षासे क्षुधाको शान्त कर लेता है । इसलिए इसको दाहोपशमनी कहते हैं ||३|| ' प्रशस्त भिक्षा ही साधुको ग्रहण करनी चाहिये अन्य नहीं' यह सुनकर शिष्य गुरुसे निवेदन करता है- 'वयं च विति' इत्यादि । (૬) દહેાપશમની—જે સમયે ઘરમા અગ્નિ ભભૂકી ઉઠે તે સમયે ... ઘરને ધણી જલ્દી-જલ્દી પાણી, કાદવ, ધૂળ, માટી વગેરે જે કાઇ મળી જાય તે નાંખીને આગ મુઝાવે છે. તે વખતે તે એમ નથી વિચારતા કે જ્યારે ગ ગા—સિંધુનું નિર્મળ નીર મળશે. ત્યારે આગને મુઝવીશ એ રીતે સયમની રક્ષાને માટે મુમુક્ષુ ભિક્ષુ લુખ્ખી, તુચ્છ, આદિ નિર્દોષ ભિક્ષાથી ક્ષુધાને શાન્ત કરી લે છે. तेथी तेने 'होपशमनी' हे छे (3) “ પ્રશરત ભિક્ષાજ સાધુએ ગ્રહણ કરવી જોઇએ બીજી નહિ,” એમ સાભ जीने शिष्य शु३ सभीचे निवेदन ४३ : वयं च वित्तिं !त्याहि Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अध्ययन १ गा. ४ भिक्षायां मिष्यप्रतिज्ञा गुरु महाराजके प्रति शिष्यकी प्रतिज्ञा सान्वयार्थः-(हे गुरुमहाराज !) वयं हम च=ऐसी वित्तिवृत्ति-मिक्षावृत्तिको लन्भामो स्वीकार करेंगे (जिससे) कोइय-कोईभी न उवहम्मद उपमर्दित न हो, (साधु ) अहागडेसु-सदाकी भांति गृहस्थद्वारा अपने लिए बनाये हुए भोजनमेंही रीयंते संयम यात्राका निर्वाह करते हैं, जहा-जिस प्रकार भमरो-भौंरा पुप्फेसु-फूलोंमें निर्वाह करता है । अर्थात् श्रमण महाराज गृहस्थद्वारा खुदके लिये बनाये हुए आहारसे ही अपनी यात्राका निर्वाह कर लेते हैं ॥४॥ ___टीका-एतद्गाथायाः पूर्वार्दै समुपात्तं चकारद्वयं क्रमेण यथा-तथा-शब्दार्थवाचकं ततश्चायमर्थः-वयं च-तथा-तेन रूपेण, वृत्ति जिनोक्तस्वरूपां प्रशस्तां भिक्षां, लप्स्यामहे याप्स्यामः स्वीकरिष्याम इति यावत् , यथा न कोऽपि त्रस-स्थावरमाणिमात्रमित्यर्थः उपहन्यते-उपहतः (उपमदितः) भवेत् । एवंविधवृत्तिग्रहणे सदृष्टान्तहेतुमुपन्यस्यति 'अहा०' इति, अत्र 'यत्' इत्यध्याहार्यम् , तथा च-यतः यथाकृतेषु-गृहस्थैरात्मार्थमात्मीयार्थ च सम्पादितेष्वाहारादिषु रीयन्ते गच्छन्ति संयमयात्रां निर्वहन्तीति यावत् 'साधवः' इति शेषः । अत्र गतमपि भ्रमरदृष्टान्तं विस्पष्टपतिपत्तये पुनरुपन्यस्यति 'पुप्फेम' यथा पुष्पेषु इस गाथाके पूर्वार्द्ध में दो 'च' आये हैं, एकका अर्थ है 'जैसे' और दूसरेका अर्थ है 'वैसे', इसलिए इसका अर्थ यह हुआ कि-हे भगवन् ! हम वैसेही प्रशस्त भिक्षा ग्रहण करेंगे जैसे (जिस प्रकार) प्रस या स्थावर जीवको किसीभी प्रकारकी बाधा न पहुँचे, क्योंकि गृहस्थोंद्वारा अपनेलिये या अपने कुटुम्बके लिये बनाये हुए आहारको लेकर ही साधु अपनी संयमयात्राका निर्वाह कर लेते हैं। इसी घातको अधिक स्पष्ट करनेके આ ગાથાના પૂર્વાર્ધમાં બે જ આવ્યા છે એકનો અર્થ છે જેમ અને બીજાને અર્થ છે “એમ” એ રીતે તેનો અર્થ એમ થયે કે-હે ભગવન્ ! અમે એમ જ (એજ પ્રકારે) પ્રશસ્ત ભિક્ષા ગ્રહણ કરીશું કે જેમ (જે પ્રકારે) ત્રસ યા સ્થાવર જીવને કઈ પણ પ્રકારની બાધા ન પહોચે કારણ કે ગૃહસ્થાએ પિતાને માટે ચા પિતાના કુટુંબને માટે બનાવેલ આહાર લઈને જ સાધુ પિતાની સ યમ–ચાત્રાને નિર્વાહ કરી લે છે. એ વાતને વધુ સ્પષ્ટ કરવાને માટે ભ્રમરના દષ્ટાંતને ફરીથી બેવડાવે છે Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 'श्रीदशवकालिकसूत्रे भ्रमराः, ते हि पुष्पेभ्यो रसमाहरन्तोऽपि तानि (पुष्पाणि) लेशवोऽपि न पीडयन्ति । अत्र 'लभामो' इत्यस्य 'लप्स्याम' इति व्याख्यानं तु सर्वथा व्याकरणविरुद्धमेव 'लभ' धातोरनुदात्तेत्सु पठितत्वेन नित्यात्मनेपदित्वात् , न च चलिडो डिस्करणज्ञापितया 'अनुदात्तेत्त्वलक्षणमात्मनेपदमनित्यम्' इतिपरिभाषया परस्मैपदमपि युक्तमेवेति वाच्यम् , तस्या अगतिकगतिकतयेष्टप्रयोगविषयत्वाद, वस्तुतस्तु भाष्यानुक्तज्ञापितार्थस्य साधुताया नियामकत्वे प्रमाणाभावादेवमादिकाः परिभापाश्चिन्त्या एवेति स्पष्टं 'परिभाषेन्दुशेखरे ' इत्यतिरोहितं वैयाकरणानाम् । अत्र गाथायां 'लव्भामो' इति, 'उवहम्मइ ' इति भविष्यद्वर्त्तमानौ कालावविवक्षितौ, तेन कालत्रयग्रहणं वोध्यम् ॥ ४॥ ___ एवं मधुकरदृष्टान्तेन यत्फलितं तत्मतिपादयन्नुपसंहरति-'महुगारसमा०' इत्यादि। मूलम्-महुगारसमा बुद्धा जे भवंति अणिस्सिया । नाणापिंडरया दंता तेण वुच्चंति साहुणो ॥त्तिवेमि॥५॥ छाया-मधुका (क) रसमा बुद्धा यतो भवन्त्यनिश्रिताः। नानापिण्डरता दान्ताः, तेन उच्यन्ते साधवः ॥५॥ सान्वयार्थः-(क्योंकि)जे-जो महुगारसमा भौरेकीभांति बुद्धा-विधेको अणिस्सिया-मोहबन्धनरहित नाणापिंडरया अनेक घरोंका निरवध पिण्ड लेकर संयममें लीन दंता इन्द्रियविजयी भवंति होते हैं, तेण-इसीसे वे साहुणो-साधु वुचंति कहलाते हैं। त्तिवेमि इस प्रकार श्रीसुधर्मा स्वामी लिए कहे हुए भ्रमर दृष्टान्तको फिर दुहराते हैं कि जैसे भ्रमर पुष्पोंसे रस ग्रहण करकेभी किसी पुष्पको पीड़ा नहीं पहुँचाता ॥४॥ __मधुकरका उदाहरण देनेसे जो निष्कर्ष निकला उसे सूत्रकार कहते ह-'मटुगारसमा' इत्यादि । કે-જેમ ભ્રમર પુપિમાથી રસ ગ્રહણ કરીને પણ કોઈ પુષ્પને પીડા ઉપenu नयी (४) મધુકરના ઉદાહરણમાંથી જે નિષ્કર્ષ નીકળે તેને સૂત્રકાર કહે છેमहगारसमा, त्यादि । छाया- मनापिण्डरता दान्ताः महगारसमा भारका निश्च - -- - - Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. ५ साधुस्वरूपम् जम्बूस्वामीसे कहते हैं-“हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीरसे मैंने जैसा मुना है वैसा ही तेरे लिए कहता हूं ॥५॥ ॥ इति प्रथमाध्ययनस्य सान्वयार्थः ॥१॥ टीका-अत्र गाथायां 'जे' इत्यस्यादौ 'यतः' इति, 'तेण' इत्यस्यान्ते 'ते' इति च पदद्वयमध्याहार्यम् , तथा च-यतः ये मधुका(क)रसमा भृङ्गवदनियतवृत्तयः: बुद्धाः इदं कर्त्तव्यमिदमकर्तव्यमित्येवं विवेकवन्तः, अनिश्रिताः निश्रायरहिताः-निवासकुलादिषु प्रणयनिगडबन्धशून्या इत्यर्थः, नानापिण्डरता:नाना=अभिग्रहविशेषेण प्रतिगृहाऽल्पाल्पग्रहणयुक्ततया अन्तपान्तादिभेदेन च विविधप्रकारा ये पिण्डा=आहाराधास्तेषु रताः संसक्ताः, दान्ताः इन्द्रियनोइन्द्रियविकारभावाऽनुपहतचित्ताः, भवन्ति-सम्पयन्ते, तेन उक्तप्रकारेण निरवधत्तिसमाराधनेन हेतुना ते योगत्रये-न्द्रियपश्चक-नवविधविशुद्धब्रह्मचर्याऽहिंसाः साधयन्तीति साधवः व्युच्यन्ते कथ्यन्ते इति गाथार्थः, इत्यन्ये, वस्तुवस्तु अत्र 'यतः' इत्यस्य, 'ते' इत्यस्य चाध्याहरणं 'जे' इत्यस्य प्रथमान्तत्वेन व्याख्यानं च न युक्तं, तथा सति 'ये-'ते'-शब्दयोर्वैयर्थ्यापत्तेः, तस्मात् 'जे' इत्यव्ययपदं 'यतः' इत्यस्यार्थे, अव्ययानामनेकार्थत्वात् , ततश्चायमभिसम्बन्धः-यतः मधुकारसमाः बुद्धाः अनिश्रिताः नानापिण्डरताः दान्ता ___जो भौरेके समान अनियत (कुलकी नेसराय रहित) भिक्षा लेते हैं, कर्तव्य और अकर्तव्यके विवेकी हैं, निवासस्थान तथा कुटुम्ब परिवार आदिमें ममताके बन्धनसे बन्धे हुए नहीं हैं, भाँतिरके अभिग्रह धारण करके अनेक घरोंसे लिये जाने वाले अन्त-प्रान्त आदि आहारमें अनुरक्त रहते हैं, इन्द्रियों और मनके विकारको दमन करते हैं वे निर्दोष भिक्षा लेकर तीन योग, पाँच इन्द्रियाँ, नव प्रकारके विशुद्ध ब्रह्मचर्य और अहिंसाकी साधना करनेवाले साधु कहलाते हैं । - જે ભ્રમરાની પિઠે અનિયત (કુળની નેસરાય રહિત) ભિક્ષા લે છે, કર્તવ્ય અને અકર્તવ્યને વિવેકી છે, નિવાસસ્થાન તથા કુટુમ્બ પરિવાર આદિમાં મમતાના બંધનથી બદ્ધ થયે નથી, તરેહ-તરેહના અભિગ્રહ ધારણ કરીને અનેક ઘરેથી લીધેલા અત-પ્રાંત આદિ આહારમાં અનુરક્ત રહે છે, ઈન્દ્રિયે અને મનના વિકારે દમન કરે છે, તે નિર્દોષ ભિક્ષા લઈને ત્રણ ચેગ, પાંચ ઈન્દ્રિયે, નવ પ્રકારનું વિશુદ્ધ બ્રહાચર્ય અને અહિંસાની સાધના કરનારે સાધુ કહેવાય છે Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ श्रीदशवैकालिकसूत्रे भवन्ति तेन साधवः उच्यन्त इति, साधुविशेपणानां मधुकारसमादीनां व्याख्या तु यथापूर्वमेवेति वयमिति विभावयन्तु विद्वांसः ।। ___ मधुकरसमा असंज्ञिनोऽपि भवन्ति अतस्तद्वयवच्छेदार्थमाह 'बुद्धा' इति, मधुकरसमा बुद्धाश्च मतिमाधारिप्रभृतयः संयताऽसंयता अपि भवन्ति तद्वयात्तये 'अणिस्सिया' इति । मधुकरसाम्यं च साधूनां न सार्वदेशिकं किन्तु चन्द्रमुखादिवदैकदेशिकमेवेत्यतो यदंशे मधुकरसादृश्याभावस्तद्रोधनार्थमाह-'नाणापिंडरया दंता' इति, भ्रमरा हि मुगन्धिभ्य एव कुसुमेभ्यः स्वायमेव च रसमादत्ते न च भौरेके समान असंजी भी होते हैं अतः युद्ध (कर्तव्याकर्तव्य विवेकसे युक्त) पद दिया है। प्रतिमा (पडिमा) धारी श्रावक (संयतासंयत) भी भारेके समान और बुद्ध होते हैं इसलिए 'अणिस्सिया' पद दिया है, जैसा कि पहले कहा जा चुका है भारेका उदाहरण एकदेशीय है, कोई कहता है कि 'इसका मुख, चन्द्रमाके समान है' तो मुखमें चन्द्रमाके सय गुण नहीं पाये जाते, अर्थात् कुछ गुण सदृश होते हैं कुछ विसदृश होते ह, भौरेका उदाहरण भी कुछ अंशोमें मिलता कुछ अंशोमें नहीं मिलता है। जिस अंशमें नहीं मिलता है वह सूत्रकारने 'नाणापिंडरया' और 'दंता' विशेपणोंसे प्रगट किया है । भमर, केवल कुसुमोंके स्वादिष्ट रसको ही पीता है इसलिए यह दान्त (इन्द्रियोंकोजीतनेवाला) नहीं है, इस दृष्टान्तसे दान्तिककी विसदृशता है । શ્રમરાની પિઠે અસંસી પણ હોય છે, તેથી બુદ્ધ (કર્તવ્યાકર્તવ્ય-વિવેકથી युत) ५६ गा . प्रतिभा ( परिमा) धारी थाप४ (संयतासंयत) ५४ શ્રમરાની સમાન અને બુદ્ધ હોય છે, તેથી સવા પદ આપ્યું છે પહેલાં કહેવામાં આવ્યું છે કે ભમરાનું ઉદાહરણ એક-દેશીય છે કેઈ કહે છે કે-એનું મુખ ચંદ્રમા જેવું છે પણ મુખમાં ચંદ્રમાના બધા ગુણે હેતા નથી અર્થાત્ કોઈ ગુણ સમાન હોય છે, કંઈ અસમાન હોય છે. ભ્રમરનું ઉદાહરણું પણ કાંઈ અશોમાં મળતું છે, કાંઈ અશોમાં અણુમળતુ છે જે અંશમાં मामातुं छे ते मूत्रमारे नाणापिंडरया अने दंता विशेषणाथी १४ट यु छे જમર માત્ર કયુમેના વાદિષ્ટ રસને જ પીએ છે, તેથી એ દાન્ત (ઈન્દ્રને જીતનાર) નથી આ દેહાંતથી દાઈન્તિકની અસમાનતા છે. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन १ गा. ५ उपसंहारः १०५ दान्ता भवन्ति । 'तिवेमि' इति उक्तरूपं तत्त्वं यथा तीर्थङ्करस्य भगवतो महावीरस्य सकाशान्मया श्रुतं न तु स्वबुद्धया कल्पितं यतः स्वबुद्धया कथने श्रुतज्ञानस्याविनयो भवति, किञ्च छद्मस्थानां दृष्टयोऽप्यपूर्णा भवन्ति, तस्माद् यथाभगवस्पतिपादितमेव त्वां ब्रवीमि-उपदिशामीत्यर्थः । इहार्थे चेयं सङ्ग्रहगाथा "मुअणाणस्स अविणओ परिहरणिजो मुहाहिलासीहि । छउमत्थाणं दिट्ठी, पुण्णा णस्थिति सइयं इइणा ॥ १ ॥” इति, इति पञ्चमगाथार्थः ॥ ५॥ सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामीसे कहते हैं-हे जम्बू ! ऊपर जो प्रथम अध्ययनका भाव कहा गया है वह अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान् श्रीमहावीरसे जैसा मैंने सुना वैसाही कहा है; अपनी बुद्धिसे कल्पना किया हुआ नहीं कहा है; अपनी बुद्धिसे कल्पना करके कहनेसे श्रुतज्ञानकी आशातना होती है, और छद्मस्थोंका ज्ञान भी अधूरा होता है, इसलिए भगवानद्वारा प्रतिपादित प्रवचन ही तुझे सुनाया है । कहाभी है "सुखके अभिलाषी पुरुषोंको श्रुतज्ञानकी आशातनाका त्याग करना चाहिये । क्योंकि छद्मस्थोंकी दृष्टि पूर्ण नहीं होती। इसी अर्थको 'त्तिवेमि' शब्दसे प्रगट किया है" ॥५॥ સુધર્મ–સ્વામી જંબૂ-સ્વામીને કહે છે તે જ ખૂ! ઉપર જે પ્રથમ અધ્યયનને ભાવ કહ્યો છે તે અંતિમ તીર્થકર ભગવાન મહાવીર પાસેથી જે મે સાંભળે તે જ કહ્યો છે કે પોતાની બુદ્ધિથી કલ્પના કરેલ નથી કહ્યો. પિતાની બુદ્ધિથી કલ્પના કરી કહેવાથી શ્રુતજ્ઞાનની આશાતના થાય છે અને છાનું જ્ઞાન પણ અધૂરૂ હોય છે, તેથી ભગવાન્ દ્વારા પ્રતિપાદિત પ્રવચન જ મે તને સંભળાવ્યું છે કહ્યું પણ છે કે “સુખના અભિલાષી પુરૂષોએ શ્રુતજ્ઞાનની આશાતનાને ત્યાગ કરવો જોઈએ, કારણ કે છઘની દષ્ટિ પૂર્ણ હતી નથી. આ અર્થને રિધિ શબ્દથી પ્રકટ ध्य छ” (५) Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - १०६ श्रीदशवकालिकसूत्रे इति श्री विश्वविख्यात-जगहल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषा-कलित-ललितकलापाऽऽलापक-पविशुद्ध-गद्य-पद्य-नैकग्रन्थनिर्मापक-चादिमानमर्दक श्री शाहूछत्रपति-कोल्हापुरराज-प्रदत्त-जैनशास्त्राचार्य-पदभूपितकोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्य-श्रीघासीलालबतिविरचितायां श्रीदशवकालिकसूत्रस्याऽऽचारमणिमञ्जूपाख्यायां व्याख्यायां प्रथम द्रुमपुष्पकाख्यमध्ययनं समाप्तम् ॥१॥ -*इसप्रकार दशवैकालिक सूत्रके 'द्रुमपुष्पक' नामक पहले अध्ययनकी आचारमणिमञ्जपा नामक व्याख्याका हिन्दी भाषानुवाद समाप्त हुआ ॥ १॥ ઈતિ “મપુષ્પક” નામના પહેલા અધ્યયનનું गुसराती-पानुवाः समास (१). Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन २ गा. १ धैर्यधारणोपदेशः ॥ द्वितीयाध्ययनम् ॥ गतं प्रथममध्ययनमथ द्वितीयमारभ्यते, तत्रायमभिसम्बन्धः-पूर्वाध्ययने 'धम्मो मंगलं' इत्यादिना धर्मः प्रशंसितो यः केवलं जिनशासन एवोपलभ्यते, ततश्चोक्तरूपधर्मपरिपालनार्थस्वीकृतजिनशासनो नवदीक्षितः कदाचिद्वैर्याभावाचारित्रच्युतो न भवेदित्याशयेनास्मिन्नध्ययने 'साधुना धैर्य धार्य मिति वक्तव्यं, धैर्यधारणं च कामनिवारणमन्तरेण न संभवतीति मथमं तदेवाह-'कहं नु' इत्यादि । ૧૧ ૯ ૧૨ ૧૦ मूलम-कहं नु कुजा सामण्णं, जो कामे न निवारए । पए पए विसीअंतो, संकप्पस्स वसंगओ ॥१॥ छाया-कथं नु कुर्याच्छ्रामण्यं, यः कामान निवारयेत् । पदे पदे विषीदन् , संकल्पस्य वशं गतः ॥ १ ॥ दूसरा अध्ययन । पहले अध्ययनमें धर्मका स्वरूप और माहात्म्य कहा है वह केवल जैनशासनमें ही पाया जाता है । इसलिए पहले कहे हुए धर्मका पालन करनेके लिए जिसने जैनशासन अर्थात् चारित्रधर्म स्वीकार कर लिया हो परन्तु नवीन दीक्षित होनेसे कभी धैर्य छूट जानेके कारण वह कदाचित् चारित्रसे स्खलित न हो जाय, इस अभिप्रायसे इस अध्ययनमें 'साधुको धैर्य धारण करना चाहिए' यह कहा जायगा। लेकिन धैर्य तव ही रह सकता है जब कि कामके विकारको जीत लिया जाय । अत एव शास्त्रकार सबसे पहले इसी विषयका प्रतिपादन करते हैं'कहं नु-' इत्यादि । मध्ययन २ પહેલા અધ્યયનમાં ધર્મનું સ્વરૂપ અને માહાસ્ય કહ્યું છે. તે કેવળ જૈન શાસનમાં મળી આવે છે તેથી, પહેલાં કહેલા ધર્મનું પાલન કરવાને માટે, જેણે જેન શાસન અર્થાત્ ચારિત્ર ધર્મ સ્વીકાર્યો હોય પરંતુ નવદીક્ષિત હોવાથી કોઈવાર ધૈર્ય છૂટી જવાથી એ કદાચ ચારિત્રથી ખલિત ન થઈ જાય, તેટલા માટે આ અધ્યયનમાં “સાધુએ હૈયે ધારણ કરવું જોઈએ.” એ કહેવામાં આવશે. પરંતુ પૈર્ય ત્યારે જ રહી શકે છે કે જ્યારે કામવિકારને જીતી લેવામાં આવે તેથી શાસ્ત્રકાર સૌથી પહેલાં એ વિષયનું પ્રતિપાદન કરે છે તુ ઈત્યાદિ. 451 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १०८ श्रीदशवकालिकसूत्रे सान्वयार्थः-जो-जो कामे विषयोंको न निवारए नहीं छोडता है, वह संकप्पस्स-इच्छाओंके वसंगओवशी होकर पए पए-पद-पद पर विसीअंतो खेदित होता हुआ नु-आश्चर्य है कि वह सामण्णं श्रमणधर्मको कहं कैसे कुज्जा-कर-पाल सकता है। अर्थात-जो इन्द्रियोंके विषयोंका परित्याग नहीं करता उसकी इच्छाएँ सदैव वढती रहती हैं, उसे कभी सन्तोप नहीं होता, सन्तोप न होनेसे निरन्तर मानसिक कष्ट होता है, विषयोंकी इच्छासे उत्पन्न हुआ मानसिक कष्ट होते रहनेसे चारित्रधर्मकी आराधना नहीं हो सकती, अतः सर्व प्रथम इन्द्रियोंको वशमें करना चाहिये ॥१॥ टीका-यः, काम्यन्ते अभिलष्यन्ते माणिभिरिति कामाः शब्दादयस्तान् न निवारयेत् नापनयेत् , अत्र 'सः' इत्यध्याहार्य यत्तदोनित्यसम्बन्धादिति केचित् , वस्तुतस्तु नात्र तच्छब्दाध्याहारावश्यकता, न चाऽनध्याहारे साकाङ्क्षवदोप इत्याक्षेप्यम् , उत्तरवाक्यगतत्वेन यच्छब्दोपादाने तस्य दोपस्याऽनवकाशात् 'आत्मा जानाति यत्पाप' मित्यादिवत् । संकल्पस्य अमाप्तविषयमाप्तिरूपस्याऽभशस्तस्याऽध्यवसायस्य, वशम् अधीनतां गतस्तदधीनवर्ती भूत्वेति भावः, पदे पदेप्रतिस्थानं विपीदन् खेदमनुभवन् कथं केन प्रकारेण 'नुक्षेपे वितर्के पृच्छायां वा, श्राम्यति-तपस्यतीति श्रमणः सचित्ता-चित्त-मनोज्ञा-मनोज्ञद्रव्याधिकरणकसाम्यभाव-हाम्यादिपकविप्रमुक्ति-पंचसमितिसमितत्व-गुप्तित्रयगुप्तत्व-गुप्तब्रह्मचर्यत्व जीव, जिन इन्द्रियोंके विषयोंकी कामना (अभिलाषा) करता है उनको 'काम' कहते हैं। जो साधु, इन कामोंका त्याग नहीं करते, वे अप्राप्त विपयकी प्राप्तिरूप अशुभ अध्यवसायके अधीन होकर पद-पद पर खेदका अनुभव करते हुए क्या कभी श्रमणताको प्राप्त कर सकते हैं ? कदापि नहीं । इष्ट, अनिष्ट, सचित्त, अचित्त आदि समस्त वस्तुओं पर समताभाव रखना, हास्य आदि छह नोकपायका त्याग करना, જીવ જે ઈન્દ્રિયેના વિષયની કામના (અભિલાષા) કરે છે તેને “ કામ” કહે છે જે સાધુ, એ કામને ત્યાગ નથી કરતા, તેઓ અપ્રાપ્ત વિષયની પ્રાપ્તિરૂપ અશુભ અધ્યવસાયને અધીન થઈને ડગલે ડગલે ખેદને અનુભવ કરતાં શું કદાપિ શમણુતાને પ્રાપ્ત કરી શકે છે ? કદાપિ નહિ ઈu, અનિષ્ટ, સચિત્ત, અચિત્ત, આદિ બધી વસ્તુઓ પર સમતા-ભાવ - રાખવે, હસ્ય આદિ છએ નેકષાયને ત્યાગ કર. પાંચ સમિતિ અને ત્રણ ગુપ્તિનું Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. ९ श्रामण्याधिकारिलक्षणानि १०९ योगत्रयसाधकत्व - सदो रकमुख वस्त्रिको पशोभितमुखत्व - यतनाधर्मधरत्व- भोगामिषरिक्तत्व-करणसप्तति-चरणसप्ततिपारगत्व-निर्दोषभिक्षणशीलत्व-तीर्थङ्कराज्ञाराधकत्वस्वात्मज्ञत्व-निष्परिग्रहत्व - यात्रामात्राज्ञत्व - कूर्मवदात्मगोपकत्वा ऽल्पपिण्डाऽल्पपानाशिवाऽल्पोपधिकत्वा ऽल्पकपायत्व- निराश्रवत्व-तीर्णत्वा पापत्व-निर्ग्रन्थ-प्रवचनप्रवीणत्व-शल्यकर्तकत्व-सन्निधिरहितत्वो-रगाद्युपमितत्व पापश्रुतप्रतिषेधित्व - सुमन - पांच समिति और तीन गुप्तिका पालन करना, गुप्त-ब्रह्मचारी होना, तीन योगों को साधना, श्रुतज्ञानरूपी जलसे अन्तःकरणको शुद्ध रखना, सम्यक्त्व से युक्त रहना, संयमरूपी कवच ( बख्तर) से सदा सन्नद्ध रहना, डोरासहित मुखवत्रिकाको मुखपर बांधे हुए रहना, यतना-धर्मको धारण करना, भोगरूपी आमिषसे विरक्त रहना, करणसत्तरी और चरणसत्तरीके पारगामी होना, निर्दोषभिक्षासे ही संयमयात्राका निर्वाह करना, तीर्थङ्कर भगवानकी आज्ञाको आराधन करना, आत्मज्ञानी होना, परिग्रहका त्याग करना, यात्रा - मात्राको जानना, कछुएकी भाँति इन्द्रियोंका गोपन करना, अल्प अशन अल्प पानका ग्रहण करना, अल्प उपधि रखना, कषायको त्यागना, आस्रवरहित होना, संसाररूपी सागर से पार उतरना, पापरहित होना, निग्रंथ प्रवचन में प्रवीण होना, माया, मिथ्यात्व और निदान रूप शल्योंको काटना, सन्निधिका न रखना, उरगादिकी उपमासे युक्त होना, पापकी प्ररूपणा करनेवाले शास्त्रोंका उपदेश नहीं करना, मनको स्वच्छ रखना और अतिचाररहित चारित्रको पालना, तथा मृग जैसे सिंहसे પાલન કરવું, ગુપ્ત બ્રહ્મચારી થવું, ત્રણ યાને સાધવા, શ્રુતજ્ઞાનરૂપી જળથી અત:કરણને શુદ્ધ રાખવું, સમ્યક્ત્વથી યુક્ત રહેવું, સ યમરૂપી કવચ ( અખ્તર ) થી સદા સજ્જ રહેવું, દોરાસહિત સુખવસ્ત્રિકાને મુખ પર બાંધીને રહેવું, યતના–ધમ ને ધારણ કરવું, ભેગરૂપી આમિષથી વિરકત રહેવું, કરણ સિત્તેરી અને ચરણસિત્તેરીના પારગામી થવું, નિર્દોષ ભિક્ષાથી જ સયમયત્રાના નિર્વાહ કરવા, તીર્થંકર ભગવાનૂની આજ્ઞાનું આરાધન કરવું, આત્મજ્ઞાની થવું, પરિગ્રહના ત્યાગ કરવા, યાત્રામાત્રાને જાણવી, કાચખાની પેઠે ઇન્દ્રિયાન ગોપન કરવું, અલ્પ અશન અલ્પ પાનને ગ્રહણુ કરવાં અલ્પ ઉપધિ રાખવી, કષાયને ત્યજવા, આસ્રવરહિત થવુ, સસારરૂપી સાગરથી પાર ઊતરવું, પાપરહિત થવું, નિગ્રંથ પ્રવચનમાં પ્રવીણ થવું, માયા, મિથ્યાત્વ અને નિદાનરૂપ શલ્યાને झापवा, સન્નિધિને ન રાખવે, ઉરગાદિની ઉપમાથી યુકત થવું, પાપની પ્રરૂપણા કરનારાં શાસ્ત્રોના ઉપદેશ ન કરવા, મનને સ્વચ્છ રાખવું અને અતિચારરહિત ચારિત્રને Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे स्कत्व-निरतिचारचारित्रत्वादिगुणसम्पन्नः, तस्य भावः कर्म वा श्रामण्यं श्रमणधर्म कुर्यात् अतिपालयेत् , न हि संकल्पाधीनचित्तवृत्तितया व्याक्षिप्तस्य भावक्रियाशून्य-द्रव्य-क्रियामात्रपालनेन श्रामण्यं भवतीति गाथार्यः॥ ॥१॥ अत्रायं संग्रहः" सचित्ताचित्तदव्वेसु मणुने अमणुन्नए । रक्खए समभावं जो, समणो सो पवुचई ॥ १॥ हासं रई भयं सोगो, दुगुंडा य कसायया । एएहिं विप्पमुक्को जो, समणो सो पवुच्चई ॥२॥ पंचसमिइहिं समिओ, विगुत्तिगुत्तो य वंभयारी जो। परिसाहेइ मुजोग, सो समणो वुच्चई निच्चं ॥ ३ ॥ छाया" सचित्ताचित्तद्रव्येषु, मनोज्ञे अमनोज्ञके । रक्षति समभावं यः, श्रमणः स प्रोच्यते ॥१॥ हास्यं रतिभयं शोको, जुगुप्सा च कपायता। एतैर्विप्रमुक्तो यः, श्रमणः स प्रोच्यते ॥ २ ॥ पञ्चसमितिभिः समितः, त्रिगुप्तिगुप्तश्च ब्रह्मचारी यः । परिसाधयति सुयोगं, स श्रमण उच्यते नित्यम् ॥३॥ सर्वथा दूर भागते हैं उसी प्रकार पापकर्म जिसके पास न ठहरें वह 'श्रामण्य' (साधुपन ) कहलाता है । ऐसा श्रामण्य तय तक प्राप्त नहीं होता जब तक वह काम-भोगका त्याग न कर देवें; जिसका चित्त कामके संकल्प-विकल्पोंसे व्याकुल रहता हो उसकी क्रियाएँ भावशून्य द्रव्यक्रियाएँ हैं, केवल द्रव्यक्रियाओंका पालन करनेसे कोई श्रमण नहीं हो सकता, इस विपयमें संग्रहगाथाएँ हैं उनकाअर्थपहले आचुकाहे ॥१॥ પાળવું, તથા મૃગ જેમ સિંડથી સદા દૂર ભાગે છે તેમ પાપકર્મ જેની પાસે ન ઉભાં રહે તે “શ્રામસ્થ” (સાધુતા) કહેવાય છે. એવું થાય ત્યાં સુધી પ્રાપ્ત નથી થતું કે જ્યાં સુધી તે કામ ભેગને ત્યાગ કરે નહિ, જેનું ચિત્ત કામના સંકલ્પવિકલ્પથી વ્યાકુળ રહેતું હોય છે તેની ક્રિયાઓ ભાગ્યેશુન્ય દ્રવ્ય-ક્રિયાઓ હેય છે, કેવળ દ્રવ્ય-ક્રિયાઓનું પાલન કરવાથી કઈ શ્રમણ થઈ શકતું નથી - આ વિષયમાં સંગ્રહ ગાથાઓ છે, જેને અર્થ પહેલાં આવી ગયેલ છે (૧) Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. ९ श्रामण्याधिकारिलक्षणानि सुयनाणसुनीरेण, सुद्धो संमत्तरंजिओ । संजमवम्मसंनद्धो, समणो सो पचई ॥ ४ ॥ सदोरं मुहपत्ति जो, बंधई सययं मुहे । जयणाधम्मेण जुओ, समणो सो पचई ॥ ५ ॥ भोगामिसपरिहीणो करणे चरणे य वहए सुद्धं । अदोसभिक्खण सीलो, समणो सो बुच्चई निच्चं ॥ ६ ॥ जिणाणाए समारोहो, आयन्नो निष्परिग्गहो । जायामायनो य मुणी, समणत्ति पचई ॥ ७ ॥ कुम्मो जहा नियंगाई, सए देहम्मि गोवई । तहा गोवड़ अप्पाणं, समणत्ति पचई ॥ ८ ॥ अप्पपिडे अप्पपाणे, अप्पो वहिकसायओ । निरासवो य तिनो य, निष्पावो समणो भवे ॥ ९ ॥ निग्गंथपचयणन्नो, अनियाणो सल्लकत्तओ । भेसज्जाईण वत्थूणं, सन्निहिं वज्जए मुणी ॥ १० ॥ छाया " श्रुतज्ञानसृनीरेण, शुद्धः सम्यक्त्वरञ्जितः । संयमवर्म्मसंनद्धः, श्रमणः स प्रोच्यते ॥ ४ ॥ सदोरां मुखवत्रीं यो, वध्नाति सततं मुखे । यतनाधर्मेण युतः, श्रमणः स प्रोच्यते ॥ ५ ॥ भोगामिषपरिहीणः, करणे चरणे च वर्त्तते शुद्धम् । अदोपभिक्षणशीलः, श्रमणः स उच्यते नित्यम् ॥ ६ ॥ जिनाज्ञायां समारोहः, आत्मज्ञो निष्परिग्रहः । यात्रामात्राज्ञश्च मुनिः, श्रमण इति मोच्यते ॥ ७ ॥ कूर्मों यथा निजाङ्गानि स्वके देहे गोपयति । तथा गोपयत्यात्मानं, श्रमण इति प्रोच्यते ॥ ८ ॥ अल्पपिण्डोऽल्पपानः, अल्पोपधिकपायकः । 9 निरास्रवश्च वीर्णश्च निष्पापः श्रमणो भवेत् ॥ ९ ॥ निर्ग्रन्थप्रवचनज्ञः, अनिदानः शल्यकर्त्तकः । भैषज्यादीनां वस्तूनां संनधि वर्जयति मुनिः ॥ १० ॥ " १११ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशकालिकमूत्रे उरगाइउत्रमो पाव,-मुयाणं पडिसेहओ । मृमणो मुहचारित्तो, समणत्ति पवुच्चई ॥ ११ ॥ मिया जहेब सीहाओ, दूरं चरंति सन्चहा । तहा जओ य पावाई, समणत्ति पवुचई ॥ १२ ॥ इति । छाया" उरगाधुपमः पापश्रुतानां प्रतिषेधकः । मुमनाः शुभचारित्रः, श्रमण इति प्रोच्यते ॥ ११ ॥ मृगा यथैव सिंहाद् , दूरं चरन्ति सर्वथा । ___ तथा यतश्च पापानि, श्रमण इति प्रोच्यते ।। १२ ॥” इति छाया । पूर्व शब्दादिविषयप्रवृत्तः श्रामण्यं पालयितुं न शक्नोतीत्युक्तं, सम्पति 'द्रव्यक्रियां कुर्वाणोऽपि कलुपितचित्तत्वादश्रमण एवे 'ति दर्शयितुमाह-- यद्वा पूर्वगाथया भद्गन्यन्तेरण शब्दादिविपयविनिवृत्त एव श्रामण्यमहतीति मुचितम् , शब्दादिविषयविनिवृत्तिश्च रोगादिना कारणेनापि संभवतीत्यतस्तद्वयवच्छेदार्थ गाथान्तरमाह-'वत्थगंध-मित्यादि । ऊपर कह चुके हैं कि शन्दादि इन्द्रियविषयोंमें प्रवृत्त साधु श्रामण्य (चारित्र) का पालन नहीं कर सकता । अब द्रव्यक्रियाएँ करते हुए भी यदि साधुके चित्तमें कलपता हो तो वह वास्तवमें त्यागी नहीं है, यह कहते हैं अथवा पहली गाथामें एक विशेष प्रणालीसे यह प्रतिपादन किया है कि-शब्दादिविपयोंका त्यागी ही श्रामण्य (साधुपना) पाल सकता है, किन्तु रोग आदि कारणोंसे भी शब्दादि विषयोंको नहीं भोग सकता तो क्या उस समय वह भी त्यागी कहला सकता है? कभी नहीं कहला सकता, इसी विषयको कहते हैं-'बत्य-गंध' इत्यादि । ઉપર કહેવાઈ ગયું છે કે શબ્દ આદિ ઈન્દ્રિયવિષયમાં પ્રવૃત્ત એ સાધુ શ્રામય (ચારિત્ર)નું પાલન કરી શકતું નથી હવે દ્રવ્યક્રિયાઓ કરતાં પણ જે સાધુના ચિત્તમ કલુપતા હોય તે તે વાસ્તવમાં ત્યાગી નથી, એ કહે છે– અથવા પહેલી ગાથામાં એક વિશેષ પ્રણાલીથી એમ પ્રતિપાદન કર્યું છે કેશબ્દાદિ-વિવેને ત્યાગી જ ગ્રામgય (સાધુતા) પાળી શકે છે, કિંતુ રોગાદિ કોથી પણ શબ્દાદિ વિવેને નથી ભોગવી શકતું તે તે સમયે એ પy ત્યાગી કહેવાઈ શકે છે? નથી કહેવાતે, એ વિષય હવે કહે છે ત્યાં પંઈત્યાદિ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. २-३ त्यागिस्वरूपम् - मूलम्वत्थगंधमलंकारं, इत्थीओ सयणाणि य । अच्छंदा जे न भुंजंति, न से चाइत्ति वुच्चई ॥२॥ छाया-वस्त्रगन्धमलङ्कार, स्त्रियः शयनानि च । अच्छन्दो यो न भुङ्कते, न स त्यागीत्युच्यते ॥ २ ॥ सान्वयार्थः-जे-जो अच्छंदा-पराधीन होनेसे वत्थगंध वस्त्र गन्ध अलंकारं-आभूपण इत्थीओ-स्त्रियों य-और सयणाणि शय्या-(पलंग महल विगेरे) को न भुजंति नहीं भोगता है से वह चाइत्ति="त्यागी” ऐसा न वुच्चइ नहीं कहा जाता है। अर्थात् अपनी इच्छासे विषयोंको न भोगनेवाला त्यागी कहलाता है । जो रोग आदि किसी कारणसे पराधीन होकर विषयोंका सेवन नहीं कर सकता वह त्यागी नहीं कहलाता ॥ २ ॥ और टीका-अत्र 'अच्छंदा' 'जे' ' जति' इत्येतेषु पदेषु बहुवचनप्रयोगः सौत्रत्वात् । तथा चायमर्थः-यः अच्छन्दा रोगाधभिभूततया पराधीनो वस्त्रं च गन्धश्चानयोः समाहारः वस्त्रगन्धं, तत्र वस्त्रं प्रसिद्ध, गन्धः-चन्दनकर्पूरादिमुगन्धिद्रव्यं तत् , अलङ्कारः कुण्डलवलयादिस्तम् , स्त्यायतः शुक्रशोणिते यामु १ यत्तु 'बहुवचनोद्देशेऽप्येकवचननिर्देशो विचित्रत्वात्सूत्रगतेः' इति, यच्च 'अत्र सूत्रगतेर्विचित्रत्वादहुवचनेऽप्येकवचननिर्देशः' इति, यदपि च 'किं वहुवचनोदेशेऽप्येकवचननिर्देशः ? विचित्रत्वात्सूत्रगतेविपर्ययश्च भवत्येवेति कृत्वाऽऽह-'नासौ त्यागीत्युच्यते' इति, तदिदं त्रितयमपि व्याख्यानं सूत्रपूर्वापराऽननुसन्धानमूलकत्वादनुपादेयमेव, यतो द्वितीय-तृतीयगाथयोस्तात्पर्यपर्यालोचनायामेकवचनान्तप्रयोग एव सूत्रकृतोऽभिप्रेत इति सूचीकटाहन्यायेनापि वहुवचननान्तेष्वेवैकवचनान्तत्वकल्पनं युक्तियुक्तमिति ।। जो मनुष्य रोग आदिसे आक्रान्त होनेके कारण पराधीन है और पराधीनता (असमर्थता) के कारण वस्त्र, कस्तूरी, केशर, चन्दन, आदि गन्ध, कुण्डल, कटक आदि आभूषण, स्त्री, शय्या और'च' शब्दसे सवारी જે મનુષ્યો રેગાદિથી આક્રાન્ત હોવાને કારણે પરાધીન છે અને પરાધીનતા (असमर्थता) १२ पस, ४स्तूरी, २२, यहन माहि गंध, दुस, ४i આદિ આભૂષણ, સ્ત્રી, શય્યા. અને ર શબ્દથી સવારી, આસન આદિનું સેવન Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ श्रीदर्शनैकालिकमुत्रे ताः स्त्रियः=कामिन्यस्ताः, शय्यते येषु तानि शयनानि = पल्यङ्क-खवाचतुष्किकादीनि तानि चकारात् यानाऽऽसनादीनि, न भुङ्क्ते=न सेवते, सः, त्यागीति= त्यजति = परिमुञ्चति संसारसम्बन्धं तच्छील इति, न उच्यते = न कथ्यते इति गाथार्थः ॥ २ ॥ > कस्तर्हि त्यागी ? इति चेत्तत्राह ' जे य कंते' इत्यादि । 3 ४ ૫ २. मूलम् - जे य कंते पिए भोए, लदेवि पिट्ठिकुव्वइ । ७ ५ ८ १० ११ १२ 13 साहीणे चयई भोए, से हु चाइति वच्चई ॥ ३ ॥ छाया - यश्च कान्तान् भियान् भोगान, लब्धानपि पृष्ठीकरोति । स्वाधीनस्त्यजति भोगान, स एव त्यागी इत्युच्यते ॥ ३ ॥ सान्वयार्थः- जे य=जो लद्धेवि = प्राप्त हुए भी कंते मनोहर पिए-अभीष्ट-मनगमते भोए =भोगोंको पिट्टिकुब्बइ त्याग देता है (और) साहीणे = स्वतन्त्र होते हुए मोह=विषयोंको चयई-त्यागता है से वह हु-निश्चय करके चाहत्ति= "त्यागी" ऐसा बुचड़ = कहलाता है । अर्थात् भोगोंकी प्राप्ति होने पर भी और १- अधिकरणे ल्युट् । २- मथमान्तमिदम् । ३- द्वितीयान्तमिदम् । ४-' भुजोऽनवने ' इत्यात्मनेपदं मृत्रे तु प्राकृतत्वात्परस्मैपदम् । 3 आसन आदिका सेवन नहीं करते हैं वे त्यागी अर्थात् संसारके सम्बन्धोंका त्याग करने वाले नहीं कहला सकते हैं, क्योंकि असार समझकर ममता छोड़ना-रुचि न रखना-त्याग कहलाता है । रोग आदिसे ग्रसित ऊपर कहे हुए विषयोंकी ममता नहीं छोड़ता ( रुचि रखता ) है इसलिए वह त्यागी नहीं कहला सकता ||२|| त्यागी किसे कहते है ? इसपर सूत्रकार कहते हैं- 'जे य०' इत्यादि । કરતા નથી તેઓ ત્યાગી અર્થાત સંસારના સાધના ત્યાગ કુવાવાળા નથી કહેવાઈ શકતા કારણ કે અસાર સમજીને મમતા દેવી-રૂચિ ન રાખવી એજ ત્યાગ કહેવાય છે. ફૈગાદિથી ત્રસિત મનુષ્યા ઉપર કહેલા વિષયેાની મમતા Ùાટતા नधी, तेथा तेगो त्यागी हेवाता नथी (२) ત્યાગી કોને કહે છે ? એ વિષે સૂત્રકાર કહે છેને ચ॰ ઇત્યાદિ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. ३-४ त्यागिस्वरूपम् ११५ भोगनेकी स्वतन्त्रता रहते हुए भी जो भोगोंको नहीं भोगता वह सच्चा त्यागी है । गाथामें "वि" शब्द आया है उससे यह प्रगट होता है कि यदि किसीको अमुक समयमें मनोहर और प्रिय भोग न भी उपलब्ध हों तथापि उसकी इच्छा कदापि भोगने की न हो तो भी वह त्यागी ही है ॥ ३ ॥ " टीका- ' च ' शब्दः पूर्वगाथोक्तार्थनिवारकत्वेन 'तु' - शब्दार्थेऽवधारणार्थे वा, 'खलु' -शब्दोऽवधारणार्थे, तथा चायमर्थः- यस्तु लब्धान् = प्राप्तानपि कान्तान्= कमनीयान ( मनोहरान् ) प्रियान् = अभिलपितान् भोगान् = शब्दादीन पृष्ठीकरोति= पृष्ठशब्दस्य तत्स्थे लक्षणया अपृष्ठस्थान् पृष्ठस्थान् करोति दूरतः परिहरतीत्यर्थः, ततो विमुखीभवतीति यावत् । एवं तु रोगाद्यवस्थायामपि संभवतीत्यतः स्पष्टयति-स्वाधीनः = रोगाद्यनभिभूतचित्तः सन् भोगान् = पूर्वोक्तलक्षणान् शब्दादीन, पुनर्भोग ग्रहणं 'द्विबद्धं सुबद्धं भवती' - ति न्यायात्साकल्येन भोगत्वावच्छिन्नपरिग्रहार्थम् त्यजति=मुञ्चति, स खलु स एव त्यागीति उच्यते = कथ्यते, न तु पराधीन इति गाथार्थः ॥ ३ ॥ , उक्तविधस्यापि साधोः संयममार्गे विहरतः कदाचिद् विषयस्मरणेन प्रस्खलितचित्तता माप्रसाङ्क्षीदिति तदुपायं दर्शयति- “समाए० " इति । जो महापुरुष पूर्वपुण्यके उदय से प्राप्त हुए मनोहर और इष्ट शब्दादि विषयोंको विविध- वैराग्य - भावना भाकर त्याग देते हैं उनसे विमुख हो जाते हैं और रोग आदिसे पीडित न होने के कारण स्वाधीन (समर्थ) होते हुए भी विविध वैराग्य - भावना भाकर समस्त भोगोंको त्याग देते हैं वेही त्यागी कहलाते हैं ||३|| संयम मार्ग में विहार करते हुए त्यागी मुनिका मन, स्त्री आदिको देखने से कदाचित् विचलित (डांवाडोल) हो जाय तो उसको रोकने के लिए उपाय बतलाते हैं- 'समाए०' इत्यादि । જે મહાપુરૂષા પૂર્વાપુણ્યના ઉદયથી પ્રાપ્ત થએલા મનેહર અને ઇષ્ટ શબ્દાદિ વિષયાને વિવિધ–વૈરાગ્યભાવના ભાવીને ત્યજી દે છે તેનાથી વિમુખ ખની જાય છે, અને રાગાદિથી પીડિત ન હેાવાને કારણે સ્વાધીન ( સમ) હાવા છતાં पशु विविध-वैराग्य - —ભાવના ભાવીને બધા ભેગાને ત્યજી દે છે, તે જ ત્યાગી डेवाय छे (3) સયમ-મામાં વિહાર કરતાં ત્યાગી મુનિનું મન, શ્રી આદિને જોવાથી જો विशसित (डाभाडोज ) था लय तो तेने शेडवाने भाटे उपाय मतावे छे-'समाए ० ' छत्याहि Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीदशवकालिकमूत्रे मूलम्-समाए पहाए परिव्वयंतो, सिया मणो निस्सरई वहिद्धा । न सा महं नोवि अहंवि तीसे, इच्छेच ताओ विणहज्ज रागं ॥४॥ छाया-समया प्रेक्षया परिव्रजतः, स्यान्मनो निःसरति वहिः। न सा मम नो अपि अहमपि तस्याः , इत्येवं तस्या विनयेत रागम् ॥४॥ सान्वयार्थः-समाए सम पेहाए-भावनासे परिव्वयंतो संयममार्गमें विचरते हुए साधुका मणो मन सिया-कदाचित्-कभी वहिद्धा संयमगृहसे बाहर निस्सरई-निकल जाय तो "सावह स्वीमहं-मेरी न=नहीं है अवि-और अहंवि= मैं भी तीसे उस स्त्रीका नो नहीं हूँ" इच्चेव इस प्रकार ताओ उस स्त्रीसे राग-रागको विणइज्ज दूर करे ॥ ४॥ टीका-समया रागद्वेपपरिणतिरिक्तया स्वतुल्यया, प्रेक्षया प्रेक्षतेऽनयेति करणव्युत्पत्तिवलाद् दृष्टया, परिव्रजतः-विहरतः प्रोक्तरूपश्रामण्ये स्थितम्येत्यर्थः मनः हृदय, स्यात् कदाचित् मोहनीयकर्मप्रकृत्युदयवशाद् भुक्तभोगतया पूर्वकृतस्त्यादिस्मरणेन तदन्यथात्वे विषयसेवनवान्छया बा, बहिः संयमयोगाद्वाद्ये विपयादौ निःसरति-निर्गच्छति, अथ किं कर्तव्यं ? तदाह 'न सा' इति, सा= परिचिन्त्यमाना स्त्री न मम, अपिच अहमपि तस्याः परिचिन्त्यमानायाः रागडेपरहित-समतापूर्वक विचरते हुए श्रामण्यमें स्थित मुनिकामन स्त्री आदिको देखने पर मोहनीय कर्मके उदयसे कदाचित् पहले भोगे हुए भोगोंका स्मरण होजानेसे, अथवा विषयसेवनकी इच्छा होनेसे संयमरूपी घरसे बाहर निकल जाय तो उस समय साधुको विचारना चाहिए कि में जिसकी अभिलापा करता है, वह स्त्री न मेरी है और न રાગદ્વેષ રહિત સમતાપૂર્વક વિચતા શામધ્યમાં સ્થિત મુનિનું મન કી આદિને દેખતા મોહનીય કર્મના ઉદયથી કદાચિત પહેલાં ભોગવેલા ભેગેનું અણ થઈ જવાથી, અથવા વિષય સેવનની ઈચ્છા થવાથી સંયમપી ઘરની બહાર નીકળી વય તો તે સમયે સાધુએ વિચારવું જોઈએ કે હે જેની અભિલાષા કરું છું તે સ્ત્રી નથી મારી કે નથી હું તેને. એ વિચાર કરીને એ શ્રી પ્રત્યેના - Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन २ गा. ४ कामरागदोषानुचिन्तनम् ११७ स्त्रियाः न, इत्येवम् अनया रीत्या, तस्याः अभिलष्यमाणायाः स्त्रियास्तत्सम्बन्धिनमित्यर्थः, रागम्-दुरभिलापं, विनयेत्-दूरीकुर्यात् । वनिताविषये प्रसृतं मनस्तदीयरागसंवन्धिबहुतरदोषानुचिन्तनेन ततो निवर्तयन् मुनिः समां प्रेक्षामवलम्ब्य वनितादर्शनात् प्रागिव रागशुन्यो भवेदिति भावः । दोषानुचिन्तनं यथा-"रे चित्त ! चारित्रस्य प्राणभृतं ब्रह्मचर्य यावज्जीवनमनुपालयितुं कृतप्रतिज्ञस्य तव स्वकृतप्रतिज्ञापरित्यागोधमे कुतो न लज्जासमुद्भवः ? । यदा संसारदावदहनपरितप्तस्य तव कोऽपि लोके शरणं नाभूत् तदा यानेव विषयान् परित्यज्य जिनेन्द्रप्रतिपादितं चारित्रधर्म शिरसाऽङ्गीकृत्य त्वया मैं उसका हूँ। ऐसा विचार करके उस स्त्रीके विषयका राग-भाव दूर करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि स्त्रीके विषयमें मनकी प्रवृत्ति होनेसे चारित्रकी मलिनता आदि बहुतेरे दोष उत्पन्न होते हैं । उन दोषोंका विचार करके मुनि अपने मनको उस तरफसे हटाता हुआ समप्रेक्षाका अवलम्बन करके उसीप्रकार रागरहित होजावे जिस प्रकार स्त्रीको देखनेके पहले था। दोषोंका विचार इसप्रकार करे-रे मन ! चारित्रके प्राणोंके समान ब्रह्मचर्यको यावत्जीवन पालन करनेकी तूने प्रतिज्ञा की है। पहले की हुई प्रतिज्ञाका अब परित्याग करते तुझे लज्जा नहीं आती ? जिस समय तू संसाररूपी तीव्र दावाग्निसे संतप्त हुआ और लोकमें कोईभी तुझे न बचा सका उस समय जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित चारित्र धर्मको तूने વિષયને રાગભાવ દૂર કરવું જોઈએ. તાત્પર્ય એ છે કે સ્ત્રીના વિષય મનની પ્રવૃત્તિ થવાથી ચારિત્રની મલિનતા આદિ અનેક દેષ ઉત્પન્ન થાય છે એ દેને વિચાર કરીને મુનિ પિતાના મનને તે તરફથી પાછું હઠાવતાં સમપ્રેક્ષાનું અવલંબન કરીને એ રાગરહિત થઈ જાય કે જે તે સ્ત્રીને દેખતાં પહેલાં હતો. દેને વિચાર આ પ્રમાણે કરે-હે મન ! ચારિત્રના પ્રાણ સમાન બ્રહ્મચર્યને જીવનપર્યત પાળવાની તે પ્રતિજ્ઞા કરી છે. પહેલાં કરેલી પ્રતિજ્ઞાને હવે પરિત્યાગ કરતા તને શરમ નથી આવતી? જે સમયે તું સ સારરૂપી તીવ્ર દાવાનળથી સતત થયે અને લોકમા કેઈ પણ તને બચાવી ન શકયુ, તે સમયે જીતેન્દ્ર ભગવાને પરૂપેલા ચારિત્ર ધર્મને તેં સ્વીકાર કર્યો અને જે હેય વિષયોથી Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ श्रीदशवैकालिकसूत्रे -निरस्तः सकलः सन्तापः, किमिदानीं पुनर्वान्तावलेही श्वेव भवत्ताननुरमरद् विस्मरस्यात्मानम् ? | अरे ! विस्मृतः किं ब्रह्मचर्यमहिमा ? यत्प्रभावेणाऽल्पीयसैव कालेन लोकपूजितैरपि सुरासुरमनुजेन्द्रेः पूज्यमानमसि पुनः किं तदेव विस्मरसि ? । इदमप्यनुचिन्तय " चिरायुषः सुसंस्थाना, दृढसंहनना नराः । तेजस्विनो महावीर्या भवेयुर्ब्रह्मचर्यतः ॥ १ ॥ " इति । अपिच अनवाप्तपरमार्थतत्त्वास्वादनमुखानां संसाराभिनन्दिनां विषयामिपो-पभोगसुखकामुकानामविवेकिनामेव कामिनी कमनीया भवतु नाम, परन्तु एकस्वीकार किया और जिन हेय विषयोंसे मुख मोड़कर - सकल जंजाल छोड़ दिये उन्हीं विषयोंको वमनचाटनेवाले श्वानके समान फिर स्वीकार करना चाहता है ? ऐ: अधम मन ! अपने स्वरूपका विचार कर | अरे मन ! देख; ब्रह्मचर्यकी महिमासे ही लोकमें पूजे जानेवाले सुरेन्द्र असुरेन्द्र और नरेन्द्रोंके द्वारा तू पूज्य संमाननीय हुआ है, ऐसे अमितमहिमावाले ब्रह्मचर्यको भी तू क्यों भूल गया है ? कहा भी है "ब्रह्मचर्य से दीर्घ आयु, सुन्दर आकार, और दृढ़ संहनन प्राप्त होते हैं, ब्रह्मचर्य से ही मनुष्य, तेजस्वी और महाशक्तिशाली होते हैं" ॥१॥ हे जीव ! किंपाकफल सरीखे विषयभोग सुगन्ध, सुरूप, सुशब्द, और सुस्पर्श अविवेकी जीवोंको भलेही मनोहर लगें, पर तूतो વિમુખ થઈને બધી જ જાળને છેડી દીધી, તેજ વિષયના વમનચાટનારા શ્વાનની પેઠે ક્રીથી તુ સ્વીકાર કરવા ચાહે છે? હું અધમ મન ! તારા પેાતાના સ્વરૂપને ંતુ’વિચાર કર અરે મન ! જો; બ્રહ્મચર્યંના મહિમાથી જ, લેાકમાં પુજાતા સુરેન્દ્ર અસુરેન્દ્ર અને નરેન્દ્રોની દ્વારા તુ પૂજ્ય સમાનનીય થયા છે, એવા અપારમહિમાવાળા બ્રહ્મચર્યને પણુ તુ કેમ ભૂલી ગયે છે ? કહ્યુ પણ છે. “ બ્રહ્મચર્ચાથી દીર્ઘ આયુષ્ય, સુંદર આકાર, અને દૃઢ સહનન પ્રાપ્ત થાય છે બ્રહ્મચર્ય થી જ મનુષ્ય તેજસ્વી અને મહાશક્તિશાલી થાય છે ” (१) હે જીવ! કપાકફળ જેવા વિષયભાગ, સુંદર, સુરૂપ, સુશબ્દ અને સુર્પશ અવિવેકી જીવાને ભલે મનેહર લાગે, પરન્તુ તું તે સચમીઆમા શ્રેષ્ઠ નવા Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ अध्ययन २ गा. ४ कामरागदोषानुचिन्तनम् दीयानुरागपरिणामदारुणतां विस्मरतस्तवापि किं संयताग्रगणनीयताऽभिलाषो नोपहासाय जायेत ? । " अरे मूढ़ ! अस्याः खलु विलासकलाकलापवैदुष्यं विलोक्य लुब्धकमसारितजाले कुरङ्ग इव, मार्गवर्तिनि गर्ने तुरङ्ग इव, ज्वलति प्रदीपे पतङ्ग इव किमात्मानं निरये निपातयसि ? । अहो ! अयोमयशृङ्खलामप्यधरयति रागपाशः, यत् खलु मधुपः कठिनतरकाष्ठकृन्तनदक्षोऽपि न क्षमो भवति संकुचितकमलपुष्पानुरागनिबद्धमात्मानं परित्रातुम् । संयमियोंमें श्रेष्ठ बनना चाहता है फिर इनमें अनुराग करनेसे जो भयंकर फल उत्पन्न होते हैं उन्हें क्यों भूल जाता है ? इससे तेरी वह उच्च अभिलाषा क्या हास्यास्पद नहीं होगी ? अवश्य होगी। अरे मूढ़ ! जैसे व्याध (शिकारी) के फैलाए हुए जालमें कुरंग (हरिन) फंस जाता है; रास्तेके गड़ेमें तुरंग गिर जाता है; जलते हुए दीपककी ज्वालामें पतंग गिर पड़ता है वैसेही स्त्रीके हास विलास और हाव-भावकी चतुराई देखकर क्यों अपनी आत्माको नरकमें गिराता है ? ___ अहो ! इस रागके वन्धनके आगे लोहकी बेडीभी तुच्छ है, देखो भौरा कठिनसे कठिन काष्ठको काट डालने में कुशल होता है परन्तु सूर्यके अस्त होजाने पर संकुचित कमल पुष्पके अनुरागके बन्धनमें बंधी ઈચ્છે છે, તે પછી એમાં અનુરાગ કરવાથી જે ભયંકર ફળ ઉત્પન્ન થાય છે તેને કેમ ભૂલી જાય છે ? તેથી તારી એ ઉરચ અભિલાષા શું હાસ્યાસ્પદ નહિ થાય ? અવશ્ય થશે अरे भू ! म ०याधे (शिक्षा) सावली Mmभा २ (७२५) ફસાઈ જાય છે રસ્તામાના ખાડામાં તુરંગ (ઘેડ ) પડી જાય છે, બળતા દીવાની જવાળામા પતગ હેમાઈ જાય છે, તેમ સ્ત્રીના હાસ્યવિલાસ અને હાવભાવની ચતુરાઈ જઈને કેમ તારા આત્માને નરકમાં પાડે છે? અહે ! આ રાગના બ ધનની આગળ લેઢાની બેડી પણ તુચ્છ છે. જુઓ ! ભમરે કઠિનમાં કઠિન કાષ્ઠને કાપી નાખવામાં કુશળ હોય છે. પરંતુ સૂર્યને અસ્ત થતાંની સાથે જ બીડાયેલા કમળપુષ્પના અનુરાગના બ ધનમા -બ ધાયલે Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० श्रीदशचैकालिकसूत्रे इह वाह्यरमणीयतास्पदे, नितान्ताशुचिपदे, चपलावत्प्रतिपलच पलरूपलावण्ये, योvarat किमित्र नाम शोभनं विद्यते, यद् वालविधुलेखेव, अमृतावयवनिर्मितेव, चन्द्रमण्डलादुद्भूतेव इयं नीलकमलदलायताक्षी सहावनयनाभ्यां जीवलोकमाश्वासयन्तीव कमनीया निरीक्ष्यते । १ स्त्रीचेष्टाविशेषो हावस्तेन सहिते-सहावे ते च ते नयने च-सहावनयने ताभ्यामित्यर्थः । हुई अपनी आत्माकी रक्षा करनेमें समर्थ नहीं होता। इसलिए हे मन ! ऐसे रागमें फँसने की इच्छा क्यों कर रहा है ? ऐ जीव ! ऊपर-ऊपर से मनोहर मालूम होनेवाले, अत्यन्त अपवित्रताके स्थान, चपला (बिजली) की नाई पल-पल में चपल रूप लावण्यवाले, स्त्री शरीरमें तुझे क्या अच्छापन दिखाई देता है ? जिससे तू उसे यह समझ रहा है कि मानो वह द्वितीयाके चंद्रमाकी कला है, अमृतके अवयवोंसे बनी हुई है, चन्द्रमाको फाड़कर निकल पडी है, नीलकमलके दल (पत्ता) के समान विशाल नेत्रवाली, तथा लीलायुक्त लोचनों से लोकको अवलम्बन देनेवाली मनोहर दीख पडती है । १ सूर्य डूबने बाद, कमलके भीतर पडा हुआ भौंरा, तकलीफ सहकर सारी रात विताता है किन्तु अनुराग (प्रीति) के कारण, कमलके कोमल (मोळायम ) पत्तों को भी काटकर उस तकलीफको रफा करनेका साहस नहीं कर सकता || પેાતાના આત્માની રક્ષા કરવામા સમર્થ નથી ખનતા તે હુ भन ! भेवा રાગમાં ફસાવાની ઈચ્છા કેમ કરી રહ્યા છે ? હે જીવ ! ઉપર-ઉપરથી મનહર માલુમ પડતા, અત્યંત અપવિત્રતાનું સ્થાન વિજળીની પેઠે પલ-પલમાં ચપળ રૂપ-લાવણ્યવાળા સ્ત્રીના શરીરમાં તને કઇ સુદરતા દેખાય છે? કે જેથી તુ તેને માની રહ્યો છે કે આ ખીજના ચંદ્રમાની કલા છે અમૃતના અવયવાથી ખનેલી છે, ચદ્રમાને ફાડીને નીકળી પડી છે, નીલ કમળના દળ ( પાદડીએ)ની સમાન વિશાળ નેત્રવાળી તથા લીલાયુકત લેાચનેાથી લેકને અવલ મન આપનારી મનેાહર દેખાય છે ૧ સૂર્ય અસ્ત પામ્યા પછી કમળની અંદર ગોધાઇ ગએલે ભમરા તક્લીફ સહન કરીને આખી રાત વીતાવે છે, પરન્તુ અનુરાગ (પ્રીતિ) ને કારણે કમલની żામળ (મુલાયમ) પાંદડીઓને કાપી નાંખીને એ તકલીફ્ દૂર કરવાનુ સાહસ નથી કરી શકતે, Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. ४ कामरागदोपानुचिन्तनम् १२१ अनालोच्य प्रवर्तमानः खलु पराभूयते, तस्मादियदपि तावद् विभावय विलासिनीविलसनं कुतः स्थानादिदमुद्भवति ? किं चास्य कारणम् ? कथमिदं तिष्ठति ? किमेतस्मान्निःसरत् सततं दरीदृश्यते ? इति, विरम विरमात्रानुरागकरणात्, अस्य हि शरीरस्य सूत्रानुपहतमुद्भवस्थानम्, शुक्रशोणिते एव कारणम्, अशितपीतादिना च स्थितिः, एतस्मान्निःसरसर्ति च मलमूत्रकफादिकमेत्र, किंबहुना मृदुतममनोरमवसनविनिर्मितया मलमूत्रास्थि हे आत्मन् ! स्मरण रख, जो बिना विचारे किसी विषय में प्रवृत्ति करता है उसकी बड़ी दुर्गति होती है । तू अपना कल्याण चाहता है तो विलासिनियोंके विलासका अच्छीतरह विचार करले । यह सोच देख कि यह शरीर कहांसे उत्पन्न होता है ? इसका क्या कारण है ? कैसे ठहरता है ? और इससे क्यार घिनौने (घृणाजनक ) पदार्थ निकलते हुए दिखाई देते हैं ? बस कर, रहेनेदे; इस हारीरमें अनुराग मत कर, मलमूत्र से भरे हुए स्थानसे यह शरीर उत्पन्न हुआ है, रज- वीर्य इसके कारण हैं, खायापीया भोजन इसकी स्थितिका निमित्त है, और इसके नौ द्वारोंसे मल-मूत्र आदि घृणित पदार्थ निकला करते हैं, अधिक क्या कहें ? कोमल और मनोहर कपडेसे बंधी हुई मल-मूत्रकी मठरी में पामर प्राणी भी अनुराग नहीं करता; फिर अशुचि आदि भावनाओंका समीचीन હું આત્મન્ ! યાદ કર કે, જે વિના વિચારે કઇ વિષયમાં પ્રવૃત્તિ કરે છે તેની ભારે દુર્ગતિ થાય છે. તુ પેાતાના કલ્યાણને ચાહે છે તો વિલાસિનીએના વિલાસના સારી પેઠે વિચાર કરી લે એટલુ વિચારી જો કે આ શરીર કયાથી ઉત્પન્ન થયુ છે ? એનું શુ કારણ છે ? તે કેવી રીતે ટકે છે? અને એમાથી કેવા કેવા ગંધાતા ( ઘૃણાજનક ) પદાર્થોં નીકળતા જોવામાં આવે છે ? અસ કર, રહેવા દે, આ શરીરમા અનુરાગ ન કર, મળમૂત્રથી ભરેલા स्थानभांथी मा शरीर उत्पन्न थयुं छे, २०४ - वीर्य मेनुं अरागु छे, माघेसु - चाधेसु ભેાજન, એની સ્થિતિનું નિમિત્ત છે, અને તેનાં નવા દ્વારે વાટે મળ–મૂત્ર આદિ ધૃણિત પદાર્થોં નીકળ્યા કરે છે વધારે શુ કહીએ ? કેમળ અને મનેાહર કપડાથી આંધેલી મળમૂત્રની ગાસડીમા પામર પ્રાણી પણુ અનુરાગ નથી કરતા, તે પછી અશુચિ આદિ ભાવનાઓનુ સમીચીન ચિંતન કરવામા ચતુર મુનિએની તે Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे कफादिपोलिकया न पामरोऽपि रज्यते, का कथा पुनर्भावनाकुशलानां मुनीनाम् । उक्तञ्च-" अम्भाकुम्भशतैर्वपुर्ननु वहिर्मुग्धाः ! शुचित्वं कियत् , ____कालं लम्भयथोत्तमं परिमलं कस्तूरिकाद्यैस्तथा । विष्ठाकोष्ठकमेतदङ्गकमहो ! मध्ये तु शौचं कथ, कारं नेष्यथ सूचयिष्यथ कथङ्कारं च तत्सौरभम् ” ॥१॥ अन्यच्च-"विरम विरम संगान्मुश्च मुञ्च प्रपञ्चं, विसृज विसृज मोहं विद्धि विद्धि स्वतत्वम् । कलय कलय वृत्तं पश्य पश्य स्वरूपं, कुरु कुरु पुरुषार्थ निर्वृतानन्दहेतोः ॥ २॥ इति," चिन्तन करनेमें चतुर मुनियोंका कहना ही क्या है ? वे तो उस ओर 'आंखभी नहीं उठाते । कहा भी है___ "शरीरको सैकड़ों घड़ोंसे चाहे जितना नहलाओ धुलाओ, और केशर कस्तूरी गुलाब आदिकी सुगन्धसे सुगन्धित करो, परन्तु यह शरीर तो मल-मूत्रका भाजन है। हे भव्यो! इसे कैसे पवित्र बनाओगे? और कैसे इसकी सुगन्धि फैलाओगे" ॥१॥ ___ "हे आत्मन् ! तू स्त्री आदिकी ममतासे विरक्त हो विरक्त हो, मोहका त्यागकर त्यागकर, आत्माके स्वरूपको पहचान पहचान, और मोक्षसुखके लिए पुरुषार्थ कर पुरुषार्थ कर" ॥२॥ १ यहां प्रत्येक कर्त्तव्यको दुहरानेसे अत्यन्त तीव्र प्रेरणा प्रगट होती है। શી વાત? તેઓ તે તેની તરફ ઉચી આખે જોતા પણ નથી કહ્યું છે કે– શરીરને સેકડે ઘડા પાણીથી ચાહે તેટલું હવા, ધુઓ, અને કેશર કસ્તુરી ગુલાબ આદિની સુગધથી સુગંધિત કરે, પરંતુ આ શરીર તે મળમૂત્રનું ભાજન છે. હે ભળે! તેને કેવી રીતે પવિત્ર બનાવશે ! અને કેવી રીતે તેના (शेरम)ने सावश ? " (१) “હે આત્મન ! તું સ્ત્રી આદિની મમતાથી વિરક્ત થા વિરકત થા, મોહને ત્યાગ કર ત્યાગ કર, આત્માના સ્વરૂપને જાણ જાણ, ચારિત્રને અભ્યાસ કર અભ્યાસ કર, પિતાને પિછાણ પિછાણુ, અને મોક્ષ સુખને માટે પુરુષાર્થ કર ५३पार्थ ४२१" (२) ૧ અહી પ્રત્યેક કર્તવ્યને બેવડાવવાથી અત્યંત તીવ્ર પ્રેરણું પ્રકટ થાય છે. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन २ गा. ४ कामरागदोषानुचिन्तनम् १२३ अपरश्च-"अमेध्यपूर्ण कृमिजालसङ्घले, स्वभावदुर्गन्धविनिन्दितान्तरे । कलेवरे मूत्रपुरीषभाविते, रमन्ति मूढा विरमन्ति धीराः ॥३॥" इति । यद्यपि संसारभीरुभिः परिहेयोऽन्यसङ्गो दुस्त्यजः, तथापि ब्रह्मचर्यमहिमानमनुस्मरतां मुनीनां केवलं स्त्रीसङ्गपरिहारेण द्रव्यादिसङ्गः स्वयमेव निवर्तते । यथा स्वयम्भूरमणमहासागरमुत्तीर्णस्य पुरतः क्षुद्राकृतिर्गङ्गासमानाऽपि नदी मुखसमुत्तरणीया भवति । उक्तञ्च-भगवता उत्तराध्ययनसूत्रस्य द्वाविंशेऽध्ययने "एए य संगे समइक्कमित्ता, सहुत्तरा चेव हवंति सेसा। जहा महासागरमुत्तरित्ता, नई भवे अवि गंगासमाणा ॥ १ ॥” इति , "अशुचि पदार्थोंसे भरा हुआ; नँ आदि कीड़ोंसे व्याप्त, स्वाभाविक दुर्गन्धके कारण भीतर भी घृणित और मल-मूत्रसे वेष्टित (स्त्रियोंके) शरीरमें रमण वे करते हैं जो मूढ हैं, और बुद्धिमान् पुरुष महान् निकृष्ट समझ कर उससे अलग रहते है ॥ ३॥" ___ यद्यपि विषयोंके संग संसारभीरु पुरुषोंके लिए त्याज्य हैं और उनका त्याग होना कठिन है, तथापि ब्रह्मचर्यकी महिमाका स्मरण करनेवाले मुनियोंको एक मात्र स्त्रीसंगके त्याग देनेसे अन्य विषयोंके संग दुस्त्यज होनेपर भी स्वयमेव निवृत्त हो जाते हैं । अर्थात् ब्रह्मचर्यमें दृढ़ रहनेवालों पर कोई भी विषय, अपना प्रभाव नहीं डाल सकता । जो पुरुष स्वयम्भूरमण महासमुद्रको पार कर चुका है उसके लिए गंगा जैसी छोटी२ नदियां पार करना क्या बड़ी बात है । भगवान्ने उत्तराध्ययन અશુદ્ધ પદાર્થોથી ભરેલાં, જુ–આદિ કીડાઓથી વ્યાપ્ત, સ્વાભાવિક દુગધિને કારણે અંદર પણ ઘણિત અને મળ-મૂત્રથી વેષ્ટિત (સ્ત્રીઓના) શરી૨માં તેઓ રમણ કરે છે કે જેઓ મૂઢ છે, અને બુદ્ધિમાન પુરૂષ તે તેને અત્યંત निकृष्ट समलने तेनाथी मत। २९ छे.” (3) જે કે વિષને સગ સંસારીરૂ પુરૂષને માટે ત્યાજ્ય છે અને તેને ત્યાગ કે કઠિન છે, તે પણ બ્રહાચર્યના મહિમાનું સ્મરણ કરનારા મુનિઓને એક માત્ર સ્ત્રીસગને ત્યાગ કરવાથી, અન્ય વિષયેનો સગ દુત્યજ હોવા છતાં પણ આપોઆપ નિવૃત્ત થઈ જાય છે અર્થાત્ બ્રહ્મચર્યમાં દઢ રહેનારાઓ પર કઈ પણ વિષય પિતાને પ્રભાવ પાડી શક્તા નથી જે પુરૂષ સ્વયમૂરમણ મહાસમુદ્રને પાર કરી ચૂક્યું છે તેને માટે ગંગા જેવી નાની નાની નદી પાર કરવામાં શી મોટી વાત છે ? ભગવાને પણ ઉત્તરાધ્યયન-સૂત્રના ૩૨ માં અધ્યયનમાં Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ श्रीदशवकालिकसूत्रे कज्जल इव मलिनयति स्वच्छमम्वरमिवात्मानम् , भवति चार्गला मोक्षमार्गद्वारस्य नरकनिगोदाधनन्तदुःखानाञ्च निधानमिति सर्वथा तमपहाय पराञ्चन्ति चञ्चत्तपःसंयमाचरणचतुरास्तपस्विनः। ननु वहवो मन्त्रास्तथाविधाः सन्ति ये देवानां दानवानामुपरि प्रभावमाविभर्भावयन्ति, परन्तु किमेतदाश्चर्यम् ? यत् स्त्रीणां चरित्रे तेऽपि मन्त्रा हतप्रायाः किमपि कर्तुं न प्रभवन्ति । अथासां चरित्रस्यैतादृशप्रभावशालिता, यत्पुरतो मन्त्रा अपि पराभूय निवर्तन्ते, तर्हि क उपायस्तदुद्भावितरागरज्जुकर्तनाय संयताना-१-मिति चेत्, ___हन्त ! हृदय-सहचर ! योपित्सविधसंस्थितिपरित्याग एव तदीय-चरित्राऽऽहै उसी प्रकार आत्माको मलिन करने वाला है; मुक्तिके मार्गकी अर्गला है, नरक निगोदके दुःखोंका निधान है और विविध व्याधियोंका उत्पत्तिस्थान है, अत एव तप और संयमके पालनेमें चतुर तपस्वी लोग इस (विषय-राग) को विलकुल छोड़कर अलग होते हैं । ___जो मन्त्र, देवों और दानवों पर भी अपनाप्रभाव शीघ्रही दिखलाते हैं वे भी स्त्रीजनित राग पर प्रभाव नहीं डाल सकते । यह बड़े आश्चयकी बात है । स्त्रियोंका चरित्र इतना प्रभावशाली होता है कि उसके सामने मन्त्र भी प्रभावहीन हो जाते हैं तब उनके विषयमें उत्पन्न होनेवाले राग-रज्जूको काटनेके लिए मुनियोंको क्या उपाय करना चाहिये ? हे हृदय-सुहृद् ! स्त्रियोंके समीप रहनेका त्याग करदेना ही उनके જેમ કાજળ સફેદ વસ્ત્રને મલિન કરી નાખે છે તેમ આત્માને મલિન કરનાર છે, મુક્તિના માર્ગની અર્ગલા છે, નરક નિગોદનાં દુઃખેનું નિધાન છે, અને વિવિધ વ્યાધિઓનું ઉત્પત્તિસ્થાન છે તેથી કરીને તપ અને સંયમને પાળવામાં ચતુર એવા તપસ્વી લેકે આ (વિષયરોગ)ને બિલકુલ છોડીને તેથી દૂર જતા રહે છે જે મંત્ર, દે અને દાનવે પર પણ પિતાને પ્રભાવ તુરત બતાવી આપે છે, તે માત્ર પણ સ્ત્રી જનિત રાગ પર પ્રભાવ પાડી શકતો નથી, એ મોટા આશ્ચર્યની વાત છે સ્ત્રીઓનું ચારિત્ર એટલું પ્રભાવશાળી હોય છે કે તેની સામે મંત્ર પણ પ્રભાવહીન બની જાય છે તે તેના વિષયમાં ઉત્પન્ન થનારા રાગરજજુને કાપવા માટે મુનિઓએ ક ઉપાય કરવું જોઈએ ? હે હૃદય-સુદ ! સ્ત્રીઓની સમીપે રહેવાનું છોડી દેવુ એજ એના વિષયમાં Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. ४ कामरागदोषानुचिन्तनम् पादिवरागभङ्गोपाय इति धारणामुपैहि । उक्तञ्च — शृणु हृदय ! रहस्यं यत्प्रशस्तं मुनीनां, न खलु न खलु योषित्संनिधिः संविधेयः । हरति हि हरिणाक्षी क्षिप्रम क्षिक्षुरमैः, "" पिहितशमतनुत्रं चित्तमप्युत्तमानाम् ॥ १ ॥ शास्त्रज्ञोऽपि प्रकटविनयोऽप्यात्मवोधेऽपि गाढः, संसारेऽस्मिन् भवति विरलो भाजनं सद्गतीनाम् । येनैतस्मिन् निरयनगरद्वारमुद्घाटयन्ती, १२७ वामाक्षीणां भवति कुटिला भ्रूलता कुञ्चिकेव " ॥ २ ॥ वस्तुतस्तु इहाऽनादिसंसारे स्वस्मिन्नपि शरीरे जीवस्य किं नाम स्वातन्त्र्यम् ? विषय में होनेवाले प्रेम-पाशके काटनेका उपाय है । कहा भी है "ऐ मन ! मुनियोंकी आत्माका कल्याण करनेवाले रहस्यको सुन, वह यह है कि - स्त्रियों का सम्पर्क (संसर्ग) सर्वथा नहीं करना चाहिये, क्योंकि राम-रूप कवच पहने हुए उत्तम पुरुषोंके अन्तःकरणको भी स्त्रियां अपनी आंखेंरूपी छुरीकी धारसे छिन्न-भिन्न कर डालती हैं ॥१॥ " प्रवचन में प्रवीण, विनयवान् और गंभीर आत्मज्ञानवान् होते हुए भी कोई विरला ही व्यक्ति सद्गतिकी प्राप्ति कर पाता है। क्योंकि संसार में एक ऐसी कुंजी मौजूद है जो जल्दी नरकका द्वार खोल देती है, वह कुंजी क्या है ? स्त्रियोंकी टेढ़ी भौंह " ॥२॥ सच है - अनादि कालीन संसारमें, जीवोंको अपने शरीरमें भी ઉત્પન્ન થતા પ્રેમપાશને કાપવાના ઉપાય છે કહ્યુ છે કે હે મન ! મુનિઓના આત્માનું કલ્યાણુ કરનારા રહસ્યને શ્રવણુ કર. તે આ પ્રમાણે છે. " खीगोनो सयुर्ड ( ससर्ग ) सर्वथा न अश्वो लेहो, आर हे शम३य કવચ પહેરેલા ઉત્તમ પુરૂષોના અત:કરણને પણુ સ્ત્રીઓ પોતાની આખરૂપી છુરીની ધારથી છિન્ન-ભિન્ન કરી નાખે છે.” CC પ્રવચનમા પ્રવીણ, વિનયવાન્ અને ગંભીર પણ વિરલ વ્યકિત જ સદ્ગતિને પ્રાપ્ત કરી શકે છે. એવી કુચી મેાજુદ છે કે જે જલ્દી નરકનું દ્વાર ખાલી નાંખે છે. એ કુચી કઇ છે ? સ્ત્રીની વાંકી ભમ્મર ખરૂ છે. અનાદિકાલીન સંસારમાં, જીવા પાસે પેાતાના શરીરર્નો પણ આત્મજ્ઞાનવાન્ હોવા છતાં કારણ કે સંસારમાં એક Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ - श्रीदशवकालिकसूत्रे दृश्यते हि लोकेऽपकृष्टमनुजपशुपक्षिसरीसृपादिशरीरोपभोगमवान्छतोऽपि प्राणिनस्तत्तदङ्गयोगेन अनावृतदेशावस्थानाऽभिमताऽन्नपानाऽनवाप्तिशीतवातातपोपलपृष्टिदंशमशकादिजनिताऽनेकविधदुनिवारदुःखोपभोगः सोढव्यो भवतीति, स्वातन्ये तु न कोऽपि तत्तदङ्गमङ्गीकुर्यात् । अङ्गसंयोग इवाइवियोगेऽपि नास्ति जीवस्य स्वातन्त्र्यम् , तनुवियोगमनिच्छतामपि सुखसमन्वितानां मरणदर्शनात् , तमिच्छतां दुःखदग्धानां विषादिभक्षणेऽप्यैकान्तिकमरणादर्शनाच्च । स्वाधीनता नहीं है। अपकृष्ट-मनुष्य पशु पक्षी साँप आदिके हीन शरीरको जो प्राणी चाहते ही नहीं, उन्हें भी वह शरीर धारण करना पड़ता है, और उसके संयोगसे अनिष्ट स्थानका निवास, अन्न-पानकी अप्राप्ति, गर्मी, सर्दी, ओलोंकी वर्षा, हवा, डांस-मच्छर आदिसे होनेवाले अनेक प्रकारके दुःख भोगने पड़ते हैं। यदि ऐसे शरीरको धारण करना अपनी इच्छा पर निर्भर होता तो कोई भी प्राणी ऐसा दुखदायी शरीरको धारण न करता । जिस प्रकार शरीर धारणमें जीव स्वाधीन नहीं है उसी प्रकार उसके त्यागनेमें भी स्वाधीन नहीं है । संसारमें जो प्राणी सुखसम्पन्न हैं वे वर्तमान शरीरका त्याग नहीं करना चाहते, फिरभी उनकी मृत्यु हो जाती है। और मृत्युकी कामना करनेवाले दुःखी जीव विष आदि, भक्षण कर लेते हैं तो भी कभी-कभी बच जाते हैं, अतः सिद्ध हुआ कि अपना शरीरभी अपने अधीन नहीं है। સ્વાધીનતા નથી અપકૃષ્ટ-મનુષ્ય પશુ પક્ષી સાપ આદિનાં હીન શરીરને જે પ્રાણું ચાહતા જ નથી, તેમને પણ એ શરીર ધારણ કરવા પડે છે અને તેના સંગથી અનિષ્ટ સ્થાનને નિવાસ, અન્નપાનની અપ્રાપ્તિ, તાપ, ટાઢ, કરાને વરસાદ, હવા, ડાંસ-મરછર આદિથી ઉત્પન્ન થતાં અનેક પ્રકારનાં દુઃખો ભેગવવા પડે છે. જે એવા શરીરને ધારણ કરવાનું પિતાની ઈરછા પર જ નિર્ભર હેત તે કઈ પણ પ્રાણ એવા દુ:ખદાયી શરીરને ધારણ ન કરત. જેવી રીતે શરીર ધારણ કરવામાં જીવ સ્વાધીન નથી, તેવી રીતે તેને ત્યજવામાં પણ સ્વાધીન નથી સ સારમાં જે પ્રાણીઓ સુખસંપન્ન છે તેઓ વર્તન માન શરીરને ત્યાગ કરવા ઈચ્છતા નથી, તે પણ એમનું મૃત્યુ થઈ જાય છે. અને મૃત્યુની કામના કરનારા દુખી જીવો વિષ આદિ ભક્ષણ કરી લે છે તે પણ કઈ કઈ વાર બચી જાય છે એ ઉપરથી સિદ્ધ થયું કે આપણું શરીર પણ આપણને આધીન નથી Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. ५ कामरागदोषानुचिन्तनम् १२९ जीवस्य स्वातन्त्र्येण शरीरस्वामित्वे सति अनेकेषां कुसुम सुकुमाराणां सुन्दरावयवानां कतिपयानामतीतदेवादिशरीराणां विनाशः कथं न वारितः ? तस्माद् देहगेहादि किमपि वस्तु कस्यापि नास्ति, किन्तु अज्ञानवशाज्जीवाः 'इदं मम, इयं ममे' त्यादिस्वरूपं ममत्वं कुर्वन्तीति निश्चीयते । इत्थं च स्वकीयदेहगेहादौ ममत्वकरणमज्ञानमूलं, कर्मबन्धहेतुश्चेति विवेकिनः स्वदेहेऽपि ममत्वं न कुर्वन्ति, किं पुनरन्यदीय देहगेहादौ - इत्यनुचिन्तनेन समुत्पनया " न सा मम, नाहं तस्याः" इत्याकारया विवेकबुद्ध्या मनसि प्रसृतं रागं प्रशमयेदिति भावः ॥ अत्र गाथायां ' परिव्वयंता' इत्यत्र सौत्रत्वात्षष्ठ्यर्थे प्रथमा, ' बहिद्धा' इति प्राकृतत्वात्, यद्वा वहिर्भावतीति विग्रहे पृषोदरादित्वाद्वकारादिलोपः । इति गाथार्थः ॥ ४ ॥ यदि शरीर पर प्राणीका अधिकार होता तो फूलसे कोमल तथा सुन्दर अवयववाले अतीतकालीन देव आदिके शरीरके वियोगको क्यों न रोक लेता ? सत्य बात तो यह है कि देह गेह आदि कोई भी वस्तु किसीकी नहीं है । जीव अज्ञानके कारण 'यह मेरा है' 'यह मेरी है' इस प्रकारकी ममता करते हैं, अत एव शरीरमें ममता करना ही अज्ञानमूलक और परिग्रह होने से कर्म-बन्धका कारण है, ऐसा समझ कर विवेकी जन अपने शरीरमें भी स्नेह नहीं करते तो दूसरेकी देहमें कैसे स्नेह करेंगे ? | ऐसा सोच कर, मनमें उत्पन्न हुए भी रागादिको "न वह मेरी है" और " न मैं उसका हूँ" इस प्रकारकी भावनासे दूर कर मुनि, उस निकले हुए मनको फिरसे संयम घरमें लावे ॥४॥ જો શરીર પર પ્રાણીના અધિકાર હાત તે ફૂલથીય કામળ તથા સુંદર અવયવાવાળા અતીતકાલીન દેવાદિના શરીરના વિચેગને કેમ રોકી રાખત નહિં ? સાચી વાત એ છે કે દેહુ ગેહ આદિ કોઈ પણ વસ્તુ કાઇની નથી જીવ અજ્ઞાનને अर' मा भारो छे' मे ' मे भारी छे' थे अारनी भभता राजे छे. भेटले શરીર પર મમતા રાખવી એજ અજ્ઞાનમૂલક અને પરિગ્રહરૂપ હાવાને કારણે કર્મોખ ધનું કારણ છે. એવુ સમજીને વિવેકીજન પેાતાના શરીર પર પશુ સ્નેહ રાખતા નથી, તે પછી બીજાના દેહ પર કેમ સ્નેહ કરે? એમ વિચારીને મનમા ઉત્પન્ન થયેલા રાગાદિને, “એ મારી નથી” કે “હું તેનેા નથી” એવી ભાવનાથી દૂર કરીને, મુનિએ સયમઘરથી બહાર નીકળેલા મનને પાછુ સચમઘરમા લાવે (૪) Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे पूर्वगाथया 'रागव्यपनयः कर्त्तव्यः' इत्युक्तं, स च वाह्यक्रियामन्तरेण न सम्भवतीत्यतस्तत्प्रतिपादनार्थमाह - ' आयावयाही' इत्यादि । १३० 1 3 ४ ५ ૬ ७ मूलम् - आयावयाही चय सोगमलं, कामे कमाही कमियं खुदुक्खं । १० e ર ૧૧ 13 ૧૫ ૧૬ १४ छिंदाहि दोसं विणएज्ज रागं, एवं सुही होहिसि संपराए ॥५॥ छाया - आतापय त्यज सौकुमार्य, कामान् क्राम क्रान्तमेव दुःखम् ॥ छिन्धि द्वेषं व्यपनय रागम्, एवं सुखी भविष्यसि सम्पराये ॥ ५ ॥ सान्वयार्थ :- खीर से मोह हटाने का उपाय कहते हैं— आयावयाही शरीरको तपस्या से सूखा डालों, सोगमल्लं - सुकुमारता-अमीरीको चय= त्यागो, कामे = विपयकी इच्छाओंको कमाही = काबू में करो-रोको, ( ऐसा करनेसे ) खु=निश्चय करके दुक्खं दुःख कमियं = दूर होगा, दोसं= द्वेपको छिंदाहि छेदो नष्ट करो, राग-रागको विणएज्ज= हटाओ दूर करो; एवं= इस प्रकार करने से (तुम) संपराए - संसारमें सुही सुखी होहिसि होवोगे ॥५॥ टीका - हे शिष्य ! त्वं श्रामण्ययोगाद्वहिर्निर्गतं चित्तं प्रतिरोद्धुम् आतापय= शीतोष्णादिसहनो-त्कुटुकासनाद्यवलम्बना- ऽनशनादिदुष्करतपोविधानैस्तनुं तापय, सौकुमार्य = शरीरसुकुमारतां त्यज = परिहर, यद्वा आतापयेतिपदेन वोधितमेवार्थ पूर्व गाथा में, उत्पन्न हुए रागका परित्याग करना कहा किन्तु रागका त्याग तप आदि बाह्य क्रियाओंके बिना नहीं हो सकता। इसलिए अब उनकी प्ररूपणा करते हैं- 'आयावयाही-' इत्यादि, हे शिष्य ! तपस्या कर - आतापना ले, सुकुमारताका त्याग कर, इन्द्रियोंके विषयोंमें राग न कर, रागके त्यागसे दुःखोंका नाश होही પૂર્વ ગાથામા, ઉત્પન્ન થએલા રાગના પરિત્યાગ કરવાનું કહ્યું, કિન્તુ રાને ત્યાગ તપ આદિ બાહ્ય ક્રિયાએ વિના થઈ શકતે નથી તેટલા માટે એની પ્રરૂપણા उरे छे आयावयादी० त्याहि હે શિષ્ય ! તપસ્યા કર–આતાપના લે, સુકુમારતાનેા ત્યાગ કર, ઇન્દ્રિયાના વિષયામા રાગ ન કર, રાગના ત્યાગથી દુ.ખાનેા નાશ થઇ જ જાય છે. તુ દ્વેષને Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. ५ कामरागनिवारणोपायः १३१ विशदयति-सौकुमार्य त्यजेति शरीरसुखसाधने दत्तचित्तो मा भव, शीतवातादिपरिपहसहनयोग्यतां सम्पादयेति भावार्थः । काम्यन्त इति कामाः शब्दादिविपयास्तान् क्राम-अतिक्राम-सन्त्यजेत्यर्थः । कामातिक्रमणे सति तु दुःखं क्रान्तमेवगतमेव नष्टमेवेत्यर्थः । कामा एव हि दुःखसमुदायनिदानम् । ननु ' यथा बुभुक्षापिपासादीनामशनपानादिभिरेव नित्तिस्तद्वत्कामानामुपभोगेन भविष्यति ? जाता है । तूं द्वेषका लेश न रहने दे, और रागको छोड़ दे, तो तू संसारमें सुखी, अथवा परिषह उपसर्गोंके युद्ध में विजयी होगा। तात्पर्य हे शिष्य ! श्रामण्ययोग (संयमरूप घर) से बाहर मन निकल जाय तो शीत उष्ण आदि सह कर और उत्कुटुकासन आदिका आश्रय लेकर, तथा अनशन आदि तप करके शरीरको सुखा डाल, शरीरकी कोमलताका त्याग कर, अर्थात् अपने शरीरको शीत-आतप प्रभृति परिषह सहने योग्य बना ले, शारीरिक सुखोंकी सामग्रीमें मन न लगा। जिनकी कामना की जाती है, उन्हें काम कहते हैं, उन कामों (शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श आदि इन्द्रियविषयों) की अपेक्षा न रख । ऐसा करनेसे दुःखोंका अस्तित्व रह नहीं सकता, उनका नाश ही समझ, क्योंकी काम ही दुःखोंका कारण है। शंका-हे गुरुमहाराज ! जैसे भोजन करनेसे भूख शान्त हो जाती है, और पानी पीनेसे प्यास वुझती है, वैसेही विषयोंका सेवन करनेसे અશ પણ રહેવા ન દે. અને રાગને છેડી દે, તેથી તુ સસારમાં સુખી અથવા પરિગ્રહ ઉપસર્ગો સાથેના યુદ્ધમાં વિજયી થઈશ તાત્પર્ય એ છે કે હે શિષ્ય ! શ્રામસ્યાગ (સયમરૂપી ઘર) થી બહાર મન નીકળી જાય તે ટાઢ-તાપ આદિ પરિષહ અને ઉલ્લુટુક આસન આદિને આશ્રય લઈને, તથા અનશન આદિ તપ કરીને શરીરને સુકાવી નાંખ, શરીરની કે મળતાને ત્યાગ કર, અર્થાત્ પિતાના શરીરને ટાઢ-તાપ આદિ પરિષહ સહેવાને ગ્ય બનાવી લે. શારીરિક સુખની સામગ્રીમાં મન ન લગાડ જેની કામના કરવામાં આવે છે તેને કામ કહે છે. એ आमा (२०६, ३५, १५, २स, स्पर्श माहिन्द्रिय-विषये )नी अपेक्षा न राम એમ કરવાથી દુઃખનું અસ્તિત્વ રહી શકશે નહિ, એને નાશ જ સમજ, કેમકે કામ જ દુઃખનું કારણ છે. શકા–હે ગુરૂ મહારાજ ! જેમ ભોજન કરવાથી ભૂખ શાન્ત થઈ જાય છે અને પાણી પીવાથી તરસ છીપે છે, તેમજ વિષયનું સેવન કરવાથી વિષય Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे मैवम् , हे शिष्य ! विषयवासनैव तावत्सकलाऽनर्थमूलम् , विशेषतश्चारित्रमुच्छेदयन्ती रागद्वेषौ दृढीकुरुते । यथा विदेशं गतस्य कस्यचित् प्रेयसो जीवितस्यापि श्रुतायां मरणवार्तायां जना रुदन्ति न तथा तस्मिन्मृतेऽप्यश्रुतायां तदीयमरणप्रवृत्तौं, तस्माचेतोविकृतिरेव मुख्यतः मुखदुःखवन्धहेतुः, विषयवासनायाः समुच्छेदमन्तरेण पुनः पुनरष्टविधानां कर्मणामङ्कुरणं न शक्यते प्रतिरोद्धं, तेपां विषयवासनामूलकत्वात् । उक्तञ्चविषयसेवनकी इच्छा भी शान्त हो जायगी तो फिर आतापना आदि बाह्य तप क्यों करना चाहिए ? ___ उत्तर-हे शिष्य ! ऐसी शंका करना उचित नहीं है, क्योंकि विषयोंकी वासना (इच्छा) ही सब अनर्थोंकी जड़ है, और चारित्ररूपी वृक्षकी जड़को उखाड़नेवाली है। यह रागद्वेषको दृढ़ करती है । परदेश गया हुआ कोई इष्टमित्र जीवित हो परन्तु उसकी मृत्युका समाचार मिले तो सम्बन्धी लोग रोने लगते हैं, और यदि वह मर जाय किन्तु मरनेका समाचार न मिले तो कोई भी नहीं रोता। इससे ज्ञात होता है कि चित्तका विकार ही सुख-दुःखका मुख्य कारण है। __' इसलिए जब-तक मनसे विषयवासनाका समूल त्याग नहीं होता तब तक आठों कर्मोकी उत्पत्ति नहीं रुक सकती, क्योंकि उनका मूल, विषय-वासना है। कहा भी हैસેવનની ઇચ્છા પણ શાન્ત થઈ જાય, તે પછી આતાપના આદિ બાહ્ય તપ કરવાની શી જરૂર ? ઉત્તર-હે શિષ્ય ! એવી શકા કરવી ઉચિત નથી, કારણ કે વિષયેની વાસના (ઈરછા) જ બધા અનર્થોનું મૂળ છે. અને ચારિત્રરૂપી વૃક્ષના મૂળને ઉખાડનારી છે. તે રાગદ્વેષને દઢ કરે છે પરદેશ ગએલે કઈ ઈચ્છમિત્ર જીવને હેય પરંતુ તેના મૃત્યુના સમાચાર મળે તે સગા-સંબધીઓ રેવા લાગે છે, અને જે તે મરી જાય પણ મરવાના સમાચાર ન મળે તે કઈ પણ રેતુ નથી, એથી સમજાય છે કે ચિત્તને વિકારજ સુખદુઃખનું મુખ્ય કારણ છે એ કારણથી જ્યાસુધી મનમાંથી વિષયવાસનાને સમૂળ ત્યાગ નથી થત ત્યાસુધી આઠે કર્મોની ઉત્પત્તિને રોકી શકાતી નથી, કારણ કે તેનું મૂળ વિષયવાસના છે કહ્યું છે કે Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. ५ कामरागनिराकरणोपायः " विचारितमलं शास्त्रं, चिरमुद्राहितं मिथः सन्ध्यक्तवासनान्मौनाद्, ऋते नास्त्युत्तमं कुठे यथा पवनपथे पतत्रिणः स्वच्छन्दं विहरन्ति तथाऽनुपमाऽलौकिका मोक्षमार्ग संचारिणः संयमिनः प्रतिबन्धरहितं विहरन्ति, परन्तु जालवद्धा उत्पतनयत्नवन्तोऽपि यथा निर्बन्धविहाराय न प्रभवन्ति, तद्वद् विषयसेवनाऽऽशालक्षणविषयवासनाकलितचेतसो मुनयोऽनुपलभ्य मोक्षमार्गमप्रतिबन्धविचरणवञ्चिता भवन्तीति शिष्य ! जानीहि तावद् विषयाशां दुस्तरमहानदीसमानाम् । उक्तश्च " भले ही कोई कितने ही शास्त्रोंका मनन करले, या दूसरोंको सिखलादे, पर जब तक वासनाका परित्याग करके समिति गुप्ति - आदिरूप संयमकी आराधना नहीं कर लेता तबतक मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता" ॥१॥ जैसे- पक्षी आकाशमें स्वच्छन्द विहार करते हैं, उसीप्रकार अनुपम अलौकिक आनन्दमय मोक्षमार्गमें विहार करनेवाले संयमी भी अप्रतिबन्धविहारी होते हैं । किन्तु जिस प्रकार जाल में फँसे हुए पक्षी उडनेका यत्न करते हैं पर उड़ नहीं सकते, उसी प्रकार विषयसेवनकी आशारूप वासनासे मुनि मोक्षमार्गको न पाकर अप्रतिबन्ध विहारसे वंचित रहते हैं । हे शिष्य ! इस विषय-वासनाको ऐसी विशाल नदी समझ कि जिसका पार पाना अत्यन्त कठिन है । कहा भी है “ ભલે કોઈ ગમે તેટલાં શાસ્ત્રોનું મનન કરી લે, અથવા ખીજાઓને શીખવે, પરન્તુ જ્યાસુધી વાસનાના ત્યાગ કરીને સમિતિ-ગુપ્તિ આદિપ સંયમની આાધના કરી લેતેા નથી, ત્યાંસુધી મેક્ષ પ્રાપ્ત કરી શકતે નથી.” (૧) જેમ પક્ષી આકાશમાં સ્વચ્છન્દ વિહાર કરે છે, તેમ અનુપમ અલૌકિક આનંદમય મેક્ષમા માં વિહાર કરનારા સંચમી પણુ અપ્રતિમ ધ વિહારી ડાય છે. પરન્તુ જેવી રીતે જાળમાં ફસેલા પક્ષીએ ઉડવાના યત્ન કરે છે. પશુ ઉડી શકતાં નથી, તેવી રીતે વિષયના સેવનની આશારૂપ વાસનાથી વાસિત અંત:કરણવાળા મુનિએ મોક્ષમાર્ગને ન પામતા અપ્રતિમ ધ વિહારથી વચિત રહે છે. હે શિષ્ય ! આ વિષયવાસનાને એવી વિશાળ નદી સમજ કે જેના પાર પામવા અત્યંત કઠિન છે. કહ્યું છે કે-~~~ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - श्रीदशवैकालिकसूत्रे “ आशा नाम नदी मनोरथजला तृष्णातरङ्गाकुला, .. रागग्राहवती वितर्कविहगा धैर्यद्रुमध्वंसिनी । -- मोहाऽऽवर्तमुदुस्तराऽतिगहना प्रोत्तुङ्गचिन्तातटी, ___ तस्याः पारगता विशुद्धमनसो नन्दन्ति योगीश्वराः॥१॥” इति -- अपरं चाऽऽकर्णय "विषयाशामहापाशाद् , यो विमुक्तः सुदुस्त्यजात् । स एव कल्पते मुक्त्यै नान्यः षट्शास्त्रवेद्यपि ॥१॥” इति, हे शिष्य ! एवं विषयभोगस्पृहाऽपि महतेऽनय कल्पते, किं पुनस्तदुप___“आशा, नदीके समान है, इसमें मनोरथरूपी जल भरा हुआ है; तृष्णाको तरंगे छलांगे मार रही हैं, रागरूपी ग्राह इसमें निवास करते हैं, नानाप्रकारके सोच-विचार ही इसमें पक्षी हैं, यह नदी धीरता-रूपी वृक्षको विध्वंस करनेवाली है, चिन्तारूपी इसका तट है, इसका पार करना बहुत कठिन है, जोमुनीश्वर इस नदीको पार कर लेते हैं वे हीसुखी होते हैं।॥१॥” और सुनो- "विषयोंका आशापाशदुस्त्याज्य है । जो इस पाशसे मुक्त हो जाते हैं वेही मोक्ष-मार्गके अधिकारी होते हैं, अन्य नहीं; चाहे वह सभी शास्त्रोंके पारंगत क्यों न हो ! ॥१॥" हे शिष्य ! इसप्रकार विषय भोगनेकी इच्छा भी महान् अनर्थको उत्पन्न करती है, तो विषयों के सेवनके विषयमें तो कहना ही क्या है? આશા નદીના જેવી છે, તેમાં મનેરથરૂપી જળ ભરેલું છે તૃષ્ણના તર ગો ઉછળી રહ્યા છે, રાગરૂપી ગ્રાહ એમાં નિવાસ કરે છે, નાના પ્રકારના વિચારો તેમાં પક્ષીરૂપ છે, એ ધીરતારૂપી વૃક્ષને ધ્વસ કરવાવાળી છે. ચિન્તા એનું તટ છે એ નદીને પાર કરવી અત્યંત કઠિન છે, જે મુનીશ્વર એ નદીને પાર ४२ छे ते सुभी थाय छ,” (१) मने वजी श्रव! ४। વિષને આશાપાશ ૯ત્યાજ્ય છે જેઓ એ પાશથી મુક્ત થઈ જાય છે તેઓ જ મોક્ષમાર્ગના અધિકારી બને છે–બીજા નહિ, પછી ભલે તેઓ બધા शोना पा२ गत म न डाय ?" (१) હે શિષ્ય! એ રીતે વિષય ભોગવવાની ઈચ્છા જ મહાન અનર્થને ઉત્પન્ન કરે છે, તે વિષયના સેવનની બાબતમાં તે કહેવું શું ? બસ, તુ સમજી લે Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. ५ कामरागनिराकरणोपायः सेवनं, तदेवमाकलय तावत् सुखाशया दीपकोपगमनं पतङ्गानाम् ग्राह ग्रहण पुरस्सरं नदीतरणं मनुष्याणाम् । किञ्च बुभुक्षापिपासादि वैषम्यं विद्यते, नहि कामा उपभोगेन शाम्यन्ति प्रत्युताभ्यासत्रशाद ति मेवोपगच्छन्ति यदुक्तमन्यत्रापि - " न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवस्त्र, भूय एवाभिवर्धते || १ ||" इति, लोकेऽपि च दृश्यते यथा यथा वह्नाविन्धनानि प्रक्षिप्यन्ते तथा तथाऽसौ बस तू यही समझ ले-जैसे सुख पाने की इच्छासे पतंगोंका दीपकमें गिरना है, अथवा कोई भोला मनुष्य लकड़ी समझकर ग्राहको पकड़ लेवे और उसीका सहारा लेकर नदी पार करना चाहे तो वह कभी सफलमनोरथ नहीं होगा वरन् उसे प्राण त्यागने पड़ेंगे, इसी प्रकार 'विषय भोगने से विषयोंकी वासना मिट जायगी' यह विचारना ठीक नहीं है । भूख-प्यासका दृष्टान्त भी यहां मेल नहीं खाता, क्योंकि विषय सेवनसे काम शान्त नहीं होते, बल्कि अधिक-अधिक बढ़ते हैं। कहा भी है"कामों का सेवन करनेसे काम कदापि शान्त नहीं होते, जैसे घीके डालने से अनि शान्त नहीं होती वरन् बढ़ती ही जाती है || १|| " तथा लोकमें भी देखा जाता है कि-अग्निमें ज्यों-ज्यों इन्धन डाला जाता है, त्यों-त्यों वह अधिक प्रबल होती जाती है, वुझती नहीं है । કે—જેમ સુખ પામવાની ઇચ્છાથી પતગ દીપકમા હેમાય છે, અથવા કેઈ ભોળા માણસ લાકડું સમજીને ગ્રાહ ( મગર) ને પકડી લે અને તેને આધારે નદી પાર કરવા ઈચ્છે તેા કદાપિ તેના મનેારથ સફળ ન થાય પરન્તુ તેને પ્રાણુ ત્યજવાના જ વખત આવે, તેમ વિષય ભેગવવાથી વિષયેાની વાસના મટી જશે ” એમ વિચારવુ એ ખરાખર નથી 66 " ભૂખ-તરસનું દૃષ્ટાંત પણ અહીં અંધ બેસતું નથી, કારણુ કે કામ શાન્ત થતા નથી, પરન્તુ વધારે ને વધારે વધે છે. કહ્યુ છે સેવન કરવાથી કામ કદાપિ શાન્ત થતા નથી, જેમ ઘી નાખવાથી થતા નથી, પરંતુ વધતા જાય છે ” (૧) તેમજ જગતમાં પણ જોવામા આવે છે 3- अग्निमा प्रेम-प्रेम घिन नामवामा आवे छे, तेभ-तेभ ते वधारे प्रणण વિષય-સેવનથી કે- કામેનુ અગ્નિ શાન્ત Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे प्रावल्यमधिगच्छति । अन्यच्च दद्रुरोगपशमनाभिलापिणा यथा यथा तदीयकण्डूयनाऽऽदरः क्रियते, तथा तथा दद्गुरोगो वर्धमान एवाऽनुभूयते न तु जातु तदुपशमो लक्ष्यते कुत्राऽपि, तद्वद् विषयसेवनतो न विषयतृष्णोपशमः । । ___ अपरं चात्र वैषम्यं, तथाहि-विषयसेवनेच्छोपशमं प्रति विषयसेवनस्य, बुभुक्षाधुपशमं प्रति भोजनादेरिव कारणत्वमङ्गीकृत्य यत् तदुपादेयता त्वयोपपाधते तन्न मनोरमम्, अन्वयव्यतिरेकौ हि सर्वसंमतौ कार्यकारणभावनियामको, तत्राऽन्वयः-'तत्सत्त्वे तत्सत्तारूपः' व्यतिरेकस्तु-' तदभावे तदभावरूपः'। यथा सर्वविरतिसत्त्वे साधुत्वसत्ता, तदभावे च साधुसत्ताया अभाव इत्यन्वय-व्यतिरेकाभ्यां साधुत्वकारणं सर्वविरतिचारित्रमिति गम्यते । अथवादादको खुजलानेसे दाद रोग मिटता नहीं किन्तु बढ़ता ही जाता है। उक्त दृष्टान्तमें और भी विषमता है सो कहते है-जैसे बुभुक्षा (भूख) आदिको शान्त करने में भोजन आदि कारण हैं, इसी प्रकार विषय-सेवनकी इच्छाको शान्त करनेमें विषयोंका सेवन कारण है, ऐसा मानकर तुम विषय-सेवनको उपादेय कहते हो सो ठीक नहीं है । यह सब मानते हैं कि अन्वय-व्यतिरेकसे कार्य-कारणभावका निश्चय होता है, कारणके होने पर ही कार्यका होनाअन्वय कहलाता है, और कारणके अभावमें कार्यका न होना व्यतिरेक कहलाता है। जैसेसर्वविरतिरूप चारित्रके होने पर ही साधुता होती है और सर्वविरतिरूप चारित्रके अभावमें साधुता नहीं रहती। इस अन्वयव्यतिरेकसे ज्ञात होता है कि विरति साधुत्वका कारण है। થતું જાય છે, ઓલવાતો નથી અથવા દાદરને ખજવાળવાથી દાદર મટતી નથી પણ વધતી જાય છે ઉકત દષ્ટાંતમાં બીજી પણ વિષમતા છે તે કહે છે- જેમ ભૂખ આદિને શાન્ત કરવામાં ભેજન આદિ કારણ છે, તેમ વિષય–સેવનની ઈરછાને શાન્ત કરવામાં વિષયેનું સેવન કારણ છે, એમ માનીને તમે વિષય–સેવનને ઉપાદેય કહે છે તે બરાબર નથી. સૌ એમ તે માને છે કે–અન્વય-વ્યતિરેકથી કાર્યકારણભાવને નિશ્ચય થાય છે કારણ હોવાથી જ કાર્યનું બનવું અન્વય કહેવાય છે અને કારણના અભાવમાં કાર્યનું ન બનવું એ વ્યતિરેક કહેવાય છે, જેમ સર્વવિરતિરૂપ ચાગ્નિ હવાથી જ સાધુતા હોય છે. અને સર્વવિરતિરૂપ ચારિત્રના અભાવમાં સાધુતા રહેતી નથી. આ અન્વય-વ્યતિરેકથી સમજાય છે કે વિરતિ સાધુત્વનું કારણ છે. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ अध्ययन २ गा. ५ कामरागनिराकरणोपायः अथ च-तात्कालिकमेव बुभुक्षाधुपशमं प्रति भोजनादेरन्वयव्यतिरेकतः कारणता विद्यते, अतस्तादृशत्रुभुक्षाधुपशमनकामनयैव भोजनाधुपादीयते, अत्र तु यावज्जीवनं विषयसेवनेच्छापशमः साधुननाऽभिलापविषय इति. तादृशमशममुद्दिश्य प्रवर्त्तमानानां मुनीनां विषयसेवनं कदापि नोपादेयम् , विषयसेवनसमये हि तदीयवासना रागमनुवर्द्धयन्तीन्द्रियाणि च सवलयन्ती विविधाशुभभावनामुद्भावयति-'अयमुपभोगो न जातु नश्यतु, उत्तरोत्तरं चानुवर्द्धताम्, न चैनं प्रतिवनन्तु केऽपि विघ्नाः ' इत्यादि । एवं च विषयसेवनेन नैव तदभिलाषोपशमः प्रत्युत तद्विपरीतं प्रतिक्षणं वर्द्धमान एव तदभिलाषः पाशवद्ध जब भोजन किया जाता है तोक्षुधाकी तात्कालिक शान्ति होजाती है, विना भोजन किये नहीं होती, इसलिए अन्वय-व्यतिरेकद्वारा भोजन तात्कालिक क्षुधा-निवृत्तिके प्रति कारण होता है । इसी कारणसे क्षुधाः आदि शान्त करनेके लिए भोजन आदि किया जाता है । साधु जीवनपर्यंत विषय-सेवनकी अभिलाषाकी शान्तिकी इच्छा रखते हैं। इस शान्तिके लिए प्रवृत्ति करनेवाले मुनियोंको कदापि विषयसेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि विषयवासना, विषयसेवनके समय राग-भावकी वृद्धि करती है और इन्द्रियोंको सबल बनाकर नाना प्रकारकी दुर्भावनाएँ उत्पन्न करती है कि-'यह भोग कभी नष्ट न हो जाय, उत्तरोत्तर बढ़ता जाय, इसके भोगने में कोई विघ्न न आजावे' इत्यादि । अत एव विषयसेवन करनेसे विषयकी अभिलाषा शान्त नहीं होती, बल्कि प्रतिक्षण अधिक-अधिक बढ़ती जाती है। यहां तक कि यह विषयलालसा पुरुषको જ્યારે ભેજન કરવામાં આવે છે ત્યારે સુધાની તાત્કાલિક શાતિ થઈ જાય છે, ભજન વિના શાન્તિ થતી નથી, તેથી અન્વય-વ્યતિરેક દ્વારા ભેજન, તાત્કાલિક સુધાનિવૃત્તિને પ્રતિ કારણ બને છે. આ કારણથી ક્ષુધા આદિ શાન્ત કરવાને માટે ભેજન આદિ કરવામાં આવે છે. સાધુ જીવનપર્યત વિષય–સેવનની અભિલાષાની શાન્તિની ઈચ્છા રાખે છેઆ શાન્તિને માટે પ્રવૃત્તિ કરનારા મુનિઓએ કદાપિ વિષયસેવન કરવું ન જોઈએ, કારણ કે વિષયવાસના વિષયસેવનને સમયે રાગ–ભાવની વૃદ્ધિ કરે છે, અને ઇન્દ્રિયને સબળ બનાવીને એવી નાના પ્રકારની દુર્ભાવનાઓ ઉત્પન્ન કરે છે કે–“આ ભેગ કદાપિ નષ્ટ ન થાય, ઉત્તરોત્તર વધતું જાય, એને ભેગવવામાં કાંઈ વિઘ્ન ન . આવે” ઈત્યાદિ, એટલે વિષયસેવનથી વિષયની અભિલાષા શાન્ત થતી નથી, બલકે પ્રતિક્ષણ અધિક-અધિક વધતી જાય છે, તે એટલે સુધી કે એ વિષયલાલસા પુરૂષને કેવળ નકામે બનાવી દે છે. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ - - श्रीदशवकालिकसूत्रे मित्र पुरुषं पुरुषार्थसाधनाक्षमं कुरुते, तस्मात् कार्यकारणभावनियामकाऽन्वयव्यतिरेकाभावेन यावज्जीवनं विषयसेवनतृष्णामशमं प्रति विषयसेवनस्य कारणताऽनुपपत्त्या तादृशोपशमाऽभिलापवतां संयतानामनुपादेयत्वं सिद्धम् । इत्थं पूर्वार्द्धन वाह्यकामपरित्यागमुक्त्वा पश्चार्द्धनाऽऽभ्यन्तरकामपरित्यागमाह-'छिंदाहि०' इति, शब्दादिविपयेषु द्वषे छिन्धि-मुञ्च, तथा रागं-कामरागं व्यपनय दूरीकुरु, एवम्-एवं कृते सति, सम्पराये जन्ममरणरूपत्वेन नाशमये संसारेऽपीति भावः । यद्वा परीपहोपसर्गरूपे अंग्रामे,त्वमितिशेपः; सुखी स्वात्मिकोनन्दभाग् भविष्यसीति गाथार्थः ॥५॥ इतना निकम्मा बना देती है कि वह पुरुषार्थ-साधनमें सर्वथा असमर्थ हो जाता है, जैसे फन्देमें फंसा हुआ पुरुष कुछभी पुरुषार्थ नहीं कर सकता। इसलिए यहाँ कार्य-कारणभावका निश्चय करानेवाले अन्वयव्यतिरेकका अभाव होनेसे यावजीवन विषय-लालसाकी शान्तिके प्रति विषयसेवन कारण नहीं हो सकता । अतः यावजीवन विषयाभिलाषाकी शान्ति चाहनेवाले मुनियोंको यह उपादेय नहीं है। इस प्रकार पूर्वार्द्धमें सूत्रकार बाह्य-विषयोंका त्याग बताकर उत्तरार्द्धमें अन्तरङ्ग- विपयोंके त्यागका उपदेश देते हैं कि-हे शिष्य ! शब्दादि-विषयोंमें हेप तथा रागको दूर कर। ऐसा करनेसे तूजन्म-मरणस्वरूपवाले विनश्वर संसारमें सुखी, अथवा अनुकूल प्रतिकूल परीषह और उपसर्ग रूप संग्राममें विजयी होगा ॥५॥ અને તે પુરૂષાર્થ–સાધનમાં સર્વથા અસમર્થ બની જાય છે, કે જેવી રીતે ફદામા (હેડમાં) ફસેલે પુરૂષ કોઈ પણ પુરૂષાર્થ કરી શકતું નથી તેથી કરીને અહીં કાર્ય-કારણભાવને નિશ્ચય કરાવનારાં અન્વય-વ્યતિરેકને અભાવ હોવાથી જીવનપર્યત વિષયેલાલસાની શક્તિની પ્રતિ વિષયસેવન કારણે થઈ શકતું નથી, એટલે જીવનપર્યત વિષયાભિલાષાની શાન્તિને ચાહનારા મુનિઓને માટે એ ઉપાદેય નથી. એ પ્રકારે પૂર્વાર્ધમાં સૂત્રકાર બાહ્ય વિષયના ત્યાગ બતાવીને ઉત્તરાર્ધમાં અતરંગ વિષેના ત્યાગને ઉપદેશ આપે છે કે-હે શિષ્ય! શબ્દાદિ– વિષયમાં ઠેષ તથા રાગને દૂર કર એમ કરવાથી જન્મ-મરણુસ્વરૂપવાળા વિનશ્વર સંસારમાં સુખી, અથવા અનુકૂળ-પ્રતિફળ પરીષહ તથા ઉપસર્ગને સંગ્રામમાં વિજયી થઈશ (પ) Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. ६ स्यक्तभोगाङ्गीकरणे सर्पदृष्टान्तः १३९ - उक्तमर्थ दृष्टान्तेन स्फुटीकरोति-' पक्खंदे० ' इत्यादि, मूलम् पक्खंदे जलियं जोइं, धूमकेउं दुरासयं । नेच्छंति वतयं भोत्तुं, कुले जाया अगंधणे ॥६॥ छाया-प्रस्कन्दन्ति ज्वलितं ज्योतिष, धूमकेतुं दुरासदम् । नेच्छन्ति वान्तं भोक्तुं, कुले जाता अगन्धने ।।६।। सान्वयार्थ: अगंधणे अगन्धननामक कुले कुलमें जाया उत्पन्न हुए (सर्प) जलियं= जलती हुई धूमके-धुंआँ निकालती हुई (और) दुरासयं-असह्य-नहीं सहने योग्य (ऐसी) जोइं अग्निमें पक्खंदे प्रवेश कर जाते हैं,(किन्तु) वंतयं-उगले हुए विषको भोत्तुं भोगनेकी नेच्छंति इच्छा नहीं करते । अर्थात् अगन्धन सर्प भी त्यागे हुएको फिर ग्रहण नहीं करना चाहते ॥६॥ _____टीका-गन्धना-गन्धनभेदेन भुजगा द्विविधास्तत्र गन्धनास्ते ये मन्त्रमयोगादिवशाद्दष्टप्रदेशे वान्तं विष पुनश्शूषन्ति, तद्भिन्ना अगन्धनास्तत्कुलमगन्धनं तस्मिन् कुले जाताः समुत्पन्नाः सर्पा इति शेषः, ज्वलितं प्रदीप्तं धूमकेतुं-धूमः केतु-श्विहं यस्य तं धूमध्वजमित्यर्थः, अत एव दुरासदम्-दुःखेन आसयते-धातूनामनेकार्थत्वात् सह्यते संवेद्यते इति वाऽर्थस्तं दुष्पवेशमिति यावत् , ज्योतिषम्अग्निम् प्रस्कन्दन्ति प्रविशन्ति, किन्त्वितिशेषः, वान्तम्-उद्गीर्ण सन्त्यक्तमितियावत् इसी विषयको दृष्टान्तद्वारा स्पष्ट करते हैं- 'पक्खंदे' इत्यादि। सौप दो प्रकारके होते हैं-(१) गन्धन और (२) अगन्धन, गन्धन सर्प उन्हें कहते हैं जो मन्त्रादिके बलसे विवश होकर काटे हुए स्थानसे उगले विषको फिर चूस लेते हैं । अगन्धन इनसे विपरीत होते हैं। उस अगन्धन कुलमें उत्पन्न हुए सॉप अगन्धन सर्प कहलाते हैं। वे सर्प मा विषयने दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट ४२ छ-पक्खंदे. त्यादि સાપ બે પ્રકારના થાય છે (૧) ગંધન અને (૨) અગધન ગધન સર્પ એ કહેવાય છે કે જે મ ત્રાદિના બળથી વિવશ થઈને ડંખેલા સ્થાનમાં નાખેલું ઝેર તેમાથી પાછુ ચૂસી લે છે અધન સર્પ તેથી વિપરીત-પ્રકારને હોય છે એ અગંધન કુળમાં ઉત્પન્ન થએલે સાપ અગંધન સર્ષ કહેવાય છે એ સર્પ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! १४० श्रीदशवैकालिकसूत्रे विषमितिशेषः भोक्तुं नेच्छन्ति = नाभिलषन्ति । तिर्यञ्चः सर्पा अपि वह्निप्रवेशापेक्षया दुःसहमनुचितं च वान्ताशनमेव मन्यन्ते । तस्मात् शिष्य ! प्रवचनतत्त्वाभिज्ञेन त्वया निःसारतया परित्यक्तस्य विषयस्य पुनः स्त्रीकरणं न विधेयमिति भावः । भुर्मुरादिशान्तज्वालाग्निव्यवच्छेदार्थमाह-'जलियं' इति, अङ्गारोल्कादिव्यावृत्यर्थम् अग्नेर्वद्विप्यमाणस्त्रद्योतनार्थ चाह - 'धूमके उं' इति, । तीव्रतमत्वबोधनार्थं 'दुरासयं इति । अग्निपर्यायो ज्योतिः शब्दः पुंल्लिङ्ग: । ' जलिय ' मित्यादिविशेषणत्रयेण 'यत्रानौ प्रवेशे सद्यो भस्मसाद् भवति तादृशेऽप्यगन्धनजाः सर्पाः प्रविशन्ति किन्तु परित्यक्तविषमापातुं नैव वाञ्छन्ति, एवं सत्पुरुषा अपि परित्यकान् विषयान् मरणान्तेऽपि न पुनः सेवितुमिच्छन्तीति बोध्यते इति गाथार्थः ॥ ६ ॥ असह्य और जलती अग्निमें प्रवेश कर जाते हैं, किन्तु त्यागे हुए विषको फिर नहीं चूसते । ? हे शिष्य ! जब तिर्यञ्च सर्प भी उगले हुएको निगलना नहीं चाहते तब तू तो प्रवचन में प्रवीण है अत एव निःसार समझ कर त्यागे हुए विषयोंका सेवन तुझे तो भूलकर भी नहीं करना चाहिए । अग्नि 'ज्वलित' आदि तीन विशेषण दिये हैं, उनका अभिप्राय यह है कि जिस अग्निमें प्रवेश करतेही तत्काल भस्म हो जावे उस प्रकारकी अग्नि में भी अगन्धन कुलके सर्प प्रवेश करजाते हैं पर त्यागे हुए विषको ग्रहण नहीं करते । इसी प्रकार कुलीन पुरुषभी त्यागे हुए विषयोंको प्राण संकट में भी ग्रहण नहीं करते । अर्थात् वे दुष्कर्म करके क्षणभर भी जीना नहीं चाहते || ६ || અસહ્ય અને બળતી આગમાં પ્રવેશ કરે છે પરન્તુ એકવાર મૂકેલા ઝેરને પાછુ ચૂસી લેતે નથી હે શિષ્ય ! જ્યારે તિર્યંચ સર્પ પણ મૂકેલા ઝેરને પાછુ ગળી જવા ઈચ્છતે નથી તે તું ત્યારે પ્રવચનમા પ્રવીણુ છે, એટલે નિ.સાર સમજીને ત્યજેલા વિષયાનું સેવન તારે તે ભૂલે ચૂકયે પણ ન કરવું જોઈએ अग्निना 'ज्वलित' आदि नए विशेष જે અગ્નિમા પ્રવેશ કરતાં જ તત્કાળ ભસ્મ થઇ પશુ અગ ધન કુળને સર્પ પ્રવેશ કરે છે, પરન્તુ નથી એ પ્રમાણે કુલીન પુરૂષા પણ ત્યજેલા વિષયને કરતા નથી અર્થાત્ તેઓ દુષ્કર્મ કરીને ક્ષણ ભર પશુ मापेतां छे, तेन हेतु मे छे - જવાય એ પ્રકારના અગ્નિમાં ત્યજેલા વિષને ગ્રહણુ કરતે પ્રાણસ કટમા પણુ ગ્રહણુ જીવવા ઇચ્છતા નથી. (૬) Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. ७ रथनेमि प्रति राजीमत्युपदेशः अरिष्टनेमौ भगवति प्रव्रजिते तत्कनिष्ठभ्राता रथनेमी राजीमती चकमे, सा तु कामवासनाविरक्ता कदाचन सुवासितसरसपायसं भुक्त्वा कस्मिंश्चित्कटोरके समुद्वम्य 'भुज्यता'-मित्युक्त्वा रथनेमये दत्तवती, रथनेमिना च 'कथमिदं वान्तं क्षत्रियवंशावतंसेन मया भोक्ष्यते' इत्युक्ता सा प्रोवाच-लहिं कथमरिष्टनेमिना त्वद्भात्रा समुज्झिततया वान्ततुल्यां मामभिलष्यसि ? न च त्रपसे ' इति, ततश्च तद्वचनश्रवणसञ्जातवैराग्योऽसौ प्राब्राजीत् । . जब बाईसवें तीर्थकर भगवान् अरिष्टनेमिने दीक्षा ग्रहण कर ली तब उनके छोटे भाई रथनेमिने राजीमतीकी इच्छा की, किन्तु सतीशिरोमणि राजीमती, कामकी वासनासे विरक्त हो चुकी थी। उसने एक रोज सुगन्धित तथा स्वादिष्ट खीर खाई और एक कटोरेमें वमन करके वह रथनेमिको देने लगी और बोली-लीजिये खीर खाइए । रथनेमि यह सुनकर आगबबूले (क्रुद्ध) हो गये और बोले-'मैं क्षत्रियोंके वंशका भूषण होकर वमन की हुई खीर कैसे खाऊंगा ?' राजीमतीजी कहने लगी-'अहो श्रेष्ठक्षत्रिय ! तुम वमन की हुई खीर नहीं खाते तो, अपने बड़ेभाई श्रीअरिष्टनेमिद्वारा वमन की हुई यानी त्यागी हुई मुझको क्यों चाहते हो ? मेरी इच्छा करते तुम्हें लज्जा नहीं आती?, सती राजीमतीकी हृदयमें चुभनेवाली बात सुनतेही रथनेभिको संसारसे विरक्ति होगई । उन्होंने दीक्षा लेली । कुछ दिनोंके बाद राजीमतीने भी જ્યારે બાવીસમા તીર્થકર ભગવાન અરિષ્ટનેમિએ દીક્ષા ગ્રહણ કરી, ત્યારે તેમના નાના ભાઈ રથનેમિએ રાજી મતીની ઈરછા કરી, પરંતુ સતીશિરોમણિ રાજીમતી કામની વાસનાથી વિરકત થઈ ચૂકી હતી તેણે એક દિવસ સુગંધિત અને સ્વાદિષ્ટ ખીર ખાધી અને એક વાડકામાં તેનું વમન કરીને તે રથનેમિને मापा all मने मोदी: “क्ष्यो, भीर मामा !” २थनेभि से सामजीन डोषाવિષ્ટ થઈ ગયા અને બે “ હું ક્ષત્રિયેના વશનું ભૂષણ થઈને વમેલી ખીર કેમ ખાઈશ ?” રાજીમતી કહેવા લાગી “અહો શ્રેષ્ઠ-ક્ષત્રિય ! તમે વમેલી ખીર નથી ખાતા, તે તમારા મોટાભાઈ શ્રીઅરિષ્ટનેમિએ વમેલી એટલે ત્યજેલી એવી મને કેમ ચાહે છે ? મારા માટેની ઈચ્છા કરતાં તમને શરમ નથી આવતી ?” હૃદયને ડખે એવી સતી રામતીની વાત સાંભળતા જ રથનેમિને સ સારથી વિરકિત આવી ગઈ એમણે દીક્ષા લીધી કેટલાક દિવસ પછી રાજીમતીએ પણ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १४२ श्रीदशवकालिकसूत्रे अथैकदा गृहीतपत्रज्या सा राजीमती साध्वीभिः परिवृता रैवतकपर्वतसमवसृतं भगवन्तमरिष्टनेमि वन्दितुं व्रजन्ती मध्येमार्ग जलधरष्टचहलजलमुशलधारयाऽऽगात्रैकाकिनी काकतालीयन्यायेन तदेव गिरिकन्दरमाससाद, यत्रासौ प्रत्रजितो स्थनेमिरपि ततः पूर्वं गत्वा स्थित आसीत् , तमनवलोक्यैव 'विविक्तोऽयं प्रदेशः' इति विचार्याऽऽर्द्रवस्त्राणि प्रसारयामास । तदानीं तां यथाजातां (नग्नां) विलोक्य भग्नाऽभ्यन्तरङ्गोऽनङ्गोपहतचित्तवृत्तिनिवृत्तिपथविच्युतो रथनेमिः पुना रथनेमिवद्वान्तभावः समपद्यत । तं भूयो जातकाममालोक्य प्रकामकमनीयाकृति दीक्षा लेली । राजीमती, बहुतसी साध्वियोंके परिवारसे परिवृत होकर रैवतक पर्वतपर पधारे हुए भगवान् अरिष्टनेमिको वन्दना करने गई तव मार्गमें अचानक ही पानीकी मूसलधार वर्षा होने लगी, सारा शरीर और वस्त्र, पानीसे भीग गया । संयोगसे राजीमतीने भी उसी गुफामें प्रवेश किया जिसमें रथनेमि पहलेसे ही ठहरे हुए थे। जिस स्थानपर रथनेमि बैठे थे उधर दृष्टि न पड़नेके कारण वे दृष्टिगोचर न हुए । राजीमतीने एकान्त स्थान समझ कर भीगे कपड़े फैला दिये। राजीमतीको कपड़ेरहित देखकर रथनेमिका चित्त चलित होगया। उनके मन पर काम-विकारने आक्रमण कर लिया। वे संयम मार्गसे च्युत होगये । रथकी-नेमि (पहिये) की भाँति उनका चित्त घूमने लगा। रथनेमिको इस प्रकार कामातुर देखकर रतिसी रमणीय राजीमतीने जो દીક્ષા લીધી રાજીમતી અનેક સાધ્વીઓના પરિવારથી વિંટાઈને રૈવતક પર્વત પર પધારેલા ભગવાન અરિષ્ટનેમિને વંદન કરવા ગઈ, ત્યારે માર્ગમાં અચાનક મૂશળધાર વરસાદ વરસવા લાગ્યું. તેનું આખું શરીર અને વસ્ત્રો પાણીથી ભીંજાઈ ગયા સગવશ રાજીમતીએ એજ ગુફામાં પ્રવેશ કર્યો કે જે ગુફામાં રથનેમિ પહેલેથી આવીને રહ્યા હતા જે સ્થાન પર રથનેમિ બેઠા હતા તે સ્થળ પર દષ્ટિ ન પડવાને લીધે તે રામતીને દષ્ટિગોચર ન થયા તેથી તે એકાન્ત પ્રદેશ જાને પિતાના ભીંજાયેલા લુગડા ફેલાવી દીધા ત્યારે તે રાજીમતીને વસ્ત્રરહિત જોઈને રથનેમિનું ચિત્ત ચલિત થઈ ગયું એમના મન પર કામવિકારે આક્રમણ કર્યું તે સંયમમાર્ગથી ભ્રષ્ટ થઈ ગયા. રથની નેમિ (પૈડુ)ની પેઠે તેમનું ચિત્ત ભ્રમવા લાગ્યું. રથનેમિને એ પ્રમાણે કામાતુર જોઈને રતિ જેવી Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अध्ययन २ गा. ७ रथनेमि प्रति राजीमत्युपदेशः रसौ राजीमती पुनर्यदुक्तवती तदेव तिसृभिर्गाथाभिः सूत्रकारो ब्रूते-'धिरत्यु०' इत्यादि । मूलम-धिरत्थु ते जसोकामी, जो तं जीवियकारणा। १२ १० ११ १3 वंतं इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे ॥७॥ छाया-धिगस्तु त्वां (ते) यशःकामिन् , यस्त्वं जीवितकारणात् । वान्तमिच्छस्यापातुं, श्रेयस्ते मरणं भवेत् ॥७॥ रथनेमिके प्रति राजीमती कहती हैसान्वयार्थः-जसोकामी हे यशके अभिलाषी ते तुझे धिरत्यु-धिक्कार हो, जो-जो तं तूं जीवियकारणा असंयमजीवन सुखके लिये वंतं चमन किये -त्यागे हुएको आवे-पीना इच्छसि चाहता है, (इससे तो) ते-तेरा मरणं मरजाना सेयं अच्छा भवे है । अर्थात्-संयम धारण करके फिर असंयममें आना अत्यन्त निन्दनीय है, और उस असंयमकी अपेक्षा संयमी अवस्थामें मृत्यु होजाना अच्छा है ॥७॥ देख टीका-कामयते वाञ्छति तच्छील कामी, यशसः संयमस्य कीतर्वा कामी यशःकामी, तत्सम्बुद्धौ हे यशःकामिन् !, यद्वा अकारच्छेदाद् हे अयशःकामिन्= कुछ कहा उसे सूत्रकार तीन गाथाओंसे कहते हैं- 'धिरत्युः' इत्यादि । हे यशके अभिलाषी ? तुझे धिक्कार है, जो असंयम जीवनके सुखके लिए वमन किये हुएको खाना चाहता है,इस प्रकारके जीवनसे मर जाना ही अच्छा है। हे यश अर्थात् संयम अथवा कीर्तिकी इच्छा करनेवाले ! अथवा हे असंयम और अपयशके कामी ! तुझे धिक्कार है,तू अत्यन्त निन्दाका રમણીય રાજીમતીએ જે કાઈ કહ્યું તે વાત સૂત્રકાર ત્રણ ગાથાઓમાં કહે છે – धिरत्यु० त्या હે યશના અભિલાષી ! તને ધિક્કાર છે, જે અસંયમ જીવનના સુખને માટે વમેલાને ખાવા ઈચ્છે છે, એ પ્રકારના જીવનથી તે મરવું જ વધારે સારું છે યશ અર્થાત્ સંયમ અથવા કીર્તિની ઈચ્છા કરનારા !, અથવા હે અસ યમ અને અપયશના કામી ! તને ધિકકાર છે, તે અત્યંત નિંદાને પાત્ર છે. અથવા તે કામી ! Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ श्रीदशवैकालिकसूत्रे हे असंयमापयशोऽर्थिन् ! त्वां धिगस्तु, निन्द्योऽसि त्वमित्यर्थः 'ते' इति द्वितीयार्थे षष्ठी, यद्वा 'ते' इति षष्ठ्यन्तमेव, तत्र 'पौरुष' मित्यस्य शेषः, घिगित्यनेन सम्बन्धः, ते तव पौरुषं धिगित्यर्थः । यद्वा हे कामिन् ! ते-तव यशः=' अहो धन्योऽयं तीव्रतपःसंयमव्रतपरिपालको महात्मे 'त्येवं लोकप्रतीतां कीत्तिम् , अथवा अयशः= मां दृष्ट्वैवं दुष्टचेष्टनरूपं पापं धिगस्त्वित्यर्थः, इति वयम् , यस्त्वं जीवितकारणात्= असंयमजीवितमुखार्थमिति भावः, वान्तं-भगवता परित्यक्तत्वाद्वान्तसदृशीं माम् , यद्वा संयमसेवित्वेन परित्यक्तस्य विषयस्यैवममिलापोदयाद्वान्ततुल्यं विषयम् आपातुम् उपसर्गवशेन धात्वर्थभेदादुपभोक्तुम् इच्छसि-कामयसे, ते-तव मरणं मृत्युः श्रेयः प्रशस्यं श्रेष्ठं भवेत् , न पुनरित्थमनाचरणीयाऽऽचरणमिति गाथार्थः।७। मूलम् अहं च भोगरायस्स, तं च सि अंधगवहिणो । ૧૦ ૧૨ ૧૩ ૧૩ मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहुओ चर ॥ ८ ॥ छाया-अहं च भोगराजस्य, त्वं चासि अन्धककृष्णेः। __मा कुले गन्धनौ भूव, संयमं निभृतश्वर ॥ ८॥ सान्वयार्थः-अहंच मैं (राजीमती) भोगरायस्स-भोगकुलकी हूँ, च-और तं तुम अंधगवहिणो अंधकवृष्णिकुलके सि-हो, कुले-ऐसे उच्च कुलमें गंधणा-(दोनों) गन्धन मा नहीं होमो-होवें। (अतः ) निहुओ-निश्चल पात्र है । अथवा हे कामी !जगतमें तुम्हारी इस प्रकारकी जो कीर्ति फैली हुई है कि “यह रथनेमि मुनि, अत्यन्त उत्कृष्ट संयमका पालन करनेवाला महात्मा है" इस कत्तिको धिक्कार है, क्योंकि तुम असंयम रूप जीवितके लिए, भगवान् अरिष्टनेमिके द्वारा त्यागी हुई मुझको, अथवा संयम पालनके लिए त्यागेहुए विषयोंको फिर चाहते हो, तुम्हें मर जाना अच्छा है किन्तु असंयमकी वांछा करना अच्छा नहीं है ॥७॥ જગતમા તારી એ પ્રકારની જે કીર્તિ ફેલાઈ છે કે “આ રથનેમિ મુનિ અત્યંત ઉત્કૃષ્ટ સયમનું પાલન કરનારા મહાત્મા છે,” એ કીર્તિને ધિક્કાર છે, કેમ કે તમે અસયમરૂપ જીવિતને માટે, ભગવાન અરિષ્ટનેમિએ ત્યજેલી એવી મને, અથવા સયમપાલનને માટે ત્યજેલા વિષયેને પાછા ચાહે છે તમારે મારી જવું જ સારું છે, પરંતુ અસ યમની વાંછના કરવી સારી નથી (૭) Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन २ गाः ८-९ रथनेमि प्रति राजीमत्युपदेशः १४५ होकर संजमं संयमको चर=पालो । भावार्थ-राजीमती स्थनेमिसे कहती है कि इम दोनों उच्च कुलोंमें उत्पन्न हुए हैं, अतः उगले हुए विषको वापिस पीजानेवाले गन्धन सापोंके समान हमको नीच न होना चाहिए ॥ ८॥ टीका-'अहं च' इत्यादि । चद्वयं समुच्चयार्थम् , हे रथनेमे ! अहं-राजीमती भोगराजस्य-तन्नन्ना प्रसिद्धस्य अस्मीतिशेषः, अहं भोगराजस्य पौत्रीति भावः । त्वं च अन्धककृष्णेः तन्नाम्ना प्रसिद्धस्य असि, अन्धकवृष्णिपौत्रोऽसीत्यर्थः। ततः किं ? तदाह-कुले वंशेऽर्थानिष्कलङ्के गन्धनौ आन्धनकुलसम्भूतसर्पसदृशौ, 'आवा' मिति गम्यते; माभूव नभवेव, तस्मात् निभृतः-निश्चलो विषयादिभिरक्षोभ्यः सन् संयमम् अनश्वरमुखसाधनभूतं निरवद्यक्रियाऽनुष्ठानं चर-पालय। इति गाथार्थ:८ मूलम्-जइ त काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारिओ। वायाविद्ध व्व हडो, अहिअप्पा भविस्ससि ॥९॥ 12 छाया-यदि त्वं करिष्यसि भावं, या या द्रक्ष्यसि नारीः । वाताविद्ध इव हडो,ऽस्थितात्मा भविष्यसि ॥ ९ ॥ सान्वयार्थः-जइ-यदि तं-तुम जा जा-जो-जो नारिओ-स्त्रीको दिच्छसि-देखोगे (उन-उनपर) भावं-बुरे विचार काहिसि-करोगे तो वायाविद्धब्ध= "अहं च' इत्यादि । हे रथनेमि ! मैं (राजीमती) भोगराजकी पोती और उग्रसेनकी बेटी हूँ, और तुम अन्धकवृष्णिके पौत्र तथा समुद्रविजयके पुत्र हो, इसलिए दोनोंही निर्मल कुलोंमें उत्पन्न हुए हैं। हमें गन्धन कुलमें उत्पन्न होने वाले सोके समान नहीं होना चाहिये । अतः विषय आदिको त्याग करके अनन्त सुखके कारणभूत निरतिचार संयमका पालन करो ॥८॥ अहं च त्यादि. 3 २थनेमि! हु (भती) लोनी पौत्री भने ઉગ્રસેનની પુત્રી છું, અને તમે અ ધકવૃષ્ણિના પૌત્ર તથા સમુદ્રવિજયના પુત્ર છે, એ રીતે આપણે બેઉ નિર્મળ કુલેમાં ઉત્પન્ન થયા છીએ આપણે ગધન કુળમાં ઉત્પન્ન થએલા સર્પોને જેવા ન થવું જોઇએ માટે વિષય આદિને ત્યજીને અનત સુખના કારણભૂત નિરતિચાર સયમનું પાલન કરે (૮) Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे हवासे उडाये हुए हडो-हडवनस्पतिकी भांति अहिअप्पा-अस्थिर आत्मावालेचंचलचित्त भविस्ससि हो जाओगे ॥९॥ टीका-'जइ तं०' इत्यादि । त्वं या या नारी स्त्रीः द्रक्ष्यसि अवलोकिष्यसे यत्तदोनित्यसम्बन्धात् 'तानु ताम' यदि भावं-कलुपिताध्यवसायतया दुष्टां दृष्टिं करिष्यसि तदा वाताविद्धा बातेन वायुना आविद्धा प्रेरितः हडःनिर्मूलो वनस्पतिविशेष इव, शैवालमिव वा अस्थितात्मा अस्थितः अस्थिरः आत्मा यस्य स तथोक्तो भविष्यसि, जन्म-जरा-मरणजन्य-जगदटवीपर्यटनदुःखपरम्परानिराकरणकारणेभ्यः संयमगुणेभ्यः प्रस्खल्याऽपारसंसारपारावारे विषयवासनावातविकम्पितचेताः शान्ति न गमिष्यसीति भावः, इति गाथार्थः ॥९॥ एवं राजीमत्या प्रतिवोधितो रथनेमिधर्मनिष्ठोऽभवदित्याह-'तीसे सो इत्यादि । मूलम्-तीसे सो वयणं सोचा, संजयाइ सुभासियं । ૧૦ ૯ ૧૧ अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपडिवाइओ ॥१०॥ ___ 'जइ तं' इत्यादि । यदि तुम जिस जिस स्त्रीको देखोगे उन ‘सव पर विकारदृष्टि डालोगे तो आंधीसे उड़ाये हुए हड वनस्पति अथवा सेवालकी तरह अस्थिर हो जाओगे; अर्थात् जन्म-मरणसे होनेवाले जगतरूपी अटवीमें भ्रमण करनेके कष्टोंको दूर करनेवाले संयमगुणोंसे च्युत होनेके कारण संसाररूप अपार समुद्रमें विषयवासनारूपी हवासे चंचलचित्त होकर भटकते फिरोगे ॥९॥ राजीमतीजीके द्वारा प्रतिबोध पाकर रथनेमि संयममें स्थिर होगया। इसी विषयको सूत्रकार प्रतिपादन करते हैं- 'तीसे०' इत्यादि । બરૂ તંત્ર ઈત્યાદિ, જે તમે જે જે સ્ત્રીઓને જોશે તે બધી પર વિકારદષ્ટિ નાખશે તે આધીથી ઉડેલી હડ વનસ્પતિ અથવા શેવાલની પેઠે અસ્થિર થઈ જશે, અર્થાત જન્મ-મરણથી ઉત્પન્ન થતા જગતરૂપી અટવીમા ભ્રમણ કરવાના કષ્ટને દૂર કરનારા સ યમગુણોથી ભ્રષ્ટ થવાને લીધે સ સારરૂપ અપાર સમુદ્રમાં વિષયવાસનારૂપી હવાથી ચ ચળ ચિત્તવાળા થઈને ભ્રમણ કરતા ફરશે (૯) રાજીમતીથી એવો પ્રતિબંધ પામીને રથનેમિ સ યમમાં સ્થિર થઈ ગયા मे विषयन प्रतिपान सूत्रा२ ४२ छे-तीसे० त्याह Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. १० रथ मेधर्मे संस्थितिः छाया - तस्याः स वचनं श्रुत्वा, संयतायाः सुभाषितम् । अंकुशेन यथा नागो, धर्मे सम्प्रतिपातितः ॥ १० ॥ १४७ सान्वयार्थ :- सो= वह (रथनेमि ) तीसे उस संजयाइ - संयमवती ( राजी - मती) के सुभासियं = मुभाषित वयणं वचनको सोचा = सुनकर धम्मे= धर्म में संपडिवाइओ = आगया - प्राप्त होगया, जहा- जैसे अंकुसेण = अंकुश से नागो = हाथी मार्गमें आ जाता है ॥ १० ॥ टीका - सः = रथनेमिः, संयतायाः = संयमवत्याः तस्याः = राजीमत्याः सुभाषितमितिं वैराग्यसारगर्भितत्वात् वचनं = सदुपदेशं, श्रुत्वा = समाकर्ण्य ' स्थितः' इति शेषः अन्यथा ‘सम्प्रतिपातितः' इत्यनेन समानकर्तृकत्वाऽभावात् क्त्वाप्रत्ययोत्पतिरसङ्गता स्यात्, यद्वा 'सम्प्रतिपातित ' इत्यस्य णिजर्थाविवक्षया 'सम्प्रतिपन्नः' इत्यर्थः कर्त्तव्यः । अङ्कुशेन = इस्तिचालनार्थ - लौहमयवक्राग्रास्त्रेण नागो यथा=दस्तीव, धर्मे= जिनोक्तमवचनरूपे, सम्प्रतिपातितः - संस्थापितः संस्थित इति वा, यथाऽङ्कुशेन प्रशमितमदो मतङ्गजोऽनुकूलं मार्गमवलम्बते तथा राजीमतीवचन दूरीकृतमदनमदो रथनेमिरपि जिनोक्तधर्ममार्गमवलम्बितवानिति भावः ॥ १० ॥ जैसे अंकुशसे हाथी ठीक मार्ग पर आजाता है वैसे ही रथनेमि संयमवती राजीमतीके वैराग्य- परिपूर्ण वचन ( सदुपदेश ) सुनकर जिनेन्द्र भगवानके प्रवचन - रूप धर्म मार्गमें स्थित हो गये, अर्थात् जैसे महावतके अंकुशसे मदोन्मत्त हाथीका मद चकनाचूर हो जाता है और वह सन्मार्ग पर आजाता है, उसी प्रकार राजीमती रूपी महावतके वचन-रूपी अंकुशसे रथनेमि-रूपी हाथीका विषयवासना रूपी मद दूर होगया और वे जिनोक्त धर्ममार्ग में प्रवृत्त होगये ॥ १० ॥ જેમ અ કુશથી હાથી ખરાખર માર્ગ પર આવી જાય છે, તેમજ રથનેમિ સયમવતી રાજીમતીના વૈરાગ્યપૂર્ણ વચન (સદુપદેશ) સાંભળીને જિનેન્દ્ર ભગવાના પ્રવચનરૂપ ધ`મામા સ્થિર ખની ગયા અર્થાત્ જેમ મહાવતના અકુશથી મદેન્મત્ત હાથીને! મદ ચૂણું થઇ જાય છે, અને તે રાહ પર આવી જાય છે, તેમ રાજીમતીરૂપી મહાવતનાં વચનરૂપી અકુશથી રથનેમિરૂપી હાથીને વિષયવાસનારૂપી મદ દૂર થઇ ગયા અને તે જિનેાકત ધ`મામાં પ્રવૃત્ત થઈ गया (१०) Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ श्रीदशवैकालिकसूत्रे सम्प्रत्युपसंहरन्नाह-' एवं करंति०' इत्यादि । ४ ૫ २ मूलम् - एवं करंति संबुद्धा, पंडिया पवियक्खणा ॥ ७ ५ १० विणियद्वंति भोगेसु, जहा से पुरिसुत्तमो ॥११॥ तिबेमि ॥ छाया - एवं कुर्वन्ति सम्बुद्धाः पण्डिताः प्रविचक्षणाः ॥ विनिवर्त्तन्ते भोगेभ्यो, यथा स पुरुषोत्तमः ॥ ११ ॥ इति ब्रवीमि ॥ सान्वयार्थः - संबुद्धा = सत् असत् के विवेकी पंडिया = विषयदोपोंके ज्ञाता पविक्खणा = आगमके मर्मज्ञ पुरुष एवं ऐसा ही करंति करते हैं, (वे) भोगेसु = भोगोंसे विणियति निवृत्त होजाते हैं; जहा= जैसे से वह पुरिसुत्तमो = पुरुपोंमें श्रेष्ठ (रथनेमि विषयोंसे निवृत्त हो गया) तिवेमि = ( पूर्ववत् ) । भावार्थजो विवेकी होते हैं वे विषयोंके दोषोंको जानकर उनका परित्याग कर देते हैं, जैसे रथनेमिने परित्याग कर दिया था ॥ ११॥ ॥ इति द्वितीयाध्ययनस्य सान्वयार्थः ॥ २ ॥ टीका - सम्= सम्यग् बुद्धाः = बोधं प्राप्ताः हेयोपादेयज्ञानसम्पन्ना इत्यर्थः, सम्बुत्वमेव विशेषयति- 'पण्डिताः प्रविचक्षणाः' इति विशेषणाभ्याम् । तत्र पण्डिताः= विषयप्रवृत्तिदोपज्ञाः, पविचक्षणाः = विचक्षणश्रेष्ठाः आगममर्मवेदिनः प्राप्तचरणपरिणामा वेत्यर्थः एवं = तथा कुर्वन्ति = समाचरन्ति । किं समाचरन्तीत्याद'विणियति भोगे' इति, भोगेभ्यः = विषयेभ्यः विनिवर्त्तन्ते = उपरता भवन्ति, यथा सः = रथनेमिः, पुरुषोत्तमः पुरुषेषु श्रेष्ठः । उपसंहार - ' एवं करंति०' इत्यादि । हेय और उपादेय वस्तुओंको सम्यक् प्रकार समझनेवाले संबुद्ध, विषयोंमें प्रवृत्तिके दोषोंके ज्ञाता, आगमके रहस्यको जाननेवाले अथवा चारित्रके फलको प्राप्त करनेवाले प्रविचक्षण मुनिजन ऐसे ही करते हैं, उस डार - एवं करंति० ४त्याहि. હેય અને ઉપાદેય વસ્તુઆને સમ્યક્ પ્રકારે સમજનારા સ બુદ્ધ, વિષયેામા પ્રવૃત્તિના દોષાના જ્ઞાતા, આગમના રહસ્યને જાણનારા અથવા ચારિત્રના ફળને પ્રાપ્ત કરનારા પ્રવિચક્ષણુ મુનિજને એમ જ કરે છે, અર્થાત ભેગેાથી નિવૃત્ત Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. ११ रथनेमेः पुरुषोत्तमत्वसिद्धिः १४९ ननु कथमसौ पुरुषोत्तमो यो गृहीतसंयमो भ्रातृजायामचीकमत ? उच्यतेविचित्रा खलु कर्मणां गतिः, गृहीतसंयमस्यापि रथनेमेश्चेतसि विषयवासना मोहनीयकर्मोदयवशादुद्रुद्धा, परन्तु वैराग्यवारिधाराधरेण राजीमतीवचनेन यदा विषयवलयदावानलजनिततापकवलितो म्लानतामापन्नो स्थनेमिचेतस्तरुः सेचितस्तदैव पुनरसौ संयमामृतरसास्वादनपरो विषवद्विषयविविधदोपाकलनेन अर्थात् भोगोंसे निवृत्त होते हैं जैसे कि-पुरुषों में उत्तम रथनेमिने भोगोंकी निवृत्ति की। प्रश्न-जिन्होंने संयम लेकर भी विषयवासनामें लीन होकर परम अनुचित जो कि गृहस्थभी नहीं करता ऐसी साक्षात् अपने-भाईकी भार्यापर कुदृष्टि करके भोगोंकी प्रार्थना की, विषयभोगोंकी इच्छामात्र भी करना चारित्रको मलिन करनेवाला और आत्माको दुर्गतिदाता है तो फिर भगवानने विषयानुरागी रथनेमिको पुरुषोंमें उत्तम कैसे कहा? उत्तरकर्मोंकी गति विचित्र होती है, मोहकर्मके उदयसे यद्यपि विषयभोगकी अभिलाषा हुई तो भी विषयरूपी दावानलसे उत्पन्न संतापसे संतप्त हो मुरझाया हुआ रथनेमिका चित्त-रूपी वृक्ष वैराग्यरसकी बरसा करनेवाले राजीमतीजीके वचनरूपी मेघसे सींचे जाने पर शीघही संयमरूप अमृतरसके आस्वादनमें तत्पर होगया। 'विषय परम कटुक फल देनेवाले और आत्माको चतुर्गतिमें परिभ्रमण करानेवाले हैं। થાય છે, કે જેવી રીતે પુરૂષમાં ઉત્તમ રથનેમિએ ભેગની નિવૃત્તિ કરી પ્રશ્ન–જેમણે સયમ લઈને પણ વિષયવાસનામાં લીન થઈને પરમ અનુચિત-કેઈ ગૃહસ્થ પણ ન કરે એવી, સાક્ષાત્ પિતાના ભાઈની ભાર્યા પર કુદૃષ્ટિ કરીને ભેગની પ્રાર્થના કરી, વિષયભેગોની ઈચ્છા-માત્ર પણ ચારિત્રને મલિન કરનારી અને આત્માને દુર્ગતિ દેનારી છે, તે પછી ભગવાને તેવા વિષયાનુરાગી રથનેમિને પુરૂષામાં ઉત્તમ કેવી રીતે કહ્યો? ઉત્તર–કર્મોની ગતિ વિચિત્ર હોય છે મેહકર્મના ઉદયથી જે કે વિષયભોગની અભિલાષા ઉત્પન્ન થઈ, તે પણ વિષયરૂપી દાવાનળથી ઉત્પન્ન થએલા સતાપથી સતત થઈને બેભાન બનેલા રથનેમિનું ચિત્તરૂપી વૃક્ષ, વૈરાગ્ય રસની વૃષ્ટિ કરનારા રામતીના વચનરૂપી મેઘથી સિંચિત થતા પછી, તુરતજ સ યમરૂપી અમૃતરસનુ આસ્વાદન કરવામા તત્પર બની ગયુ “વિષયે અત્યંત કડવા ફળ દેનારા અને આત્માને ચતુર્ગતિમાં પરિભ્રમણ કરાવનારા છે એ પ્રકારની પરમ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० श्रीदशवकालिकसूत्रे शान्तिमुपगतः परमदुश्चरतपःसेवनपरायणों झटिति वभूवेति विषयसांनिध्येऽपि चित्तनिग्रहकारित्वेन झटिति विषयोपरतत्वेन च पुरुषोत्तमत्वं तस्य निर्वाधमेवेत्यलं पल्लवितेन । न चाधुनिकरथनेमेरुदाहरणोपलम्भादिदं दशवकालिकमूत्रमनित्यं स्यादिति वाच्यम् , पर्यायार्थिकनयमपेक्ष्यानित्यत्वेऽपि द्रव्याथिकनयापेक्षया नित्यत्वात् । इस प्रकारकी परम वैराग्यभावना द्वारा, एकान्त स्थानमें विषयका सान्निध्य रहनेपर भी इन्द्रिय निग्रह करके विषयोंको विषतुल्य समझ कर तत्काल त्याग दिया और उग्र तप-संयमको पालन किया, इसलिये भगवानने उन्हें पुरुषों में उत्तम कहा है ॥ प्रश्न-हे गुरो ! प्रवचन अनादि और नित्य है, क्योंकि आचारांग आदि बत्तीसों शास्त्र अनादिकालसे चले आते हैं, और यह दशवैकालिक सूत्र भी उन्हीं बत्तीसोंमें हैं तो आधुनिक रथनेमि और राजीमतीका उदाहरण आनेसे तो यह सादि और अनित्य सिद्ध होता है । __उत्तर-हे शिष्य ! पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे प्रत्येक पदार्थ अनित्य है, इसी नयकी अपेक्षा दशवैकालिक भी अनित्य है, किन्तु द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे वह नित्य है । अर्थात् दशवैकालिकमें प्ररूपित मुनिका आचार सर्वज्ञोक्त है । सव सर्वज्ञोंका कथन एकहीसा होता है । जिस आचारका प्ररूपण चरम तीर्थकर श्रीमहावीरस्वामीने વૈરાગ્યભાવના દ્વારા એકાન્ત સ્થાનમાં વિષયનું સાન્નિધ્ય હોવા છતા પણ ઈન્દ્રિયનિગ્રહ કરીને વિષને વિષતુલ્ય સમજીને તત્કાળ ત્યજી દીધા અને ઉગ્ર તપ સંયમનું પાલન કર્યું, તેથી ભગવાને તેમને પુરૂષેમા ઉત્તમ કહ્યા છે प्रश्न-3 गुरो ! अवयन मनाहि मने नित्य छ १२५५ मायाराम આદિ બત્રીસે શાસ્ત્ર અનાદિકાળથી ચાલ્યાં આવે છે, અને આ દશવૈકાલિક સૂત્ર પણ એ બત્રીસમાનું જ છે, તે આધુનિક રથનેમિ અને રાજમતીનું ઉદાહરણ આવવાથી તે એ સૂત્ર સાદિ અને અનિત્ય સિદ્ધ થાય છે ઉત્તર–હે! શિષ્ય પર્યાયાર્થિક નયની અપેક્ષાથી પ્રત્યેક પદાર્થ અનિત્ય છે એ નયની અપેક્ષાએ દશવૈકાલિક પણ અનિત્ય છે પરંતુ દ્રવ્યાર્થિક નયની અપેક્ષાથી તે નિત્ય છે અર્થાત્ દશવૈકાલિકમાં પ્રરૂપેલ મુનિને આચાર સર્વોક્ત છે બધા સત્રનું કથન એકસરખું જ હોય છે જે આચારનું પ્રરૂપણ ચરમ તીર્થકર શ્રી મહાવીર સ્વામીએ કર્યું છે તેની જ પ્રરૂપણ અનાદિ કાળથી બધા Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन २ गा. ११ अध्ययनपरिसमाप्तिः १५१ ' इति ब्रवीमि' इति पूर्ववत् ॥ इति गाथार्थः ॥ ११ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषा-कलित-ललितकलापाऽऽलापक-प्रविशुद्ध-गद्य-पद्य-नैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दकश्रीशाहू छत्रपति-कोल्हापुररानप्रदत्त-जैनशास्त्राचार्य-पद-भूषितकोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्य-श्रीघासीलालतिविरचितायां श्रीदशवकालिकसूत्रस्याऽऽचारमणिमञ्जूषाख्यायां व्याख्यायां द्वितीयं श्रामण्यपूर्वकाख्यमध्ययनं समाप्तम् ॥२॥ किया है उसीकी प्ररूपणा अनादिकालसे सब सर्वज्ञ करते आये हैं अत एव द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे यह दशवैकालिक अनादि और नित्य है।११। इति हिन्दीभाषानुवादमें श्रामण्यपूर्वकाख्य द्वितीय अध्ययन समाप्त हुआ ॥२॥ --- -- સર્વ કરતા આવ્યા છે. એટલે દ્રવ્યાર્થિક નયની અપેક્ષાથી આ દશવૈકાલિક मना भने नित्य छे. (११) ઈતિ “શ્રામણ્યપૂર્વક' નામના બીજા અધ્યયનનું शुशती-मापानुवाद समास (२) RO Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ श्रीदशवेकालिकसूत्रे ॥ अथ तृतीयमध्ययनम् ॥ द्वितीयेऽध्ययने 'साधुना धृतिः सन्धारणीया' इत्युक्तं, सा चाऽऽचारे न त्वनाचारे इति, तस्मादस्मिन् 'क्षुल्लकाचारकथा 'ऽऽरूये तृतीयेऽध्ययनेऽनाचारस्वरूपनिरूपणपुरस्सरं साधूनामाचारः प्रदर्श्यते, तत्रेदमादिमं सूत्रम् -' संजमे० ' इत्यादि । ૧ ४ मूलम्-संजमे सुट्ठिअप्पाणं विप्पमुक्काण ताइणं । ૫ દ ७ तेसि-मेय-मणाइन्नं निग्गंथाण महेसि ॥१॥ छाया:- संयमे सुस्थितात्मनां विप्रमुक्तानां त्रायिणाम् । तेपामेतदनाचीर्ण निर्ग्रन्थानां महर्षीणाम् ॥ १ ॥ सान्वयार्थ :- संजमे= संयममें सुडिअप्पाणं भलीभांति स्थिर आत्मावाले विप्पमुक्काण = शरीर आदिकी ममतासे रहित ताइणं = पट्कायजीवोंके रक्षक तेसिं=उन निग्गंधाण = परिग्रहरहित महेसिणं = महर्षियोंके एयं =यह आगे कहेजानेवाले वाचन अणाइन्नं अनाचीर्ण हैं । अर्थात् महर्षियोंने इनका आचरण नहीं किया है अतः ये अनाचीर्ण-आचरण करने योग्य नहीं हैं ॥ १ ॥ तीसरा अध्ययन दूसरे अध्ययन में यह निरूपण किया गया है कि साधुको धीरता ( दृढ़ता ) धारण करना चाहिये, वह धीरता आचारमें होनी चाहिये अनाचार में नहीं, इसलिए 'क्षुल्लकाचारकथा' नामक इस तीसरे अध्यनमें अनाचार के निरूपणपूर्वक मुनिओंके आचारका निरूपण किया जाता है- 'संजमे सुट्टि०' इत्यादि । અધ્યયન ત્રીજી ખીજા અધ્યયનમા એ નિરૂપણુ કરવામાં આવ્યું હતું કે—સાધુએ ધીરતા ( દૃઢતા ) ધારણ કરવી જોઇએ, એ ધીરતા આચારમા હોવી જોઇએ, અનાચારમા નહિ, તેથી ‘ક્ષુલ્લકાચારકથા' નામક આ ત્રીજા અધ્યયનમા અનાચારના નિરૂપણपूर्व भुनियोना मायारनु नि३याय ४वामा आवे छे - संजमे सुट्ठि० धत्याहि. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ अध्ययन ३ गा. १ महर्षिस्वरूपम् टीका-संयमे पञ्चास्रवविरमणे-न्द्रियपश्चकनिग्रह-कपायचतुष्टयजय-दण्डत्रयविरतिलक्षणे, मुस्थितात्मनाम्-निश्चलात्मनाम् , तेषां सुप्रसिद्धानां प्रसिद्धार्थकोऽत्र तच्छब्दः, विप्रमुक्तानां विशिष्टरूपया परमार्थभावनया प्रकर्षेण शरीरादिममत्वतो मुक्ताः, यद्वा 'इमे विषयकषाया अनन्तभवभ्रमणदुःखसंभारपादपसेचकाः, एतेषां जननीजनकवान्धवादीनां ममत्वं भवबन्धननिवन्धनम् , एतं पृथिव्यादिपड्जीवनिकायमनन्तवारान् ममात्मा सम्प्रविश्य नानादुःखमन्वभूत् , वस्तुतो नास्ति मम __ संयममें भलीभाँति स्थित, संसारसे मुक्त, स्व-पर-उभयका त्राण (रक्षण) करनेवाले अर्थात् प्रत्येकवुद्ध-स्व-अपनी आत्माके वाता; तीर्थकर-परके जाता और स्थविर-उभय (स्व-पर) के त्राता होते हैं इसलिए ये सब वायी कहलाते हैं, इन निर्ग्रन्थ महर्षियोंको ये (आगे बताये जानेवाले ५२ अनाचार) आचरण करने योग्य नहीं हैं। पांच आस्रवोंसे विरमण, पाँचों इन्द्रियोंका निग्रह, क्रोधादि चार कषायोंको जीतने, तीन दण्डोंका त्याग करनेरूप संयममें दृढ़ आत्मा वाले, प्रसिद्ध, विशेष प्रकारकी परमार्थ भावना भाकर शरीर आदिकी ममतासे मुक्त, अथवा ये विषय-कषाय भवभ्रमणके दुःखरूपी वृक्षको सींचने वाले हैं, माता-पिता भाई-बन्द कुटुम्ब परिवार, इन सबकी ममता संसार-बंधनका कारण है, पृथ्वीकाय आदि छह जीवनिकायोंमें मेरी आत्मा अनन्तवार उत्पन्न होकर नाना प्रकारकी पीडाओंका अनुभव સચમમાં સારી રીતે સ્થિત, સસારથી મુકત, સ્વ પર ઉભયનું ત્રાણ (રક્ષણ) કરનાર અર્થાત્ પ્રત્યેકબુદ્ધ–સ્વ-પિતાના આત્માના ત્રાતા, તીર્થ કર–પરના ત્રાતા, અને વિર–ઉભય-(સ્વ–પર)ના ત્રાતા હોય છે, તેથી એ સર્વ વ્યાયી કહેવાય છે એ નિન્ય મહર્ષિએને એ (આગળ બતાવવામાં આવનારા બાવન અનાચાર) આચરવા યોગ્ય નથી પાચ આસથી વિરમણ, પાંચે ઈદ્રિયેનો નિગ્રહ, ક્રોધાદિ ચાર કષાયને જીતવા, ત્રણ દડોને ત્યાગ કરવારૂપ સયમમાં દઢ આત્માવાળા, પ્રસિદ્ધ, વિશેષ પ્રકારની પરમાર્થ ભાવને ભાવીને શરીર આદિની મમતાથી મુક્ત, અથવા એ વિષય-કષાય ભવ-ભ્રમણમા દુ ખરૂપી વૃક્ષને સીંચનારા છે, માતા-પિતા ભાઈ–બધ કુટુમ્બ પરિવાર એ સર્વની મમતા સ સારબંધનનું કારણ છે, પૃથ્વીકાય આદિ છ જીવનિકાયમાં મારે આત્મા અને તીવાર ઉત્પન્ન થઈને નાના પ્રકારની પીડા Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ श्रीदशवकालिकसूत्रे कोऽप्यात्मीय इति, रागादयश्च जीवमृगवागुरायमाणत्वान्महाशत्रव इत्यहो ! शत्रुहस्तगतोऽहं स्वकीयाऽभ्युदयनिःश्रेयससाधनाक्षमः संजातोऽस्मि, धिङ् माम् । उक्तश्च "इह हि मधुरगीतं नृत्यमेतद्रसोऽयं, ___स्फुरति परिमलोऽयं स्पर्श एषोऽङ्गनानाम् । इति हतपरमार्थे-रिन्द्रियैर्धाम्यमाणः, ___ स्वहितकरणधृत्तः पञ्चभिर्वश्चितोऽस्मि ॥१॥” इति,' एवंविधविविधभावनाभिः सर्वथा रागादितो मुक्ताः विषमुक्तास्तेषाम् , कर चुकी है, वास्तवमें संसारमें कोई भी मेरा नहीं है। यह रागादिदोष, जीवरूपी हरिणके लिए व्याधके समान होनेके कारण महान् शत्रु हैं। खेद है कि मैं उन वैरियोंके वशमें पड़कर अपने परम अभ्युदय-स्वरूप मोक्षके साधनमें भी असमर्थ होगया हूँ मुझे धिक्कार है । कहा भी है___"कैसा कर्णमधुर गीत है, कैसा नेत्रोंको लुभानेवाला नृत्य है, कैसा जिहाका प्रिय स्वाद है, कैसा नासिकाको आकर्षित करनेवाला सुगन्ध है और स्त्री आदिका स्पर्श कैसा सुखकारी है । इस प्रकार अनुभव कराकर परमार्थका सत्यानाश करनेवाली अपना स्वार्थ साधनेमें धूर्त इन दगाबाज पांचों इन्द्रियोंने हाय ! मेरी आत्मिक-सम्पत्तिसे मुझे वंचित कर दिया-मुझको लूट लिया ॥१॥" इस प्रकारकी भावनाओं द्वारा राग आदि शत्रुओंसे सर्वथा मुक्त એને અનુભવ કરી ચૂક્યું છેવાસ્તવમાં સ સારમાં કઈપણ મારું નથી, આ રાગાદિ દેષ જીવરૂપી હરણને માટે વ્યાધ (પારધી)ની સમાન હોવાને કારણે મહાન શત્રુ છે, ખેદની વાત છે કે હું એ વેરીઓને વશ પડીને પોતાના પરમ અભ્યદય સ્વરૂપ મોક્ષના સાધનમા પણ અસમર્થ બની ગયેલ છું, મને ધિક્કાર છે. घुछ है કેવું કર્ણમધુર ગીત છે, કેવું નેત્રને લેભાવનારું નૃત્ય છે, કે જિવાને પ્રિય સ્વાદ છે, કેવી નાકને આકર્ષિત કરનાર સુગધ છે, અને સ્ત્રી આદિને સ્પર્શ કે સુખકારી છે, એ પ્રમાણે અનુભવ કરાવીને પરમાર્થનું સત્યાનાશ વાળનારી પિતાને સ્વાર્થ સાધવામાં ધૂત એ દગાબાજ પાચે ઈક્રિએ, હાય ! મને મારી यात्मि-संपतिथी पति ४२N नाभ्यो भने धुरी दी" (१) એ પ્રકારની ભાવનાઓ દ્વારા રાગાદિ શત્રુઓથી સર્વથા મુક્ત થનારા, Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ३ गा. १ महर्षीणाम् (५२) अनाचीर्णानि । १५५ त्रायिणाम्बाणं स्वस्य परस्योभयस्य च रक्षणं त्रायः, सोऽस्त्येपामिति त्रायिण, प्रत्येकबुद्धाः स्वस्य, तीर्थङ्कराः परस्य, स्थविरा उभयस्येतीमे सर्वे त्रायिण उच्यन्ते । निर्ग्रन्थानांबाह्याऽऽभ्यन्तरपरिग्रहरूपाद् ग्रन्थान्निर्गताः निम्रन्थास्तेषाम् । महर्षीणाम् महान्तश्च ऋषय इति महर्षयस्तेषाम् , यद्वा 'महर्षिणाम्' इतिच्छाया, महः जन्मजरामरणदुःखरहितत्वेनैकान्तोत्सवरूपो मोक्षस्तम् ऋषन्ति= गत्यर्थधातूनां प्राप्त्यर्थत्वात् प्राप्नुवन्तीत्येवंशीला महर्पिणस्तीर्थङ्करगणधरादयस्तेषाम् , एतत्-द्वापञ्चाशता भेदैर्वक्ष्यमाणम् , अनारीणम् अनासेवितम् , अस्तीति शेषः । अत्र महर्षिणामित्यन्तेषु कर्तुः शेषत्वविषया षष्ठी । यतः संयमे मुस्थितात्मानोऽत एव विषमुक्ताः, यतो विप्रमुक्ता अतस्त्रायिणः, यतस्त्रायिणोऽतो निर्ग्रन्थाः, यतो निर्ग्रन्था अतो महर्षयः, इति यथोत्तरं पूर्व-पूर्वस्य हेतुत्वेन भवति विशेषणसंगतिरिति बोद्धव्यम् । १ अत्र 'अत इनिठना'-विति मत्वर्थीय इनिः, ताच्छील्यणिनिस्तु न, तस्य सुबन्तपूर्वपदकत्व एव प्रवृत्तेरिति वयम्॥ होनेवाले, संसारभ्रमणसे भयभीत भव्य जीवोंकी तथा आत्माकी रक्षा करनेवाले, बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहरूपी ग्रन्थिसे रहित, महान् ऋषि-तीर्थकर आदि या जन्म-जरा-मरणके दुःखोंसे रहित होनेके कारण एकान्त आनन्दस्वरूप मोक्षको प्राप्त करनेवाले मुनियोंके, आगे कहेजाने वाले बावन अनाचार (अनाचीर्ण) हैं। अर्थात् ये बावन अनाचार • मुनियोंके सेवने योग्य नहीं हैं । यहाँ षष्ठी विभक्तिवाले अनेक विशेषण दिये गये हैं, उन सबमें पहले२ के विशेषण कारण हैं और आगे आगे के कार्य हैं । जैसे-संयममें भली भाँति स्थित होनेके कारण विप्रमुक्त हैं, સંસાર બ્રમણથી ભયભીત ભવ્ય જીની તથા આત્માની રક્ષા કરનારા, બાહ્ય અને આત્યંતર પરિગ્રહરૂપી ગ્રંથિથી રહિત, મહાન ઋષિ તીર્થંકર આદિ, યા જન્મ-જરા-મરણનાં દુખોથી રહિત હોવાને કારણે એકાંત આનંદસ્વરૂપ મેક્ષને પ્રાપ્ત કરનારા મુનિઓને માટે આગળ કહેવામાં આવનાર બાવન અનાચાર (અનાચીણ) છે અર્થાત્ એ બાવન અનાચાર મુનિઓને સેવવા યોગ્ય નથી અહીં છઠ્ઠી વિભકિતવાળા અનેક વિશેષણે આપવામાં આવ્યા છે, એ બધામાં પહેલા પહેલાના વિશેષણ કારણ છે અને પછી-પછીના કાર્ય છે. જેમકે–સયમમાં સારી રીતે સ્થિત હોવાને કારણે વિપ્રમુક્ત છે, વિપ્રમુક્ત હોવાથી સ્વ-પરના ત્રાતા Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ श्रीदशवैकालिकसूत्रे नन्वेतावता 'यद्यन्महापुरुषैरनाचीण तत्तदनाचरणीयं, यधत्त्वाचीर्ण तत्तदाचरणीयमेवेत्यायातं ततश्च तीर्थङ्कराथै मुरसम्पादितैरष्टविधमहापातिहार्यैस्तीर्यङ्करा युक्ता इति वयमप्यस्मदथै सम्पादितैः कथं न युक्ता भवेमेति चेद् ? भ्रान्तोऽसि, ते हि वीतरागत्वात् कल्पातीताः, वयं तु कल्पस्थिता इति, कल्पातीतानां तेषां जिनेश्वराणामष्टमहापातिहार्याणि तीर्थङ्करगोत्रनामप्रकृत्युदयमहिम्ना प्रतिभासितानि भवन्ति, न तु तानि सुरैः संपाद्यन्ते, अत एव औपपातिकमत्रे " आगासगएणं चक्केणं आगासगएण छत्तेणं आगासियाहिं चामराहि" इत्यस्य व्याख्यायाम्विप्रमुक्त होनेसे स्व-पर के त्राता (रक्षक) हैं, त्राता होनेसे निर्ग्रन्थ हैं, निर्ग्रन्थ होनेसे महर्षि हैं। शङ्का-इस गाथासे यह तात्पर्य निकला कि महापुरुषोंने जिस जिस का आचरण नहीं किया वह वह अनाचरणीय है, उन्होंने जिस जिसका आचरण किया वे सब आचरण करने योग्य हैं, यदि ऐसा ही है तो तीर्थङ्कर भगवान् देवनिर्मित आठ महाप्रातिहार्योंसे युक्त होते हैं इसलिए हम भी हमारे लिए बनाये हुए पदार्थोंसे युक्त क्यों न होवें। समाधान-हे वत्स ! ऐसा नहीं है, क्यों कि वे वीतराग होनेसे कल्पातीत हैं, और हम कल्पस्थित हैं, इसलिए उन कल्पातीत जिनेश्वरों के तीर्थङ्करगोत्र-नाम-प्रकृतिके उदयकी महिमासे अष्ट महाप्रातिहार्य केवल भासित होते हैं किन्तु देवताओंसे समर्पित नहीं किये जाते, अत एव औपपातिक सूत्रके "आगासगएणं चक्केणं" इत्यादि पदोंकी । (રક્ષક) છે, ત્રાતા હોવાને કારણે નિગ્રંથ છે, નિર્ચ થ હોવાને લીધે મહર્ષિ છે શંકા–આ ગાથામાથી એ તાત્પર્ય નીકળ્યું કે–મહાપુરૂએ જેનું જેનું આચરણ નથી કર્યું છે તે અનાવરણીય છે, અને તેમણે જેનું જેનું આચરણ કર્યું તે બધુ આચરણ કરવા ગ્ય છે જે એમ છે તે તીર્થકર ભગવાન દેવ નિર્મિત આઠ મહાપ્રાતિહાર્યોથી યુકત હોય છે, તેમ આપણે પણ આપણા માટે બનાવેલા પદાર્થોથી યુકત કેમ ન થવું? સમાધાન–હે વત્સ! એમ નથી, કારણ કે તે વીતરાગ હોવાથી કપાતીત છે, અને આપણે કલ્પસ્થિત છીએ એ કલ્પાતીત જિનેશ્વરનાં તીર્થ કર–ગોત્રનામપ્રકૃતિના ઉદયના મહિમાથી આઠ મહાપ્રાતિહાર્ય કેવળ ભાસિત થાય છે, પરંતુ हवतामा तरथी समर्पित यता नथी, मेटले मोयपाति सूत्रना आगासगएणं Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. २ (५२) अनाचीर्णानि १५७ “ आगासगएणं चक्केणं "-ति आकाशवर्त्तिना चक्रेण धर्मचक्रेण, 'आगासगएणं छत्तेणं-ति छत्रत्रयेण 'आगासियाहि ' ति, आकाशम् = अम्बरम् इताभ्यां= माताभ्याम् आकर्षिताभ्यां वा = आकृष्टाभ्यामुत्पाटिताभ्यामित्यर्थः, 'चामराहिं - ति चामराभ्यां प्रकीर्णकाभ्यां प्राकृतत्वाच्च लिङ्गव्यत्ययः, ' लक्षितः इति सर्वत्र गम्यम् ” इत्युक्तम् । " अत्र 'लक्षितः' इत्युक्त्याऽन्यकृत इति स्पष्टं निराक्रियते, यथा- अर्द्धमागधभाषया प्रवृत्ताऽपि तीर्थङ्करवागू समवसरणगतानां देवानां मनुष्याणां तिरथां च स्व-स्व-भाषानुरूपा प्रतिभाति किन्तु न सा तादृशी, तस्मादस्मादृशां तदसदृशां तदुक्तकल्प एव स्थातव्यं, न तु तथाऽनुकरणीयमिति दिक इति गाथार्थः ॥ १ ॥ अनाचीर्णान्याह - ' उद्देसियं०' इत्यादि, व्याख्यामें कहा है- "आकाशस्थित चक्र, छत्र और चामरोंसे भगवान् लक्षित होते हैं" । यहाँ पर 'लक्षित' ऐसा कहनेसे साफर यह दिखलाया गया है कि- औरोंको छत्रचामरादिसे युक्त भगवान् लक्षित होते हैं किन्तु वे चक्र -छत्रादि अन्य (देव) - कृत नहीं हैं । जैसे अर्द्धमागधीभाषारूप भी तीर्थङ्कर की वाणी, समवसरणमें आये हुए देव मनुष्य तिचोंकी अपनी अपनी भाषाके स्वरूपमें ही प्रतीत होती है किन्तु वस्तुतः वह वैसी नहीं है, अत एव उन कल्पातीतोंकी तुलनामें नहीं पहुंचे हुए हम छद्मस्थोंको तो उनके कहे हुए कल्पमें ही रहना चाहिए, न कि उनका अनुकरण करना चाहिए || १ || अब (५२) - अनाचीणको दिखलाते हैं- 'उद्देसियं०' इत्यादि । चक्केणं त्याहि होना व्यायामां अछे - " अशस्थित २४, છત્ર અને ચામરેથી ભગવાન્ લક્ષિત થાય છે ” અહીં ‘લક્ષિત' કહેવાથી એમ સાફ સાફ મતાવ્યુ છે કે—ખીજાઓને છત્ર-ચામરાદિ-યુકત ભગવાન્ લક્ષિત થાય છે, પરંતુ તે ચક્ર-છત્રાદિ અન્ય (દેવ ) કૃત નથી હાતાં જેમ અ માગધીભાષારૂપ પણુ તીર્થંકરની વાણી સમવસરણુમા આવેલા દેવ-મનુષ્ય તિર્યંચાને પેાતપાતાની ભાષાના સ્વરૂપમા જ પ્રતીત થાય છે, કિન્તુ વસ્તુત તે તેવી નથી હાતી એટલે એ કપાતીતેાની તુલનામા નહિ પડેાચેલા આપણે છદ્મસ્થાએ તે એમણે કહેલા કલ્પમાં જ રહેવુ જોઇએ, નહિ કે તેમનું અનુકરણ કરવું જોઇએ. (૧) डवे (५२) - अनाथी हर्शाने छे - उद्देसियं० धत्याहि Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ श्रीदशवैकालिकसूत्रे मूलम्—उद्देसियं कीयगडं, नियागमभिहडाणि य । ૫ ७ ८ G राइभत्ते सिणाणे य, गंधमले य वीयणे ॥२॥ छाया —— औद्देशिकं क्रीतकृतं, नियागमभ्याहृतानि च । रात्रिभक्कं स्नानं च गन्धमाल्ये च वीजनम् ॥ २ ॥ सान्वयार्थ : - (१) उद्देसियं = औदेशिक - किसी एक साधुके लिए बनाया हुआ आहार ( २ ) कीयगड - साधुके लिए खरीदा हुआ आहार (३) नियागं= निमंत्रण से ग्रहण किया हुआ आहार (४) अभिहडाणि - सामने लाकर दिया हुआ आहार (५) राहभत्ते = रात्रिभोजन (६) सिणाणे = स्नान य=और (७) गंध = चन्दनादिलेप (८) मल्ले = पुष्पादिमाला (९) वीयणे = पंखा ॥ २ ॥ टीका - औद्देशिकम् = उद्देशनसुदेशस्तत्र भवं तत्प्रयोजनमस्येति वा औदेशिकंसाध्वादिकमुद्दिश्य निष्पादितमित्यर्थः (१), क्रीतकृतं = क्रीतेन=क्रयणेन कृतं - सम्पादितं साधुकृते मूल्येन गृहीतमिति यावत् ( २ ), (१) औदेशिक, (२) क्रीतकृत, (३) नियाग, (४) अभ्याहृत, (५) रात्रिभोजन, (६) स्नान, (७) गन्ध, (८) माल्य, (९) पंखा चलाना । (१) साधु आदिके लिए जो आहार बनाया जाता है उसे औद्देशिक कहते हैं । (२) साधुके लिए मूल्य देकर जो आहारादि खरीद किया गया हो उसे क्रीतकृत कहते हैं । (१) सौदेशिक, (२) श्रीतद्वृत, (3) नियाग, (४) मल्याहृत, (4) शत्रिलोभन, (१) स्नान, (७) गध, (८) भाट्य, (८) पथ यसाववा (૧) સાધુ આદિને માટે જે આહાર બનાવવામા આવ્યે હાય તેને ૌશિક કહે છે (૨) સાધુને માટે મૂલ્ય ખર્ચીને જે આહારાદિ ખરીઢ કરવામાં આવેલ હાય તેને ક્રાંતકૃત કહે છે Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. २-३ (५२) अनाचीर्णानि नियागं-नि-निरतिशयो यागो निमन्त्रणादिरूपः संस्कारो यस्मिंस्तत्-आमन्त्रितपिण्डस्य कदाचिदपि ग्रहणम् , अनामन्त्रितस्य नित्यग्रहणमिति भावः (३), ___ अभ्याहृतानि स्व-पर-ग्राम-गृहादिभेदभिन्नानि साधुनिमित्तं सम्मुखमानीय दत्तानि, वहुवचनं सर्वेषामेवाऽभ्याहृतानामनाचीर्णत्वख्यापनार्थम् (४), रात्रिभक्तं रात्रिभोजनं राज्यादिगृहीनं भक्तं वा (५), स्नान प्रसिद्धम् (६), गन्धमाल्ये-गन्धः चन्दन-केतकादिसौरभम् (७) ___ माल्य=पुष्पादिमाला, तयोरितरेतरयोग इति गन्ध-माल्ये (८), (३) गृहस्थकानिमन्त्रण पाकर कभी भी आहार लेनाअथवाप्रतिदिन एक ही घरसे आहार लेना नियागपिण्ड है। (४) अपने गाँवसे पर गॉवसे अथवा घरसे साधुके सामने लाया हुआ आहार अभ्याहृत पिण्ड है। अभ्याइतके लिए गाथामें बहुवचन आया है उसका यह अभिप्राय है कि जितने भी अभ्याहृत (सामने लाये हुये) हैं वे सभी अनाचार हैं। (६) रात्रिमें आहार लेना, दिनमें लेकर रात्रि में खाना आदि रात्रिभक्त है (६) देशतः सर्वतः स्नान करनेको स्नान-अनाचार कहते हैं। (७-८) चन्दन केतक अतर आदिकी सुगन्ध तथा फूलमाला आदिका सेवन करना गन्ध-माल्य-अनाचार है। (૩) ગૃહસ્થનું નિમ ત્રણ મેળવીને કેઈવાર પણ આહાર લે અથવા પ્રતિદિન એકજ ઘરથી આહાર લે એ નિયાગપિડ કહેવાય છે (૪) પિતાના ગામથી, પરગામથી અથવા ઘરથી સાધુની સામે લાવવામાં આવેલે આહાર અભ્યાહત–પિંડ કહેવાય છે. અભ્યાહુતને માટે માથામાં બહુવચન આવ્યું છે તેને એ હેતુ છે કેજેટલા અભ્યાહુત (સામે લાવેલા) હેય તે બધા અનાચાર છે (૫) રાત્રે આહાર લે, દિનમાં લઈને રાત્રે ખાવે, ઈત્યાદિ રાત્રિ-ભક્ત उपाय छे (६) शिथी (23 मागे ) सपथी (माणे शरी२) स्नान ४२j मे સ્નાન-અનાચાર કહેવાય છે. (७-८) यहन, 8431, मत्त२ माहिनी सुगध तथा इस भात माहिन સેવન કરવું એ ગધ-માલ્ય-અનાચાર કહેવાય છે Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- १६० श्रीदशकालिकसूत्रे तथा वीजनं ग्रीष्मादिऋतौ तालवृन्तादिना वातादिसञ्चालनम् (९), अत्राऽऽरम्भादयो दोषा जायन्त इति स्वयमवगन्तव्यम् । औदेशिकक्रीतकतयोः स्वरूपं सप्रपञ्च पश्चमाध्ययने वक्ष्यते ॥२॥ मूलम्-संनिही गिहिमत्ते य, रायपिंडे किमिच्छए । संवाहणा दंतपहोयणा य, संपुच्छणा देहपलोयणा य॥३॥ (छाया)-सनिधि-गृह्यमत्रं च, राजपिण्डः किमिच्छकः । संवाहनं दन्तपधावनं च, संप्रच्छनं देहप्रलोकनं च ॥३॥ सान्वयार्थः-(१०) संनिही रात्रिमें आहार आदिका संचय (११) गिहिमत्ते-गृहस्थके पात्रमें भोजन करना य और (१२) रायपिंडे-राजाके लिए बनाया हुआ आहार (१३) किमिच्छए-दानशाला या अन्नक्षेत्र आदिका आहार (१४) संवाहणा-शरीरकी मालिश करना (१५) दंतपहोयणा-दांत मांजना य=और (१६) सपुच्छणा-गृहस्थसे कुशलप्रश्न पूछना य और (१७) देहपलोयणा-दर्पण या जलमें मुख आदि देखना ॥३॥ टीका—सनिधीयते सम्यक्तया नितरां स्थाप्यते नरकादिष्वात्माऽनेनेति संनिधिः संभवादत्र घृतादिसञ्चयकरणम् (१०), (९) ग्रीष्मादि कालमें पंखा चलाना यह व्यजन-अनाचार है । इनसे आरम्भ आदि दोष होते हैं सो स्वयं समझना चाहिये। औदेशिक और क्रीतकृतका विस्तारपूर्वक विवेचन पांचवें अध्ययनमें किया जायगा ॥२॥ (१०) संनिधि-जिस अनाचारका सेवन करनेसे आत्मा नरकादि कुगतियोंमें गिरती है अर्थात् घृत औषध आदिका रात्रिमें वासी रखना संनिधि-अनाचार है । (6) श्रीभा आमा यमी यता से व्यन-मनाया२ छ. એથી આર ભ આદિ દેષ લાગે છે તે પિતેજ સમજવું જોઈએ ઓશિક અને કૃતકૃતનું વિસ્તારપૂર્વક વિવેચન પાંચમા અધ્યયનમાં કરવામાં આવશે (૨) (૧૦) સનિધિ-જે અનાચારનું સેવન કરવાથી આત્મા નરકાદિ દુર્ગતિમાં પડે છે, અર્થાત્ ઘી ઓસડ આદિ રાત્રે વાસી રાખવાં તે સનિધિ-અનાચાર છે. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. ३-४ (५२) अनाचीर्णानि १६१ गृह्यमत्रं गृहिणां-गृहस्थानाम् अमत्रं-पात्रं प्रसंगादत्र तस्मिन्नभ्यवहरणादि (११), राजपिण्ड:-राजार्थ निष्पन्नाऽऽहारः (१२), किमिच्छकं= कः किमिच्छत्याहारादिक'-मित्येवं पृच्छयते यस्मिन् कर्मणि तत् , अन्नसत्र-(सदाव्रत)-शालादित आहारादिग्रहणमित्यर्थः (१३), संवाहनम् अस्थ्यादिमुखविशेषजनक नैलादिना शरीरसंमर्दनम् (१४), दन्तप्रधावन-दन्तमार्जनम् (१५), संपच्छनं गृहस्थं प्रति कुशलादिरूपसावधप्रश्नकरणम् (१६), देहमलोकनंजलदर्पणादिषु मुखादिनिरीक्षणम् (१७), चकाराः समुच्चयार्थाः । संनिध्यादिषु परिग्रहादयो दोषाः प्रतीताः ॥३॥ (११) गृह्यमत्र-गृहस्थके पात्रमें आहार आदि करना गृह्यमन्त्र है। (१२) राजपिण्ड-राजाके लिए बनाया हुआआहार लेनाराजपिंड है। (१३) किमिच्छक-जिसमें यह पूछा जाता है कि कौन क्या चाहता है ? अर्थात् दानशाला (सदाव्रत) आदिसे आहार लेना किमिच्छक है। (१४) संवाहन-अस्थि, मांस, त्वचा, रोमको आनन्ददायक चार प्रकारका मर्दन करना संवाहन है। (१५) दन्त-प्रधावन-दांत धोना। . (१६) संप्रच्छन-गृहस्थसे कुशल आदि रूप सावध प्रश्न पूछना। (१८) देहप्रलोकन-जलमें अथवा दर्पण आदिमें अपना मुख आदि देखना । सन्निधि आदिमें परिग्रहादि दोष प्रसिद्ध हैं ॥३॥ (૧૧) ગદ્યમત્ર-ગૃહસ્થના પાત્રમાં બહાર આદિ કરે તે ગૃહ્યમત્ર કહેવાય છે (૧૨) રાજપિડ–રાજાને માટે બનાવેલે આહાર લે તે રાજપિંડ છે. (૧૩) કિમિરછક–જેમા એ પૂછવામાં આવે છે કે કેને શું જોઈએ છે ? અર્થાત્ દાનશાલા (સદાવ્રત) આદિ પાસેથી આહાર લે તે કમિરિછક કહેવાય છે (१४) संवाइन-अस्थि, मांस, (क्या, रोमने मानहाय या२ २र्नु મર્દન કરવું એ સ વાહન છે (૧૫) દતપ્રધાન-દાત ધેવા . (१६) संछन-स्थने इशण माहि ३५ सावध प्रश्नी पूछा (૧૭) દેહપ્રલેકન–જલમા અથવા દર્પણ આદિમા પિતાનું મુખ આદિ જેવાં, સન્નિધિ આદિમાં પરિગ્રહાદિ દેષ પ્રસિદ્ધ છે (૩) (८ ) । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ श्रीदशवकालिकसूत्रे मलम्-अट्ठावए य नालीए, छत्तस्स य धारणहाए। २०. २१ तेगिच्छं पाहणा पाए, समारंभं च जोइणों ॥४॥ छाया-आष्टापदं नालिकया, छत्रस्य धारणार्थाय (धारणाऽष्टया)। चैकित्स्यमुपानही पादयोः, समारम्भश्च ज्योतिषः ॥४॥ सान्चयार्थः-(१८) नालीए-जूएके उपकरण-साधनसे अट्ठावए चौपड़ शतरञ्ज आदि खेलना, (१९) अट्टाए-मुट्ठीसे छत्तस्स-छातेका धारणं-धारण करना (२०) तेगिच्छं रोगकी चिकित्सा करना (२१) पाए पाहणा-पैरोंमें जूते चंपल - मौजे आदि पहिनना च और (२२) जोइणो=अमिका समारंभ आरंभ करना ॥४॥ टीका-च-तथा, नालिका यथाऽभिमतपतनाथ यया पाशाः पात्यन्ते सा= पाशपातनद्रव्यम् तया, उपलक्षणमेतत्-धूतोपकरणमात्रस्य, अष्टापदम्-अष्टौ अष्टौ पदानि-स्थानानि (गृहाणि) सर्वभागेषु यस्मिंस्तत्तथा वस्त्राऽऽधारस्थानम् , इह च लक्षणया धूतसामान्यम् (१८), च-किञ्च छत्रस्य-आतपत्रस्य धारणार्थाय ग्रहणमिति शेपः । यद्वा-'धारणा अढाए' इतिच्छेदः, 'अट्टा' इत्यस्य 'मुष्टि'-रित्यर्थः, "चउहि अट्टाहि लोयं करेइ' १ 'चतम्टभिरष्टाभिर्लोचं करोति' इतिच्छाया ॥ (१८) अष्टापद- 'नालीए' अर्थात् पासा फेंककर चौपड़, शतरंज आदि खेलना, अथवा अन्य प्रकारसे जुआ खेलना। (१९) छत्रधारण करना । गाथामें 'धारणहाए' ऐसा पद है उसे. अलग अलग करनेसे 'धारणा अट्ठाए' होता है। यहाँ आहा शब्दका अर्थ 'मुट्ठी' है । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिमें कहा है कि- 'चउहिं अहाहिं लोयं करेई' (१७) माप-नालीए अर्थात्- पास ३ीन यो५, शत२४, माह ખેલવા, અથવા અન્ય પ્રકારે જુગાર ખેલ (१८) छत्र पा२ ४२ थामा धारणहाए मेg ५६ छ, मेने छूटा 13पाथी धारणा+अट्टाए थाय छ गडी मट्टी शहना मर्थ 'नही' छे भूनयमतिमा ४धु छे 3-चउहि अहाहि लोयं करेइ अर्थात्-पमा मगपाने, Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. ४ (५२) अनाचीर्णानि १६३ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यादौ तथादर्शनात्, ततश्च 'अट्ठाए ' = अष्टयामुष्टया छत्रस्य धारणा - ग्रहणमित्यर्थः । न च छत्रादिधारणं मुष्टयादिनैव संभवतीति ' अट्टाए ' इत्यस्य ' मुखेन पठती ' - इत्यादिषु मुखादिवद्वैयर्थ्यमिति शङ्कनीयम्, 'चक्षुभ्यि पश्यति, कर्णाभ्यां शृणोति, जिह्वया लेढि ' इत्यादि - लोकोक्तिषु चक्षुरादीनामिव यथास्थितवस्तुप्रतिपादनमात्र तात्पर्येणाऽपौनरुक्त्यात्, अत्रैव गाथायामुत्तरार्द्धे 'पाहणा अर्थात् ऋषभदेव भगवान्ने चार मुट्ठी लोच किया। अतः 'धारणट्टाए का अर्थ 'मुट्ठीसे छत्रको ग्रहण करना' हुआ । प्रश्न- छत्र तो मुट्ठीसे ही पकड़ा जाता है फिर 'अट्ठाए' की क्या आवश्यकता है ? जैसे " मुखसे बोलता है " इस वाक्यमें 'मुखसे' इतना अंश व्यर्थ है, क्योंकि सिवाय मुखके और किसी अंगसे नहीं बोला जाता, इसी प्रकार यहां 'मुट्ठीसे ' कहना भी वृथा है ? उत्तर - यह प्रश्न ठीक नहीं, क्योंकि लोकमें " आँखोंसे देखता है, कानोंसे सुनता है, जिंहासे चखता है " इत्यादि वाक्योंमें 'आँखोंसे ' 'कानोंसे', 'जिहा से ' इन पदोंके बोलनेका अभिप्राय यथास्थित वस्तुका प्रतिपादन करना है, इस गाथाके उत्तरार्द्धमें 'पाहणा पाए' पद आया है इसका अर्थ है कि-पैरोंमें उपानह ( जूता ), उपानह यद्यपि पैरोंमें ही पहने जाते हैं हाथ या सिरमें नहीं पहने जाते फिरभी 'पाए' कहने से ચાર મુઠી લાચ કર્યાં. એટલે પાળદાદુ ને અર્થ · મુઠીથી છત્રને ગ્રહણ કરવું' એવા થયે. અશ પ્રશ્ન-છત્ર તેા મુઠીથી જ પકડવામાં આવે છે, પછી અઢાર્ ની શી જરૂર रहे छे ? भेभडे "मुभथी मोसे छे” એ વાકયમાં · મુખથી ’ એટલા વ્યથ છે, કારણ કે મુખવિના બીજા કોઈ અંગથી ખેાલી શકાતું નથી. તે જ રીતે ત્યાં ‘મુઠીથી’ એમ કહેવું એ પણ વૃથા છે. ઉત્તર—એ પ્રશ્ન ખરાખર નથી, કારણ કે લેાકમાં આખેાથી જોવે છે,’ 'अनथी सांलणे छे,' 'ललथी याचे छे,' इत्याहि वाडयोभा 'खामोधी, ' ''अनथी, ' 'कुलथी' से शब्दो मायवातो हेतु यथास्थित वस्तुनु प्रतिपादन કરવાના છે. આ ગાથાના ઉત્તરાધ મા પાળા પાપ પદ્ય આપ્યું છે. તેના અ छे- 'युगमा उपानह (भेडा), ले डे भेडा पगमां ४ डेरवामां आवे छे, હાથે કે માથે નહિ, તે પશુ પાÇ કહેવાથી પુનરૂક્તિ થતી નથી, કારણ કે એ શબ્દથી Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १६४ श्रीदशवकालिकसूत्रे पाए' इत्यत्र ‘पाए' इतिवदिति, उपलक्षणमेतच्छिरसि छायाकरणमात्रस्य (१९), चैकित्स्य-चिकित्सा व्याधिप्रतीकारः, कफपित्तादिवैगुण्यं, ग्रहादिवैगुण्यं च व्याधेनिंदानं तत्पशमनं तदुपायोपदेशादिनेत्यर्थः (२०), पादयोः चरणयोः, उपानहौ-चमपादुके, उपलक्षणमिदं काष्ठपादुकादीनामपि (२१), च-किश्च ज्योतिषः वः समारम्भः आरम्भकरणम् (२२), दोपास्त्वत्राऽलीकत्वादयः स्वबुद्धयाऽवगन्तव्याः, चकारा इहापि समुच्चयार्थाः।४। १-'गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च (५।१।१२४) इत्यत्रत्यब्राह्मणादेराकृतिगणवात्स्वार्थे व्यञ् तत आदिद्धिराल्लोपश्च, यत्तु 'चिकित्साया भावश्चैकित्स्य' मिति टीकान्तरकृतस्तद् व्याकरणाऽनवबोधमूलकमेव, भावप्रत्ययान्ताद्भावप्रत्ययस्याऽनुत्पत्तेः, 'चिकित्सायाः कर्मे 'त्यर्थकल्पनमपि केपांचित्पामादिकमेव चिकित्साया रोगापनयनक्रियारूपायाः स्वत एव कर्मभूतत्वेन कर्मपर्यायत्वात् , ध्यविधायकमूत्रे हि 'कर्म-क्रिये'-ति वैयाकरणाः ॥ पुनरुक्ति नहीं है, क्योंकि इस पदसे यथावस्थित वस्तुका प्रतिपादनमात्र किया गया है, इसलिए 'मुट्ठीसे छत्र धरना ऐसा कहना अयुक्त नहीं है। (२०) चैकित्स्य-चिकित्सा करना, अर्थात् वैद्यक करना, या ग्रह आदिको मंत्र वगैरहसे शांत करना, या इस विषयका उपदेश देना। (२१) उपानह (जूता) या मौजा आदि पहनना। (२२) अग्निका आरम्भ करना, इनसे भी असत्य आदि दोप समझना चाहिए, अर्थात् जूआखेलनेसे असत्य, क्लेश, आर्तध्यान, परिग्रह आदि; छन्त्र धारण करनेसे सुकुमारता યથાવસ્થિત વસ્તુનું પ્રતિપાદન માત્ર કરવામાં આવ્યું છે તેથી મુઠીથી છત્ર ધરવું” એમ કહેવું એ અયુક્ત નથી (૨૦) ચિકિત્સ્ય-ચિકિત્સા કરવી અર્થાતુ વૈદું કરવું, અથવા ગ્રહાદિ ને માત્ર વગેરેથી શાન્ત કરવા અથવા એ વિષયને ઉપદેશ આપે (२१) पान (1) मथवा भात माहि पाडेरवां (૨૨) અગ્નિને આરભ કરે. એથી પણ અસત્ય આદિ દેવ સમજવા જોઈએ અર્થાત્ જુગાર ખેલવાથી અસત્ય, કલેશ, આર્તધ્યાન, પરિગ્રહ આદિ, છત્ર ધારણ કરવાથી સુકુમારતા; પરિવહન સહન કરવામાં અસમર્થ આદિ અનેક Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. ५ (५२) अनाचीर्णानि १६५ मूलम् सिज्जायरपिंडं च, आसंदी पलियंकए । २७ गिहंतरनिसिज्जा य, गायस्सुबहणाणि य ॥५॥ छाया-शय्यातरपिण्डश्च, आसन्दी पर्य(ल्य)ङ्ककः । ___ गृहान्तरनिषद्या च, गात्रस्योद्वर्तनानि च ॥५॥ सान्वयार्थः-च-और (२३) सिज्जायरपिंडं शय्यातरका आहार, (२४) आसंदी-कुर्सी या खाट (२५) पलियंकए पलंग पालखी डोला आदि, (२६) गिहंतरनिसिज्जागृहस्थके घरमें बैठना, य=और (२७) गायस्स-शरीरका उन्वट्टणाणि-उवटन करना ॥५॥ टीका-शय्यतेऽस्यामिति शय्या वसतिः, शय्ययाऽर्थात्तदानेन तरति संसारसागरमिति शय्यातरः, यद्वा शय्या-मोक्तरीत्या वासस्थानम् , 'आतरः संसार १-'आतरस्तरपण्यं स्या'-दित्यमरः, 'उतराई' इति लोकमसिद्धम् । परिषहके सहने में असामर्थ्य आदि अनेक दोष, चिकित्सा करनेसे आरम्भ असल आदि दोष; उपानह पहननेसे द्वीन्द्रिय आदि जीवोंका उपमर्दन आदि, तथा अग्निकायका आरम्भ करनेसे छह कायका उपमर्दन आदि दोष होते हैं ॥ ४॥४॥४॥ (२३) शय्यातरका पिण्ड लेना। जिसमें शयन किया जाता है उसे शय्या या वसति कहते हैं। उस शय्याके दानसे संसार-समुद्रको तैरनेवाला शय्यातर कहलाता है। अथवा शय्या है संसाररूपी सागरसे पार होनेका आतर (शुल्क) દેષ, ચિકિત્સા કરવાથી આર ભ, અસત્ય આદિ દેષ, જેડા પહેરવાથી કીન્દ્રિય આદિ જીનું ઉપમન આદિ, તથા અગ્નિકાયનો આરંભ કરવાથી છ કાયનું ઉપમર્દન આદિ દેષ લાગે છે (૪) (૨૩) શય્યાતરને પિંડ લે જેમાં શયન કરવામાં આવે છે તેને શા યા વસતિ કહે છે એ શય્યાના દાનથી સ સાર-સમુદ્રને તરનાર શય્યાતર કહેવાય છે અથવા શમ્યા છે સંસારરૂપી સાગરથી પાર થવાનું આતર (શુલ્ક) જેનું, તેને શય્યાતર કહે છે, જેમ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ श्रीदशवकालिकसूत्रे पारावारोत्तरणशुल्कं यस्य स शय्यातरः । अत्र पक्षे यथा कश्चिन्नदी-पारं जिगमिपुर्नाविकाय नदीतरणशुल्कं दत्त्वा तत्पारं गच्छति तथा संसारसमुद्रपारं जिगमिपुहस्थस्तन्नाविकस्वरूपाय महापुरुषाय मुनये शय्या-(वसतिस्थान)-रूपमातरं (तरणशुल्क) दत्त्वा तत्पारं व्रजतीति भावार्थोऽनुसन्धयः। पक्षद्वयेऽपि साधुवासार्थमाज्ञादायक इति फलितम् , तस्य पिण्डः आहारौषध्यादिःशय्यातरपिण्ड इति। शय्यातरविचारः । यद्यपि निवासार्थ साधवे स्वानुमतिप्रकाशको वसतिस्वामी शय्यातरशब्दस्यार्थः, तथापि तस्य तदैव शय्यातरत्वं भवति यदा तत्र वसतौ साधुर्भाण्डोपकरणानि स्थापयेत् , प्रतिक्रमणमाचरेत् , रात्रौ शयीत च । अत्रायं विवेकःजिसका उसे शय्यातर कहते हैं । जैसे कोई नदी पार करनेकी इच्छावाला घटोही (मा) नाविकको नदी पार उतारनेका मूल्य देकर पार उतरता है उसीप्रकार संसाररूपी समुद्रके पार उतरनेकी इच्छावाला गृहस्थ नाविकके समान साधु महापुरुषोंको शय्या-(वसति-स्थान)रूपी उतराई (पार उतरनेका मूल्य) देकर संसारसागरसे पार उतरता है, यह अभिप्राय समझना चाहिए। दोनों पक्षोंका अर्थ एक ही है कि शय्यातर उसे कहते हैं, जो साधुको ठहरनेके लिए मकानकी आज्ञा देता है। उसके आहार औषध आदि पिण्डको शय्यातर-पिण्ड कहते हैं । शय्यातर-विचार साधुको ठहरनेके लिए अपनीअनुमति प्रगट करनेवाला उपाश्रयका स्वामी शय्यातर कहलाता है, तथापि वह इन अवस्थाओंमें शय्यातर होता हैકઈ નદી પાર કરવાની ઈચ્છા–વાળે ઊતારૂ નાવિકને નદી ઊતરવાનું ભાડુ આપીને પાર ઊતરે છે, તેમ સ સારરૂપી સમુદ્રને પાર ઊતરવાની ઈરછા-વાળે गृहस्थ, नावि-समान साधु-भा५३पान शय्या-( वसति-स्थान) ३पी माई (પાર ઊતરવા માટેનું મૂલ્ય) આપીને સંસાર–સાગરથી પાર ઊતરે છે, એવો અર્થ સમજવું જોઈએ બેઉ પક્ષેને અર્થ એક જ છે કે શય્યાતર એને કહે છે કે જે સાધુને રહેવાને માટે મકાનની આજ્ઞા આપે છે, એના આહાર ઔષધ આદિ પિંડને શય્યાતર-પિંડ કહે છે. शय्यात२-वियार. સાધુને રહેવાને માટે પોતાની અનુમતિ આપનાર ઉપાશ્રયને સ્વામી શશ્ચાતર કહેવાય છે, તથાપિ તે આ અવસ્થાઓમાં શય્યાતર થાય છે – Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. ५ शय्यातरविचारः भाण्डोपकरणस्थापन-प्रतिक्रमणाचरण-शयनानां त्रयाणां प्रत्येकं शय्यातरत्वे हेतुत्वम् , तेन प्रतिक्रमणाचरण-शयनाभ्यां प्रागपि भाण्डोपकरणस्थापनानन्तरं वसतिस्वामिनः शय्यातरत्वम् , पूर्वगृहीतवसतौ स्थानसंकीर्णतायां सत्यां कियान मुनिरन्यसाधुसकाशे स्वकीयभाण्डोपकरणानि निधाय अन्यस्मिन् समीपतरवत्तिन्युपाश्रये तत्स्वामिनिदेशमादाय प्रतिक्रमणं कुर्वीत तदा तत्र भाण्डोपकरणस्थापनाभावेऽपि तदीयस्वामिनः शय्यातरत्वम् । अन्यत्र प्रतिक्रमणं कृत्वा स्थानसंकीर्णतायां सत्यां (१) साधु वसतिमें भाण्डोपकरण रख देवे। (२) प्रतिक्रमण करे, और (३) रात्रिमें शयन करे। (१) इन तीनोंमेंसे प्रत्येक क्रिया शय्यातर होने में कारण है। इसलिए प्रतिक्रमण और शयन करनेसे पहले भी भाण्डोपकरण रख देनेपर वसतिका स्वामी शय्यातर हो जाता है। . (२) पहले जिस वसतिको ग्रहण कर लिया हो उसमें स्थानकी संकीर्णता होनेपर कुछ साधु अपने भाण्डोपकरण अन्य साधुओंके समीप रखकर, पासके दूसरे उपाश्रयमें उसके स्वामीकी आज्ञा लेकर प्रतिक्रमण करें तो वहां भाण्डोपकरण न रखने पर भी जहां प्रतिक्रमण किया हो उस वसतिका स्वामी शय्यातर कहलाता है, इस वसतिका नहीं। (३) दूसरे स्थानमें प्रतिक्रमण करके, स्थानकी संकीर्णता होने पर जहां (१) साधु वसतिभा मा.५४२९ (पात्र वगेरे) राणे (२) प्रतिभए अरे भने (3) रात्रे शयन ४२. (૧) આ ત્રણેમાંની પ્રત્યેક ક્રિયા શય્યાતર થવામાં કારણ છે, તેથી પ્રતિક્રમણ અને શયન પૂર્વે પણ ભાડેપકરણ રાખી દે તે વસતિને સ્વામી શય્યાતર થઈ જાય છે (૨) પહેલા જે વસતિનું ગ્રહણ કરી લીધું હોય, તેમા સ્થાનની સકીર્ણતા (સકડાશ) હોવાથી કઈ સાધુ પિતાનાં ભાડાપકરણ બીજા સાધુઓની સમીપે રાખીને, પાસેના બીજા ઉપાશ્રયમાં તેના સ્વામીની આજ્ઞા લઈને પ્રતિક્રમણ કરે તે ત્યાં ભાંડેપકરણ ન રાખવા છતાં પણ જ્યાં પ્રતિક્રમણ કર્યું હોય તે વસતિને સ્વામી શય્યાતર કહેવાય છે, આ વસતિને નહિ (૩) બીજા સ્થાનમાં પ્રતિક્રમણ કરીને સ્થાનની સંકડાશને કારણે જ્યાં Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ श्रीदशवैकालिकसूत्रे " शयनमात्रं यत्राचरितं तत्स्वामिनोऽपि शय्यातरत्वम् । परन्त्वयं विशेषो वोद्धव्यःअन्यसाधुसविधे स्वकीयभाण्डोपकरणानि संस्थाप्याऽन्यत्र शयनप्रतिक्रमणाचरणे मूलोपाश्रयस्वामिनो न शय्यातरत्वम्, भाण्डादिस्थापने साधुसांनिध्यस्यैव निमित्तता न तु 'तत्स्वामिनः साधोरभावे भाण्डादिस्थापनस्य शास्त्राविद्दितत्वात् । शय्यातरत्वनिवृत्तिकरणाय तु पुनः पुनः शय्यातरपरिवर्तनं नाचरणीयम् । पुनः पुनः शय्यातरपरिवर्त्तनं हि साधोर्भिक्षालोभं प्रकाशयति, तत्र वहवो दोपा अपि चापतन्ति, तथाहि शय्यातरपरिवर्त्तने पूर्वशय्यातरो विभावयति-अद्य मम गृहे १- वसतिस्वामिनः । सिर्फ शयन किया हो उस स्थानके स्वामीको भी शय्यातर कहते हैं अर्थात् उस अवस्थामें दोनों शय्यातर हैं । विशेष यह है कि- दूसरे साधुओंके पास भाण्डोपकरण रखकर अन्य ही किसी स्थानपर प्रतिक्रमण और शयन करे तो जहां भाण्डोपकरण रक्खें हैं, उस स्थानका स्वामी शय्यातर नहीं कहलाता। क्योंकि भाण्डोपकरण साधुके नेसराय ( अधीनता) में ही रखे जाते हैं, गृहस्थके नेसरायमें रखना शास्त्रविरुद्ध है । शय्यातरत्वकी निवृत्ति करनेके लिए बारंबार शय्यातरका परिवर्तन नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से यह प्रगट होता है कि साधु भिक्षाका लोभी है; इसमें बहुत से दोष भी उत्पन्न होते हैं। जैसे - शय्यातरका परिवर्तन करनेसे पहला शय्यातर इस प्रकार માત્ર શયન કર્યું" હેાય તે સ્થાનના સ્વામીને પણ શય્યાતર કહે છે. અર્થાત્ એ સ્થિતિમાં બેઉ શય્યાતર છે વિશેષ વાત એ છે કે–ખીજા સાધુએ પાસે ભાંડપકરણ રાખીને ખીજા જ કોઈ સ્થાન પર પ્રતિક્રમણ અને શયન કરે તે જ્યાં ભાડાપકરણુ રાખેલાં હાય, તે સ્થાનને સ્વામી શક્યાતર નથી કહેવાતા, કેમકે ભાડાપકરણ સાધુની નેસરાય (अधीनता) भार રાખવામા આવે છે, ગૃહસ્થની નેસરાયમા રાખવાં એ શાસ્ત્રવિરૂદ્ધ છે. શય્યાતરત્વની નિવૃત્તિ કરવાને માટે વારવાર શય્યાતરને પરિત્યાગ કરવા ન જોઇએ એમ કરવાથી એવુ પ્રકટ થાય છે કે સાધુ ભિક્ષાના લેાલી છે; એમાંથી અનેક દોષ પણ ઉત્પન્ન થાય છે જેમ—શય્યાતરનું પરિવ`ન કરવાથી પહેલા શય્યાતર આ પ્રમાણે વિચારે છે– Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. ५ वसतियाचनाविधिः त्यक्तमदीयोपाश्रयः साधुरसौ निश्चितमागमिष्यतीति तदर्थ सुरसमन्नादिकं साधनीयमिति कृत्वा निष्पादितस्यान्नपानादेराधाकर्मिकत्वापत्तिः । यदि तु स्वार्थ साधुनिमित्तं च निष्पादितं तदा मिश्रजातदोषापत्तिनिवारैव । पूर्व शय्यातरेण त्यतोपाश्रयाय साधवे कस्यचिद् वस्तुनः स्थापने स्थापनादोषः कथं साधुना वारणीयः। अन्ये दोषाः स्वयमूहनीयाः । तस्माद् झटिति शय्यातरपरिवर्तनं न साधुना विधेयम् । वसतियाचनाविधिः । ____ अथोपाश्रयस्वामिनस्तदनुपस्थितौ तत्संरक्षकाद्वा वसतियाचनाविधिरभिधीयतेसोचता है-आज मेरे उपाश्रयकी आज्ञा संतोंने छोड़ दी है, अतः मेरे यहाँ अवश्य आयेंगे, इसलिए उनके वास्ते स्वादिष्ट अन्न आदिक बनाना चाहिए, ऐसा विचार कर बनाया हुआ अन्नादिक आधाकर्मिक होगा। यदि पहला शय्यातर अपने और साधुके लिए इकट्ठावनावेगा तो मिश्रजात दोष लगेगा । साधुके आनेकी संभावनासे वह किसी वस्तुको स्थापना करेगा तो स्थापना (ठवणा) दोष होगा। -इत्यादि अनेक दोष स्वयं समझ लेने चाहिये । इसलिए साधुको बारम्बार शय्यातर यदलना नहीं कल्पता है। उपाश्रय-याचनाकी विधि । वसति-स्वामीसे अथवा उसकी गैर-मौजूदगीमें उसके संरक्षकसे वसति-याचनाकी विधि कहते हैंઆજ મારા ઉપાશ્રયની આજ્ઞા સંતએ છોડી દીધી છે, એટલે મારે ત્યાં જરૂર આવશે; તેથી એમને માટે સ્વાદિષ્ટ અન્નાદિ બનાવવાં જોઈએ. એ વિચાર કરીને બનાવેલું અન્નાદિ આધાકર્મી બનશે, જે પહેલે શય્યાતર પિતાના માટે અને સાધુને માટે એકઠું બનાવશે તે મિશ્રજાત દેષ લાગશે સાધુ આવવાની સંભાવનાથી તે કઈ વસ્તુને સ્થાપન કરશે તે સ્થાપના–(ઠવણ)–દોષ લાગશે. -ઈત્યાદિ અનેક દોષે પિતાની મેળે સમજી લેવા. એ કારણથી સાધુને વારંવાર શશ્ચાતર બદલવા કલ્પતા નથી. (अाश्रय-यायनानी विधि) વસતિના સ્વામી પાસે અથવા તેની ગેરહાજરીમાં એને સંરક્ષકની પોસે વસતિ-યાચના કરવાની વિધિ કહે છે – Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिक सूत्रे निर्वदेत् हे आयुष्मन् ! अस्यां वसतौ स्थातुमिच्छामि, यावति समये स्थातुमादेशो भवदीयो भवेत् तावानेव कालो यापनीयः, तत्रापि यावान् वसतिभूमिभागो ममावस्थानाय भवते रोचेत तावानेव ममापेक्षणीय इति । १७० ततो गृहस्थः प्रतियात् - भगवन् ! मुनीश्वर ! कियतः कालानवस्थास्यते ? तदा ऋतुबद्धशेषकाले सति साधुः "एकमासावधिकाले कल्प्ये यावदवसरं स्थास्यामि " इति वर्षाकाले तु “ चतुरो मासानत्र यापयिष्यामी " ति वदेत् । । सागारिकेण साधुकल्प्य कालमुपलक्ष्य- " एतावतः कालानत्राहं न स्थास्यामि ग्रामान्तरं गमिष्यामी " ति कथने तु साधुरेवं कथयेत् - ' अत्र भवदुपस्थितिसमया मुनि - हे आयुष्मन् ! हम इस वसतिमें ठहरना चाहते हैं । तुम जितने समय तक ठहरनेकी आज्ञा दोगे, उतने समय से अधिक नहीं ठहरेंगे । उसमें भी तुम भूमि का जितना भाग हमें ठहरने के लिए देना चाहो, उतनाही हमारे लिए पर्याप्त है। गृहस्थ पूछे कि हे मुनिराज ! आप कितने समय तक ठहरना चाहते हैं ? | तब मुनि - ऋतुबद शेषकाल हो तो 'एक मासके कल्पमें जब तक अवसर होगा तब तक रहेंगे' ऐसा, यदि चातुर्मास हो तो 'चार मास ठहरनेका हमारा कल्प है' ऐसा कहे। यदि साधुका कल्प-काल सुनकर गृहस्थ कहे कि मैं तो थोड़ेही दिन यहाँ रहूँगा फिर ग्रामान्तर जाऊँगा, तो साधुको कहना चाहिए कि - "जब तक तुम यहाँ रहोगे तब तक ही भुनि-हे आयुष्मन् ! अभे आ वसति ( भान-स्थान ) भां रहेवा रछी છીએ. તમે જેટલા સમય સુધી રહેવાની આજ્ઞા આપશે, તેટલા સમયથી વધારે સમય રહીશુ નહિ તેમાં પણ તમે ભૂમિને જેટલા ભાગ અમને રહેવાને માટે આપવા ઇચ્છે તેટલે જ અમારે માટે પર્યાપ્ત (પૂરતા) છે , ગૃહસ્થ-હે મુનિરાજ ! આપ કેટલા સમય સુધી રહેવા ઇચ્છે છે ? ત્યારે મુનિ—ઋતુખદ્ધ શેષકાળ હાય તા—એક માસના કલ્પમા જ્યા સુધી અવસર હશે ત્યા સુધી રહીશું ? એમ કહે, અથવા જે ચાતુર્માસ હાય તે ચાર માસ વ્હેવાને અમારા કલ્પ છે” એમ કહે જો સાધુના કલ્પકાળ સાંભળીને ગૃહસ્થ કહે કે ‘હુ તેા થાડા જ દિવસ અહીં રહીશ' તે સાધુએ કહેવું જોઈએ કે જ્યાં સુધી તમે અહીં રહેશે। ત્યા સુધી જ અમે રહીશું; તમે જશે Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = अध्ययन ३ गा. ५ शय्यातरगृहे कल्प्याकल्प्यविधिः वधिरेव कालो मया क्षपणीयः, तदनन्तरमिमां वसतिं परिहास्यामीति । पुनः सागारिकेण-‘कियन्तः साधवो भवन्तः ?' इति पृष्टः साधुरभिदधीतसमुद्रतरङ्गवत् साधूनामियत्ताधारणं कः कुर्यात् , यतः कियन्तो गच्छन्ति, कियन्तश्चागच्छन्ति, ये चागमिष्यन्ति तेऽप्यत्रावस्थानं करिष्यन्ति । इत्थं सागारिकाज्ञामादाय तदीयनामगोत्रे विज्ञायोपाश्रये साधुस्तिष्ठेत् । गोचरी गन्तुमुघतो भिक्षुः शय्यातरनामगोत्रे अविज्ञाय भिक्षार्थ न पर्यटेत् । कल्प्याकल्प्यविधिः । शय्यातरगृहे साधोरकल्प्यानि कथ्यन्ते, यथाहम ठहरेंगे, तुम्हारे जाने पर इस वसतिको छोड़ देंगे।" ___यदि गृहस्थ पूछे कि-'आप कितने साधु हैं ? ' तो साधु उत्तर देवें कि-'समुद्रके तरङ्गोंकी तरह साधुओंकीमर्यादा नहीं है क्योंकि कितने ही साधु आते हैं और कितनेही चले जाते हैं, जो आगे वे भी यहीं ठहरेंगे। इस प्रकार गृहस्थकी आज्ञा लेकर, उसका नाम और गोत्र जानकर साधुको ठहरना चाहिए। जबतक साधुको शय्यातरका नाम और गोत्र न मालूम हो जावे तब तक भिक्षाके लिए न जावे । ___कल्प्याकल्प्य-विधि । निम्नलिखित वस्तुएँ शय्यातरके घरकी कल्पनीय नहीं हैंત્યારે આ સ્થાનને અમે છેડી દઈશું ? જે ગૃહસ્થ પૂછે કે “આપ કેટલા સાધુઓ છે?” તે સાધુ ઉત્તર આપે કેસમુદ્રના તરગોની પેઠે સાધુઓની મર્યાદા નથી, કેમકે કેટલાય સાધુઓ આવે છે અને કેટલાય ચાલ્યા જાય છે, જેઓ આવશે તેઓ પણ અહીં જ રહેશે.” એ પ્રમાણે ગૃહસ્થની આજ્ઞા લઈને, એનું નામ અને ગોત્ર જાણીને સાધુએ રહેવું જોઈએ જ્યા સુધી શય્યાતરનું નામ અને શેત્ર સાધુના જાણવામાં ન આવે ત્યા સુધી શિક્ષાને માટે જાય નહિ કયાગ્ર-વિધિ નીચે લખેલી વસ્તુઓ શય્યાતરના ઘરની સાધુને કલ્પ નહિ- - Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ श्रीदर्शवेकालिकसूत्रे (१) अशनम्, (२) पानम्, (३) खाद्यम्, (४) स्वाद्यम्, (५) वस्त्रम्, (६) पात्रम्, (७) कम्बलः, (८) रजोहरणम्, (९) दोरकम, (१०) सूची, (११) कर्चरी, (१२) छुरिका, (१३) नखहरणी, (१४) कर्णशोधनी (कानखुचरनी), (१५) दन्तशोधनी ( दांतखुचरनी), (१६) कण्टकोद्धारणी ( कांटाकाढ़नीचींपिया) (१७) कण्टकः कण्टकोद्धारणीपात्रश्च ( कण्टककुत्थलिका ), (१८) औषधम् , (१९) भैषज्यम्, (२०) शतपाकसहस्रपाकादितैलम्, (२१) पात्ररञ्जनद्रव्यम् ( रोगान सपेदा आदि), (२२) पात्रादौ रन्ध्रकरणानुपयोगी शस्त्रविशेषः (सियार, रेती, इत्यादि), (२३) करगलम्, (२४) लेखनी, (२५) मसी, (२६) मसीपात्रम्, (२७) हिङ्गुलम्, (२८) खटिका, ( खड़ी ), इत्यादीनि । अथ शय्यातरगृहे साधोरुपादेयानि ( कल्प्यानि ) निर्दिश्यन्ते - (१) अशन, (२) पान, (३) खाद्य, (४) स्वाद्य, (५) वस्त्र, (६) पात्र, (७) कम्बल, (८) रजोहरण, (९) डोरा, (१०) सुई, (११) कैंची, (१२) चाकू, (१३) नखहरणी (नहरनी), (१४) कर्णशोधनी ( कानकुचरनी), (१५) दन्तशोधनी (दांतकुचरनी), (१६) चींपिया, (१७) कांटे और कांटों की कोथली, (१८) औषध, (१९) भेषज, (२०) शतपाक - सहस्रपाक आदि तेल (२१) पात्र रंगने के लिए रोगन, सुपेता आदि, (२२) पात्रमें छेद आदि करने के काम में आनेवाले स्यार, रेती आदि ओजार, (२३) कागज़, (२४) लेखनी, (२५) स्याही, (२६) हिंगलु, (२७) खड़ी इत्यादि । निम्नलिखित वस्तुएँ शय्यातरके घर से साधुको कल्पनीय हैं (१) अशन, (२) पान, (3) माद्य, (४) स्वाद्य, (4) वस्त्र, (६) यात्र, (७) अंगणी (८) २मेहरगु, (८) होरो, (१०) सोय, (११) अंतर, (१२) अभ्यु, (१३) नम उतारपानी नेरी, (१४) अन-गोतराणी, (१५) हात - गोतराणी, (१६) याचायो, (१७) अंटो अथवा अटानी अथणी, (१८) मोसड, (१८) लेषण, (२०) शतथा४- सहसપાક આદિ તેલ, (૨૧) પાત્ર ૨ગવા માટેના રેગાન સફ્તા વગેo, (૨૨) પાત્રમાં છિદ્ર આદિ કરવાના કામમા આવવાના સારડી, રતી વગેરે એજાર, (૨૩) કાગળ, (२४) से मा], (२५) शाही, (२६) डींगणी, (२७) जड़ी, हत्याहि નીચે લખેલી વસ્તુએ શાતરના ઘરની સાધુને કલ્પે Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D अध्ययन ३ गा. ५ शय्यातरगृहे कल्प्याकल्प्यविधिः १७३ (१) तृणम् , (२) लोष्टम् , (३) शिलापट्टकः (पेषणी), (४) शिलापुत्रकः, (४) भस्म, (६) पाषाणखण्डम् , (७) इष्टका, (८) धूलिः, (९) पीठम् , (१०) फलकम् (आसनविशेषः), (११) शय्या (शरीरप्रमाणा), (१२) संस्तारकम् (सार्द्धद्वयहस्तप्रमाण आसनविशेषः), (१३) गोमयम् , (१४) सोपधिकशिष्यः, (१५) स्वाध्यायार्थ प्रातिहारिकं (पडिहारी) पुस्तकम् , इत्यादीनि । इदमप्यनुसन्धेयम्यस्योपाश्रयस्य स्वामिने निवासशुल्कं दत्त्वा गृहस्थो निवासाथै साधु निमन्त्रयेत् स उपाश्रयः साधोरकल्प्य इति । उपाश्रयस्यानेकस्वामिनि सति कश्चिदेक एव शय्यातरत्वेन स्थापनीयः, न तु सर्वेऽपि । एतादृशशय्यातरस्य पिण्डे चत्वारो भङ्गा भवन्ति, यथा (१) एकत्र रन्धनम् , एकत्र भोजनम् , तिनका, (२) पत्थर, (३) शिला, (४) लोढ़ी, (५) राख, (६) पत्थरकाटुकड़ा, (७) ईट, (८) धूल, (९) छोटा बाजोट, (१०) फलक (आसन), (११) शय्या (शरीरप्रमाण), (१२) संस्तारक (ढाइ हाथका आसन ), (१३) गोबर, (१४) उपधि-सहित शिष्य, (१५) स्वाध्याय आदिके लिए पडिहारी (वापस दी जानेवाली) पुस्तक आदि। _ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि जिस उपाश्रयको भाड़ेपर साधुके लिए खरीदा हो वह उपाश्रय साधुको कल्पनीय नहीं है। उपाश्रयके अनेक स्वामी हों तो उनमेंसे एक शय्यातर होता है। ऐसे शय्यातरके पिण्डमें चार भंग होते हैं । वे इस प्रकार(१) उसी घरमें बनाना उसी घरमें जीमना। (१)तम, (२) पत्थर, (3) शिक्षा, (४) वाढी, (५) २04, (6) पत्थरने। टु४31, (७) ४८, (८) धूम, (८) नाना मा०४४, (१०) ५१४ (मासन), (११) शय्या (शरी२प्रभाशुनी), (१२) सस्ता२४ (मढी हाथ, मासन), (१3) छ, (१४) पछि સહિત શિષ્ય, (૧૫) સ્વાધ્યાય આદિને માટે પડિહારી (પાછી આપી દેવાય તેવી) પુસ્તક આદિ એ પણ યાદ રાખવું જોઈએ કે જે ઉપાશ્રય સાધુને માટે ભાડે રાખે હોય તે ઉપાશ્રય સાધુને કહપે નહિ. ઉપાશ્રયના અનેક સ્વામીઓ હોય તે તેમાથી એક શય્યાતર થાય છે. એવા શય્યાતરના પિંડમાં ચાર ભાગ હોય છે, તે આ પ્રમાણે-(૧) એજ ઘરમાં Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ श्रीदशवकालिकसूत्रे (२) एकत्र रन्धनम् , अन्यत्र गेहादौ भोजनम् । (३) पृथक-पृथग् रन्धनम् , एकत्र भोजनम् । (४) पृथक् पृथग् रन्धनम् , पृथक्-पृथग् भोजनम् । तत्र द्वितीयचतुर्थभङ्गौ साधोः कल्प्यौ । द्वितीयभङ्गे एकत्र रन्धनेऽपि पश्चात् शय्यातरेतरांशस्य पृथकारे शय्यातरमात्रांशं विहायाऽन्येषां पिण्ड उपादेयः, तत्र तदानीं शय्यातरस्वत्वापगमात् । चतुर्थकल्पे तु पिण्डे शय्यातरांशलेशसंसर्गशङ्कापि नास्ति । शय्यातरस्वत्वापगम एवोपादेयताहेतुरिति निष्कर्षः । एवं पोषितभर्तृकाम अनेकासु सपत्नीष्वेकैव काचित् शय्यातरा कर्तव्या। (२) उसी घरमें बनाना दूसरे-दूसरे घरमें जीमना। (३) दुसरे-दूसरे घरमें बनाना उसी घरमें जीमना। (४) दूसरे-दूसरे घरमें बनाना और दूसरे-दूसरे घरमें जीमना । इन चार भंगोंमेंसे दूसरा और चौथा भंग साधुको कल्पनीय है। दूसरे भंगमें एकत्र रन्धन होने पर भी शय्यातरसे भिन्न मनुष्यके अंशके अलग होजाने पर शय्यातरका भाग छोड़कर अन्यका पिण्ड कल्पनीय है, क्योंकि वहाँ शय्यातरका स्वामित्व नहीं रहता। चौथे भंगमें तो शय्यातरके स्वत्वके संसर्गकी तनिक भी आशंका नहीं है। तात्पर्य यह है कि जहां शय्यातरका स्वत्व (हक) नहीं रहता वही वस्तु साधुको ग्राथ होती है। __ इसी प्रकार यदि एक शय्यातरकी अनेक पत्नियाँ हों और वह ભેજન બનાવવું અને એજ ઘરમાં જમવું (૨) એ ઘરમાં ભેજન બનાવવું અને બીજા ઘરમાં જમવું (૩) બીજા–બીજા ઘરમાં બનાવવું અને એ ઘરમાં જમવું. (૪) બીજા–બીજા ઘરમાં બનાવવું અને બીજા–બીજા ઘરમાં જમવું આ ચાર ભાગમાંથી બીજા અને ચોથા ભાગે સાધુને કલ્પ છે બીજા ભાંગામાં એકત્ર રસોઈ થતી હોય તે પણ શય્યાતરથી ભિન્ન મનુષ્યને ભાગ જૂદ થઈ જતાં શાતરને ભાગ છોડીને અન્યને પિંડ કલ્પ છે, કારણ કે ત્યા શશ્ચાતરનું સ્વામિત્વ રહેતું નથી ચોથા ભાગમાં તે શય્યાતરના સ્વત્વના સંસર્ગની જરા પણ આશકા નથી. તાત્પર્ય એ છે કે જેમાં શય્યાતરનું સ્વત્વ રહેતું નથી; તે વસ્તુ સાધુને માટે ગ્રાહ્ય બને છે એજ રીતે જે એક શય્યાતરની અનેક પત્નીએ હોય અને એ (શય્યાતર) Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अध्ययन ३ गा. ५ शय्यातराहारविवेकः १७५' चत्वारो भङ्गा अत्राऽपि पूर्ववदेव । __अपोषितभर्तृकास तु यया निष्पादितमन्नादिकं नियतं शय्यातरो भुङ्क्ते , सैव शय्यातरा, यद्यनियतं भुङ्क्ते तदा सर्वा अपि शय्यातरा मन्तव्याः, पूर्वोक्ततृतीयभङ्गेऽयं विशेषो बोद्धव्यः-यदा पृथक् पृथग् रन्धनं कृतम् , एकत्र कृत्वा भुक्तं च तदाऽवशिष्टमन्नादिकं विभज्य यदि स्व-स्वगृहं नयेत् तादृशं शय्यातरस्वत्वविरहितमन्नादिकं साधोः कल्प्यमेवेति । एकत्रीकृतमविभक्तं चेन्न कल्प्यमिति तदाशयः । (शल्यातर) परदेश चला गया हो तो उनमें किसी एकको ही शय्यातर बनाना चाहिए। पहलेकी नाई यहां भी चार भंग समझना चाहिए। उनका पति परदेश न गया हो तो वह जिस पत्नीके यहां नियमित रूपसे जीमता हो वही शय्यातर होती है। यदि नियमित रूपसे न जीमता हो कभी कहीं कभी कहीं जीमता हो तो सभीको शय्यातर मानना चाहिए। __ पहलेके चार भंगोंमेंसे तीसरे भंगमें इतना विशेष समझना चाहिएयदि अलग अलग भोजन बनाया गया हो और एकत्र करके जीमा हो तोबचे हुए अन्न आदिको बाँट लेने पर साधु शय्यातरसे अन्यका आहार आदि ले सकते हैं, क्योंकि उसमें से शय्यातरका हिस्सा अलग निकल चुका है । हां इकट्ठा कर लिया हो और बांटा न हो तो साधुको कल्पપરદેશ ચાલ્યા ગયે હોય તે તે પત્નીઓમાંથી કઈ એકને જ શય્યાતર બનાવવી જોઈએ પહેલાંની પેઠે એમાં પણ ચાર ભાગા સમજવા જોઈએ એને પતિ પરદેશ ન ગયે હોય તે તે જે પત્નીને ત્યાં નિયમિત રીતે જ જમતે હોય તે શાતર બને છે જે નિયમિત રીતે ન જમતે હોય અને કેઈવાર એકને ત્યાં અને કઈવાર બીજીને ત્યાં જમતે હોય તે બધી પત્નીઓને શય્યાતર માનવી જોઈએ પહેલાના ચાર ભાગામાના ત્રીજા ભાગમાં એટલું વિશેષ સમજવું કે જે જુદુ જુદુ ભોજન બનાવ્યું હોય અને એકત્ર કરીને જમતા હોય તે વધેલા અન્નદિને વહેચી લીધા પછી સાધુ શય્યાતરથી જૂદાને આહાર આદિ લઈ શકે છે, કારણ કે એમાંથી શય્યાતરને ભાગ જૂદે કાઢવામાં આવી ચૂક હેય છે હા, એકઠું કરેલું હોય અને વહેચ્યું ન હોય તે સાધુને કલ્પ નહિ કેઈ શય્યા Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ श्रीदशवेकालिकसूत्रे कोऽपि शय्यातरी देशान्तरं प्रस्थितः स्वगृहाद्वहिर्गत्वा कुत्रचित् तिष्ठेत्, तत्र यदि गृहादन्यस्थानाद्वाऽशनपानादिकं तदर्थमानीतम्, अथवा वहिः प्रदेश एव निष्पादितं चेत् तदा तदशनादिकं साधोरकल्प्यम्, रात्रिवासाथै वहिर्गतस्य साधोस्तु पुनः कल्प्यमेव । यदि शय्यातरोऽन्यदीयगृहेऽन्यदीयमन्नादिकं परिवेषयेत् तत्रापि शय्यातरेण दीयमानमन्यदीयमप्यशन - पानादिकं साधोरकल्प्यम् । , साधोर्भिक्षादाने शय्यातरस्य सहगमनरूपनिमित्तत्वे सति तत्र भिक्षाग्रहणमकल्प्यम् । ग्रामाद्वहिर पि शय्यातरीयगोशाला दिसत्त्वे तदीयदुग्धादिकं साधोरकल्प्यम् । नीय नहीं है । कोई शय्यातर परदेश जा रहा हो, और घरसे निकलकर कहीं बाहर ठहर गया हो, तो भी उसका अन्न-पान ग्राह्य नहीं है, भलेही वह अन्न-पान घरसे उसके लिए लाया गया हो या अन्य स्थानसे लाया गया हो अथवा वहीं पर तैयार किया गया हो । यदि रात्रिमें निवास करनेके लिए साधु बाहर चला गया हो तो कल्पनीय है । शय्यातर, दूसरे गृहस्थके यहां उसी दूसरे गृहस्थका अन्नादि परोस रहा हो तो भी उसके हाथसे दिया हुआ आहार कल्पनीय नहीं है । यदि किसी भिक्षाकी प्राप्तिमें शय्यातर निमित्त हो अर्थात् दलाली करे तो वह भिक्षा भी साधुको ग्राह्य नहीं है । गांव से बाहर शय्यारकी गोशाला आदि हो तो वहांका दूध आदि भी साधुको ग्राह्य नहीं है । તર પરદેશ જઈ રહ્યો હોય અને ઘરમાથી નીકળીને કયાંક બહાર રહ્યો હૈય તે પણ એનું અન્ન-પાન ગ્રાહ્ય ખનતું નથી, પછી ભલે એ અન્ન-પાન ઘેરથી એને માટે લાવવામાં આવ્યુ હાય અથવા અન્ય સ્થાનથી લાવવામાં આવ્યુ હાય, યા ત્યાંજ તૈયાર બનાવવામા આવ્યુ હાય જો રાત્રે નિવાસ કરવાને માટે સાધુ મહાર ચાલ્યા ગયા હોય તે કહ્યું છે શય્યાત, ખીજા ગૃહસ્થને ત્યા એ ખીજા ગૃહસ્થના અન્નાદિ પીરસે તાપણુ એના હાથથી અપાતા આહાર કલ્પે નહિ જે કેાઇ ભિક્ષાની પ્રાપ્તિમા શય્યાતર નિમિત્ત હાય અર્થાત્ દલાલી કરે તે એ ભિક્ષા પણ સાધુને ગ્રાહ્ય થતી નથી. ગામની બહાર શખ્યાતરની ગેાશાળા આદિ હાય તે ત્યાંનું દૂધ વગેરે પશુ સાધુને ગ્રાહ્ય અને નહિ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. ५ शय्यातराहारविवेकः १७७ शय्यातरगृहे भोक्ता भृत्यादिरपि शय्यातरः । शय्यातरस्य स्वसा दुहिता च तस्मिन् दिवसे पुनरागमनमनिश्चित्य भर्त्तृकुलादागच्छेत्, तदा साऽपि शय्यातरा । यदि तस्मिन्नहनि भर्त्तृकुलं पुनर्गन्तुकामा शय्यातरगृहमागता चेत् सा शय्यातरगृहे एव शय्यातरत्वमुपयाति अन्यगृहे तु न तस्याः शय्यातरत्वमिति बोध्यम् । उपाश्रयस्वामिनि देशान्तरस्थे सति उपाश्रयसंरक्षकादाज्ञामादाय यत्र साधुस्तिष्ठेत् तत्रोपाश्रयस्वामिनि समागते साधुना शय्यातरत्वं स्वामिन्येव कल्पनीयम्, न संरक्षके । शय्यातरप्रदत्तमन्येन स्वीकृतमप्यशनादिकं शय्यातरगृहे साधोरकल्प्यम्, व्यवहारशुद्धयादिदोषात् । शय्यातरके घर जीमनेवाले नोकर-चाकर भी शय्यातर हैं । शय्यातरकी बहिन या बेटी उस दिन वापस लौटने का निश्चय न करके अपनी ससुरालसे आई हो तो वह भी शय्यातर है, यदि वापस लोटनेका विचार करके आई हो तो वह शय्यातरके घर में ही शय्यातर है, दुसरेके घर में नहीं, अर्थात् दूसरेके घरमें दूसरेका आहारादि यदि वह परोसे तो साधु ले सकते हैं । जब उपाश्रयका स्वामी परदेशमें रहता हो और उपाश्रयके रखवाले से आज्ञा लेकर साधु उसमें ठहरें तो जब उपाश्रयका स्वामी आजावे तब वही शय्यातर होता है, रखवाला नहीं । शय्यातरने अशन आदिक दूसरे को दे दिया और दूसरेने चाहे उसे स्वीकार भी कर लिया हो तो भी शय्यातर के घर पर साधु को वह लेना नहीं શય્યાતરના ઘેર જમનારા નાકર-ચાકર પણ શય્યાતર છે, શય્યાતરની મહેન ચ પુત્રી એ દિવસે પાછાં જવાને નિશ્ચય માં વિના પેાતાને સાસરેથી આવી હાય તે તે પણ શય્યાતર છે જે પાછા જવાના વિચાર કરીને આવી હાય તે શય્યાતરના ઘરમા જ તે શય્યાતર છે, ખીજાના ઘરમાં નહિ, અર્થાત્ ખીજાના ઘરમા ખીજાને આહારાદિ જે તે પીરસે તે સાધુ લઇ શકે છે. જો ઉપાશ્રયના સ્વામી પરદેશમા રહેતે હાય અને ઉપાશ્રયના રખેવાળની આજ્ઞા લઈને સાધુ તેમા રહે તા જ્યારે ઉપાશ્રયના સ્વામી આવી જાય ત્યારે તે શય્યાતર ખને છે, રખેવાળ નહિ શખ્યાતરે અશનાદિ બીજાને આપી દીધુ હાય અને ખીજાએ ભલે એને સ્વીકારી પણ લીધું હાય, તે પણુ શય્યાતરને ઘેર સાધુએ તે લેવું એઇએ નહિ, Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ श्रीदशवैकालिकसूत्रे तथा शय्यातरेण दत्तमन्येनास्वीकृतमन्नादिकं शय्यावरगृहादु बहिरपि साधोरकल्प्यम् , तत्र शय्यातरस्वत्वापगमाभावात् । शय्यातरगृहाद् वहिरन्येन स्वीकृतं चेत् तदा साधोः कल्प्यमेव, तत्र शय्यातरस्वत्वापगमादिति बोध्यम् । शय्यातरगृहादहिस्तेन (शय्यातरेण) दत्तमन्येनाऽस्वीकृतं चेत् तत्राऽस्वीकृताशनपानादेः स्वीकारार्थ 'गृह्यतामिद'-मित्यादिपररूपा प्रवर्त्तनाऽपि साधोरकल्प्या । शव्यातरपिण्डग्रहणादिदोपशङ्कासंभवात् । चाहिए, क्योंकि स्वीकार कर लेनेसे शय्यातरंका स्वामित्व तो नहीं रहा पर यहां व्यवहारसे अशुद्धि है। ___ यदि शय्यातरद्वारा दिये हुए अन्नादिको अन्य गृहस्थ न स्वीकार करे तो शय्यातरके घरमें या घरसे बाहर कहीं भी साधुको नहीं ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उस आहारादिमें शय्यातरका स्वत्व रहता है। शय्यातरके घरसे बाहर दूसरेने स्वीकार कर लिया हो तो साधुको कल्पनीय है, क्योंकि उसपर शय्यातरका स्वत्व नहीं रहा। शय्यातरके घरसे बाहर शय्यातरने किसी दूसरेको दिया हो और दूसरेने स्वीकार न किया हो तो उस-अशनादिके स्वीकार करानेके लिए 'तुम ले लो' इत्यादिरूपसे गृहस्थको प्रेरणा करना भी साधुका कल्प नहीं है, क्योंकि उसमें शय्यातरका पिण्ड लेने आदि अनेक दोषोंकी शंका होती है। કારણ કે સ્વીકારી લેવાથી શય્યાતરનું સ્વામિત્વ તે રહ્યું નહિ, પણ તેમાં વ્યવહારથી અશુદ્ધિ રહેલી છે જે શય્યાતરે આપેલું અન્નાદિ અન્ય ગૃહસ્થ ન સ્વીકારે તે શાતરના ઘરમાં યા ઘરબહાર કયાંય પણ તે સાધુએ ગ્રહણ કરવું જોઈએ નહિ, કારણ કે તે આહારાદિમા શય્યાતરનું સ્વત્વ રહેલું હોય છે શય્યાતરના ઘરથી બહાર બીજાએ સ્વીકારી લીધું હોય તે તે સાધુને કપે, કેમકે તે ઉપર શય્યાતરનું સ્વત્વ રહેતુ નથી શય્યાતરના ઘરની બહાર શય્યાતરે કઈ બીજાને આપ્યું હોય અને બીજાએ વીકાર્યું ન હોય તો તે અશનાદિનો સ્વીકાર કરાવવાને માટે “તમે લઈ લ્યો” ઈત્યાદિરૂપે ગૃહસ્થને પ્રેરણા કરવી એ પણ સાધુને કપે નહિ, કારણ કે તેમાં શયાતરનો પિંડ લેવે વગેરે અનેક દેશેની શકા રહે છે. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ अध्ययन ३ गा. ५ शय्यातरपिण्डग्रहणे दोपाः अथ शय्यातरपिण्डग्रहणे दोषाः प्रदश्यन्ते (१) वसतिदौर्लभ्यम् , वसतिस्वामिनो गृहेऽशनपानादिग्रहणनियमे स्वकीयानादिव्ययमालोच्य स्वोपाश्रयनिवासार्थमाज्ञां साधवे न कोऽपि दद्यात् , इत्याशयः। (२) प्रवचनलाघवम् । (३) स्वावासस्थान एव भिक्षालाभसंभावनया परिभ्रमणालस्ये संजाते कदाचित् शय्यातरगृहे आहाराद्यलाभेऽकालभिक्षाचर्याप्रसङ्गः,वेलातिक्रमे सति आर्तरौद्रध्यानप्रसङ्गः, स्वाध्यायान्तरायः, आत्मक्लान्तिश्च, शय्यातरका पिण्ड ग्रहण करनेमें दोष बतलाते हैं (१) शय्यातरका पिण्ड ग्रहण किया जाय तो वसति मिलना दुर्लभ (मुश्किल) हो जायगा। गृहस्थ यह विचारेंगे कि इन्हें स्थान देनेसे अन्नपान आदि भी देना पड़ेगा। ऐसा सोचकर गृहस्थ अपने स्थानमें रहनेके लिए साधुओंको स्थान नहीं देगा। (२) प्रवचनका लाघव होगा। (३) अपने निवासस्थान पर ही भिक्षा मिल जानेकी संभावनासे साधु भ्रमण करनेमें आलस्य करेंगे, और जब शय्यातरके घर पर आहार नहीं मिलेगा तो अकाल-(असमय)-में गोचरी करनेका प्रसंग होगा, और असमयमें भिक्षा न मिलने से आर्त्त-रौद्र ध्यान होंगे, स्वाध्याय आदिमें अन्तराय पड़ेगा, और आत्माको खेद होगा। શય્યાતરને પિંડ ગ્રહણ કરવામાં રહેલા દેશે બતાવે છે. (૧) શય્યાતરને પિંડ ગ્રહણ કરવામાં આવે તે વસતિ (રહેવાનું સ્થાન) મળવું દુર્લભ (મુશ્કેલ) બની જાય ગૃહસ્થ એમ વિચારશે કે એમને સ્થાન આપવાથી અન્ન-પાન આદિ પણ દેવા પડશે એમ વિચારીને ગૃહસ્થ પિતાના સ્થાનમાં રહેવાને માટે સાધુઓને સ્થાન આપશે નહિ (२) प्रवयननु साप शे (૩) પિતાના નિવાસસ્થાન પર જ ભિક્ષા મળી જવાની સંભાવનાથી સાધુ ભ્રમણ કરવામા આળસ કરશે, અને જે શય્યાતરના ઘેરથી આહાર નહિ મળે તે અકાલે (અસમ) ગોચરી કરવાનો પ્રસંગ આવશે, અને અકાલે ભિક્ષા ન મળવાથી આર્ત–રૌદ્ર ધ્યાન થશે, સ્વાધ્યાયાદિમાં અંતરાય પડશે અને આત્માને ખેદ થશે Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - श्रीदशवकालिकसूत्रे (४) तीर्थङ्कराज्ञाभङ्गोऽपीत्यादयो दोषाः प्रसज्जन्ते, (२३), _इति शय्यातरविचारः । आसन्दी=वेत्रासनं, खट्विका च (२४), पर्यङ्का-मञ्चविशेषः, स एव पर्यङ्ककः, स्वार्थे कः । चकाराच्छिविका दोला-ताम्रयानादिग्रहणम् (२५), गृहान्तरनिपचागृहं गृहिनिकेतनं तस्याऽन्तरम् अभ्यन्तरं मध्यमिति यावत् , तस्मिन् निषद्या-निपदनम् उपवेशनमित्यर्थः, यद्यपि व्याकरणादौ निपीदन्त्यस्या'-मिति विगृह्य 'निषद्या-आपणः' इत्युक्तं तथाप्यत्र शास्त्रसङ्केतितत्वाद्भावक्यवन्तोऽयं निपद्याशब्दः (२६), गात्रस्य शरीरस्य उद्वर्त्तनानि मलापनयनद्रव्येण समालेपनानि 'उबटन' इतिलोकमसिद्धानि, चकारादन्येपामपि शरीरसम्बन्धिनां संस्काराणां ग्रहणं वोद्धव्यम् (२७), ___एषु चारित्रघातादयो दोपाः मुस्पष्टा एव ॥ ५ ॥ ५ ॥ ____ (४) इसके सिवाय तीर्थकर भगवानने शय्यातर-पिण्डको अकल्पनीय बताया है, इसलिए उनकी आज्ञाका भंग होगा, इत्यादि अनेक दोप आते हैं ॥ इति शय्यातर-विचार समाप्त | (२४) आसन्दी-वेतकी बनी हुई छिद्रवाली कुर्सीपर बैठना । (२५) पर्यङ्क-एकप्रकारका पलंग, पालखी, डोला, तामजाम आदिका ग्रहण करना। (२६) गृहान्तरनिषद्या-गृहस्थके घरमें बैठना। (२७) गात्रोद्वर्त्तन-शरीर पर उबटन आदि करना ॥५॥ (૪) એ ઉપરાંત તીર્થકર ભગવાને શય્યાતર વિડને અકલ્પનીય બતાવ્યું છે, તે માટે એમની આજ્ઞાને ભંગ થશે, ઈત્યાદિ અનેક દે ઉત્પન્ન થાય છે ઈતિ શય્યાતર-વિચાર સમાપ્ત. (૨૪) આસન્ટી–નેતરની બનાવેલી છિદ્રવાળી ખુરશી પર બેસવુ (२५) पर्यx-मे प्रश्नो ५, पासपी, डिंगो, भ्यानो. (२६) गुडन्तनिषद्या- ना घरमा मेस (૨૭) ગાનશરીર પર સુગધી પદાર્થો ચેળવા (૫) Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. ६ (५२) अनाचीर्णानि ૨૮ मूलम् - गिहिणो वेयावडियं, ૨૯ जाइयाजीववत्तिया । । 30 ३१. तत्तानिव्वुड भोइन्तं, आउरस्सरणाणि य ॥ ६॥ १८१ छाया - गृहिणो वैयावृत्यं, जात्याजीववृत्तिता ( आजीववर्तिता) तप्तानिर्वृतभोजित्व, - मातुरस्मरणानि च ॥ ६ ॥ सान्वयार्थः - (२८) गिहिणो गृहस्थकी वेयावडियं = वैयावच्च करना, (२९) जाइया = जाति से - अपनी ऊंची जाति बताकर आजीववत्तिया = जीविकानिर्वाह करना, (३०) तत्तानिव्वुडभोइत्तं = अग्निमें सिर्फ तपाया हुआ किन्तु शस्त्र से अपरिणत - मिश्र भोजन करना, य= और (३१) आउरस्सरणाणि= बीमार होनेपर पूर्वमुक्त वस्तुका स्मरण करना || ६ || टीका - गृहिणः=गृहस्थस्य, वैयावृत्त्यं = गृहस्थायान्नाऽऽनयनप्रदानादि-लक्षणशुश्रूषाकरणम् (२८), जात्या = 'अहमेतादृशजातिविशिष्टः' इत्याद्याघोषणेन, उपलक्षणमिदं कुलादीनामपि, आजीववृत्तिता - आजीवे = जीविकायां वृत्तिः = स्थितिर्यस्य तद्भावः यद्वा ' आजीववर्त्तिता' इतिच्छाया, आजीवे जीविकायां वर्तितुं शीलं यस्यासौ आवर्त्ती तस्य भाव इति तदर्थ : (२९), तप्तानिर्वृतभोजित्वं=तप्तं=वह्निनोष्णीकृतं च तत् अनिर्वृतं = शस्त्रापरिणतं तप्तानिर्वृतम् अर्द्धपकमिति भात्रस्तद्भोक्तुं शीलमस्य तत्त्रम्, मिश्रान्नादिसेवनमित्यर्थः(३०) आतुरस्मरणम्=आतुराः=रोगादिग्रस्तास्तेषां स्मरणं तत्कर्त्तृकपूर्वोपभुक्त (२८) गृहस्थकी वैयावृत्य ( सेवा - शुश्रूषा ) करना । (२९) अपनी जाति या कुल आदि बताकर भिक्षा लेना । (३०) आधा पक्का आधा कच्चा अर्थात् मिश्र अन्न-पानी आदि लेना । (३१) रोग आदिकी अवस्थामें पहले सेवन किये हुए विषयोंका (२८) गृहस्थनी वैयावृत्य ( सेवा-शुश्रूषा ) ४२वी (૨૯) પાતાની જાતિ યા કુળ ખતાવીને ભિક્ષા લેવી (૩૦) અધપાકાં-અધકાચા અર્થાત્ મિશ્ર અન્નપાણી આદિ લેવાં (૩૧) રાગાદિની અવસ્થામાં પહેલાં સેવેલાં વિષયેનું સ્મરણ કરવું અર્થાત Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ३४ . ३७ श्रीदशवकालिकसूत्रे वस्तुस्मरणमिति फलितम् , यद्वा आतुरशब्दोऽत्र भावप्रधाननिर्देशस्तथाचाऽऽतुरत्वे स्मरणमिति समासः, रोगाद्यवस्थायां पूर्वाऽनुभूतवस्तुस्मरणमित्यर्थः (३१)। चकार इहापि समुच्चयार्थकः । अत्रासंयमादयो दोपा जायन्ते ॥ ६॥ मूलम्-मूलए सिंगवेरे य, उच्छुखंडे अनिव्वुडे । कंदे मूले य सच्चित्ते, फले बीए य आमए ॥७॥ छायाः-मूलकं शृङ्गवेरं च, इक्षुखण्डमनिवृतम् ।। ___ कन्दो मूलं च सचित्तं, फलं वीजं चामकम् ॥ ७ ॥ सान्वयार्थः-य और (३२) मूलए मूला (३३) सिंगवेरे-अदरख (३४) उच्छुखंडे-गन्ना (सेलडी) अनिव्वुडे-शस्त्रसे अपरिणत (३५) कंदे-कन्द य= और (३६) मूले शिफा (तथा) सचित्ते-सचित्त (३७) फले-फल य और आमए सचित्त (३८) बीए-बीज । भावार्थ-इनके सेवनसे अनन्तकाय आदि वनस्पतिकायकी विराधना होती है ॥ ७॥ ___टीका-मूलकं प्रसिद्धम् (३२), शृङ्गवेरं शृङ्गवढेरं शरीरं यस्य तत् आईकमित्यर्थः (३३), च-तथा इक्षुखण्डम् इक्षुशकलम् , एतत्रयम् अनिवृतं शस्त्रापरिणतम् (३४) कन्दः शूरणादिः (३५), मूलं शिफा (३६), च-पुनः, सचित्तं सजीवम् , स्मरण करना अर्थात् बीमारीमें हाय! हाय! करना ॥६॥ (३२) सचित्त मृलाका सेवन करना । (३३) सचित्त अदरख (आदा) का सेवन करना। (३४) सचित्त इक्षुखण्डका सेवन करना। (३५) सचित्त शरण आदि कन्दोंका सेवन करना। (३६) सचित्त मूलका सेवन करना। निमारीमा 'डाय ! डाय !' ४२वी. (६) (३२) सथित्त भूमार्नु सेवन ४२j (૩૩) સચિત્ત આદુનું સેવન કરવું (૩૪) સચિત શેરડીનાં પતીકાં–કકડાં–નું સેવન કરવું (૩૫) સચિત્ત સૂરણ આદિ કંદોનું સેવન કરવું (૩૬) સચિત્ત મૂળનું સેવન કરવું Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. ७-८ (५२) अनाचीर्णानि १८३ फलं = कर्कटी-त्रपुषादिकम् (३७), च = तथा वीजं तिलादि, आमकम् = सचित्तम् (३८), अत्रानन्तकायादिविराधनादिदोषा जायन्ते ॥ ७ ॥ ૩૯ ४० ૪૧ मूलम् - सोवच्चले सिंधवे लोणे, रुमालोणे य आमए । ૪૨ ४३ ४४ सामुद्दे पंसुखारे य, कालालोगे य आमए ॥८॥ छाया:- सौवर्चलं सैन्धवो लवणो, रुमालवणचामकः । सामुद्रः पांशुक्षारच, काललवणश्चामकः ॥ ८॥ सान्वयार्थः-आमए=सचित ( ३९ ) सोवन्चले = सौवर्चल - संचरनमक (४०) सिंधवे लोणे - सैन्धव-सींधानमक (४१) रुमालोणे = रुमानदी से निकला हुआ नमक (४२) सामुद्दे = समुद्री नमक य = और (४३) पंसुखारे = ऊपर नमक य= और आम = सचित (४४) काला लोणे = काला नमक । भावार्थ - उल्लिखित नमक का सेवन करने से पृथ्वीकाय आदिकी विराधना होती है ॥ ८ ॥ टीका - सुवर्चले = देशविशेषे भवः सौवर्चल: = रुचकलवण: (३९), सिन्धुनद्युपलक्षितदेशीयपर्वते भवः सैन्धवः, लवणः = लुनाति = छिनत्ति दूरयति कफादिकमिति लवणः, इदं सौवर्चलादेर्विशेषणपदम् (४०), च= तथा, रुमालवणः =रुमा = विशिष्टलवणाकरभूता काचिन्नदी तस्या लवणः, आमकः = सचित्तः, अस्य पूर्वार्द्ध सर्वत्र सम्बन्धः (४१), (३७) सचित्त ककड़ी खीरा आदि फलोंका सेवन करना । (३८) सचित्त बीजका - तिल आदिका सेवन करना ॥ ७ ॥ ( ३९ ) सचित्त रुचक (सौवर्चल सोंचर) नमक का सेवन करना । (४०) सचित्त सैन्धव (सेंधा नमकका सेवन करना । (४१) सचित्त रुमा (नदीविशेषके) नमकका सेवन करना । (૩૭) સચિત્ત કાકડી ખીરા આદિ ફ્લેનું સેવન કરવુ. तस माहिनु सेवन ४२ (७) (३८) सचित्त मी ( 3 ) सत्ति ३२४ यु ( सौवर्थस - सयण ) नु सेवन (૪૦) સચિત્ત સિંધાલૂણુનું સેવન કરવુ ( ४१ ) सथित्त ३मा (नही विशेषभाथी नीजेसा ) भीहार्नु सेवन ५२. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ' श्रीदशवैकालिकसूत्रे सामुद्रः समुद्रोत्थलवणः (४२), पांशुक्षार: ऊपरलवणः (४३), च-तथा काललवणः कृष्णलवणः 'विइलवण' इतिप्रसिद्धः (४४), आमका-सचित्तः, 'आमक' इत्यस्योत्तरार्द्ध सर्वत्र सम्बन्धः । अत्र पृथ्वीकायविराधनादयो दोषा भवन्ति ।। ८ ॥ ४५ ४९ ४ ७ मलम-धुवणीत वसणे य, वत्थीकम्म-विरेयणे । ४८ ४९५० ५२ अंजणे दंतवण्णे य, गायब्भंगविभूसणे ॥९॥ छायाः-धूपनमिति वमनं च, वस्तिकर्म विरेचनम् । __ अञ्जनं दन्तवर्णश्च, गात्राभ्यङ्ग-विभूपणे ॥९॥ सान्वयार्थ:-(४५) धुवणेत्ति-रोग मिटाने आदिके लिए किसी स्थानमें धूप देना, (४६) वमणे प्रयत्नपूर्वक वमन करना, (४७) वत्थीकम्म बस्तीकर्म करना, य=और (४८) विरेयणे-विरेच-जुलाब लेना, (४९) अंजणे अंजनमुरमा आदि आंजना, (५०) दंतवण्णे-दातून मसी आदिसे दाँत साफ करना, (५१-५२) गायन्भंगविभूसणे-शरीरको तैल आदिसे मालिश करना (६१) तथा वस्त्र आदिसे भूपित करना (५२) ॥९॥ टीका-धूपनं रोगाचपशान्तिनिमित्तं स्थानकादिपु धृपदानम् , सौगन्ध्योत्पत्तिनिमित्तमंशुकादीनां धूपादिना वासनञ्च (४५), (४२) सचित्त समुद्री नमकका सेवन करना। (४३) सचित्त ऊपर नमकका सेवन करना । (४४) सचित्त काले नमकका सेवन करना ॥ ८॥ (४५) रोग आदिकी शान्ति अथवा सुगंधिके लिए स्थानक या वस्त्र आदिमें धूप देना। (૪૨) સચિત્ત સમુદ્રના લુણનું સેવન કરવું (४३) सथित्त ५२ सूर (मास) नु सेवन ४२j (४४) सचित्त मा भानु सेवन ४२७ (८) (૪૫) રાગાદિની શાનિત અથવા સુગંધિને માટે સ્થાનક યા આદિને ધૂપ કર. Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन - ३ गा. ९ (५२) अनाचीर्णानि वमनं=मिजनकभेषजादिप्रयोगेण वान्तिकरणम् (४६), वस्तिकम= वसतः = तिष्ठतः, मूत्रपुरीषावत्रेति, वस्ते= आच्छादयति मूत्राssशयपुटमिति वा वस्तिः = नाभेरधोभागः, तस्याः कर्म = तच्छोधनव्यापारो वस्तिकर्म=मलादिशोधनार्थमपानादिमार्गे वर्त्तिकादिप्रवेशनम्, अपानमार्गेण जलकर्षणं वेत्यर्थः (४७), विरेचनम् - कोष्ठशुद्धयर्थं स्वर्णमुख्यादिविरेचनसेवनम् (४८) अञ्जनं = शोभावशीकरणाद्यर्थं नयनयोः कज्जल-सौवीरादिदानम् (४९), दन्तवर्ण:-वर्णनं-वर्णः, दन्तानां वर्ण:- उज्ज्वलीकरणं दन्तवर्ण: = अङ्गुली-दन्तशाण (मसी) काष्ठादिभिर्दन्त घर्षणम् (५०) । गात्राभ्यङ्ग-विभूषणे=अभ्यङ्गश्च विभूपणं चेस्यनयोरितरेतरयोगद्वन्द्व इत्यभ्यङ्गविभूपणे, गात्रस्य अभ्यङ्ग-विभूषणे गात्राभ्यङ्गविभूषणे, 'द्वन्द्वान्ते द्वन्द्वादौ वा श्रूयमाणं पद प्रत्येकमभिसम्बध्यते ' इतिन्यायाद् गात्रशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धस्तत्र गात्राभ्यङ्गः= गात्रस्य = शरीरस्य अभ्यङ्गः = शतपाक - सहस्रपाकादितैलादिनाऽभ्यञ्जनं मर्दनमिति यावत् (५१), गात्रविभूषण= वस्त्रालङ्करणादिना शरीरपरिष्करणम् (५२), १ चौरादिकाद्वर्णयतेर्भावे घञ् । (४६) दवाई लेकर वमन करना । (४७) मल आदिके शोधनके लिए बस्तिकर्म करना । (४८) कोठेकी शुद्धिके लिए सनाय आदिका जुलाब लेना । (४९) नेत्रों में कज्जल आदि लगाना । (५०) मिस्सी आदि लगाकर दांत रंगना । (५१) शतपाक, सहस्रपाक आदि तेलसे शरीरकी मालिश करना । (५२) शरीरका वस्त्र आभूषणोंसे मण्डन करना । (૪૬) દવા લઈને વમન કરવું (૪૭) મલાદિના શેાધન માટે મસ્તિકર્મ કરવું (૪૮) ઉત્તરની શુદ્ધિને માટે સેનામુખી આદિના જીલાખ લેવા (४८) आषामा अरण (भेश ) भावु १८५ (૫૦) મસ્તી વગેરે લગાડીને વ્રત રગવા (૫૧) શતપાર્ક, સહસ્રપાક આદિ તેલથી શરીરને મન કરવું (५२) शरीरनुं भउन १२ ( शोभावयुं ) Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ धूपनादिनाऽग्निकायप्रभृतिविराधनादिदोपा जायन्ते ९ ॥ सम्प्रत्युपसंहरन्नाह - ' सव्वमेय ' - इत्यादि । ८ ७ मूलम्-सवमेयमणाइन्नं, निग्गंथाण महेसिणं । ए श्रीदशवैकालिकसूत्रे 3 ૫ × ક संजमंमि अ जुत्ताणं, लहुभूयविहारिणं ॥ १० ॥ छायाः - सर्वमेतदनाचीर्ण, निर्ग्रन्थानां महर्षीणाम् । संयमे च युक्तानां लघुभूतविहारिणाम् ॥ १० ॥ सान्वयार्थः- निग्गंधाण = परिग्रहरहित महेसिणं = महर्षियोंके संजमंमि = संयममें जुत्ताणं = लगेहुए य=और लहुभूयविहारिणं = वायुके समान अप्रतिवन्धविहार करनेवालोंके एयं-ये- पूर्वोक्त वाचन सव्वं=सव अणाइन्नं=अनाचीर्ण है । भावार्थ - निर्ग्रन्थ महर्षियोंने पूर्वोक्त इन वावन विपयोंका आचरण नहीं किया, अतः ये अनाचीर्ण कहलाते हैं । साधुओं को इनका आचरण नहीं करना चाहिये ॥ १० ॥ टीका — ग्रन्थान्निर्गता निर्ग्रन्थाः = कनक-रजतादिद्रव्यग्रन्थि- मिथ्यात्वादिभावग्रन्थिरहितास्तेपाम्, महर्षीणाम् महान्तश्च ते ऋषयः महर्षयस्तेपाम्, यद्वा 'महैपिणा' मिति च्छाया, महो= निजहितं तम् एपयन्ति वेपयन्तीति महैपिणस्तेपाम् । संयमे=सकलसावद्यव्यापारोपरमलक्षणे युक्तानां व्यापृतानां दत्तचित्तानामित्यर्थः, इन धूप आदि अनिकाय आदि जीवोंकी विराधना आदि दोष होते हैं ||९|| अब उपसंहार करते हैं- 'सव्वमेय०' इत्यादि । बाह्याभ्यन्तर परिग्रहकी ग्रन्थिसे रहित, अपने हितका अन्वेषण करनेवाले महर्षि तीन करण तीन योगसे सावध व्यापारके त्यागरूप એ ધૂપ આદિથી અગ્નિકાય આદિ જીવેાની વિરાધના આદિ દોષ લાગે છે (૯), ये उपसंचारे. - सव्त्रमेय० छत्याहि બાહ્યાભ્યતઃ પરિગ્રહની ગ્રંથિથી રહિત, પાતાના હિતનું અન્વેષણુ કરનારા મહર્ષિઓએ ત્રણ કરતુ ત્રણ ચેગથી સાવદ્ય વ્યાપારને ત્યજવા રૂપ સકળ સંયમથી Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. १०-११ अनाचीर्णत्यागिमुनिस्वरूपम् च-पुनः लघुभूतविहारिणाम् लघुभूतोवायुस्तद्वदप्रतिवद्धं विहरन्ति तच्छीलास्तेषां वायुवदप्रतिवन्धविहारिणामित्यर्थः । एतत्-पूर्वोक्तं सर्वं द्विपञ्चाशत्मकारकम् अनाचीणम्-अनासेवितम् 'अस्ती'-ति शेषः ॥१०॥१०॥ अनाचीर्णत्यागिनो मुनयः कोदृशा भवन्ति ?-इत्याहमूलम्-पंचासवपरिन्नाया, तिगुत्ता छसु संजया । पंचनिग्गहणा धीरा, निग्गंथा उज्जुदसिणो ॥११॥ छायाः-पञ्चाभूवपरिज्ञाता, त्रिगुप्ताः पट्स संयताः । पञ्चनिग्रहणा धीरा, निग्रन्था ऋजुदर्शिनः ॥ ११ ॥ सान्वयार्थ:-पंचासवपरिन्नाया-पांच आस्रवोंके त्यागी, तिगुत्ता-मनोगुप्ति १ वचनगुप्ति २ कायगुप्ति ३ से युक्त, छम-छह कायमें संजया संयमवान् , पंचनिग्गहणा-पांच इन्द्रियोंके निग्रह करनेवाले धीरा-परीषह उपसर्ग सहनेमें धीर निग्गंथा-मुनि उज्जुदंसिणो मोक्षमार्गके आराधक होते हैं। भावार्थ-जो अनाची)का त्याग करते हैं वे गाथोक्तविशेषणोंसे विशिष्ट होते हैं ॥११॥ टीका-पञ्चास्रवपरिज्ञाताः आस्रवति आक्षरति मिथ्यात्वादिनालिकाभ्यः कर्मसलिलमात्मतडागे यैस्ते आस्रवा हिंसादयः, पञ्च च त आस्रवाचेति पञ्चास्त्रवाः सकल संयमसे युक्त और वायुकी तरह अप्रतिवन्ध विहार करनेवाले मुनिराजोंके ये पूर्वोक्त बावन अनाचीर्ण हैं ॥१०॥ अनाची)का त्याग करनेवाले मुनि कैसे होते हैं ? सो कहते हैं'पंचासच०' इत्यादि। जिनके द्वारा आत्मारूपी तालावमें मिथ्यात्वादिरूप नालाओंसे कर्मरूपी जल आता है उन्हें आस्रव कहते हैं। वे आस्रव मिथ्यात्व યુક્ત અને વાયુની પેઠે અપ્રતિબધ વિહાર કરનારા મુનિરાજના એ પૂર્વોક્ત બાવન અનાચીણું છે અનાચીણેને ત્યાગ કરનારા મુનિઓ કેવા હોય છે? તે કહે છે – पंचासव० त्या જેની દ્વારા આત્મા-રૂપી તળાવમાં મિથ્યાત્વાદિ-રૂપ નાળાઓથી કમરૂપી જળ આવે છે તેને આસવ કહે છે એ આસ મિથ્યાત્વ અવિરતિ આદિ ભેદે Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ७ श्रीदशवकालिकात्रे परि-सर्वतोभावेन ज्ञाताः ज्ञपरिज्ञातोऽनर्थमूलमनुभाविताः प्रत्याख्यानपरिक्षातो हेयत्वेन परित्यक्ता यैस्ते तथोक्ताः, त्रिगुप्ताः तिसृभिर्मनोवाकायगुप्तिभिगुप्ताः, पट्स-पृथिव्यादिकायपट्केपु संयताः सम्यग् यतनावन्तः-पड्जीवनिकायोपमर्दनविरता इत्यर्थः, पञ्चनिग्रहणाः पञ्च-प्रसंगात् पश्चेन्द्रियाणि निगृह्णन्तिधशयन्तीति तथोक्ताः, धीराः परीपहोपसर्गादिपु धृतिमन्तः, निर्ग्रन्थाः मुनयः, ऋजुदर्शिनः ऋजु अबक्रम् अकुटिलस्वभावं यथा स्यात्तथा द्रष्टु शीलं येषां ते तथोक्ताः-सरलहृदया इत्यर्थः, यद्वा अर्जते-उपार्जयति-सम्पादयत्यविचलमुखमिति ऋजुः सम्यग्रत्नत्रयलक्षणो मोक्षमार्गस्तं पश्यन्ति तच्छीला इति ऋजुदर्शिनः, मोक्षमार्गसाधका इत्यर्थः ॥ ११ ॥ ११ ॥ मूलम्-आयावयंति गिम्हेसु, हेमंतेसु अवाउडा । वासासु पडिसंलीणा, संजया सुसमाहिया ॥१२॥ १ 'पञ्चास्रवपरिज्ञाताः' अत्र आहिताग्न्यादित्वान्निष्ठान्तस्य परनिपात । २ ‘पञ्चनिग्रहणाः' अत्र नन्द्यादित्वात्कर्तरि ल्युः ॥ अविरति आदिके भेदसे पांच प्रकारके है। उन आस्त्रवोंको ज्ञ-परिज्ञासे अनर्थोका कारण जानकर प्रत्याख्यान-परिज्ञासे त्यागते हैं। अर्थात अनाचीर्णोका त्याग करनेगले पाँच आसवोंसे विरत हो जाते हैं, मन वचन कायरूप तीन गुप्तियोंसे युक्त होते हैं, पृथिवी आदि पटकायकी यतनामें सावधान रहते हैं, अर्थात् पड्जीवनिकायकी विराधनासे रहित होते हैं, पांच इन्द्रियोंका दमन करते है, परीपह और उपसर्ग सहने में दृढ़ ऐसे मुनि, सरल हृदय होते हैं, अथवा अविनाशी सुखको प्राप्त करनेवाले या मोक्षमार्गके साधक होते हैं ॥११॥ કરીને પાચ પ્રકારના છે. એ આસને સપરિજ્ઞાથી અનર્થોના કારણરૂપ જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાથી ત્યજે છે, અર્થાત્ અનાચીને ત્યાગ કરનારાઓ પાંચ આથી વિરત થઈ જાય છે, મન વચન કાયા–રૂપ ત્રણ ગુપ્તિઓથી યુક્ત થાય છે, પૃથિવી આદિ છ કાયની યતનામા સાવધાન રહે છે, અર્થાત છ ઇવનિકાચની વિરાધનાથી રહિત થાય છે, પાચ ઈદ્રિયેનું દમન કરે છે, પરીષહ અને ઉપર સહેવામા દઢ એવા મુનિઓ સરલાહદય બને છે, અથવા અવિનાશી સુખને પ્રાપ્ત કરનારા યા મેટામાર્ગના સાધક બને છે (૧૧). Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. १२ अनाचीर्णत्यागिमुनिस्वरूपम् १८९ छाया-आतापयन्ति ग्रीष्मेपु, हेमन्तेष्वप्रावृताः । वर्षामु प्रतिसंलीनाः, संयताः सुसमा(हिताः)धिकाः ॥१२॥ सान्वयार्थ:-सुसमाहिया प्रशस्त समाधिवाले संजया संयमी मुनि गिम्हेसु-ग्रीष्मऋतुमें आयावयंति-आतापना लेते हैं, हेमंतेसु-हेमन्तऋतुमें अवाउडा-अल्पवस्त्र या वस्त्ररहित रहते हैं, वासासु-वर्षाऋतुमें पडिसंलीणा-छुएकी भांति इन्द्रियोंका गोपन करते हैं, अर्थात् जिस ऋतुमें जिस प्रकारकी तपस्यासे अधिक कायक्लेश होता हो उस ऋतुमें वही तपस्या करते हैं ॥ १२ ॥ टोका-मुसमाधिकाः समाधीयतेऽस्मिन् मनो विवेकिभिरिति समाधिः-प्रशस्तभावाऽवरथानम् , सु-शोभनः समाधिर्यपांते तथोक्ताः विनय-श्रुतादिसमाधिसम्पन्नाः । यद्वा 'मुसमाहिताः' इति च्छाया, 'निरवद्यव्यापारविधानदत्तावधानाः' इति तदर्थः । संयताप्रवचनमननयतनावन्तः, मुनयः ग्रीष्मेपु-धर्मर्तृषु आतापयन्ति-ऊर्ध्वाभिमुखावस्थानादिना परितापयन्ति स्वतनुमिति शेषः, आतापनां विदधतीति यावत् । नन्ति-नाशयन्ति शैत्याधिक्येन चित्तसमाधिमिति हेमन्ताः हिमोऽन्तोऽवयवोऽस्त्येषामिति वा पृषोदरादित्याद् हेमन्तास्तेषु हिम पुअप्राटताः १ ('हन्तेर्मुट् हि च ' उणादिम् . ३॥ १२९) इति झच् इन्ते हिरादेशो मुडागमो गुणश्च । जिस अवस्थामें आत्मज्ञानी जन प्रशस्त-भावोंसे रमण करते हैं उसे समाधि कहते हैं। अनाचीणोंका त्याग करनेवाले साधु उस विनय श्रुत आदि चार प्रकारकी समाधिको प्राप्त करते हैं, अथवा निरवद्य व्यापार करनेमें सदा सावधान रहते हैं। तथा प्रवचनके मनन करनेमें यत्नवान रहते हैं। ग्रीप्म ऋतुमें सूर्यके सन्मुख मुख करके भुजाएँ फैलाकर आतापना लेते हैं । शीत ऋतुमें थोड़े कपड़े रखते, या कपड़ोंको જે અવસ્થામાં આત્મજ્ઞાની જન પ્રશસ્ત–ભાવોથી રમણ કરે છે તેને સમાધિ કહે છે અનાચીને ત્યાગ કરનારા સાધુઓએ વિનય શ્રત આદિ ચાર પ્રકારની સમાધિને પ્રાપ્ત કરે છે, અથવા નિરવદ્ય વ્યાપાર કરવામાં સદા સાવધાન રહે છે તથા પ્રવચનનું મનન કરવામા યત્નવાનું રહે છે. ગ્રીષ્મ ઋતુમાં સૂર્યની સન્મુખ મુખ રાખીને ભુજાઓને પહોળી કરીને આતાપના લે છે શીત તુમા થડા કપડાં રાખીને યા કપડા દૂર કરીને ઠડીની આતાપના લે છે, Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० श्रीदशवेकालिकसूत्रे ' अनुदरा कन्ये ' - त्यत्रेव नमोऽल्पार्थकत्वेन अल्पमात्ररणाः, यद्वा प्रावरणरहिताः, वर्षासु = मातृकालेषु, प्रतिसंलीना : = कूर्मवदिन्द्रियगोपनतत्परा भवन्तीत्यर्थः । ग्रीष्मादिषु बहुवचनप्रयोगः प्रतिवत्सरमेवं करणसंसूचनाय ॥ १२ ॥ १२ ॥ 1 २ 3 मूलम्—परीसहरिउदंता, धूयमोहा जिंइंदिया | પ ૐ सङ्घदुक्खप्पहीणट्ठा, पक्कमंति महेसिणो ॥ १३ ॥ छाया - परीपहरिपुदान्ता, धूतमोहा जितेन्द्रियाः । सर्वदुःखमहीणार्थ, प्रक्रामन्ति महर्पिणः || १३ || सान्वयार्थः - परीसह रिउता= परीपहरूपी शत्रुओंको जीतने वाले धूयमोहामोहममताके त्यागी जिइंदिया = इन्द्रियों के दमन करनेवाले महेसिणो = महर्षि - मुनिराज सव्वदुक्खप्पहीणट्ठा = समस्त दुःखोंके नाशके लिए पक्कमंति=शक्ति फोडते हैं- उद्योग करते हैं ॥ १३ ॥ टीका - ' परीसह ० ' इत्यादि । परीपहरिपुदान्ताः = परीपहा: सुधा पिपासादय एव रिपवः = शत्रवः पराभवकारित्वात् परीपहरिपवः, दान्ताः = अन्तर्भावितण्यर्थतया दमिताः निगृहीता दूर कर शीतकी आतापना लेते हैं, वर्षा ऋतुमें कछुवे की तरह इन्द्रियोंका गोपन करनेमें तत्पर होते हैं । ग्रीष्म, हेमन्त, और वर्षा शब्द गाथामें बहुवचनान्त है, इससे यह आशय निकलता है कि प्रत्येक वर्षकी ऋतुओं में ऐसा करते हैं ||१२|| 'परीसह ० ' इत्यादि । क्षुधा पिपासा प्रभृति परीपहरूपी शत्रुओंको पराजित करते हैं । વર્ષાઋતુમાં કાચળાની પેઠે ઇન્દ્રિયનું ગોપન કરવામા તત્પર રહે છે ગ્રીષ્મ, હેમન્ત અને વર્ષાં શબ્દ ગાથામાં બહુ-વચનાન્ત છે, તેથી એવે આાય નીકળે છે કે પ્રત્યેક વર્ષની ઋતુઓમા એમ કરે છે (૧૨) परीसह० प्रत्याहि सूण, तरस, प्रत्याहि परीपड-३यी शत्रुभोने पशन्ति रे छे. Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ अध्ययन ३ गा. १३-१४ उपसंहारः उपशमं प्रापिताः परीपहरिपवो यैस्ते तथोक्ताः, धृतमोहा: मुह्यति सदसद्विवेकरहितों भवत्यात्माऽनेनेति मोहोऽज्ञानं धूतः समुज्झितो मोहो यैस्ते तथोक्ताः, जितेन्द्रियाः जितानि रागद्वेषवशास्वविषयप्रवृत्त्युपरोधपूर्वकं वशीकृतानि इन्द्रियाणि चक्षुरादीनि यैस्ते एवंविधा महर्षयः मुनयः सर्वदुःखपहीणार्थ 'महीण', मिति सौत्रत्वाद् भावक्तान्तं गृह्यते, तथा च-सर्वाणि च तानि दुःखानि च सर्वदुःखानि सर्वदुःखानां महीणं परित्यागः सर्वदुःखपहीणं, सर्वदुःखमहीणाय इदं सर्वदुःखाहीणार्थम् अर्थेन नित्यसमासो विशेष्यलिङ्गता चेति वक्तव्य '-मिति समासः । यद्वा 'प्रक्षीणार्थ '-मिति तदर्थः, सर्वदुःखपक्षीणार्थ-शारीरिक-मानसिकनिखिलदुःखविनाशार्थ प्रक्रामन्ति-समुधुञ्जते स्वीयां शक्ति स्फोरयन्तीत्यर्थः॥१३॥ सम्प्रत्यध्ययनमुपसंहरन्नाह-दुक्कराई' इत्यादिमूलम्-दुक्कराई करित्ताणं, दुस्सहाई सहेत्तु य । केइत्थ देवलोएसु, केइ सिझंति नीरया ॥१४॥ छायाः-दुष्कराणि कृत्वा, दुस्सहानि सोद्वा च । केचिदत्र देवलोकेषु, केचित् सिध्यन्ति नीरजस्काः ॥१४॥ सान्वयार्थ-दुक्कराइं-दुष्कर आतापना आदि करित्ताणं-करके य और दुस्सहाई-कायर पुरुषोंके असह्य ( परीपह आदि ) सहेत्तु-सह करके केई १-'निष्ठान्तस्य न पूर्वनिपातः, 'लक्षणहेत्वोः क्रियायाः' इति सूत्रनिर्देशेन पूर्वनिपातप्रकरणस्याऽनित्यत्वात् । सत्-असत्के बोधसे वंचित करनेवाले मोहको नष्ट कर देते हैं। इन्द्रियोंकी अपने अपने विषयमें जो प्रवृत्ति होती है, उस प्रवृत्तिको रोक कर इन्द्रियोंको वशमें करके जितेन्द्रिय होते हैं, ऐसे महर्षि शारीरिक और मानसिक समस्त प्रकारके समस्त दुःखोंका विनाश करनेके लिए पराक्रम फोड़ते हैं ॥१३॥ સત્ અસના બેધથી વંચિત કરનારા મહને નષ્ટ કરી નાખે છે ઈદ્રિની પિતા પોતાના વિષયમાં જે પ્રવૃત્તિ થાય છે, તે પ્રવૃત્તિને રોકીને ઈદ્રિયને વશ રાખીને જિતેન્દ્રિય બને છે, એવા મહર્ષિએ શારીરિક અને માનસિક બધા પ્રકારના બધાં દુઃખને વિનાશ કરવાને માટે પરાક્રમ કરે છે. (૧૩) Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प १९२ श्रीदशवकालिकात्रे कोई-कोई देवलोएसु-स्वाँमें (उत्पन्न होते हैं), केई-कोई-कोई नीरया-कर्मरजसे रहित-मुक्त होकर अत्थ-इसी भवमें सिझंति-सिद्ध होजाते है-मोक्ष चले जाते हैं ॥ १४ ॥ टीका-दुःखेन कर्तुं योग्यानि दुष्कराणि आचरितुमशक्यानि कष्टसाध्यान्यातापनादीनि कृत्वा-विधाय, च-तथा दुःसहानिकातरचित्तैः सोढुमशक्यानि परीपहोपसर्गादीनि सोद्वा संसह्य केचित् गुनयः अवशिष्टकर्माणः देवलोकेषु सौधर्मादिमुरलोकेषु ' यान्ती'-ति शेषः, केचित् कतिपये नीरजस्का! कर्मरजोविनिर्मुक्ताः अत्र अत्रैव भवे सिध्यन्ति-सिद्धा भवन्ति, शिवपदमासादयन्तीत्यर्थः। अत्र टीकान्तरेषु-'अत्रे' त्यस्य 'देवलोकेषु' इत्यनेन सहान्वयकरणं सर्वथा प्रमादविजृम्भितम् ॥ १४ ॥ १४ ॥ १४ ॥ कर्मावशेषेण ये मुनयो देवलोकं गच्छन्ति ते तत्र देवायुष्कमुपभुज्यततश्च्युता आर्यक्षेत्रे मनुष्यजातौ सुकुले च समुत्पद्य तद्भवमोक्षगामिनो भवन्तीति दर्शयितुमाह-'खवित्ता' इत्यादिमूलम्-खवित्ता पुवकम्माई, संजमेण तवेण य । सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता, तायिणो परिनिव्वुडे ॥१५॥ति वेमि॥ उपसंहार करते हुए कहते हैं- 'दुक्कराइं०' इत्यादि । पूर्वोक्त गुणोंसे विशिष्ट मुनि दुष्कर आतापना आदि क्रियाओंका आचरण करके, तथा कायर पुरुष जिन्हें सहन नहीं कर सकते ऐसे परीपह और उपसर्गोंको सह कर अवशिष्ट-कर्मवाले कोई मुनि सौधर्म आदि देवलोकमें जाते हैं । जो कर्मरजसे सर्वथा मुक्त होजाते हैं वे इसी मनुष्य-भवमें सिद्धिपदको प्राप्त करते हैं। दूसरे टीकाकारोंने 'अत्र' शब्दको देवलोकके साथ जोड़ा है वह टीक नहीं है, 'अत्र' शब्दका अर्थ-यहाँ-"इसी भव" ऐसा है ॥१४॥ व उपस डा२ ४२ता हे छ:-दुक्कराई. इत्यादि પૂત ગુણોથી વિશિષ્ટ મુનિ દુષ્કર આતાપના આદિ ક્રિયાઓનું આચરણ કરીને તથા કાયર પુરૂ જે સહન કરી શકતા નથી એવા પરીવહે અને ઉપસર્ગો સહીને અવશિષ્ટ કર્મવાળા કેઈ મુનિ સૌધર્મ આદિ દેવલોકમાં જાય છે જેઓ ક થી સર્વથા મુકત થઈ જાય છે તેઓ આ મનુષ્યભવમાં સિદ્ધિપદને પ્રાપ્ત કરે છે. બીજી ટીકાકાએ સત્ર શબ્દને દેવલેક સામે જે છે તે બરાબર નથી, अत्र शहने मा 'भा समां' मेवो छ (१४) Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. १५ अध्ययनपरिसमाप्ति छाया-क्षपयित्वा पूर्वकर्माणि, संयमेन तपसा च । सिद्धिमार्गमनुप्राप्ता;-स्त्रायिणः परिनिर्वृताः ॥१५॥ इति ब्रवीमि । सान्वयार्थः-सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता-मोक्षमार्गमें प्राप्त हुए ताइणो-षट्कायके रक्षक (मुनि) संजमेण-संयमके द्वारा य और तवेण-तपके द्वारा पुवकम्माइं-पहले बंधे हुए कौंको खवित्ता खपा करके परिनिव्वुडे-मुक्त होते हैं। त्ति बेमि-पूर्ववत् ॥ १५ ॥ इति तृतीयाध्ययनस्य सान्वयार्थः । . टीका-सिद्धिः अविचलमुखनिष्पत्तिस्तस्या मार्गः उपायो ज्ञानादिः सिद्धिमार्गस्तम् अनुप्राप्ताः अनुगताः, त्रायिणः पड्जीवनिकायत्राणपरायणान्तःकरणाः संयमेन सावधव्यापारविरतिलक्षणेन सप्तदशविधेन, च-तथा तपसा-ऊनोदरतादिरूपेण द्वादशविधेन तपश्चरणेन पूर्वकर्माणि वाग्भवोपार्जितज्ञानावरणीयाधष्ट जो मुनि कर्म बाकी रहेनेसे देवलोकमें जाते हैं, वे भी देवलोकसम्बन्धी आयुष्यको भोग कर, वहांसे चव कर आर्य क्षेत्रमें मनुष्यजाति, और सुकुलमें जन्म लेकर उसी भवमें सिद्धि प्राप्त करते हैं । इसी विषयको सूत्रकार आगेकी गाथामें कहते हैं-"खवित्ता" इत्यादि । वे मुनि, मोक्षमार्गमें प्राप्त होकर सर्वसावधव्यापारके त्यागरूप सत्रह प्रकारके संयमसे, तथा अनशन ऊनोदर आदि बारह प्रकारके तपसे, पहले भवोंमें बांधे हुए ज्ञानवरण आदि आठ प्रकारके समस्त જે મુનિ, કર્મ બાકી રહેવાને લીધે દેવલોકમાં જાય છે, તેઓ પણ દેવલેકસ બંધી આયુષ્યને ભેગવીને, ત્યાથી ચવીને આર્યક્ષેત્રમાં મનુષ્યજાતિ અને સુકુળમાં જન્મ લઈને એજ ભવમાં સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરે છે આ વિષયને સૂત્રકાર मानी थामा ४९ छे-खवित्ता० त्यात તે મુનિ, એક્ષ-માર્ગમાં પ્રવેશ કરીને સર્વસાવદ્ય-વ્યાપારના ત્યાગરૂપ સત્તર પ્રકારના સયમથી, તથા અનશન ઊનેદરી આદિ બાર પ્રકારના તપથી પહેલાંના ભામાં બાધેલાં જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ પ્રકારના બધાં કર્મોને નાશ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ श्रीदशवकालिकसुत्रे विधकर्माणि क्षपयित्वा क्षयं नीत्वा परिनिर्वृताः परि सर्वतोभावेन निवृता:कर्मजनित-सन्तापराहित्येन शीतलीभूताः 'भवन्ती'-ति शेपः, सिध्यन्तीत्यर्थः। इति ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ १५ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषा-कलित-ललितकलापाऽऽलापक-प्रविशुद्ध-गद्य-पद्य-नैकग्रन्थनिर्मापक-त्रादिमानमर्दकश्रीशाहू छत्रपति-कोल्हापुररानप्रदत्त-जैनशास्त्राचार्य-पद-भूपितकोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्य-श्रीघासीलालबतिविरचितायां श्रीदशवकालिकसूत्रस्याऽऽचारमणिमपाख्यायां व्याख्यायां तृतीयं 'क्षुल्लकाचारकथा'ऽऽख्यमध्ययनं समासम् ॥३॥ कर्मोको नाश करके सर्वथा मुक्त हो जाते है-कर्मजन्य संतापसे रहित होकर परमशीतलीभूत होते हैं अर्थात् सिद्ध हो जाते हैं । श्रीसुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामीसे कहते हैं-हे जम्बू ! तीसरे अध्ययनका जैसा भाव भगवानने फरमाया है, वैसा ही तुमसे कहता हूँ॥१५॥ इति “क्षुल्लकाचारकथा" नामक तीसरे अध्ययनका हिन्दीभापानुवाद समाप्त ॥३॥ કરીને સર્વથા મુક્ત થઈ જાય છે-કર્મજન્ય સંતાપથી રહિત થઈને પરમશીતલીભૂત થાય છે, અર્થાત્ સિદ્ધ થઈ જાય છે. સુધમાં સ્વામી જ બૂ સ્વામીને કહે છે કે જંબૂ ! ત્રીજા અધ્યયનને જે ભાવ ભગવાને ફરમાવ્યું છે તે હું તને કહુ છું. (૧૫) ઈતિ “ક્ષુલ્લકાચારકથા' નામક ત્રીજા અધ્યયનનુ ગુજરાતી-ભાષાનુવાદ સમાપ્ત. (૩) -:.: Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ . १ प्रवचनस्याप्तोपदिष्टत्वम् ॥ अथ चतुर्थाध्ययनम् ॥ गतं तृतीयाध्ययनं सम्मति चतुर्थमारभ्यते - पूर्वाध्ययने ' अनाचीर्णानि विहायाऽऽचारे धृतिः संधार्या संयमिने ' -त्युक्तम्, आचारथ पविधजीवानां यथावस्थितस्वरूपमवबुध्य तत्संरक्षण पुरस्सरं भवत्यतोऽत्र षड्जीवनिकायानामाऽध्ययने तत्स्वरूपं तत्संरक्षणोपायं च प्रतिपादयिष्यन् प्रवचनस्याऽऽप्तोपदिष्टत्वं प्रदर्शयति- 'सुयं मे' इत्यादि, १९५ मूलम् - सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं - इह खलु छज्जीवणियानामज्झयणं, समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुअक्खाया सुपन्नत्ता, सेयं मे अहिजिउं अज्झयणं धम्मपन्नत्ती ॥१॥ चौथा अध्ययन | अब चौथा अध्ययन कहते हैं तीसरे अध्ययनमें यह प्रतिपादन किया है कि महापुरुषों को अनाचीर्णों का त्याग करके, आचार - ( संयम ) - में दृढता रखनी चाहिए । आचारमें दृढता तब ही होती है जब षट्काय के जीवों का वास्तविक स्वरूप जानकर उनकी रक्षा की जाय, इसलिए इस 'षड्जीवनिकाय ' नामक अध्ययनमें षड्जीवनिकायका स्वरूप और उसकी रक्षाका उपाय बताते हुए 'यह प्रवचन आप्त - ( भगवान्) - द्वारा उपदिष्ट है' इस बातको कहते हैं- 'सुयं मे० ' इत्यादि । અધ્યયન ૪ શું. હવે ચેાથું અધ્યયન કહે છે:— ત્રીજા અધ્યયનમાં એમ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે કે મહાપુરૂષાએ અનાચીાંના ત્યાગ કરીને આચાર ( સંયમ )મા દૃઢતા રાખવી જોઈએ આચારમાં દૃઢતા ત્યારે જ આવે છે કે જ્યારે ષટ્કાયના જીવેનું વાસ્તવિક સ્વરૂપ જાણીને તેમની રક્ષા કરવામા આવે, તેટલા માટે આ ‘ ષĐનિકાય' ચનમાં છ—કાયનું સ્વરૂપ અને તેની રક્ષાના ઉપાયે બતાવતાં भ्यास (लगवान्) द्वारा उहिष्ट छे' मे वातने हे छे सुयं मे० त्याहि. નામના मध्य ८ આ પ્રવચન Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ - -श्रीदशवैकालिका छाया-श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवता एवमाख्यातम्-इह खलु पड्जीवनिकायानामाध्ययनं, श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिता स्वाख्याता सुप्रज्ञप्ता, श्रेयो मेऽध्येतुमध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिः ॥१॥ सान्वयार्थः-आउसं हे आयुष्मन् शिष्य !तेणं-उस भगवया भगवानने एवं ऐसा अक्खायं कहा है, मे मैंने सुयं-सुना है, इह-यहां इस प्रवचन में खलु-निश्चय करके छज्जीवणियानामज्झयणं-पड्जीवनिकाय नामका अध्ययन है, (वह) समणेणं श्रमण भगवया भगवान् कासवेणं-कश्यपगोत्रीय महावीरेणं महावीरने पवेड्या-अवेदित की है, सुअक्खाया सम्यक् प्रकारसे कही है, सुपन्नत्ता-सम्यक्तया बताई है। धम्मपन्नत्तीधर्मपज्ञप्ति (नामक यह ) अज्झयणं-अध्ययन मे-मुझे अहिजिउं-पढनेको सेयं कल्याणकारी है। अर्थात् भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित इस अध्ययनका अध्ययन करना मुझे कल्याणकारी है ॥१॥ टीका-एति गच्छतीत्यायुः संयमलक्षणं नीरुनं दीर्धे वा जीवितमस्यास्तीत्यायुष्मान तत्सम्बुद्धौ हे आयुष्मन् ! गुणवच्छिष्यामन्त्रणमेतत् । अनेन धर्माचरणे भाधान्येनायुपोऽपेक्षा विद्यते इति सूचितम् । तेन लोकत्रयप्रसिद्भेन, यद्वा 'आउसंतेणं' इत्येकपदस्य 'आजुपमाणेन' इति संस्कृतं तस्य मयेत्यनेन सम्बन्धः, तथा च-आडिति मर्यादायाम् , आ-शास्त्रश्रवणमर्यादया जुपमाणेन शुरून् सेवमानेन मयेत्यर्थः । विधिमन्तरेण हि श्रवणे शास्वरहस्य श्रोतुरधोमुखकुम्भस्येव न किञ्चिदप्यन्तः प्रविशति । 'आजुपमाणेने '-ति विशेषणेन हे आयुष्मन् ! अर्थात् संयमरूपी-जीवनवाले ! नीरोग-जीवनवाले ! या दीर्घजीवी !, इस सम्बोधनसे धर्मके आचरणमें आयुष्यकी प्रधानता सूचित की है (१), अथवा 'आउसंतेणं' यह एक पद है, इसकी छाया 'आजुपमाणेन' होती है, अर्थात् गुरुकी सेवा करनेवाले मैने, इस पदसे से गायुसन ! अर्थात सयभ-३ची- न-पा। नीजी -04न-वा! યા દીર્ઘજીવી !, આ સાધનથી ધર્મના આચરણમા આયુષ્યની પ્રધાનતા सुयित ४ी छ (१), गया आउसंतेणं गे गे: ५६ थे, गेनी छाया आजुपमाणेन એ પ્રમાણે થાય છે; અર્થાત ગુરૂની સેવા કરનારા એવા મેં, આ પદથી “ગુરૂની Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. १ भगवच्छन्दार्थः १९७ गुरुमाराध्य शिक्षां लब्धवतः शिष्यस्य शास्त्राध्ययनं सफलीभवतीति द्योतितम् । 1 अथवा 'आउसंतेणं' इत्यस्य ' आवसता ' इति संस्कृतम्, तस्यापि 'मये'त्यनेनैव सम्बन्धः, आह् प्राग्वन्मर्यादार्थ कस्तथाच - आ = शिष्योचितमर्यादया वसता= भगवदन्तिके निवासं कुर्वता मयेत्यर्थः । अनेन शिष्यस्य गुरुकुलनिवासः सूचितः । भगवता भगः = ज्ञानं सकलपदार्थविषयकम् (१), माहात्म्यम् = अनुपम - महनीयमहिमसम्पन्नत्वम् (२), यशः = विविधानुकूल प्रतिकूलपरीप होपसर्गसहनसमुद्भूता जगद्रक्षणमज्ञासमुत्था वा कीर्त्तिः (३), वैराग्यम् = क्रोधादिकषायनिग्रहलक्षणम् (४) मुक्तिः = सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्षः (५), रूपम् = मुरासुरनरहृदयहारि सौन्दर्यम् (६) वीर्यम्=अन्तरायान्तजन्यमनन्तसामर्थ्यम् (9), श्रीः = घातिककर्म'गुरुकी सेवा करके सीखनेसे ही शास्त्रका अध्ययन सफल होता है' यह सूचित होता है (२), 'आवसता' ऐसी भी छाया होती है, अर्थात् शिष्यके योग्य मर्यादा पूर्वक भगवानके समीप रहनेवाले मैंने ( सुना ), इस पदसे गुरुकुलमें निवास करना सूचित किया है। 1 यहां 'भग' शब्द के दश अर्थ हैं - (१) समस्त पदार्थोंको विषय करनेवाला ज्ञान, (२) अनुपम - महिमा, (३) विविध प्रकारके अनुकूल और प्रतिकूल परीषहों को सहन करनेसे उत्पन्न होनेवाली या संसारकी रक्षा करनेवाले अलौकिक ज्ञान से उत्पन्न होनेवाली कीर्त्ति, (४) क्रोध आदि कषायोंका सर्वथा निग्रहरूप वैराग्य, (५) समस्त कर्मोंका क्षयस्वरूप मोक्ष, (६) सुर-असुर और नरोंके अन्तःकरणको हर लेनेवाला सौन्दर्य, સેવા કરીને શીખવાથી જ શાસ્ત્રનું અધ્યયન સફળ થાય છે' એ સૂચિત થાય છે (ર), આવસત્તા એવી પણુ છાયા થાય છે અર્થાત્ શિષ્યને ચેાગ્ય મર્યાદા-પૂર્વક ભગવાની સમીપે રહેનારા એવા મેં ( સાંભળ્યું), એ પદથી ગુરૂકુળમાં નિવાસ કરવાનું સૂચન કરેલુ છે અહી 6 , भग શબ્દના દસ અ છે (૧) બધા પદાર્થાને વિષય કરવાવાળું જ્ઞાન, (૨) અનુપમ–મહિમા, (૩) વિવિધ પ્રકારના અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ પરીષહેાને સહન કરવાથી ઉત્પન્ન થનારી અથવા જગતની રક્ષા કરનારા અલોકિક જ્ઞાનથી ઉત્પન્ન થનારી કીર્તિ, (૪) ક્રોધ આદિ કષાયાના સથા નિગ્રહરૂપ વૈરાગ્ય, (૫) અધા કર્માંના ક્ષય-સ્વરૂપ મેક્ષ, (૬) સુર અસુર અને નાના અંત:કરણને હરનારૂં સૌંદર્ય, (૭) - અંતરાય કના નાશથી ઉત્પન્ન થનારૂ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकम पटलविघटनजनितानन्तचतुष्टयलक्ष्मीः (८), धर्मः अपवर्गद्वारकपाटोद्घाटनसाथ नम् , श्रुतादिरूपो यथाख्यातचारित्ररूपो वा (९), ऐश्वर्य-त्रैलोक्याधिपत्य (१०) चाऽस्यास्तीति भगवान् तेन तथोक्तेन, एवम् धम्मो मंगलमुकिट '-मित्यावा. रभ्य 'तायिणो परिनिम्बुडे ' इत्यन्तं यावत् 'पूर्वोपदिष्टरूपेण, आख्यातम्-परस्परासङ्कीर्णतया कथितम् , मेन्मया श्रुतम् श्रवणगोचरीकृतम् । खलशब्दो वाक्यालङ्कारे । इह-अस्मिन् प्रवचने, पड्जीवनिकायनामाध्ययनम् पट् च ते पृथिव्यसेजोवायुवनस्पतित्रसलक्षणा जीवाश्चेति पड्जीवास्तेपां निकाय समूहः पतिपाधत्वेनास्ति यस्यामागमपद्धतौ सा 'पड्जीवनिकाया' तन्नाम यस्य तच्च तदध्ययनं चेति पड्जीवनिकायानामाध्ययनम् ‘अस्ती'-तिशेपः । १ सूत्रे 'छज्जीवणिया' इति पदं 'स्वराद्यस्य ' (४।४।६२) इति निकायाघटकयकारस्य लोपे, 'क-ग-च-ज-त-द-प य-वां प्रायो लुक् ' इति ककारलोपे कृते 'नि+आ+आ+' इति स्थिते 'सवणे दीर्घः' (१ । २ । ७) इति द्वयोराकारयोः स्थाने दीधैंकादेशे 'अवर्णो यश्रुतिः' इति यकारश्रुत्या णत्वेन च सिद्धम् । (७) अन्तराय कर्मके नाशसे उत्पन्न होनेवाला अनन्त बल, (८) घातिया कर्मरूपी पटलके हट जानेसे प्रादुर्भूत होनेवाली अनन्त-चतुष्टय लक्ष्मी, (२) मोक्षके द्वारको खोलनेका साधन भुत-चारित्र-यथाख्यातचारित्ररूप धर्म, (१०) तीन लोकका आधिपत्य रूप ऐश्वर्य । ये सब भगशब्दके अर्थ जिनमें पाये जाते हैं उन्हें भगवान् कहते हैं। हे आयुष्मन् ! 'धम्मो मंगलमुकिट्ट' से लेकर 'तायिणो परिनिबुडे' तक सब भगवानने ही कहा है और मैंने सुना है। इस अध्ययनका नाम 'षड्जीवनिकाया' है। वह इसलिए कि इसमें पृथिवी आदि पड्जीव-निकायोंका वर्णन है । અનત બળ. (૮) ઘાતી-કમ-રૂપી પડી હટી જવાથી ઉત્પન્ન થનારી અનત ચતુષ્ટય લક્ષમી, (૯) મેસના કારને ખેલવાના સાધન છૂત-ચારિત્રચય यात-यारित्र-३५ धर्मः, (१०) त्रएर सोना माधिपत्य-३५ अश्वर्य. આ બધા ભગ શબ્દના અર્થો જેનામાં મળી આવે છે તેને ભગવાન કહે છે. है मायुप्मन्! धम्मो मंगलमुकि थी बने तायिणो परिनिन्धुढे सुधा બધુય ભગવાને જ કહ્યું છે અને મે સાભળ્યું છે. આ અધ્યયનનું નામ “વડ - જવનિકાયા છે તે એટલા માટે કે એમાં પૃથિવી-આદિ છ જવનિકાયનું વર્ણન છે Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. १ महावीरशब्दार्थः 'सा च पड्जीवनिकाया' इत्यध्याहियते उत्तरवाक्याऽऽकानोत्थानाय, श्रमणेन-श्राम्यति-तपस्यतीति श्रमणस्तेन सार्द्धद्वादशवर्षाणि घोरतपश्चरणाच्छ्रमण इति प्रसिद्धिं लब्धवता, भगवता, काश्यपेन-कश्यपगोत्रोत्पन्नेन महावीरेण= वीरयति-पराक्रमते मोक्षानुष्ठाने इति वीर:' , यद्वा वि-विशेषेण ईस्यतिगमयति मापयति मोक्षं प्रति भव्यजनानिति, वि-विशेषेण ईत्ताच्छति क्षपिताखिलकर्मा मोक्षमिति, वि-विशेषेण ईरयति कम्पयति कषायादिपरिपन्थिन इति, वि-विशेषेण ईरयति-पक्षिपति घनघातिकर्मपटलमवकरनिकरमिवेति, वि-विशेषेण ईरयतिम्प्रेरयति प्रवर्त्तयति संयमाद्यनुष्ठाने पाणिन इति वा वीरः,२ महाँश्वासौ वीरश्व महावीरस्तेन श्रीवईमानस्वामिनेत्यर्थः । प्रवेदिता-कर्पण सकलपाणिगगस्य स्वस्वभाषापरिणमनरूपेण यथावस्थितार्थद्वारेण च वेदिता केवलाऽऽलोकेन १ 'वीर विक्रान्तौ' अस्मात्पचायच् । २ 'ईर गतौ कम्पने च' इत्यादादिकात् 'ईर क्षेपे' इति चौरादिकाञ्चधातोः पचाधच् । - साढे बारह वर्ष तक घोर तपश्चरण करनेके कारण श्रमण नामसे प्रसिद्ध काश्यप गोत्रमें उत्पन्न होनेवाले भगवान महावीरने, वीर शब्दके छह अर्थ हैं, अर्थात्-(१)मोक्षके अनुष्ठानमें पराक्रम करनेवाले, अथवा (२) भव्य जीवोंको मोक्षकी प्राप्ति करानेवाले, या (३) समस्त कर्मोको दूर करके मोक्षको प्राप्त होनेवाले, (४) कषाय आदि शत्रुओंको सर्वथा हरानेवाले, (५) चार घन-घातिया कर्मोको कचरेकी तरह दूर करनेवाले (६) प्राणियोंको विशेष रूपसे संयमके अनुष्ठानमें प्रवृत्ति करानेवाले श्रीवर्द्धमान स्वामीने, प्रत्येक प्राणीकी अपनी २ भाषामें परिणत होनेवाले इस प्रवचनको केवल-ज्ञानसे जानकर प्रतिपादन किया है, पूर्वापर સાડા બાર વર્ષ સુધી ઘેર તપશ્ચર્યા કરવાને કારણે શ્રમણા નામથી પ્રસિદ્ધ, કશ્યપ ગેત્રમાં ઉત્પન્ન થએલા ભગવાન મહાવીરે ( વીર શબ્દના છ અર્થ છે ), અર્થાત્ (૧) મેક્ષના અનુષ્ઠાનમાં પરાક્રમ કરનારા, અથવા (૨) ભવ્ય અને મેક્ષની પ્રાપ્તિ કરાવનારા, યા (૩) સર્વ કર્મોને દૂર કરીને મોક્ષને પ્રાપ્ત થએલા, (૪) કષાય આદિ શત્રુઓને સર્વથા હઠાવનારા, (૫) ચાર ઘનઘાતી કર્મોને કચરાની પિઠે દૂર કરી દેનારા, (૬) પ્રાણીઓને વિશેષરૂપથી સયમના અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્તિ કરાવનારા એવા શ્રી વર્ધમાન સ્વામીએ, પ્રત્યેક પ્રાણની પિતા-પિતાની ભાષામાં પરિણત થવાવાળું આ પ્રવચન કેવળ જ્ઞાનથી જાણને પ્રતિપાદન કર્યું છે, Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदर्शनैकाकिमुत्रे २०० विलोक्य प्रतिपादिता, स्वाख्याता = म्रुष्ठु - पूर्वापराविरोधियुक्तयुक्तिभिरुपपन्नतयाऽऽख्याता = उक्ता, सुमनप्ता - मुष्ठु - सदेवमनुजासुरसभायां दिव्यध्वनिना प्रशप्ता = मरूपिता, यद्वा धातूनामनेकार्थत्वादुपसर्गसमभिव्याहारवलाच्चेह ज्ञपिरा सेवनार्थः, तथा च येनैव रूपेणाऽऽख्याता तेनैव रूपेण प्र=प्रकर्षेण इप्ता = आसेविता, अगुमात्रतोऽपि हिंसां परिहरता भगवता यथाकथितमाचरितेत्यर्थः । तदेतदध्ययनं पड्जीवनिकायाख्यं धर्मप्रप्तिः = धर्मप्ररूपकम्, यद्वा धर्मप्रज्ञप्तिः = एतदपरसङ्गकं मे= मम अध्येतुम् = अभ्यसितुं श्रेयः = प्रशस्यं निःश्रेयसकरमित्यर्थः ॥ १ ॥ एतन्निशम्य जम्बूस्वामी परिपृच्छति - ' कयरा ० ' इत्यादि । मूलम् - कयरा, खलु सा छज्जीवणिया नामज्झयणं समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुअक्खाया सुपन्नत्ता, सेयं मे अहिजिरं अज्झयणं धम्मपन्नत्ती ? ॥२॥ छाया—कतरा खलु सा पड्जीवनिकाया नामाध्ययनं श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिता स्वाख्याता सुप्रज्ञप्ता, श्रेयो मेऽध्येतुम् अध्ययनं धर्ममज्ञप्तिः ? ||२|| सान्वयार्थः -- सा खलु = वह छज्जीवणिया=पड़जीवनिकाया कयरा=कौनसी है ? जो अझयणं नाम अध्ययन नाम से प्रसिद्ध है, जो कासवेणं= कश्यपगोत्रीय समणेण = श्रमण भगवया = भगवान् महावीरेण = महावीर ने विरोध-रहित और युक्तियों सहित कहा है, देव मनुष्य और असुरोंकी सभा-समवसरण - में दिव्य ध्वनि से प्ररूपित किया है । अथवा भगवानने जैसा कहा है वैसा ही उन्होंने आचरण किया है । इसलिए यह पड्जीवनिकाया नामक, धर्मकी प्ररूपणा करनेवाला अध्ययन मेरे अध्ययन करनेके लिए श्रेय है - कल्याणकारी है ॥१॥ यह सुनकर जम्बूस्वामी प्रश्न करते है- 'करा खलु०' इत्यादि । પૂર્વાપર-વિધ-રહિત અને યુકિતએ સહિત કહ્યું છે, દેવ મનુષ્ય અને અસુરીની સભા-સમવસરણુમા દિવ્ય ધ્વનિથી પ્રરૂપિત કર્યું" છે અથવા ભગવાને જેવુ કહ્યુ છે એવુ તેમણે આચક્ષુ કર્યું છે તેથી કરીને આ પટ્ટ નિકાયા નમક ધર્મોની પ્રરૂપણા મારે અધ્યયન કરવાને શ્રેય કલ્યાણુકારી છે (૧) કરનારૂં અધ્યયન या भागने याभी अक्षरे छे-करा खलु० छत्याहि. Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 अध्ययन ४ सू. २-३ षड्जीवनिकायस्वरूपम् २०१ पवेsया = प्रवेदित की है, सुअक्खाया = सम्यक्प्रकार कही है, सुपन्नत्ता = सम्यकतया बताई है। वह धम्मपन्नत्ती अज्झयणं धर्मप्रज्ञप्ति अपरनामक अध्ययन अहिज्जिउं= पढना मे मुझे सेयं = श्रेय है ॥२॥ टीका-सा = पूर्वोक्ता षड्जीवनिकाया खलु कतरा - किंभूता या अध्ययनं नाम=अध्ययनत्वेन प्रसिद्धेत्यर्थः, या च काश्यपेनेत्यादि व्याख्यातपूर्वम् । 'कयरा' इत्यनेन मोक्षाभिलाषिणा शिष्येण सकल क्रियाकलापे स्वाभिमानपरित्यागपूर्वकं गुरुः प्रष्टव्य इति सूचितम् ॥२॥ सम्प्रति धर्मस्वामिन उत्तरयन्ति - 'इमा खलु० ' इत्यादि । मूलम् - इमा खलु सा छज्जीवणिया नामज्झयणं समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुअक्खाया सुपन्नत्ता सेयं मे अहिजिउं अज्झयणं धम्मपन्नत्ती ॥३॥ छाया - इयं खलु सा पदजीवनिकाया नामाध्ययनं श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिता स्वाख्याता सुमज्ञप्ता, श्रेयो मेऽध्येतुमध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिः ॥ ३॥ सान्वयार्थः - सा = वह छज्जीवणिया = पड्जीवनिकाया खलु = निश्चय करके इमा = यह है जो अज्झयणं नाम अध्ययन नाम से प्रसिद्ध है, और जो कासगोसम गेणं = श्रमण भगवया = भगवान् महावीरेण = महावीर ने हे भगवन् ! पहले बताई हुई षदजीवनिकायाका स्वरूप क्या है ? जो इस अध्ययनरूपसे कही गई है अर्थात् जिसका इस समस्त अध्ययनमें वर्णन किया गया है, और भगवान् महावीर स्वामीने यावत् प्ररूपित किया है ? और धर्मप्रज्ञप्ति अपरनाम से प्रसिद्ध उस अध्ययन का पढना मेरे लिये कल्याणकर है ? । इस प्रश्नसे यह आशय निकलता है किमुमुक्षु शिष्यको अहंकार त्यागकर समस्त क्रियाएँ गुरु से पूछनी चाहिए ॥२॥ श्री सुधर्मा स्वामी उत्तर देते हैं- 'इमा खलु०' इत्यादि । હે ભગવાન્ ! પહેલાં ખતાવેલી ષડજીવનિકાયાનું સ્વરૂપ કેવુ છે કે જે આ અધ્યયનરૂપથી કહેવામા આવી છે? અર્થાત્ જેનું આ આખા અધ્યયનમાં વર્ણન કરવામા આવ્યું છે, અને ભગવાન મહાવીર સ્વામીએ જેનું પ્રરૂપણ કર્યું છે ? અને ધર્મોપ્રજ્ઞપ્તિ એમ બીજા નામથી જે પ્રસિદ્ધ છે તે અધ્યયનનું અધ્યયન કરવું મારે માટે કલ્યાણકારક છે ? આ પ્રશ્નથી એવા આશય નીકળે છે કે-મુમુક્ષુ શિષ્ય અહુ કારને ત્યાગ કરીને બધી ક્રિયાએ ગુરૂને પૂછવી જોઇએ (૨) श्री सुधर्मा स्वाभी उत्तर आयेछे -इमा खलु० ४त्याहि Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे पवेड्या = प्रवेदित की है, सुअक्खाया= सम्यकप्रकार कही है, सुपन्नत्ता = सम्यकतया बताई है । वह धम्मपन्नत्ती अज्झयणं धर्मप्रज्ञप्ति अपरनामक अध्ययन अहिज्जिउं= पढना मे मुझे सेयं = श्रेयस्कारी है ||३|| टीका -' इंमा ' इत्यनेन 'विनीतविनेयाय करुणासञ्चारचारुहृदयेन गुरुणा शास्त्रोपदेशः कर्त्तव्यः' इति सूचितम् । अन्यत्प्राग्वत् ||३|| तामेव षड्जीवनिकायां सूत्रकारः प्रदर्शयति = ' तंजहा ' इत्यादि । मूलम् - तंजहा - पुढविकाइया, आउकाइयां, तेउकाड्या, वाउकाइया, वणस्सइकाइया, तसकाइया । पुढवी चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं । आऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं । तेऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं । वाऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं । वणसई चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणणं ॥४॥ छाया - तद्यथा - पृथिवीकायिका : (१), अकायिकाः (२), तेजस्कायिकाः (३), वायुकायिकाः (४), वनस्पतिकायिकाः (५), त्रसकायिकाः ( ६ ) । पृथिवी चित्तवत्याख्याता, अनेकजीवा, पृथक्सत्त्वा, अन्यत्र शस्त्रपरिणतायाः । आपचित्तवत्य आख्याताः, अनेकजीवाः, पृथक्सत्त्वाः, अन्यत्र शस्त्रपरिणताभ्यः । इस पाठका व्याख्यान पहले किया जा चुका है । 'इमा' पद से यह सूचित होता है कि करुणासागर गुरु महाराज विनीत शिष्यको शास्त्रका उपदेश अवश्य देवें ॥३॥ + } उस षड्जीवनिकायको सूत्रकार दिखाते हैं- 'तंजहा' इत्यादि । આ પાડેતુ व्याभ्यान पडेला रवामां आव्यु छे. इमा शण्डथी भ સૂચિત થાય છે કે કાસાગર ગુરૂ મહારાજ વિનીત શિષ્યને શાસ્ત્રને ઉપદેશ ४३२ साये (3) ये षड्लवनिअयने सूत्रभर हर्शाचे -तंजहा- छत्याहि. Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ४ सू, ४ षड्जीवनिकायस्वरूपम् २०३ तेजश्चित्तवदाख्यातम् , अनेकजीवं, पृथक्सत्त्वमन्यत्र शस्त्रपरिणतात् । वायुश्चित्तवानाख्यातो-ऽनेकजीवः पृथक्सत्त्वोऽन्यत्र शस्त्रपरिणतात् , वनस्पतिश्चित्तवानाख्यातोऽनेकजीवः पृथक्सत्त्वोऽन्यत्र शस्त्रपरिणतात् ॥४॥ सान्वयार्थः-तंजहा-वह इस प्रकार है- (१) पुढविकाइया पृथ्वीकायिक, (२) आउकाइया अप्कायिक,(३) तेउकाइया तेजस्कायिक, (४)वाउकाइया वायुकायिक,(५)वणस्सइकाइया वनस्पतिकायिक,(६)तसकाइया-त्रसकायिक॥ अब आचार्य महाराज एक-एककी सचित्तता बतलाते हैं (१) पृथ्वीकाय. ___ सान्वयार्थः-(भगवानने) पुढवी पृथ्वीको चित्तमंतं सचित्त अक्खाया= कही है, वह अणेगजीवा अनेकजीववाली है-अनेकजीवोंका पिण्डभूत है, पुढोसत्ता उसमें अनेकजीव भिन्न-भिन्न रहे हुए हैं, अन्नत्य-सिवाय सत्थपरिणएणं शस्त्रपरिणतके, अर्थात् जहां शस्त्र नहीं लगा है वहांका पृथ्वीकाय सव सचित्त है । इसी प्रकार छहों कायोंमें समझ लेना चाहिये ॥१॥ (२) अपकाय. __सान्वयार्थः-आऊ-जल चित्तमंतं सचित्त अक्खाया कहा है, वह अणेगजीवा=अनेक जीवोंका आश्रयभूत है, पुढोसत्ता वे अनेक जीव भिन्नर रहे हुए हैं, अन्नत्थ-सिवाय सत्थपरिणएणं शस्त्रपरिणतके ॥२॥ (३) तेजस्काय. तेज-तेजस्काय चित्तमंतं सचित्त अक्खाया कहा गया है, वह अणेगजीवा अनेक जीवोंका आश्रयभूत, है, पुढोसत्ता=वे अनेक जीव भिन्नभिन्न रहे हुए हैं, अन्नत्थ-सिवाय सत्थपरिणएणं-शस्त्रपरिणतके ॥३॥ । (४) वायुकाय. वाऊ वायु चित्तमंत सचित्त अक्खाया कहा गया है, वह अणेगजीवा अनेक जीवोंका आश्रय है, पुढोसत्ता-भिन्न-भिन्न जीवोंवाला है, अन्नत्थ-सिवाय सत्थपरिणएणं शस्त्रपरिणतके ॥४॥ (५) वनस्पतिकाय. वणस्सई-वनस्पति चित्तमंतं-सचित्त अक्खाया कही गई है, वह अणे Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ - श्रीदशवकालिकसूत्रे गजीवा अनेक जीवोंका आधार है, पुढोसत्ता-भिन्न-भिन्न जीववाली है, अन्नत्य-सिवाय सत्यपरिणएणं-शस्त्रपरिणतके ॥ ___ भावार्थ:-पांचों स्थावरकाय सचित्त हैं, वे अनेक जीवरूप हैं, उन जीवोंका अस्तित्व पृथक्-पृथक् है, । इन कायोंके जो जो शस्त्र हैं उनसे यदि ये परिणत हो जायँ तो अचित्त हो जाते हैं ॥५॥ ___टीका-तद्यथा-तदेव प्रदश्यते-पृथिवी कठिनस्वभावा सैव कायः शरीरं येषां ते पृथिवीकायास्त एव पृथिवीकायिकाः ('विनयादित्वात्स्वार्थे ठक, तस्येकादेशः' एवमग्रेऽपीयं प्रक्रिया ज्ञेया)। आपः द्रवलक्षणास्ता एव कायो येषां तेऽप्कायास्त एवापकायिकाः। तेजः उष्णलक्षणं तदेव कायो येषां ते तेजस्कायिकाः। वायु:-चलनस्वभावः स एव कायो येषां ते वायुकायिकाः । वनस्पतिकायिका वनस्पतिः लतातरुगुल्मादिलक्षणः कायो येषां ते तथोक्ताः । त्रस्यति शीतातपादिजनितपीडया उद्विजते इति त्रसः, सनस्वभावः कायो येषां तथोक्ताः। अथ प्रत्येकं सचित्ततां दर्शयन्नाह- . कठिनता-स्वभाववाली पृथ्वी ही जिनका शरीर है उन्हें पृथ्वीकायिक कहते हैं। द्रवत्व-स्वभाववाला जल ही जिनका शरीर है उन्हें अपकायिक कहते हैं । उष्णता-स्वभाववाला तेज ही जिनका शरीर है उन्हें तेजस्कायिक कहते हैं । चलन-स्वभाववाला वायु ही जिनका शरीर है उन्हें वायुकायिक कहते है । लता वृक्ष-गुल्म आदि वनस्पति ही जिनका शरीर है उन्हें वनस्पतिकायिक कहते हैं। जिन्हें शीत-आतप (गर्मी) आदिद्वारा उत्पन्न हुई पीडासे त्रास होता है ऐसा चलने-फिरनेवाला काय जिनका होता है उन्हें सकायिक कहते हैं । अब एक-एककी सचित्तता दिखलाते हैं ૧-કઠિનતા–સ્વભાવવાળી પૃથ્વી જ જેનું શરીર છે તેને પૃથ્વીકાયિક કહે છે. ૨-દ્રવત્વ-સ્વભાવવાળું જળ જ જેનું શરીર છે તેને અપકાયિક કહે છે ૩-ઉષ્ણતાસ્વભાવવાળ તેજ જ જેનું શરીર છે તેને તેજસ્કાયિક કહે છે ૪-ચલન-સ્વભાવવાળ વાયુ જ જેનું શરીર છે તેને વાયુકાયિક કહે છે પ–લતા, વૃક્ષ, ગુલ્મ (ગુચ્છ) આદિ વનસ્પતિ જ જેનું શરીર છે તેને વનસ્પતિકાચિક કહે છે જેને ઠંડી ગરમી આદિ દ્વારા ઉત્પન્ન થએલી પીડાથી ત્રાસ થાય છે એવી હરવા-ફરવાવાળી કાયા જેની હેય છે તેને ત્રસકાચિક કહે છે. - હવે અકેકની સચિત્તતા દેખાડે છે Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. ४ पृथिवीकायस्य सचित्ततासिद्धिः पृथिवीकायः । पृथिवी, चित्तं = चेतनाऽस्त्यस्या इति चित्तवती = सात्मिका आख्याता = केवलज्ञानाssलोकावलोकिताखिललोकालोकलक्षणेन भगवता कथिता । २०५ ननु पृथिव्याः कथं सचेतनत्वमिति चेदाकर्णय- (१) पृथिवी सचेतना खानितखनिभूम्यादिषु तत्सजातीयावयवान्तरद्वारा परिपूत्तिदर्शनात् मनुष्यादिशरीरवत्, तद्यथा - मनुष्यशरीरस्थं व्रणादिकं स्वयं भ्रियते, एवमेव खानितं खनिभूम्यादिकं स्वसमानजातीयावयवैभ्रियमाणं प्राक्समानरूपतां भजते तस्माद् गम्यते पृथिव्याः सचेतनत्वम् । पृथिवीकाय । केवल - ज्ञानरूपी आलोकसे समस्त लोक और अलोकको प्रत्यक्ष जाननेवाले भगवानने पृथिवीको सचेतन कहा है । प्रश्न - पृथिवी सचेतन कसे है ? उत्तर -- (१) पृथिवी सचेतन है, क्यों कि उसमें खोदी हुई खान आदिकी भूमि सजातीय अवयवोंसे स्वयमेव भर जाती है, जो सजातीय अवयवोंसे स्वयं भर जाता है वह सचेतन होता है, जैसे मनुष्यका शरीर । अर्थात् मनुष्यके शरीर में घाव हो जाता है वह उसी तरह के अवयवोंसे स्वयं भर जाता है, उसी प्रकार खोदी हुई खान आदिकी भूमि उसी प्रकारके अवयवोंसे भर जाती है और पहलेके समान हो जाती है इसलिए पृथिवी सचेतन है । ' पृथिवीअय ' કેવળ—જ્ઞાન–રૂપી પ્રકાશથી બધા લેાક અને અલેકને પ્રત્યક્ષ જાણવાવાળા ભગવાને પૃથિવીને સચેતન કહી છે પ્રશ્ન–પૃથિવી સચેતન કેવી રીતે છે ? ઉત્તર (૧) પૃથિવી સચેતન છે, કારણ કે તેમા ખેાઢેલી ખાણુ આદિના ભૂમિ સજાતીય અવયવાથી પેાતાની મેળે ભરાઈ જાય છે. જે સજાતીય અવયવેથી સ્વયમેવ ભરાઇ જાય છે તે સચેતન હેાય છે, જેમકે મનુષ્યનું શરીર. અર્થાત્ મનુષ્યના શરીરમા ઘા પડે છે તે એવી તરેહના અવચવાથી પેાતાની મેળે ભરાઇ જાય છે, એ જ રીતે ખેાઢેલી ખાણુ આદિની ભૂમિ એ પ્રકારના અવયવાથી ભરાઈ જાય છે અને પહેલાંની જેવી બની જાય છે, તેથી પૃથિવી સચેતન છે. Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ श्रीदशवकालिकसने (२) यद्वा-पृथिवी सजीवा दैनिकघर्षणोपचयसंदर्शनात् चरणतलवत् , तद्यथाचरणतलं घृष्यते पुष्यति च तद्वत् पृथिव्यपि प्रत्यहं घृष्यते उपचीयते च तस्मातस्याः सजीवत्वम् । अथवा- (३) विद्रुमपाषाणादिरूपा पृथिवी सचेतना काठिन्ये सत्यपि वृद्धयादिदर्शनाव शरीरस्थिताऽस्थ्यादिवत् , तद्यथा-शरीरस्थितमस्थ्यादिकं कमठपृष्ठकठिनं सदपि चित्तवदनुभूयमानमुपचयं च गच्छत् संदृश्यते । एवं विद्वमशिलाद्यात्मिकायाः पृथिव्याः काठिन्ये सत्यपि वृद्धयादिकं प्रत्यक्षं दृश्यते तस्मात्तस्याः सचेतनत्वम् । अथ च. (२) पृथिवी सचेतन है, क्योंकि उसमें प्रतिदिन घर्षण और उपचय देखा जाता है जैसे पैरका तलुवा । अर्थात् जैसे तलुवा घिसकर फिर भर जाता है वैसे ही पृथिवी भी घिस कर भर जाती है इसलिए वह सजीव है । अथवा___(३) विद्रुम (मूंगा) पाषाण आदि-रूप पृथिवी सचेतन है, क्योंकि कठिन होने पर भी उसमें वृद्धि देखी जाती है जैसे शरीरकी हड्डी आदि । अर्थात् जैसे शरीरकी हड्डी आदि कछुएकी पीठकी भाँति कठोर होने पर भी सचेतन है और घढती है उसी प्रकार विद्रुम, शिला आदि-रूप पृथिवीमें कठिनता होनेपर भी वृद्धि आदि गुण प्रत्यक्षसे हैं इससे सिद्ध है कि पृथिवी सचेतन है । अथवा (૨) પૃથિવી સચેતન છે, કારણ કે તેમાં પ્રતિદિન ઘર્ષણ અને ઉપચય જેવામાં આવે છે, જેમકે પગનું તળીઉ અર્થાત્ જેમ પગનું તળીઉ ઘસાઈને પાછું ભરાઈ જાય છે, તેમ પૃથિવી પણ ઘસાઈને ભરાઈ જાય છે, તેથી પૃથિવી स छे. अथवा (3) विदुम (अपाण) पत्थर माहि-३५ पृथिवी सन्यतन छ, २९ है 81 હોવા છતા તેમાં વૃદ્ધિ જોવામાં આવે છે, જેમકે શરીરનાં હાડકાં વગેરે, અર્થાત જેમ શરીરના હાડકા વગેરે કાચબાની પીઠની જેમ કઠેર હોવા છતાં સચેતન છે અને વધે છે, તેવી રીતે વિદ્રુમ, શિલા આદિ-રૂપ પૃથિવીમા કઠિનતા હવા છતા તેમાં વૃદ્ધિ આદિ ગુણ પ્રત્યક્ષ છે. એથી સિદ્ધ થાય છે કે પૃથિવી સતન છે અથવા Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ अध्ययन ४ सू. ४ पृथिवीकायस्य सचित्ततासिद्धिः (४) विद्रुमाद्यात्मिका पृथिवी सचित्ता, छेदादौ तत्सजातीयधातूत्पत्तिदर्शनात् अर्थोऽङ्कुरवत् , तद्यथा-अर्शसोऽङ्गुरे छिन्नेऽपि पुनस्तत्समान एवाङ्कुरः प्रादुर्भवति, एवं विद्रुमशिलाद्यात्मिकायाः पृथिव्याः खन्यादौ छेदेऽपि तत्सजातीयधातुभिस्तद्रिक्तभागः परिपूर्यते, तस्मात्सिद्धं पृथिव्याः सचित्तत्वम् । . ___अनेकजीवा अनेके बहवो जीवाः एकेन्द्रिया यस्यां सा तथोक्ता । पृथक्सत्त्वा-पृथक्-पृथग्भूताः अगलासंख्येयभागमात्रावगाहनामाश्रित्याऽनेके विभिन्नरूपेण स्थिताः सत्त्वाः-स्पर्शनेन्द्रियवन्तो जीवा यस्यां सा तथोक्ता 'आख्याता' इति पूर्वोक्तेनान्वयः, भगवता प्ररूपितेति तदर्थः । ननु तर्युक्तेस्वरूपायां जीवपिण्डभूतायां पृथिव्यां गमनागमनादिक्रियां कुर्वतां (४) विद्रुम आदिरूप पृथिवी सचित्त है, क्योंकि उसे काट देने पर भी सजातीय धातुकी उत्पत्ति देखी जाती है। जैसे शरीरमें मसा। अर्थात् जैसे मसाको ऊपरसे काट डालने पर भी फिर उसीके समान अवयव ऊग आते हैं, वैसेही-विद्रुम और शिला आदिको खानमें काट देने पर भी सजातीय स्कन्धोंसे कटा हुआ भाग फिर भर जाता है, अतः पृथिवीकी सचेतनता सिद्ध है। ___ वह पृथिवी अनेक जीववाली है और वे स्पर्शनेन्द्रियवाले पृथिवीकायके जीव अंगुलके असंख्यातवें-भाग-प्रमाण अवगाहनाको आश्रय करके भिन्न-भिन्न स्वरूपसे स्थित हैं, ऐसा भगवानने कहा है। शिष्य गुरुसे पूछता है-हे गुरु महाराज ! जबकि पृथिवी जीवोंका (૪) વિદ્ગમ આદિ રૂપ પૃથિવી સચિત્ત છે, કારણ કે તેને કાપી નાંખવા છતાં પણ સજાતીય ધાતુની ઉત્પત્તિ જોવામાં આવે છે, જેમકે શરીરમાં મસા, અર્થાત જેમકે મસાને ઉપરથી કાપી નાખ્યા છતા પણ તેના સમાન અવયવે ઊગી આવે છે, તેમ જ વિક્રમ અને શિલા આદિને ખાણમાં કાપી નાખ્યા છતાં સજાતીય સ્કથી કાપેલે ભાગ પાછો ભરાઈ જાય છે તેથી પૃથિવીની સચેત નતા સિદ્ધ થાય છે. से पृथिवी मने-04-वाणी छ, मने से स्पर्शनन्द्रिय-वारा पृथिवीકાયના જી આગળના અસ ખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણુની અવગાહનાને આશ્રય કરીને ભિન્ન-ભિન્ન સ્વરૂપે સ્થિત છે, એવુ ભગવાને કહ્યું છે શિષ્ય ગુરૂને પૂછે છે-હે ગુરૂ મહારાજ જે પૃથિવી, જીના પિંડ–રૂપ છે Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ - - श्रीदशवकालिकाने संयमिनामहिंसाव्रतस्य संरक्षणं कथं भवति ? प्रत्युताऽवश्यकरणीयोच्चारप्रस्रवणादिक्रियया हिंसैव भवत्यतोऽहिंसाव्रतपालनं वन्ध्यामृतपालनवदसम्भवमित्यत आह-'अन्यत्रे 'ति, शस्त्रपरिणताया अन्यत्र-शस्त्रपरिणतां पृथिवीं वर्जयित्वाऽन्या पृथिवी सजीवेत्यर्थः, शस्यते-हिंस्यते प्राणिगणोऽनेनेति शस्त्रं, तद् द्विविधं-द्रव्यभावभेदात् । तत्र द्रव्यशस्त्रं-स्वपरोभयकायलक्षणम् , भावशस्त्रं पृथिवीं प्रति दुष्पणिहितमनोवाकायात्मकम् , एवमेवान्येषां तत्तत्कायानामपि भावशस्त्र वोद्धव्यम् । स्वकायशस्त्रं पृथिव्याः स्वेतरवर्णगन्धादिमती पृथिव्येव, यथा पीतमृत्तिकायाः पिण्डरूप है तो उस पर अहिंसावतकी रक्षा कैसे होगी ? उच्चार-प्रस्रवण आदि क्रियाएँ अनिवार्य हैं, और इन क्रियाओंके करनेसे हिंसा अनिवार्य है, इसलिए अहिंसावतका पालन ऐसा ही असंभव है जैसा वन्ध्याके पुत्रका पालन करना। उत्तर-हे शिष्य ! शस्त्रपरिणत पृथिवीके सिवाय अन्य समस्त पृथिवी सचित्त है। जिससे प्राणियोंकी हिंसा होती है उसे शस्त्र कहते हैं। शस्त्र दो प्रकारका है-(१) द्रव्य-शस्त्र और (२)भाव-शस्त्र । उनमें से स्व-काय, पर-काय और उभय-कायको द्रव्य-शस्त्र कहते हैं। पृथिवोके विषयमें मन-वचन-कायकी दुष्परिणति करना भाव-शस्त्र है । इसी प्रकार अन्य सब कायके जीवोंके भाव-शस्त्र समझ लेने चाहिए। अपनेसे भिन्न वर्णगन्धवाली पृथिवी ही पृथिवीका स्वकाय-शस्त्र है, जैसे તે તેની ઉપર ગમનાગમન આદિ ક્રિયાઓ કરનારા સમયમીઓના અહિંસાબતની રક્ષા કેમ થશે? ઉચ્ચાર, પ્રસવણ આદિ ક્રિયાઓ અનિવાર્ય છે, અને એ ક્રિયાઓ કરવાથી હિંસા અનિવાર્ય છે, તેથી અહિંસા-વ્રતનું પાલન એવું અસંભવિત છે કે જેવુ વધ્યાના પુત્રનું પાલન કરવું અસભવિત છે ઉત્તર-હે શિષ્ય શસ્ત્રપરિણત પૃથિવી સિવાયની બધી પૃથિવી સચિત્ત છે જે વડે પ્રાણીઓની હિંસા થાય છે, તેને શસ્ત્ર કહે છે शन में प्रा२ना छ (१) द्रव्य-२ (२) मा-श सभा २४ाय, પરકાય અને ઉભયકાયને દ્રવ્ય-શસ્ત્ર કહે છે, પૃથિવીના વિષયમાં મન વચન કાયાથી દુષ્પરિણુતિ કરવી એ ભાવશસ્ત્ર છે એજ રીતે બીજી બધી કાયાના જીના ભાવશસ્ત્ર સમજી લેવા પિતાથી ભિન્ન વર્ણ–ગધ-વાળી પૃથિવી જ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अध्ययन ४ सू. ४ अप्कायस्य सचित्ततासिद्धिः २०९ कृष्णमृत्तिका शस्त्रमित्यादि, परकायशस्त्रं-जलाग्निगोमयचरणसंमर्दनादि । उभयकायशस्त्रं-जलादिमिश्रमृत्तिका । एवं च शस्त्रपरिणतायाः पृथिव्या अचित्ततया न तत्रोच्चार-प्रस्रवणादिक्रियासम्पादने काऽपि क्षतिर्मुनीनां संयमपालन इति सिद्धम्। अप्कायः । आप: भौमाऽऽन्तरिक्षोभयलक्षणाः, चित्तवत्यः सचेतनाः, आख्याताः= भगवताऽभिहिताः, तथाहि-भूमिगता आपः सचेतनाः खातभूमिसजातीयस्वभावपीली मिट्टीका शस्त्र काली मिट्टी है । जल, अग्नि, गोवर तथा पैरोंसे रौंदना आदि परकाय शस्त्र हैं । जल आदिसे मिली हुई मिट्टी उभयकाय शस्त्र है। इस प्रकार शस्त्रपरिणत पृथिवी अचित्त है, अतः उस पर आहारविहार आदि क्रियाएँ करनेसे मुनियोंके अहिंसावत पालनेमें कुछ भी क्षति नहीं होती। (अपकाय) पार्थिव और आकाशीय दोनों प्रकारके जलोंको भी भगवानने सचित्त कहा है। (१) भूमिमें रहा हुआ जल सचेतन है, क्योंकि खोदी हुई भूमिमें सजातीय-स्वभाववाला जल उत्पन्न होता है, जैसे मेंढकभूमिको खोदनेसे जैसे मेंढक निकलता है और वह सचेतन होता है उसी प्रकार पानी પૃથિવીનું સ્વકીય-શસ્ત્ર છે, જેમ પીળી માટીનું શસ્ત્ર કાળી માટી છે. જળ, અગ્નિ, છાણ તથા પગ વડે ખુદવું વગેરે પરકાય–શસ્ત્ર છે. જળ આદિથી મળેલી માટી એ ઉભયકાય શસ્ત્ર છે. એ રીતે શસ્ત્રપરિણત પૃથિવી અચિત્ત છે, તેથી એની ઉપર આહાર વિહાર આદિ ક્રિયાઓ કરવાથી મુનિઓના અહિંસા વ્રતના પાલનમાં કાંઈ પણ ક્ષતિ આવતી નથી. અપૂકાય પાર્થિવ અને આકાશીય બેઉ પ્રકારના જળને પણ ભગવાને સચિત્ત કહ્યું છે (૧) ભૂમિમાં રહેલું જળ સચેતન છે, કારણકે ખેદેલી જમીનમાં સજાતીય સ્વભાવવાળું જળ ઉત્પન્ન થાય છે, જેમકે દેડકો ભૂમિને દવાથી જેમ દેડકો નીકળે છે અને તે સચેતન હોય છે, તેમ પાણી પણ નીકળે છે તેથી તે પણ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० श्रीदशवैकालिकसूत्रे सम्भवात् मण्डूकवत् । आन्तरिक्ष्योऽ प्यापः सचेतनाः मेघादिविकृतौ स्वाभाविकसम्भूयसंपतनशीलत्वान्मीनवत् । यद्वा - आपः सचेतनाः, ग्रीष्महेमन्तयोः स्वाभा विकशैत्यौष्ण्यवाष्पाद्युपलम्भान्मनुष्यशरीरवत्, तद्यथा - भूमिगृहस्थितनरस्य शरीरं ग्रीष्मे शीतलं हेमन्ते चोष्णं भवति, मुखाच वाष्पमुद्गच्छति, एवमेव गभीरतरतडागकूपादिस्थसलिलं हेमन्ते सवाष्पोद्गमामुष्णतां, ग्रीष्मे च शीतलतां धत्ते । . अनेकजीवाः पृथक्सत्त्वाः, आख्याता इत्यनेनान्वयः, व्याख्या चैषां पदानां प्रबोध्या । निकलता है, अतएव वह भी सचेतन है । आकाशका भी जल सचेतन है, क्योंकि मेघादि विकार होने पर स्वयं ही गिरने लगता है - जैसे मछली । अथवा (२) जल संजीव है, क्योंकि उसमें ग्रीष्म और हेमन्त ऋतुमें स्वाभाविक शीतता उष्णता और भाफ आदि देखे जाते हैं, जिसमें ग्रीष्मादि ऋतुओं में शीतता आदि पाये जाते हैं वह सजीव होता है, जैसे मनुष्यका शरीर । जैसे भोंयरे में स्थित मनुष्यका शरीर ग्रीष्म ऋतु में शीत और हेमन्त ऋतुमें उष्ण होता है, तथा हेमन्त ऋतुमें मुँह से भाफ निकलती है, वैसेही खूब गहरे तालाव या कुएका जलभी हेमन्तमें भावाला और उष्ण होता है तथा ग्रीष्ममें शीतल होता है । अनेकजीव और पृथक्सत्त्व आदि पदोंका व्याख्यान पहले कहे हुए पृथिवीकाय आलापकके समान समझना चाहिए । સચેતન છે આકાશનુ જળ પણ સચેતન છે, કારણ કે મેઘાદ્િ–વિકાર થવાથી સ્વય પડવા લાગે છે, જેમકે માછલી અથવા (ર) જળ સજીવ છે, કારણ કે તેમા ગ્રીષ્મ અને હેમન્ત ઋતુમા સ્વાભાવિક શીતતા ઉષ્ણુતા અને ખાફ઼ આદિ જવામાં આવે છે જેમા ગ્રીષ્માદિ ઋતુઓમા શીતળતા આદિ જણાઈ આવે છે તે સજીવ હાય છે, જેમકે માણસનું શરીર જેમ ભોંયરામાં રહેલા માણુસનું શરીર ગ્રીષ્મ−ઋતુમા શીતલ અને હેમંત ઋતુમા ગરમ होय छे, तथा हेमंत ऋतुमा होमांथी जाई ( दशण ) नीउणे छे, मेन रीते ખૂબ ઉંડા તળાવ ચા કુવાનું જળ પણ હેમત ઋતુમા ખાવાળુ અને ઉષ્ણુ હાય છે તથા ગ્રીષ્મમા શીતળ હાય છે અનેક જીવ તથા પૃથસત્ત્વ આદિ શબ્દનું વ્યાખ્યાન પહેલા કહેલા પૃથિવીકાયના આલાપકની જેમ સમજવું.. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. ४ तेजस्कायस्य सचित्ततासिद्धिः नन्वेवमपां जीवपिण्डभूततयाऽद्भिविना संयमिनां संयमयात्रा असंभवनिर्वाहाँ स्यादित्यत आह-शस्त्रेत्यांदि,शस्त्रपरिणताभ्योऽन्यत्र-शस्त्रपरिणतां अपो विहायान्यां आपः सचित्ता इत्यर्थः । शस्त्रं-द्रव्यभावभेदाद्विविध, द्रव्यशस्त्रं-स्वकायपर-कायोभयकायस्वरूपं, भावशस्त्रम्-अपः प्रति मनोवाकायानां दुष्पणिहितत्वम् । तत्रं स्वकायशस्त्रं-तडागाधुदकस्य कूपाधुदकम् । एवंविधशस्त्रपरिणतं जलं व्यवहारतोऽशुद्धत्वाद्भगवदनादिष्टत्वाच्च सर्वथैवाग्राह्यम् । परकायशस्त्रं-द्राक्षा-शाक-तण्डुल-पिष्टदाली-चणंकादि । अपां शस्त्रपरिणतत्वं च वर्णादिना पूर्वावस्थावलक्षण्यरूपम् । हे गुरो ! जलके विना संयमियोंका निर्वाह नहीं हो सकता और वह जीवोंका पिण्ड है, इसलिए उसको पीने आदिके काममें लानेसे संयमकी रक्षा नहीं हो सकती। ऐसी आशङ्का होनेपर गुरु कहते हैंहे शिष्य ! शस्त्रपरिणत जलके सिवाय अन्य जल सजीव है। यहां परभी शस्त्र, द्रव्य और भावके भेदसे दो प्रकारका है। उसका कथन पहले किया जाचुका है। यह विशेष समझना चाहिए कि तालाव आदिके जलका कूप आदिका जल स्वकायशस्त्र है । इस प्रकारका शस्त्रपरिणत जल व्यवहारसे अशुद्ध होनेके कारण ग्राह्य नहीं है। तथा ऐसे जलके लेनेमें भगवानकी आज्ञा भी नहीं है। दाख, शोक, चावल, आठा आदि परकायशस्त्र हैं । जलेमें पहले जैसा वर्ण गन्ध आदि थी उसका बदल जाना शस्त्रपरिणत होना कहलाता है। હે ગુરુ ! જળ વિના સંયમીઓને નિર્વાહ થઈ શકતો નથી અને એ જીવને પિંડ છે તેથી તેને પીવા આદિના કામમાં લેવાથી સંયમની રક્ષા નહિ થઈ શકે એવી આશકા થતાં ગુરૂ કહે છે હે શિષ્ય! શસ્ત્ર-પરિણત જળ સિવાયનું અન્ય જળ સજીવ છે એમા પણું શસ્ત્ર, દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદે કરીને બે પ્રકારનાં છે એનું કથન પહેલા કરવામાં આવ્યું છે વિશેષ એટલું સમજવું કે તળાવ આદિના જળનું કુપાદિનું જળ એ સ્વકીય શસ્ત્ર છે એ પ્રકારનું શસ્ત્રપરિણત જળ વ્યવહારથી અશુદ્ધ હોવાને કારણે ગ્રાહ્ય નથી તથા એવું જળ લેવાની ભગવાનની આજ્ઞા પણ નથી દ્રાક્ષ, શાક, ચેખા, આ ઈત્યાદિ પરકાય શસ્ત્ર છે જળમાં પહેલાં જેવા ઘણું ગધ આદિ હતા તેનું કાદંલાઈ જવું એ શધ્રપતિ થવું કહેવાય છે Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ श्रीदशवकालिकसूत्रे तत्र-वर्णतो धूसरत्वादिरूपम् , गन्धतस्तत्तद्वस्तुसम्बन्धिवत्त्वम् , रसतस्तिक्त-कटुकषायत्वादिरूपम् , स्पर्शतः स्निग्धरूक्षत्वादिरूपम् । इत्थमुक्तपकारं द्राक्षादिधावनजलं प्रामुकत्वान्मुनिग्राह्यम् । उपलक्षणमेतदग्निशस्त्रपरिणतस्योदकस्यापि । भस्ममिश्रजलमग्राह्यं, तत्र मिश्रशङ्कायाः सद्भावात् , शास्त्रे कचिदप्यप्रतिपादितत्वाच्च । उभयकायशस्त्रं-मृत्तिकामिश्रजलम् । भावशस्त्रमुक्तस्वरूपमेवेति । तेजस्कायः । तेजश्चित्तवत् सचेतनम् आख्यातम्-उक्तम् , तथाहि तेजश्चतनावत् इन्धनाद्याहारोपादानहानाभ्यां तद्धिमान्योपलम्भात् , मनुष्यादिशरीरवत् । जैसे-धूसर वर्ण हो जाना, जो वस्तु उसमें डाली गई हो उसकी गन्ध आने लगना, तीखा, कडुवा, कषायला आदि रस हो जाना, स्निग्ध या रूक्ष आदि स्पर्श हो जाना । इस प्रकार यह दाख, शाक, चावल, आटा, दाल, वेसन आदिका धोवन प्रासुक होनेसे मुनिके लिए ग्राह्य है। यह तो उपलक्षण है, इससे यह भी समझना चाहिये किअग्निशस्त्रपरिणत अर्थात् उष्ण जल भी मुनिको ग्राय है । राखका पानी ग्राह्य नहीं है, क्योंकि उसमें मिश्रको शङ्का रहती है। मृत्तिका आदिसे मिला हुआ जल उभयकाय शस्त्र है । भावशस्त्र पहले कह चुके हैं। ' (तेजस्काय) तेजस्कायको भी भगवानने सचेतन कहा है, यही कहते हैंतेजस्काय सजीव है, क्योंकि इन्धन आदि आहार देनेसे उसकी वृद्धि और જેમકે-ધુ ધળા વણનું થઈ જવું, જે વસ્તુ તેમાં નાખવામાં આવી હોય તેની ગધ આવવા લાગવી, તીખે કહે કસાયલે આદિ રસ થઈ જવો, સ્નિગ્ધ યા રૂક્ષ આદિ સ્પર્શ થઈ જ એ પ્રકારે એ દ્રાક્ષ, શાક, ચેખા, આટે, દાળ, વેસણ આદિનું ધાવણ પ્રાસુક હોવાથી મુનિને માટે ગ્રાહ્ય છે એ ઉપલક્ષણ છે, એથી એમ પણ સમજવું જોઈએ કે- અગ્નિશસ્ત્ર–પરિણત અર્થાત્ ઉષ્ણ જળ પણ મુનિને ગ્રાહ્ય છે. રાખનું પાણી ગ્રાહ્ય નથી, કારણ કે એમાં મિશ્રની શકો રહે છે. માટી આદિથી મળેલ જળ ઉભયકાય શસ્ત્ર છે (૨) ભાવશસ્ત્ર પહેલે કહી દીધું છે (तपस्य ) તેજસ્કાયને પણ ભગવાને સચેતન કહી છે, એ હવે કહે છે – તેજસ્કાય સજીવ છે, કારણ કે લાકડા ( ઈધણાં) આદિ આહાર આપવાથી Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -अध्ययन ४ सू. ४ तेजस्कायस्य सचित्ततासिद्धिः २१३ अङ्गारादीनां प्रकाशनशक्तिर्यावदात्मसंयोगभाविनी देहस्थत्वात्, खद्योत- शरीरपरिणामवत् । अङ्गारादीनां तापोऽपि आत्मसंयोगसद्भाव हेतुकः, शरीरस्थत्वात् ज्वरतापवत्, न देनेसे हानि (मन्दता) होती है, जैसे मनुष्यका शरीर । अर्थात् मनुष्यका शरीर आहार देने से बढता और न देने से घटता है, अतः वह सचेतन है । इसी प्रकार तेजस्काय भी ईंधन देने से बढती और न देने से घटती है, अतः वह भी सचेतन है । अंगार आदिकी प्रकाशन शक्ति जीवके संयोग से ही उत्पन्न होती है, क्योंकि वह देहस्थ है, जो जो देहस्थ प्रकाश होता है वह वह आत्मा के संयोग ही निमित्तसे होता है, जैसे जुगनू के शरीरका प्रकाश । जुगनू के शरीर में प्रकाश तब तक ही रहता है जब तक उसके साथ आत्माका संयोग रहता है । इसी प्रकार अंगार आदिका प्रकाश भी तब तक ही रहता है जबतक उसमें आत्मा रहती है। अंगार आदिका ताप भी आत्मा के संयोग के ही कारण है क्योंकि वह शरीरस्थ है, जितने शरीरस्थ ताप होते हैं वे सब आत्माके निमित्त से ही તેની વૃદ્ધિ અને ન આપવાથી હાનિ ( મંદતા ) થાય છે, જેમકે મનુષ્યનું શરીર અર્થાત્-મનુષ્યનું શરીર આહાર આપવાથી વધે છે અને ન આપવાથી ઘટે છે, તેથી તે સચેતન છે, એજ રીતે તેજસ્કાય પણ ઈધન આપવાથી વધે છે અને ન આપવાથી ઘટે છે, તેથી તે સચેતન છે, क અંગારા આદિની પ્રકાશનશકિત જીવના સ યેગથી જ ઉત્પન્ન થાય છે કારણ કે એ દેહસ્થ છે, જે જે દેહસ્થ પ્રકાશ હાય છે તે તે આત્માના સયેાગના જ નિમિત્તથી હેાય છે, જેમકે આગીયાના શરીરને પ્રકાશ આગીયાના શરીરમાં પ્રકાશ ત્યાસુધી જ રહે છે કે જ્યાંસુધી તેની સાથે આત્માને સચેગ રહે છે, એ રીતે અગારા આદિના પ્રકાશ પણ ત્યાંસુધી જ રહે છે કે જ્યાસુધી તેમાં ચેતન રહે છે અગારા આદિન તાપ પણુ આત્માના સગ્રેગના જ કારણે છે, કેમકે તે શરીરસ્થ છે જેટલા શરીરસ્થ તાપ હાય છે તે બધા આત્માના નિમિત્તથી જ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ श्रीदशवकालिकसूत्रे न हि कचिदपि विरहितात्मानो ज्वरतापोष्णगात्राः संश्रूयन्ते न बोपलभ्यन्ते, एचमेव निस्तेजस्काङ्गारादितोऽणुमात्रोऽपि तापो न जन्यते, तस्माद् यावदात्मसंयोगभाव्येवाङ्गारादीनां तापजनकत्वमतः सिद्धं तेजसः सचेतनत्वम् । 'अनेकजीवं, पृथक्सत्त्वम् ' इति भाग्वत् , 'आख्यात '-मित्यनेनान्वयः, 'शस्त्रपरिणतादन्यत्र' इति च पूर्ववत् । शस्त्रस्वरूपमाह,-तत्र स्वकायशस्त्रं-करीषाग्नेस्तृणाग्निः, एवंविधशस्त्रपरिणतोऽप्यग्निः सर्वथैवाग्राह्यो व्यवहारतोऽशुद्धत्वात् । परकायशस्त्रं-जलमृत्तिकादि। उभयकायशस्त्रमुष्णोदकादि । भावशस्त्रमनिकायं प्रति मनसो दुष्पणिधानम् । होते हैं, जैसे ज्वरके ताप। आत्मारहित शरीर (शब-सुर्दा) में कभी ज्वरका ताप नहीं सुना जाता न उपलब्ध होता है। इसीप्रकार निस्तेजस अंगारमें अणुमात्र भी ताप नहीं होता, अतएव सिद्ध है कि अंगार आदिमें तापजनन शक्ति जब-तक आत्मा रहती है तब तक होती है, इसलिए तेजस्काय सचेतन है। 'अनेकजीव और पृथक्सत्त्व' आदि पदोंकी व्याख्या पहलेकी भाँति है। ___यह भी समझ लेना चाहिये कि वही तेजस्काय सचित्त है जो शस्त्र-परिणत न हो। तेजस्कायके शस्त्र ये हैं-जैसे छाणाकी अग्निका शस्त्र तृणकी अग्नि है । इस प्रकारकी शस्त्रपरिणत अग्नि ग्राह्य नहीं है, क्योंकि वह व्यवहारसे अशुद्ध है । तथा इसके ग्रहण करने में भगवानकी आज्ञा भी नहीं है । जल मृत्तिका आदि पर-काय शस्त्र है। उष्णजल उभयकाय शस्त्र है। હોય છે, જેમકે વરને તાપ આત્મારહિત શરીર (મુડદુ )માં કદિ જવરને તાપ નથી સાંભળવામાં આવતું કે નથી જોવામાં આવતે, એ રીતે નિતેજસ અગારામાં અણુમાત્ર પણ તાપ હેતું નથી તેથી સિદ્ધ થાય છે કે અંગારા આદિમા જ્યા સુધી આત્મા હોય છે ત્યા સુધી જ તાપ–જનન-શકિત રહે છે. તેથી તેજસ્કાય સચેતન છે “અનેક-જીવ અને પૃથફસર્વ” આદિ શબ્દની વ્યાખ્યા પહેલાની જેમ છે એ પણ સમજી લેવું જોઈએ કે એજ તેજસ્કાય સચિત્ત છે કે જે શસ્ત્રપરિણત ન હોય તેજસ્કાયનાં શસ્ત્ર આ છે—–જેમ છાણના અગ્નિનું શસ્ત્ર તરણને અગ્નિ છે એ પ્રકારને શસ્ત્રપતિ અગ્નિ ગ્રાહ્ય નથી, કારણ કે તે વ્યવહારથી અશુદ્ધ છે વળી તેને ગ્રહણ કરવાની ભગવાનની આજ્ઞા પણ નથી જળ, માટી વગેરે પરકાય–શસ્ત્ર છે ઉનું પાણી ઉભયકાય-શસ્ત્ર છે Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सु. ४ वायुकायस्य सचित्ततासिद्धिः २१५ शस्त्रपरिणताचित्ताग्निकायमाह - उष्णमन्नं कृशरौदनादि. उष्णपानकं शाकौदनादीनामवस्रावणादि (ओसामण इति भाषा ), तप्तेष्टका सिकतादि च, एतेष्वग्निसंयोगनिष्पाद्यत्वादचित्ताग्निकायशब्दो व्यपदिश्यते, क्षुधाद्युपशमनार्थ ग्राह्योऽसौ । वायुकायः । वायश्चित्तत्वानाख्यातः । कथमस्य सचेतनत्वमिति चेत्तत्प्रमाणाद् गृहाण, तथाहि - वायुश्चेतनावान् अनन्य प्रेरिताऽनियत तिर्यग्गमनत्त्वात् हरिणगवयादिवत्, स च ' अनेकजीवः, पृथक्सत्र: आख्यातः शस्त्रपरिणतादन्यत्र ' इत्यादिकानां मारद्वयाख्या वोद्धव्या । , ラ खिचड़ी, भात आदि उष्ण अन्न, शाकका ओसामण और चावलोंका मण्ड आदि उष्ण पान, तपी हुई ईंट, बालू आदि शस्त्र-परिणत अचित्त अग्निकाय कहलाते है । ये सब अग्निके संयोगसे निष्पन्न होते हैं इसलिए इनमें अचिन्त अग्निकाय शब्दकी प्रवृत्ति होती है । ( वायुकाय ) वायुकायकों भी भगवानने सचित्त कहा है । वायु कैसे सचिन्त है सो कहते हैं । वायु सचेतन है, क्योंकि दूसरे की प्रेरणाके विना अनियत रूप से तिर्यक्गमन करनेवाला है, जैसे हिरन या रोझ ( गवय ) । अनेकजीव और पृथक्सत्त्व आदिकी व्याख्या पहले के समान समझनी चाहिए | ખિચડી, ભાત આદિ ઊનું અન્ન, શાકનું એસામણુ અને ચાખાનુ એસામણુ, આદિ ઊઠ્યું પાન, તપેલી ઇંટ, ગરમ રેતી આદિ શઅપરિણત અચિત્ત અગ્નિકાય કહેવાય છે એ બધાં અગ્નિના સયાગથી નિષ્પન્ન થાય છે, તેથી એમા અચિત્ત અગ્નિકાય શખ્સની પ્રવૃત્તિ થાય છે (૩) (वायुआय) વાયુકાયને પણ ભગવાને ચિત્ત કહી છે વાયુ કેવી રીતે સચિત્ત છે તે કહે છે.વાયુ સચેતન છે, કારણુ કે બીજાની પ્રેરણા વિના અનિયતરૂપે તિક્ગમન કરનારા છે, જેવું કે હરણુ અથવા રાઝ (નીલગાય ). અનેક જીવ અને પૃથક્સવ આદિની વ્યાખ્યા પહેલાંની પેઠે સમજવી Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ श्रीदशकालिफसूत्रे · शस्त्रं चास्य द्रव्य-भावभेदाद्विविधं, तत्र द्रव्यशस्त्रं स्व-पर-तदुभय-कायभेदालिविधम् । स्वकायशस्त्र-पौरस्त्यादिवायोः पाश्चात्यादिवायुः। परकायशस्त्रमनलादि। उभयकायशस्त्रमनला दिसतप्तो वायुरेव । भावशस्त्रं तु वायुं पति मनसो दुष्प्रवृत्तिः । वायुः सचित्ताचित्तमिश्रभेदान्त्रिधा, तत्र सचित्तो धनवातादिः, अचित्तो दृतिप्रभृतिषु पूरितः, सोऽप्यन्तर्मुह दुर्घ यावदेकं याममचेतनः, तदनु पूर्णद्वितीययामं यावन्मिश्रः, तत्पश्चात्सचित्त एव, रोगाद्यवस्थायां वायोरावश्यकत्वे इत्यादि १ भगवतीमत्रस्य द्वितीयशतके प्रथमोद्देशे वाय्वधिकारे " से भंते ! किं पुढे उद्दाइ अपुढे उदाइ ? गो० ! पुढे उद्दाइ नो अपुढे उदाइ" छाया-'स (वायुः) भगवन् ! किं स्पृष्टः अपद्रवति (म्रियते) अस्पृष्टः अपद्रवति ? गौतम ! स्पृष्टः अपद्रवति नो अस्पृष्टः अपद्रवति' । अस्य टीका- स्पृष्टः स्वकायशस्त्रेण परकायशवेण वा अपवति म्रियते'। वायुकायका शस्त्र द्रव्य-भाव-भेदसे दो प्रकारका है. द्रव्यशस्त्र-स्वपर-उभयकायके भेदसे तीन प्रकारका है । वहां स्वकाय-शस्त्र पूर्व आदि दिशाके वायुका पश्चिम आदि दिशाका वायु, परकाय-शस्त्र अग्नि आदि है, उभयकाय शस्त्र अग्नि आदिसे तपा हुआ वायु ही है । वायु तीन प्रकारका है___ (१) सचित्त, (२) अचित्त, (३) मिश्र । धनवात आदि सचित्त है, दृति या रबरकी थैली आदिमें भरी हुई हवा अचित्त होती है, किन्तु अन्तर्मुहर्त्तके बाद एक प्रहर तक अचित्त रहती है, उसके बाद दूसरे पहर तक मिश्र अवस्थामें रहती है बादमें सचित्त होजाती है। रोग आदि अवस्थामें वायुकी आवश्यकता होने पर दृति आदिमें भरा हुआ વાયુકાયને શસ્ત્ર દ્રવ્ય-ભાવભેદે બે પ્રકારનો છે દ્રવ્યશસ્ત્ર સ્વ-પર-ઉભયકાયના ભેદે કરી ત્રણ પ્રકારનો છે, ત્યાં સ્વકાયશસ્ત્ર-પૂર્વઆદિ દિશાના વાયુને પશ્ચિમઆદિ દિશાને વાયુ, પરકાયશસ્ત્ર અગ્નિ આદિ છે, ઉભયકાયશસ્ત્ર અગ્નિઆદિથી તપેલે વાયુ જ છે ભાવશસ્ત્ર પહેલાની જેમ સમજી લેવુ વાયુ ત્રણ પ્રકારને છે - (१) सथित्त, (२) अथित्त, (3) मिश्र धन-वात हि वायु सचित्त छ, મસક યા રબ્બરની થેલી આદિમ ભરેલી હવા અચિત્ત છે, પરંતુ અતર્મુહર્તની પછી એક પ્રહર સુધી અચિત્ત રહે છે, ત્યારપછી બીજા પ્રદુર સુધી મિશ્ર અવસ્થામાં રહે છે, અને ત્યારબાદ સચિત્ત બની જાય છે રેગાદિ અવસ્થામાં વાયુની આવશ્યક્તા પડતા મસક આદિની અંદર ભરેલે અચિત્ત વાયુ સાધુઓને ગ્રાહ્ય છે, Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७, अध्ययन ४ सूः ४ वनस्पतिकायस्य सचित्ततासिद्धिः पूरितोऽपि मिश्रत्वादग्राह्य एव सचित्तवत् । (४) वनस्पतिकायः । वनस्पतिश्चित्तवान् आख्यातः, व्याख्या तु पूर्ववत् । चैतन्यवत्त्वसिद्धिश्चेत्थम् - वनस्पतिः सचेतनः, वाल्यावस्थासन्दर्शनात् , छेदन-भेदनादिभिर्लानतादिदर्शनाच मनुष्यशरीरवत् । शेषं पूर्ववत् । शस्त्रं द्रव्यभावभेदाद्विविधं, तत्र द्रव्यशस्त्रंस्वपरोभयकायात्मकम् । स्वकायशस्त्रं-यष्ट्यादि। परकायशस्त्रं पाषाणासिकतर्यादि, अचित्त वायु साधुओंको ग्राह्य है, किन्तु दूसरे प्रहरका मिश्र वायु सचित्त वायुकी तरह अग्राह्य है । (४) (वनस्पतिकाय.) वनस्पतिकायको भी भगवानने सचित्त कहा है । वनस्पति सचित्त है, क्योंकि उसमें बाल्यावस्था आदि, तथा छेदन भेदन करनेसे म्लानता आदि सचेतनके गुण देखे जाते हैं, जैसे मनुष्यका शरीर । अर्थात् बाल्य-तरुण आदि अवस्थाएँ और छेदन-भेदन आदि करनेसे म्लानता होनेके कारण जैसे मनुष्य शरीर सचेतन है वैसेही वनस्पतिकाय भी सचेतन है । 'अनेकज़ीच' आदि पदोंका व्याख्यान पहलेकी भॉति जानना चाहिए। वनस्पति-कायके शस्त्र दो प्रकारके हैं--(१) द्रव्यशस्त्र और (२) भावशस्त्र । द्रव्य-शस्त्र स्वकाय, परकाय और उभयकाय हैं, लकडी आदि स्वकाय शस्त्र हैं। लोह पत्थर आदि परकाय शस्त्र हैं, परशु કિન્તુ બીજા પ્રહને મિશ્નવાયુ સચિત્તવાયુની પેઠે અગ્રાહ્ય છે (૪) (वनस्पतिय) વનસ્પતિકાયને પણ ભગવાને સચિત કહી છે વનસ્પતિ સચિત્ત છે, કારણ કે તેમાં બાલ્યાવસ્થા આદિ તથા છેદન ભેદન કરવાથી લાનતા આદિ સચેતનના ગુણ જોવામાં આવે છે, જેમકે મનુષ્યનું શરીર, અર્થાત બાલ્ય-તરૂણ આદિ અવસ્થાઓ અને છેદન-ભેદન આદિ કરવાથી લનતા થવાને કારણે જેમ મનુષ્યનું શરીર સચેતન છે તેમ વનસપતિકાય પણ સચેતન છે અનેક–જીવ” આદિ શબ્દનું વ્યાખ્યાન પહેલાની પેઠે જાણવું વનસ્પતિકાયના શસ્ત્ર બે પ્રકારના છે (૧) દ્રવ્યશાસ્ત્ર અને (૨) ભાવશસ્ત્ર. દ્રવ્યશસ્ત્ર સ્વકાય, પરકાય અને ઉભયકાય છે લાકડી આદિ સ્વકાયશસ્ત્ર છે. લેહ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # २१६ श्रीदशवैकालिकसूत्रेः शस्त्रं चास्य द्रव्य भावभेदाद्विविधं तत्र द्रव्यशस्त्रं स्व-पर- तदुभय - कायभेदात्रिविधम् । स्वकायशस्त्र - पौरस्त्यादिवायोः पाश्चात्यादिवायुः । परकायशस्त्रमनलादि । उभयका यशस्त्रमनलादिसंतप्तो वायुरेव । भावशस्त्रं तु वायुं प्रति मनसो दुष्प्रवृत्तिः ॥ वायुः सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्त्रिधा, तत्र सचित्तो घनवातादिः, अचित्तो हतिप्रभृतिषु पूरितः, सोऽप्यन्तर्मुहूर्त्तादूर्ध्वं यावदेकं याममचेतनः, तदनु पूर्णद्वितीययामं यावन्मिश्रः, तत्पश्चात्सचित्त एव, रोगाद्यवस्थायां वायोरावश्यकत्वे दृत्यादि - १ भगवतीमुत्रस्य द्वितीयशतके प्रथमोदेशे वावधिकारे “ से भंते ! किं पुढे उद्दाइ अपुढे उद्दाइ ? गो० ! पुढे उद्दाइ नो अपुढे उद्दाइ " छाया - ' स (वायुः) भगवन् ! किं स्पृष्टः अपद्रवति ( म्रियते) अस्पृष्टः अपद्वति ? गौतम ! स्पृष्टः अपद्रवति नो अस्पृष्टः अपद्रवति' । अस्य टीका- ' स्पृष्टः स्वकायशस्त्रेण परकायशत्रेण वा अपद्रवति = म्रियते ' । वायुकायका शस्त्र द्रव्य-भाव-भेद से दो प्रकारका है. द्रव्यशस्त्र - स्व पर- उभयकायके भेद से तीन प्रकारका है । वहाँ स्वकाय छात्र पूर्व आदि दिशा के वायुका पश्चिम आदि दिशाका वायु, परकाय-शस्त्र अनि आदि है, उभयकाय शस्त्र अनि आदिसे तपा हुआ वायु ही हैं। वायु तीन प्रकारका है (१) सचित्त, (२) अचित्त, (३) मिश्र । घनवात आदि सचित्त है, हति या रबर की थैली आदिमें मरी हुई हवा अचित्त होती है, किन्तु अन्तर्मुहूर्त्त के बाद एक प्रहर तक अचित्त रहती है, उसके बाद दूसरे पहर तक मिश्र अवस्थामें रहती है बादमें सचित्त होजाती है। रोग आदि अवस्था वायुकी आवश्यकता होने पर दृति आदिमें भरा हुआ વાયુકાયના શસ્ત્ર દ્રવ્ય-ભાવભેદે એ પ્રકારના છે દ્રવ્યશસ્ત્ર સ્વ-પર-ઉભયકાયના ભેદે કરી ત્રણ પ્રકારને છે, ત્યાં સ્વકાયશસ્ત્ર-પૂર્વઆદિ દિશાના વાયુને પશ્ચિમઆદિ દિશાને વાયુ, પરકાયશસ્ત્ર અગ્નિ આદિ છે, ઉભયકાયસ્ર અગ્નિઆદિથી તપેલે વાયુ જ છે ભવશસ્ત્ર પહેલાની જેમ સમજી લેવુ વાયુ ત્રણ પ્રકારના છે – (१) सचित्त, (२) अथित्त, (3) मिश्र धन-वात याहि वायु सचित्त छे, મસક ચા રબ્બરની થેલી આદિમાં ભરેલી હવા અચિત્ત છે, પન્તુ અંતર્મુહુર્તની પછી એક પ્રહર સુધી અચિત્ત રહે છે, ત્યારપછી ખીજા પ્રહર સુધી મિશ્ર અવસ્થામા રહે છે, અને ત્યારબાદ ચિત્ત બની જાય છે રેગાદિ અવસ્થામાં વાયુની આવશ્યક્તા પડતા મસક આદિની અંદર ભરેલે અચિત્ત વાયુ સાધુઓને ગ્રાહ્ય છે, Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ अययन ४ सू. ४ वनस्पतिकायस्य सचित्ततासिद्धिः पूरितोऽपि मिश्रवादग्राह्य एव सचित्तवत् । (४) बनस्पतिकायः ।। . वनस्पतिश्चित्तवान् आख्यातः, व्याख्या तु पूर्ववत् । चैतन्यवत्त्वसिद्धिश्वेत्थम्-- वनस्पतिः सचेतनः, वाल्यावस्थासन्दर्शनात् , छेदन-भेदनादिभिर्लानतादिदर्शनाच्च मनुष्यशरीरवत् । शेषं पूर्ववत् । शस्त्रं द्रव्यभावभेदाद्विविधं, तत्र द्रव्यशस्त्रस्वपरोभयकायात्मकम् । स्वकायशस्त्रं-यष्ट्यादि। परकायशस्त्रं पाषाणाऽसिकतर्यादि, अचित्त वायु साधुओंको ग्राह्य है, किन्तु दूसरे प्रहरका मिश्र वायु सचित्त वायुकी तरह अग्राह्य है । (१) (वनस्पतिकाय.) वनस्पतिकायको भी भगवानने सचित्त कहा है । वनस्पति सचित्त है, क्योंकि उसमें बाल्यावस्था आदि, तथा छेदन भेदन करनेसे म्लानता आदि सचेतनके गुण देखे जाते हैं, जैसे मनुष्यका शरीर । अर्थात् बाल्य-तरुण आदि अवस्थाएँ और छेदन-भेदन आदि करनेसे म्लानता होनेके कारण जैसे मनुष्य-शरीर सचेतन है वैसेही वनस्पतिकाय भी सचेतन है । 'अनेकज़ीव' आदि पदोंका व्याख्यान पहलेकी भॉति जानना चाहिए। वनस्पति-कायके शस्त्र दो प्रकारके हैं--(१) द्रव्यशस्त्र और (२) भावशस्त्र । द्रव्य-शस्त्र स्वक्राय, परकाय और उभयकाय है, लकड़ी आदि स्वकाय शस्त्र हूँ। लोह पत्थर आदि प्रकाय शस्त्र हैं, परशु કિન્તુ બીજા પ્રહરનો મિશ્નવાયુ સચિત્તવાયુની પેઠે અગ્રાહ્ય છે (૪). (वनस्पतिय) વનસ્પતિકાયને પણ ભગવાને સચિત્ત કહી છે વનસ્પતિ સચિત્ત છે, કારણ કે તેમાં બાલ્યાવસ્થા આદિ તથા છેદન ભેદન કરવાથી પ્લાનતા આદિ સચેતનના ગુણ જોવામાં આવે છે, જેમકે મનુષ્યનું શરીર, અર્થાત બાલ્ય-તરૂણ આદિ અવસ્થાઓ અને છેદન-ભેદન આદિ કરવાથી લાનતા થવાને કારણે જેમ મનુષ્યનું શરીર સચેતન છે તેમ વનસ્પતિકાય પણ સચેતન છે. અનેક–જીવ” આદિ શબ્દનું વ્યાખ્યાન પહેલાની પેઠે જાણવું वनस्पतिशायन शस्त्र ना छ (१) य२४ मने (२) मावशस्व. દ્વવ્યશસ્ત્ર વિકાય, પરકાયું અને ઉભયય છે લાકડી આદિ સ્વકાયશસ્ત્ર છે. લેહ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ श्रीदशवकालिकसूत्रे उभयकायशस्त्रं-परशुदात्रादि । भावशस्त्रं तु नं प्रति मनोमालिन्यम् ॥ ४ ॥ सम्प्रति वनस्पतिमेव सविशेष वर्णयति-तंजहा' इत्यादि । मूलम्-तंजहा-अग्गबीया मूलबीया पोरबीया,खंधवीया बीयरुहा संमुच्छिमातणलया वणस्सइकाइया सबीयां चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं ॥५॥ छाया-तद्यथा-अग्रवीजा मूलबीजाः पर्ववीजाः स्कन्धवीजाः वीजरुहाः सम्मूच्छिमास्तुगलता वनस्पतिकायिकाः संवीजाश्चित्तवन्त आख्याता अनेकजीवाः पृथक्सचा अन्यत्र शस्त्रपरिणतेभ्यः ॥५॥ यहां वनस्पतिकायका विशेष वर्णन करते हैं___सान्वयार्थः-तंजहा-वह इस प्रकारसे है-अग्गवीया-जिनका वीज अग्रभागमें होता है, मूलबीया-जिनका वीज मूलभागमें होता है, पोरबीया-जिनका वीज पोर (सन्धि) में होता है, खंधवीया-जिनका बीज स्कन्ध (डाले) में होता है, बीयरुहा-बीजसे उगनेवाले, संमुच्छिमा विना वीजके उत्पन्न होनेवाले, तणलया-तृण और लताएँ; ये सभी वणस्सइकाइयाबनस्पतिकायिक हैं, सबीया पूर्वोक्त अपने-अपने नामप्रकृतिके उदयसे उत्पन्न हुए वीजसहित सब वनस्पतिकाय चित्तमंतं-सचित्त अक्खाया-कहे गये हैं, अन्नत्थ-सिवाय सत्थपरिणएणं-शस्त्रपरिणतके; ये वनस्पतिकाय अणेगजीवाअनेक जीववाले और पुढोसत्ता-भिन्न-भिन्न सत्तावाले हैं ॥५॥ टीका-तथाहि-अग्रवीजाः अग्रे अग्रभागे वीजं येषां ते तथा कोरण्टकादयः। (फरसा) दात्र आदि उभयकाय शस्त्र है । भावशस्त्र उसके प्रति मनके परिणाम दुष्ट करना ॥४॥ अब वनस्पतिकायका विशेष वर्णन करते हैं-'तं जहा' इत्यादि । अग्रवीज-जिनके बीज अग्र-भागमें होते हैं ऐसे कोरंटक आदि अग्रवीज कहलाते हैं। પત્થર આદિ પરકાયશસ્ત્ર છે કે હાડ, દાતરડું આદિ ઉભયકાય શસ્ત્ર છે. ભાવશw એની પ્રતિ મનને પરિણામ દુષ્ટ કરવા તે ३ पनपतियतु विशेष पनि ४३ छ-तंजहा त्यात અબીજ–જેના બીજ અગ્રભાગમા હેય છે એવાં કેર ટક (હજારી ગુલ) આદિ અગ્રણીજ કહેવાય છે. Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९ अध्ययन ४ सू. ५ वनस्पतिभेदाः मूलवीजाः मूलमेव बीजं येषां ते कमलकन्दप्रभृतयः । पर्ववीजा:-पर्वणि-ग्रन्यौ पर्वैव वा वीजं येषां ते तथा इक्षुप्रमुखाः । स्कन्धवीजा: स्कन्धः-स्थुडं स एव वीज - येषां ते तथा शल्लकीप्रभृतयः । वीजरुहाः बीजाद रोहन्ति-प्रादुर्भवन्तीति ते तथा शालिगोधूमादयः । सम्मूच्छिमाः संमूर्च्छन्ति बीजं विनापि दग्धभूमावपि समुद्भवन्तीति ते तथोक्ताः पृथिवीजलसंयोगमात्रजनितास्तृणविशेषा इत्यर्थः । आपत्वात्सिद्धिः । तथा तृणलता तृणानि लताश्चेत्यर्थः । वनस्पतिकायिकाः= अवशिष्टाः समस्तवनस्पतय इत्यर्थः । यद्वा 'तृणलतावनस्पतिकायिकाः' इत्येकं __मूलबीज-मूलही जिनका बीज हो वह, कमलका कन्द आदि मूलबीज हैं। पर्वबीज-पोर (गांठ)में या पर्वही जिनका बीज है ऐसे, गन्ना (सांठा) आदि पर्वबीज कहलाते हैं । स्कन्धबीज-स्कन्ध (थुड)ही जिनका बीज है उस शल्लकी आदिको स्कन्धबीज कहते हैं। बीजरुह-चाँवल गेहूं आदि बीजसे उगनेवाली वनस्पतिको बीजरुह कहते हैं। संमूछिम-विना बीजके जलीहुई भूमिमें भी जो पृथ्वी और जलके संयोगसे उग जावे ऐसी घास आदिको संमूच्छिम कहते हैं । तृणलता-तिनका (घास) और लताएँ सब वनस्पतिकायिक हैं। अथवा " तृणलतावनस्पतिकायिकाः" यह एकही पद है। दर्भ મૂલબીજ–મૂળજ જેનું બીજ છે તે કમળને કંદ આદિ મૂલબીજ છે , પર્વબીજ–ગાઠ યા પર્વમાં જેનું બીજ છે એવી શેરડી આદિ પર્વબીજ ४वाय छे. ક ઘબીજ–&ઘર્થડજ જેને બીજ છે એવા શકી આદિ ને સ્ક ઘબીજ કહે છે. બીજરૂહરોળા ઘઉ આદિ બીજથી ઉગનારી વનસ્પતિને બીજરૂહ કહે છે. સામૂછિમ–બીજ વિના બળી ગએલી ભૂમિમા પણ જે પૃથ્વી અને જળના સંગથી ઉગે એવા ઘાસ આદિને સામૂછિમ કહે છે. વણલતા-તરણ (ઘાસ) અને લતા એ બધા વનસ્પતિકાયિક છે अथवा तृणलतावनस्पतिकायिका : मे मे ४ ५४ छ न (ELHI) Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० 'श्रीदशकालिकसूत्रे पदम् , तत्र तृणानिदर्भादीनि, लता: चम्पकाऽशोकवासन्त्यादयः, वनस्पतिकायिकाः वनस्पतिकायभेदाः-अग्रवीजादयः सर्वेऽपि वनस्पतिकायिका एव, पुनर्वनस्पतिकायिकग्रहणं स्वगतसूक्ष्मादिसकलभेदख्यापनार्थम् । “स्ववीजा:=पूर्वविहितस्वस्वनामगोत्रप्रकृत्युदयात्मककारणवन्तः, अर्थात् :पूर्वोक्ता अग्रवीजादयः सर्वेऽपि चित्तवन्तः, इत्यादीनां व्याख्या पूर्ववत् । । ___ इति पञ्चस्थावरकायनिरूपणम् ॥५॥ साम्प्रतं क्रमप्राप्तं त्रसकायस्वरूपमाह-' से जे० ' इत्यादि । मूलम् से जे पुण इमे अणेगे वहवे तसा पाणा, तंजहा-अंडया पोयया जरायुया रसया संसेइमा समुच्छिमा उब्भिया उववाइया । (दूध आदि) तृण, चम्पक, अशोक और वासन्ती आदि लताएँ और वनस्पतिकायके भेद अग्रवीज आदि सब वनस्पतिकायिक हैं। सूत्रमें दूसरी बार 'वनस्पतिकायिक' पदका ग्रहण इसलिए किया है कि-ऊपर बताये हुए भेदोंके सिवाय सूक्ष्म बादर आदि और भी समस्त भेदोंका ग्रहण होजावे । ये सब पहले दिखलाये हुए अपने अपने नाम-गोत्ररूप प्रकृतिके उदयरूप कारणवाले हैं । अर्थात् पूर्वोक्त वीज आदि सव सचित्त हैं और पृथक्-पृथक् स्पर्शरूप एक इन्द्रियवाले हैं ॥५॥ यह पांच स्थावरकायका निरूपण समाप्त हुआ। अव क्रमप्राप्त जसकायका स्वरूप कहते हैं-'से जे' इत्यादि । તૃણ, ચ પક, અશેક, અને વાસંતી આદિ લતાઓ અને વનસ્પતિકાયના ભેદ અગ્ર બીજ આદિ બધાં વનસ્પતિકાયિક છે. સૂત્રમાં બીજી વાર “વનસ્પતિકાયિક શબ્દનું ગ્રહણ એટલા માટે કરવામાં આવ્યું છે કે-ઉપર બતાવેલા ભેદ ઉપરાત સૂરમ બાદર આદિ બીજા પણ બધા ભેદનું ગ્રહણ થઈ જવા પામે. એ બધા પહેલા બતાવેલા પિતા-પિતાના નામ -ગોત્ર-રૂપ પ્રકૃતિના ઉદય - રૂપ કારણવાળા છે અર્થાત્ પૂર્વોક્ત બીજ આદિ બધા સચિત્ત છે અને પૃથ-પૃથક સ્પર્શરૂપ એક न्द्रियाणा छे. (५) ति ५५ --थावर - आयर्नु नि३५४४ समारत. वे भात सायर्नु २१३५ ४९ छ:- से जे त्या Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ४ सू. ६ त्रसकायवर्णनम् जेसि केसिंचि पाणाणं अभिकंतं पडिकंतं संकुचियं पसारियं रुयं भंतं तसियं पलाइयं, आगइगइविन्नाया।जे य कीडपयंगा। जा य कुंथुपिवीलिया । सवे बेइंदिया, सवे तेइंदिया, सवे चउरिदिया, सवे पंचिंदिया, सवे तिरिक्खजोणिया, सवे नेरइया, सवे मणुया, सत्वे देवा, सवे पाणा परमाहम्मिया । एसो खल्लु छटो जीवनिकाओ तसकाउ-त्ति पवुच्चइ ॥६॥ छाया-अथ ये पुनरिमेऽनेके वहवस्त्रसाः प्राणिनस्तद्यथा-अण्डजाः पोतजा जरायुजा रसजाः संस्वेदजाः सम्मूच्छिमा उद्भिज्जा औषपातिकाः, येषां केषाश्चित्माणिनामभिक्रान्तं प्रतिक्रान्तं संकुचितं प्रसारितं रुतं भ्रान्तं त्रस्तं पलायितम् , आगतिगतिविज्ञातारः । ये च कीटपतङ्गाः। याश्च कुन्थुपिपीलिकाः। सर्वे द्वीन्द्रियाः, सर्वे त्रीन्द्रियाः, सर्वे चतुरिन्द्रियाः, सर्वे पञ्चेन्द्रियाः, सर्वे तिर्यग्योनिकाः, सर्वे नैरयिकाः, सर्वे मनुजाः, सर्वे देवाः. सर्व प्राणाः परमधर्माणः । एष खलु षष्ठो जीवनिकायस्त्रसकाय इति पोच्यते ॥६॥ (६) त्रसकायवर्णन. सान्वयार्थः--से-अथ पुण और जे-जो इमे ये ( आगे कहे जानेवाले) अणेगे अनेक प्रकारके यहवे बहुतसे तसा त्रस पाणा-पाणी है, तंजहावे इस प्रकार है-(१) अंडया अण्डेसे उत्पन्न होनेवाले, (२) पोयया विना जेर (जरायु-आंवल-जड)के अर्थात् विना ही कुछ मलभागके वस्त्रसे पूंछे हुएके समान उत्पन्न होनेवाले, (३) जराउया-जेरसे लिपटे हुए उत्पन्न होनेवाले, (४)रसया रसमें उत्पन्न होनेवाले, (५) संसेइमा-पसीनेसे उत्पन्न होनेवाले, (६) संमुच्छिमा संमूच्छिम, (७) उन्भिया पृथ्वीको भेदकर उत्पन्न होनेवाले (शलभ आदि), (८) उववाइया-उपपात जन्मवाले-देव और नारकी, जेसिं-केसिंचि इनमें से जिन किन्हीं पाणाणं याणियोंका अभिकंतं-अभिमुख गमन होता है, पडिकंत-प्रतिकूल गमन होता है, संकुचियं शरीरमें संकोच-सिकुडन होता है, पसारियं शरीरमें फैलाव होता है, रुयं शब्दका प्रयोग होता है, भंत-इधर-उधर भ्रमण होता है, तसिय-उद्वेग होता है, पलाइयं-डरसे भागना देखा जाता है, (वे त्रस) आगइगइविन्नाया आगमन और गमनको जाननेवाले, य और जे-मो Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे कीडपयंगा - कीट - कीडे और पयंगा- पतगिये हैं, य=और जा=जो कुंथुपिवीलिया= कुंथा और चींटियाँ हैं, वे सब्वे वेइंदिया =सव द्वीन्द्रिय सन्वे तेइंदिया= सर्व त्रीन्द्रिय सव्वे चउरिंदिया = सव चार इन्द्रियवाले सव्वे पंचिदिया =सवं पञ्चेन्द्रिय सव्वे तिरिक्खजोणिया सर्व तिर्यञ्चगतिवाले सब्वे नेरहया= सव नारकी सव्वे मणुया= सव मनुष्य सव्वें देवा =सव देव सव्वे = पूर्वोक्त सव पाणा - प्राणीमात्र परमाहम्मिया= सुखके अभिलाषी हैं। एसो=यह खलु निश्चय करके छो-छठा जीवनिकाओ - जीवनिकाय तसकाउन्सि=" सकाय " ऐसा पges = कहा जाता है || ६ || , ૧ टीका– 'से’=अथ=स्थावरपञ्चकनिरूपणानन्तरं पुनः इमे= वक्ष्यमाणभेदाः अनेके = द्वीन्द्रियादिभेदेनाऽनेकप्रकाराः वहवः = एकैकस्यां जातौ प्रचुरा भिन्नयोनयो वा त्रसाः सनामकर्मोदयात् श्रस्यन्ति = आतपाद्यभिपीडिता उद्विजन्ते प्रच्छायशीतलं स्थलं प्रयान्ति वेति तथोक्ताः, ' प्राणन्ति - जीवन्त्येभिरिति, माण्यन्ते जीव्यन्ते प्राणिन एभिरिति वा (प्रोपसृष्टा दनितेः, अण्यतेर्वा करणे घ) प्राणाः उच्छ्वासादयस्ते सन्त्येपामिति प्राणाः प्राणिन इत्यर्थः, तद्यथाअण्डे पक्ष्यादिप्रादुर्भावककोषे जायन्ते = उत्पद्यन्ते इत्यण्डजाः पक्षि- सर्पादयः । पोता एक जाता पोतजाः न जरावादिना वेष्टिताः पूर्णावयवयोनि निर्गतमात्रा १ ' त्रसेः पचाद्यच्' २ 'अरीआदित्वादच्' जो ये आवालप्रसिद्ध हीन्द्रिय आदिके भेदसे अनेक, एक एक जाति में बहुत से अथवा भिन्न-भिन्न योनिवाले आतप (गर्मी) आदिसे पीडित होनेपर त्रास (उद्वेग) पानेवाले, अथवा छायादार शीतल और निर्भय स्थलमें चले जानेवाले, व्यक्त चेतनावान्, उच्छ्वास आदि प्राणवाले बस कहलाते हैं, उनके भेद इस प्रकार हैं पक्षी सर्प आदि अण्डज हैं (१), जरायु से वेष्टित न होकर योनि से જે એ આમાલ–પ્રસિદ્ધ દ્વીન્દ્રિયાદિના ભેદે કરીને અનેક, એક એક જાતિમા ઘણા અથવા ભિન્ન—ભિન્ન ચેાનિવાળા, ગરમી સ્માદિથી પીડિત થતા ત્રાસ (ઉદ્વેગ) પામનારા, અથવા છાયાવાળા શીતળ અને નિયત સ્થળમા ચાલ્યા જનારા, વ્યકત ચેતનાવાન્ ઉચ્છ્વાસ આદિ પ્રાણવાળા ત્રસ કહેવાય છે, તેના ભેદ આ પ્રકારે છે: પક્ષી સર્પ આદિ અડેજ છે (૧). જરાયુથી વેતિ ન હઈને ચૈનિમાંથી Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ अध्ययन ४ सू. ६ त्रसकायवर्णनम् एव परिस्पन्दादिसामोपेताः पोतजाः। यद्वा पोतो वस्त्रम्-(इति शब्दकल्पद्रुमः), तेन तत्संमार्जिता लक्ष्यन्ते, तथा च-पोता इव वस्त्रसंमार्जिता इव गर्भवेष्टनचर्माऽनाहतत्वात् , जायन्ते-उत्पद्यन्ते इति, पोतात् गर्भवेष्टनचर्मरहितगर्भात् जायन्त इति वा पोतजाः कुञ्जर-शल्लक-शश-नकुल-मूषिक-चर्मचटिका-वल्गुलिकादयः । जरायुजाः जरामेति गच्छतीति जरायुः गर्भवेष्टनचर्म तस्माज्जायन्त इति ते नर-महिप-गवादयः । रसजा:-रसे मधलक्षणे 'रसजो मद्यकीटः' इति हैमात् , जायन्त इति, रसेविकृतमधुरादौ जायन्त इति वा रजसाः । संस्वेदजाः-संस्वेदात् धर्माज्जायन्त इति ते यूका-लिक्षा-मत्कुणप्रमुखाः । सम्मूच्छिमाः सम्मूच्र्छनं सम्मूछ: गर्भाधानमन्तरेणैव स्वयं समुत्पत्तिः, ('मूर्छा मोह-समुच्छ्राययोः' अस्माद्भावे घ, व्युत्पत्तिप्रदर्शनमेतत् , शब्दोऽयं मनोविकले १ 'अन्येष्वपि दृश्यते' इति डः निकलते ही गमन-आगमन आदि क्रियाएँ करनेकी सामर्थ्यसे युक्त पूर्ण - अवयववाले, या वस्त्रसे पोंछे हुएके समान साफ उत्पन्न होनेवाले हाथी, शल्लकी, खरगोश, नौला, चूहा आदि पोतज कहलाते हैं (२), जरायु (आँवल-जड) सहित उत्पन्न होनेवाले मनुष्य महिषादि जरायुज कहलाते हैं (३), मदिरा आदि रसोंमें उत्पन्न होनेवाले तथा स्वादसे चलित अर्थात् सड़े हुए मधुरादि रसोंमें उत्पन्न होनेवाले रसज कहलाते हैं (४), पसीनेसे पैदा होनेवाले जू, लीख, खटमल आदि संस्वेदज कहलाते हैं (५) गर्भाधानके विना शरीरनाम-कर्मके उदयसे शरीरके अवयवोंका संग्रह हो जानेसे स्वयं ही उत्पन्न होनेवाले जीव संमूच्छिम कहलाते हैं (६), નીકળતા જ ગમનાગમન આદિ ક્રિયાઓ કરવાના સામર્થ્યથી યુક્ત પૂર્ણ અવયવવાળા, યા વસ્ત્ર દ્વારા છેલાની પેઠે સાફ ઉત્પન્ન થનારા હાથી, શેળે, સસલાં, નેળિયા, ઉદર આદિ પિતજ કહેવાય છે (૨) જરાયુ (નાળ વગેરે મળ ભાગ) સહિત ઉત્પન્ન થનારા મનુષ્ય, મહિષાદિ (ભેશ વગેરે) જરાયુજ કહેવાય છે (૩) મદિરા આદિ રમાં ઉત્પન્ન થનારા તથા સ્વાદથી ચલિત અર્થાત્ સડેલા મધુરાદિ રસોમાં ઉત્પન્ન થનારા રસજ કહેવાય છે (૪) પ્રસ્વે४थी पहा थना। डू, दीम, भा४, मा सस्वहन उपाय छे (५) गर्माધાન વિના શરીરનામ-કર્મના ઉદયથી શરીરના અવયને સંગ્રહ થઈ જવાથી સ્વય ઉત્પન્ન થનારા છ સંમૂછિમ કહેવાય છે (૬) પૃથ્વીને ભેદીને ઉત્પન્ન Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे कीडपयंगा-कीट-कीडे और पयंगा-पतगिये हैं, य-औरजा जो कुंथुपिचीलियाकुंथवा और चींटियाँ हैं, वे सव्वे वेइंदिया सब द्वीन्द्रिय सम्वे तेइंदिया सब त्रीन्द्रिय सव्वे चरिंदिया-सव चार इन्द्रियवाले सव्वे पंचिंदिया सर्व पवेन्द्रिय सव्वे तिरिक्खजोणिया सर्व तिर्यश्चगतिवाले सव्वे नेरइया संव नारकी सव्वे मणुया=सव मनुष्य सव्वे देवा-सव देव सव्वे पूर्वोक्त सब पाणामाणीमात्र परमाहम्मिया-मुखके अभिलाषी हैं। एसो यह खलु-निश्चय करके छट्ठो छठा जीवनिकाओ-जीवनिकाय तसकाउत्ति-"सकाय" ऐसा पवुच्चइ-कहा जाता है ॥६॥ ___टीका-'से' अर्थ स्थावरपञ्चकनिरूपणानन्तरं पुनः इमे वक्ष्यमाणभेदाः अनेके द्वीन्द्रियादिभेदेनाऽनेकपकाराः वहवा एकैकस्यां जातौ प्रचुरा भिन्नयोनयो वा त्रसाम्बसनामकर्मोदयात् , स्यन्ति आतपायभिपीडिता उद्विजन्ते पच्छायशीतलं स्थलं प्रयान्ति वेति तथोक्ताः, प्राणन्ति जीवन्त्येभिरिति, पाण्यन्ते जीव्यन्ते प्राणिन एभिरिति वा (पोपसृष्टा-दनितेः, अण्यतेर्वा करणे घन) प्राणाः उच्छ्वासादयस्ते सन्त्येपामिति प्राणाः प्राणिन इत्यर्थः, तद्यथाअण्डे-पक्ष्यादिप्रादुर्भावककोषे जायन्ते उत्पद्यन्ते इत्यण्डजाः पक्षि-सपादयः । पोता एव जाता पोतजाः न जरायवादिना वेष्टिताः पूर्णावयवयोनिनिर्गतमात्रा १ 'त्रसेः पचाय' २ 'अशआदित्वादच्' जो ये आबालप्रसिद्ध द्वीन्द्रिय आदिके भेदसे अनेक, एक एक जातिमें बहुतसे अथवा भिन्न-भिन्न योनिवाले आतप (गर्मी) आदिसे पीडित होनेपर त्रास (उद्वेग) पानेवाले, अथवा छायादार शीतल और निर्भय स्थलमें चले जानेवाले, व्यक्त चेतनावान् , उच्छ्वास आदि प्राण वाले बस कहलाते हैं, उनके भेद इस प्रकार हैं पक्षी सर्प आदि अण्डज हैं (१), जरायुसे वेष्टित न होकर योनिसे - જે એ આબાલ-પ્રસિદ્ધ કીન્દ્રિયાદિના ભેદે કરીને અનેક, એક એક જાતિમાં ધણુ અથવા ભિન્ન-ભિન્ન નિવાળા, ગરમી આદિથી પીડિત થતા ત્રાસ (ઉદ્વેગ) પામનારા, અથવા છાયાવાળા શીતળ અને નિર્ભય સ્થળમાં ચાલ્યા જનારા, વ્યકત ચેતનાવાન્ ઉસ આદિ પ્રાણવાળા ત્રસ કહેવાય છે, તેના ભેદ આ પ્રકારે છે – પક્ષી સર્ષ આદિ અંડજ છે (૧). જરાયુથી વેતિ ને હેઈને નિમાંથી Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. ६ त्रसकायवर्णनम् २२३ १ - एव परिस्पन्दादिसामर्थ्योपेताः पोतजाः । यद्वा पोतो वस्त्रम्- (इति शब्दकल्पद्रुमः), तेन तत्संमार्जिता लक्ष्यन्ते, तथा च- पोता इव वस्त्रसंमार्जिता इव गर्भवेष्टनचर्माऽनानृतत्वात्, जायन्ते= उत्पद्यन्ते इति, पोतात् गर्भवेष्टनचर्मरहितगर्भात् जायन्त इति वा पोतजाः कुञ्जर-शल्लक- शश-नकुल- मूषिक चर्मचटिका- वल्गुलिकादयः । जरायुजाः=जरामेति=गच्छतीति जरायुः = गर्भवेष्टनचर्म तस्माज्जायन्त इति ते = नर- महिप - गवादयः । रसजा :- रसे = मधलक्षणे ' रसजो मद्यकीट:' इति हैमात् जायन्त इति, रसे = त्रिकृतमधुरादौ जायन्त इति वा रजसाः । संस्वेदजाः = संस्वेदात् = वर्माज्जायन्त इति ते युका - लिक्षा- मत्कुणप्रमुखाः । सम्मूच्छिमा:= सम्मूर्च्छनं सम्मूर्च्छः=गर्भाधानमन्तरेणैव स्वयं समुत्पत्तिः, ('मूर्च्छा मोह-समुच्छ्राययोः' अस्माद्भावे घञ, व्युत्पत्तिप्रदर्शनमेतत्, शब्दोऽयं मनोविकले १ ' अन्येष्वपि दृश्यते इति डः " निकलते ही गमन - आगमन आदि क्रियाएँ करनेकी सामर्थ्य से युक्त पूर्ण अवयववाले, या वस्त्र से पोंछे हुएके समान साफ उत्पन्न होनेवाले हाथी, शल्लकी, खरगोश, नौला, चूहा आदि पोतज कहलाते हैं (२), जरायु (आँवल- जड) सहित उत्पन्न होनेवाले मनुष्य महिषादि जरायुज कहलाते हैं (३), मदिरा आदि रसोंमें उत्पन्न होनेवाले तथा स्वादसे चलित अर्थात् सड़े हुए मधुरादिरसोंमें उत्पन्न होनेवाले रसज कहलाते हैं (४), पसीने से पैदा होनेवाले जू, लीख, खटमल आदि संस्वेदज कहलाते हैं (५) गर्भाधानके विना शरीरनाम-कर्मके उदयसे शरीर के अवयवोंका संग्रह हो जानेसे स्वयं ही उत्पन्न होनेवाले जीव संमूच्छिम कहलाते हैं (६), નીકળતા જ ગમનાગમન આદિ ક્રિયાએ કરવાના સામર્થ્યથી યુકત પૂર્ણ અવયવवाजा, યા વસ દ્વારા લૂછેલાની પેઠે સાફ ઉત્પન્ન थनारा हाथी, शेणी, ससला, नोजिया, ७४२ माहि पोतन उडेवाय छे भरायु (नाज वगेरे મળ ભાગ ) સહિત ઉત્પન્ન થનારા મનુષ્ય, મહિષાદિ (ભેશ વગેરે) જરાયુજ કહેવાય છે (૩) મદિરા આદિ રસેના ઉત્પન્ન થનારા તથા સ્વાદથી ચલિત અર્થાત્ સડેલા મધુર્શિદ રસામા ઉત્પન્ન થનારા રસજ કહેવાય છે (૪) પ્રર્વેદથી પેદા થનારા જૂ, લીખ, માકણુ, આદિ સસ્વેદજ डेवाय छे (4) गर्भाધાન વિના શરીરનામ-કર્મના ઉદયથી શરીરના અવયવાને સગ્રહ થઈ જવાથી સ્વયં ઉત્પન્ન થનારા જીવા સપૂચ્છિમ કહેવાય છે (૬) પૃથ્વીને ભેટીને ઉત્પન્ન (२) Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२२४ 'श्रीदशवैकालिकसूत्रे . रूद्र:, ।) यद्वा समन्ततो देहस्य मूर्च्छनम् = अवयवसंयोगस्तेन निर्वृत्ताः सम्मूच्छिमा:= मातापितृसंयोगं विनैव स्वयं समुत्पन्नाः = पिपीलिका मक्षिका मत्कोटकादयः, (आर्षत्वात्सिद्धिः) । उद्भिज्जाः उद्भिद्य = पृथिवीं भित्त्वा जायन्त इति ते शलभादयः । औपपातिकः उपपतनमुपपातः (पतधातोर्भावे घञ) देवनारकाणां प्रसिद्धगर्भसम्मूर्च्छनरूपजन्मप्रकारद्वयविलक्षण उद्भवस्तेन निर्वृत्ताः औपपातिका:-देवनारकाः, देवा हि पुष्पशय्यायां नारकाच कुम्भ्यादिषु स्वयं समुत्पद्यन्ते । तानेव विशिनष्टि - 'येपा' - मित्यादिना येषां केपाञ्चित्पूर्वोक्तानां प्राणानां = श्वासोच्छासादिप्राणत्रताम्, अभिक्रान्तम् = आभिमुख्येन अभिमुखं वा प्रज्ञापकस्य क्रमर्ण = गमनमभिक्रान्तं 'भवती' ति शेषः । प्रतिक्रान्तं = मति = प्रातिकूल्येन प्रतिकूलं वा मज्ञापकस्य क्रमणम्, यद्वा प्रतिक्रान्तं = परादृत्य गमनम्, संकुचितं = संकोचः गात्रावकुञ्चनम्, प्रसारितं = करचरणादिमसारणं रुतं = शब्दकरणम्, भ्रान्तम् = इतस्ततो भ्रमणम्, त्रस्तं = त्रासः = उद्वेगः पलायितं = पलायनं भयादिना स्थानान्तरगमनं 'भवती' त्यध्याहृतेन प्रत्येकं सम्बन्धः । सर्व एवैतेऽभिक्रान्तादयः शब्दाः भावक्तान्ताः । ते त्रसाः आगतिगतिविज्ञातारः = आगतिः आगमनम् गतिः गमनं पृथ्वीको भेदकर उत्पन्न होनेवाले शलम (टिड्डी) आदि उद्भिज्ज हैं (3), गर्भ और संमूर्च्छन जन्मोंसे भिन्न देव और नारकोंके जन्मको उपपात कहते हैं, उससे उत्पन्न होनेवाले देव और नारकी औपपातिक कहलाते हैं (८), देव शय्या पर और नारकी कुम्भीमें स्वयं उत्पन्न होते हैं । 1 " ये सब पूर्वोक्त जीवोंके प्रज्ञापककी अपेक्षा सामने आना, लौटके पीछे जाना, इसी प्रकार अंगको सिकोड़ना, हाथ-पैर फैलाना, बोलना, भ्रमण करना, उनि होना, भय आदि कारणोंसे भागना आदि क्रियाएँ होती हैं । वे गमन आगमन आदिके जाननेवाले अर्थात् ओघसंज्ञासे થનાગ શલભ (ટીડ) આદિ ઉભિજ કહેવાય છે (૭) ગર્ભ અને સમૂન જન્મથી ભિન્ન દેવ અને નારકોના જન્મને ઉપપાત કહે છે, તેથી ઉત્પન્ન થનારા દેવ અને નારકી ઔપપાતિક કહેવાય છે (૮) દેવ શય્યા પર અને નારકી કુભીમા સ્વયં ઉત્પન્ન થાય છે એ બધા સૂકત જીવાનું પ્રજ્ઞાપકની અપેક્ષાએ સામે આવવું, ફરીને પાછા ल्वु, भे ४ शेते अंग से अथवा, हाथ-या साववा, मोसवु, अभवु, द्विग्न થવું, ભયાદિ કારણે ભાગી જવું, વગેરે ક્રિયા હાય છૅ, તેએ ગમનાગાન ચ્યાદિને જાણનારા અર્થાત્ એઇ—સંજ્ઞાથી કરનારા હેાય છે. અનુકૂળતા પ્રવૃત્તિ C Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. ६. सकायवर्णनम् २२५ तयोविज्ञातारः वेदितारः ओघसंज्ञया प्रवृत्तिमन्तः स्वस्वाभिक्रान्तप्रतिक्रान्तादिविषयकाऽववोधसम्पन्ना भवन्तीत्यर्थः । इन्द्रियादिविभागप्रदर्शनेन तानेव परिचाययति-'ये चे'त्यादि, ये च कीटपतङ्गाः कीटा-कृमयो गण्डोलकप्रभृतयः, तज्जातीया अन्ये द्वीन्द्रियाच, पतङ्गाः= शलभाचतुरिन्द्रियास्तज्जातीया भ्रमरादयश्च । याश्च कुन्थु-पिपीलिकाः, कुन्थवश्व पिपीलिकाश्चेत्यनयोरितरेतरयोगे 'परवल्लिङ्गं द्वन्द्व तत्पुरुपयो -रिति परवल्लिङ्गता। कुन्धवः चलन्त एव परिज्ञेया न स्थिताः मूक्ष्मत्वात् लघुकायजीवाः, पिपीलिकाः= कीटिकास्तजातीयास्त्रीन्द्रियाश्च, द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियक्रममुल्लवय द्विचतुस्त्रीन्द्रियेति व्युत्क्रमेणोपादानमार्फत्वात्मत्रगतेचिच्याच । ततः सर्वे द्वीन्द्रियाः, सर्वेत्रीन्द्रियाः, सर्वे चतुरिन्द्रियाः, सर्वे पश्चेन्द्रियाः, सर्वे तियग्यो निकाः, सर्वे नैरयिकाः, सर्वे प्रवृत्ति करनेवाले होते हैं। अनुकूलता और प्रतिकूलताको सामान्यतया ओघसंज्ञासे जानते हैं। इन्द्रियोंका विभाग करके फिर उनका कथन करते हैं. कृमि, लट, गण्डोल आदि उनकी जातिवाले द्वीन्द्रिय हैं। शलभ और उनकी जातिके भ्रमर आदि चार इन्द्रियवाले होते हैं । कुन्थु और पिपीलिका (चिउंटी) तथा उनकी जातिके अन्य जीव तीन इन्द्रियवाले होते हैं। यहाँद्वीन्द्रिय बतानेके बाद पहले चार इन्द्रिय फिर तीन इन्द्रियवाले जीव बताये हैं, यह कथन आर्ष होनेसे किया गया है, इसलिए सब द्वीन्द्रिय, सब त्रीन्द्रिय,सब चतुरिन्द्रिय,सब पंचेन्द्रिय,सब तिर्यञ्च,सव नारकी, सब અને પ્રતિકૂળતાને સામાન્ય રીતે એઘ-સંજ્ઞાએ કરી જાણે છે ઈદ્રિના વિભાગ કરીને હવે એનું કથન કરવામાં આવે છે: કૃમિ (કરમિયા), લટ, અળસીયા વગેરે એની જાતિવાળા દ્વીન્દ્રિય છે તીડ અને એની જાતિવાળા ભ્રમર આદિ ચાર ઈદ્રિયવાળા છે કુંથવા અને કીડી તથા તેની જાતિવાળા બીજા ત્રણ ઈદ્રિયવાળા હોય છે અહીં કોદ્રય બતાવ્યા પછી પહેલાં ચાર ઇદ્રિયવાળા અને પછી ત્રણ ઈદ્રિયવાળા બતાવ્યા છે, એ કથન આર્ષ હવાથી કરેલું છે એ રીતે બધા હીન્દ્રિય, બધા ત્રીન્દ્રિય, બધા ચતુરિન્દ્રિય, બધા પચેંદ્રિય, બધા તિર્યંચ, બધા નારકી, બધા મનુષ્ય, બધા દેવ, એ પ્રકારે Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ श्रीदशवेकालिकसूत्रे मनुष्याः सर्वे देवाः सर्वे प्राणा: = पूर्वोक्ताः सकलप्राणिनः परमधर्माण: = परमं सुखमेव धर्मो येषां ते सुखाभिलाषुका इत्यर्थः 'परमा' इत्यत्र दीर्घ आर्पत्वात । एषः अनन्तरोदीरितस्वरूपोऽण्डजादिलक्षणः खलु = निश्चयेन पष्ठः = स्थावरपञ्चकापेक्षया षष्ठत्वमापन्नः जीवनिकाय: = प्राणिसमूहः ' सकाय ' - इति मोच्यते = कथ्यते सकायनाम्ना ख्यात इत्यर्थः ||६|| सर्वे प्राणिनः सुखाभिलाषिणो भवन्ति, सुखं च तेषामनारम्भेणैव सम्पद्यतेऽत इदानीमनारम्भपदेश:-' इच्चेसि' इत्यादि । मूलम् इच्चेसिं छण्हं जीवनिकायाणं नेव सयं दंडं समारंभिज्जा, नेवन्नेहिं दंडं समारंभाविजा, दंडं समारंभंतेवि अन्ने न समणुजाणिज्जा, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेम करतंपि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स भंते ! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि ॥ ७ ॥ छाया - इत्येषां पण्णां जीवनिकायानां नैव स्वयं दण्डं समारभेत, नैवान्यैर्दण्डं सामारम्भयेत्, दण्डं समारभमाणानप्यन्यान् न समनुजानीयात्, यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न संमनुजानामि । तस्य भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्हे आत्मानं व्युत्सृजामि |७| पट्ट्कायका आरम्भ न करनेका उपदेश देते हैं सान्वयार्थ : - इचेसिं= इन पूर्वोक्त छण्हें छह जीवनिकायाणं जीवनिकामनुष्य, सब देव, इस प्रकार पूर्वोक्त सब प्राणी सुखकी अभिलाषावाले हैं । इस छठे जीवनिकायको भगवानने त्रसकाय कहा है ॥ ६ ॥ समस्त प्राणी सुखके अभिलाषी हैं, किन्तु सुखकी प्राप्ति तब ही हो सकती है जब आरंभका परित्याग कर दिया जाय, इसलिए आरंभके त्यागका उपदेश देते हैं - 'इच्चेसिं' इत्यादि । પૂર્વોક્ત બધા પ્રાણી સુખની અભિલાષાવાળા છે એ છઠા જીનિકાયને ભગવાને स- आय उस छे (६) બધા પ્રાણી સુખના અભિલાષી છે, પરન્તુ સુખની પ્રાપ્તિ ત્યારે થાય છે કે જ્યારે આરંભને પરિત્યાગ કરવામાં આવે, તેથી આરભના ત્યાગના ઉપદેશ આપે છે-इच्चेसिं धत्याहि Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ . ७ पजीवनिकायानां दण्डपरित्यागः २२७ योंके दंड = दण्ड- हिंसा आदि को सयं = स्वयं नेव=न समारंभिज्जा = आरम्भ करे, नेव=न अन्नेहिं दूसरोंसे दंडं दण्डको समारंभाविज्जा = आरंभ करावे, दंडदण्डका समारंभंतेवि = आरम्भ करते हुओं को भी अन्ने= दूसरोंको न=नहीं समणुजाणेज्जा=भला जाने, जावज्जीवाए= यावज्जीवन-जीवनपर्यन्त तिविहं = कृतकारित अनुमोदनारूप तीन-करण - पूर्वक ( इस प्रकार ) तिविहेण = तीन प्रकारके मणेणं-मनसे वायाए = वचनसे कारणं कायासे न करेमि नहीं करूँगा, न कारवेमि = नहीं कराऊँगा, अन्ने = दूसरे करंतंपि = करनेवालेकोभी न समणुजाणामि भला नहीं समझँगा । भंते ! हे भदन्त ! तस्स = पूर्वोक्त उस दण्ड से पडिकमामि = पृथक होता हूँ, निंदामि = आत्मसाक्षी से जुगुप्सा करता हूँ, गरिहामि = गुरुसाक्षीसे गर्दा करता हूं (और) अप्पाणं- दंडसेवन करनेवाले आत्माका वोसिरामित्याग करता हूँ ॥ ६ ॥ टीका --- इत्येषां पूर्वोक्तस्वरूपाणां षण्णां जीवनिकायानां त्रसस्थावरलक्षणजीवसमुदायानाम्, दण्डयते - सारहीनः क्रियते आत्माऽनेनेति दण्ड: प्राणव्यपरोपणादिस्तम्, स्वयम् = आत्मना नैव=न कदापि समारभेत = विदधीत, नैव अन्यैः= स्वव्यतिरिक्तैः कैरपि जनैस्तद्वारेति भावः, दण्डम् उक्तलक्षणव्यापारं सामारम्भयेत्= कारयेत्, दण्डं समारभमाणान् = कुर्वाणान् अपि अन्यान् न समनुजानीयात् = अनुमन्येत । कियत्समयपर्यन्त ? मित्याह - ' जावज्जीवाए' इति, अत्र यावच्छन्दः परिमाणार्थको मर्यादार्थकोऽवधारणार्थकश्वाव्ययः, जीवनं जीवा ('जीव प्राणधारणे' अस्मात् 'गुरोश्च हल:' ( ३।३।१०३) इतिपाणिनिवचनेन स्त्रियामकारप्रत्यये स्त्रीत्वाट्टा 'ईहा, ऊहे ' स्यादिवत् ) तथा जीवया जीवामित्यर्थः ( ' ततोऽन्यत्रापि दृश्यते ' ) इति वचनबलाद् यावच्छन्दयोगे द्वितीयायाः प्राप्तावपि सौत्रत्वा तृतीया, तेन यावन्मम जीवनं तावदिति, जीवनं मर्यादीकृत्यार्थान्न केवलं मरणकाल -1 जिससे आत्मा ज्ञान दर्शन चारित्र से रहित होजाय उस हिंसा आदि व्यापारको दण्ड कहते हैं। मुनि पूर्वोक्त छह कायोंके दण्डका यावज्जीव न स्वयं समारभ करे न दूसरोंसे करावे और न समारंभ करनेवाले જેથી આત્મા જ્ઞાન દેન ચારિત્રથી રહિત થઈ જાય, એ હિંસા આદિ વ્યાપારને દંડ કહે છે મુનિ પૂર્વાંત છ કાર્યાના ૬ ડના યાવજ્જીવન પાતે ન સમાર’ભ કરે, ન ખીજાએ પાસે કરાવે અને સમારંભ કરનારા બીજાએની નુ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ श्रीदशवैकालिकसूत्रे एवाऽपितु ततः प्रागपीति, जीवन एव न तदुत्तरं परलोकेऽपीत्यर्थः । दण्डं किंविध ? मित्याह-त्रिविधं = तिस्रो विधा :- मकारा यस्यं स तम् = कृत कारिताऽनुमतरूपम्, तत्र कृतं = स्वतन्त्रेणाऽऽत्मना सम्पादितम्, कारितम् = अन्य - (व्यक्तयन्तर)द्वारा निष्पादितम् अनुमतं = सावद्यव्यापारमारभमाणस्य ' त्वं साधु करोषि, एवमेव कुर्वन्नास्व ' इत्यादिना प्रोत्साहितम्, त्रिविधेन = प्रकारत्रयविशिष्टेन करणभूतेन, केने ? त्याह- ' मनसा वाचा कायेने 'ति । 3 ननु त्रिविधेनेत्यनेन यत्प्रकारत्रयं गृह्यते तत् 'मनसे' त्यादिना प्रतिपदमेवोक्तम्, एवं सति त्रिविधेनेत्युपादानं पौनरुक्त्यदोपग्रस्तं भवति । यद्वा 'त्रिविधेने 'ति विशेषणं 'मनसे' - त्यादेरेव संभवति, ततश्च 'त्रिविधेन मनसा, त्रिविधया वाचा, दूसरोंकी अनुमोदना करे । दण्ड तीन प्रकारका है - (१) कृत, (२) कारित, (३) अनुमोदित । कृत - अपनी इच्छासे स्वयं करना । कारित - दूसरे व्यक्तिसे कराना । अनुमोदित जो सावध व्यापार कर रहा हो उसे अच्छा समझना । ग्रह सब सावद्य व्यापार तीन करण तीन योगसे न करे। वे तीन योग ये है - (१) मन, (२) वचन, (३) काय । प्रश्न- सूत्र में 'त्रिविधेन' (तीन प्रकारसे) कहा ही है फिर 'मनसा' (मनसे) 'वाचा' ( वचनसे) 'कायेन' (कायसे) कहने से पुनरुक्ति (कहे हुए को पुनः कहना) होती है। या 'तीन प्रकार से' यह विशेषण 'मन, वचन, काय' का ही हो सकता है । यदि ऐसा मान लिया जाय तो इसका अनुभोहना रे ४३ त्रयु प्राश्ना छे : (१) त, (२) अस्ति, (3) अनुभाहित કૃત-પેાતાની ઈચ્છાથી પાતે કરવું કારિત—ખીજી વ્યકિત પાસે કરાવવું. અનુમેાદિત~જે સાવદ્ય વ્યાપાર કરી રહ્યો હાય, તેને સારૂં જાણવું. એ બધા સાવધ વ્યાપાર ત્રણ કાણુ ત્રણ યાગથી ન કરે તે ત્રણ યુગ, मा छे - (१) भन, (२) वथन, ( 3 ) प्रश्न - सूत्रमा त्रिविधेन (त्र अया प्रभार) हेतु छे, पछी मनसा (मनथी), उडवु) वाचा ( वयनथी) कायेन (अयाथी) अहेवाथी पुनस्ति (उडेसाने अरे' मे विशेषाणु 'भन, वयन, आया' नुं न हो। राडे छे. માનવામા આવે તે એને અથ એવા થશે કે ૮ ત્રણ પ્રકારના થાય છે આ જેએમ ( Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सु. ७ः षड्जीवनिकायानां दण्डपरित्यागः २२९. त्रिविधेन कायेने 'त्यन्वये मनोवाक्कायानां प्रत्येकं त्रैविध्यं प्राप्नोति तच्चानिष्टं, नह्यत्र मनआदीनि प्रत्येकं त्रैविध्यमर्हन्ति किं तर्हि ? तद्व्यापास एवेति चेन्न, t तदभावे हि ' मनसा वाचा कायेन ' इत्येतावन्मात्रोक्तौ न करोमि न कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामी ' - त्यनेन सह ' यथासंख्यमनुदेशः समा-नाम् ' ( १ । ३ । १० ) इति वचनानुरोधेन ' शत्रु मित्रं विपत्ति च जय रञ्जय 'भञ्जये - त्यादिवत, एचोऽयवायावः ' ( ६ । १ । ७८ ) इत्यादिवद्वा क्रमिकान्वये "मनसा न करोमि, वाचा न कारयामि, कार्येन कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजा-अर्थ होगा कि 'तीन प्रकारके मनसे, तीन प्रकारके वचनसें और तीन प्रकार के कायसे' आरम्भ न करे । अर्थात् मन वचन कायके तीन तीन भेद होंगे। ऐसा अर्थ शास्त्रविरुद्ध है - शास्त्रोंमें भगवानने मन आदिके तीन तीन भेद नहीं बताये हैं, किन्तु मन आदिके व्यापारोंको तीन प्रकारका बताया है । उत्तर - यह शंका ठीक नहीं है । यदि 'त्रिविधेन' न कहकर केवल, 'मनसा वाचा कायेन' कह देते तो अर्थ ठीक न बैठता, क्योंकि जैसे कोई कहे कि "हेय और उपादेयको त्यागो और ग्रहण करे ।" तो इस वाक्यमें क्रम से 'हेय' के साथ 'त्यागो' का सम्बन्ध होजाता है और 'उपाय' के साथ 'ग्रहण करो का । इसी प्रकार 'चोलपट्टा चादर पहनो, ओढो' कहने से यह अर्थ होता है कि "चोलपट्टा पहना और चादर ओढो । " इसीप्रकार 'त्रिविधेन' (तीन प्रकार से ) पद न रखते મનથી, ત્રણ પ્રકારના વચનથી, અને ત્રણ પ્રકારની કાયાથી આર ભ ન ४. અર્થાત્ મન વચન કાયાના પણ ત્રણ ભેદ ખનશે એવા અર્થ શાસ્ત્રવિરૂદ્ધ છે શાસ્ત્રમાં ભગવાને મન આદિના ત્રણ ભેદ બતાવ્યા નથી,. પરન્તુ, મન આદિના વ્યાપારને તે ત્રણ પ્રકારના ખતાવ્યા છે. उत्तर- शं खराणर नथी. ले त्रिविधेन न उहीने जेवण मनसा वाचा વાવેન કહ્યું હોત તે અર્થ ખરાખર બંધ બેસત નહિ. કે “ુય અને ઉપાદેયને ત્યાગે અને ગ્રહણુ કરે ” તે હેય'ની સાથે ‘ત્યાગના સ ખ ધ થઇ જાય છે અને કરાના એજ રીતે ચાલપટ્ટો ચાદર પહેરા એઢા' } 'शासयट्टो पहेरो भने शाहर खोटे? मे " કારણ કે જેમ કેઈ કહે એ વાક્યમાં ક્રમાનુસાર ઉપાદેય ’ની સાથે ( ગ્રહણ થાય છે प्रमारे ) કહેવાથી એ અથ राते त्रिविधेन ( ऋ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ . .. श्रीदशवैकालिकम्त्रे एवाऽपितु ततः प्रागपीति, जीवन एव न तदुत्तरं परलोकेऽपीत्यर्थः । दण्डं किंविध? मित्याह-त्रिविधं-तिस्रो विधाः-प्रकारा यस्य स तम्-कृत-कारिताऽनुमतरूपम् , तत्र कृत स्वतन्त्रेणाऽऽत्मना सम्पादितम् , कारितम्-अंन्य-(व्यक्त्यन्तर)द्वारा निष्पादितम् , अनुमतं-सावधव्यापारमारभमाणस्य 'त्वं साधु करोषि, एवमेव कुर्वन्नास्व' इत्यादिना प्रोत्साहितम् , त्रिविधेनप्रकारत्रयविशिष्टेन करणभूतेन, केने ? त्याह-'मनसा वाचा कायेने 'ति । ननु त्रिविधेनेत्यनेन यत्पकारत्रयं गृह्यते तत् 'मनसे' त्यादिना प्रतिपदमेवोक्तम् , एवं सति त्रिविधेनेत्युपादानं पौनरुत्यदोपग्रस्तं भवति । यद्वा 'त्रिविधेने'ति विशेषणं 'मनसे'-त्यादेरेव संभवति, ततश्च 'त्रिविधेन मनसा, त्रिविधया वाचा, दूसरोंकी अनुमोदना करे । दण्ड तीन प्रकारका है-(१)कृत, (२) कारित, (३) अनुमोदित । कृत-अपनी इच्छासे स्वयं करना। . कारित-दूसरे व्यक्तिसे कराना । अनुमोदित-जो सावध व्यापार कर रहा हो उसे अच्छा समझना।' ग्रह सब सावद्य व्यापार तीन करण तीन योगसे न करे। वे तीन योग ये हैं-(१) मन, (२) वचन, (३) काय। .. प्रश्न-सूत्रमें 'त्रिविधेन' (तीन प्रकारसे) कहा ही है फिर 'मनसा' (मनसे) 'वाचा' (वचनसे) 'कायेन' (कायसे) कहनेसे पुनरुक्ति (कहे हुए को पुनः कहना) होती है । या तीन प्रकारसे' यह विशेषण 'मन, वचन, काय' का ही हो सकता है। यदि ऐसा मान लिया जाय तोइसका मनुमना ४२ ४३ यु पारने छ . (१) कृत, (२), रित, (3) मनुमाहित કૃત–પિતાની ઈચ્છાથી પિતે કરવું કારિત–બીજી વ્યક્તિ પાસે કરાવવું અનુદિત-જે સાવદ્ય વ્યાપાર કરી રહ્યો હોય, તેને સારું જાણવું એ બધા સાવધ વ્યાપાર ત્રણ કરણ ત્રણ ગણી ન કરે તે ત્રણ વેગ, मा छ-(१) मन, (२) क्यन, (3) या प्रश्न-सूत्रमा त्रिविधेन (aey प्रा३) ४ १ छ, पछी मनसा (मनथी), वाचा (वयनथी,) कायेन (याथी) ४वाथी पुन३ति (दान श ४ ) થાય છેઆ ત્રણ પ્રકારે” એ વિશેષણ “મન, વચન, કાયા” નુ જ હોઈ શકે છે. જે એમ માનવામા આવે તે એને અર્થ એ થશે કે “ત્રણ પ્રકારના Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ मू. ७ षड्जीवनिकायानां दण्डपरित्यागः २२९० त्रिविधेन कायेने '-त्यन्वये' मनोवाकायानां प्रत्येकं त्रैविध्यं प्रामोति तच्चानिष्टं नात्र मनआदीनि प्रत्येकं त्रैविध्यमईन्ति किं. तर्हि ? तद्व्यापारा एवेति चेन्न,, ___तदभावे हि 'मनसा वाचा कायेन' इत्येतावन्मात्रोक्तौ 'न करोमि न कारः' यामि, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामी'-त्यनेन सह 'यथासंख्यमनुदेशः समानाम् ' (१।३।१०) इति वचनानुरोधेन 'शत्रु मित्रं विपत्तिं च जय रञ्जय भञ्जयेत्यादिवत् , एचोऽयवायावः' (६।११७८) इत्यादिवद्वा क्रमिकान्वये 'मनसा न करोमि, वाचा न कारयामि, कायेन कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजाअर्थ होगा कि 'तीन प्रकारके मनसे, तीन प्रकारके वचनसे और तीन प्रकारके कायसे' आरम्भ न करे। अर्थात् मन वचन कायके तीन तीन भेद होंगे। ऐसा अर्थ शास्त्रविरुद्ध है-शास्त्रोंमें भगवानने मन आदिके तीन तीन भेद नहीं बतायें हैं, किन्तु मन आदिके व्यापारोंको तीन प्रकारका बताया है। उत्तर-यह शंका ठीक नहीं है । यदि 'त्रिविधेन' न कहकर केवल 'मनसा वाचा कायेन' कह देते तो अर्थ ठीक न बैठता, क्योंकि जैसे कोई कहे कि "हेय और उपादेयको त्यागो और ग्रहण करो।" तो इस वाक्यमें क्रमसे 'हेय' के साथ 'त्यागो'का सम्बन्ध होजाता है, और 'उपादेय के साथ 'ग्रहण करो'का। इसी प्रकार 'चोलपट्टा चादर पहनो, ओढो' कहनेसे यह अर्थ होता है कि "चोलपट्टा पहना और चादर ओढो ।” इसीप्रकार 'त्रिविधेन' (तीन प्रकारसे) पद न रखते મનથી, ત્રણ પ્રકારના વચનથી, અને ત્રણ પ્રકારની કાયાથી આરભ ન કરે. અર્થાત મન વચન કાયાના પણ ત્રણ ભેદ બનશે. એ અર્થ શાસ્ત્રવિરૂદ્ધ છે. શાસ્ત્રમાં ભગવાને મન આદિના ત્રણ ભેદ બતાવ્યા નથી, પરંતુ મન આદિના વ્યાપારને તે ત્રણ પ્રકારના બતાવ્યા છે. उत्तर--मे श' १२२५२ नथी । त्रिविधन न पडीन, वण मनसा वाचा ન કહ્યું હતું તે અર્થ બરાબર બંધ બેસત નહિ. કારણ કે જેમ કેઈ કહે કે “હેય અને ઉપાદેયને ત્યાગો અને ગ્રહણ કરે” તે એ વાકયમાં ક્રમાનુસાર 'उयन साथै 'त्याग'ना स५५ थ ननय छ भने उपाय 'नी साथे 'ड કરે”ને એજ રીતે “લપટ્ટો ચાદર પહેરે ઓઢે” કહેવાથી એ અર્થ થાય છે ‘यासपट्टो पडे। भने याह२ साढ' शते त्रिविधेन (ऋयु ॥) Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे चारित्रैर्दीप्यते इति भान्तः ('भा दीप्तौ' अस्मादौणादिकोऽन्तप्रत्ययः) स एव भदन्तः, ('सिद्धिः पृपोदरादित्वादेव' )। . (एवं यथामति व्युत्पत्त्यन्तरेष्वपि निरुक्तोक्तशाकटायनादिप्रतिपादितरीत्या साधनप्रक्रिया वोद्धव्या ।) तत्सम्वोधने हे भदन्त ! हे भगवन् ! अनेन सम्बोधननिर्देशेन व्रतप्रत्याख्यानादिकः सर्वोऽपि क्रियाकलापो गुरुसाक्षिक एव विधातव्य इति वोधितम् । प्रतिक्रामामि-प्रतिनिवर्ते भूतदण्डात्पृथग्भवामीत्यर्थः । यत्तु टीकान्तरेषु 'पडिक्कमामी ' त्यस्य 'प्रतिक्रमामी 'ति छायोपलभ्यते सा प्रमादविजृम्भितेव, ('क्रमः परस्मैपदेषु' (७३।७६) इति पाणिनिवचनवलेन क्रमेरुपधादीर्घस्य दुरत्वात् ।) निन्दामि-जुगुप्से । गर्दै प्रजुगुप्से इत्येवार्थः । ननु तर्हि निन्दा-गर्हयोः 'कुत्सा निन्दा च गर्हणे-ति कोशरीत्या पर्यायत्वेन पौनरुत्य वज्रलेपायितमेवेति चेन्न, यतः स्वसाक्षिकी निन्दा, गुरुसाक्षिकी च गहेंति परस्परं भवति भेदः । यद्वा ‘निन्दा साधारणी कुत्सा, गर्दा-सैवातिभूयसी'-ति परस्परमर्थभेदान्नास्ति पर्यायता, यथा प्रद्ध एव कोपः क्रोधो न साधारण इति कोप-क्रोधयोः पर्यायत्वाभावेन क्रुध्यर्थत्वाभावात् कुप्धातुयोगे और सम्यक्चारित्रसे दीपनेवाले । इन सबको 'भंते' कहते हैं । इसी प्रकार और अर्थ भी समझने चाहिए । 'भदन्त!' इस सम्बोधनसे यह प्रगट होता है किसमस्त क्रियाएँगुरुमहाराजकी साक्षीसे ही करनी चाहिए। हे भगवन् ! मैं दण्डसे निवृत्त होता हूँ, निन्दा करता हूँ, और गीं करता हूँ। कोशोंमें निन्दा और गहरे शन्दका एक ही अर्थ है इसलिए पुनरुक्ति होती है, ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि निन्दा आत्मसाक्षीसे होती है और गर्दा गुरुसाक्षीसे होती है । अथवा निन्दा साधारण कुत्साको कहते हैं और गहीं अत्यन्त निन्दोको कहते हैं। અને સમ્યક–ચારિત્રથી દીપ્તિમાન, એ બધાને મંતે કહે છે. એ જ રીતે બીજા અર્થે ५६ सम सेवा 'भदन्त' से समाधनथा सेभ ट थाय छे ४ ॥धा लिया। ગુરૂ મહારાજની સાક્ષીએ જ કરવી જોઈએ ' હે ભગવન ! હું દડથી નિવૃત્ત થઉ છું, નિન્દા કરૂ છું અને ગર્ણ કરૂં છું, શબ્દકેશોમાં “નિન્દા” અને “ગ” શબ્દને એકજ અર્થ છે, તેથી પુનરૂકિત થાય છે, એમ ન સમજવું, કારણ કે નિંદા આત્મસાક્ષીએ થાય છે અને ગર્લ્ડ ગુરૂ સાક્ષીએ થાય છે. અથવા નિદા સાધારણ કુત્સાને કહે છે અને ગહ અત્યંત નિંદાને કહે છે. Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. ७ षड्जीवनिकायानां दण्ड परित्यागः २३३ चतुर्थी 'नेष्यते, 'निन्दामि, गहे' इत्यनयोस्तस्येत्यनेन मागुक्तेन सम्बन्धस्तेनअतीतदण्डसम्बन्धिनी स्वसाक्षिकी गुरुसाक्षिकी च निन्दा करोमीति निर्गलितोऽय:, तस्येत्यत्र सम्बन्ध-सामान्ये षष्ठयाः प्रागुक्तत्वात् । यद्वा 'आत्मान'-मित्यस्यैव मध्यमणिन्यायाद् देहलीदीपन्यायाद्वा व्युत्सृजामीत्यनेन 'निन्दामि, गहें इत्याभ्यां च सम्बन्धस्तेन भूतकालिकदण्डविधायिनमप्रशस्तमात्मानं जुगुप्से व्युत्सृजामि विविधाऽनित्यादिभावनया विशिष्य वा परित्यजामीत्यर्थः ॥७॥ १"क्रुधदुहेाऽमूयार्थानां यं प्रति कोपः” (१।४।६४) इत्यत्र शब्देन्दुशेखरे 'न-ह्यकुपितः क्रुध्यती'-ति भाष्येण प्ररूढकोप एव क्रोध इति कुपेस्तदर्थत्वाभावेन न तद्योग इदम् 'कुप्यति कस्मैचि'-दित्याद्यसाध्वेवेति । इसका अर्थ यह होता है कि-हे भगवन् ! अतीत कालमें दण्ड (सावद्य व्यापार) करनेवाले आत्मा (आत्मपरिणति) को अनित्य आदि भावना भाकर त्यागता है, निन्दा करता हूँ, गर्दी करता हूँ। जैसे घरकी देहलीपर दीपक रखनेसे भीतर भी प्रकाश होता है और बाहर भी प्रकाश होता है इसको 'देहली-दीपक' न्याय कहते हैं। कहा भी है-"परै एक पद बीचमें, दुहु दिस लागै सोय । सो है 'दीपक देहरी', जानत है सब कोय ॥१॥" बीचमें मणि जड़ देनेसे दोनों ओर मणिका प्रकाश होता है, यह 'मध्यमणि' न्याय कहलाता है, इसी प्रकार 'अप्पाण' कादोनोंके साथ सम्बन्ध होता है । अर्थात् सावद्य व्यापारवाली आत्माको त्यागता हूँ और उसकी निन्दा करता हूँ, तथा गर्दा करता हूँ॥७॥ એને અર્થ એ થાય છે કે- હે ભગવન્! અતીત કાળમાં દડ (સાવદ્ય વ્યાપાર) કરનારા આત્મા (આત્મપરિણતિ)ને અનિત્ય આદિ ભાવના ભાવીને ત્યાગું છું, નિંદુ છુ, ગણું છું, જેમ ઘરની ડહેલી (બારણું) પર દી રાખવાથી અદર પણ પ્રકાશ થાય છે અને બહાર પણ પ્રકાશ થાય છે તેને “દેહલી-દીપક ન્યાય” કહે છે કહ્યું છે કે– “પરે એક પદ બીચમે, દુહ દિસ લાગે સોય, से 8 वी५४-हेरी,' तनत समय (१)" क्यभां मयि ही वाथी બેઉ બાજુ મણિને પ્રકાશ થાય છે તેને “મધ્યમણિ ન્યાય કહે છે, એ રીતે अप्पाणं न मनी साथे स५ थाय छ अर्थात् सावध-व्यापार मात्माने ત્યાગું છું અને તેની નિંદા કરૂ છુ, તથા ગહ કરું છું (૭) Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ श्रीदशवेकालिकसूत्रे दण्ड परित्यागो द्विविधः सामान्यविशेषभेदात्, सामान्यतो दण्दपरित्यागोऽहिंसा सामान्यम्, विशेषतो दण्डपरित्यागश्च पञ्च महाव्रतानि । नुं पञ्च महात्रतेषु सत्यादिवतानामहिंसातो भेद: सुस्पष्टं प्रतीयत इति कथमसिया पञ्चानां महाव्रतानां सामान्य- विशेषभाव उपपद्येत ? सामान्यविशेषभावो हि विशेषत्वेन विवक्षितपदार्थस्य सामान्यधर्माक्रान्तत्वादेव संपद्यते, अत एव'व्याप्यव्यापकभावापन्नयोः सामान्यविशेषभावः' इत्युद्धोप:, यथा- 'द्रोणो व्रीहि ' रित्यत्र प्रथमाविभक्त्यर्थस्य परिमाणसामान्यस्य द्रोणशब्दार्थे चतुराढकात्मक दusपरित्याग दो प्रकारका है - (१) सामान्य - दण्डपरित्याग और (१) विशेष दण्डपरित्याग । अहिंसा - सामान्यको सामान्य दण्डपरित्याग कहते हैं और पंच महाव्रतोंको विशेष दण्डपरित्याग कहते हैं । प्रश्न- पांच महाव्रतों में सत्य आदि महाव्रतोंका अहिंसासे स्पष्ट भेद प्रतीत होता है, फिर अहिंसा के साथ सत्य आदि महाव्रतोंका सामान्यविशेषभाव कैसे हो सकता है ? सामान्य- विशेषभाव वहीं होता है जिसको विशेष बनावें उसमें सामान्य धर्म भी पाया जाय । इसीलिए यह कहा गया है कि 'व्याप्य व्यापकभाव जिनमें होता है उन्हीं में सामान्यविशेषभाव पाया जाता है' जैसे " द्रोणो व्रीहिः " इस वाक्यमें प्रथमा विभक्तिका अर्थ परिमाण - सामान्य है । इस परिमाण -सामान्यका द्रोण शब्द के अर्थ चार आढकरूप परिमाण - विशेषमें अभेद सम्यन्धके દંડરિત્યાગ બે પ્રકારના છે (૧) સામાન્ય—દડપરિત્યાગ અને (૨) વિશેષ–દડરિત્યાગ અહિંસાસામાન્યને સામાન્ય દડ-પરિત્યાગ કહે છે, અને પંચ મહાવ્રતાને વિશેષ દડપરિત્યાગ કહે છે પ્રશ્ન-પાચ મહાવ્રતામાં સત્ય આદિ મહાવ્રતાના અહિંસાથી સ્પષ્ટ ભેઢ પ્રતીત થાય છે, તે પછી અહિંસાની સાથે સત્ય આદિ મહાવ્રતેને સામાન્યવિશેષ–ભાવ કેવી રીતે હોઈ શકે છે? સામાન્ય-વિશેષ-ભાવ તેમા હાઇ શકે છે કે જેને વિશેષ તાવે તેમાં સામાન્ય ધર્મો પણ મળી આવે કહેવામાં આવ્યું છે કે ‘જેમા વ્યાપ્ય—વ્યાપકભાવ હોય છે विशेष-भाव भणी यावे छे' भडे द्रोणो व्रीहिः मे वाग्यमां प्रथमा विलतिना અર્થ પરિમાણ સામાન્ય છે એ પરિમાણુ સામાન્યના, દ્રોણ શબ્દના અર્થ ચાર આઢક રૂપ પરિમાણુ-વિશેષમાં અભેદ્ય સ ખ ધની દ્વારા અન્વય થાય છે. એ તેથી કરીને એમ તેમાં જ સામાન્ય Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. ७ दण्ड परित्यागस्य सामान्यविशेषभावः २३५ परिमाणविशेषे तादाम्यसम्बन्धेन ( अभेदसम्बन्धेन) अन्वये सति द्रोणाभिन्नं परिमाणमिति बोधः, ततश्च प्रत्ययार्थपरिमाणस्य परिच्छेद्य-परिच्छेदकभावेन, व्रीहिपदार्थेऽन्वये द्रोणाभिन्नं यत्परिमाणं तत्परिच्छिन्नो (तत्परिमितो) व्रीहिरिति बोधः, अत्र प्रत्ययार्थस्य बीहावन्वयमदर्शनं प्रकृतानुपयोग्यपि प्रसङ्गतः कृतम् । यद्वा-यथा 'उपाध्यायो मुनि'-रित्यत्रोपाध्यायशब्दार्थे उपाध्यायपदधारिणि मुनिविशेषे मुनिशब्दार्थस्य मुनिसामान्यस्य तादात्म्यसम्बन्धेन (अभेदसम्बन्धेन) अन्वयः, तथा च-उपाध्यायाभिन्नो मुनिरिति बोधः, तत्र विशेषत्वेन विवक्षितपदार्थ उपाध्यायपदधारिणि मुनिविशेषे मुनिशब्दार्थस्य मुनित्वस्य सत्त्वादुभयोः द्वारा अन्वय होता है। इस अन्वयसे "चार आढकरूप परिमाण" (एक प्रकारका तौल) ऐसा बोध होता है। उस प्रत्ययार्थ परिमाणसामान्यको परिच्छेद्य-परिच्छेदक-भाव सम्बन्धसे ब्रीहि पदार्थमें अन्वय होनेसे “उस परिमाणसे परिमित (मापा हुआ) ब्रीहि" ऐसा बोध होता है । यहां व्रीहिमें अन्वय प्रसंगवश दिखलाया गया है। अथवा___ "उपाध्यायो मुनिः" यहाँ उपाध्याय शब्दका अर्थ है उपाय - पद्धारी मुनिविशेष (१), तथा मुनि शब्दका अर्थ मुनिसामान्य (२), अतः जो उपाध्याय है वही मुनि है, अर्थात् मुनिसे अन्य उपाध्याय नहीं है इसलिए उपाध्याय शब्दार्थको मुनि शब्दार्थके साथ अभेद सम्बन्धसे अन्वय होता है तो 'उपाध्यायसे अभिन्न मुनि' ऐसा बोध होता है। यहां विशेष याने उपाध्यायपदधारी (व्यक्ति) में मुनिके અન્વયથી “ચાર આઢક રૂપ પરિમાણ” (એક પ્રકારને તેલ) એ બંધ થાય છે એ પ્રત્યયાર્થ–પરિમાણ-સામાન્ય પરિછેદ્ય-પરિચ્છેદક–ભાવ સંબધથી શ્રીહિ પદાર્થમાં અન્વય થવાથી “એ પરિમાણથી પરિમિત (માપેલા) વ્રીહિ” એ બંધ થાય છે અહી વીહિમા અન્વયે પ્રસંગવશ બતાવવામાં આવ્યું છે. અથવા– उपाध्यायो मुनिः समा उपाध्याय सहनो अर्थ छ-उपाध्याय पहधारी मुनि-विशेष (१), तथा भुनि शहने। मथ छे भुनि-सामान्य (२), मेटले रे ઉપાધ્યાય છે તે જ મુનિ છે, અર્થાત્ મુનિથી જૂદ ઉપાધ્યાય નથી. એથી કરીને ઉપાધ્યાય શબ્દાર્થને મુનિ શબ્દાર્થની સાથે અભેદ સબ ધથી અન્વય થાય છે, અને તેથી “ઉપાધ્યાયથી અભિન્ન મુનિ એ બંધ થાય છે એમા વિશેષ કરીને ઉપાધ્યાય-પદધારી (વ્યકિત)માં મુનિના સામાન્ય ધર્મરૂપ મુનિત્વનું Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ श्रीदशवैकालिकसूत्रे पदार्थयोः सामान्य-विशेपभावोऽभेदान्वयश्च भवति, तथा प्रकृतेऽन्वयों न संभवति, सत्यादिमहावतानामहिंसातः मुस्पष्टभेदप्रतीतिबलादभेदान्वयस्य वाधादिति चेन्न पञ्चानामपि महाव्रतानां वस्तुतोऽहिंसात्मकत्वात् सामान्य-विशेषभावः सुवोध एव । अहिंसासामान्यस्वरूपावदातकरणाय शिष्याणां मुस्पष्टपतिपत्तये च दण्डपरित्यागस्य द्वैविध्यं कृतम् , एकैवाऽहिंसा पञ्चधा विभाजिता । ननु यथा 'द्रोणो व्रीहि 'रित्यादौ द्रोणादिशब्दार्थचतुराढकात्मकपरिमाणे चतुराढकत्वादिधर्मेण परिमाणत्वादिसामान्यधर्माक्रान्तात् प्रत्ययार्थपरिमाणासामान्यधर्म मुनित्वका अस्तित्व पाया जाता है, अत एव दोनों पदार्थोंका सामान्य-विशेपभावमें अभेदान्वय होता हैं। । अर्थात् जैसे इन दो उदाहरणोंसे अभेदमें सामान्य-विशेषभ पाया जाता है, वैसा अहिंसाके साथ सत्यादि व्रतोंका अभेद नहीं है, अत एव सामान्य-विशेपभाव नहीं हो सकता, क्योंकि उनका स्पष्ट भेद. प्रतीत होता है। ___उत्तर-पाँचों महाव्रत वास्तवमें अहिंसास्वरूप हैं,इसलिये अहिंसासे भिन्न नहीं हैं। अहिंसाके स्वरूपको स्पष्ट करनेके लिए और शिष्योंको स्पष्ट बोध करानेके लिए दण्डपरित्यागके दो भेद कर दिये हैं, अर्थात् एक ही अहिंसाको पांच महाव्रतोंमें विभक्त कर दिया है। प्रश्न-जैसे "द्रोणो व्रीहिः" इत्यादि वाक्योंमें परिमाणत्व आदि सामान्यधर्मसे युक्त प्रत्ययार्थ परिमाण-सामान्यसे द्रोण शब्दार्थ चार અસ્તિત્વ મળી આવે છે, તેથી કરીને બેઉ શબ્દના અને સામાન્ય-વિશેષ ભાવમા અભેદાન્વય થાય છે અર્થ-જેમ એ બેઉ ઉદાહરણથી અભેદમાં સામાન્ય-વિશેષ ભાવ મળી આવે છે, તેમ અહિંસાની સાથે સત્યાદિ વ્રતને અભેદ નથી, તેથી સામાન્ય વિશેષ-ભાવ થઈ શકતો નથી, કારણ કે એને સ્પષ્ટ ભેદ પ્રતીત થાય છે ઉત્તર–પાંચે મહાવ્રત વસ્તુતાએ અહિંસાસ્વરૂપ છે, તેથી કરી અહિંસાથી ભિન્ન નથી અહિંસાના સ્વરૂપને સ્પષ્ટ કરવાને માટે અને શિષ્યને સ્પષ્ટ બોધ કરાવવાને માટે દડ પરિત્યાગના બે ભેદ કરવામાં આવ્યા છે, અર્થાત્ એક જ અહિંસાને પાચ મહાવ્રતોમાં વિભકત કરી નાખવામાં આવી છે. प्रश्न- द्रोणो त्रीहिः त्यादि वयोमा परिभात्य मा सामान्य ધથી યુક્ત પ્રત્યાર્થ પરિમાણુ–સામાન્યથી દ્રોણ શબ્દાર્થ ચાર આહકરૂપ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. ७ दण्डपरित्यागस्य सामान्यविशेषभावः २३७ दितो विशेषत्वं प्रतीयते, यथा च नीलघटो घट इत्यादौ नीलगुणविशिष्टत्वेन नीलघटे घटसामान्यापेक्षया विशेषत्वं विद्यते, विशेषत्वं चात्र व्याप्यत्वमेव, तथा प्रकृते पञ्चमहाव्रतलक्षणेऽहिंसाविशेषे कथं विशेषत्वमिति चेच्छृणु प्राणातिपात विरमणत्वादिना व्याप्यधर्मेण पञ्च महात्रतेषु विशेषत्वं सुवचमेवेति । ननु तर्हि अहिंसासामान्यस्य किं लक्षणं यत् पञ्च महाव्रतेषु व्यापकं भवे ? दिति चेद् उच्यते - पजीवनिकायेषु दण्डसमारम्भवर्जनत्वमेवाऽहिंसा-सामान्यस्य आढकरूप परिमाण में चार आढकत्व आदि धर्मसे विशेषता प्रतीत होती है । अथवा "जो नीला घड़ा है वह घड़ा ही है" इत्यादि वाक्यों • में अन्य घड़ोंकी अपेक्षा नीले घड़ेमें नीलेपन से विशेषता पाई जाती है और वह विशेषता व्याप्यतारूप है, वैसे पंच महाव्रतरूप अहिंसाविशेषमें विशेषता किस धर्मके कारण है ? | उत्तर - प्राणातिपातविरमणत्व आदि व्याप्यधर्मोसे पांच महाव्रतों में विशेषता पाई ही जाती है । अर्थात् जहाँ प्राणातिपातविरमणत्व आदि व्याप्य धर्म पाये जाते हैं वहाँ अहिंसा-सामान्यका अस्तित्व रहता ही है। प्रश्न- अहिंसासामान्यका लक्षण क्या है ? जिससे वह पांच महाव्रतों में व्यापक होजावे ? | उत्तर- षड्जीवनिकायों में दण्डका परित्याग करना अहिंसा-सामान्यका પરિમાણુમા ચાર આઢકત્વ આદિ ધર્મથી વિશેષતા પ્રતીત થાય છે, અથવા '? નીલેા ઘડા છે તે ઘડાજ છે' ઇત્યાદિ વાકયેમા અન્ય ઘડાની અપેક્ષાએ નીલા ઘડામા નીલાપણાથી વિશેષતા મળી આવે છે અને તે વિશેષતા વ્યાખ્યતારૂપ છે તેમ પંચમહાવ્રતરૂપ અહિંસા–વિશેષમાં વિશેષતા કયા ધર્મને કારણે છે ? ઉત્તર—પ્રાણાતિપાતવિરમણત્વ આદિ વ્યાખ્ય—ધમાંથી પાંચ મહાવ્રતામાં વિશેષતા મળી આવે છે અર્થાત્ જયાં પ્રાણાતિપાતવિરમણત્વ આદિ વ્યાપ્ય ધર્મ મળી આવે છે ત્યા અહિંસા—સામાન્યનું અસ્તિત્વ રહેલું જ હાય છે પ્રશ્ન——અહિસા—સામાન્યનું લક્ષણ કર્યું છે કે જેથી તે પાંચ મહાવ્રતામાં વ્યાપક થઈ જાય છે ? ઉત્તર—ડ્જવનિકાયમાં દંડનેા પરિત્યાગ કરવા એ અહિંસા—સામાન્યનુ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ श्रीदशवैकालिकसूत्रे लक्षणम् , तच्च पञ्चम महानतेपु प्रत्येकं भवतीति लक्षगसमन्वयो वोध्यः, तथा च महावतान्यत्र व्याप्यानि सामान्यतो दण्डपरित्यागो व्यापकस्तस्य पञ्चमहाव्रतरूपापविशेपनिष्टत्वादतो व्यापकस्वरूपसामान्यदण्ड परित्यागं व्याख्याय विशेषदण्ड परित्यागलक्षणमहावतान्यभिधत्ते, तेषु प्राणातिपातविरमणात्मिकाया अहिंसायाः प्रधानत्वम् , इतरेपां सस्यक्षेत्रवर्ति-वृति (वाड़) वत्तत्परिपालनार्थतया तदगत्वात् , तथाचोक्तम् " अहिंसैका मता मुख्या, स्वर्गमोक्षपसाधनी । अस्याः संरक्षणार्थ च, न्याय्यं सत्यादिपालनम् ।। १॥" अन्यच्चलक्षण है । यह लक्षण पाँचोही महाव्रतोंमें पाया जाता है, अतःमहाव्रत व्याप्य हैं और सामान्य-दण्डपरित्याग व्यापक है। व्यापकरूप सामान्य-दण्डपरित्यागका पूर्व सूत्र में व्याख्यान किया है। अब विशेप-दण्डपरित्यागरूप पांच महाव्रतोंका व्याख्यान आरंभ करते हैं, उनमें प्राणातिपातविरमणरूप अहिंसा प्रधान है, जैसे धान्यकी रक्षाके लिए खेतके चारों ओर बाड़ होती है, उसी प्रकार अन्य महाव्रत अहिंसाके रक्षक होनेसे अंग हैं । कहा भी है "स्वर्ग और मोक्षको सिद्ध करनेवाली एक अहिंसा ही मुख्य है इसीकी रक्षाके लिए सत्यादि महावतोंका पालन करना उचित है।॥१॥ और भी कहा हैલક્ષણ છે, એ લક્ષણ પાચે મહાવ્રતમાં મળી આવે છે, તેથી મહાવત વ્યાપ્ય છે, અને સામાન્ય-દંડ પરિત્યાગ વ્યાપક છે વ્યાપકરૂપ–સામાન્ય-દડપરિત્યાગનું વ્યાખ્યાન પૂર્વ–સૂત્રમાં કહેલું છે હવે વિશેષ-દડપત્યિાગરૂપ પાંચ મહાવ્રતનું વ્યાખ્યાન શરૂ કરવામા આવે છે, તેમાં પ્રાણાતિપાત વિરમણરૂપ અસિા પ્રધાન છે જેમ ધાન્યની રક્ષાને માટે ખેતરની ચારે બાજુએ વાડ હોય છે, તેમ અન્ય મહાવ્રતે અહિંસાના રક્ષક હોવાને લીધે ગરૂપ છે કહ્યુ છે કે – વર્ગ અને મોક્ષને સિદ્ધ કરવાવાળી એક અહિંસા જ મુખ્ય છે તેની शाने भाटे अत्याहि मनोनृ पालन ४२y eयित छ ” (१) વળી કહ્યું છે કે – Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९ - अध्ययन ४ सू. ८ (१)-प्राणातिपातविरमणस्वरूपम् " आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् । अमृतवचनादिकेवल,-मुदाहृतं शिष्यवोधाय ॥२॥" किञ्च " एगं चिय इत्थ वयं, निहिं जिणवरेहिं सव्वेहि । पाणाइवायविरमण, मवसेसा तस्स रक्खट्टा ॥३॥" अतश्चादौ प्राणातिपातविरमणाख्यं प्रथमं महाव्रतमाह-पढमे० 'इत्यादि । मूलम्-पढमे भंते !महत्वए पाणाइवायाओ वेरमणं, सवं भंते! पाणाइवायं पच्चक्खामि, से सुहुमं वा बायरं वा तसंवा थावरं वा नेव सयं पाणे अइवाइज्जा, नेवन्नेहिं पाणे अइवायाविज्जा, पाणे अइवायंतेवि अन्ने न समणुजाणिज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेण मणेणं वायाए कारणं न करेमि, न कारवेमि, करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं __ "असत्य-वचन बोलने आदिसे भी आत्माके परिणामोंकी हिंसा होती है, अतः असत्य आदि सभी हिंसारूप है। असत्य आदिका अलग कथन शिष्योंको स्पष्ट समझानेके लिए किया गया है ॥२॥" तथा "भगवानने एक प्राणातिपातविरमणको ही मुख्य कहा है अन्य व्रत उसीकी रक्षाके लिए हैं ॥३॥" इसलिये पहले-पहल प्राणातिपात-विरमण महाव्रतका कथन करते हैं- “पढमे भंते०" इत्यादि । “અસત્ય વચન બોલવા વગેરેથી પણ આત્માના પરિણામની હિંસા થાય છે, તેથી અસત્ય આદિ બધાં હિંસારૂપ છે. અસત્ય આદિનું જૂદું કથન શિષ્યને સ્પષ્ટ સમજાવવાને માટે કરવામાં આવ્યું છે ... (૨) . तथा ભગવાને એક પ્રાણાતિપાત વિરમણને જ મુખ્ય કહ્યું છે, અન્ય તે तेनी २क्षाने भाटे छे ” (3) તેથી કરીને સૌથી પહેલાં પ્રાણાતિપાત-વિરમણ મહાવ્રતનું કથન કરે છેपढमे भंते. या Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० श्रीदशवेकालिकमुत्रे वोसिरामि । पढमे भंते ! महवए उवडिओमि सव्वाओ पाणाड़वायाओ वेरमणं ॥ ८ ॥ छाया - प्रथमे भदन्त ! महावते प्राणातिपाताद्विरमणं, सर्व भदन्त ! प्राणातिपातं प्रत्याख्यामि, अथ सूक्ष्मं वा वादरं वा त्रस वा स्थावरं वा नैव स्वयं प्राणानतिपातयामि, नैवान्यैः प्राणानतिपातयामि, प्राणानतिपातयतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि, तस्माद् भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि ग आत्मान व्युत्सृजामि, प्रथमे भदन्त ! महाव्रते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्मात् माणातिपाताद्विरमणम् ॥ शिष्य पट्का की विराधना का त्याग करके अब पाँच महाव्रत और छठे रात्रि भोजनविरमणव्रतको ग्रहण करता है (१) प्राणातिपातविरमण. सान्वयार्थः- भंते! हे भदन्त ! हे भगवन् ! पढमे = प्रथम महत्वए = महाव्रत में पाणाइवायाओ=प्राणातिपातसे वेरमणं विरमण होता है, (अतः मैं) भंते ! हे भगवन् ! सन्वं सब प्रकारके पाणावायं = प्राणातिपात ( हिंसा) का पच्चक्खादियाग करता हूँ। से=अथ अबसे लेकर (मैं) सुमं=क्ष्म वा=अथवा वायरं=वादर वा=अथवा तसं=त्रस वा = अथवा थावरं = स्थावर पाणे= प्राणियोंका सयं = स्वयं-खुद नेव=नहीं अइवाइज्जा = अतिपात- हनन करूँगा, नेव=न अन्नेहि=दूसरोसे पाणे = प्राणियोंको अड्वायाविज्जा हनन कराऊँगा, (और) पाणे=प्राणियोंको अचार्यतेवि हनन करते हुए भी अन्ने = दूसरोंको न=नहीं= समणुजाणेजा-भला जानूँगा, जावजीवाए= जीवनपर्यन्त ( इसको ) तिविहूं= कृतकारितअनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेणं-तीन प्रकारके मणेणं = मनसे वायावचनसे कारणं कायसे न करेमि=न करूँगा, न कारवेमि=न कराऊँगा, करंतंपि = करते हुए भी अन्नं-दूसरेको न समणुजाणामि=मला नहीं समझेगा | भंते ! = हे भगवन् ! तस्स = उस दण्डसे पडिक मामि= पृथक होता है, निंदामि=आत्मसाक्षी से निन्दा करता हूँ, गरिहामि = गुरुसाक्षी से गर्दा करता हूँ, अप्पाणं दण्ड सेवन करनेवाले आत्माको बसिरामित्यागता हूँ । भंते = हे भगवन् ! पढमे = प्रथम महत्व मन में उओिम उपस्थित हुआ है, इसलिये मुझे सचाओ सव प्रकारके पाणाड़वायाओ = प्राणातिपातका वेरमणं त्याग है ||८|| (१) 1 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४, ८ (१) - प्राणातिपातविरमणव्रतम् (१) प्राणातिपात - विरमणव्रतम् । - टीका - भदन्त ! = हे भगवन् ! प्रथमे = आद्ये महाव्रते = महत्-विशालं व्रतं = शास्त्रीयमर्यादानुसरणम्, महच्च तद् व्रतं च महाव्रतम्, महत्त्वं चास्य श्रावकाणुव्रतापेक्षया, द्रव्य-क्षेत्र - काल-भावतः सर्वव्यापकत्वेन महद्भिस्तीर्थकर गणधरादिभिराचरितत्वेन, महापुरुषाचर्यमाणत्वेन चास्ति, तस्मिन् प्राणातिपातात् = प्राणाः = स्पर्शनेन्द्रियादयः सन्त्येपामिति प्राणा: = एकेन्द्रियादयो जीवाः ('अर्श आदित्वादच्') तेषामतिपातो=वियोजनं हिंसनमित्यर्थः, तस्माद् विरमणं=निवर्त्तनम् ' अस्ती 'ति शेषः, अतोऽहं भदन्त ! = हे भगवन् ! सबै = स्थूलसूक्ष्मादियावद्भेदविशिष्टं कृत- कारिताऽनुमोदितस्त्ररूपं वा प्राणातिपात प्रत्याख्यामि = प्रति = प्रातिकूल्येन आख्यामि = कथयामि सर्वथा परित्यजामीति भावः, तदेव विशेषयति- ' ' से० ' इति, से= अथ = अनन्तरम् अद्यारभ्य सूक्ष्मं = मूक्ष्मनामकर्मप्रकृत्युदयसंपन्नम् । यद्य / १ देशीशब्दोऽयम् । " -२४/१ " (१) प्राणातिपातविरमण | ये श्रावक व्रतोंकी अपेक्षा विशाल होने से महाव्रत कहलाते हैं (१), (अथवा सर्व द्रव्य-क्षेत्र - काल- भावकी अपेक्षा प्राणातिपात आदिका सर्वथा त्याग होता है इस कारण महाव्रत कहलाते हैं (२), या तीर्थकर गणधर आदि महापुरुषोंने इनको अंगीकार किया है और वर्त्तमानमें भी महापुरुष इनको अंगीकार करते हैं इससे ये महाव्रत कहलाते हैं (३) । हे भगवन् ! प्रथम महाव्रतमें प्राणातिपात से विरमण होता है इसलिए हे भगवन् ! मैं कृत-कारित अनुमोदना से सूक्ष्म स्थूल सब प्रकार के प्राणातिपातका परित्याग करता हूँ । अर्थात् सूक्ष्म नामकर्म की प्रकृति से उत्पन्न (૧) પ્રાણાતિપાતવિરમણ એ શ્રાવકના વ્રતેની અપેક્ષાએ વિશાળ હાવાને લીધે મહાવ્રત કહેવાય છે (૧). અથવા સર્વાં દ્રવ્ય-ક્ષેત્ર-કાળ-ભાવની અપેક્ષાએ પ્રાણાતિપાત સ્માદિને સથા ત્યાગ થાય છે એ કારણે તે મહાવ્રત કહેવાય છે (૨) અથવા તીર્થંકર ગણુધર આદિ મહાપુરૂષો એને અગીકારે છે તેથી એ મહાવ્રત કહેવાય છે (૩) હે ભગવ ! પ્રથમ મહાવ્રતમા પ્રાણાતિપાતથી વિરમણુ હાય છે, તેથી, હે ભગવન્ ! હું કૃત-કાતિ-અનુમેદનાથી સૂક્ષ્મ સ્થૂલ સવ પ્રકારના પ્રાણાતિપાતના પરિત્યાગ કરૂ છું. અર્થાત્ સુક્ષ્મ-નામકર્મીની પ્રકૃતિથી ઉત્પન્ન સૂક્ષમ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ श्रीदशवकालिकसूत्रे प्यस्य कायिकी हिंसा न भवति तथापि तद्रहणं न केवलं कायिक्येव हिंसा किन्तु वाल्मनसयोर्दुष्पणिधानेनापि हिंसा संभवत्येवेति ज्ञापनार्थम् । यद्वा सूक्ष्म लघुकायिकं कुन्थ्वादिकम् , वादरं स्थूलकायिकं गोगजादिकम् , अनयोरपि त्रस-स्थावरभेदाद्वैविध्य, तदाह-त्रसं स्थावरं च, तत्र सूक्ष्मत्रसंकुन्थ्वादिकम् , सूक्ष्मस्थावरंपनकादिवनस्पतिम् ,वादरत्रसम् अज-गज-गवयादिकम् ,वादरस्थावरं भूम्यादिकम् , इतीमान् प्राणान् जीवान् नैव स्वयम्-आत्मनाअतिपातयामि हन्मि, नैवान्यैः प्राणानतिपातयामि घातयामि,प्राणानतिपातयतोऽन्यान न समनुजानामि,इत्यादि माग्वत् । सूक्ष्म अथवा सूक्ष्म कायवाले कुंथुवा आदि और चादर (स्थूल) कायवाले गो-हस्ती आदि जीवोंके प्राणोंका कभी अतिपात नहीं करूँगा। यद्यपि सूक्ष्म नामकर्मकी प्रकृतिवाले सूक्ष्म प्राणियोंकी कायिक हिंसा नहीं होती परन्तु वचन और मनसे हो सकती है, जैसे-'यह मर जाय तो अच्छा है। ऐसा कहना वचनसे हिंसा है, और घातकी भावना करना मनसे हिंसा है; इसलिए सूक्ष्मका भी यहाँ ग्रहण किया है। सूक्ष्म और यादरके भी दो दो भेद हैं-(१) बस और (२) स्थावर । सूक्ष्म-त्रस कुंथुवा आदि है, सूक्ष्म-स्थावर पनक आदि वनस्पति (नीलण-फूलण) हैं। बादर-त्रस मेंढा घोड़ा रोझ आदि । और बादर-स्थावर भूमि आदि है। इन सब प्राणियोंको कभी प्राणोंसे वियुक्त नहीं करूँगा, न दूसरेसे कराऊँगा, न करनेवालेको भला जानूंगा। અથવા સલ્મ કાયવાળા કથવા આદિ અને બાદર (સ્થલ) કાયવાળા ગાય હાથી આદિ જેના પ્રાણને કદાપિ અતિપાત નહિ કરૂં છે કે સૂફમનામકર્મની પ્રકૃતિવાળા સૂક્ષમ પ્રાણીઓની કાયિક હિંસા થતી નથી, તેપણુ વચન અને મનથી થઈ શકે છે, જેમકે-“એ મરી જાય તે સારૂ એમ કહેવું તે વચનથી હિંસા છે, અને ઘાતની ભાવના કરવી એ મનથી હિંસા છે, તેથી કરીને સૂમને પણ અહી ગ્રહણ કરેલ છે સૂક્ષ્મ અને બાદરના પણ બે-બે ભેદ છે. (૧) બસ, અને (૨) સ્થાવર, સુહમ ત્રસ કંથવા આદિ છે સૂફમ સ્થાવર લીલન-ફૂલન આદિ વનસ્પતિ છે. બાદર વસ–મેંઢા ઘેડા રેઝ વગેરે છે અને બાદર સ્થાવર-ભૂમિ આદિ છે. એ સર્વ પ્રાણીઓને કદાપિ પ્રાણુધી વિયુક્ત કરીશ નહિ, બીજા વડે કરાવીશ નહિ અને કરનારને ભલા જાણશ નહિ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. ९ (२)-मृषावादविरमणव्रतम् २४३ - सम्पति शिष्यः स्वस्य महाबतित्वं ख्यापयन्नुपसंहरति-हे भगवन् ! प्रथमे महाव्रते उपस्थितोऽस्मि अभ्युद्यतोऽस्मि कृतोद्यमोऽस्मीत्यर्थः । अतोऽद्यप्रभृति मम सर्वस्मात् प्राणातिपाताद विरमणं सकलमाणातिपातालम्बनसावधव्यापारपत्याख्यानम् 'अस्ती'-ति शेषः ॥ ८॥ (१) -- सलिलेन तरुगुल्मलतादीनामिव प्राणातिपातविरमणस्य परिपुष्टिर्मषावादपरित्यागेन भवतीत्यतस्तदनन्तरं मृषावादपरित्यागलक्षणं द्वितीयं महाव्रतमाह'अहावरे दोचे' इत्यादि । ' मूलम्-अहावरे दोच्चे भंते ! महत्वए मुसावायाओ वेरमणं, सवं भंते! मुसावायं पञ्चक्खामि,से कोहा वा लोहा वा भया वा हास वा नेव सयं मुसं वइज्जा, नेवन्नेहि मुसं वायाविजा, मुसं वयंतेवि अन्ने न समणुजाणिज्जा ! जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि। तस्स भंते! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । दोच्चे भंते! महत्वए उवडिओमि सबाओ मुसावायाओ वेरमणं ॥९॥ छाया-अथापरे द्वितीये भदन्त ! महावते मृषावादाद्विरमणं, सर्वे भदन्त ! मृषावादं प्रत्याख्यामि, अथ क्रोधाद्वा लोभावा भयाद्वा हासाद्वा नैव हे भगवन् ! मैं प्रथम महाव्रतको पालनेके लिए उद्यत हुआ हूँ, इसलिए आजसे मुझे समस्त प्रकारकेप्राणातिपातका प्रत्याख्यान है (१)॥८॥ जैसे वृक्ष-लता आदि पानीसे पुष्ट होते हैं वैसेही मृषावादका त्याग करनेसे प्राणातिपातविरमण महाव्रतकी पुष्टि होती है, अतः प्राणातिपातविरमणके बाद दूसरे मृषावादविरमण महाव्रतका व्याख्यान करते हैं'अहावरे दोच्चे०' इत्यादि । હે ભગવન્! હું પ્રથમ મહાવ્રતને પાળવા માટે ઉદ્યત થયે છું, તેથી આજથી મારે બધા પ્રકારના પ્રાણાતિપાતનાં પ્રત્યાખ્યાન છે (૧) (૮) જેમ વૃક્ષ–લતા આદિ પાણીથી પુષ્ટ થાય છે તેમ મૃષાવાદને ત્યાગ કરવાથી પ્રાણાતિપાતવિરમણ મહાવ્રતની પુષ્ટિ થાય છે. એટલે પ્રાણાતિપાત વિરમણની પછી Milan Fषापाविरभ मानतनु व्याभ्यान ४२ छे-अहावरे दोच्चे० छत्याल. Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - २४४ श्रीदशवैकालिकसूत्रे स्वयं मृषा वदामि नैवान्यैर्मृषा वादयामि, मृषा वदतोऽप्यन्यान् न समनुजानामि । यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्माद् भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्दै आत्मानं व्युत्सृजामि। द्वितीये भदन्त ! महाव्रते उपस्थितोऽस्मि (अतः) सर्वस्मात् मृषावादाद्विरमणम् ॥९॥ ____ (२) मृषावादविरमण. सान्वयार्थः-भंते! हे भगवन् ! अहावरे इसके बाद दोचे-दूसरे महब्वए महाव्रतमें मुसावायाओ-मृपावादसे वेरमणं-विरमण होता है (अतः मैं) भंते! हे भगवन् ! सव्वं-सब प्रकारके मुसावायं मृषावादका पञ्चक्खामि त्याग करता हूँ। से अथ-अब से लेकर मैं कोहावा क्रोधसे लोहावा लोभसे भयावा भयंसे हासावा हास्यसे सयं-खुद मुसावायं असत्य नेव-नहीं वइज्जाबोलूंगा, नेव-नअन्नेहि-दूसरोंसे मुसं-असत्य वायाविजा=बोलाऊँगा, मुस-असत्य वयतेवियोलते हुएभी अन्ने दूसरोंको न समणुजाणिज्जा-भला नहीं जानूंगा। जावजीवाए जीवनपर्यन्त (इसको)तिविहं-कृत-कारित-अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेणं-तीन प्रकारके मणेणं-मनसे वायाए वचनसे काएणं कायसे न करेमि=न करूँगा, न कारवेमि-न कराऊँगा, करतंपि-करते हुएभी अन्नं-दूसरेको न समणुजाणामि-भला नहीं समझूगा । भंते ! हे भगवन् ! तस्स-उस दण्ड से पडिकमामिपृथक होता हूँ, निंदामि आत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि-गुरु साक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्पाणंदण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि-त्यागता हूँ, भंते ! हे भगवन् ! दोचे-दूसरे महब्बए महाव्रतमें उवडिओमि-उपस्थित हुआ हूँ, इसलिये मुझे सव्वाओ-सव प्रकारके मुसावायाओ-असत्यसे वेरमणं-त्याग है ।।९।। (२) (२) मृषावाविरमणव्रतम् । टीका-अध-प्रथममहावतानन्तरं हे भदन्त ! हे भगवन् ! अपरे-समनन्तरोदीरितमहाव्रतापेक्षया भिन्ने द्वितीये महावते मृपावादा-मिथ्याभापणात् 'विरमण' (२) मृषावादविरमण । हे भगवन् ! प्रथम महाव्रतके अनन्तर दूसरे महाव्रतमें मृषावादसे (२) भृपावादविरमा.. હે ભગવન્! પ્રથમ મહાવ્રતની પછી બીજા મહાવ્રતમા મૃષાવાદથી વિરમણ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. ९ (२)-मृपावादविरमणव्रतम् २४५ मित्यनेन सम्बन्धो वक्ष्यते । मृपावादो हि सद्भावप्रतिषेधा-ऽभूतोद्भावना-ऽर्थान्तरीभिधान-गहेतिभेदैश्चतुर्विधः, तत्र सद्भावप्रतिषेधः जीवाजीवादिपदार्थसत्तानिराकरणम् , यथा-'नास्त्यात्मा, परलोकः, पुण्यपापादिकं चेति (१)। अभूतोद्धावनम् = जीवाजीवादितत्वानामतद्रूपत्वेन प्रतिपादनम् , यथा-"आत्माऽयमङ्गष्टमात्री, निष्क्रियः, सर्वगतो वेत्यादि (२)। अर्थान्तराभिधानम्-प्रसिद्धपदार्थस्य पदार्थान्तरत्वेन कथनम् , यथा-गोगर्दभत्वेन, गर्दभस्य गोत्वेनाभिधानम् (३)। गर्दा गहित हीनताप्रदर्शनम् , यद्वा हिंसापारुष्यादियुक्तं सत्यमपि वचः, यथा-'अयं हन्तव्यः' इत्यादि, 'एहि अन्ध!, आयाहि वधिर !, आगच्छ पङ्गो !' इत्यादि च(४)। विरमण होता है। मृषावाद चार प्रकारका है-(१) सद्भावप्रतिषेध, (२) अभूतोद्भावन, (३) अर्थान्तराभिधान, (४) गहाँ । जीव अजीव आदि पदार्थोके अस्तित्वका निराकरण करना सद्भावप्रतिषेध मृषावाद है, जैसे-'आत्मा नहीं, परलोक नहीं, पुण्य नहीं, पाप नहीं' इत्यादि (१)। जीव अजीव आदि तत्त्वोंका अयथार्थ स्वरूप प्रतिपादन करना अभूतोद्भावन मृषावाद है, जैसे-'आत्मा अंगूठेके बराबर है, निष्क्रिय है या सर्वगत है' (२)। एक पदार्थको दुसरा पदार्थ कह देना अर्थान्तराभिधान मृषावाद है, जैसे-'गायको गधा बताना, या गधेको गाय कहना' (३)। दुसरेकी हीनता प्रगट करना, अथवा हिंसा और कठोरतायुक्त सत्य वचन कहना गर्दारूप असत्य है, जैसे-'यह मार डालने योग्य है, ओ अंधे! इधर आ, ओ बहिरे! या लंगडे ! यहाँ आ' इत्यादि (४)। હિય છે મૃષાવાદ ચાર પ્રકાર છે (૧) સદભાવપ્રતિષેધ, (૨) અભૂભાવના (૩) અર્થાન્તરાભિધાન, (૪) ગહ જીવ અજીવ આદિ પદાર્થોના અસ્તિત્વનું નિરાકરણ કરવું એ સદ્દભાવપ્રતિષેધ મૃષાવાદ છે, જેમકે-આત્મા નથી, પરેલેક नथा, मुख्य नथी, पा५ नथी' त्यादि (१) ७१ म०१ माहि तत्वानु भयથાર્થ સ્વરૂપ પ્રતિપાદન કરવું એ અભૂતભાવન મૃષાવાદ છે, જેમકે- “આત્મા અંગૂઠા જેવડો છે, નિષ્ક્રિય છે ચા સર્વગત છે” (૨) એક પદાર્થને બીજે પદાર્થ કહી દે એ અર્થાન્તરાભિધાન મૃષાવાદ છે, જેમકે- “ગાયને ગધેડે કહે છે ગધેડાને ગાય કહેવી” (૩) બીજાની હીનતા પ્રકટ કરવી, અથવા હિંસા તથા કઠોરતા-યુક્ત સત્યવચન કહેવાં એ ગહરૂપ અસત્ય છે, જેમકે- “એ મારી નાખવા योग्य छे, मे niuan | 24 माप, मो ९२ ! मी ! महा माव' - त्याहि. (४) Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ श्रीदशवकालिकसूत्रे इमेऽपि (चत्वारो भेदाः) प्रत्येकं चतुर्धा-द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव-भेदान् । तत्र द्रव्यविषयकसद्भावप्रतिषेधः-धर्माधर्मादिषद्रव्याणामन्यथा प्ररूपणम् । क्षेत्रविषयक-सद्भावमतिषेधः-लोकालोकयोरन्यथा निरूपणम् । कालविषयकसद्भावप्रतिषेधःक्षण-मुहूर्त्त-दिवसादिस्वरूपाणामन्यथा निरूपणम् । भावविषयकसद्भावप्रतिषेधःरागद्वेषादीनामन्यथा प्रतिपादनम् । एवमेवाऽभूतोद्भावनादित्रयेऽपिद्रव्यादिचतुर्भङ्गी योजनीया । तस्माद्विरमणमिति । हे भगवन् ! सर्व समस्तं मृपावादं प्रत्याख्यामीति पूर्ववदोद्धव्यम् । ..' तदेव विशदयति-'से'-इति, अथ-अनन्तरम्-अधारभ्य-क्रोधात्-क्रोध:- इन चार प्रकारके मृषावादोंके भी द्रव्य क्षेत्र काल भावके भेदसे चार चार भेद होते हैं । धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आदि षद्रव्योंके ‘स्वरूपकी अन्यथा प्ररूपणा करना द्रव्य-सद्भावप्रतिषेध है। लोक और अलोकका अयथार्थ निरूपण करना क्षेत्र-सद्भावप्रतिषेध है । क्षण मुहूर्त दिन आदिके स्वरूपका मिथ्या कथन करना काल-सद्भावप्रतिषेध है। 'राग द्वेष आदि भावोंकाविपरीत स्वरूप बताना भाव-सद्भावप्रतिषेध है। इसी प्रकार अन्य तीन भेदोंकी चतुभंगी समझ लेनी चाहिए, जैसे-- द्रव्य अभूतोद्भावन, क्षेत्र अभूतोद्भावन, इत्यादि । हे भगवन् ! मैं सब प्रकारके मृषावादका प्रत्याख्यान करता हूँ। मृषावाद किस किस कारणसे होता है ? सो कहते हैंजीवके क्रोध-मोहनीय प्रकृतिके उदयसे स्व-परके चित्तमें विकार એ ચાર પ્રકારના મૃષાવાદના પણ દ્રવ્ય ક્ષેત્ર કાળ ભાવના ભેદે કરીને ચાર ચાર ભેદ થાય છે. ધર્માસ્તિકાય અધમસ્તિકાય આદિ છ દ્રવ્યના સ્વરૂપની અન્યથા પ્રરૂપણ કરવી એ દ્રવ્ય-સર્ભાવપ્રતિષેધ છે લેક અને અલકનું અયથાર્થ નિરૂપણ કરવું એ ક્ષેત્ર–સદ્દભાવપ્રતિષેધ છે, ક્ષણ મુહૂર્ત દિન આદિના સ્વરૂપનુ મિથ્યા કથન કરવું એ કાલ–સદ્ભાવપ્રતિષેધ છે રાગ દ્વેષ આદિ ભાવનું વિપરીત સ્વરૂપ બતાવવું એ ભાવ-સંભાવપ્રતિષેધ છે એ પ્રકારે અન્ય ત્રણ ભેદની ચતુગી સમજી લેવી, જેમકે દ્રવ્ય-અભૂતભાવન, ક્ષેત્ર-અભૂતભાવન, ઈત્યાદિ હે ભગવન્! હુ સર્વ પ્રકારના મૃષાવાદના પ્રત્યાખ્યાન કરૂં છું. મૃષાવાદ કયા કયા કારણથી થાય છે! તે હવે કહે છે– જીવના ક્રોધ–મેહનીય પ્રકૃતિના ઉદયથી સ્વ–પરના ચિત્તમાં વિકાર કરવા Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. ९ (२) - अदत्तादानविरमणव्रतम् - आत्मनः क्रोधमोहनीयप्रकृत्युदयेन स्वपर चित्त विकृतिजनको निरनुकम्पक्रौर्यवैभाविकपरिणाम विशेषस्तस्मात् । लोभात् = लोभः - लोभप्रकृत्युदयवशाद्रव्याद्यभिलाषलक्षणो जीवस्य वैभाविकपरिणामस्तस्मात् । भयात् =भयं भयमोहनीयप्रकृत्युदयेनोद्वेगाssवेदको विकारविशेषस्तस्मात् । हासात् हास :- हास्यमोहनीयमकृत्युदयेन वागादिविकृत्या कपोलयुगलोल्लासन- लोचनसंकोचन - दशन प्रकाशन- सहकृतसशब्दमाय वदनव्यादानादिलक्षणश्चेतोविकाशस्तस्मात् । नैव स्वयं मृषा = मिथ्या वदामि, नैवान्यैर्मृषा वादयामि, मृपा वदतोऽप्यन्यान्न समनुजानामीत्यादि पूर्ववत् ॥ ९ ॥ (२) २४७ करनेवाला अनुकम्पारहित क्रूरतारूप वैभाविक परिणाम क्रोध है ! लोभ - प्रकृति के उदयसे द्रव्य आदि की अभिलाषारूप जीवके वैभाविक भावको लोभ कहते हैं, भय- मोहनीयके उदयसे उद्वेगको उत्पन्न करनेवाला विकार भय कहलाता है । हास्य- मोहनीयके उदयसे वचनोंकी विकृति के साथ गाल फुलाकर आँखें कुछ२ मूँदकर दांत निकालकर 'ही - ही' शब्द करके मुखको प्रफुल्लित करना हास्य कहलाता है । इन सब कारणोंसे मृषावाद होता है। मैं इन कारणोंके वश होकर न स्वयं मृषा बोलूँगा, न दूसरोंसे बोलाऊँगा, न किसी मृषा बोलते हुको भला जानूँगा ( २ ) ॥९॥ વાળા અનુક પારહિત ક્રૂરતારૂપ જીવના વૈભાવિક-પરિણામ એ ક્રોધ છે લાભ-પ્રકૃતિના ઉદયે કરીને દ્રવ્ય આદિની અભિલાષારૂપ જીવના વૈભાવિકભાવને લાભ કહે છે ભય–માહનીયના ઉદયથી ઉદ્વેગને ઉત્પન્ન કરવાવાળા વિકાર ભય કહેવાય છે હાસ્ય-માહનીયના ઉદયથી વચનેાની વિકૃતિની સાથે ગાલ ફુલાવીને આખા કાંઇક મીંચીને દાંત કાઢીને ‘હી-હી’ શખ્સ કરીને મુખને પ્રફુલ્રિત કરવું એ હાસ્ય કહેવાય છે. એ સર્વ કારણેાથી મૃષાવાદ ઉત્પન્ન થાય છે. હું એ કારણેાને વશ થઈને નહિ સ્વયં મૃષા ( બ્લૂ' ) ખેલું, નહિ બીજા પાસે મેલાવું, કે નહિ મૃષા मोसनारने भयो लागु (२) (ख) Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे सत्यपरिपालनं चाऽदत्तादान - ( चौर्य) - परित्यागपूर्वकं कर्त्तुं सुशकमिति तदनन्तरमदत्तादानविरमणसव्झकं तृतीयं महाव्रतमाह - 'अहावरे तच्चे' इत्यादि । मूलम् - अहावरे तच्चे भंते ! महए अदिन्नादाणाओ वेरमण, सवं भंते! अदिन्नादाणं पच्चक्खामि, से गामे वा नगरे वा रने वा अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा नेव सयं अदिन्नं गिहिज्जा, नेवन्नेहिं अदिन्नं गिण्हाविज्जा, अदिन्नं गिण्हंतेवि अन्ने न समणुजाणिज्जा, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करोमि, न कारवेमि, करंतंपि अन्नं न समजाणामि । तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । तच्चे भंते! महवए उवडिओमि सवाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं ॥ १०॥ २४८ , छाया - अथापरे तृतीये भदन्त ! महावतेऽदत्तादानाद्विरमणं, सबै भदन्त ! अदत्तादानं प्रत्याख्यामि, अथ ग्रामे वा नगरे वा अरण्ये वा अल्पं वा बहु वा अणु वा स्थूलं वा चित्तवद्वा अचित्तवद्वा नैव स्वयमदत्तं गृह्णामि नैवान्यैरदत्तं ग्राहयामि, अदत्तं गृहतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि, यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्मात् भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्हे आत्मानं व्युत्सृजामि । तृतीये भदन्त । महाव्रते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्माददचादानाद्विरमणम् ॥१०॥ (३) अदत्तादानविरमण. सान्वयार्थः - भंते! हे भगवन् ! अहावरे = इसके बाद तच्चे-तीसरे मह= महाव्रतमें अदिन्नादाणाओ = अदत्तादान से वेरमणं विरमण होता है (अतः सत्य महाव्रतका पालन अदत्तादानका त्याग करने से ही हो सकता है, इस कारण सत्य महाव्रतके पश्चात् अदत्तादानविरमण नामक तीसरे महाव्रतका कथन करते हैं- 'अहावरे तच्चे' इत्यादि । સત્ય મહાવ્રતનું પાલન અદત્તાદાનના ત્યાગ કરવાથી જ થઈ શકે છે, તે કારણથી સત્ય મહાવ્રતની પછી અદત્તાદાન-વિરમણુ નામના ત્રીજા મહાવ્રતનું કથન ४२ - अहावरे तच्चे त्याहि. Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ मू. १० (३)-अदत्तादानविरमणव्रतम् २४९ मैं) भंते! हे भगवन् ! सव्वं-सव प्रकारके अदिन्नादाणं अदत्तादान (चोरी)का पचक्खामि-प्रत्याख्यान करता हूँ से अथ-अव से लेकर मैं-गामे वाग्राममें नयरे वा नगरमें रपणे वा अरण्यमें अप्पं वा अल्प-थोड़ा बहुं वा-बहुत-घणा "अणुं वा-सूक्ष्म-छोटा थूलं वा-स्थूल-मोटा चित्तमंतं वा-सचेतन अचित्तमंतं वा अचेतन (आदि किसीभी) अदिन्नं विना दिये हुए पदार्थको सयं-स्वयं नेवनहीं गिहिज्जा ग्रहण करूंगा, नेवन्नेहि न दूसरोंसे अदिन्नं विना दिया हुआ :गिहाविज्जा-अहण कराऊँगा, अदिन्नं विना दिये हुए पदार्थको गिण्हंतेविग्रहण करते हुए भी अन्ने दूसरेको न समणुजाणामि भला नहीं जानूंगा, जावज्जीवाए-जीवनपर्यन्त (इसको) तिविहं-कृत-कारित-अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा)तिविहेणं-तीन प्रकारसे मणेणं मनसे वायाए-बचनसे कारणं-कायसे न करेमिन्न करूँगा, न कारवेमि-न कराऊँगा, करंतंपि-करते हुए भी अन्नं दूसरेको न समणुजाणामि-भला नहीं समझूगा । भंते! हे भगवन् ! तस्स-उस दण्डसे पडिकमामि=पृथक् होता हूँ, निंदामि आत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि-गुरुसाक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्पाणंदण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि-त्यागता हूँ। भंते ! हे भगवन् ! तच्चे-तीसरे= महव्वए-महानतमें उवढिओमि-उपस्थि हुआ हूँ, इसलिये मुझे सव्वाओ-सव अदिन्नादाणाओ= अदत्तादानसे वेरमणं-विरमण-त्याग है ॥१०॥ (३) . (३) अदत्तादानविरमणव्रतम्. टीका-हे भगवन् ! अथ-मृषावादविरमणानन्तरम् अपरेतृतीये महाव्रते अदत्तादानात्न्न दत्तमदत्तं देवगुरुभूपगाथापतिसाधर्मिकैरननुज्ञातं तस्याऽऽदानं ग्रहणमदत्तादानं तस्माद्विरमणम् , सर्व भगवन् ! अदत्तादानं प्रत्याख्यामि, एतत्तु (३) अदत्तादानविरमण। मृषावादविरमणके बाद तीसरे महाव्रतमें देव गुरु राजा गाथापति और साधर्मिकके द्वारान दिये हुए पदार्थके ग्रहणका त्याग किया जाता है, इसलिए हे भगवन् ! मैं सर्व अदत्तादानका परित्याग करता हूँ। वह इस प्रकार (3) महत्तानविरम. મૃષાવાદવિરમણની પછી ત્રીજા મહાવ્રતમાં દેવ ગુરૂ, રાજા, ગાથાપતિ અને સાધર્મિકે ન આપેલા એવા પદાર્થનું ગ્રહણ કરવાને ત્યાગ કરવામાં આવે છે, તેથી હે ભગવન્ ! હું સર્વ અદત્તાદાનને પરિત્યાગ કરૂ છું તે આ પ્રકારે Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५० श्रीदशवैकालिकसूत्रे व्याख्यातपूर्वम् । तदेव विशदयति-से'-इति, अथ अनन्तरम्-अधारभ्य-प्रामेग्रस्यन्ते अद्यन्ते-चिनाश्यन्ते बुद्धिविधाविवेकादयो गुणा यत्र स इति, गम्यो गोमहिषादीनां करैरिति वा ग्रामः (सिद्धिः पृषोदरादित्वात् ) कृषिप्रचुरभूभागो, हट्टादिशून्यवसतिः, कण्टकमयतिपरिवेष्टितगृहसमूहसम्पन्नो वा तस्मिन् । नगरे • न गच्छन्तीति नगाः वृक्षाः पर्वताच, त इव समुन्नताः प्रासादादयो यस्मिंस्त नगरम् , ('नग-पांच-पाण्डभ्यश्चे-ति वात्तिकेन नगशब्दादः) नकरमिति ' च्छायापक्षे तु न विद्यते गोमहिषादीनामष्टादशविधः कराराजग्राह्यभागः छायाप यत्र तत् । यायपापक्रियाविज्ञः सर्ववर्णैः समागच्यते ॥" " पुण्यपापक्रियाविज्ञै, दयादानप्रवर्तकः । कलाकलापकुशलैः, सर्ववर्णैः समाकुलम् ॥ भाषाभिविविधाभिश्च, युक्तं 'नगर'-मुच्यते ॥” जहाँ रहनेसे बुद्धि, विद्या, विवेक आदि गुण नष्ट हो जाते हैं उसे ग्राम कहते हैं । अथवा जहाँ गाय भैंस आदिका कर (टेक्स) लिया जाता हो, अथवा पृथ्वीके अधिक भागमें कृषि होती हो, बाजार या दुकानें न हों, काँटोंकी वाइसे घिरे हुए घर हों उस वस्तीको ग्राम (गाँव) कहते हैं। जहाँ वृक्ष तथा पर्वतकी तरह अत्यन्त उन्नत महल-हवेलियाँ हों, अथवा गो महिष आदि पर कर (जकात) न लगता हो, अथवा जिस वस्तीमें पुण्य-पाप क्रियाओंके ज्ञाता, दया-दानके प्रवर्तक, कलाओंमें कुशल चारों वर्ण हों, और जहाँ नाना देशकी भाषा बोलनेवाले मनुष्य रहते हों उसे नगर कहते हैं । જ્યાં રહેવાથી બુદ્ધિ, વિદ્યા, વિવેકાદિ ગુણે નષ્ટ થઈ જાય છે તેને ગ્રામ કહે છે અથવા જ્યા ગાય ભેંશ આદિને કર (ટેકસ) લેવામાં આવે છે, અથવા પૃથ્વીના વધારે ભાગમાં ખેતી થાય છે, બજાર અથવા દુકાને હોય નહિ, કાટાની વાડથી ઘેરેલા ઘર હોય એ વસ્તીને ગ્રામ (ગામ) કહે છે જ્યા વૃક્ષ કે પર્વત જેવી અત્યંત ઉચી મહેલ-હવેલીઓ હોય, અથવા ગાય-ભેંશ આદિ પર કર (જકાત) ન લાગતું હોય, અથવા જે વસ્તીમાં પુણ્ય–પાપ ક્રિયાઓના જ્ઞાતા, દયા–દાનના પ્રવર્તક, કળાઓમાં કુશળ ચારે વર્ષો હેય, અને જ્યાં જૂદા જૂદા દેશની ભાષાઓ બેલનારા મનુ રહેતા હોય, તેને નગર કહે છે. Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ नू. १० (३) - अदत्तादानविरमणव्रतम् .२५१ " इत्युक्तलक्षणं तस्मिन् । अरण्ये = अर्यते गम्यते एकान्त विविक्त देश प्रियैर्थ्यांनाथिभिः काष्ठाद्या काष्ठहारकैर्वेत्यरण्यं तस्मिन् उपलक्षणात्खेटकादौ । एतेषां मध्ये कस्मिंश्चिदपि स्थळे अल्पं - मूल्यतो न्यूनं दन्तादिपरिशोधनार्थं तृणादिकम्, बहु=अधिकमूल्यकं सुवर्णादिकम्, अणु=प्रमाणतो लघु माणिक्यादिकम्, स्थूलम् = प्रमाणतो विशालमेरण्डकाष्ठादिकम्, चित्तवत् = सचेत्तनम् अचित्तवत् = अचेतनं वा, एतत्सर्वम् एतदन्यतमं वा अदत्तं = तत्स्वामिना ग्रहणायाननुमतं नैव स्वयं गृह्णामि, नैवान्यैरदत्तं ग्राहयामि, अदत्तं गृह्णतोऽप्यन्यान्न समनुजानामीत्यादिकं सर्व व्याख्यातपूर्वम् । ? " ननु सामान्येनाऽदत्तादानस्य स्तेयत्वे प्रतिक्षणमनन्यदेय कर्माण्याददानस्य एकान्त और पवित्र स्थानके अभिलाषी ध्यानार्थी योगी अथवा लकड़ी लानेके लिए लकड़हारे जहाँ जाते हैं वह अरण्य कहलाता है । इन ग्राम, नगर, अरण्य और उपलक्षणसे खेटक (खेड़ा) आदि किसी स्थानमें कम मूल्यवाला दाँत खुजानेका तिनका आदि, अधिक कीमतवाला - सुवर्ण आदि, प्रमाणकी अपेक्षा अणु-माणिक्य आदि, प्रमाणकी अपेक्षा बड़ा - एरण्डकाष्ठ आदि, सचेतन अथवा अचेतन कोई पदार्थ या सब पदार्थ विना स्वामीकी अनुमतिके न स्वयं ग्रहण करूँगा, न दूसरों से ग्रहण कराऊँगा और न ग्रहण करनेवालेको भला जानूँगा । प्रश्न- हे गुरु महाराज ! विना दी हुई सब वस्तुओंको ग्रहण करना यदि अदत्तादान है तो मुनियोंको भी अदत्तादानका प्रसंग आवेगा, એકાન્ત અને પવિત્ર સ્થાનના અભિલાષી ધ્યાનાથી યાગી અથવા લાકડા લેવાને માટે કઠિયારા જ્યા જાય છે તે અરણ્ય (જગલ) કહેવાય છે F એ ગામ નગર અરણ્ય અને ઉપલક્ષણે કરીને ખેટક (ગામડુ) આદિ કોઇ સ્થાનમાં એછા મૂલ્યવાળું દાત ખાતરવાનું તણખલુ વગેરે, વધારે મૂલ્યવાળુ સેતું વગેરે, પ્રમાણની અપેક્ષાએ નાનું માણિકયાદિ, પ્રમાણની અપેક્ષાએ મેટુ એરંડાનું લાકડુ આદિ, સચેતન અથવા અર્ચન કઇ પદાર્થ યા સ પદાર્થ, તેના સ્વામીની અનુમતિ વિના, નહિ સ્વયં હું ગ્રહણુ કરૂ, નહિ બીજા પાસે ગ્રહણ કરાવું અને નહિ ગ્રહણ કરનારને ભલે જાણુ પ્રશ્ન—હે ગુરૂ મહારાજ ! આપવામા આવ્યા વિનાની ખધી વસ્તુએને ગ્રહણ કરવી એ જે અદત્તાદાન છે તે મુનિઓને પણ અદત્તાદાનને પ્રસગ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे समितिगुप्तिमभृतिभिर्धर्म वा समुपार्जयतः साधोरदत्तादानापत्तिमसक्तिरिति चेन्न, लोकप्रसिद्धहस्तादिकरणकदानाऽऽदानादिन्यवहारस्य कर्मादिष्वभावात् , तथाहि लोके वस्त्रपात्रादिकमन्यस्मै हस्तेन दीयतेऽन्यस्माद्वाऽऽदीयते, इत्येवं दानाऽऽदानादिव्यवहारो दृश्यते तस्य न कर्मविषयकत्वं संभवति, तेषां सूक्ष्मत्वात् , नहि मुक्ष्मं कर्मादिकं इस्तादिकरणकग्रहणवितरणयोग्यतां भजते इति ।। क्योंकि मुनि विना दिये हुए कर्मोंको प्रतिक्षण ग्रहण करते हैं और समिति-गुसिका पालन करके धर्मका भी उपार्जन करते हैं। उत्तर-हे शिष्य ! ऐसा नहीं है। हाथोंसे लेने-देनेका जैसा व्यवहार लोकमें प्रसिद्ध है वैसा कर्मों में नहीं हो सकता, अर्थात् लोकमें ऐसा व्यवहार होता है कि-'वस्त्र पात्र दुसरोंको हाथसे दिया जाता है, दूसरेसे लिया जाता है। इस प्रकारका व्यवहार कर्मोंके विषयमें नहीं होता, क्योंकि कर्म अत्यन्त सूक्ष्म हैं, वे इन्द्रियके विषय भी नहीं होते तो उनका लेन-देन कैसे हो सकता है ? । दूसरी बात यह है कि प्रमादके योगसे अदत्त पदार्थका आदान (ग्रहण) करना अदत्तादान कहलाता है, मुनिराजको तद्विषयक प्रमाद नहीं है इसलिए उन्हें अदत्तादानका दोष नहीं लगता । मुनिराज तो कभी नहीं चाहते कि हम कर्मोंको ग्रहण करें, किन्तु संसारी आत्मा और कर्मोंका स्वभाव ही ऐसा है कि આવશે, કારણ કે મુનિ વિના અપાયેલા કને પ્રતિક્ષણ ગ્રહણ કરે છે અને સમિતિ ગુપ્તિનું પાલન કરીને ધર્મનું પણ ઉપાર્જન કરે છે ઉત્તર-હે શિષ્ય ! એમ નથી હાથેથી લેવા-દેવાને જે વહેવાર લેકમાં પ્રસિદ્ધ છે તે વહેવાર કર્મોમાં નથી હિઈ શકતે, અર્થાત્ લેકેમાં એ વહેવાર થાય છે કે–“ વસ્ત્ર પાત્ર બીજાઓને હાથથી આપવામાં આવે છે, બીજા પાસેથી લેવામાં આવે છે. એ પ્રકારને વહેવાર કર્મોની બાબતમાં થતું નથી, કેમકે-કર્મ અત્યત સૂક્ષ્મ છે, તે ઈદ્રિયને વિષય જ નથી હેતે તે એની લેણ-દેણ કેવી રીતે થઈ શકે ? બીજી વાત એ છે કે–પ્રમાદને ચગથી અદત્ત પદાર્થનું આદાન (ગ્રહણ) કરવું એ અદત્તાદાન કહેવાય છે મુનિરાજને તક્રિષયક પ્રમાદ હેતે નથી, તેથી તેમને અદત્તાદાનને દેષ લાગતું નથીમુનિરાજ તે કદાપિ એમ નથી ઈચ્છતા કે હું કમેનું ગ્રહણ કરૂં, કિન્તુ સંસારી આત્મા અને કર્મોને સ્વભાવ જ એ છે કે જેથી કમ બધાઈ જાય છે બાકી રહ્યું Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ४ सू. १० (४)-मैथुनविरमणव्रतम् २५३ धर्ममुपार्जयतश्चाऽममत्तत्वातीर्थकराणां धर्मार्जनोपदेशाच्च न स्तेयमसङ्गः, अत एवा-ऽल्प-बहु-स्थूलाऽणुग्रहणं सूत्रे कृतमिति ॥ १० ॥ (३) मैथुनविरमणमन्तरेण ह्यहिंसादिमहाव्रतानां संरक्षणं न भवितुं शक्नोति, यतो मैथुनपरायणः प्राणी त्रस-स्थावर-जीवान् हिनस्ति, मिथ्या वदति, अदत्तं चाऽऽदत्तेऽतस्तेषां निरपायपरिपालनाय "मैथुनविरमण'-नामधेयं चतुर्थ महाव्रतमाह'अहावरे चउत्थे' इत्यादि । जिससे कर्म बंध जाते हैं। रहा धर्मोपार्जन, सो तीर्थकर भगवानने धर्मोपार्जन करनेका आदेश तथा उपदेश दिया है इसलिए अदत्तादानका प्रसंग नहीं आता। सूत्र में अल्प, बहु, स्थूल, और अणु, इन शब्दोंका ग्रहण भी इसी आशयसे किया गया है, अत एव कर्मोंके बन्धन तथा समिति-गुप्ति द्वारा धर्मोपार्जनमें अदत्तादान नहीं लगता है ॥१०॥ (३) । ____ मैथुनविरमणके विना अहिंसा आदि महाव्रतोंकी रक्षा नहीं हो सकती, क्योंकि मैथुन सेवन करनेवाला बस स्थावर जीवोंकी हिंसा करता है, असत्य बोलता है, और अदत्तका आदान करता है। अत एव अहिंसादि महाव्रतोंका निरतिचार पालन करनेके लिए मैथुन-विरमण नामक चतुर्थ महाव्रतका प्रतिपादन किया जाता है-'अहावरे चउत्थे इत्यादि। ધર્મોપાર્જન, તે તીર્થંકર ભગવાને ધર્મોપાર્જન કરવાનો આદેશ તથા ઉપદેશ આપ્યું છે તેથી તેમાં અદત્તાદાનને પ્રસંગ જ આવતું નથી. સૂત્રમાં અલ્પ, બહુ, સ્થલ, અને આણુ, એ શબ્દોનું ગ્રહણ પણ એ જ આશયથી કરવામાં આવ્યું છે એટલે કર્મોના બંધન તથા સમિતિ-ગુપ્તિ દ્વારા धपान, मेमा महत्ताहान साग नथी (3) (१०) મૈથુનવિરમણ વિના અહિંસા આદિ મહાવ્રતની રક્ષા થઈ શકતી નથી, કારણ કે મૈથુન સેવન કરવાવાળે ત્રણ-સ્થાવર હિંસા કરે છે, અસત્ય બોલે છે અને અદત્તનું આદાન કરે છે તેથી કરીને અહિંસાદિ મહાત્રોનું નિરાતચાર પાલન કરવાને માટે મૈથુનવિરમણ નામનું ચોથું મહાવ્રતનું પ્રતિપાદન ४२वामा माये छे-अहावरे चउत्थे त्याह. Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ श्रीदशवकालिकसने मूलम् अहावरे चउत्थे भंते ! महत्वए मेहुणाओ वेरमणं, सवं भंते! मेहणं पच्चक्खामि, से दिवं वा माणुसंवा तिरिक्खजोणियं वो नेव सयं मेहुणं सेविजा, नेवन्नेहि मेहुणं सेवाविजा, मेहुणं सेवं. तेवि अन्ने न समणुजाणिज्जा, जावज्जीवाए तिविहं-तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि, न कारवेमि, करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि। तस्सभंते! पडिकमामि निंदामिगरिहामिअप्पाणं वोसिरामि। चंउत्थे भंते! महत्वए उवडिओमि सबाओ मेहुणाओवेरमणं॥११॥(४) छाया-अथापरे चतुर्थे भदन्त ! महाव्रते मैथुनाद्विरमणं, सर्वे भदन्त ! मैथुनं प्रत्याख्यामि, अथ दैवं वा मानुषं वा तैर्यग्योनं वा नैव स्वयं मैथुनं सेवे, नैवान्यमैथुनं सेवयामि, मैथुन सेवमानानप्यन्यान्न समनुजानामि, यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि, न कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्य न समनुजानामि । तस्माद् भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्दै आत्मानं व्युत्सृजामि । चतुर्थे भदन्त ! महावते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्मान्मैथुनाद्विरमणम् ॥११॥ (४) मैथुनविरमण. सान्वयार्थ:-भंते! हे भगवन् ! अहावरे इसके वाद चउत्थे चौथे महव्वए-महाव्रतमें मेहुणाओ-मैथुनसे वेरमणं-विरमण होता है, (अतः मैं) भंते ! हे भगवन् ! सव्वं-सव प्रकारके मेहुणं-मैथुनका पञ्चक्खामिप्रत्याख्यान करता हूँ, से-अब से लेकर मैं दिव्वं वा-देवसम्बन्धी माणुसं वा मनुष्यसम्बन्धी तिरिक्खजोणियं वा-तिर्यञ्चसम्बन्धी मेहुणं-मैथुनको सयं-स्वयं नेव-न सेविज्जा-सेवन करूँगा, नेवन्नेहि-न दूसरोंसे मेहुणंमैथुन सेवाविज्जा सेवन कराऊँगा, मेहुणं-मैथुन सेवंतेवि-सेवन करते हुएभी अन्ने दूसरोंको न समणुजाणिज्जा-भला नहीं समझूगा, जावज्जीवाए जीवनपर्यन्त (इसको) तिविहंकृत कारित अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेणं-तीन प्रकारके मणेणं-मनसे वायाए-बचनसे कारणं कायसे न करेमिन्न करूँगा न कारवेमिन कराऊँगा करंतंपि% करते हुएभी अन्नं-दूसरेको न समणुजाणामि-भला नहीं समझूगा । भंते ! हे भगवन् ! तस्स-उस दण्डसे पडिक्कमामि-पृथक् होता हूँ, निंदामिआत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि-गुरु साक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्पाण महावते उपस्थितीकामामि निन्दा कारयामि, । सानो Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. ११ (४) मैथुनविरमणव्रतम् २५५ दण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि=त्यागता हूँ । भंते ! हे भगवन् ! चउत्थे=चौथे महत्वए = महाव्रत में उवडिओमि = उपस्थित होता हूँ, इसलिये मुझे सच्चाओ=सब प्रकारके मेहुणाओ =मथुन से वेरमणं त्याग है ॥ ११॥ (४) (४) मैथुनविरमणव्रतम्. टीका---हे भगवन् ! अथ अपरे चतुर्थे महाव्रते मैथुनात् = मिथुनेन स्त्रीपुंसाभ्यां निर्वृत्तं कर्म मैथुनं प्रत्याख्यामीति प्राग्वत्, तदेव विशदयति-' से ' इति । अथ = अनन्तरम् - अद्यारभ्य दैवं देवानामिदं मानुषं = स्त्री-पुंससम्बन्धीत्यर्थः, तैर्यग्योनं = तिर्यग्योनीनामिदं तैर्यग्योनं पश्वादिसम्बन्धीत्यर्थः, मैथुनं नैव स्वयं सेवे, इत्यादि सर्व पूर्ववत् । द्रव्यादिचतुर्भङ्गयपि प्राग्वद्द्योजनीया ॥११॥ (४) (४) - मैथुनविरमण. हे भगवन् ! चौथे महाव्रत में समस्त प्रकारके मैथुन से विरमण किया जाता है, इसलिए हे भगवन् ! मैं सब तरहके मैथुनका प्रत्याख्यान करता हूँ । अप्सराओं सम्बन्धी देवी, स्त्री-पुरुष सम्बन्धी मानुषिक, पशु आदि सम्बन्धी तैर्यग्योनिक मैथुनको मैं न स्वयं सेवन करूँगा, न दूसरोंसे सेवन कराऊँगा, न सेवन करते हुएको भला जानूँगा । द्रव्य क्षेत्र काल भावकी चौभंगी यहॉपर भी लगानी चाहिए, अर्थात् द्रव्यसेस्त्री आदिके साथ, क्षेत्र से किसी क्षेत्र में, कालसे- किसी कालमें और भाव से किसी भी भावसे, तीन करण तीन योगसे मैथुन सेवन नहीं करूँगा ॥ ११ ॥ (४) (४) मैथुनविरभागु. હે ભગવન્ ! ચોથા મહાવ્રતમાં સર્વ પ્રકારના મૈથુનનું વિરમણુ કરવામાં આવે છે, તેથી હે ભગવન્ ! હું સર્વ પ્રકારના મૈથુનના પ્રત્યાખ્યાન કરૂં છું. परसराम संगषी देवी, स्त्री-पु३ष- समधी भानुषि, पशु-माहि-संबंधी તૈન્યેાનિક મૈથુન નહિ હું સ્વયં સેવું, નહિ ખીજાએ પાસે સેવન કરવું અને નહિ સેવન કરનારને ભલે જાણુ દ્રવ્ય—ક્ષેત્ર—કાળ—ભાવની ચોલગી એમાં પણુ લગાડવી, અર્થાત્ દ્રવ્યથી સ્ત્રીઆદિની સાથે, ક્ષેત્રથી કાઇ પણ ક્ષેત્રમા, કાળથી કેાઈ કાળમા અને ભાવથી કાઇ પણ ભાવે કરીને ત્રણ કરણ ત્રણુ ચેગથી મૈથુન સેવીશ नहि (४) (११) Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 श्रीदशवैकालिकसूबे मैथुनविरमेणं च परिग्रहविरमणमन्तरेण न भवितुं खुशकमिति मैथुनविरमणानन्तरं परिग्रहविरमणनामकं पञ्चमं महाव्रतमाह-' अहावरे पंचमे' इत्यादि । मूलम् - अहावरे पंचमे भंते ! महवए परिग्गहाओ वेंरमणं, स भंते! परिग्गहं पञ्चक्खामि, से अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अवित्तमंतं वा नेव सयं परिग्गहं परिगिहिज्जा, नेवनेहिं परिग्महं परिंगिण्हाविज्जा, परिग्गहं परिगिव्हंतेवि अम्ने न संमणजाणिज्जा, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेर्ण वायाए कारण न करेमि, न कारवेमि, करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स भंतें ! पक्किमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । पंचमे भंते! Hear उवहिओमि सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं ॥ १२ ॥ ( ५ ) २५६ छाया--अथापरे 'पञ्चमे भदन्त ! महाव्रते परिग्रहाद्विरमणं, सर्वे भदन्त ! परिग्रह प्रत्याख्यामि, अथ अल्पं वा बहुं वा अणुं वा स्थूलं वा चित्तवन्तं वा 'अचित्तवन्तं वा नैव स्वयं परिग्रहं परिगृह्णामि, नैवान्यैः परिग्रहं परिग्राहयामि, परिग्रह परिगृह्णतोऽप्यन्यान समनुजानामि, यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न संमनुजानामि । तस्माद् भदन्त 1 प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्ने आत्मानं व्युत्सृजामि । पञ्चमे भदन्त ! महावते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्मात्परिग्रहाद्विरमणम् ॥१२॥ ( ५ ) (५) परिग्रहविरमण. सान्वयार्थः - भंते ! हे भगवन् ! अहावरे = इसके बाद पंचमे= पांचवें महए - महाव्रतमें परिग्गहाओ = परिग्रहसे वेरमणं विरमण होता है, (अतः मैं ) ते ! हे भगवन् ! सव्वं = सब प्रकारके परिग्गदं = परिग्रहको पञ्चक्खामि = स्यागता हूँ, से=अव से लेकर मैं अप्पंचा=अल्प बहुंवा बहुत अणुंवा अणु-छोटा मैथुनविरमण, परिग्रहके त्यागे बिना नहीं हो सकता, इसलिए मैथुनविरमणके अनन्तर परिग्रहविरमणनामक पांचवां महाव्रत कहते हैं'अहावरे पंचमे' इत्यादि । મૈથુન-વિરમણુ, પરિગ્રહના ત્યાગ વિના થઈ શકતુ નથી, તેથી મૈથુન-વિરમણુની पछी परिग्रहविरभस्य नाम पायभु महाव्रत उ छे - अहावरे पंचमे इत्यादि Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ४ सू. १२ (५)-परिग्रहविरमणव्रतम् थूलंवा स्थूल मोटा चित्तमंतंवा-सचेतन अचित्तमंतंचा अचेतन परिग्गहपरिग्रहको सयं-स्वयंनेव-नहीं परिगिहिजा ग्रहण करेगा, नेवन्नेहि न दूसरोंसे परिग्गहं-परिग्रहको परिगिहाविज्जा ग्रहण कराऊँगा, परिग्गहं-परिग्रहको परिगिण्हंतेविग्रहण करनेवालेभी अन्ने-दूसरोंको न समणुजाणिज्जा-भला नहीं जानेगा। जावज्जीवाए-जीवनपर्यन्त (इसको) तिविहंकृत कारित अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेणं-तीन प्रकारके मणेण-मनसे वायाएवचनसे काएणं कायसे न करेमि-न करूँगा,न कारवेमि=न कराऊँगा,करंतंपिकरते हुएभी अन्नं दूसरेको न समणुजाणामि-भला नहीं समझूगा। भंते ! हे भगवन् ! तस्स-उस दण्डसे पडिकमामि-पृथक् होता हूं, निंदामि आत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि शुरुसाक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्पाणं-दण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि त्यागता हूँ। भंते ! हे भगवन् ! पंचमे पांचवें महन्वए-महाव्रतमें उवडिओमि-उपस्थित होता हूँ, इसलिये मुझे सव्वाओ=3 सब परिग्गहाओ=परिग्रहसे वेरमणं-विरमण-त्याग है ॥१२॥ (५) ... (५) परिग्रहविरमणव्रतम् । टीका--हे भगवन् ! अथापरे पञ्चमे महात्रते परिग्रहात्-परि-सर्वतोभावेन. गृह्यते जन्मजरामरणादिजनितदुःखैर्वेष्टचते आत्माऽनेनेति, यद्वा परिगृह्यते-समूछे स्वीक्रियते इति परिग्रहः 'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो' इति वचनात् , धर्मोपकरणभिन्न (५)-परिग्रहविरमण. हे भगवन् ! चतुर्थ महाव्रतके पश्चात् पाँचवें महाव्रतमें परिग्रहका पूर्ण प्रत्याख्यान किया जाता है। जिससे आत्माजन्म-जरा-मरण-आदिः जनित नाना दुःखोंसे गृहीत होता है, अथवा जो मूच्छी-पूर्वक स्वीकार किया जाता है वहं परिग्रह कहलाता है, क्योंकि भगवानने मूर्छाको ही परिग्रह बतलाया है। अतएव तीन करण तीन योगसे ग्राम नगर आदिमें (4) परिग्रहविरमा . હે ભગવન્! ચતુર્થ મહાવ્રતની પછી પાંચમા મહાવ્રતમાં પરિગ્રહના પૂર્ણ પ્રત્યાખ્યાન કરવામા આવે છે જેથી આત્મા જન્મ-જરા-મરણદિજનિત નાના પ્રકારના દુખેથી ગ્રસ્ત થાય છે અથવા જે મૂરછ પૂર્વક સ્વીકારવામાં આવે છે તે પરિગ્રહ કહેવાય છે, કારણ કે ભગવાને મૂરછીને જ પરિગ્રહરૂપ બતાવી છે તેથી કરીને ત્રણ કરણ ત્રણ ગે ગ્રામ નગર આદિમાં ન સ્વય પરિગ્રહ ધારણ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - '२५८ श्रीदशवैकालिकसूत्रे सर्वमित्यर्थस्तस्माद्विरमणम् । हे भगवन् ! सर्व परिग्रहं प्रत्याख्यामि, अथ ग्रामे वा नगरे वेत्यादि प्राग्वद्रोद्धव्यम् ॥१२॥ (५) .. द्वाविंशतितीर्थकरशासने ऋजुप्राज्ञपुरुषापेक्षयाऽस्योत्तरगुणत्वेऽपि आधान्तिमतीर्थकरसाधूनामृजुजड-चक्रजडत्वादनथप्रतिरोधार्थ स्फुटप्रतिवोधार्थ च महावतानन्तरं मूलगुणत्वेनोपादातुं पष्ठं रात्रिभोजनविरमणत्रतमाह-'अहावरे छठे' इत्यादि । . मूलम्-अहावरे छठे भंते ! वए राइभोयणाओ वेरमणं, सर्व भंते ! राइभोयणं पञ्चक्खामि, से असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा नेव सयं राइं भुंजिज्जा, नेवन्नेहि राइं भुंजाविजा, राई मुंजतेवि अन्ने न समणुजाणिज्जा, जावजीवाए तिविहं तिविहेणं न स्वयं परिग्रह धारण करूँगा, न दूसरेसे धारण कराऊँगा, न धारण करते हुएको भला जानूंगा ॥१२॥ (५) ____अजितनाथ भगवान्से लेकर पार्श्वनाथ जिनेन्द्र पर्यन्त बाईस तीर्थंकरोंके शिष्य ऋजु (सरल स्वभावके) और प्राज्ञ (समझानेसे समझनेवाले) होते हैं। उन शिष्योंकी अपेक्षासे रात्रिभोजन उत्तरगुण है। किन्तु ऋषभदेवके शिष्य ऋजु-जड़ तथा वर्द्धमान-स्वामीके शिष्य वक्र और जड़ होते हैं, अत एव अनर्थको रोकनेके लिए और स्पष्ट बोध करानेके लिए पंच महाव्रतोंके बाद मूल-गुणोंमें गिनानेके लिए छ? रात्रिभोजनविरमण व्रतको कहते हैं-'अहावरे छ?' इत्यादि । હું કરીશ, ન બીજાઓ દ્વારા ધારણ કરાવીશ, ન ધારણ કરનારને ભલે omete. (५) (१२) અજિતનાથ ભગવાનથી લઈને પાર્શ્વનાથ જિનેન્દ્ર સુધીના બાવીસ તીર્થ કરના શિવે કાજુ (સરલ સ્વભાવવાળા) અને પ્રાજ્ઞ (સમજાવવાથી સમજનારા) હતા, તે શિષ્યની અપેક્ષાએ રાત્રિભોજન ઉત્તરગુણ છે, પરંતુ અષભદેવના શિષ્ય જીજુ જડ તથા વર્ધમાન સ્વામીના શિષ્ય વર્ક અને જડ હતા, તેથી અનને રોકવાને માટે અને સ્પષ્ટ બંધ કરાવવાને માટે પંચ મહાવ્રતોની પછી भूत-गुशमा मापान भाटे विमानविरम प्रत ४९ छे-अहावरे छ? Vत्यादि. Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ स. १३ (६)-रात्रिभोजनविरमणव्रतम २५९. मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि। तस्स भंते! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।छट्टे भंते ! वए उवडिओमि सबाओ राइभोयणाओ वेरमणं ॥१३॥ (६) छाया-अथापरे पष्ठे भदन्त ! व्रते रात्रिभोजनाद्विरमणं, सर्व भदन्त ! रात्रिभोजनं प्रत्याख्यामि, अथ अशनं वा पानं वा खाधं वा स्वाचं वा नैव स्वयं रात्रौ भुजे, नैवान्यान् रात्रौ भोजयामि, रात्रौ भुञ्जानानप्यन्यान्न समनुजानामि, यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि। तस्माद् भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्दै आत्मानं व्युत्सृजामि । पष्ठे भदन्त ! बते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्माद्रात्रिभोजनाद्विरमणम् ॥१३॥ (६) " (६) रात्रिभोजनविरमण सान्वयार्थः-भंते! हे भगवन् ! अहावरे इसके अनन्तर छठे-छठे वए= व्रतमें राइभोयणाओ=रात्रिभोजनसे वेरमणं-विरमण होता है, (अतः मैं) भंते! हे भगवन् ! सव्वं-सब प्रकारके राइभोयणं-रात्रिभोजनको पञ्चक्खामि त्यागता हूँ, से अब से लेकर मैं-असणं वा लड्डू पूरी घी सत्तू आदि अशन, पाणं वा-दूध शर्वत आदि पान-पीने योग्य, खाइमं वादाख खजूर आदि खाद्य, साइमं वा लोग इलायची आदि खाद्य, नेव-न सयं-स्वय राई-रात्रिमें भुंजिज्जा खाऊँगा, नेवन्नेहिन्न दूसरोंकोराई-रात्रिमें भुंजाविज्जा-खिलाऊँगा, राइ भुंजतेवि अन्ने-रात्रिमें भोजन करनेवाले दूसरोंकोभी न समणुजाणिजा भला नहीं: जानूंगा, जावजीवाए-जीवनपर्यन्त (इसको) तिविहं कृत कारित अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेणं-तीन प्रकारके मणेणं-मनसे वायाए वचनसे कारणं कायसे न करेमि=न करूँगा. न कारवेमिन्न कराऊँगा, करतंपि-करते हुएभी अन्नं दूसरेको न समणुजाणामि-भला नहीं समझूगा। भंते ! हे भगवन् ! तस्स-उस दण्ड से पडिक्कमामि-पृथक होता हूँ, निंदामि= आत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि गुरुसाक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्पाणं दण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि-त्यागता हूँ, भंते ! हे भगवन् ! छटे-छठे वए व्रतमें उवढिओमि-उपस्थित होता हूँ, इसलिये मुझे सव्वाओ= सब प्रकारके राइभोयणाओ-रात्रिभोजनसे वेरमणं-विरमण त्याग है।१३॥(६) Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० श्रीदशवकालिकसूत्रे (६) रात्रिभोजनविरमणव्रतम् । ___टीका-हे भगवन् ! अथापरे पष्ठे व्रते रात्रिभोजनात्-रात्रौनिशि भोजनं रात्रिभोजनं तस्माद् विरमणम् । रात्रिभोजनेन हि सकलमहाव्रतेपु दोपो जन्यते, तथाहि-रात्रौ दिनकरकिरणाभावान्नानाविधमक्ष्मतनुधारिनन्तुनातसमुत्पातावपातसञ्चारबाहुल्यात् हिंसाऽवश्यम्भाविनी, दीक्षाग्रहणसमये प्रतिज्ञा कृता यदद्यप्रभृति न कस्यापि प्राणिनः प्राणान् पीडयिष्यामीति, रात्रिभोजनेन तु प्राणिवधस्याऽनिवार्यत्वात्कृतप्रतिज्ञाभगो भवितुमर्हतीति मृपावादः, यद्वा तीर्थकरैर्लोकालोकाऽव'लोकिकेवलालोकेन-तत्संयमविराधकमालोक्याऽऽदित्यालोके आलोकितानपाना१ केवलालोकस्य करणस्य कर्तृत्वविवक्षया णिनिः। एतत्-रात्रिभोजनम् । (६) रात्रिभोजनविरमण । हे भगवन् ! पांच महाव्रतोंके पश्चात् छठे व्रतमें रात्रिभोजनसे विरमण किया जाता है।रात्रिभोजनसे समस्त महाव्रतोंमें दोष लगता है। रात्रिके समय सूर्यकी किरणों के अभावसे सूक्ष्म-शरीरवाले भॉतिभाँतिके जन्तु इधर-उधर उड़ते हैं, नवीन उत्पन्न होते हैं, नीचे ऊपर आते-जाते हैं, इसलिए हिंसा अवश्य ही होती है। दीक्षा लेते समय ऐसी प्रतिज्ञा की थी कि-'आजसे किसी प्राणीके प्राणोंको पीड़ा नहीं पहुँचाऊँगा' जब रात्रिभोजन किया तो हिंसा अवश्य हुई, इसलिए मृषावादका भी दोष लगा।अथवा लोक और अलोकको अवलोकन करनेवाले अलौकिक केवल-आलोकसे अवलोकन करके केवली भगवान्ने कहा है कि-सूर्यके आलोकमें अवलोकन किया हुआ अशन आदिक सेवन (6) त्रिनविरम. હે ભગવન્ ! પાંચ મહાવ્રતની પછી છઠ્ઠા વ્રતમાં રાત્રિભેજનથી વિરમણ કરવામાં આવે છે. રાત્રિભોજનથી સર્વ મહાવતેમાં દેવ લાગે છે રાત્રિને સમયે સૂર્યનાં કિરણના અભાવથી સૂમ-શરીરવાળા ભાત-ભાતના જતુઓ અહીં-તહી ઉડે છે, નવીન ઉત્પન્ન થાય છે, નીચે-ઉપર આવ-જા કરે છે, તેથી હિંસ જરૂર થાય છે દીક્ષા લેતી વખતે એવી પ્રતિજ્ઞા કરી હતી કે “આજથી કોઈ બાણીના પ્રાણને પીડા નહિ ઉપજાવું જે શત્રિભૂજન કર્યું તે હિંસા અવશ્ય થઈ, તેથી મૃષાવાદને દેપ લાગે અથવા લેક અને અલકનું અવલોકન કરનારા અલોકિક કેવળ જ્ઞાનથી અવલોકન કરીને કેવળી ભગવાને કહ્યું છે કે સૂર્યના પ્રકાશમાં અવકન કરેલ અશન આદિ સેવવાથી જ હિંસાને પરિહાર Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ४ सु. १३ (६)-रात्रिभोजनविरमणव्रतम् घदनमप्राणातिपातायोक्तम् । अपिच-रात्रिभोजनव्यवस्थापने, रात्रौ भुक्त्वाऽऽत्मनः साधुत्वकथने च मृपावादः। रात्रावभ्यवहरणे हन्यमानमाणिनिदेशमन्तरेण तत्पाणापहरणाद्रजन्यधिकरणकभोजननिषेधलक्षणजिनाज्ञाभङ्गाच स्तेयम् । रात्रिभोजनशीलस्यावश्यमेव भिक्षार्थ रात्रावितस्ततः परिभ्रमतः स्त्र्यादिसंसर्गादब्रह्मदोपप्रसङ्गः । रात्रिभोजने संग्रहोऽनिवार्यस्तेन च मूर्छाऽवश्यम्भाविनी, सैव परिग्रहः 'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो' इति भगवता स्वयमेवाऽभिधानादतो निशाशनमशेषदोपराशिभूतम् , न तत्त्यागादृते व्रतपरिपोषस्तस्मात्सर्वं भगवन् ! रात्रिकरनेसे ही हिंसाका परिहार हो सकता है। रात्रिभोजनका कर्त्तव्यरूपसे निरूपण करना और रात्रिभोजन करके अपनेको साधु कहना मृषावाद है। रात्रिभोजनसे विराधित होनेवाले प्राणियोंकी आज्ञाके विना ही उनके प्राणोंका अपहरण करनेसे, तथा रात्रिभोजन न करनेकी जिन भगवानकी आज्ञाका लोप करनेसे अदत्तादानका दोष लगता है। रात्रिमें भोजन करनेवाला भिक्षाके लिए रात्रिमें भ्रमण भी करेगा, भ्रमण करते समय स्त्री आदिका संसर्ग होनेसे अब्रह्मचर्यका भी दोष लगेगा। रात्रिभोजन करनेसे अन्न आदि सामानका भी संग्रह करना पड़ेगा इससे संनिधि-दोष लगेगा। संग्रह करनेसे मूर्छा भी होगी, मूर्छाको भगवानने स्वयं परिग्रह कहा है, इसलिए रात्रिभोजन सब दोषोंका कोष है, उसका त्याग किये विना व्रतोंका पालन नहीं हो सकता। इस થઈ શકે છે રાત્રિભોજનનું કર્તવ્યરૂપે નિરૂપણ કરવું અને રાત્રિભૂજન કરીને પિતાને સાધુ કહેવડાવે એ મૃષાવાદ છે રાત્રિભેજનથી વિરાધિત થનારા પ્રાણીઓની આજ્ઞા વિના જ એમના પ્રાણનું અપહરણ કરવાથી થતા રાત્રિભોજન ન કરવાની જિનભગવાનની આજ્ઞાને લેપ કરવાથી અદત્તાદાનને દેષ લાગે છે. રાત્રે ભજન કરનારાઓ ભિક્ષાને માટે રાત્રે ભ્રમણ પણ કરશે ભ્રમણ કરતી વખતે સ્ત્રી આદિને સ સર્ગ થવાથી અબ્રહ્મચર્યને પણ દોષ લાગશે રાત્રિભૂજન કરવાથી અન્ન આદિ સામાનને પણ સંગ્રહ કરે પડશે, તેથી સનિધિ–દેષ લાગશે. સંગ્રહ કરવાથી મૂચ્છ પણ ઉત્પન્ન થશે મૂછને ભગવાને પિતે પરિગ્રહરૂપ કહી છે, તેથી રાત્રિભોજન સર્વ દેને કષ છે એને ત્યાગ કર્યા વિના તેનું પાલન થઈ શકતું નથી તેથી હે ભગવન્! હું Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २६२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे भोजनं प्रत्याख्यामि, तदेव विशदयति- 'से' इति, अथ = अनन्तरम् - अद्यारभ्य अशनम् = अश्यते = भुज्यते क्षुधोपशमनार्थे यत् तत् = ओदन सूप-सक्तुमुद्गमोदक घृतपूर-लपनश्रीप्रभृतिकम्, पानं= पीयते यत्तत्पानं दुग्धादिकं, तिलतण्डुलादिधावनोदकं च । खाद्यं=खादितुं योग्यं खाद्यम् = अचित्तद्राक्षाखर्जूरादि । स्वाद्यं = स्वादितुं योग्यं स्वाद्यं = लवङ्गचूर्ण पूगीफलादि । रात्रिभोजनमपि द्रव्य-क्षेत्र -काल-भावभेदाच्चतुर्द्धा, तत्र द्रव्यतोऽशनपानादिकम्, क्षेत्रतोऽर्द्धवृतीय द्वीपसमुद्रलक्षिनं तद्वहिः प्रसिद्ध दिनरात्र्यभावात्, hroat रात्रौ भावतो निशाशनाभिलापः । रात्रिभोजनस्य स्वरूपतश्चतुर्भङ्गी यथा लिए हे भगवन् ! मैं समस्त - रात्रिभोजनका प्रत्याख्यान करता हूँ । अर्थात् भात, दाल, सत्तू, मूंग के लड्डू, घेवर, लप्सी आदि अशन, दूध, तिल और चावलका धोवन आदि पान, प्रासुक दाख, खजूर आदि खाद्य, लोंगका चूर्ण, सुपारी आदि स्वाद्य,इन चार प्रकार के आहारों में से किसी एक प्रकारका भी आहार रात्रिमें नहीं करूँगा । रात्रिभोजन भी द्रव्य क्षेत्र काल भावसे चार प्रकारका है । अशन पान आदि द्रव्यसे रात्रिभोजन है । अढाई द्वीपमें रात्रिभोजन करना क्षेत्र-रात्रिभोजन है, क्योंकि अढाई द्वीपके बाहर दिन रात्रिका व्यवहार नहीं है । रात्रिमें भोजन करना कालकी अपेक्षा रात्रिभोजन है । रात्रिमें भोजन करने की इच्छा करना भाव - रात्रिभोजन है । रात्रिभोजनकी चतुर्भगी इस प्रकार है सर्व-शत्रिलोन्टनना प्रत्याभ्यान ३ छु अर्थात्-भात, हाज, भगन, भगना साडु, ઘેખર, લાપસી આદિ અશન, દૂધ, તલ અને ચેાખાનું ધાવણ આદિ પાન, પ્રાસુક દ્રાક્ષ, ખશૂર આદિ ખાદ્ય, લવંગનું ચૂર્ણ, સાપારી આદિ સ્વાદ્ય, એ ચારે પ્રકારના આહારમાથી કોઇ પણ એક પ્રકારના આહાર રાત્રે હું કરીશ નહિ ગત્રિભોજન પણુ દ્રવ્ય-ક્ષેત્ર-કાળ-ભાવથી ચાર પ્રકારનું છે અશન—પાન આદિ દ્રવ્યથી રાત્રિભેજન છે. અઢી–દ્વીપમાં રાત્રિભોજન કવું એ ક્ષેત્ર-રાત્રિભેજન છે, કેમÈ-અઢી ઢીપની બહાર દિવસ–રાત્રિના વ્યવહાર નથી રાત્રે લેાજન કરવુ એ કાળની અપેક્ષાએ ગત્રિભેાજન છે. ગત્રે ભેજન કરવાની ઇચ્છા કરવી એ लावરાત્રિભોજન છે રાત્રિભેાજનની ચતુર્ભેગી આ પ્રમાણે છે. Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % अध्ययन ४ मृ. १३ (६)-रात्रिभोजनविरमणव्रतम् २६३ (१) रात्रौ गृहीत्वा रात्रौ भुङ्क्ते, (२) रात्रौ गृहीत्वा दिवा भुङ्क्ते, (३) दिवा गृहीत्वा रात्रौ भुन्ते, (४) दिवा गृहीत्वा (रात्रिव्यवधानेन) दिवा भुङ्क्ते । उक्तञ्च भगवता निशीथमूत्रस्यैकादशोद्देशे____“जे भिक्खू दिया असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहित्ता दिया भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥सू. ७३॥ जे भिक्खू दियाअसणं वा ४ पडिगाहित्ता रत्तिं भुंजइ भुंजतं वा साइजइ ॥५. ७४॥ जे भिक्खू रत्तिं असणं वा ४ पडिगाहित्ता दिया भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ।।म. ७५॥ जे भिक्खू रत्तिं असणं वा ४ पडिगाहित्ता (१) रात्रिमें ग्रहण करके रात्रिमें ही भोजन करना। (२) रात्रिमें ग्रहण करके दिनमें भोजन करना । (३) दिनमें ग्रहण करके रात्रि में भोजन करना। (४)दिनमें ग्रहण करके (रात्रिभर रखकर दूसरे) दिनमें भोजन करना। भगवानने निशीथ सूत्रके ग्यारहवें उद्देशमें कहा है "जो भिक्षु दिनमें अशन पान खाद्य स्वाद्य ग्रहण करके (दुसरे) दिन भोगे, दूसरेको भोगवावे और अन्य भोगनेवालेको भलाजाने ॥७३॥ ___जो साधु दिनमें अशनादिक लेकर रात्रिमें स्वयं भोगे दूसरेको भोगवावे और अन्य भोगनेवालेको भला जाने ॥सू.७४॥ जो साधु रात्रिमें अशनादिक लेकर दिनमें भोगे भोगवावे या भोगनेवाले अन्यको भला जाने ॥सू. ७५॥ (૧) રાત્રે ગ્રહણ કરીને રાત્રે જ ભોજન કરવું (૨) રાત્રે ગ્રહણ કરીને દિવસે ભોજન કરવું (3) हिवसे ग्रह शन रात्र मान ४२j . (४) हिवसे अडष्य ४शन (तम राभान भाग) हिवसे मान २j. ભગવાને નિશીથ–સૂત્રના અગીઆરમા ઉદેશમાં કહ્યું છે– "२ भिक्षु हिवसमा मशन-पान-माध-स्वाध घडण शन (भार) हिवसे ભગવે, બીજાને ભોગવાવે, અન્ય ભેગવનારને ભલે જાણે (સૂ ૭૩) જે સાધુ દિવસે અશનાદિ લઈને રાત્રે પિતે ભેગવે, બીજાને ભેગવા અને भन्य लोगवनारने म त) (सू ७४) જે સાધુ રાત્રે અશનાદિ લઈને દિવસે ભેગે, ભગવાવે યા ભેગવનારને aand (सू ७५) Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे रत्ति भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइxxxxआवजइ चाउम्मासियं परिहारहाणं ॥स. ७६॥” इति । तच्च सर्वमशनादिकं रात्रौ नैव स्वयं भुजे, इत्यादि सबै व्याख्यातपूर्वम् ॥१३॥ सम्पति गृहीतमहाव्रतः शिष्य उपसंहरन्नाह-'इच्चेयाई' इत्यादि । मूलम्-इच्चेयाइं पंच महत्वयाइं राइभोयणवेरमणछहाइं अत्तहियहयाए उवसंपजित्ताणं विहरामि ॥१४॥ छाया-इत्येतानि पञ्च महावतानि रात्रिभोजनविरमणपष्ठानि आत्महितायोपसम्पद्य विहरामि ॥१४॥ उपसंहार. सान्वयार्थः--इच्चेयाइं ये पहले कहे हुए राइभोयणवेरमणछटाई-छठे रात्रिभोजनविरमण व्रतके साथ पंच महत्वयाई-पांच महाव्रतोंको अत्तहियहयाए आत्मकल्याणके लिये उवसंपजित्ताणं स्वीकार करके विहरामि संयममें विचरता हूँ ॥१४॥ जो साधु रात्रिमें अशनादिक लेकरके रात्रिमें भोगे दुसरेको भोगवावे और अन्य भोगनेवालेको भला जाने ॥सू. ७६ ॥ उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित्त लगता है । __इन सब अशन आदि चार प्रकारके आहारको रात्रिमें नहीं भोगूंगा, इत्यादिका व्याख्यान पहले कर चुके हैं ॥१३।। (६) अब महाव्रतोंको स्वीकार करनेवाला शिष्य उपसंहार करता हुआ कहता है-'इच्चेयाई' इत्यादि । જે સાધુ રાત્રે અશનાદિ લઈને રાત્રે ભેગવે, બીજને ભેગવા અને અન્ય ભેગવનારને ભલે જાણે ( ૭૬ ) તેને ચાતુર્માસિક પ્રાયશ્ચિત્ત લાગે છે.” એ સર્વ અશનાદિ ચાર પ્રકારના આહારને રાત્રે નહિ જોગવું, ઈત્યાદિનાં વ્યાખ્યાન પહેલાં કરવામાં આવેલું છે (૧૩) (૨) હવે મહાવ્રતોનો સ્વીકાર કરવાવાળા શિષ્ય ઉપસંહાર કરતે છતે કહે છેउच्चेयाइं त्या Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ४ सू. १४-१५ (१)-पृथिवीकाययतना २६५ ___टीका-इत्येतानि समनन्तरोदीरितलक्षणानि रात्रिभोजनविरमणपष्ठानि= रात्रौ भोजनं रात्रिभोजनं, रात्रिभोजनाद्विरमणं रात्रिभोजनविरमणं, षण्णां पूरणं षष्ठं-पटसंख्यामपूरकं, रात्रिभोजनविरमणं षष्ठं येषु तानि पञ्च महाव्रतानि आत्महितार्थाय-आत्मने हितम् इष्टमिति आत्महितम् , आत्मनो हितं-मङ्गलमस्मादिति वाऽऽत्महितो मोक्षः स एवार्थः प्रयोजनम् आत्महितार्थस्तस्मै तथोक्ताय उपसम्पद्य-सामस्त्येन स्वीकृत्य विहरामि-संयमविपये विचरामि ॥१४॥ ___यतनापुरस्सरमेव व्रतग्रहणं सफलं भवतीत्यतस्तद्यतनास्वरूपं प्रदश्यते"से भिक्खू वा” इत्यादि। मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से पुढर्वि वा भित्तिं वा सिलं वा लेलं वा ससरक्खं वा कायं ससरक्खं वा वत्थं हत्थेण वा पाएण वा कटेण वा किलिचेण वा अंगुलियाए वा सिलागाए वा सिलागहत्थेण वा न आलिहिज्जा न विलिहिज्जा न घटिज्जा न भिंदिज्जा, अन्नं न आलिहाविजा, न विलिहाविजा, न घट्टाविजा, न भिंदाविजा, अन्नं आलिहंतं वा, विलिहंतं वा, घट्टतं वा भिंदंतं वा न समणुजाणिज्जा, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि हे भगवन् । मैं पांच महाव्रतोंको और छठे रात्रिभोजनविरमण व्रतको आत्माके हित-मोक्ष-के लिए स्वीकार करके संयममार्गमें विचरता हूँ ॥४॥ व्रतोंको यतनापूर्वक स्वीकार किया जाय तभी वे सफल होते हैं, इसलिए यतनाका कथन करते हैं-से भिक्खू०' इत्यादि । હે ભગવન ! હું પાંચ મહાવ્રતને અને છઠા રાત્રિભજનવિરમણ વ્રતને આત્માને હિત-સ્વરૂપ મોક્ષને માટે સ્વીકાર કરીને સયમ-માર્ગમાં વિચરૂ છું (૧૪) ઘતેને યતનાપૂર્વક સ્વીકાર કરવામા આવે ત્યારે તે સફળ થાય છે, તેથી यतनानू थन ४२ छ-जे भिक्खू० त्याह Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D २६६ श्रीदशवैकालिकमूत्रे करतपि अन्नं न समणुजाणामि! तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥१॥१५॥ _ छाया-सभिक्षुर्वा भिक्षुकी वा संयत-विरत-प्रतिहत--प्रत्याख्यातपापकर्मा दिवा वा रात्रौ वा एकको वा परिपद्गतो वा मुप्तो वा जाग्रद्वा, स पृथिवीं वा भित्ति वा शिलां वा लेष्टुं वा सरजस्कं वा कायं सरजस्क वा वस्त्रं हस्तेन वा पादेन वा काष्ठेन वा किलिश्वेन वा अगुल्या वा शलाकया वा शलाकाहस्तेन वा नाऽऽलिखेत् न विलिखेत् न घट्टयेत् न भिन्यात्, अन्यं नाऽऽलेखयेन्न विलेखयेन घट्टयेन्न भेदयेद्, अन्यमालिखन्तं वा विलिखन्तं वा घट्टयन्तं वा भिन्दन्तं वा न समनुजानीयात् , यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्माद भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्दै आत्मानं व्युत्सृजामि ॥१॥१५॥ . (१) पृथ्वीकाययतना. सान्वयार्थः-संजयविरयपडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे वर्तमानकालीन सावध व्यापारोंसे रहित, भूत-भविष्यत्कालीन सावध व्यापारोंसे रहित, वर्तमान कालमें भी स्थिति और अनुभागकी न्यूनता करके तथा पहले किये हुए अतिचारोंकी निन्दा करके सावध व्यापारके त्यागी, सेबह पूर्वोक्त भिक्खू वा साधु भिक्खुणी वा-अथवा साध्वी दिया वा-दिनमें राओ वा अथवा रात्रिमें एगओ चा अकेला परिसागओ वा=अथवा संघमें स्थित सुत्ते वा-सोया हुआ जागरमाणे वा अथवा जागता हुआ रहे, वहां से वह पुढवि वा-पृथ्वीको भित्ति वा-भीत-दीवार-को सिलं वा-शिलाको लेखें वाढेलेको ससरक्खं सचित्तरजसहित काय वा-शरीरको ससरक्खं सचित्त रजसहित वत्यं वा वस्त्रको हत्थेण वा-हाथसे पाएण वा-पैरसे कटेण वा-काष्ठसे किलिंचेण वा-बांस आदिकी खपच्चसे अंगुलियाए वा अंगुलीसे सिलागाए वा छडसे सिलागहत्येण वा बहुतसी छड़ोंसे न आलिहिनाजराभी संघर्पण न करे, न विलिहिज्जा बारम्बार संघर्षण न करे, न घटिज्जान घट्टन करे-न चलावे, न भिदिज्जा-न भेदे, अन्नं-दूसरेसे न आलिहाविज्जा-जराभी संघर्पण न करावे, न विलिहाविजान्न बारम्बार सघर्पण करावे, न घटाविज्जा=न घट्टन करावे, न भिंदाविज्ञान भेदन करावे, आलिहतं वासंघर्पण करनेवाले विलिहत या बार-बार संघर्पण करनेवाले घटेतं वाघटन करनेवाले भिंदतं वा-भेदन करनेवाले अन्नं दुसरेको न समणुजाणिज्जाभला न समझे । इसलिये मैं जावज्जीवाए जीवनपर्यन्त (इसको) तिविह-कृत Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मनसे बायाप प करते हुए भी उस दण्डसे पडिसाक्षीसे गही अध्ययन ४ सू. १५ भिक्षुत्वसिद्धिः २६७ कारित अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेणं-तीन प्रकारके मणेणं मनसे वायाए-बचनसे काएणं-कायसे न करेमि-न करूँगा, न कारवेमिन कराऊँगा,करंतंपि-करते हुए भी अन्नं दूसरेको न समणुजाणामि-भला नहीं समझूगा। भंते! हे भगवन् ! तस्स-उस दण्ड से पडिकमामि-पृथक होता हूँ, निंदामि आत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि-गुरुसाक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्पाणं दण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि-त्यागता हूँ ॥१॥१५॥ ___टीका-से-सा=भिक्षावृत्तिकत्वेन प्रसिद्धः, भिक्षुः भिक्षितुं याचितुं शीलं धर्मों वा यस्य स भिक्षुः । ('भिक्ष याञ्चायामलाभे लाभे चे'-त्यस्माद्धातोः 'आक्केस्तच्छील-तद्धर्म-तत्साधुकारिषु' इत्यधिकारे 'सनाशंसभिक्ष उ' (३।२।१६२) इत्युप्रत्यये भिक्षुपदं सिध्यति)। अत्र 'उ' प्रत्ययेन ताच्छील्यद्योतनाद् भिक्षणशीलत्वं भिक्षुत्वमिति पर्यवस्यति । ननु कापायाम्बरधारिणामपि भिक्षोपजीवित्वेन तत्रोक्तभिक्षुलक्षणमतिव्याप्तमिति चेन्न भिक्षावृत्तिसे प्रसिद्ध भिक्षु कहलाते हैं, अर्थात् याचना करके आहारादि लेनेवालेको भिक्षु कहते हैं । संस्कृत व्याकरणके अनुसार 'भिक्षु' पदमें 'उ' प्रत्यय लगा हुआ है। उससे यह प्रगट होता है कि-भिक्षु उसे कहना चाहिए जो किसी वस्तुको विना भिक्षाके न लें, अर्थात् भिक्षणशील भिक्षु कहलाते हैं । प्रश्न-गेरुआ या अन्य किसी प्रकारके रंगसे रंगे हुए कपड़े पहननेवाले संन्यासी आदि भी भिक्षु मांग कर अपने जीवनका निर्वाह करते हैं, इसलिए यह भिक्षुका लक्षण उनमें भी चला जाता है, वे भी भिक्षु कहलादंगे। ભિક્ષાવૃત્તિથી પ્રસિદ્ધ હોય તે ભિક્ષુ કહેવાય છે. અર્થાત્ યાચના કરીને આહારાદિ લેનારાને ભિક્ષુ કહે છે, સસ્કૃત વ્યાકરણને અનુસરીને મિg શબ્દમાં ૩ પ્રત્યય લાગે છે તેથી એમ પ્રકટ થાય છે કે ભિક્ષુ એને કહેવું જોઈએ કે જે કઈ વસ્તુને ભિક્ષા વિના લે નહિ, અર્થાત શિક્ષણશીલ હોય તે ભિક્ષુ કહેવાય છે પ્રશ્નગેરૂથી યા અન્ય કઈ પ્રકારના રંગથી રંગેલા કપડા પહેરનારા સંન્યાસી આદિ પણ ભિક્ષા માંગીને પિતાના જીવન નિર્વાહ કરે છે તેથી એ ભિક્ષનું લક્ષણ એને પણ લાગુ પડે છે, તેઓ પણ ભિક્ષુ કહેવાશે ? Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ श्रीदशवकालिकसूत्रे भिक्षावृत्तिकत्वे सति भिक्षेतरवृत्तिरहितत्वं हि भिक्षुत्वम् , तथा च स्वामिनिदेशमन्तरेणापि जलाशयादितोऽपि स्वहस्तेनापि जलादिग्रहणस्य तदीयजीविकान्तर्गतत्वेन,तथा कदाचिद् भिक्षाया अलाभे पचन-पाचनादिक्रियया, कन्दमूलफलादिना च जीवननिर्वाहात्तेपामुक्तलक्षणभिक्षुत्वाभावात् । न च 'भिक्षवो यदा भिक्षमाणास्तदा तत्रास्तु भिक्षुत्वं परन्त्वभिक्षमाणत्वावस्थायां कथं तेषु भिक्षुशब्दः प्रवर्तत तदानी भिक्षणव्यापाराभावा? दिति वाच्यम् , उभय्यामप्यवस्थायां भिक्षुशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तसद्भावेन भिक्षुशब्दप्रवृत्तिसंभवात् , उत्तर-जो भिक्षासे ही अपना निर्वाह करते हैं। और सिवाय भिक्षाके अन्य वृत्तिको कदापि स्वीकार नहीं करते वे ही भिक्षु कहलाते हैं, संन्यासी आदि स्वामीकी आज्ञाके विना भी जलाशय आदिसे भी जल आदि अपने हाथोंसे ले लेते हैं । जब भिक्षा नहीं मिलती तब पचनपाचनादि करते करते हैं, तथा कन्द-मूल-फल-आदिसे निर्वाह कर लेते हैं, इसलिए वे भिक्षु नहीं कहला सकते। . प्रश्न-अच्छा, जो भिक्षासे ही अपना निर्वाह करे उसे भिक्षु कहते हैं तो साधु जय भिक्षाकी गवेषणा करेंगे तब ही भिक्षु कहलावेंगे, जिस समय स्वाध्याय आदि अन्य क्रिया करते होंगे उस समय भिक्षु कैसे कहलावेंगे ? उत्तर-भिक्षाकी गवेपणा करते समय भी साधुको भिक्षु कह सकते है और न करते समय भी कह सकते हैं। दोनों अवस्थाओंमें भिक्षु शब्दकी प्रवृत्तिका कारण मौजूद है। ઉત્તર-જેઓ ભિક્ષાથી જ પિતાને નિર્વાહ કરે છે અને ભિક્ષા સિવાય અન્યવૃત્તિને કદાપિ સ્વીકારતા નથી તેઓ જ ભિક્ષુ કહેવાય છે સંન્યાસી આદિ સ્વામીની આજ્ઞા વિના પણ જળાશય આદિથી પણ જળ આદિ પિતાના હાથે લઈ લે છે, ત્યારે ભિક્ષા નથી મળતી ત્યારે રાંધવા-રંધાવવાની ક્રિયા કરે છે, તથા કદ મૂળ ફળ આદિથી નિર્વાહ કરી લે છે, તેથી તેઓ ભિક્ષુ કહેવાઈ શકતા નથી પ્રશ્ન-ઠીક, જેઓ ભિક્ષાથી જ પિતાને નિર્વાહ કરે તેમને ભિક્ષુ કહે છે તે સાધુ જ્યારે ભિક્ષાની ગષણ કરશે ત્યારે જ ભિક્ષુ કહેવાશે, જે સમયે સ્વાધ્યાય આદિ અન્ય કિયા કરતા હશે તે સમયે ભિક્ષુ કેવી રીતે કહેવાશે ! ઉત્તર-ભિક્ષાની ગવેષણ કરતી વખતે સાધુને ભિક્ષુ કહી શકાય છે અને ન કરતી વખતે પણ કહી શકાય છે બેઉ અવસ્થામાં ભિક્ષુ શબ્દની પ્રવૃત્તિનું કારણ મેજુદ છે Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ मू. १५ भिक्षुत्वसिद्धिः २६९ तथाहि शब्दस्य द्वे निमित्ते व्युत्पत्तिनिमित्तं प्रवृत्तिनिमित्तं चेति, तत्र व्युत्पत्तिलभ्याथप्रतीतौ प्रकारीभूतो धर्मों व्युत्पत्तिनिमित्तम् , यथा पङ्कनशब्दस्य पङ्कजनिकर्तृत्वम् । सङ्केत्तग्रहे प्रकारीभूतो धर्मः प्रवृत्तिनिमित्तम् , यथा पद्मत्वजातिः ।। न च शब्दानां व्युत्पत्तिनिमित्तमेव प्रवृत्तिनिमित्तमिति वाच्यम् , पाचकादिशब्दे तथात्वेऽपि पङ्कजादिशब्दे तद्व्यभिचारात् । तथाहि-पङ्कजपदं 'पड्काज्जायते' शब्दोंकी प्रवृत्ति दो प्रकारसे होती है। जैसे कमलका वाचक एक पङ्कज शब्द है दूसरा पद्म शब्द है। पंकज शब्दका अर्थ है कीचड़से उत्पन्न होनेवाला, कमल कीचड़से उत्पन्न होता है इसलिए पंकजत्व व्युत्पत्तिनिमित्त है । अर्थात् पङ्कज शब्दको व्युत्पत्ति करनेसे जो अर्थ निकलता है वही अर्थ उसके वाच्यमें (अर्थमें) ठीक-ठीक घट जाता है, इसे व्युत्पत्तिनिमित्त कहते हैं । दुसरा प्रवृत्तिनिमित्त है। शब्दके संकेतसे बोध्य अर्थमें विशेषणभूत धर्मको प्रवृत्तिनिमित्त कहते हैं, जैसे पद्मत्व या कमलत्व(कमलपन)जाति। यदि कोई कहे कि- 'जो व्युत्पत्तिनिमित्त है वही प्रवृत्तिनिमित्त है तो ठीक नहीं है, क्योंकि यद्यपि 'पाचक' आदि शब्दोंमें जो व्युत्पत्तिनिमित्त है वही प्रवृत्तिनिमित्त है तथापि पङ्कज आदि शब्दों में यह कथन नहीं घटता, क्योंकि “पंक (कीचड़)से उत्पन्न होनेवाला पंकज है" શબ્દોની પ્રવૃત્તિ બે પ્રકારે થાય છે. જેમકે-કમળનો વાચક એક પંકજ શબ્દ છે, બીજે પ શબ્દ છે. પંકજ શબ્દનો અર્થ કીચડમાં ઉત્પન્ન થએલું એ થાય છે કમળ કીચડમાં ઉત્પન્ન થાય છે, તેથી પંકજત્વ વ્યુત્પત્તિનિમિત્ત છે. અર્થાત પ કજ-શબ્દની વ્યુત્પત્તિ કરવાથી જે અર્થ નીકળે છે તે જ અર્થ તેના વાચમા (અર્થમા) બરાબર બંધ બેસે છે, તેથી તેને વ્યુત્પત્તિનિમિત્ત કહે છે બીજો પ્રવૃત્તિનિમિત્ત છે શબ્દના સંકેતથી બેધ્ય અર્થમાં વિશેષણભૂત ધર્મને પ્રવૃત્તિનિમિત્ત કહે છે જેમકે-પદ્રવ યા કમલવ (કમળપણું) જાતિ જે કઈ કહે કે-જે વ્યુત્પત્તિનિમિત્ત છે તેજ પ્રવૃત્તિનિમિત્ત છે, તે તે બરાબર નથી કારણ કે જે કે “પાચક” આદિ શબ્દોમાં જે વ્યુત્પત્તિનિમિત્ત છે તેજ પ્રવૃત્તિનિમિત્ત છે, તથાપિ પંકજ આદિ શબ્દોમાં એ કથન બંધ બેસતું नथी, २Y : '५४ (143)माथी उत्पन्न थापाणु ५४ छ, -मे व्युत्पत्तिथी Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७०, श्रीदशवकालिकसूत्रे इति व्युत्पत्त्या पङ्कजनिकर्तृत्वावच्छिन्ने शक्ततया पद्मरूपार्थबोधकं सदपि शैवालादिप्वतिप्रसङ्गवारणाय पद्मत्व(जाति)रूपं प्रतिनिमित्तमादायैव पद्मं वोधयति न वितरथा । ___ एवमत्रापि भिक्षुशब्दस्य भिक्षणं व्युत्पत्तिनिमित्तम् , भिक्षत इत्येवंशीलो भिक्षुरिति व्युत्पत्तः । तथा चाऽभिक्षमाणत्वावस्थायां भिक्षुत्वामसक्तावपि ऐहिकपारइस व्युत्पत्तिसे.पंकज शब्द कमलका बोध तो कराता है परन्तु साथही साथ शैवाल तथा इस प्रकारसे पैदा होनेवाले गड्डलके फूल आदिका अर्थ भी उससे निकलता है, क्योंकि वे भी कीचड़से पैदा होते हैं । यदि व्युत्पत्तिनिमित्तको ही शब्दकी प्रवृत्तिमें कारण माना जाय तो शैवाल आदिमें भी पंकज शब्दका प्रयोग हो जायगा, इस आपत्तिका निवारण करनेके लिए व्युत्पत्तिनिमित्तके सिवाय प्रवृत्तिनिमित्त कमलत्व धर्मकी भी आवश्यकता है, इससे शैवाल आदिका निराकरण हो जाता है, दोनों निमित्तोंसे ठीक-ठीक अर्थका प्रतिपादन हो जाता है कि जो कीचड़से उत्पन्न हो और जिसमें कमलत्वरूप सामान्य (जाति) पाया जाय उसे पङ्कज कहते हैं। इसी प्रकार यहाँ 'भिक्षु' शब्दका व्युत्पत्तिनिमित्त भिक्षण (याचना) धर्म है, जिस समय साधु भिक्षण नहीं करते उस समय व्युत्पत्तिनिमित्तसे भिक्षु नहीं कहला सकते, फिरभी 'समितिगुप्तिपालकत्व' -रूप प्रवृत्तिપકજ શબ્દ કમળને બોધ તે કરાવે છે, પરંતુ સાથે શેવાળ તથા એ પ્રકારે પેિદા થનારા વીતેલા શીંગડા આદિને અર્થ પણ તેમાંથી નીકળે છે, કારણ કે તે પણ કીચડમાંથી પેદા થાય છે જે વ્યુત્પત્તિનિમિત્તને જ શબ્દની પ્રવૃત્તિમાં કારણરૂપ માનવામાં આવે તે શેવાળ આદિમાં પણ પંકજ શબ્દને પ્રવેગ થઈ જશે એ આપત્તિનું નિવારણ કરવાને માટે વ્યુત્પત્તિનિમિત્ત ઉપરાંત પ્રવૃત્તિનિમિત્ત કમળવ ધર્મની પણ આવશ્યકતા છે. તેથી શેવાળ આદિનું નિરાકરણ થઈ જાય છે બેઉ નિમિત્તેથી બરાબર અર્થનું પ્રતિપાદન થઈ જાય છે કે જે કીચડમાંથી ઉત્પન્ન થાય અને જેમાં કમલત્વ સામાન્ય (જાતિ) મળી આવે તેને પકજ કહે છે शते मी लिनु' भनी व्युत्पत्तिनिमित्त निक्षए (यायन) ધર્મ છે જે સમયે સાધુ ભિક્ષણ કરતું નથી, તે સમયે વ્યુત્પત્તિનિમિત્તથી ભિક્ષુ નથી કહેવાતે, તે પણ “સમિતિપ્તિ-પાલકત્વ” રૂપ પ્રવૃત્તિનિમિત્તથી ભિક્ષુ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्षमाणे वामलक्षणैकार्थसारवरूपमतिनिशि अध्ययन ४ सू. १५ भिक्षुत्वसिद्धिः २७१ त्रिकाऽऽशंसाविरहेण समितिगुप्त्यादिधारित्वरूपप्रतिनिमित्तमादाय भिक्षुत्व-समि त्यादिपालकत्वयोभिक्षुलक्षणैकार्थसमवायेन कथञ्चित्तादात्म्यलक्षणेन भिक्षमाणे - भिक्षमाणे वा भिक्षौ भिक्षुशब्दप्रवृत्तः, वर्तमानपर्यायमात्रग्रहणलक्षणऋजुसूत्रनयाभिप्रायाच्च भिक्षुत्वसिद्धिः । ननु पूर्वोक्तलक्षणं प्रवृत्तिनिमित्त कापायाम्बरधारिप्रभृतिष्वपि विद्यते, तेऽपि मार्ग पश्यन्त एव गच्छन्ति, तेन च तेषां समित्यादिपालकत्वं, मौनादिसमवलम्बनेन गुप्तिपालकत्वं चास्ति, ततश्च समिति-गुप्तिपालकत्वरूपप्रवृत्तिनिमित्तस्य तेष्वपि सत्त्वेन कुतो न तेषां भिक्षुशब्दव्यवहार्यत्वमिति चेत् ? ____ यत इहलोकाद्याशंसाविरहिततया समित्यादिपालकत्वमेव भिक्षुशब्दप्रवृत्तिनिमित्तसे भिक्षु शब्दकी प्रवृत्ति होती है, क्योंकि भिक्षुत्व और समितिगुप्तिपालकत्व दोनों धर्म भिक्षुमें कथञ्चित् तादात्म्यसम्बन्धरूप एकार्थसमवायसे रहते हैं । इसलिए भिक्षा न करते समय भी 'समितिगुप्तिपालकत्व' -रूप प्रवृत्ति-निमित्तसे भिक्षु शब्दकी प्रवृत्ति होती है। शङ्का-समिति-गुप्तिपालकता तो गेरुआ आदि वस्त्र पहननेवालोंमें भी पाई जाती है । वे भी मार्ग देखकर ही चलते हैं इसलिए वे समितिका पालन करते हैं । और कभी-कभी मौन रखते हैं इसलिए गुप्तिका भी पालन करते हैं । जव उनमें समिति-गुप्तिपालकता पाई जाती है तो उन्हें भी भिक्षु क्यों नहीं कहना चाहिए ? समाधान-इहलोक और परलोक सम्बन्धी आकांक्षा या स्वार्थरहित શબ્દની પ્રવૃત્તિ થાય છે, કારણ કે ભિક્ષુત્વ અને સમિતિગુપ્તિ-પાલકત્વ બેઉ ધર્મો ભિક્ષુમાં કઈપણ રીતે તાદાભ્ય-સબંધરૂપ એકાથ–સમવાયથી રહે છે તેથી ભિક્ષા ન કરતી વખતે પણ “સમિતિગુપ્તિ-પાલકત્વ રૂપ પ્રવૃત્તિનિમિત્તથી ભિક્ષુ શબ્દની પ્રવૃત્તિ થાય છે શકા–સમિતિગુમિ-પાલકતા તે ગેરૂઆ આદિ વસ્ત્ર પહેરનારાઓમાં પણ જવામાં આવે છે તેઓ પણ માર્ગ જોઈને જ ચાલે છે, તેથી તેઓ સમિતિનું પાલન કરે છે, અને કઈ-કઈવાર મૌન રહે છે તેથી ગુપ્તિનુ પણ પાલન કરે છે, જે તેઓમા સમિતિગુણિ-પાલકતા જોવામાં આવે છે, તે તેમને પણ ભિક્ષુ કેમ ન કહેવા જોઈએ? સમાધાન-ઈહલેક અને પરલેક સબધી આકાંક્ષા અથવા સ્વાર્થરહિત થઈને Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ श्रीदशवकालिकसूत्रे निमित्तम्, तच तेषु न विद्यते तेषां तथाविधमत्तेः, ऐहिककण्टकादिनिवृत्त्यर्थत्वात् , यश-कीर्त्यादिसम्पादनार्थत्वाच, नातस्तेषां वस्तुतः समितिगुप्त्यादिपालकत्वं विद्यते । अन्यथा-'यावन्निगडवद्धोऽहं तावदेनं न हनिप्यामि, यावन्न समालपामि तावदहं मृपात्यागी, यावत्सनिद्रोऽहं तावदचौर्यवती'-त्याधभिमाना अपि केचिद् व्रतधारित्वेन व्यवहियेरन् , किन्तु तेपामान्तरिकेच्छायाः सततानुवन्धितया विद्यमानवान्न व्रतित्वमस्ति । किञ्च भिक्षुम्मन्येपु कापायाम्बरधारिषु नैवाऽयं भिक्षुशब्द आत्मसत्तां लभते, होकर जो समिति-गुप्तिका पालन करते हैं वे हीभिक्षु कहलाते हैं। उनमें ऐसा नहीं पाया जाता।वे हिंसासे बचनेके लिए मार्ग देख कर गमन नहीं करते, किन्तु काँटे आदि लग जानेके भयसे भार्ग देखकर गमन करते हैं, और यश-कीर्ति सम्पादन करनेके लिए मौन रखते हैं, इसलिए वे वास्तवमें समिति-गुप्तिके पालक नहीं हो सकते । यदि उन्हें समितिगुप्तिका पालक माना जाय तो वह मनुष्य भी व्रती कहलायगा, जो ऐसी प्रतिज्ञा करे कि-"मैं जब तक वेडीमें जकड़ा हुआ है तब तक इसे नहीं मारूँगा" "जच तक न बोलूँ तब तक मृषावादका त्यागी ?" "जब तक सोया रहँगा तब तक अचौर्य व्रतका पालन करूँगा" वास्तवमें ऐसे मनुष्य व्रती नहीं कहलाते हैं, क्योंकि उनकी आन्तरिक इच्छा पापोंसे निवृत्त नहीं हुई है। गेरुआ आदि वस्त्र धारण करनेवाले और अपनेको भिक्षु समझनेજેઓ સમિતિ-ગુપ્તિનું પાલન કરે છે તેઓજ ભિક્ષુ કહેવાય છે તેમાં એવું જેવામાં આવતું નથી. તેઓ હિંસાથી બચવા માટે માર્ગ જોઈને ગમન કરતા નથી, પરંતુ કાંટા વગેરે વાગી જવાના ભયથી માગ જોઈને ચાલે છે અને યશ દીતિ સંપાદન કરવાને માટે મૌન રાખે છે, તેથી તેઓ વસ્તુતાએ સમિતિ-ગુમના પાલક નથી થઈ શકતા જે તેમને સમિતિ-ગુપ્તિના પાલક માનવામાં આવે તે એ માણૂસ પણ વતી કહેવાશે કે જે એવી પ્રતિજ્ઞા કરે કે- “જ્યા સુધી હું બેડીથી બંધાયેલ છું ત્યાં સુધી હું તેને નહિ મારૂ” “ત્યાં સુધી હું ન લેવું ત્યાં સુધી મૃષાવાદને ત્યાગી છું” “જ્યાં સુધી સુઈ રહીશ ત્યા સુધી અચોર્યવ્રતનું પાલન કરીશ.” વસ્તુત એવો માણસ વતી નથી કહેવાતે, કારણ કે એની આંતશ્મિ ઈછા પાપથી નિવૃત્ત થઈ નથી ગેરૂઆ આદિ વસ્ત્રો ધારણ કરનારા અને પિતાને ભિક્ષુ માનનારા સંન્યાસી Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ४ सू. १५ भिक्षुत्वसिद्धिः २७३ तेषामुद्गमोत्पादनादिदोषदुष्टान्नभोजित्व-सचित्ततोयकन्दमूलाधासेवित्व-पचन-पाचनादिक्रियेच्छानिवृत्त्यभावादिदोपदूषितत्वात् , अतो ये समितिगुप्तिधारका भिक्षामात्रोपजीविनोऽचित्तामेपणीयामुद्गमोत्पादनादिदोषराहित्येन विशुद्धां प्रमाणोपेतां च भिक्षां गृहन्ति, प्राणात्ययसमयेऽपि पचनपाचनादिनवकोटिविशुद्धि नैव खण्डयन्ति त एव भिक्षुपदव्यवहारयोग्यतां लभन्ते, इति विदेलिमम् ।। यद्वा क्षोभते क्षुभ्यति वा अन्तर्भावितण्यर्थतया क्षोभयति संचालयति चतुर्गतिकसंसारे सकलपाणिन इति क्षुप् अष्टविधं कर्म (अन्तर्भावितण्यर्थाद् भौवादिकाद् देवादिकाद्वा 'क्षुभ सञ्चलने अस्माद्धातोः 'सम्पदादित्वात् किम्) तद् ज्ञानदर्शनादिना भिनत्ति-क्षपयतीति भिक्षुः (पृपोरादित्वात्सिद्धिः) । वाले संन्यासी आदि वास्तवमें भिक्षु नहीं कहला सकते, क्योंकि वे उद्गम-उत्पादना आदि दोषोंसे दुषित अन्न आदि अंगीकार करते हैं, सचित्त जल लेते हैं, सचित्त कन्द मूल आदिका सेवन करते हैं, पचन'पाचनादि क्रियाएँ करते हैं और इच्छाका मन नहीं करते हैं। अतः वास्तवमें वे ही भिक्षु कहलाने योग्य हैं जो समिति-गुप्तिके धारक तथा भिक्षामात्रसे उपजीवी हैं, अचित्त एषणीय उद्गम आदि दोषरहित विशुद्ध प्रमाणोपेत भिक्षा लेते हैं और प्राण जानेका.अवसर आ जाने पर भी पचन-पाचन आदि नव कोटिकीविशुद्धताको खण्डित नहीं करते। अथवासंसारके समस्त शरीरधारियोंको क्षोभित करनेवाले ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मोंको भेदनेवाले भिक्षु कहलाते है। : આદિ વસ્તુત ભિક્ષુ કહેવાઈ શક્તા નથી, કારણ કે તેઓ ઉદ્દગમ ઉત્પાદના આદિ દેથી દૂષિત અન્ન આદિ અગીકારે છે, સચિત્ત જળ લે છે, સચિત્ત કદ-મૂળ આદિનું સેવન કરે છે, પચન–-પાચનદિ ક્રિયાઓ કરે છે અને ઇરછાનું દમન કરતા નથી એથી કરીને વસ્તુત: તેઓ જ ભિક્ષ કહેવાવા યેગ્ય છે કે જેઓ સમિતિગુપ્તિના ધારક તથા ભિક્ષામાત્રથી ઉપજીવી છે, અચિત્ત, એષણય, ઉદ્દગમાદિ–દેષથી રહિત, વિશુદ્ધ, પ્રમાણપત ભિક્ષા લે છે, અને પ્રાણ જવાને અવસર આવે તે પણ પચન-પાચનાદિ નવ કેટિની વિશુદ્ધતાને ખંડિત કરતા નથી. અથવા સસારના સર્વ શરીરધારીઓને ક્ષેભિત કરનારાં જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ કર્મોને ભેદનારા ભિક્ષુ કહેવાય છે. Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ श्रीदशवैकालिकसूत्रे भिक्षुकी साध्वी । 'संजय०' इत्यादीनि भिक्षुविशेषणानि भिक्षुक्या अपि वोध्यानि उभयोः समानाचारशीलत्वात् । (१) पृथिवीकाययतना । संयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यात-पापकर्मा-संयतः-वर्तमानकालिकसर्वसावद्यानुष्ठाननिवृत्तः, विरतः-अतीतकालिकपापाज्जुगुप्सापूर्वकं, भविष्यति च संबरपूर्वकमुपरतो निवृत्त इत्यर्थः, अत एव प्रतिहतं वर्तमानकाले स्थित्यनुभागहासेन नाशितं, प्रत्याख्यातं-पूर्वकृतातिचारनिन्दया भविष्यत्यकरणेन निराकृतं पापकर्म-पापानुष्ठानं येन स प्रतिहतमत्याख्यातपापकर्मा, संयतवासौ विरतश्च (विशेषणयोरपि परस्परविशेष्यविशेपणभावविवक्षया समासो गतप्रत्यागतादिवत् ) संयतविरतश्चासौ प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा चेति तथोक्तः, दिवा-दिवसे, रात्रौ-रजन्याम् , एकका एकाकी-द्रव्यतो ध्यानादिहेतो भिक्षुकी साध्वीको कहते हैं । संजय आदि विशेषण साध्वीके साथ भी समझना चाहिए क्योंकि साधु और साध्वीका आचार प्रायः समान है। (१) पृथिवीकाययतना। वर्तमान कालके सब प्रकारके सावध व्यापारसे निवृत्त होनेके कारण संयत,अतीतकालीन पापोंसे जुगुप्सा-पूर्वक और भविष्यत्कालीन पापोंसे संवर-पूर्वक निवृत्त होनेसे विरत, संयत और विरत होनेके कारण वर्तमान कालमें स्थितिबन्ध और अनुभागवन्धको हास करके पापकर्मको नष्ट करनेवाले, दिनमें, रात्रिमें, द्रव्यसे ध्यान आदिके लिए एकान्तमें ભિક્ષુકી સાધ્વીને કહે છે સંજ્ય આદિ વિશેષણ સાધ્વીની સાથે પણ સમજવાનું છે, કારણ કે સાધુ અને સાધ્વીને આચાર પ્રાય. સમાન છે (१) पृथिवीमाययतना. વર્તમાનકાળને સર્વ પ્રકારના સાવદ્ય-વ્યાપારથી નિવૃત્ત હોવાને કારણે સંયત, અતીતકાલીન પાપથી જુગુપ્સાપૂર્વક અને ભવિષ્યકાલીન પાપથી સ વરપૂર્વક નિવૃત્ત હોવાથી વિરત, સંયત અને વિરત હોવાને કારણે વર્તમાન કાળમાં સ્થિતિબધ અને અનુભાગબંધને પાસ કરીને પાપકર્મને નષ્ટ કરનારા, દિવસમાં અને રાત્રે, દ્રવ્યથી ધ્યાન આદિને માટે એકાન્તમાં થિત અને ભાવથી રાગ-દ્વેષ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४.१५ (१) पृथिवीकाययतना २७५ " रेकान्तस्थानस्थितोऽद्वितीयः, भावतो रागद्वेषरहितो वा, परिषद्गतः = परि= समन्ततः सीदन्ति = गच्छन्ति गत्वा संहता भवन्ति जना अस्यामिति परिषत् - सभा, तां गतः परिषद्गतः = साध्वादिसङ्घ स्थित इत्यर्थः सृप्तः = स्वाध्यायादिजनितश्रमापनोदार्थ रजनीमध्यमयामयुगलमात्रं निद्रितः, जाग्रत् = इन्द्रियादिकरणकविषयज्ञानयोग्यावस्था प्राप्तः निद्राविमुक्तो भवेत् । एवंविधो भिक्षुर्वक्ष्यमाणरीत्या दुष्कृत्यं न करोतीति प्रदर्श्यते-' से ' इति, सः - भिक्षुः पृथिवीं = खनिसमुद्भूतमृत्तिकारूपाम्, भित्तिं= सरित्तीरमृत्तिकाम्, शिलां= विशालपाषाणलक्षणाम्, लेष्टुं = पिण्डात्मकपृत्खण्डम्, सरजस्कं = सचित्तरजोऽवगुण्ठितम् कार्य=शरीरम् वस्त्रं चोलपट्टप्रमुखं च पात्रादीनामप्युलक्षणमेतत्, एतेषु अन्यतमं किमपि वस्तु हस्तेन = करेण, पादेन चरणेन, काष्ठेन = खदिरादिदारुखण्डेन, किलिञ्चेन = वंशादिकञ्चिकया, अङ्गुल्या करचरणावयवविशेषेण, शलाकया = लोहादिरचितया, शलाकाहस्तेन = पुञ्जीकृतशलाकाभित्र नाऽऽलिखेत्=सकृत् अल्पं वा न संघर्षयेत्, न विलिखेत् = बहुशोऽविरतं विशेषतो वा स्थित और भावसे रागद्वेषरहित होनेसे एकाकी, अथवा साधुओंके संघ में स्थित, स्वाध्याय आदिसे उत्पन्न श्रमको दूर करनेके लिए रात्रिके बीचके दो प्रहरोंमें सोते हुए, तथा जागते हुए भिक्षु, आगे कहे हुए सावध व्यापार नहीं करते हैं । खानसे निकली हुई मृत्तिकारूप पृथ्वीपर, नदीके किनारेकी मिट्टी पर, पत्थरकी शिलापर, मिट्टीके ढेलेपर, सचित्त धूलीसे धूसर काय, वोलपट आदि वस्त्र तथा पात्र पर, अर्थात् इनमेंसे किसी भी पदार्थपर हाथसे, पैरसे, काष्ठसे, बांस आदि की सटक (छड़ी-खापटी) से, अंगुली से, लोहे आदि की बनी हुई छड़से, अथवा बहुतसी छड़ों ( सलाइयों) से, न स्वयं एकबार लकीर खींचे, न बार-बार लकीर खींचे अर्थात् इनको રહિત હાવાને કારણે એકાકી અથવા સાધુએ ના સઘમાં સ્થિત, સ્વાધ્યાય આદિથી ઉત્પન્ન થતા શ્રમને દૂર કરવાને માટે રાત્રિની વચ્ચેના એ પહેારમાં સૂતા તથા જાગતા ભિક્ષુ, આગળ કહેલા સાવદ્ય વ્યાપારને કરતા નથી ખાણમાથી નીકળેલી માટીરૂપ પૃથ્વી પર, નદીના કિનારાની માટી પર પત્થરની શિલા પર, માટીનાં ઢેફા પર, સચિત્ત ધૂળથી ધૂસર કાય, ચાલપટ્ટો આદિ વસ્ત્ર તથા પાત્ર પર અર્થાત્ એમાના કોઇ પણ પદાથ પર હાથથી, પગથી, કાòથી, વાંસ આદિના ખપાટથી, આગળીથી, લેઢા આદિની સળીથી અથવા અનેક સળીથી ન પાતે એકવાર રેખા દરે, ન વારંવાર રેખા દોરે, અર્થાત્ Y Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - २७६ः । श्रीदशवैकालिकसूत्रे न घट्टयेत्न चालयेत्, न भिन्यात्-न विदारयेत्-न विदीर्णतां नयेत् , तथाऽन्येन (सत्रे वापत्वाद्वितीया) स्वव्यतिरिक्तजनेन नाऽऽलेखयेत्, न विलेखयेत्, न घट्टयेत्न भेदयेत्, आलिखन्तं वा विलिखन्तं वा घट्टयन्तं वा भिन्दन्तं वा अन्य व्यक्त्यन्तरं न समनुजानीयात् नानुमन्येत, इत्येवं भगवदुपदिष्टाचारपद्धतिसंरक्षणपरायणान्तःकरणोऽहं यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेनेत्यादि पूर्ववत् ॥११॥१५॥ .. सम्प्रति क्रमप्राप्तामप्काययतनामाह-से भिक्खू वा०' इत्यादि । · मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खायपावकम्मे दिया वाराओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से उदगं वा ओसं वा हिमं वा महियं वा करगंवा हरतणुगं वा सुद्धोदगंवा उदउल्लं वा कायं उदउल्लं वा वत्थं ससिणिद्धं वा कार्य ससिणिद्धं वा वत्थं न आमुसिज्जा न संफुसिज्जा न आविलिज्जा न पविलिजा न अक्खोडिज्जा, न पक्खोडिज्जा, न आयाविज्जा, न पयाविजा, अन्नं आमुसंतं वा, संफुसंतं वा आवीलंतं वा पवीलंतं वा, अक्खोडतं वा, पक्खोडतं वा, आयावंतं. वा, पयावतं वा न समणुजाणिज्जा । जावज्जोवाए तिविहं तिविहेणं न घिसे तथा न हिलावे, न विदारे, न दुसरेसे ये सब क्रियाएँ करावे और न ये सब क्रियाएँ करते हुए अन्यको भला जाने । हे गुरुमहाराज ! इस प्रकार सर्वज्ञ भगवान द्वारा उपदेश किए हुए आचारकी रक्षा करने में मनको तत्पर रखनेवाला मैं तीन करण तीन; योगसे यह सब कार्य नहीं करूँगा ॥२॥ १५ ॥ अव अप्कायकी यतनाका प्रतिपादन करते हैं-'सेभिक्खू०' इत्यादि । એને ન ઘસે તથા ન હલાવે, ન વિદારે, ન બીજાઓ પાસે એ બધી ક્રિયાઓ કરો અને ન એ બધી ક્રિયાઓ કરનારા અન્યને ભલે જાણે હે ગુરૂ મહારાજ! એ પ્રકારે સર્વજ્ઞ ભગવાને ઉપદેશેલા આચારની રક્ષા કરવામાં મનને તત્પર રાખનાર એ હુ ત્રણ કરણ ત્રણ વેગથી એ બધાં કાર્ય ४NA ME. (१) (१५) । सव २०५४ायनी यतनानु प्रतिपादन ४२ छ-से मिक्खू त्याह. : . . . . Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. १६ (२)-अप्काययतना २७७ मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥२॥१६॥ छाया-स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा संयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यातपापकर्मा दिवा वा रात्रौ वा एकको वा परिषद्गतो वा सुप्तो वा जाग्रद्वा स उदकं वा अवश्यायं वा हिमं वा मिहिकां वा करकं वा हरतनुं वा शुद्धोदकं वा उदका- वा कायं,उदकाने वा वस्त्रं,सस्निग्धं वा काय,सस्निग्धं वा वस्त्रं नाऽऽमृशेन्न संस्पृशेन्नाऽऽपीडयेन्न प्रपीडयेन्नास्फोटयेन्न प्रस्फोटयेन्नातापयेन्न प्रतापयेत् ,अन्येन नाऽऽमर्शयेन्न संस्पर्शयेन्नाऽऽपीडयेन्न प्रपीडयेन्नाऽऽस्फोटयेन प्रस्फोटयेन्नाऽऽतापयेन प्रतापयेत् , अन्यमामृशन्तं वा, संस्पृशन्तं वा, आपीडयन्तं वा, प्रपीडयन्नं वा,आस्फोटयन्तं वा, मस्फोटयन्तं वा, आतापयन्तं वा, प्रतापयन्तं वा न समनुजानीयात् । यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि, न कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्माद् भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्दै आत्मानं व्युत्सृजामि ॥२॥१६॥ (२) अप्काययतना. सान्वयार्थः---संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे वर्तमानकालीन सावध व्यापारोंसे रहित, भूत-भविष्यत्कालीन सावध व्यापारोंसे रहित, वर्तमान कालमें भी स्थिति और अनुभागकी न्यूनता करके तथा पहले किये हुए अतिचारोंकी निन्दा करके सावध व्यापारके त्यागी से वह पूर्वोक्त भिक्खू वा-साधु भिक्खुणी वा अथवा साध्वी दिया वा-दिनमें राओ वा अथवा रात्रिमें एगओ वा अकेला परिसागओ वा अथवा संघमें स्थित सुत्तेवा-सोया हुआ जागरमाणे वा अथवा जागता हुआ रहे, वहां से-बह-उदगं वाजलको हिमं वा-हिमको महियं वा कुहरे-धूअर-को करगं वा-ओलेको हरतणुगं वान्यास पर बूंद-बूंद पड़ा हुआ जलविशेपको सुद्धोदगं वा-आकाशसे गिरे हुए निर्मल जलको (और) उदउल्लं वा-जलसे भीने हुए-गीले कार्य-शरीरको उदउल्लं वा वत्थं जलसे भीगे हुए वस्त्रको ससिणिद्धं वा कार्य-कुछ-कुछ गीले शरीरको ससिणिद्वं वा वत्थं कुछ-कुछ गीले वस्त्रको न आमुसिज्जा-जराभी स्पर्श न करे, न संफुसिज्जा अधिक स्पर्श न करे, न आवीलिज्जा-पीडित न करे, न पीलिज्जा अधिक पीडित न करे, न अक्खोडिज्जा-स्फोटन न करे, न पक्खोडिज्जा प्रस्फोटन न करे, न आयाविज्जा-तपावे नहीं, न पयाविज्जा अधिक तपावे नहीं, अनं Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - २७८ श्रीदशवकालिकमूत्रे दुसरेसे न आमुसाविज्जा-जराभी स्पर्श न करावे, न संफुसाविज्जा अधिक स्पर्श न करावे, न आवीलाविज्जा-पीडित न करावे, न पवीलाविज्जाअधिक पीडित न करावे, न अक्खोडाविज्जा-स्फोटन न करावे, न पक्खोडाविज्जा प्रस्फोटन न करावे, न आयाविज्जा-तपवावे नहीं, न पयाविज्जा अधिक तपवावे नहीं, आमुसंतं वा-जराभी स्पर्श करनेवाले संफुसंतं वा अधिक स्पर्श करनेवाले आवीलतं वा पीडित करनेवाले पवीलंतं वा अधिक पीडित करनेवाले अक्खोडतं वा-स्फोटन करनेवाले पक्खोडतं वाप्रस्फोटन करनेवाले आयावंतं वा तपानेवाले पयावंतं वा अधिक तपानेवाले अन्नं-दूसरेको न समणुजाणिज्जा-भला न समझे। जावज्जीवाए3 जीवनपर्यन्त ( इसको ) तिविहं-कृत कारित अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेणं तीन प्रकारके मणेणं मनसे वायाए वचनसे काएणं कायसे न करेमि=न करूँगा, न कारवेमि-न कराऊँगा, करंतंपि करते हुएभी अन्नं दुसरेको न समणुजाणामि भला नहीं समझूगा । भंते ! हे भगवन् ! तस्स-उस दण्डसे पडिक्कमामि-पृथक होता हूँ, निंदामिआत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि-गुरु साक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्पाणं-दण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि-त्यागता हूँ ॥२॥१६॥ (२) अप्काययतना। टीका-सू भिक्षुर्वेत्यादि पूर्ववत् । उदक-प्रसङ्गात्कूपादिजलम् भूगर्भोद्गतस्रोतोजलमित्यर्थः, अवश्याय-मेघमन्तरेण रात्रौ पतितं सूक्ष्मतुपाररूपमप्कायम् । हिम-शीतत्तौं शीताधिक्येन घनीभूतमप्कायम्-'वर्फ'इति लोके प्रसिद्धम् । मिहिकां= हेमन्त-शिगिरयोः कदाचित्२ सान्द्रतया धूमवत्प्रतिभासमानस्वरूपां कुज्झटिकाम् 'धूअर' इति लोकमसिद्धाम् । करक-किरति क्षरति पानीयमिति करकंबर्पोपलम् । हरतनुम् भूमिमुद्भिद्य तृणाङ्कुरायुपरि विन्दुरूपेण स्थितमपकायविशेपम् । (२) अप्काययतना। भिक्षु और भिक्षुकी आदि पदोंका अर्थ पहलेकी भाँति समझना चाहिए। कुएका पानी अर्थात् भूमिमें सोता (झरना)से निकलनेवाला जल,ओस,पाला,कुहरा ( अर),ओला (गड़ा),हरतनु (भूमिको भेद कर गेहूँ (२) गाययतन.. ભિક્ષુ અને ભિક્ષુકી આદિ શબ્દનો અર્થ પહેલાંની પેઠે સમજે કૂવાનું પાણી અર્થાત્ ભૂમિમાંના સત (ઝરણ) થી નીકળતું જળ, ઓસ, ઠાર, ઝાકળ, કરા, હેરતનું (ભૂમિને ભેદીને ઘઉ આદિના આ કુરે ઉપર જમનારા જલબિન્દુઓ), વરસાદનું નિર્મળ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. १७ (३) - तेजस्काययतना २७९ शुद्धोदकम्=आकाशात्पतितं स्वभाव निर्मलं सलिलम् । तथा उदकाद्रै= जलक्लिन्नं कायं वस्त्रं च । सस्निग्धम् = स्निग्धमिति भावक्तान्तम्, स्नेह : = स्निग्धत्वमिति तदर्थस्तेन सह वर्त्तमानं तत् = बिन्दुरहितमीषदा काय वस्त्रं च, स्वयं न आमृशेत्=आ = ईषत 'आङीषदर्थेऽभिव्याप्तौ सीमार्थे धातुयोगजे ' इति कोशात् मृशेत् = स्पृशेत्; न स्पर्शयुक्तं कुर्यादित्यर्थः। न संस्पृशेत् =न सं=प्रकर्षेण स्पृशेत् । नापीडयेत्, न प्रपीडयेत् । नाऽऽस्फोटयेत्, न प्रस्फोटयेत् । नाऽऽतापयेत्, न प्रतापयेत् । शेषं सुगमम् । एषु ('आमृशेत् संस्पृशेत्' इत्यादिषु) सर्वत्र धात्वर्थाऽविशेषेऽप्युपसर्ग ( आ. सं. प्र. ) - कृतवाच्यवैलक्षण्यान्न पौनरुक्त्यदोषात्रसर इति बोध्यम् ||२||१६|| ? सम्प्रति तेजस्काययतनामाह-' से भिक्खू वा' इत्यादि । मूलम् - से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय - विरय-पडिहय-पच्चक्खाय - पावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुते वा जागरमाणे वा; से अगणिं वा इंगालं वा मुम्मुरं वा अञ्चिं वा जालं वा अलायं वा सुद्धागणिं वा उक्कं वा न उंजेजा न घट्टेजा न भिंदेज्जा न उज्जालेज्जा न पज्जालेज्जा न निवावेजा, अन्नं आदिके अंकुरों पर जमनेवाले जलबिन्दु), वर्षांका निर्मल जल, इन सबको, तथा जलसे बहुत गीला या थोड़ा गीला शरीर या वस्त्र, इन सबको स्वयं एक बार स्पर्श न करे, बार-बार स्पर्श न करे, वस्त्रको एकबार न निचोड़े, बार-बार न निचोड़े, न एकबार झटके, न बार-बार झटके, न एकबार धूपमें सुखावे, न बार-बार सुखावे, न ये सब क्रियाएँ दूसरे से करावे, न करते हुएको भला जाने, शेष सुगम है ॥ २ ॥ १६ ॥ अनिका की यतना कहते हैं- 'से भिक्खू वा०' इत्यादि । જળ એ સને, તથા જળથી બહુ લીલુ' અથવા થાડું લીલુ શરીર યા વસ્ત્ર, એ સને સ્વયં એકવાર સ્પર્શી નહિ કરૂં, વાર વાર સ્પર્શી નહિ કરૂ, વસ્ત્રને એકવાર નહિ નીચેાવું, વાર વાર નહિ નીચેાવું, એકવાર નહિ ઝાટકું, વાર વાર નહિ ઝાટક, એકવાર તડકામાં નહિ સુકાવું, વારંવાર નહિ ક્રિયાએ બીજા પાસે કરાવું, અને કરનારને નહિં सहेली छे (२) (१९) સુકાવું, નહિ એ બધી ભલે જાણ્યું. શેષ ભાગ अग्निायनी यतना ४द्धे छे-से भिक्खु वा० त्याहि. Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० श्रीदशवैकालिकमूत्रे न उंजावेजा न घडावेजा न भिंदावेजा, न उजालावेज्जा न पज्जालावेज्जा न निघावेज्जा, अन्नं उंजंतं वा घटुंतं वा भिदंतं वा उज्जालंतं वा पज्जालंतं वा निवावंतं वा न समणुजाणिज्जा। जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि नकारवेमि करतपि अन्नं न समणुजाणामि ! तस्स भंते! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥३॥१७॥ ___छाया-स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा संयतविरतमतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा दिवा वा रात्रौ वा एकको वा परिपद्तो वा मृप्तो वा जाग्रता, सः अग्नि वा अङ्गारं वा मुर्मुरं वा अचिर्वा ज्याला वा अलातं वा शुद्धानि वा उल्का वा नोत्सित् न घट्टयेत् न भिन्द्यान्नोज्ज्वालयेन्न मज्वालयेन्न निर्वापयेद् , अन्येन नोत्सेचयेन्न घट्टयेन मेदयेनोज्ज्वालयेन्न प्रज्वालयेन्न निर्वापयेद् , अन्यमुसिञ्चन्तं वा घट्टयन्तं वा भिन्दन्तं वा उज्ज्वालयन्तं वा प्रज्यालयन्तं वा निर्वापयन्तं वा न समनुजानीयात् । यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्माद् भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्दै आत्मानं व्युत्सृजामि ॥३॥१७॥ (३) तेजस्काययतना. सान्वयार्थ:-संजयविरयपडिह्यपञ्चक्खायपावकम्मे वर्तमानकालीन सावध व्यापारोंसे रहित, भूत-भविष्यत्कालीन सावध व्यापारोंसे रहित, वर्तमान कालमें भी स्थिति और अनुभागकी न्यूनता करके तथा पहले किये हुए अतिचारोंकी निन्दा करके सावध व्यापारके त्यागी, से वह पूर्वोक्त भिक्खू वा-साधु भिक्खुणी वा=अथवा साध्वी; दिया वा=दिनमें राओ वा=अथवा रात्रिमें; एगओ वा अकेला परिसागओ वा=अथवा संघम स्थित; सुत्ते वा सोया हुआ जागरमाणे वा अथवा जागता हुआ रहे, वहां से वह अगणिं वा अग्निको इंगालं वा=अंगारेको मुम्मुरंवा-मुर्मुर-भूभूदर-(तुपानि)को अचिं वायोति-मूलानिये विच्छिन्न ज्वालाको, जालं वा मूलानिसे अविच्छिन्न जलती हुई ज्वालाको, अलायं वा-निसका अग्रभाग जल रहा हो ऐसे काठको, सुद्धागणि वा-शुद्ध अग्नि-लोहपिण्डमें संबद्ध अग्नि अथवा विजलीरूप अमिको, उकं वा-चिनगारियोंको न उंजेजा इंधन डालकर बढावे नहीं, Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. १७ (३) - तेजस्काययतना २८१ न घट्टेज्जा = चलावे, नहीं, न भिदेज्जा = भेदे नहीं, न उज्जालेज्जा = थोडाभी जलावे नहीं, न पज्जालेज्जा = प्रज्वलित करे नहीं, न निव्वावेज्जा = बुझावे नहीं, अन्नं-दूसरे से न पंजावेज्जा = बढवावे नहीं, न घट्टावेज्जा = चलवावे नहीं, न भिदावेज्जा = भिदावे नहीं, न उज्जालावेज्जा =न जलवावे, न पज्जालावेज्जा =न प्रज्वलित करावे, न निव्वावेज्जा न बुझवावे, उजंतं वा= वढानेवाले घतं वा = चलानेवाले भिदंतं वा = भेदनेवाले उज्जालंतं वा= जलानेवाले पज्जालंतं वा प्रज्वलित करनेवाले निव्वावतं वा = बुझानेवाले अन्नं= दूसरेको न समणुजाणिज्जा = भला न समझे । जावज्जीवाए = जीवनपर्यन्त ( इसको ) तिविहं कृत- कारित - अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहे तीन प्रकारके मणेणं = मनसे वायाए = वचनसे काएणं = काय से न करेमि =न करूँगा, न कारवेमि=न कराऊँगा, करंतंपि = करते हुए भी अन्नं = दूसरेको न समणुजाणामि = भला नहीं समझॅगा । भंते ! = हे भगवन् ! तस्स=उस दण्ड से पडिक्कमामि = पृथक् होता हूँ, निंदामि = आत्मसाक्षी से निन्दा करता हूँ, गरिहामि = गुरु साक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्पाणं दण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि=त्यागता हूँ ||३||१७|| L टीका-अग्निं=वह्निम्, अङ्गारं=निर्धूमज्वालं ज्वलदिन्धनम्, मुर्मुरं=प्रविरलस्फुलिङ्गसंमिश्रभस्मरूपं तुपानलं वा, 'मुर्मुरस्तु तुपानलः' इति वैजयन्तीकोशात्, अजालिण्डिकानं वा, अर्चिः = मूलामिविच्छिन्नां ज्वालाम्, ज्वालां दद्यमानतृणादिसम्वद्धाऽऽमूलोर्ध्वत्रमसारितेजोराशिम्, अलातं = ज्वलदग्रभागं काष्ठम्, शुद्धाग्निम् = अयःपिण्डानुसंबद्धं विद्युदादिरूपं वा उल्कां = मूलवहेर्विच्छिद्य २ समन्तात्प्रसर्पदशिकणात्मिकाम्, (चिनगारी, तडंगिया, इति भाषा ) स्वयं न उत्सिञ्चेत् =न तत्रे(३) तेजस्काययतना । अग्नि, अंगारा, भूभल (गर्म राख ) बकरीकी लेंडीकी आग, मूलसे टूटी हुई ज्वाला, मूलसे अविच्छिन्न ज्वाला, लुआठा (जलती हुई लकडी), गर्म लोहेके गोलेकी या बिजलीकी अग्नि, अथवा चिनगारी (3) तेनस्ययतना. अग्नि, अंगारा, गरम राम, मरीनी सींडीनी भाग, भूजथी तूटेसी नवाजा, મૂળથી અવિચ્છિન્ન જવાલા, મળતાં લાકડા, ગરમ લેાખંડના ગાળાના અથવા વિજળીના અગ્નિ, અથવા ચીણગારી આદિમાં તે ઇંધન ( ખળતજી ) નહિ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे न्धनादिकं प्रक्षिपेत्, न घट्टयेत् =न सञ्चालयेत्, न भिन्द्यात् = दण्डेटकखण्डा दिना न स्फोटयेत्, न उज्ज्वालयेत् = तालवृन्तादिना सकृदल्पं वा न ध्मापयेत् न वर्धयेदित्यर्थः, न प्रज्वालयेत्= सततं बहुशो वा न प्रज्वलितं कुर्यात्, न निर्वापयेत्न विध्यापयेत् न निर्वाणं नयेदित्यर्थः, अन्येन न उत्सेचयेदित्यादि सर्व सुगमम् | ३|१७| वायुकाययतनामाह - ' से भिक्खू वा० ' इत्यादि । मूलम् - से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय - विरय- पडिहय-पच्चक्खायपावकस्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते जागरमाणेवा; से सिएण वा विहुणेण वा तालिअंटेण वा पत्तेण वा पत्तभंगेण वा साहाए वा साहाभंगेण वा पिहुणेण वा पिहुणहत्थेणं वा चेलेण वा चेलकन्नेण वा हत्थेण वा मुहेण वा अप्पणी वा कार्य बाहिरं वावि पुग्गलं न फुमेज्जा न वीऐज्जा, अन्नं न फुमावेजा न वीआवेजा, अन्नं फुमंतं वा वीअंतं वा न समणुजाणिज्जा । जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि, न कारवेमि, करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ ४ ॥ १८ ॥ छाया - स भिक्षु भिक्षुकी वा संयतविरतप्रतिहतमत्याख्यातपापकर्मा दिवा वा रात्रौ वा एकको वा परिपगतो वा सुप्तो वा जाग्रद्वा, स सितेन वा विधूआदिमें स्वयं इन्धन न डाले, न संचालन करे (न संघटा करे), न दंड ईंट आदि से उसे भेदे, न पंखा आदिसे एकवार प्रज्वलित करे, न वार-चार प्रज्वलित करे, न बुझावे । न ये सव क्रियाएँ दूसरेसे करावे, न करते हुएकी अनुमोदना करे, इत्यादि सब पूर्ववत् ॥३॥१७॥ वायुकायकी यतना कहते हैं-'से भिक्खू वा०' इत्यादि । નાંખે, નઠુિં સ ંચાલન કરે (નહિં સંઘટન કરે), નહિ દંડ કે ઈંટ આદિથી તેને ભેટ્ટે, નહિ પંખા વગેરેથી તેને એકવાર પ્રજવલિત કરે, નહિ વારંવાર પ્રજ્વલિત કુ, નહિ બુઝાવે, નહિ એ બધી ક્રિયાએ ખીન્ત પાસે કરાવે, કરનારની નહિ અનુમે દનાક ઇત્યાદિ પૃવત્ત (૩) (૧૭) वायुश्ायनी यतना हे छे-से भिक्खू वा० छत्याहि. Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सु. १८ (४) वायुकाययतना. २८३ ननेन वा तालन्तेन वा पत्रेण वा पत्रभङ्गेन वा शाखया वा शाखाभङ्गेन वा पिहुनेन वा पिहुनहस्तेन वा चैलेन वा चैलकर्णेन वा हस्तेन वा मुखेन वा, आत्मनो वा कार्य बाह्यं वापि पुद्गलं न फूत्कुर्यात् , न वीजयेत् , अन्येन न फूलकारयेन वीजयेद्, अन्यं फूत्कुर्वन्तं वा वीजयन्तं वा न समनुजानीयात्। यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि। तस्य भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्दै आत्मानं व्युत्सृजामि॥४॥१८॥ (४) वायुकाययतना. सान्वयार्थः--संजयविरयपडिहयपचक्खायपावकम्मे वर्तमानकालीन सावध व्यापारोंसे रहित, भूत-भविष्यत्कालीन सावध व्यापारोंसे रहित, वर्तमान कालमें भी स्थिति और अनुभागकी न्यूनता करके तथा पहले किये हुए अतिचारोंकी निन्दा करके सावध व्यापारके त्यागी से वह पूर्वोक्त भिक्खू वासाधु भिक्खुणी वा अथवा साध्वी दिया वा-दिनमें राओ वा अथवा रात्रिमें एगओ वा अकेला परिसागओ वा अथवा संधमें स्थित सुत्ते वा-सोया हुआ जागरमाणे वा अथवा जागता हुआ रहे, वहाँ से वह सिएण वाचामरसे, विहुणेणवा-पंखेसे, तालिअंटेण वा-ताडके पंखेसे, पत्तेण वा-पत्तेसे, पत्तभंगेण वा-बहुतसे पत्तोंसे, साहाए वा शाखा-डाली-से, साहाभंगेण वाशाखाके खण्डसे, पिहुणेण वा-मोरपीछीसे, पिहुणहत्थेण वा मोरपीछियोंके समूहसे, चेलेण वा-कपडेसे, चेलकण्णेणवा-कपडेके छोर-पल्ले-से, हत्थेण वा हाथसे, मुहेणवा-मुखसे, अप्पणो वा अपने कार्य-शरीरको, वा अथवा बाहिरं वि पुग्गलं बाहरी पुद्गलोंको भी न फुमेज्जाफूंकन मारे,न वीएज्जा चवर आदिसे हवा न करे, अन्नं-दूसरेसे न फुमावेजा-फूंक न मारावे, न वीआवेज्जा हवा न करावे, फुमंतं वा-फूंकनेवाले बीअंतं वा-हवा करनेवाले अन्नं दूसरेको न समणुजाणिज्जा-भला न समझे। जावज्जीवाए-जीवनपर्यन्त (इसको)तिविहं-कृत कारित अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेणं-तीन प्रकारके मणेणं-मनसे वायाए वचनसे काएणं कायसे न करेमिन्न करूँगा,न कारवेमिन्न कराऊँगा, करतंपि-करते हुएभी अनं-दूसरेको न समणुजाणामि भला नहीं समझूगा। भंते! हे भगवन् ! तस्स-उस दण्डसे पडिकमामिपृथक् होता हूँ, निंदामि आत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि गुरुसाक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्पाणं-दण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि%3D त्यागता हूँ ॥४॥१८॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २८४ श्रीदशकालिकसूत्रे (४) वायुकाययतना। टीका-सितेन-चामरेण श्वेतत्वगुणवत्त्वेनोपचारात् , विधुननेन-बीजनकेन, तालवृन्तेन-ताले-करतले- वृन्तं बन्धनमस्येति, तालस्येव वृन्तमस्येति, ताड्यते करादिनाऽऽन्यत इति तालम् , उभयोरेकत्वस्मरणात् , तादृशं वृन्तं यस्येति वा तालवृन्तं तालपत्रादिरचितं व्यजनं तेन, उपलक्षणमिदं विद्युद्वयजनादीनामपि, पत्रेण-कमलिनीदलादिना, पत्रभङ्गेन-दलशकलेन, शाखया वृतभुजया, शाखाभड्रेन-तदेकदेशेन, पिहुनेन बर्हिवण (मयूरपिच्छेन) पिहुनहस्तेन पुञ्जीकृतमयूरपिच्छेन, चैलेन-वस्त्रेण, चैलकर्णेन अञ्चलेन(वस्त्रमान्तेन) इस्तेन करेण, मुखेनवदनेन, आत्मनः स्वस्य कार्य=शरीरं वाह्यमपि पुद्गलम्-उष्णदुग्धादिकं वा स्वयं न फूत्कुर्यात्-न मुखेन धमेत् , न वीजयेत्-चामरादिना वातं न सञ्चालयेत्, अन्येन वा न फूत्कारयेत् , इत्यायन्यत्सुबोधम् ॥४॥१८॥ वनस्पतिकाययतनामाह-से भिक्खू वा०' इत्यादि (४) वायुकाययतना। चाँवरसे, पंखेसे,ताड़के बने हुए पंखेसें अथवा अन्य विजली आदिके किसी प्रकारके पंखेसे, कमल आदिके पत्तेसे, पत्तेके टुकड़ेसे, वृक्षकी शाखासे, शाखाके खण्डसे, मयूरके पिच्छसे, मयूरके बहुतसे पिच्छोंसे, वस्त्रसे, वस्त्रके पल्ले (छोर)से, हाथसे, मुखसे, अपने शरीरको तथा अन्य गरम दृध आदि पुद्गलोंको न स्वयं फूंके, न चाँवर आदिसे वीजे-वायुका संचालन करे, न दूसरेसे फूंकावे, न वीजावे, न फूंकते हुए तथा वीजते हुए अन्यको भला जाने, इत्यादि सुगम ही है ॥ ४ ॥ १८ ॥ वनस्पतिकायकी यतना कहते हैं-से भिक्खू वा०' इत्यादि । (४) वायुययतना. ચામરથી, પંખાથી, તાડના બનાવેલા પખાથી, અથવા અન્ય વિજળી આદિને કઈ પ્રકારના પંખાધી, કમળ આદિને પાંદડાથી, પાંદડાના ટુકડાથી, વૃક્ષની શાખાથી, શાખાના ખંડથી, મયુરના પિથી, મયૂરના અનેક પીંછાથી, વસ્ત્રથી, વસ્ત્રના છેડાથી, હાથથી, મુખથી, પિતાના શરીરને, તથા બીજા ગરમ દૂધ આદિ પુદગલેને નહિ સ્વથ કે, નહિ ચામર આદિથી વાકે-વાયુનું સંચાલન કરે, નહિ બીજા પાસે કુકાવે, કે કુકનાર તથા વિઝનાર અન્યને ભલે જાણે ઈત્યાદિ સરલ है. (४) (१८) वनस्पतियनी यतन -से मिक्ख वा. त्या Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४.१९ (५) - वनस्पतिकाययतना मूलम् - से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय - विरय-पडिहय-पच्चक्खार्यपावकस्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा, से बीएस वा बीयपइट्ठेसु वा रूढेसु वा रूढपइट्ठेसु वा जासु वा जायपइट्ठेसु वा हरिएसु वा हरियपइट्ठेसु वा छिन्नेसु वा छिन्नपट्ठेसु वा सचित्तेसु वा सचित्तकोलपडिनिस्सिएसु वा न गच्छेजा न चिट्ठेज्जा न निसीइज्जा न तुयहिज्जा, अन्नं न गच्छाविजा न चिट्ठाविज्जा न निसीयाविज्जा न तुयहाविज्जा, अन्नं गच्छंतं वा चितं वा निसीयतं वा तुयहंतं वा न समणुजाणिज्जा । जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदा मि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ ५ ॥ १९ ॥ २८५ छाया - सभिक्षुर्वा भिक्षुकी वा संयतविरतप्रतिहतमत्याख्यातपापकर्मा दिवा वा रात्रौ वा एकको वा परिषद्वतो वा सुप्तो वां जाग्रद्वा, स वीजेषु वा बीजप्रतिष्ठितेषु वा रूढेषु वा रूढप्रतिष्ठितेषु वा जातेषु वा जातप्रतिष्ठितेषु वा हरितेषु वा हरितप्रतिष्ठितेषु वा छिन्नेषु वा छिन्नमतिष्ठितेषु वा सचित्तेषु वा सचित्तकोलप्रतिनिश्रितेषु वा न गच्छेन्नतिष्ठेन निपीदेन्न त्वग्वर्त्तयेत्, अन्यं न गमयेन्न स्थापयेन्न निषादयेन्न त्वग्वर्त्तयेत्, अन्यं गच्छन्तं वा तिष्ठन्तं वा निषीदन्तं वा त्वग्वर्त्तयन्तं वा न समनुजानीयात् । यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्य भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्दै आत्मानं सृजामि ||५|| १९|| (५) वनस्पतिकाययतना. सान्वयार्थ :- संजयचिरयपडि हयपच्चक्खायपावकम्मे = वर्तमानकालीन सावद्य व्यापारों से रहित, भूत-भविष्यत्कालीन सावध व्यापारोंसे रहित, वर्तमान कालमें भी स्थिति और अनुभागकी न्यूनता करके, तथा पहले किये हुए अतिचारोंकी निन्दा करके सावध व्यापारके त्यागी से वह पूर्वोक्त भिक्खू वा-साधु भिक्खुणी वा = अथवा साध्वी दिया वा दिनमें, राओ वा=अथवा ܐ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ श्रीदशवकालिको रात्रिमें, एगओ वा अकेला परिसागओ वा अथवा संघमें स्थित सुत्ते वा सोया हुआ जागरमाणे वा अथवा जागता हुआ रहे, वहाँ से बह यीएस्तु वा-शालि आदि वीजोंपर, वीयपइहेसु वा-बीजोपर रखे हुए शयन आसन आदि पर, रूढेसु वा अङ्कुरित वनस्पति पर, रूढपइहेसु वा अङ्कुरित वनस्पति पर रखे हुए शयन आसन आदि पर, जाएसु वा-पत्ते आनेकी अवस्थावाली वनस्पति पर, जायपइहेसु वा-पत्ते आनेकी अवस्थावाली वनस्पति पर रखे हुए शयन आसन आदि पर, हरिएसु वा-हरित पर, हरियपइटेसु वा हरित पर रखे हुए शयन आसन आदि पर, छिन्नेसु वा कटे हुए हरित पर छिन्नपइहेसु वा कटे हुए हरित पर रखे हुए आसन आदि पर, सचित्तेसु वा-फिर अन्य सचित्त अण्डा आदि सहित वनस्पति पर, सचित्तकोलपडिनिस्सिएसु वा-धुने हुए-सड़े काठ पर न गच्छेजा-गमन न करे, न चिट्ठज्जा-न खड़ा होवे न निसीइज्जान वैठे, न तुअहिज्जान सोवे, अन्नं-दूसरेको न गच्छावेज्जान चलावे न चिट्ठावेज्जान खडा करे न निसीयावेज्जान्न बैठावे, न तुअाविज्जाम्न सुलावे, गच्छंतं वाचलते हुए चितं वा-खड़े होते हुए निसीयंतं वा बैठते हुए तुयॉतं वा-सोते हुए अनं-दूसरेको न समणुजाणेज्जा-भला न जाने । जावज्जीवाए-जीवनपर्यन्त ( इसको )तिविह-कृत कारित अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेणं तीन प्रकारके मणेणं-मनसे वायाए बचनसे कारणं कायासे न करेमि-न करूँगा, न कारवेमिन कराऊँगा, करंतपिकरते हुएभी अन्नं दूसरेको न समणुजाणामि-भला नहीं समझूगा । भंते! हे भगवन् ! तस्स-उस दण्डसे पडिकमामि-पृथक होता हूँ, निंदामि आत्मसातीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि गुरुसाक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्पाणं-दण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि त्यागता हूँ ||५||१९|| (५) वनस्पतिकाययतना. टीका-बीजेपु-शाल्यादिपु, वीजप्रतिष्ठितेपु-बीजोपरिस्थितेषु शयनाऽऽसनादिपु, एवमग्रेऽपि प्रतिष्ठितपटव्याख्या कार्या, रूढेपु-अङ्करितेपु, जातेपु-परो (द) वनस्पतिकाययतना। शालि आदि धीजों पर,बीजों पर रक्खे हुए शय्याआसन आदि पर,अंकुरों (५) वनस्पतिययतना. વગર આદિ બીજો પર, બીજે પર મૂકેલાં શસ્યા આસન આદિ પર, Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. १९ (५)-वनस्पतिकाययतना २८७ हणाऽनन्तरकालिकावस्थां सम्प्राप्तेषु पत्रितेष्वित्यर्थः, हरितेपु-कीरमयूरपक्षसच्छायतां गतेषु, छिन्नेषु-कुठारादिना संछिय पृथक्कृतेषु आर्द्रपु, सचित्तेषु अन्येष्वपि सजीवाण्डादिषु, सचित्तकोलपतिनिश्रितेषु-सचित्तैः सचेतनैः, कोलैः धुणैः पतिनिश्रितेषु-आश्रितेषु जीवधुणयुक्तकाष्ठादिष्वित्यर्थः, न गच्छेत् , न विष्ठेद , न निषीदेव-नोपविशेव , न त्वग्वर्तयेत् वर्त्तनं वर्तः परिवर्तनम् (भावे घ) त्वचा त्वगिन्द्रियस्य शरीरस्येत्यर्थात् वर्तः त्वग्वतःचामपार्श्वतः परावृत्य दक्षिणपार्थेन, दक्षिणपार्थतः परावृत्य वामपार्थेन वा स्वपनम् , त्वग्वः करोति त्वग्वतयति, (त्वग्वर्त्तशब्दात् 'तत्करोति तदाचष्टे' इति णिचि टिलोपे धातुत्वाल्लडादयः) तस्य विधौ त्वग्वतयेत्-सुप्यादित्यर्थः ॥५॥१९॥ अथ त्रसकाययतनामाइ-से भिक्खू वा०' इत्यादि । पर अंकुरोंपर रक्खे हुए शयन आदि पर, अंकुर अवस्थाके पश्चात् पत्रित अवस्थाको प्राप्त वनस्पतिपर, अथवा उसपर रक्खे हुए शयन आदिपर, कटी हुई वनस्पतिपर, हरी वनस्पतिपर, तथा इनके सिवाय सजीच अंडा आदिपर, घुने (सुले) हुए काष्ठ आदिपर न स्वयं गमन करे, न खड़ा होवे, न बैठे, तथा बाँयाँ पसवाडा बदलकर दाहिने पसवाड़ेसे और न दाहिना पसवाड़ा बदलकर बायें पसवाड़ेसे सोवे अर्थात् पसवाड़ा न बदले, ये सब क्रियाएँ दूसरेसे भी न करावे, न करते हुएको भला जाने । इसलिए तीन करण तीन योगसे इनका त्याग करता हूँ, इत्यादि व्याख्यान पूर्ववत् ॥५॥१९॥ __ अब त्रसकायकी यतना कहते हैं-'से भिक्खू वा०' इत्यादि । અંકુરે પર, અ કુરો ઉપર મૂકેલા શયનાદિ પર, અંકુર અવસ્થા પછી પત્રિત અવસ્થાને પ્રાપ્ત થએલી વનસ્પતિ પર, અથવા તે પર મૂકેલાં શયનાદિ પર, કાપેલી વનસ્પતિ પર, લીલી વનસ્પતિ પર તથા એ ઉપરાંત સજીવ ઈંડાં આદિ પર, સળેલા કાણ આદિ પર નહિ હું સ્વયં ગમન કરૂં, નહિ ઉભો રહું, નહિ બેસું, તથા ડાબું પડખું બદલીને જમણે પડખે અને જમણું પડખું બદલીને ડાબે પડખે નહિ સૂઉં અર્થાત્ પડખા નહિ બદલું, એ બધી ક્રિયાઓ બીજા પાસે નહિ કરાવું, નહિ કરનારને ભલે જાણું એ રીતે ત્રણ કરણ ત્રણ વેગથી એને ત્યાગ કરૂં છું त्याहि व्याभ्यान पूर्ववत् (५) (१८) वे सायनी यतना 3 छ-से भिक्खू वा. त्याहि , Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० श्रीदशवकालिकसूत्रे दण्डाग्राह्यत्वस्य भगवता स्पष्टं प्रतिपादितत्वात्, पीठके-काष्ठनिर्मितचतुरस्त्राद्यासनविशेषे "चौकी, चौरंग' इति- भाषापसिद्धे, फलके-शयनोपयोगिकाष्ठविरचितपट्टादिरूपे, शय्यायां-शयनोपकरणरूपायां बसतौ वा, अस्या अपि धर्मोपकरणत्वात् , संस्तारके संस्तार्यते विस्तार्यते शयनार्थिभिरिति संस्तारः (सं+ स्तनः कर्मणि घन्) स एव संस्तारका ( स्वार्थिकः कः) अर्द्धवतीयहस्तप्रमाणस्तस्मिन् , दर्भादिनिर्मितास्तरणे इत्यर्थः । अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे तत्सदृशे संयमोपयोगिनि उपकरणजाते उपक्रियन्ते उपयुज्यन्ते संयमादिदाढयकृते यानि तान्युपकरणानि-साधूनां संयमसाधनाङ्गीभूतोपकारकवस्त्रपात्रादीनि तेषां जातं समूहस्तस्मिन् उपकरणमात्रे इत्यर्थः, समापतितं कीटादिकत्रसजीवम् , ततः तस्मात् हस्तादेः स्थानात् संयत एव-सम्यग् यतमान एव 'संजयामेव' इति मूलपाठे आपत्वादी? मकारच, प्रतिलेख्यर-अत्यवेक्ष्य२ सम्यगवलोक्येत्यर्थः, प्रमृज्य२=पौनःपुन्येन प्रमार्जनिकादिद्वारा निस्सार्य एकान्ते-निरुपद्रवस्थाने अपनये-नीत्वा स्थापयेत् किन्तु संघातम्-एकत्र पुञ्जीकरणेन पीडाजनकपरस्परशरीरसंघर्षकारणदृढसंयोगं सामान्येन सम्मेलनं वा नो-नैव आपादयेत् संभापयेत् 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे । 'संघातो दृढसंयोगः' इति वाचस्पत्यम् । यत्तु केचित्कल्पनीय है" ऐसा कहा है, अन्यको दण्ड धारण करना मना है। अत एव उनके द्वारा गृहीत दण्ड पर तथा चौकी पाटा (पट्ट) शय्या अर्थात् उपाश्रय, क्योंकि यह भी एक धर्मोपकरण है, संस्तारक अर्थात् दर्भ आदिका बिछौना, तथा संयममें उपयोगी इस प्रकारका अन्य कोई उपकरण, इन सबमें कीट आदि उस जन्तु हों तो उन्हें संयमी स्वयं सम्यक प्रकार प्रतिलेखन करके बार-बार पूंजनी आदिसे पूजकर बाधारहित एकान्त स्थानमें यतनासे रक्खें, किन्तु उन्हें इकट्ठा करके न रखें, क्योंकि ऐसा करनेसे उनको पीडा होनेकी संभावना है। कितनेक અન્યને દડ ધારણની મનાઈ છે, એટલે એમણે ધારણ કરેલા દંડ પર, તથા ચેકી, પાટ, શય્યા અર્થાત્ ઉપાશ્રય, કારણ કે એ પણ એક ધર્મોપકરણ છે સસ્તારક અર્થાત્ દર્ભ આદિનું બિછાનુ, તથા સંયમમાં ઉપયોગી એ પ્રકારના અન્ય કોઈ ઉપકરણો, એ સર્વમા કીડી–કીડા આદિ ત્રસ જતુ હોય તે તેને સયમી સ્વયં સમ્યફ પ્રકારે પ્રતિલેખન કરીને વાર વાર પૂજણા આદિથી પૂજીને બાધારહિત એકાન્ત સ્થાનમા યતનાથી મૂકે, પરંતુ એને એકઠા કરીને ન રાખે, કારણ કે એમ કરવાથી તેમને પીડા થવાની સંભાવના રહે છે કેટલાક કહે છે કે રક્ષાને Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १ अयतनाया दुःखदफलम् २९१ एकान्तमदेशे रक्षार्थ सजीवानां स्थापने साधूनामसंयतिवैयावृत्त्यदोषेण महाव्रतभङ्गो भवतीत्याहुस्तदेतद्भगवदाज्ञाविरुद्धम्, अनेनापि सूत्रेण धर्मोपकरणस्थानां सजीवानां निरुपद्रवमदेशे रक्षार्थ यतनया स्थापनविधानात् |६| || २० ॥ इत्येवं पटुकाययतनामभिधाय सम्प्रति तदपरिपालन परिणामदारुणत्वं वर्ण्यते'अजयं चरमाणो ' इत्यादि । ૧. ૨ ૫ 3 मूलम् - अजयं चरमाणो य, पाणभूयाई हिंसइ । ८ ७ હું ૧૦ 13 ૧૨ ૧૧ बंधई पावयं कम्मं तं से होइ कडुयं फलं ॥ १ ॥ छाया - अयतं चरंश्च, प्राणभूतानि हिनस्ति । बध्नाति पापकं कर्म, तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥ १॥ यतना न पालन करने का बुरा फल कहते हैं सान्वयार्थ:- अजयं=अयतनापूर्वक चरमाणो = गमन करता हुआ साधु पाणभूयान्स स्थावर जीवोंकी हिंसह हिंसा करता है य=और पावयं कम्मं = पापकर्मको बंधई= बांधता है, तं = उस कारण से उस पाप कर्मका फलं = फल कटु दुःखदायी होइ = होता है ||१|| कहते हैं कि-रक्षा के लिए बस जीवको एकान्त स्थानमें रखनेमें साधुको असंयतिकी वेयावच करनेरूप दोष लगता है और उससे महाव्रतका भंग होता है । यह उनका कहना भगवानकी आज्ञासे विरुद्ध है, क्योंकि इस सूत्र भगवानने स्पष्ट विधान किया है कि धर्मोपकरण में स्थित स जीवोंको रक्षाके लिए निरुपद्रव स्थानमें यतनासे रखना चाहिये ॥ ६ ॥ २० ॥ इस प्रकार षट्काको यतना कहकर "उसकी रक्षा नहीं करनेसे भयङ्कर परिणाम होता है" इस बातका उपदेश देते हैं-'अजयं चरमाणो ' इत्यादि । માટે ત્રસ જીવને એકાંત સ્થાનમાં રાખવામા સાધુને અસતિની વૈયાવચ્ચ કરવા રૂપ દ્વેષ લાગે છે અને તેથી મહાવ્રતના ભંગ થાય છે એમનું એવું કથન ભગવાનની આજ્ઞાથી વિરૂદ્ધ છે, કારણુ કે આ સૂત્રથી ભગવાને સ્પષ્ટ વિધાન કર્યું છે કે ધર્માંપકરણમાં સ્થિત ત્રસ જીવોની રક્ષાને માટે નિરૂપદ્રવ સ્થાનમાં ચૂતનાથી तेभने भूम्वा लेा (९) (२०) એ રીતે ષટ્કાયની ચતના કહીને એમની રક્ષા નહિ परियाभ आवे छे, थे वातना उपदेश आये छे-अजयं चरमाणो त्याहि. કરવાથી ભયંકર Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ श्रीदशवेकालिकसूत्रे टीका - अयतं = यतनारहितं यथास्यात्तथा चरन् = गच्छन् 'संयतः' इति शेषः, प्राणभूतानि = प्राणन्तीति प्राणा:- उच्छ्वासादिमन्तो द्वीन्द्रियप्रभृतयो जीवाः, भूतानि भवनशीला एकेन्द्रियाः पृथिव्यादयः, प्राणाश्च भूतानि चेति प्राणभूतानि ( द्वन्द्वत्वात्परवलिङ्गता ) तानि सस्थावराणीत्यर्थः, हिनस्ति इन्ति च तथा पापकं =पं=पङ्किलमर्थान्मलिनं भावमापयति = मापयतीति, पंक्षेमम् आ = समन्तात् पिवति = नाशयतीति, पानं - पास्तमर्थात्माणिनामात्मानन्दरसपानम् आप्नोति = प्राप्नोति = गृह्णातीति, नरकादिकुगतिषु जीवान् पातयतीति, कर्मरजोभिरात्मानं पांशयति = मलिनयतीति वा पापं तदेव पापकं = ( कुत्सायां कन् ) ज्ञानावरणीयादि, कर्म = तत्सम्बन्ध्यतिभ्रूक्ष्मपुद्गलसञ्चयं बध्नाति = उपार्जयति, तत् तेन हेतुना, तस्य= पापकर्मणः, फलं=परिणतिः कटुकं = दुःखदम्, यद्वा 'कटुकफल' - मिति च्छाया, · १ पांशयति = पांशु धूलिः, 'पांशुर्ना न द्वयो रजः' इत्यमरः सोऽस्यास्तीति पांशुमान, पांशुमन्तं करोति पांशयति ' तत्करोति तदाचष्टे' इति णिचीष्ठवद्भावात् 'विन्मतोर्लुग्' इति मतुपो लुक् ततष्टिलोपः ।, यतनारहित गमन करनेवाला संयत (साधु) द्वीन्द्रिय आदि प्राणोंकी तथा एकेन्द्रिय पृथिवीकाय आदि भूतोंकी अर्थात् स और स्थावर जीवोंकी हिंसा करता है, और ज्ञानावरणीयादि पापकर्मका उपार्जन करता है । पाप (१) मलिनताको प्राप्त कराता है, (२) नरक आदि अधोगति में पहुँचाता है, (३) आत्माके हितका नाश करता है, (४) प्राणियोंके आत्मिक आनन्द रसको सुखा डालता है, (५) आत्माको कर्मरूपी रजसे मलिन कर देता है, इसलिए उसे पाप कहते हैं । अर्थात् अयतनापूर्वक प्रवृत्ति करने से जीवोंकी हिंसा होती है, और ज्ञानावरणीय आदि अशुभ कर्मों का बन्ध भी होता है, और उस पापकर्मका परिणाम दुःखदायी યતનારહિતપણે ગમન કરનાર સચત ( સાધુ ) દ્વીન્દ્રિય આદિ પ્રાણાની તથા એકેન્દ્રિય પૃથિવીકાય આદિ ભૂતાની અર્થાત્ ત્રસ અને સ્થાવર જીવની હિંસા કરે છે અને જ્ઞાનાવરણીયાદિ પાપકર્મોનું ઉપાર્જન કરે છે. પાપ-(૧) મલિનતાને પ્રાપ્ત કરાવે છે, (૨) નરક આદિ ધાતિમા પહેાચાડે છે, (૩) આત્માના હિતના નાશ કરે છે, (૪) પ્રાણીઓના આત્મિક આનદ રસને સુકાવી નાખે છે (૫) આત્માને કર્મરૂપી રજથી મિલન કરી નાખે છે, તેથી તેને પાપ કહે છે અર્થાત્ અયતનાપૂર્વક પ્રવૃત્તિ કરવાથી જીવેાની હિંસા થાય છે, અને જ્ઞાનાવરણીય આદિ અશુભ કર્મોના ધ પશુ ઉત્પન્ન થાય એ પાપકર્મોનું પરિણામ દુ:ખ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. २-५ अयतनाया दुःखदफलम् २९३ - तत्-पापकर्म तस्य अयतनया गच्छतः कटुकफलं-कटुकम् अनिष्टं फलं परिणामो यस्य तत् अशुभफलप्रदमित्यर्थः, भवति-जायते । अत्र पक्षे 'कटुक'-मित्यत्रानुस्वार आषत्वात् ॥१॥ मूलम्-अजयं चिट्ठमाणोय पाणभूयाइं हिंसइ । बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं ॥२॥ छाया-अयतं तिष्ठेच, प्राणभूतानि हिनस्ति ।। वनाति पापकं कर्म, तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥२॥ सान्वयार्थः-अजयं-अयतनापूर्वक चिट्ठमाणो-खड़ा होता हुआ साधु पाणभूयाइंस स्थावर जीवोंकी हिंसइ-हिंसा करता है य=और पावयं कम्म=पाप कर्मको बंधई-बांधता है, तं-उस कारण से-उस पापकर्म का फलं-फल कडुयं-दुःखदायी होइ-होता है ॥२॥ ___टीका-'अजयं चिट्ठमाणो' इत्यादि । अयतं यतनारहितं तिष्ठन्करचरणादिप्रसारणेनाऽनवहितं दण्डवावस्थानं कुर्वन् । शेषं प्राग्वव्याख्येयम् ।।२।। मूलम्-अजयं आसमाणो य, पाणभूयाइं हिंसइ । ૭ ૯ ૧૦ ૧૩ ૧૨ ૧૧ बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं ॥३॥ छाया-अयतमासीनश्च, प्राणभूतानि हिनस्ति । बनाति पापकं कर्म, तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥३॥ सान्वयार्थ:-अजयं-अयतना-पूर्वक आसमाणो बैठता हुआ साधु पाणभूयाइंस स्थावर जीवोंकी हिंसइ हिंसा करता है, य=और पावयं कम्म=पापकर्मको बंधई-बांधता है, तं-उस कारण से उस पापकर्म का फलं-फल कडुयं दुःखदायी होइ-होता है ॥३॥ होता है, तथा उसका कडुआ फल भोगना पड़ता है ॥१॥ 'अजयं चिट्ठमाणो' इत्यादि । अयतनापूर्वक खड़ा होनेसे पापकर्म घंधता है और उसका कडुआ फल होता है ॥२॥ દાયી આવે છે, તથા એનાં કડવાં ફળ ભોગવવાં પડે છે(૧) अजयं चिहमाणो त्याहि. भयतनापूर्व' मा उपापाथी पा५४ मधाय छ भने तनां ४ ३ मावे छे. (२) Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे टीका-'अजयं आसमाणो' इत्यादि । अयतमासीनः प्रमार्जनं विनाऽनुप-युक्तोऽनवहित उपविशन्नित्यर्थः । शेषं पूर्ववत् ॥३॥ मूलम्-अजयं सयमाणो य पाणभूयाइं हिंसइ । बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडयं फलं॥४॥ छाया-अयतं स्वपंश्च , प्राणभूतानि हिनस्ति । वनाति पापकं कर्म, तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥४॥ सान्वयार्थः-अजय-अयतना-पूर्वक सयमाणो सोता हुआ साधु पाणभूयाई-बस-स्थावर जीवोंकी हिंसा-हिंसा करता है, य-और पावयं कम्म= पापकर्मको वंधई बांधता है, तं-उस कारण उस पापकर्म का फलं-फल कडुयं-दुःखदायी होइ-होता है ॥४॥ ___टीका-'अजयं सयमाणो' इत्यादि । अयतं स्वपन शय्याप्रमार्जनादिकं विना प्रकामशय्यादिना दिवसे वा शयानः । शेषं पूर्ववत् ॥४॥ २. ५ 3 मूलम्-अजयं भुंजमाणो य, पाणभूयाइं हिंसइ । ७ .१० १३ १२५ बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं ॥५॥ छाया-अयतं भुञ्जानश्च, प्राणभूतानि हिनस्ति । , - वनाति पापकं कर्म, तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥५॥ सान्वयार्थः-अजयं-अयतना-पूर्वक भुंजमाणो खाता हुआ साधु पाणभूयाइंस-स्थावर जीवोंकी हिंसइ-हिंसा करता है, य और पावय कम्म-पाप• 'अजयं आसमाणो इत्यादि। भूमि आदिकी विना प्रमार्जना किये ही अयतनापूर्वक वैठनेसे पापकर्म बंधता है और उसका कडुआ फल होता है ॥३॥ 'अजयं सयमाणो' इत्यादि । अयतनासे अर्थात् शय्याकी प्रमार्जना न करके शयन करनेसे पापकर्म बंधता है और उसका कडुआ फल होता है ॥४॥ अजय आसमाणो त्याहि भूमि माहिनी अभाना ४ा विना मयतनाપૂર્વક બેસવાથી પાપકર્મ બંધાય છે, અને તેના કડવા ફળ મળે છે (૩) , अजयं सयमाणो त्यादि, मयतनाथी अर्थात शव्यानी अभाना या વિના શયન કરવાથી પાપકર્મ બંધાય છે અને એના કડવા ફળ મળે છે (૪) Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. ६ अयतनाया दुःखदफलम् २९५ कर्मको बंधई = बांधता है, तं उस कारण से उस पापकर्मका फलं = फल कडुयं = दुःखदायी होइ = होता है ||५|| टीका- 'अजयं भुंजमाणो' इत्यादि । अयतं भुञ्जानः = यथाकल्पलब्धान्तप्रान्ताद्याहारं संयोजनादिमण्डलदोषापरिहारेण चपड- चपड़-शब्दपूर्वकमभ्यवहरन् । अन्यत् सुबोधम् ||५|| ૧ २ ૫ 3 मूलम् - अजयं भासमाणो य, पाणभूयाई हिंसइ । ७ ૯ ૧૭ 13 ૧૨ ૧૧ बंधई पावयं कम्मं तं से होइ कडुअं फलं ॥ ६॥ छाया - अयतं भाषमाणच, प्राणभूतानि हिनस्ति । बध्नाति पापकं कर्म, तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥ ६ ॥ सान्वयार्थ :- अजयं = अयतना-पूर्वक भासमाणो बोलता हुआ साधु पाणभूयाईन्स स्थावर जीवोंकी हिंसs - हिंसा करता है, य= और पावयं कम्मं पापकर्मको बंधई = बांधता है, तं=उस कारण से उस पापकम के फलं=फल कडुयं = दुःखदायी होइ = होता है || ६ | टीका- 'अजयं भासमाणो' इत्यादि । अयतं भाषमाणः = अयतनया ब्रुवन् । 'अजयं भुंजमाणो' इत्यादि । साधुके कल्पके अनुसार प्राप्त हुए आहारका संयोजना आदि मण्डल दोषोंका परित्याग न करके 'चपड़चपड़' आदि शब्द करते हुए भोजन करने से पापकर्म बंधता है और उसका फल कडुआ होता है ॥५॥ 'अजयं भासमाणो' इत्यादि । अयतनापूर्वक भाषण करनेसे हिंसा होती है और पापकर्मका बंध होता है । उस पापकर्मका फल कडुआ होता है । अजयं भुंजमाणो हत्याहि साधुना उपने अनुसार प्राप्त थमेसा आडारना સચેન્જના આદિ સડલ દોષને પરિત્યાગ કર્યા વિના - ચપડે-ચપડે ” અવાજ કરતાં ભેજન કરવાથી પાપ મોંધાય છે અને તેનાં કડવા ફળ આવે છે (૫) अजयं भासमाणो त्याहि यतनापूर्वक भाषण उरवाथी हिंसा थाय छे. અને પાપક અંધાય છે એ પાપકમનાં ફળ કડવા આવે છે Many Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ ૧ ૨ श्रीदशवकालिकसूत्रे ननु यतनापूर्वकभाषणार्थमेव मुनिर्मुखवत्रिकां बध्नातीति तं प्रति पुनरयं विधियर्थ एवेति चेन्न, यथाविधिनिवद्धमुखवस्त्रिकस्यापि मुनेरनृतकर्कशादिसावधभाषणेऽनावृतमुखेन भाषणवदयतना भवतीति सर्वथा भाषासमितिसमाराधनाऽवधानमाधातुमस्योपदेशस्य सार्थक्यात् । शेषं पूर्ववद्वयाख्येयम् ॥६॥ ૫ ૬ ૭ ૮ मूलम् कहं चरे कहं चिट्टे, कहमासे कहं सए। . .. ११ १२ . 13 .. १४. कहं भुंजंतो भासंतो, पावकम्मं न बंधई ॥७॥ छाया-कथं चरेत् कथं तिष्ठेत्, कथमासीत कथं शयीत । कथं भुञ्जानो भाषमाणः, पापकर्म न बध्नाति ॥७॥ सान्वयार्थ:-शिष्य पूछता है-(अगर ऐसा है तो हे गुरु महाराज !) कहं कैसे चरे गमन करे?, कहं कैसे चिट्टे-खड़ा हो?, कहं कैसे आसे= . बैठे?, कहं कैसे सए सोवे?, कहं-किस प्रकार भुंजतो आहार करता हुआ (तथा) भासंतो-बोलता हुआ पावकम्मं-पापकर्म न बंधईनहीं बांधता है ॥७॥ प्रश्न-हे गुरुमहाराज ! अयतनाको दूर करने के लिए ही मुखवत्रिका मुख पर बाँधी जाती है, फिर उनके प्रति 'अजयं भासमाणो य' ऐसा उपदेश देना कैसे संगत है ? । उत्तर-हे शिष्य ! सुनो; मुख पर मुखवस्त्रिका सदा वाँधी रहने पर भी असल कर्कश कठोर आदि बोलनेसे तथा सावध उपदेश देनेसे उसी प्रकार अयतना होती है जिस प्रकार खुले मुख बोलनेसे होती है। साधुको भाषासंबंधी सब प्रकारकी अयतनाका त्याग करना चाहिए इसलिए यह अयतनाके त्यागका उपदेश दिया गया है ॥६॥ પ્રશ્ન-ગુરૂ મહારાજ ! અયતનાને દૂર કરવાને માટે જ મુખવસ્ત્રિકા મુખ ५२ मांधवामां आवे छ, पछी तमनी प्रत्ये 'अजयं भासमाणो य' मेरो पहेश આપ કેવી રીતે સંગત છે? ઉત્તર-હે શિષ્ય! મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા સદા બાધી રહેવા છતા પણ અe કર્ક કઠેર આદિ બલવાથી તથા સાવદ્ય ઉપદેશ આપવાથી એવા પ્રકારના અયતના થાય છે કે જેવા પ્રકારની અયતના ઉઘાડે મોંએ બોલવાથી થાય છે સાધુએ ભાષાસ બ ધી સર્વ પ્રકારની અયતનાનો ત્યાગ કર જોઈએ, તેથી આ અયતનાના ત્યાગને ઉપદેશ આપવામાં આવ્યા છે. (૬) Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. ८-९ यतनावतो न पापकर्मबन्धः शिष्यः पृच्छति - ' कहं चरे' इत्यादि । टीका - हे भगवन् ! यद्येवं तर्हि संयतः कथं केन प्रकारेण चरेत् = विहरेत् ?, कथं= केन प्रकारेण तिष्ठेत् स्थितो भवेत् ?, कथं केन रूपेण आसीत - उपविशेत् ?, कथं शयीत = स्वप्यात १, कथं वा भुञ्जानः = अभ्यवहरमाणः, भाषमाणश्च पापकर्म = व्याख्यातपूर्वं न वनाति १ ॥७॥ गुरुरुत्तरयति - 'जयं चरे' इत्यादि । 1 ૩ 3 ४ ५ ६ ७ ८ मूलम् - जयं चरे जयं चिट्ठे, जयमासे जयं सए । ૧૦ ૧૧ ૧૨ ૧૩ ૧૪ जयं भुंजतो भासतो, पावकम्मं न बंधई ॥ ८ ॥ छाया - यतं चरेद्यतं तिष्ठेद्, यतमासीत यतं शयीत । यतं भुञ्जानो भाषमाणः पापकर्म न बध्नाति ॥८॥ २९७ " सान्वयार्थः - गुरु महाराज उत्तर देते हैं - जयं = यतनापूर्वक चरे= गमन करे जयं = यतनापूर्वक चिट्ठे- खड़ा होवे जयं = यतनापूर्वक आसे-बैठे जयं यतनापूर्वक सए = सोवे (और) जयं = यतनापूर्वक भुंजतो = खाता हुआ तथा भासतो= बोलता हुआ पावं कम्मं पापकम न बंधई नहीं बांधता है ॥८॥ टीका - यतम् = ईर्यादिसमितिसमन्वितं यथा तथा चरेत् -विहरेत्, यतं तिष्ठेत्= शिष्य पूछता है- 'कहं चरे०' इत्यादि । हे भगवन् ! यदि ऐसा है तो मुनि कैसे चले ? कैसे खड़ा रहे ? कैसे बैठे ? कैसे शयन करे ? कैसे आहार करे ? और कैसे बोले ? जिससे पापकर्म न बंधने पावे ॥७॥ गुरु महाराज उत्तर देते हैं- 'जयं चरे० ' इत्यादि । हे शिष्य ! संयत ईर्यासमितियुक्त होकर चले, यतनासे खड़ा रहे, शिष्य पूछे छे - कहं चरे० त्याहि હે ભગવન્! જો એમ છે તે મુનિ કેવી રીતે ચાલે ? કેવી રીતે ઉભું રહે ? કેવી રીતે બેસે ? કેવી રીતે સૂએ ? કેવી રીતે આહાર કરે ? અને કેવી રીતે ખેલે ? કે જેથી પાપ કમ બંધાવા ન પામે ? (૭) गु३ भहारान उत्तर आये है- 'जयं चरे० ' धत्याहि હે શિષ્ય ! સચત ઈર્ષ્યાસમિતિયુક્ત થઇને ચાલે, ચુતનાથી ઉભા રહે, Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - श्रीदशवैकालिकसूत्रे करचरणादिकमविक्षिपन् समवहितो दण्डावस्थितिं विदध्यात् , यतमासीत= यतनया-हस्तपादाद्याकुञ्चनप्रसारणादिकमकुर्वन् सोपयोगमुपविशेद-दृढासनादिना स्थिरः सन्नावश्यककार्यमन्तरेण नेतस्ततो भ्राम्येदित्यर्थः, यतं शयीत पकामशयनीयादिपरिहारेण स्वप्यात्, यतं भुञ्जाना यथाकल्पप्राप्ताहारं संयोजनादिमण्डलदोषवर्जनपुरस्सरं 'चपड़-चपड़' इतिशब्दमकुर्वाणोऽभ्यवहरमाणः, यत भाषमाणः निबद्धमुखवत्रिकः सन् हितमिवमृद्वादिनिरवधभाषयाऽवसरे समालपन् पापकर्म न बध्नातिन वनीयात् ॥८॥ किञ्च-'सव्वभूयः' इत्यादि । मूलम्-सवभूयप्पभूयस्स, सम्मं भूयाइं पासओ। पिहिआसवस्स दंतस्स, पावकम्मं न बंधई ॥९॥ अर्थात् हाथ-पैर न हिलाता हुआ सावधान होकर दंडकी तरह खड़ा रहे, यतनासे बैठे अर्थात् वृथा हाथ पैर न हिलावे, उपयोग-सहित दृढासन आदिसे बैठे, विना कार्यके इधर उधर न हिले, यतनासे शयन करे अर्थात् प्रकाम शय्याका परिहार करता हुआ सोवे, यतनासे आहार करे अर्थात् जैसानिरवद्य आहार मिल जाय उसीमें सन्तुष्ट रहे और 'चपड़चपड़' आदि शब्द न करते हुए भोजन करे, न भोजनमें राग-द्वेष करे। यतनासे भाषण करे अर्थात् हित मित मधुर और निरवद्य भाषा बोले,खुले मुंह न बोले, तथा कर्कश कठोर शब्दोंका उच्चारण न करे और निष्प्रयोजन न बोले । ऐसा करनेसे पापकर्म नहीं बंधता है ॥८॥ और-सव्वभूयः' इलादि । અર્થાત હાથ-પગ ન હલાવે ને દડની જેમ ઉભો રહે યતનાથી બેસે અર્થાત વૃથા હાથ-પગ ન હલાવે, ઉપગ સહિત દઢાસન આદિથી બેસે, કાર્ય વિના આમ-તેમ હલે નહિ, યતનાથી શયન કરે, યતનાથી આહાર કરે, અર્થાત્ જે નિરવદ્ય આહાર મળી જાય તેમાં જ સંતુષ્ટ રહે અને “ચાપડ-ચપડી અવાજ કર્યા વિના ભેજન કરે, ભજનમા રાગ-દ્વેષ ન કરે યતનાથી ભાષણ કરે અર્થાત્ હિત મિત મધુર અને નિરવદ્ય ભાષા બેલે, ખુલ્લે મોઢે બોલે નહિ. એમ કરવાથી પાપકર્મ બંધાતુ नथी (८) मने-सबभूय. त्या Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ अध्ययन ४ गा. ९-यतनावतो न पापकर्मवन्धः - छाया-सर्वभूतात्मभूतस्य, सम्यग् भूतानि पश्यतः । पिहितास्रवस्य दान्तस्य, पापकर्म न वध्यते ॥९॥ सान्वयार्थः-सव्वभूयप्पभूयस्स-सब प्राणियोंको अपने समान समझनेवाले सम्म सम्यक् प्रकार-आगमानुसार भूयाई-जीवोंको पालओ देखने-समझनेवाले पिहिआसवस्स-आस्रवको रोकनेवाले दंतस्स-जितेन्द्रिय साधुके पावकम्मं-पापकर्म न बंधई-नहीं वंधता है ॥९॥ टीका--सर्वभूतात्मभूतस्य सर्वाणि च तानि भूतानि सर्वभूतानि एकेन्द्रियादारभ्य पञ्चेन्द्रियपर्यन्तं सर्वे जीवास्तेषु आत्मभूतः आत्मसदृशः, जीव आत्मानं रक्षितुं यथा प्रयतते तथा यथाविधिसकलजीवरक्षासावधान इत्यर्थः, तस्य, भूतानि सम्यक् पवचनप्रतिपादितस्वरूपेण पश्यतः प्रेक्षमाणस्य निखिलपाणिगणस्वरूपं याथातथ्येन पर्यालोचयत इत्यर्थः । पिहितास्रवस्य=पिहिताः आच्छादिता आत्रवा: कर्मागमहेतवो येन स पिहितास्रवप्रतिरुद्धकर्मद्वारस्तस्य, दान्तस्य दमयतिवशं नयति इन्द्रियाऽश्वानिति दान्तम्-जितेन्द्रियस्तस्य पापकर्म न बध्यते-तस्य पापलेपो न जायत इत्यर्थः ॥९॥ ननु क्रिययैव पापकर्मावरोधश्चेत्तर्हि तदर्थमेव यतनीयं कृतं ज्ञानेनेति चेदत्रोच्यते नहि ज्ञानमन्तरेण क्रिया कदाचिदपि फलाय कल्पते प्रत्युतोन्मत्तक्रियावदना समस्त प्राणियोंमें आत्मतुल्य बुद्धि रखनेवाले, तथा आगमके अनुसार जीवोंका स्वरूप समझनेवालेको, कर्मोके आगमनके कारण (आस्रव)का निरोध करनेवालेको पापकर्मका बंध नहीं होता है ॥९॥ प्रश्न-हे गुरुमहाराज ! यदि केवल क्रियासे पापकर्मोंका निरोध . हो जाता है तो क्रिया ही करनी चाहिए, ज्ञानकी क्या आवश्यकता है ? उत्तर-हे शिष्य ! ज्ञानके विना क्रियाका कुछ फल नहीं होता, બધાં પ્રાણીઓમાં આત્મતુલ્ય બુદ્ધિ રાખનારા, અને આગમને અનુસાર જીનું સ્વરૂપ સમજનારાને, કર્મોના આગમનને કારણે (આસ) ને નિરોધ ४२नारामाने पापभनु धन थतु नथी. () પ્રશ્ન–હે ગુરૂ મહારાજ ! જે કેવળ ક્રિયાથી પાપકર્મોને નિરોધ થઈ જાય છે તે ક્રિયા જ કરવી જોઈએ, જ્ઞાનની શી આવશ્યકતા છે ? ઉત્તર–હે શિષ્ય! જ્ઞાન વિના ક્રિયાનું કશું ફળ હોતું નથી જ્ઞાનરહિત Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. श्रीदशवकालिकमूत्रे नुवन्धिनी स्यादिति ज्ञानविरहितकेवलक्रियाप्रवृत्तिर्लोकानां मा स्म भूदतो ज्ञानस्य क्रियापेक्षया प्राथम्यं दर्शयति-'पढमं नाणं' इत्यादि । मूलम्-पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्टइ सबसंजए। ६. १० ११ १२ १४ . १३ अन्नाणी किं काही, किंवा नाही छेय-पावगं ॥१०॥ छाया--प्रथमं ज्ञानं ततो दया, एवं तिष्ठति सर्वसंयतः । अज्ञानी किं करिष्यति, किं वा ज्ञास्यति छेक-पापकम् ॥१०॥ सान्वयार्थः-पढम-पहले नाणं-ज्ञान है तओ-उसके पश्चात् दया दया अर्थात् चारित्र है एवं इसी प्रकार सव्वसंजए-सर्वसंयत साधु चिट्ठइ-आचरण करते हैं, अन्नाणी सम्यग्ज्ञानसे रहित पुरुप किंकाही क्या कर सकता है-कैसे संयम पाल सकता है अर्थात् नहीं पाल सकता ? (और) किं वा कैसे छेयपावगं= उपादेय और हेयको नाही-जान सकता है?, अर्थात् नहीं जान सकता ॥१०॥ टीका-प्रथमम्-आदौ ज्ञान=ज्ञायन्ते बुध्यन्ते जीवाजीवादयः पदार्था येन यस्माद् यस्मिन् वा तज्ज्ञानं स्वपरस्वरूपपरिच्छेदलक्षणम् , अपेक्ष्यं भवतीत्याशयः, क्रियामात्रस्य ज्ञानपूर्वकत्वे हि स्वाभीष्टसिद्धिकत्वात् , ततः तदनन्तरं दया-क्लेशाकुलमाणिसंकष्टमोचनेच्छालक्षणाऽनुकम्पा, दयाशब्देन चात्र क्रियामात्रमुपलक्ष्यते, ज्ञानरहित क्रिया उन्मत्त (पागल) पुरुषकी क्रियाके समान अनर्थको उत्पन्न करती है । 'कोई जीव ज्ञानरहित क्रिया न करे' इस अभिप्रायसे 'पहले ज्ञान फिर क्रिया होनी चाहिए', इस वातको शासकार कहते हैं-'पढमं नाणं०' इत्यादि। जिससे स्व-परका बोध होता है उसे ज्ञान कहते हैं। वह ज्ञान प्रथम है, क्योंकि जीव आदि नव पदार्थका ज्ञान होने पर ही संयम अथोत् षड्जीवनिकायकी दयाका पालन हो सकता है। यहाँ दया शब्दसे કિયા ઉન્મત્ત (ગાડા) પુરૂષની ક્રિયાની પિઠે અનર્થને ઉત્પન્ન કરે છે કોઈ જીવ જ્ઞાનરડિત ક્રિયા ન કરે” એવા હેતુથી “પ્રથમ જ્ઞાન પછી ક્રિયા હોવી જોઈએ मा पातने सूत्रा२ ४ छे-पढम नाणं. त्यादि - જે વડે સ્વપરને બોધ થાય છે તેને જ્ઞાન કહે છે એ જ્ઞાન પ્રથમ છે કેમકે જીવ આદિ નવ પદાર્થનું જ્ઞાન થયા પછી જ સંયમ અર્થત વજીવનિકાયની દયાનું પાલન થઈ શકે છે અહીં દયા શબ્દથી બધી ક્રિયાઓનું ગ્રહણ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. ११-ज्ञानप्राप्त्युपाय: एवम् अनेन प्रकारेण क्रियाया ज्ञानपूर्वकत्वाऽवबोधरूपेण सर्वसंयतः सर्वविरतः साधुरित्यर्थः, तिष्ठतिवर्तते, कथमिदमुच्यते ? इत्याशङ्कायामाह-अज्ञानी तत्त्वातत्वविवेकलक्षणज्ञानविरहितः किं करिष्यति किं विधास्यति, किं वाकथं वा छेक-पापकं, छेकश्च पापकं चानयोः समाहारे छेकपापकं, तत्र छेक-कल्याणम् उपादेयमित्यर्थः, पापकम्-अकल्याणं हेयमित्यर्थः, ज्ञास्यतिवेत्स्यति जन्मना:न्धवन्न किञ्चिदपीत्यर्थः, अतो ज्ञानार्थमेव प्रथमं यतनीयम् “हया अन्नाणिणं किया" इत्युक्तेः ॥१०॥ ज्ञानमहत्त्वं प्रदर्य सम्पति तत्माप्त्युपायमाह-“सोचा जाणइ" इत्यादि । — मूलम्-सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोचा जाणइ पावगं । ५ १३ उभयपि जाणई सोच्चा, जं सेयं तं समायरे ॥११॥ छाया-श्रुत्वा जानाति कल्याणं, श्रुत्वा जानाति पापकम् । उभयमपि जानाति श्रुत्वा, यच्छ्रेयस्तत्समाचरेत् ॥११॥ समस्त क्रियाओंका ग्रहण होता है। अर्थात् सम्यग्ज्ञानपूर्वक की हुई ही क्रिया सफल होती है, इसलिए मुनि ज्ञानपूर्वक ही क्रियाएं करते हैं क्योंकि तत्त्व और अतत्त्वके विवेकसे रहित अज्ञानी क्या कर सकता है ? अर्थात् कुछ नहीं कर सकता, और जन्मान्धके समान उसे हेय-उपादेयका ज्ञान ही कैसे होसकता है ? अर्थात् नहीं होसकता, अतः पहले ज्ञानके लिए प्रयत्न करना चाहिए। कहा भी है-" ज्ञानके बिना क्रिया निरर्थक है " ॥१०॥ ज्ञानका महत्त्व बताकर अब उसकी प्राप्तिका उपाय कहते हैं"सोचा जाणइ०” इत्यादि। થાય છે અર્થાત્ સભ્યજ્ઞાનપૂર્વક કરેલી ક્રિયા જ સફળ થાય છે તેથી મુનિ જ્ઞાનપૂર્વક જ ક્રિયાઓ કરે છે કારણ કે–તત્વ અને અતત્વના વિવેકથી રહિત અજ્ઞાની શું કરી શકે ? અર્થાત્ કશું નથી કરી શકો, અને જન્માંધની પેઠે એને હેય-ઉપાદેયનું જ્ઞાન કેવી રીતે થઈ શકે? અથત નથી થઈ શકતુ, તેથી પહેલા જ્ઞાનને માટે પ્રયત્ન કરે જોઈએ કહ્યું છે કે-“જ્ઞાન વિનાની ક્યિા નિરર્થક છે ” (૧૦) ज्ञाननु महत्व मतावान वे मनी प्रातिनी Bाय ४९ छे-सोचा जाणइ० ઈત્યાદિ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - श्रीदशवकालिकसूत्रे । अव जानने का उपाय बताते हैं सान्वयार्थः-सोचा गुरुमुखसे सुनकर कल्लाणं कल्याण-दयारूप संयमको जाणइ-जानता है, (तथा) सोचा-सुनकर ही पावगं-पाप-हिंसारूप असंयमको जाणइ-जानता है, (और) उभयपि दोनोंको भी सोचा-सुनकर ही जाणई-जानता है । (अतः) जंजो सेयं आत्माके हितकारी हो तं-उसका समायरे आचरण करे ॥११॥ ___टीका-श्रुत्वा गुरुमुखादाकर्ण्य श्रुतज्ञानविषयीकृत्येत्यर्थः, कल्याणम् कल्यो मोक्षः कर्मवद्धसकलोपाधिव्याधिवाधाविधुरत्वात् , तम् आ-समन्तादणति-प्रापयतीति, कल्येन-आरोग्येण आरोग्यकरणेनेत्यर्थः ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणमोक्षमार्गोंपदेशद्वारेति भावः, आनयति-जीवयति सांसारिकविशालविषयकाननसंलग्गेष्टवियोगानिष्टसंयोगदावानलज्वालामालावलीढान् प्राणिन इति कल्याणंदयाभिधानसंयमस्वरूपं, निपातनाण्णत्वम् , तदुपादेयभूतं जानाति, श्रुत्वा च पापर्कनरकादिकुगतिपातिनं हेयभूतमसंयमं जानाति, उभयमपि उपादेयानुपादेयभूतसंयमासंयमलक्षणं द्वयमपि श्रुत्वैव जानाति । निष्कर्षमाह-अत्र यत् श्रेया हितं तत् समाचरेत-विदध्यात् ॥११॥ - कोसे उत्पन्न होनेवाली समस्त आधि-व्याधि और बाधासे रहित मोक्षकी प्राप्ति करानेवालेको, अथवा ज्ञान-दर्शन-चारित्र-रूपी आरोग्यसे, हितवचन अथवा उपदेशसे संसारके विषयरूपी विशाल वनमें धधकती हुई इष्टवियोग-अनिष्टसंयोगरूप दावाग्निकी ज्वालाओंमें जलते हुए जीवोंको शान्ति देनेवालेको कल्याण कहते हैं । इस कल्याण (संयम) का ज्ञान गुरुमुखसे सुनकर ही होता है। पाप अर्थात् नरक आदि कुगतियोंमें गिरानेवाले असंयमका ज्ञान भी सुननेसे ही होता है, तथा इन दोनोंका भी ज्ञान सुननेसे ही होता है । इसलिए इनमेंसे जो श्रेष्ठ (हितकर) हो उसमें प्रवृत्ति करनी चाहिए ॥११॥ કર્મોથી ઉત્પન્ન થનારી બધી આધિ-વ્યાધિ અને બાધાથી રહિત મેક્ષની પ્રાપ્તિ કરાવનારને અથવા જ્ઞાન-દર્શનચારિત્રરૂપી આરોગ્યથી, હિતવચન અથવા ઉપદેશથી સંસારના વિષયરૂપી વિશાળ વનમાં ભભુતા ઈષ્ટવિગ-અનિદસાગરૂપી દાવાગ્નિની જવાળાઓમાં બળતા જીને શાનિત દેનારને કલ્યાણ કહે છે આ કલ્યાણ (સ યમ)નું જ્ઞાન ગુરૂમુખથી શ્રવણ કરવાથી જ થાય છે પાપ અર્થાતુ નરક આદિ કુતિઓમાં પાડનારા અસંયમનું જ્ઞાન પણ સાંભળવાથી જ થાય છે, તથા એ બેઉનું જ્ઞાન પણ સાંભળવાથી જ થાય છે, તેથી એમાં જે શ્રેષ્ઠ (હિતકર, હાય એમા પ્રવૃત્તિ કરવી જોઈએ (૧૧) Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १२-जीवादिज्ञानस्योत्तरोत्तरसम्बन्धः ३०३ 13 ૧૪ मूलम्-जो जीवे वि न याणेइ अजीवे वि न याणइ। जीवाजीवे अयाणतो, कहं सो नाहीइ संजमं ॥१२॥ छाया--यो जीवानपि न जानाति, अजीवानपि न जानाति । जीवाऽजीवानजानन् कथं, स ज्ञास्यति संयमम् ॥१२॥ सान्वयार्थ:-जो-जो जोवेवि-जीवोंकोभी न याणेइ-नहीं जानता है (और) अजीवेवि-अजीवोंकोभी न थाणेइ-नहीं जानता है, जीवाजीवे जीवों और अजीवोंको अयाणंतो नहीं जानता हुआ सोबह संजमं संयमको कह कैसे नाहीइ-जानेगा ? अर्थात् नहीं जान सकता ॥१२॥ • टीका- 'जो जीवेवि' इत्यादि । यः जीवान-एकेन्द्रियादीन् , जीवलक्षणं तु मत्कृतात्तत्त्वप्रदीपाद्विशेषतोऽगन्तव्यम् , न जानाति-न वेत्ति, तथा अजीवान् जीवविपरीतलक्षणान् संयमपरिपन्थिनः काञ्चनरजतादीन् धर्मास्तिकायादीन् वा न जानाति, इत्थं जीवाजीवान-जीवान् अजीवाश्चोभयानपि अजानन् सन् स संयममाणातिपातविरमणादिलक्षणं सप्तदशविधं कथं केन प्रकारेण ज्ञास्यति वेत्स्यति, संयमस्य जीवाजीवोभयविषयकज्ञानजन्यत्वात् ॥१२॥ ननु कस्तर्हि संयमं विज्ञातुमर्हती ? त्याह- जो जीवे वि०' इत्यादि । : 'जो जीवे वि०' इत्यादि। जो पुरुष एकेन्द्रिय आदि जीवोंके स्वरूपको नहीं जानता और न जीवसे भिन्न पुगल आदि अजीवोंको जानता है। इस प्रकार दोनोंको ही नहीं जानता हुआ वह अज्ञानी प्राणातिपात आदिसे विरमणरूप सत्रह प्रकारके संयमको कैसे जानेगा? अर्थात् नहीं जान सकेगा, क्योंकि संयम तब ही हो सकता है जब जीव और -अजीवका ज्ञान हो जाय ॥१२॥ संयमका ज्ञाता कौन हो सकता है ? सो कहते हैं-'जो जीवे वि०' इत्यादि । ની વિ૦ ઈત્યાદિ જે પુરૂષ એકેન્દ્રિય આદિ જીના સ્વરૂપને જાણ નથી અને જીવથી ભિન્ન યુગલ આદિ અને જાતે નથી, એ રીતે બેઉને જાણતું નથી તે અજ્ઞાની પ્રાણાતિપાત આદિથી વિરમગુરૂપ સત્તર પ્રકારના સયમને કેવી રીતે જાણશે? અર્થાત નહિ જાણી શકે, કારણ કે સંયમ ત્યારે જ થઈ શકે છે કે જ્યારે જીવ અને અજીવનું જ્ઞાન થાય છે (૧૨) संयमन ज्ञात 8ty 5 छ १ ते वे छ-जो जीवे वि०७त्यादि Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे बोधिवीजजिनधर्मादिप्राप्ति यते, किंबहुना तीर्थकरगोत्रमपि -पुण्येनैव वध्यते, यो हि पुण्यं सर्वथा हेयं मन्यमानस्तत्त्यजति असौ समुपेक्षिततरिरिवाऽमाप्तपरतीरो मध्येसमुद्रं मजन्नवसीदति । ननु पुण्यपापक्षयानन्तरमेव मोक्षमाप्तिः शास्त्रे श्रूयते इति पापवत्पुण्यमप्यनुपादेयं मोक्षार्थिनामिति चेन्न, द्विविधं हि पुण्य-पुण्यानुवन्धि पापानुबन्धिच, तत्र पुण्यानुवन्धिपुण्यस्य लक्षणमुक्तम्प्राप्ति होती है। अधिक क्या कहा जाय ? तीर्थङ्कर गोत्र भी पुण्यसे ही बंधता है। जो पुण्यको सर्वथा हेय मानता हुआ उसका त्याग करता है वह संसार-सागरमें गोते लगाता है। जैसे मध्य समुद्रमें नौकाका त्याग कर देनेवाला पुरुष समुद्रमें डूबता हुआ दुःख पाता है। __ शङ्का-पुण्य और पाप दोनोंका क्षय होनेके बाद मोक्षकी प्राप्ति होती है, ऐसा शास्त्रोंमें सुना जाता है, इसलिए पापकी तरह पुण्य भी मोक्षार्थियोंके लिए उपादेय नहीं है। समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि पुण्य दो प्रकारका है(१) पुण्यानुवन्धि पुण्य, (२) पापानुबन्धि पुण्य । पुण्यानुबन्धि पुण्यका लक्षण यह हैવધારે શું કહેવું? તીર્થંકર-શેત્ર પણ પુણ્યથી જ બંધાય છે. જે પુણયને સર્વથા હેય માનીને તેને ત્યાગ કરે છે, તે સંસાર-સાગરમાં ગોથાં ખાય છે, જેમકે મધ્ય–સમુદ્રમાં નૌકાને ત્યાગ કરી નાખનાર પુરૂષ સમુદ્રમાં हुमता : पामे छे. શંકા-પુણ્ય અને પાપ એ બેઉને ક્ષય થયા પછી મોક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે, એવું શાસ્ત્રોમા સાભળવામાં આવે છે, તેથી પાપની પેઠે પુણ્ય પણ મેક્ષાથીઓને માટે ઉપાદેય નથી. સમાધાન-એમ કહેવું તે બરાબર નથી, કારણ કે પુણ્ય બે પ્રકારના છે (૧) પુણ્યાનુબ ધિ પુણ્ય, (૨) પાપાનુબધિ પુણ્ય પુણ્યાનુબ ધિ પુણ્યનું લક્ષણ એવુ છે કે મનાર કા સાગરમાં Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १५ - पुण्यस्वरूपम् " दया भूतेषु वैराग्यं, विधिवद्गुरुपूजनम् । विशुद्धा शीलवृत्ति, पुण्यं पुण्यानुवन्ध्यः || १|| इति. ( स्थानाङ्गे १ स्था. टीका ) हरिभद्रसूरिरप्याह "" गेहाद् गेहान्तरं कश्चिच्छोभनादधिकं नरः । याति यद्वत् धर्मेण तद्वदेव भवाद्भवम् ॥ १ ॥” इति । एतच्च मोक्षार्थिनामप्यादरणीयमेव, पुण्यानुवन्धिपुण्यस्याऽपतनशीलमोक्षसम्पज्जनकत्वात् तथा चोक्तम् , 66 शुभानुबन्ध्यतः पुण्यं कर्त्तव्यं सर्वथा नरैः । यत्प्रभावादपातिन्यो, जायन्ते सर्वसम्पदः || १||" इति । ३०७ प्राणियों पर दया रखना, वैराग्य-भाव होना, आगमके अनुसार गुरुओंकी भक्ति करना, शुद्ध शीलका पालन करना, यह पुण्यानुबन्धि पुण्य है । ( स्थानाङ्ग०१स्था० टीका) हरिभद्रसूरिने भी कहा है " जैसे कोई मनुष्य एक अच्छे गृहसे दूसरे बहुत ही अच्छे गृहमें जाता है वैसेही पुण्यके प्रभावसे जीव अत्यन्त शुभ गतिको प्राप्त होता है ॥१॥ " यह पुण्य मोक्षार्थी पुरुषोंके लिए भी उपादेय है, क्योंकि इससे अविनश्वर - शाश्वत - मोक्षरूपी सम्पत्तिकी उत्पत्ति होती है। कहा भी है "मनुष्यों को पुण्यानुबन्धि पुण्य अवश्य करना चाहिए, जिसके प्रभावसे कभी नष्ट न होनेवाली सब प्रकारकी सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं ॥ १ ॥ " વૈરાગ્યભાવ થા, આગમને અનુસાર પાળવું, એ પુણ્યાનુખ ષિ પુણ્ય છે પ્રાણીઓ ઉપર યા રાખવી, ગુરૂઓની ભકિત કરવી, શુદ્ધ શીલ ( स्थानांग ० १ स्थाοटीडा ) હરિભદ્રસૂરિએ પણ ક્યું છે કે “ જેમ કેાઈ મનુષ્ય એક સારા ગૃહમાથી ખીજા બહુ જ સારા ગૃહમાં જાય છે તેમ પુણ્યના પ્રભાવથી જીવ અત્યંત શુભ ગતિને પામે છે ” એ પુણ્ય માક્ષાથી પુરૂષને માટે પણ ઉપાદેય છે, કારણ કે તેથી ધર-શાશ્વત–માક્ષરૂપી સંપત્તિની ઉત્પત્તિ થાય છે કહ્યુ છે કે અવિન ८८ મનુષ્યાએ પુણ્યાનુબધિ પુણ્ય અવસ્ય કરવું જોઈએ જેના પ્રભાવથી કદાપિ નષ્ટ ન થાય તેવી સર્વ પ્રકારની સ'પદ્માએ પ્રાપ્ત થાય છે Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे किञ्च-मनुष्यजन्मनोऽपि मोक्षप्राप्तिकारणत्वेन शास्त्रे प्रतिपादनात्पुण्यं मोक्षार्थिनामुपादेयमेवेत्यवसीयते, पुण्यमन्तरेण मनुष्यजन्मनो दुर्लभस्वात्, तथा चोक्तमुत्तराध्ययनसूत्रे तृतीयाध्ययने " चत्तारि' परमंगाणि, दुल्लहाणि य जंतुणो । माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ॥१॥” इति । संसारार्णवोत्तरणाय नरशरीरस्य नौकारूपत्वेन प्रतिपादनान्मोक्षकारणत्वं गम्यते, तथा चोत्तराध्ययनसूत्रे त्रयोविंशाध्ययने- . १ " चत्वारि परमाङ्गानि, दुर्लभानि च जन्तोः । ___मानुषत्वं शुचिः श्रद्धा, संयमे च वीर्यम् ॥१॥" दूसरी बात यह है कि-शास्त्रोंमें मनुष्यभवकी प्राप्ति पुण्यके उदयसे कही गई है, और मनुष्य-भव मोक्ष-प्राप्तिका कारण माना गया है, इससे भी यही सिद्ध होता है कि पुण्य मुमुक्षुओंके लिए उपादेय है, क्योंकि पुण्यके विना मनुष्य-पर्याय मिलना दुर्लभ है। उत्तराध्ययन सूत्रके तीसरे अध्ययनमें कहा है "चार परमांग जीवके लिए दुर्लभ हैं-(१)मनुष्य भव, (२) शुचिता, (३) सत्य धर्ममें श्रद्धा, (४) संयममें पराक्रम ॥" मनुष्य-शरीर संसाररूपी समुद्रको पार करनेके लिए नौकाके समान है, इसलिए ज्ञात होता है कि मनुष्य-शरीर मोक्षका कारण है। उत्तराध्ययन सूत्रके तेईसवें अध्ययनमें कहा है બીજી વાત એ છે કે-શાસ્ત્રમાં મનુષ્યભવની પ્રાપ્તિ પુણ્યના ઉદયથી કહી છે અને મનુષ્યભવ મોક્ષપ્રાપ્તિનું કારણ માન્યું છે, તેથી પણ એમ સિદ્ધ થાય છે કે પુણ્ય મુમુક્ષુઓને માટે ઉપાદેય છે, કારણ કે પુણ્ય વિના મનુષ્ય-પર્યાય મળ દુર્લભ છે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રના ત્રીજા અધ્યયનમાં કહ્યુ છે કે ___ " या२ ५२मा छपने भाटे हुस्न छ-(१) मनुष्यलय, (२) शुस्थिता, (3) सत्यधर्भमा श्रद्धा, (४) संयममा पराभ.” મનુષ્ય શરીર સ સારરૂપી સમુદ્રને પાર કરવાને માટે નોક–સમાન છે, તેથી સમજાય છે કે મનુષ્ય–શરીર મોક્ષનું કારણ છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રના તજ સમા અધ્યયનમાં કહ્યું છે કે Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १५- पुण्यस्वरूपम् ३०९ " शरीरमाहुर नावत्ति, जीवो उच्चइ नाविओ । संसारो अण्णवो वृत्तो, जं तरंति महेसिणो ॥ १ ॥ " इति । तत्रैव दशमाध्ययने मनुष्यजन्मनो दौर्लभ्यं चोक्तम् " दुल्ल खलु माणुसे भवे, चिरकालेणवि सव्वपाणिणं " इति । स्थानाङ्गसूत्रेऽपि तृतीयस्थानके च " तओ ठाणा देवेवीहेज्जा तं जहा - (१) माणुसं भवं, (२) आरिए खेते जम्मं, (३) सुकुलपच्चायाति । " इति । १ " शरीरमाहुः नौः इति, जीव उच्यते नाविकः । संसारः अर्णवः उक्तः, यं तरन्ति महर्षयः ॥१॥" २ दुर्लभः खलु मानुष्यो भवः, चिरकालेनापि सर्वप्राणिनाम् । ३ त्रीणि स्थानानि देवा अपीहेरन्, तद्यथा - ( १ ) मानुष्यं भवम्, (२) आर्ये क्षेत्रे जन्म, (३) सुकुलमत्यायातिम् । " (मनुष्यका) शरीर, नौकाके समान है, जीव, नाविक (खेवटिया) के सदृश है और संसार, समुद्र सरीखा है, इसे महर्षि पार करते हैं। " इसी उत्तराध्ययनके दसवें अध्ययनमें मनुष्य- जन्मकी दुर्लभता बताई है -- “चिरकाल तक सब प्राणियोंके लिए मनुष्य-भव अत्यन्त दुर्लभ है ।" स्थानाङ्गसूत्रमें तीसरे स्थानक में कहा है "इन तीन बोलोंकी देव भी अभिलाषा रखते हैं - (१) मनुष्य-भव, (२) आर्यक्षेत्रमें जन्म, (३) सुकुलकी प्राप्ति " । 6. (भनुष्यनु) शरीर, नोडा समान छे, व, नावि (जसासी) समान छे रमने संसार, समुद्र सरो छे, तेने महर्षि चार रे छे. " એજ ઉત્તરાધ્યયનના દસમા અધ્યયનમાં મનુષ્ય જન્મની દુર્લભતા ખતાવી છે ‘ચિરકાળ સુધી સ–પ્રાણીઓને માટે મનુષ્યભવ અત્યંત દુભ છે ” સ્થાનાંગ—સૂત્રમાં ત્રીજા સ્થાનકમા કહ્યુ છે કે– "मा ત્રણ લેાની અભિલાષા દેવ પણુ રાખે છે. (૧) મનુષ્યભવ, (२) आर्यक्षेत्रमा भन्म, (3) सुभुजनी आप्ति " Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K श्रीदशनैकालिकसूत्रे उत्तराध्ययन सूत्रे त्रयोदशाध्ययने पुण्यसंग्रहस्य परमावश्यकता प्रतिपादिता, तथाहि- ३१० 66 इह जीविए राय ! असासयम्मि, धणियं तु पुण्णाई अकुन्त्रमाणे । से सोयइ मच्चुमुहोबणीए, धम्मं अकाऊण परम्मि लोए ॥ २१ ॥ " इति विगमे साधुमभृतये आहारोपकरणादिवितरणलक्षणस्य पुण्यस्य कर्तव्यस्वेनोपदिष्टतयाऽऽगमप्रमाणेनोपादेयत्वसिद्धिः तथा चागमः "नवविहे पुणे पण्णत्ते, तं जहा - (१) अन्नपुण्णे, (२) पाणपुण्णे, (३) वस्थपुण्णे, (४) लेणपुण्णे, (५) सयणपुण्णे, (६) मणपुण्णे, (७) वयपुण्णे, (८) कायपुण्णे, (९) नमोकारपुण्णे" इति । १ इह जीविते राजन् ! अशाश्वते, अधिकं तु पुण्यान्यकुर्वाणः । स शोचति मृत्युमुखोपनीतः, धर्ममकृत्वा परस्मिन् लोके ॥ १ ॥ २ नवविधं पुण्यं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - (१) अन्नपुण्यम्, (२) पानपुण्यम्, (४) वस्त्रपुण्यम्, (४) लयनपुण्यम्, (५) शयनपुण्यम्, (६) मनः पुण्यम्, (७) वचः पुण्यम्, (८) कायपुण्यम्, (९) नमस्कारपुण्यम् । इति । उत्तराध्ययनके तेरहवें अध्ययनमें पुण्यके संग्रह करनेकी अत्यन्त आवश्यकता प्रतिपादन की है " हे राजन् ! इस नश्वर जीवनमें पुण्य और धर्म न करनेवाले इहलोक पर लोक में मृत्युके मुखमें गये हुए शोच करते हैं । " आगममें साधु आदिके लिए आहार - उपकरण आदिका दान करने रूप पुण्य कर्त्तव्य माना है । आगममें कहा है कि "पुण्य नव प्रकारका है वह इस प्रकार - (१) अन्न-पुण्य, (२) पान-पुण्य, ઉત્તરાધ્યયનના તેરમા અધ્યયનમાં પુણ્યના સંગ્રહ કરવાની અત્યંત આવશ્યકતા પ્રતિપાદન કરવામાં આવી છે “હે રાજનૢ ! આ નશ્વર જીવનમાં પુણ્ય અને ધર્મ ન પલેાકમાં મૃત્યુના મુખમાં ગએલા ગ્રેચ કરે છે.” કરનારા ઇંડુલેક આગમમાં સાધુ આદિને માટે આહાર-ઉપકરણ પુણ્યને કવ્યૂ માન્યું છે. આગમમાં કહ્યુ છે કે— આદિનું દાન કરવારૂપ “युष्य नव अमर छे ते या प्रमाये - (१) अन्न-धुश्य, (२) थान-पुण्य, Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १५ - पुण्यस्वरूपम् ३११ 46 “ पुण्णाई खल आउसो १ किच्चाई करणिज्जाई, तरणिज्जाई, पायकराईं, धणकराई, जसकराई " इति । किञ्च पुण्ये यत्वहेतुभूतस्य मिथ्यात्वाऽविरतिप्रमादकषायाऽशुभयोगाऽन्यतमजनकत्वस्याभावात् तस्यानुपादेयत्वापादनं गगनकुमुमायितमेत्र, प्रत्युताऽशुभभावपरिपन्यितया तस्य कर्त्तव्यत्वमेव सुतरां दृढीभवति, अशुभभावपरिपन्थिनः कर्त्तव्यको विनिविष्टत्वाद् यथा संयमस्य । " दुविहं खवेऊण य पुण्ण-पात्रं " (द्विविधं क्षपयित्वा च पुण्य-पापम् ) इति पुण्यानि खलु आयुष्मन् ! कृत्यानि करणीयानी, तरणीयानि, पात्रकराणि, धनकराणि, यशःकराणि । (३) वस्त्र -पुण्य, (४) लयन-पुण्य, (५) शयन-पुण्य, (६) मन:-पुण्य, वचनपुण्य, (८) काय पुण्य (९) नमस्कार पुण्य ।" इति । फिर भी कहा है" हे आयुष्मन् ! पुण्य-कृत्य करने योग्य है, पुण्य ही पात्र बनाता है, पुण्य ही सम्पत्ति और यशको बढाता है" - इति । (6) जिससे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग उत्पन्न हों या इनमें से कोई एक उत्पन्न होता हो, वह त्याज्य होता है । पुण्य इनमें से किसीको भी उत्पन्न नहीं करता । अतः उसे अनुपादेय बतलाना आकाशके पुष्पके समान असत् है । पुण्य अशुभ भावोंको दूर करता है इसलिए उसकी कर्त्तव्यता स्वयंसिद्ध है । जो अशुभ भावोंका विरोधी होता है वह अवश्य कर्त्तव्य होता है, जैसे- संयम । शास्त्रोंमें यह कथन किया गया है कि - "पुण्य और पाप दोनोंका (3) वख पुष्य, सयन-पुष्य, (घ) शयन-पुष्य, (६) भन:-पुष्य, (७) वयन-पुष्य, (८) अय-युएय, (2) नमस्ार-पुष्य. " इति वजी उछे - “डे आयुष्भन्! युएय-नृत्य २वा योग्य छे, युएय ४ પાત્ર મનાવે છે, પુણ્ય જ સ પત્તિ અને યશને વધારે છે” ઇતિ જેથી મિથ્યાત્વ અવિરતિ પ્રમાદ કષાય અને અશુભ યેાગ ઉત્પન્ન થાય, યા એમાનું કોઇ એક ઉત્પન્ન થાય, તે ત્યાજય હાય છે પુણ્ય એમાંના કેઇને ઉત્પન્ન કરતુ નથી, તેથી તેને અનુપાદેય ખતાવવું એ આકાશના પુષ્પની સમાન અસત્ છે પુણ્ય અશુભ ભાવાને દૂર કરે છે, તેથી તેની કન્યતા સ્વયંસિદ્ધ છે જે અશુભ ભાવેનું વિધી હાય છે તે અવશ્ય કતવ્ય હાય છે, જેમકે સચમ શાસ્ત્રોમા એમ કહ્યુ છે કે “પુણ્ય અને પાપ બેઉને ક્ષય થવાથી મોક્ષની Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ श्रीदशवैकालिकमुत्रे यच्छूयते शास्त्रे तत् पारमासाद्य तरणिपरित्यजनमित्र मुक्तिमाप्तिसमयापेक्षम् । यथा समुद्रस्य परस्मिन् पारे विद्यमानं गृहं गन्तुकामः पथिकोऽपरतीरे विभावयति'कथमहं तरिष्यामी 'ति, तदानीं नावं विलोक्य “नौरियं परपारमापिकैव न तु मदीयगृहापिका, अलमस्या आश्रयणेन" इत्यालोच्य यदि नावं नावलम्बते तदाऽसौ गृहं गन्तुं न शक्नोति । यदि कचिन्नावि संस्थितः समुद्रमध्ये पूर्वोक्तभावनां कुर्वाणो नावं परित्यजेत् तदाऽपि नासौ गृहमुपैति प्रत्युत समुद्रस्य तरलतरकलोलावयुक्ताऽगाधजले पतितो निमज्जति म्रियतेऽपि च । यस्तु पुनर्विवेकी पथिको नावमाश्रयति तयाऽसौ परं पारं प्राप्य ततः परं चलितुमक्षमां तरणि परित्यजति, क्षय होने से मोक्षकी प्राप्ति होती है " सो इस प्रकार समझना चाहिए किजैसे समुद्रको पार करके फिर नौकाका त्याग किया जाता है। जैसे समुद्रके दूसरे किनारे पर बने हुए घरमें जानेकी इच्छा करनेवाला पथिक सोचता है कि- 'मैं समुद्रको कैसे पार कर सकूँगा?" उसी समय नौकाको देख कर वह पथिक यदि यह विचार करने लगे कि 'इससे तो मैं परले पार तक ही पहुँच सकूँगा घर तक नहीं पहुँचूँगा' ऐसे विचार से नौकाका अवलम्बन न करे तो कभी घर नहीं पहुँच सकता । यदि नौका बैठा हुआ कोई पथिक बीच समुद्रमें उक्त विचार करके नौकाका त्याग करदे तो भी घर नहीं पहुँच सकता, बल्कि समुद्रकी चचल तरंगों और भँवरोंसे युक्त अथाह जलमें गिर पड़ेगा और मृत्युको भी प्राप्त हो जायगा किन्तु जो विवेकी पथिक नौकाका सहारा लेता है उसे नौका " પ્રાપ્તિ થાય છે” તે એ પ્રકારે સમજવું કે–જેમ સમુદ્રને પાર કરીને પછી નૌકાને ત્યાગ કરવામાં આવે છે જેમ સમુદ્રના બીજા કિનારા પર બનેલા ઘરમાં જવાની ઇચ્છા કરનારા પથિક વિચારે છે કે લ 'હું સમુદ્રને કેવી રીતે ઊતરી શકીશ ?” એ વખતે નૌકાને જોઈને એ પધિક જો એમ વિચાર કરવા લાગે કે “ આથી તેા હું પેલા કિનારા સુધી જ પહેાચી શકીશ, ઘર સુધી નહિ પહેાચી શક એવા વિચારથી નૌકાનું અવલખન ન કરે તે તે કપિ ઘેર પહેાંચી શકશે નહિ જો નૌકામા બેઠેલા કેાઈ પથિક સમુદ્રની વચ્ચે એવા વિચાર કરીને નૌકાના ત્યાગ કરી દે તે પણ ઘેર પહેાચતે નથી ખલ્કે સમુદ્રના ચંચળ તરંગો અને ભમ્મરીએથી યુક્ત અથાગ જળમા પડી જશે અને મરજી પણુ પામશે, પરન્તુ જે વિવેકી પથિક નૌકાના આશ્રય લે છે તેને નૌકા પેલે પાર પહેાચાડી દે છે Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १५ - पुण्यस्वरूपम् ३१३ ! एवं तरणितो विभयुक्तः पान्थः स्वावलम्वनो भूत्वा सुखेन सत्वरं स्वकीयं धाम समवाप्नोति, तथा भव्यजीवः संसारतः परस्मिन् पारे विद्यमानं मोक्षं गन्तुकामोsपरपारे मनुष्यशरीरे तिष्ठन् विभावयति - " कथमहं दुःखबहुलं चतुर्गतिकसंसारं तरिष्यामि ?" इति, तदानीं मुनिजनोपदेशश्रवणतो जैनागमाद्वा दयादानादिपुण्यमहिमानमवगत्य तत्र यदि विवेकी पुण्यमाश्रयते तदा स सुखेन संसारसागरमुत्तरति । अथवा यथाऽङ्गारकामस्तावत् काष्ठादिषु वह्नि मज्वालयति, अन्येन वा प्रज्वालितं वह्निमुपादत्ते, ततः काष्ठगतानलं जलेन निर्वापयति, वह्निविनाशे च सति अङ्गारोत्पत्तिर्भवति, एवं वहचुपादानं विनाऽङ्गारो लब्धुमशक्यःः यथाऽङ्गारं परले पार पहुँचा देती है, आगे गति करनेमें असमर्थ होने से पथिक उसका त्याग करके स्वावलम्बी बन कर अपने घर पहुँच जाता है । इसी प्रकार भव्य जीव संसारसे परले पार पर अर्थात् मोक्षको जाना चाहता है । वह मनुष्यशरीररूपी इस पार पर ठहरा हुआ विचार करता है कि - ' मैं दुःखोंसे भरे हुए चतुर्गतिक संसार - सागर को कैसे पार कर सकूँगा?' तब मुनिजनों के उपदेशसे, अथवा शास्त्रोंसे दया दान आदि पुण्यकी महिमा जान कर पुण्यका आश्रय लेवे तो सुखपूर्वक संसार- सागरके पार पहुँच सकता है | अथवा जैसे कोयले चाहने वाले पुरुष काष्ठ आदिमें अग्नि जलाता है, अथवा दूसरेके द्वारा जलाई हुई अग्निको ग्रहण करता है, फिर उस अनि बुझा देता है । अग्नि बुझ जाने पर कोयला उत्पन्न होता है । इस प्रकार अनिका आश्रय लिए विना कोयला कदापि नहीं प्राप्त हो सकता । નૌકા આગળ ગતિ કરવામાં અસમર્થ હાવાથી પથિક એને ત્યાગ કરીને સ્વાવલંબી અનીને પેાતાને ઘેર પહેાચી જાય છે “ એ પ્રકારે ભવ્ય જીવ સંસારને પેલેપાર અર્થાત મેક્ષે જવા ઇચ્છતા હૈય છે તે મનુષ્ય-શરીરરૂપી આ કિનારા પર ઉભા રહીને વિચાર કરે છે કે હુદુ ખેથી ભરેલાં ચતુતિક સ સાર-સાગરને કેવી રીતે પાર કરી શકીશ ?' ત્યારે મુનિજનાના ઉપદેશથી, અથવા શાસ્રોદ્વારા યા દાન આદિ પુણ્યને મહિમા જાણીને પુણ્યને આશ્રય લે તે સુખપૂર્વક સસારસાગરને પેલેપાર પહેાચી શકે છે અથવા જેને કાયલા જોઇતા હૈાય તે પુરૂષ લાકડાને અગ્નિ લગાડે છે અથવા ખીજાએ સળગાવેલા અગ્નિને ગ્રહણુ કરે છે, અને પછી એ અગ્નિને હાલવી નાખે છે અગ્નિ હાલવાઈ જતાં કાયલા ઉત્પન્ન થાય છે, એ રીતે અગ્નિના આશ્રય લીધા Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकमूत्रे प्रति वद्विध्वंसस्य कारणता, ध्वंसस्य च प्रतियोगिसापेक्षत्वेव प्रतियोगी बहिरुपादेयो भवति, तद्वत् मोक्षं प्रति पुण्यध्वंसस्य कारणतायां तत्पतियोगितया पुण्यमप्युपादेयमेव । पुण्यमर्जयित्वा शुभपरिणामरूपं पुण्यं ध्यानादिशुद्धपरिणामेन क्षपयित्वा मोक्षो लब्धुं शक्यते । इत्थं चाऽऽगममामाण्येन पुण्यस्य भव्यकर्त्तव्यता मुस्पष्टं सिध्यति, भव्यकर्त्तव्यतयाऽऽगमे प्रतिपादितत्वात् , शुद्धभावकारणत्वाचेति। पापम् पातयति शुभपरिणामाद्ध्वंसयत्यात्मानमिति, यद्वा पाति-रक्षत्यात्मनोऽशुभपरिणाममिति पाप-पुण्यपरिपन्थि तत् , विस्तरस्तु श्रमणसूत्रीय-मत्कृतमुनिअर्थात् जैसे कोयलेकी प्राप्तिके लिए अग्निका ध्वंस कारण होता है और ध्वंस प्रतियोगिसापेक्ष होता है इसलिए अग्निके ध्वंसका प्रतियोगी अग्नि भी उपादेय होती है। इसी प्रकार मोक्षका कारण पुण्यका ध्वंस है, अतः ध्वंसका प्रतियोगी पुण्य भी मोक्षके लिए उपादेय है । उसका उपादान किये विना मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि पहले शुभ परिणाम रूप पुण्यका उपार्जन करके फिर ध्यान आदि शुद्ध परिणामोंसे उनका क्षय करके मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार आगममें कर्तव्यरूपसे प्रतिपादन करनेसे तथा शुद्ध भावका कारण होनेसे यह भली भाँति सिद्ध हो गया कि पुण्य अवश्य कर्तव्य है जो शुभ परिणामोंसे आत्माको दूर रखता है-शुभ परिणाम नहीं होने देता उसे पाप कहते हैं। वह पुण्यका विरोधी है। વિના કેયેલા કદાપિ પ્રાપ્ત થતા નથી અર્થાત જેમ કેયલાની પ્રાપ્તિ માટે અગ્નિને દવંસ કારણ બને છે અને દવંસ પ્રતિયોગિ–સાપેક્ષ હોય છે, માટે અનિના ધ્વ સને પ્રતિયોગી અગ્નિ પણ ઉપાદેય બને છે. એ જ રીતે મેક્ષનું કારણ પુણ્યને “વસ છે એટલે ધ્વસનું પ્રતિવેગી પુણ્ય પણ મેક્ષને માટે ઉપાદેય છે એનું ઉપાદાન કયા વિના મોક્ષની પ્રાપ્તિ થઈ શકતી નથી કારણ કે પહેલાં શુભ-પરિણામરૂપ પુણયનું ઉપાર્જન કરીને પછી ધ્યાન આદિ શુદ્ધ પરિણામોથી એને ક્ષય કરીને મોક્ષ પ્રાપ્ત કરી શકાય છે એ રીતે આગમમાં કર્તવ્યરૂપે પ્રતિપાદન કર્યું હોવાથી તથા શુદ્ધ ભાવનું કારણ હોવાથી એ સારી રીતે સિદ્ધ થઈ ગયું કે પુણ્ય અવશ્ય કર્તવ્ય છે આત્માને શુભ પરિણામેથી દૂર રાખે છે-શુભ પરિણામ થવા દેતું નથી તેને પાપ કહે છે તે પુણ્યનુ વિરોધી છે Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १५-जीव-कर्मणोर्वन्धसिद्धिः तोषणीटीकातोऽवगन्तव्यः । बन्धम् बध्यते-परतन्त्रीक्रियतेऽनेनाऽऽत्मेति वन्धः= अभीप्सितस्थानप्राप्तिगतिप्रतिरोधलक्षणः, जीवकर्मणोरयोगोलकवह्नयोरिव तादात्म्यापन्नत्वं वा, स च द्रव्यतो निगडादिः, भावतो रागद्वेषादिः, यथा द्रव्यवन्धनबद्धो जनोऽभिमतस्थानलाभाभावेन कारागारादावेव विविधवेदनादारुणां दशामासादयन् विषीदति, तथाऽयमात्मा ज्ञानावरणीयादिकर्माष्टकनिगडसन्दानितोऽनन्ताऽक्षय्यमुखसम्पदुल्लसिताऽन्यावाधाऽभिमतशिवस्थानपाप्तिं विना जन्मजरामरणादिजन्यानन्यसामान्यकष्टसमष्टिं स्पष्टमनुभवन्निहैव संसारगहरे विषीदति, तम् । आत्मा जिससे बद्ध-परतन्त्र हो जाती है, वह अर्थात्-अभीष्ट स्थानकी प्राप्ति करानेवाली गतिको रोकनेवाला बन्ध कहलाता है। अथवा जैसे लोहेका गोला और अग्नि एकमेकसे हो जाते हैं, उसी प्रकार जीव और कर्मोमें एकताका ज्ञान करानेवाला बन्ध होता है। वेडी आदि द्रव्यवन्ध है और रागद्वेष आदि भावबन्ध है। जैसे द्रव्यबन्ध-निगड़ आदि-से बंधा हुआ मनुष्य अभिमत स्थान पर न पहुँच सकनेके कारण कारागार आदिमें ही विविध वेदनाओंके द्वारा दारुण दशा प्राप्त करता हुआ दुःख पाता है, वैसे ही ज्ञानावरण आदि आठ कर्म-स्वरूप भावपन्धरूपी वेडीके कारण अनन्त अविनाशी सुखरूपी सम्पत्तिसे शोभित, अव्यावाध और अभीष्ट मोक्ष-स्थानकी प्राप्तिके विना जन्म जरा मरण आदिसे होनेवाले अपरिमित दुःख भोगता हुआ इसी संसाररूपी गड़ेमें पड़ा हुआ कष्ट उठाता है। આત્મા જેથી બદ્ધ–પરત વ્ર થઈ જાય છે તે અર્થાત્ અભીષ્ટ સ્થાનની પ્રાપ્તિ કરાવનારી ગતિને રોકનાર બંધ કહેવાય છે અથવા જેમ લેઢાને ગળે અને અગ્નિ એક-મેક બની જાય છે, તેમ જીવ અને કર્મોમાં એકતાનું જ્ઞાન કરાવનાર બંધ હોય છે બેડી આદિ દ્રવ્ય-ધ છે અને રાગ-દ્વેષ આદિ ભાવ-બંધ છે જેમ દ્રવ્ય-બંધ-હેડ કે બેડી આદિથી બધાયલે મનુષ્ય ધારેલે સ્થાને ન પહેચી શકવાને કારણે કારાગાર આદિમાં જ વિવિધ વેદનાઓ દ્વારા દારૂણ દશા પ્રાપ્ત કરતા દુ:ખ પામે છે તેમ જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ કર્મ સ્વરૂપ ભાવ-બ ધનરૂપી બેડીને કારણે, અન ત અવિનાશી સુખરૂપી સંપત્તિથી શોભિત, અવ્યાબાધ અને અભીષ્ટ મેક્ષસ્થાનની પ્રાપ્તિ વિના જન્મ-જરા-મરણ આદિથી થતાં અપરિમિત દુઃખ ભેગવતાં જીવ આ સંસારરૂપી ખાડામાં પડીને કણ ભેગવે છે Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकमूत्रे नन्वात्मनोऽमूर्तत्वात्कर्मणां च मूर्त्तत्वान्न तयोः परस्परं सम्बन्धः संभवति, अमृर्गत्वेऽपि सम्बन्धस्वीकारे आकाशधर्माधर्मास्तिकायकालैः सहापि सम्बन्धप्रसङ्ग इति चेन्न, ____ आत्मनः कर्मणा सह सम्बन्धाभावाऽऽपादने हेतुत्वेनोपन्यस्तममूर्त्तत्वं किं सर्वथारूपेण किं वा कथञ्चिद्रूपेण स्वीक्रियते ? नायः, हेत्वसिद्धेः, सर्वथैवाऽमूर्तभूतस्य सिद्धात्मनः कर्मसम्बन्धाभावो मयाऽपीण्यत एव । आत्मत्वावच्छिन्नस्य सर्वथैवाऽमूर्तत्वं तु दुर्वचं, संसारिजीवानां कथश्चिन्मू-त्वसद्भावात् । कथञ्चित् स्वीक्रियेत चेत्तदा यदपेक्षया मूर्तत्वं तदपेक्षया सम्बन्धोऽसन्दिग्ध एवं । मुक्तात्मनश्च मूर्त्तत्वाभावान्न सम्बन्धाभ्युपगमः । प्रश्न-आत्मा अमूर्त (अरूपी) है और कर्म मूर्त (रूपी) है। इस कारणसे इन दोनोंका परस्पर बन्ध कैसे हो सकता है ?, यदि मूर्त्तका वन्ध अमूर्तके साथ हो सकता है तो आकाशास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और कालके साथ भी कर्मोंका बन्ध हो जायगा, क्योंकि वे भी अमूर्त हैं। उत्तर-तुम कहते हो कि आत्माअमृत है, सो यह बताओकि आत्मा सर्वथा अमूर्त है या कथञ्चित् अमूर्त है?, यदि कहोगे कि आत्मा सर्वथाअमूर्त है तो हेतु असिद्ध हो जायगा, क्योंकि आगममें आत्माको सर्वथा अमृत नहीं माना गया है। अगर 'कथञ्चित् अमूर्त' कहोगे तो कथञ्चित् मूर्त भी होगी,और जिस (संसारावस्थाकी) अपेक्षासे आत्मा मृत है उसी अपेक्षासे कर्मोंका बन्ध होता है । मुक्तात्मा मृर्त नहीं है इसलिए वहाँ बंध भी नहीं होता। प्रश्न-मात्मा अभूत (३थी ) छ भने ४भ भूत (३ची) छे थे २९ એ બેઉને પરસ્પર બંધ કેવી રીતે થઈ શકે છે જે મૂર્તિને બંધ અમૂર્તની સાથે થઈ શકે તે આકાશસ્તિકાય, ધર્માસ્તિકાય, અધમસ્તિકાય અને કાલની સાથે પણ કર્મોને બધ થઈ જશે, કારણ કે તે પણ અમૂર્ત છે ઉત્તર—તમે કહે છે કે આત્મા અમૃત છે, તે બતાવો કે આત્મા સર્વથી અમૂર્ત છે કે કયચિત્ અમૂર્ત છે? જે કહેશો કે આત્મા સર્વથા અમૂર્ત છે તો હેતુ અસિદ્ધ થઈ જશે, કારણ કે આગમમાં આત્માને સર્વથા અમૂર્ત માન્ય નથી અગર “કથંચિત્ અમૂર્ત ” કહેશે તે કથંચિત્ મૂર્ત પણ થશે, અને જે (સંસાવધાની) અપેક્ષાએ આત્મા મૂર્ત છે તે અપેક્ષાએ કર્મોને બંધ થાય છે. મુકતાત્મા મૂર્ત નથી તેથી તેને બંધ પણ થતો નથી Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १५ - जीव- कर्मणोर्वन्धसिद्धिः ३१७ # किञ्च यथा मूर्त्तामूर्त्तयोः घटाकाशयोः संयोगरूपः सम्बन्धः, कर क्रिययोर्मू= वमूर्तयोः समवायसम्बन्धः परैरङ्गी क्रियते तथाऽऽत्मकर्मणोरमूर्त्त मूर्त्तयोः सम्बन्धे न काचिदनुपपत्तिर्नाम । अपि च यथा शरीरमिदमात्मसम्बद्धं प्रत्यक्षमुपलभ्यते तथा मेत्य भवान्तरगमननिमित्तं कार्मणलक्षणं शरीरान्तरमप्यात्मसम्बद्धमिति स्वीकर्त्तव्यम् । A नन्वपूर्वापरपर्यायाऽदृष्टहेतुकमिदमेव शरीरं तत्रास्ति न कार्मणशरीरमिति चेत्, अष्टममूर्त मूर्त्त वा? अमूर्त्तत्वे कथं स्थूलमूर्तशरीरेण तत्सम्बन्धः ? भवन्मते अथवा जैसे आकाश अमूर्त है और घट मूर्त्त है तथापि उन दोनों का संयोग - सम्बन्ध होता है, और जैसे मूर्त्त हाथ तथा हाथ से होनेवाली अमूर्त्त क्रियाका दूसरोंने समवाय-सम्बन्ध स्वीकार किया है, उसी प्रकार अमूर्त्त आत्मा और मूर्त्त कर्मका बन्ध भी युक्ति-युक्त ही है। अथवा जैसे आत्मासे संबद्ध यह शरीर प्रत्यक्षसे सिद्ध है उसी प्रकार परलोकमें गमन करानेवाला कार्मण शरीर भी आत्मासे संबद्ध है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए । यदि ऐसा कहो कि - 'अपूर्व' या 'अदृष्ट के कारण यही शरीर परलोकके लिए गति कराता है तो हम पूछेंगे कि वह अदृष्ट अमूर्त है या मूर्त्त ?, अमूर्त्त है तो स्थूल मूर्त्त शरीर के साथ अदृष्टका संयोग कैसे અથવા જેમ આકાશ અમૂર્ત છે અને ઘટ મૂર્ત છે, તથાપિ એ બેઉના સયેાગ–સ ખ ધ થાય છે, અને જેમ મૂર્ત હાથ તથા હાથથી થનારી અમૃત ક્રિયાના ખીજાઓએ સમવાય–સંબંધ સ્વીકાર્યાં છે, એ પ્રકારે અમૂર્ત આત્મા અને ભૂ કર્મોના અંધ પણુ ચુક્તિયુકત જ છે અથવા જેમ આત્માથી સમૃદ્ધ આ શરીર પ્રત્યક્ષથી સિદ્ધ છે, તેમ પરલેકમાં ગમન કરાવનારૂ કાણુ શરીર પણ આત્માથી સંબદ્ધ છે એવે સ્વીકાર કરવા જોઈએ. જો એમ કહે કે ‘પૂર્વ' યા અષ્ટ'ને કારણે આ શરીર પરલેાકને માટે ગતિ કરાવે છે, તે અમે પૂછીશુ કે એ અષ્ટ અમૃત છે કે ભૂત, અમૂત છે તે સ્થૂલ મૂ` શરીરની સાથે અષ્ટને સ યેગ કેવી રીતે થયા, તમારે મતે Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ तदसम्भवात् । सम्भवे चाऽऽत्मकर्मसंयोगेन किमपराद्धम् ?, अथ मूर्तत्वमङ्गीक्रियते तदाऽन्धसर्पविलपवेशन्यायेन मूर्त्तामूर्तयोः सम्बन्धः स्वीकृत एच ।। ननु कर्मसंयोगादात्मनो मुर्तत्वं संपद्यते, तस्मिंश्च सति वन्धसम्बन्धो युज्यते, कर्मवन्धात्पूर्वं तु आत्मनो मूर्त्तत्वाभावात् कथमिव बन्धः संभावनासरणिहुआ ? क्योंकि तुम्हारे मतसे ऐसा होना असंभव है। विना अदृष्टके सम्बन्धके स्थूल शरीरमें चेष्टा नहीं हो सकती। संभव मानो तो आत्मा और कर्मके संयोगने क्या अपराध किया है ? । अर्थात् जब अमूर्त अदृष्ट और मूर्त शरीरका सम्बन्ध हो सकता है तो आत्मा और कर्मका भी संयोग हो सकता है। ___अगर अदृष्ट (भाग्य) को मूर्त मानो तो अमृत आत्माके साथ उसका सम्बन्ध स्वीकार करनेसे ग्रह मान ही लिया कि अमूर्त और मूर्त्तका सम्बन्ध होता है। जैसे अन्धा सर्प इधर उधर भटककर फिर यिलमें प्रवेश करता है वैसेही तुमने कल्पनासे इधर उधर दौड़कर अन्तमें अमूर्तका मूर्त्तके साथ संबन्ध स्वीकार करही लिया। प्रश्न-कर्मका संयोग होनेपर आत्मा मूर्त होती है और मूर्त होजाने पर वन्ध हो सकता है किन्तु कर्मबन्ध होनेसे पहले तो आत्मा मूर्त नहीं थी-अमूर्त थी, फिर बन्धकी संभावना कैसे हो सकती है ? । । એમ થવું અસંભવિત છે અદષ્ટના સંબધ વિના સ્થલ શરીરમાં ચેષ્ટા થઈ શકતી નથી. સંભવ માને તે આત્મા અને કર્મના સંગે શે અપરાધ કર્યો છે ? અર્થાત જે અમૂર્ત અષ્ટ અને મૂર્ત શરીર સંબંધ થઈ શકે છે તે આત્મા અને કર્મને પણ સ ગ થઈ શકે છે અગર અદષ્ટ (ભાગ્ય)ને મત માને તે અમૃત આત્માની સાથે એનો સંબંધ સ્વીકારવાથી એમ માની લીધું કે અમૂર્ત અને મૂતને સંબધ થાય છે, જેમ આંધળે સર્ષ અહીં-તહીં ભટકીને પછી દરમાં પ્રવેશ કરે છે, તેમ તમે કલ્પનાથી અહીં-તહીં દેડીને છેવટે અમૂર્તને મૂર્તની સાથે સંબંધ સ્વીકાર કરી લીધે પ્રશ્ન-કર્મનો સંગ થયા પછી આત્મા મૂર્ત થાય છે અને મૂર્ત થયા પછી બંધ થઈ શકે છે, પરંતુ કર્મબધ થયા પહેલાં તે આત્મા ભૂત ન હોતે, - મૂર્ત હો, પછી બધની સંભાવના કેવી રીતે હોઈ શકે છે? Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ४ गा० १५ - वन्धस्वरूपम् ३१९ मारोढुं प्रभवेदिति चेन्न, जीवकर्मणोः खनौ सुवर्णोपलयोरिव संयोगस्याऽनादिकालिकत्वात् । नच 'जीवकर्मणोः सम्बन्धस्याऽनादित्वे मोक्षो नैव संभवति अनादेरन्ताभावादाकाशात्मनोरिवे' - ति वाच्यम्, अनाद्यनन्तत्वयोर विनाभावाभावात्, अनादेरपि घटादिप्रागभावस्य सान्तत्वोपलम्भात्, अनादेरपि बीजाङ्कुरादिसन्तानस्य दादादिकारणवशात्सान्ततादर्शनाच्च, इत्यलमतिविस्तरेण । वन्धस्वरूपमुच्यते— उत्तर - जैसे खानमें रहे हुए सुवर्ण तथा पाषाणका सम्बन्ध अनादिकालीन है, वैसेही जीव और कर्मका भी सम्बन्ध अनादिकालीन है । कोई-कोई ऐसा कहते हैं कि जिसकी आदि नहीं होती उसका अन्त भी नहीं होता है, जैसे जीव और आकाशका सम्बन्ध कभी नष्ट नहीं होता, इस नियमके अनुसार यदि जीव- कर्मका सम्बन्ध अनादिकालीन है तो कभी उसका भी अन्त न होगा, फिर किसीको मोक्ष मिल ही नहीं सकेगा । उनका यह कथन दूषित है, क्योंकि घट आदिका प्रागू अभाव यद्यपि अनादिकालीन है फिर भी घट उत्पन्न होते ही उसका अन्त हो जाता है । बीज तथा वृक्षकी परम्परा भी अनादिकालीन है तथापि यदि बीज जल जाय तो उस परम्पराका अभाव हो जाता है, इसलिए आत्मकर्मसंयोग अनादि होनेपर भी सान्त हो सकता है । बन्धका स्वरूप कहते हैं ઉત્તર-જેમ ખાણુમા રહેલા સુવર્ણ તથા પાષાણુના સમધ અનાદિ કાળને છે. તેમ જીવ અને કર્મોના પણ સંબધ અનાર્દિકાળના છે કઇ-કઇ એમ કહે છે કે જેની આદિ નથી તેના અંત પણ હાતા નથી, જેમકે જીવ અને આકાશના સંબધ કદાપિ નષ્ટ થતે નથી એ નિયમાનુસાર જો જીવ–કના સંબંધ અનાદિકાળના છે તે કદાપિ તેના અંત થશે નહિં, પછી કાઇને મેાક્ષ મળી શકશે નહિ તથા એનું એ કથન દૂષિત છે, કારણ ઘટ આદિના પ્રાગૂ અભાવ જો કે અનાદિકાળના છે, તાપણુ ઘટ ઉત્પન્ન થતા જ તેનેા અત થઈ જાય છે ખીજ વૃક્ષની પર પરા પણ અનાદિકાળની છે તથાપિ જો ખીજ ખની જાય તે એ પર પરાના અભાવ થઈ જાય છે તેથી આત્મકમ–સચેગ અનાદિ ાવા છતાં પણુ સાન્ત થઇ શકે છે. મધના સ્વરૂપ કહે છે– Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे वन्धचतुर्विधः - प्रकृति- स्थित्यनुभाग- प्रदेश भेदात्, तत्र - प्रकृतिः = स्वभावः आत्मगृहीतकर्मपुद्गलानां तत्तच्छक्तिरूपतया परिणमनलक्षणः, यथा = निम्वस्य तिक्तत्वम्, गुडस्य मधुरत्वमित्यादि, तथा ज्ञानावरणीयस्य जीवादिपदार्थानवबोधकत्वम् (१), दर्शनावरणीयस्य जीवादीनामनालोचकत्वम् (२), वेदनीयस्याSव्यावाधगुणवाधकत्वम् (३), मोहनीयस्य तत्त्वारुचित्वमवतिस्वं च (४), आयुषो मवधायकत्वम् मोक्षस्य साधनन्तस्थित्याच्छादकत्वमित्यर्थः (५), नाम्नोमूर्तस्वगुणनिरोधकत्वम् (६), गोत्रस्यागुरुलघुगुणघातकत्वम् (७), अन्तरायस्य च बन्ध चार प्रकारका है - (१) प्रकृतिबन्ध, (२) स्थितिबन्ध, (३) अनुभागबन्ध और (४) प्रदेशबन्ध । . ३२० (१) प्रकृतिबन्ध - प्रकृति स्वभावको कहते हैं । अर्थात् आत्मा के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्मों में अमुक अमुक प्रकारकी शक्तिका आजाना । जैसेनीमका स्वभाव कटुकता, गुड़का स्वभाव माधुर्य, इत्यादि । इसी प्रकार ज्ञानावरण कर्मका स्वभाव है-आत्माके ज्ञानको आच्छादित करना १ । दर्शनावरणका स्वभाव है- दर्शनको रोकना२ । अव्याबाध गुणको प्रगट न होने देना वेदनीय कर्मका ३ । जीवादि तत्त्वोंमें रुचि न होने देना तथा चारित्रको रोकना मोहनीय कर्मका ४ | किसी शरीरमें रोक रखना आयुकर्मका ५ | अमृतत्व गुणको प्रगट न होने देना नामकर्मका ६ । अगुरु-लघुत्व गुणका नाश कर देना गोत्रकर्मका ७ । तथा दान लाभ गध यार प्रहारनो छे (१) अमृति-अध, (२) स्थिति-अध, (3) अनुभागगंध मने (४) अहेश-गंध (१) प्रमृति-जध-प्रमृति स्वभावने हे छे, अर्थात् आत्मा वडे ग्रहयु ४२યલાં કર્મોંમા અમુક–અમુક પ્રકારની શક્તિ આવી જવી તે, જેમ લીંબડાને स्वभाव उटुता (४डवाश) छे, गोजना स्वभाव भधुरता (भिठाश) छे, हत्याहि એ રીતે જ્ઞાનાવરણીય કા સ્વભાવ આત્માના જ્ઞાનને આચ્છાદિત કરવાના ( ઢાકવાને) છે ૧ દનાવરણને સ્વભાવ દર્શનને શકવાનેા છે ૨. અવ્યાબાધ ગુણુને પ્રકટ ન થવા દેવા એ વેઢનીય-કર્મના સ્વભાવ છે ૩ જીવાદિ તત્ત્વમાં રૂચિ ન થવા દેવી તથા ચારિત્રને રાવુ એ મેહનીય–કર્મીના સ્વભાવ છે ૪ કાઇ શરીરમાં આત્માને કી રાખવેા એ આયુ-કમને સ્વભાવ છે પ અમૂત્વગુણુને પ્રકઢ થવા ન દેવા એ નામકર્મના સ્વભાવ છે ૬. અગુરૂ-લઘુત્વ ગુણના નાશ કરવા Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १५- बन्धस्वरूपम् दानादिप्रतिघातकत्वम् (८), तद्रूपो बन्धः प्रकृतिबन्धः १ । स्थितिः = जघन्यादिभेदेन कर्मणामात्मना सहावस्थानं, तल्लक्षणो बन्धः स्थितिबन्धः २ | अनुभागो = रसः = कर्मणां फलदातृत्वशक्तितारतम्यं तत्स्वरूपो बन्धोऽनुभागबन्धः ३ । जीव प्रदेशः=कर्मदलसञ्चयस्त्ररूपः = अनन्तानन्तकर्मपदेशानामियत्तारूपेण प्रदेशेषु सम्बन्धस्तलक्षणो बन्धः प्रदेशवन्धः ४ । उक्तञ्श्च- ३२१ " स्त्रभावः प्रकृतिः प्रोक्तः, स्थितिः कालावधारणम् । अनुभागो रसो ज्ञेयः, प्रदेशो दलसञ्चयः ||१|| ” इति । भोग उपभोग और वीर्यमें विघ्न डालना अन्तराय कर्मका स्वभाव है ८ | इसीको प्रकृतिवन्ध कहते हैं । (२) स्थितिबन्ध - बंधे हुए कर्म आत्माके साथ जघन्य कितने काल तक रहेंगे और उत्कृष्ट कितने काल तक रहेंगे, इस कालकी मर्यादाको स्थितिबन्ध कहते हैं । (३) अनुभागबन्ध - फल देनेवाली कर्मोंकी शक्तिके तारतम्यको अनुभागबन्ध कहते हैं । (४) प्रदेशबन्ध - कितने कर्म आत्माके साथ बन्धको प्राप्त हुए हैं, इस प्रकार कर्मप्रदेशों की परिगणनाको प्रदेशबन्ध कहते हैं। कहा भी है"स्वभावको प्रकृतियन्ध, कालकी मर्यादाको स्थितिबन्ध, रसको अनुभागबन्ध और कर्मपुद्गलोंके समूहको प्रदेशबन्ध कहते हैं ॥ १ ॥” એ ગેાકર્મીને સ્વભાવ છે ૭. તથા દાન લાભ ભાગ ઉપોગ અને વીયમાં વિઘ્ન નાંખવું એ અતરાય–કના સ્વભાવ છે ૮ એને પ્રકૃતિ-મધ કહે છે (૨) સ્થિતિ-મધ-અંધાયલાં કર્મ આત્માની સાથે જઘન્ય કેટલા કાળસુધી રહેશે અને ઉત્કૃષ્ટ કેટલા કાળસુધી રહેશે એ કાળની મર્યાદાને સ્થિતિમ ધ કહે છે. (૩) અનુભાગ-૫ ધ–ફળ આપનારી કર્માંની શકિતના તારતમ્યને અનુભાગમધ-કહે છે (૪) પ્રદેશ-ખ ધ-કેટલા કર્માં આત્માની સાથે ખાધને પ્રકારે ક`પ્રદેશની પરિગણુનાને પ્રદેશ-ખ ધ કહે છે કહ્યુ છે કે પ્રાસ “સ્વભાવને પ્રકૃતિમધ, કાળની મર્યાદાને સ્થિતિમ ધ, રસને અનુભાગ-ખ ધ અને કર્મ–પુદ્ગલેાના સમૂહને પ્રદેશખ ધ કહે છે ” (૧) થયા છે, એ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ ' श्रीदशवकालिकसूत्रे एतेषां स्वरूपं च सुखावबोधाय मोदकदृष्टान्तेन पदयते यथा कस्यचिदौषधमोदकस्य प्रकृतितिहारिका, कस्यचित्पित्तहारिका, कस्यचित्कफहारिणी, कस्यचिद् बुद्धिनाशिनी, तथा कस्यचित्कर्मणः प्रकृतिर्ज्ञानावरणकारिणी, कस्यचिद्दर्शनावरणविधायिनीत्येवमादिविभिन्नशक्तिमतां कर्मणां वन्धः प्रकृतिवन्धः (१)। यथा कस्यचिन्मोदकस्य स्थितिः सप्ताहोरात्रव्यापिनी, कस्यचित्पक्षव्यापिनी, कस्यचनकादिकमासं यावत् स्थितिस्तथा कस्यचित्कर्मणस्त्रिंशत्कोटीकोटीसागरोपमा स्थितिः, कस्यचिद्विशतिकोटीकोटीसागरोपमा, कस्यचन सप्ततिकोटीकोटीसागरो सरलतासे समझनेके लिए मोदकका दृष्टान्त देकर चारों बन्धोंका स्वरूप दिखलाते हैं___ (१) जैसे किसी औषध-मोदककी प्रकृति वातको हरनेवाली होती है, किसीकी पित्तको हरनेवाली होती है, किसीकी कफको हरनेवाली होती है और किसी मोदककी प्रकृति बुद्धिको नष्ट करनेवाली होती है। इसी प्रकार किसी कर्मकी प्रकृति ज्ञानका आवरण करनेवाली होती है और किसीकी दर्शनका आवरण करनेवाली होती है। इस प्रकार भिन्नभिन्न शक्तिवाले कर्मोंका बन्ध होना प्रकृतिबन्ध है। (२) जैसे किसी मोदककी स्थिति एक सप्ताहकी होती है, किसी मोदककी स्थिति ऐक पक्ष (पखवाड़े) की होती है, किसी मोदककी स्थिति एक मासकी होती है, वैसे ही किसी कर्मकी स्थिति तीस कोडाकोडी सागरोपमकी होती है, किसीको वीस कोडाकोडी सागरोपमकी होती है, સરળતાથી સમજવાને માટે મોદકનું દાન આપીને ચારે બધાનું સ્વરૂપ બતાવે છે– (૧) જેમ કેઈ ઔષધ–દકની પ્રકૃતિ વાયુને હરવાવાળી છે કેઈની શક્તિ પિત્તને હરવાવાળી છે, કેઈની કફને હરવાવાળી છે, અને કેઈ મોદકની પ્રકૃતિ બુદ્ધિને નષ્ટ કરવાવાળી હોય છે એ રીતે કઈ કર્મની પ્રકૃતિ જ્ઞાનનું આવરણ કરનારી હોય છે, કેઈની દર્શનનું આવરણ કરનારી હોય છે, એ રીતે ભિન્ન-ભિન્ન શકિતવાળાં કર્મોને બંધ થે એ પ્રકૃતિબંધ કહેવાય છે (૨) જેમ કેઈ મોદકની સ્થિતિ એક સપ્તાહની હોય છે, કોઈ મેદની સ્થિતિ એક પક્ષ (પખવાડિય)ની હોય છે, કોઈ મેદિકની સ્થિતિ એક માસની હોય છે, તેમજ કઈ કર્મની સ્થિતિ ત્રીસ કડાકોડી સાગરોપમની હોય છે, કેઈની વીસ કેડાછેડી સાગરોપમની હોય છે, કેઈની સત્તર કેડાછેડી સાગરોપમની Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १५- बन्धस्वरूपम् ३२३ पमा, कस्यचिच्चान्तर्मुहूर्त्त परिच्छिन्ना, एवं विभिन्नकर्मणां नियतकालावस्थानं स्थितिबन्धः (२) । यथा कस्यचिन्मोदकस्यानुभागो (रसो) ऽतिमधुरः स्वल्पमधुरो वा, कस्यचि - दतिकटुकः स्वल्पकटुको वा, कस्यचिच्च नातिमधुरो नाप्यतिकटुको भवति, द्विगुणीकरणादिना च स एव मन्द मन्दतरत्वादिव्यपदेशं च लभते, तथा कर्मणामपि 'शुभाशुभादिरूपेण तीव्र - तीव्रतर - तीव्रतम - मन्द मन्दतर- मन्दतमत्वादिभेदभिन्नो वन्धोऽनुभागवन्धो रसबन्धव्यपदेश्यः (३) । १ शुभकर्मणामनुभागो (रसो) द्राक्षेक्षुक्षीरमाक्षीकवदतिमधुरो भवति, यदनुभकिसीकी सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपमकी होती है, किसी कर्मकी अन्तमुह मात्रकी होती है, इस प्रकार विभिन्न कर्मोंका अमुक समय तक आत्मा के साथ स्थित रहना स्थितिबन्ध कहलाता है । (३) जैसे किसी मोदकका स्वाद (रस) बहुत मीठा होता है, किसी मोदकका कम मीठा होता है, किसीका स्वाद बहुत कडुआ होता है, किसीका कम कडुआ होता है, किसीका स्वाद न अधिक मीठा होता है, न अधिक कडुआ होता है, उसे ही द्विगुण आदि करदेने से वही मन्द मन्दतर आदि कहलाने लगता है। वैसे ही कर्मोंका रस शुभ अशुभ रूप से तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर और मन्दतम आदि भेदों से विविध प्रकारका होता है । उसे ही अनुभागबन्ध या रसबन्ध कहते हैं । १ शुभकमका अनुभाग (रस) दाख, सांठा (गन्ना), दूध या मधुके समान હાય છે, કાઇ કની સ્થિતિ માત્ર અંતર્મુહૂર્તીની હાય છે, એ પ્રકારે વિભિન્ન કર્મીનું અમુક સમય સુધી આત્માની સાથે સ્થિત રહેવું એ સ્થિતિખ ધ કહેવાય છે, (3) प्रेम मोहना स्वाह ( रस ) महु भीठो होय छे । मोहन આછા મીઠા હાય છે, કોઇ મેાદકના સ્વાદ બહુ કડવા હાય છે, કોઈના આછે કડવા હાય છે, કોઈના સ્વાદ ન વધુ મીંઠે કે વધુ કડવા હાય છે, તેને દ્વિગુણુ ( બેવડા) કરવાથી તે મદ-સદંતર આદિ કહેવાવા લાગે છે, એજ રીતે કાના रस शुभ? मशुल ३५थी तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, भंह, महतर, भहतभ माहि ભેદેએ કરીને વિવિધ પ્રકારના થાય છે એને ४ अहे छे. અનુભાગમ ધ યા રસમય १ शुभ भेना अनुभाग (रस) द्राक्ष, शेरडी, दूध या મધના જેવા અતિમધુર હોય છે. Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ श्रीदशवैकालिकमुत्रे 'वेन जीवः सान्द्रानन्दसन्दोहतु न्दिलान्तःकरणो जायते । अशुभकर्मणां रसस्तु निम्नकिराततिकादिवदतितरां तिक्तो भवति, यदनुभवेन जीवोऽनिर्वचनीयं व्याकुलीभावं भजते, तीव्रतीव्रतरत्वादिबोधनार्थे च दृष्टान्तः प्रदृश्यते - इक्षुनिम्बयोरन्यतरस्य चतुःशेकपरिमितो रसः 'स्वाभाविकरस' इत्युच्यते, वहितापद्वारोत्कालितो यदा शेटकचतुष्टयस्थाने शेकत्रितयमात्रोऽवशिष्येत तदाऽसौ 'तीव्र' इत्युच्यते, पुनरुकलन शेकद्वितयमात्रोऽवशिष्येत तदा 'तीव्रतर ' इत्यभिधीयते, पुनरप्युत्कालनेन शेटकैकमात्रेऽवशिष्टे 'तीव्रतम' इति कथ्यते । इक्षु-निम्बयोरेव शेटकैकमात्रो रसः 'स्वाभाविकरसः' इत्युच्यते, एकशेटकजलमेलनेन ' मन्दरस' इति द्विशेटकजलसंयोजनेन 'मन्दतरो रस' इति, शेटकत्रितयपरिमितजलसम्बन्धेन ' मन्दतमो रस' इति व्यपदेशं लभते । अतिमधुर होता है, इसके उपभोग से आत्मामें अत्यन्त आनन्द उत्पन्न होता है । अशुभ कर्मोंका फल नीम चिरायता आदिके समान अत्यन्त विक्त होता है, इसका अनुभव करनेसे जीव अतिशय व्याकुलता प्राप्त करता है । तीव्र तीव्रतर आदि समझानेके लिये उदाहरण देते हैं—- इक्षु या नीममेंसे किसीका चार सेर रस 'स्वाभाविक रस' कहलाता है, यदि अग्निमें उकालने पर तीन सेर रह जाय तो वह तत्र कहलाता है, फिर उकालने पर दो सेर वच जाय तो तीव्रतर कहलाता है, यदि फिर उकालने पर सिर्फ एक सेर बाकी रह जाय तो वह तीव्रतम कहलाता है । इक्षु और निम्बका एक सेर रस स्वभाविक रस, उसमें एक सेर जल मिला दिया जाय तो मन्द, दो सेर मिलाने से मन्दतर, तीन सेर मिलानेसे मन्दतम रस कहलाता है । એના ઉપભેાગથી આત્મામા અત્યત આનદ ઉત્પન્ન થાય છે. અશુભ કર્મનું ફળ લીંબા, કરિયાતુ આદિની પેઠે અત્યત તિકત હેાય છે. એના અનુભવ કરવાથી જીવ અતિશય વ્યાકુળતા પ્રાપ્ત કરે છે. તીવ્ર તીવ્રતર્ આદિ સમાવવાને ઉદાહરણ આપે છે-રોરડી ચા લીંબડામાથી કાઢેલા કાઇના ચાર શેર રસ ‘સ્વાભાવિક રસ્' કહેવાય છે. જો તેને અગ્નિ પર ઉકાળવાથી ત્રણ શેર રહે ! તે તીવ્ર હેવાય છે, ફ્રી ઉકાળવાથી એ રોર રહે તે! તે તીવ્રતર કહેવાય છે. અને તેને ફરીથી ઉકાળતા માત્ર શેર્ બાકી રહે તે તે તોવ્રતમ કહેવાય છે. શેરડી અને લીંબડાના મૅક શેર સ્વાભાવિક રસમાં ને એક શૈ પાણી મેળવવામા આવે તે મર્દ, બે શેર પાણી મેળવતા મદતર અને ત્રણ શેર પાણી મેળવવાથી મર્દતમ રસ કહેવાય છે. Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२५ अध्ययन ४ गा. १५-मोक्षस्वरूपम् यथा कस्यचिन्मोदकस्य प्रदेश कणिकादिदलसञ्चयः परिमाणेन द्विकर्षमितः, कस्यचित्कर्षत्रयमितः, एवं कस्मिंश्चित् कर्मदले परिमाणतोऽधिकसंख्यकाः, कस्मिचिन्न्यूनसंख्यकाः, इत्येवं न्यूनाधिक्यरूपेण कर्मवर्गणाभिरात्मनोऽभिसम्बन्धः प्रदेशवन्धः (४)। __मोक्षम् मोक्षणं मोक्षः, स च द्रव्यमावभेदाद्विविधः, तत्र द्रव्यतो निगडादितः, भावतो ज्ञानावरणीयाधष्टविधकर्मपाशतः पृथग्भवनमात्मनः, प्रकृते च भावमोक्षस्य आत्मनः पुनरमादुर्भाव्यशेषकर्मक्षयादनन्तज्ञानशाश्वतावस्थिति-कृतकृत्यत्वाऽव्याबाधमुखस्वरूपस्य ग्रहणम् । (४) जैसे किसी मोदकमें आटे आदिके प्रदेश, परिमाणमें दो तोला होता है, किसीका तीन तोला होता है । इसी प्रकार किसी कर्मदलमें अधिक संख्यावाले प्रदेश हैं, किसी कर्मदलमें कम संख्यावाले प्रदेश होते हैं, अतः न्यूनाधिक रूपसे कर्मवर्गणाओंके साथ आत्माका सम्बन्ध होना प्रदेशबन्ध है। छूटनेको मोक्ष कहते हैं, मोक्ष भी दो प्रकारका है-(१) द्रव्यमोक्ष और (२) भावमोक्ष । बेड़ी आदिसे छूटना द्रव्यमोक्ष है और ज्ञानावरण आदि आठ कर्मरूपी पाशसे आत्माका मुक्त हो जाना भावमोक्ष है। ___यहां समस्त कर्मोके आत्यन्तिक अभावसे उत्पन्न होनेवाले अनन्त ज्ञान, शाश्वत स्थिति, कृत-कृत्यता, अव्याबाध सुखस्वरूप भाव-मोक्षका ग्रहण किया गया है। () જેમ કે મેદકમા આટા આદિને પ્રદેશ પરિમાણમાં બે તેલા હોય છે, કેઈમાં ત્રણ તલા હોય છે, એજ રીતે કે કર્મદળમાં અધિક સંખ્યાવાળા પ્રદેશો છે, કેઈ કર્મદળમાં ઓછી સંખ્યાવાળા પ્રદેશ હોય છે, એમ જૂનાધિક રૂપે કર્મવર્ગણાઓની સાથે આત્માને સંબંધ છે એ પ્રદેશબંધ છે. છૂટવાને મેક્ષ કહે છે. મેક્ષના પણ બે પ્રકાર છે. (૧) દ્રવ્ય–મેક્ષ અને (૨) ભાવમોક્ષ, બેડી વગેરેથી છૂટવું એ દ્રવ્યમેક્ષ છે અને જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ કર્મરૂપી પાશથી આત્માનું સુક્ત થઈ જવું તે ભાવમેલ છે અહીં સર્વ કર્મોના આત્યન્તિક અભાવથી ઉત્પન્ન થનારાં અનંત જ્ઞાન, શાશ્વત–સ્થિતિ, કૃતકૃત્યતા, અવ્યાબાધ–સુખ–સ્વરૂપ ભાવભેક્ષને ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीदशवकालिकमूत्रे अत्र वौद्धा-“दीपनिर्वाणवदात्मनो निर्वाणं मोक्षः" यथोक्तम्"दीपो यथा नितिमभ्युपेतो, नैवावनि. गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काश्चिद्विदिशं न काञ्चित् , स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ॥१॥ जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवापनि गच्छति नान्तरिक्षम् । ' दिशं न काश्चिद्विदिशं न काञ्चित् , क्लेशक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ।।२॥" इत्याहुस्तच्छाश्वतावस्थितिपदेन निराकृतम् , सतोऽत्यन्तविनाशाभावात् , बौद्धमतावलम्बी मानते हैं कि-"जैसे दीपक बुझ जाता है उसी प्रकार आत्माका अभाव हो जाना मोक्ष है"। कहाभी है __ "जैसे दीपककी ज्वाला जब नष्ट हो जाती है, तब न भूमिकी ओर जाती है न आकाशकी ओर जाती है, न किसी दिशामें जाती है, न विदिशामें जाती है, किन्तु स्नेह (तेल) का अभाव हो जानेसे शान्त हो जाती है ॥१॥ . इसी प्रकार मुक्त जीव न भूमिकी ओर जाता है, न आकाशकी ओर जाता है, न किसी दिशामें जाता है, न किसी विदिशामें जाता है, हां, दुःखोंका क्षय होजानेसे शान्त होजाता है, अर्थात् मुक्त अवस्थामें जीवका अभाव होजाता है ॥२॥" . ऐसा माननेवाले बौद्धोंका खण्डन मोक्षके लक्षणमें आये हुए 'शाश्वत अवस्थिति' पदसे किया गया है, क्योंकि सत् पदार्थका कभी अभाव બૌદ્ધમતાવલ બેઓ માને છે કે-“જેમ દીપક બુઝાઈ જાય છે તેમ આત્માને અભાવ થઈ જ એ મેક્ષ છે.” કહ્યુ છે કે – ' જેમ દીપકની વાળા જ્યારે નષ્ટ થઈ જાય છે, ત્યારે નથી તે ભૂમિની તરફ જતી, નથી આકાશની તરફ જતી, નથી કઈ દિશામાં જતી, નથી વિદિશામાં ती, परंतु स्नेड (नेस) नो मला वाथा शान्त थs नय छ (१) । એ રીતે મુક્ત જીવ નથી ભૂમિનું તરફ જતે, નથી આકાશની તરફ જો, નથી કઈ દિશામાં જતે, નથી કે વિદિશામાં જતે, હા, દુ.ખેને ક્ષય થઈ જવાથી શાન્ત થઈ જાય છે, અર્થાત્ મુક્ત અવસ્થામાં જીવને અભાવ થઈ जय छे” (१) એમ માનનારા બૌદ્ધોનું ખંડન મેક્ષના લક્ષણમાં આવેલા “શાશ્વત અવસ્થિતિ” શબ્દ વડે કરવામા આવ્યું છે, કારણ કે સત પદાર્થને કદાપિ અભાવ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ अध्ययन ४ गा. १५-मोक्षस्वरूपम् तस्मादात्मनः सकलकर्ममलविरहिता सद्भावस्वरूपा काचिदवस्थाऽवश्यम्भाविनी । न च 'दीपस्याऽभ्रस्य वा निरन्वयविनाशदर्शनादात्मनः स (निरन्वयविनाशः) कथं ने-'ति शङ्कनीयम्, तयोरपि निरन्वयविनाशानभ्युपगमात् , यथा कर्पूरस्य 'पिपरमेण्ट' इति ख्यातपदार्थस्य वा वातेन ह्रियमाणस्य परिणमनसोक्षम्यादिन्द्रियगोचरत्वापायेऽपि न सर्वथाऽभावः किन्त्ववस्थान्तरेण परिणतिमात्रम् , तथैव प्रदीपपर्यायाऽऽपन्नाः पुद्गलास्तमस्त्वेन परिणमन्ति, एवमभ्रस्यापि विशीयमाणम्य पुद्गलपुञ्जः परिणामसूक्ष्मत्वेन दृष्टिपथमप्राप्तोऽपि न पुद्गलत्वेनाऽसद्भूतः। एवमेवानहीं होता। जब सत् पदार्थका अभाव नहीं हो सकतातो आत्माकी भी समस्त कर्मोंसे रहित विद्यमान अवस्था अवश्य होनी चाहिये।। ___ बौद्ध-जब दीपककी ज्वालाका तथा मेघका निरन्वय नाश देखा जाता है तो आत्माका निरन्वय (सर्वथा) नाश क्यों नहीं हो सकता। __ जैन-यह कहना सत्य नहीं है कि दीपककी ज्वाला और मेघ का निरन्वय नाश होजाता है । वह सूक्ष्मरूपसे परिणमन होनेसे यद्यपि इन्द्रियगोचर नहीं होता तथापि उसका सर्वथा अभाव नहीं होजाता, वह दूसरी सूक्ष्म अवस्था को प्राप्त होजाता है। इसी तरह प्रदीप अवस्था वाले पुद्गल अन्धकाररूपमें परिणत होजाते हैं । मेघ जब छिन्न-भिन्न हो जाता है तो सूक्ष्मरूपमें परिणत होजाने से इन्द्रियोंद्वारा गृहीत नहीं हो सकता तथापि पुद्गल के रूपमें विद्यमान रहता ही है। ऐसे ही समस्त થતું નથી. જે સત પદાર્થને અભાવ થઈ શક્તો નથી તે આત્માની પણ સર્વ કર્મોથી રહિત વિદ્યમાન અવસ્થા અવશ્ય લેવી જોઈએ બૌદ્ધ– દીપકની જવાળાને તથા મેઘને નિરન્વય નાશ જેવામાં આવે छे, तो मामानी नि२-क्य (सपा) नाथ भ न 25 शहे ? જેન—એમ કહેવું સત્ય નથી કે દીપકની જવાળા અને મેઘને નિરન્વય નાશ થઈ જાય છે સૂમરૂપથી પરિણમન થવાથી જે કે તે ઇન્દ્રિયગોચર થતાં નથી, તથાપિ એને સર્વથા અભાવ થઈ જતું નથી તે બીજી સૂમ અવસ્થાને પામે છે એ રીતે પ્રદીપ અવસ્થાવાળા પુગલ અંધકારરૂપમાં પરિણત થઈ જાય છે મેઘ જ્યારે છિન્ન-ભિન્ન થઈ જાય છે ત્યારે તે સૂક્ષ્મરૂપમાં પરિણત થઈ જાવાથી ઇદ્ધિદ્વારા ગ્રહીત થઈ શકતો નથી, તે પણ પુગલના રૂપમાં વિદ્યમાન Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३२८ 'श्रीदशवैकालिकसूत्रे ss माsपि कृत्स्नकर्मकलापविमुक्तः शुद्धः सिद्धो बुद्धोऽनन्तगुणसमृद्धो मोक्षावस्थायामपि विद्यत एवेति । अत्र 'अनन्तज्ञाने' -तिविशेषणेन नैयायिकवैशेषिकाभिमतं मतं निरस्तम् । तथाच -- नवानामा “बुद्धि-सुख-दुःखेच्छा-द्वेष-प्रयत्न-धर्मा-धर्म-संस्कारस्वरूपाणां स्म विशेषणगुणानामत्यन्तविच्छेदो मोक्षः " इति । अत्रोच्यते - बुद्ध्यादयो गुणा आत्मनो भिन्ना अभिन्ना वा ?, अभिन्नाश्चेत्तद्विनाशे आत्मनोऽपि विनाशोऽवश्यम्भावी तत्स्वरूपत्वात्, औष्ण्यविनाशे वह्निविनाशवत्, तथा च तदानीं कस्य कर्मोंसे रहित, शुद्ध, सिद्ध, बुद्ध और अनन्त गुणों से समृद्ध आत्मा मोक्ष - अवस्थामें भी विद्यमान रहती है । C 'अनन्तज्ञान' विशेषण से नैयायिक-वैशेषिक मत का निराकरण किया गया है । उनकी मान्यता है कि - "बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार इन आत्मा के नौ विशेष गुणोंका अत्यन्त विनाश हो जाना मोक्ष है ।" यहाँ पूछना यह है कि-बुद्धि आदि गुण आत्मा से भिन्न हैं या - अभिन्न ?, यदि अभिन्न हैं तो गुणोंका नाश होनेपर आत्माका भी नाश हो जायगा, क्योंकि आत्मा और गुण भिन्न नहीं हैं-एक ही हैं, जैसे उष्णताका नाश होनेपर अग्निका नाश होजाता है । जब आत्मा का તે રહે જ છે. એવી જ રીતે સર્વાં કર્યાંથી રહિત, શુદ્ધ, સિદ્ધ, યુદ્ધ અને અન ત ગુણાથી સમૃદ્ધ આત્મા મેક્ષ અવસ્થામા પણ વિદ્યમાન રહે છે ‘અનન્ત જ્ઞાન’ વિશેષણથી તૈયાયિક—વૈશેષિક મતનું નિરાકરણુ કરવામાં मान्छे. तेना मान्यता मेवी छे "मुद्धि, सुख, दुःख, धरछा, द्वेष, अयत्न, ધર્મ, અધ અને સસ્કાર, એ આત્માના નવ વિશેષ ગુણેાના અત્યંત વિનાશ થઇ જવે એ મેક્ષ છે ” અહીં પૂછવાનું એ છે કે બુદ્ધિ આદિ ગુણુ આત્માથી ભિન્ન છે કે અભિન્ન ? જે અભિન્ન છે તે। શુષ્ણેાના નાશ થયા બાદ આત્માને પણ નાશ થઈ જશે, આત્મા અને ગુણુ ભિન્ન નવી-એક જ છે, જેમકે ઉષ્ણુતાના નાશ અગ્નિને પણુ નાશ થયું જાય છે, જે આત્માને નાશ થઈ જશે તે કારણ કે થવાથી Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १५ - मोक्षस्वरूपम् -३२९ मोक्षः १ | भिन्नार्हि वह्निशैत्ययोरिव तयोर्गुणगुणिभावोऽनुपपन्नः समवायस्याsसिद्धत्वात्, अत एव न बुद्ध्यादीनामात्मगुणत्वम् । अस्तु वा अयौक्तिकोऽपि गुणगुणिभावस्तथापि ज्ञानसुखाद्यभावादात्मानं को जडीकर्तुमुद्यच्छेदिच्छेदपि ? ईदृशाद्भवदभिमतान्मोक्षात्संसारावस्थैव सम्यक्तराऽस्माकमस्तु, यस्मिन् सत्यपि शे कादाचित्कं स्वल्पमपि सुखं लभ्यत एव । लोकेऽपि भवदभिमतमोक्षमाहात्म्यमुपहस्यते, यथा नाश होजायगा तो मोक्ष किस का होगा ? । अगर कहो कि ये गुण आत्मा से भिन्न हैं तो उनका आत्मा के साथ गुण- गुणीका सम्बन्ध कैसे हुआ ?, भिन्न होनेके कारण जैसे अग्नि और शीतलता में गुण-गुणि सम्बन्ध नहीं होता वैसे ही आत्मा और बुद्धि आदि का भी सम्बन्ध नहीं हो सकता । यदि समवाय सम्बन्ध से गुण-गुणिभाव मान लोगे तो बुद्धि आदि गुणों का नाश नहीं हो सकता, क्योंकि समवाय सम्बन्ध को तुमने नित्य माना है, अतः बुद्धि आदि आत्मा के गुण ही सिद्ध नहीं होते । यद्यपि यह सम्बन्ध युक्ति से तो सिद्ध नहीं होता फिर भी मान लोगे तो जबकि मोक्षमें ज्ञान और सुख आदिका अभाव हो जाता है तो कौन बुद्धिमान् अपनी आत्मा को इन गुणों से रहित जड़ के समान बनाने का प्रयत्न करेगा ? तुम्हारे इस मोक्षसे तो संसार ही भला जिसमें दुःखोंके साथ-साथ कभी-कभी थोड़ा बहुत सुख भी मिल जाता है । लोकमें भी तुम्हारे माने हुए मोक्ष की हँसी उड़ाई जाती है, सुनोપછી મેક્ષ કાના થશે ? અગર જો કહેા કે એ ગુણુ આત્માથી ભિન્ન છે તે આત્માની સાથે એના ગુણુ-ગુણીના સંબંધ કેવી રીતે થયા ? ભિન્ન હાવાને કારણે જેમ અગ્નિ અને શીતલતામાં ગુણુ-ગુણી સ ખંધ નથી હાતે, તેવી રીતે આત્મા અને બુદ્ધિ આદિના પણ સંબધ નથી હાઇ શકતે જો સમવાય સબધથી ગુણગુણીભાવ માની લેશે તે બુદ્ધિ આદિ ગુણ્ણાના નાશ નથી થઈ શકતા, કારણ કે સમવાય સંબધને તમે નિત્ય માન્ય છે એથી બુદ્ધિ આદિ આત્માના ગુણુ જ સિદ્ધ થતા નથી. જો કે એ સખ ધ યુક્તિથી તે સિદ્ધ નથી થતા, તેપણુ માની લેશે તે જો મેાક્ષમાં જ્ઞાન અને સુખ આદિના અભાવ થઈ જાય છે તેા કયા બુદ્ધિમાન પાતાના આત્માને એ ગુણાથી રહિત જડની સમાન मनाવવાના પ્રયત્ન કરશે ? તમારા એવા મેાક્ષ કરતા તે સ’સાર r સારે કે જેમા ૬.ખેાની સાથે સાથે કાઇ-કાઇવાર થાડું-ઘણુ સુખ પશુ મળાં જાય છે લેકમા પણ તમારા માનેલા મેાક્ષની હાસી ઉડાવવામા આવે છે સાભળે Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३३० श्रीदशवेकालिकसूत्रे "बरं वृन्दावने रम्ये, शृगालत्वं व्रजाम्यहम् | न तु वैशेषिकीं मुक्ति, प्रार्थयामि कदाचन ॥ १ ॥” इति । यत्तु "अनन्तसुखरूपो मोक्षः" इति तदप्यसमीचीनम्, तथाहि - तदनन्तसुखं मुक्तात्मनो ज्ञानगोचरं भवति न वा?, आधे पक्षे ज्ञानाऽऽनन्त्यप्रसङ्गः, तदन्तरेणाऽनन्तम्मुखसंवेदनाऽसम्भवात् । द्वितीये च सुखस्वभावताभङ्गप्रसङ्गः, सातसंवेदनस्यैव सुखस्त्रात्, अत एवाऽनन्तज्ञानविरहितसुखस्वभावत्वं मोक्षस्य न सिध्यति । “प्रकृताचुपरतायां' पुरुषस्य स्वस्वरूपेणाऽवस्थानं मोक्षः" इति हि साङ्ख्याः, तद् १ उपरतायां = निवृत्तायाम् । “मैं मनोहर वृन्दावन में श्रृंगाल हो जाना पसंद करता हूँ, किन्तु वैशेषिकका मोक्ष नहीं चाहता ॥ १॥" जो कहते हैं कि - "मोक्ष अनन्तसुखस्वरूप है" अर्थात् मोक्ष में सुख ही अवशिष्ट रह जाता है और कुछ नहीं रहता। उनका यह मानना समीचीन नहीं है । वह अनन्त सुख मुक्तात्मा के ज्ञानका विषय है या नहीं ? पहला पक्ष स्वीकार करो तो अनन्त सुखको जाननेके लिए अनन्त ज्ञान भी चाहिए । अनन्त ज्ञानके विना अनन्त सुखका बोध नहीं हो सकता । दूसरा पक्ष अंगीकार करो तो सुखस्वभावता सिद्ध नहीं हो सकती, क्योंकि, सातारूप संवेदनको ही सुख कहते हैं। जय 'संवेदन ही नहीं तो सुख हो ही नहीं सकता है, इसलिए "अनन्त • ज्ञान से रहित सुखस्वभाववाला मोक्ष" नहीं मानना चाहिए | Cf 'प्रकृति जब उपरत होजाती है तब पुरुष अपने स्वरूप में स्थित " मनोहर वृन्दावनमां शृगाण ( शियाण ) था भवानुपसं६ ३ ४, પરંતુ વૈશેષિકને મેક્ષ નથી પસદ કરતે.” (૧) જેએ કહે છે કે “ મેાક્ષ અનત સુખસ્વરૂપ છે” અર્થાત્ મેક્ષમાં સુખ જ અશિષ્ટ રહી જાય છે બીજું કશું નથી રહેતુ, તેએનું એ માનવું પણુ સમીચીન નથી એ નત સુખ મુક્તાત્માના જ્ઞાનના વિષય છે કે નહિ ? પહેલા પક્ષ સ્વીકારો તે અનત સુખને જાણવાને માટે અનત જ્ઞાન પણ જોઇએ અનત જ્ઞાન વિના અનંત સુખને ખેાધ થઇ શકતે નથી ખીન્ને પક્ષ સ્વીકારો તે સુખ-સ્વભાવતા સિદ્ધ થઈ શકતી નથી કારણ કે સાતારૂપ સવદેનને જ સુખ કહે છે જો સવેદન જ હેતુ નથી તે સુખ થઇ જ શકતુ નથી. તેથી અનત જ્ઞાનથી રહિત સુખ-સ્વભાવવાળા મેક્ષ ” નહિ માનવા જોઇએ. પ્રકૃતિ -જ્યારે ઉપરત થઈ જાય છે ત્યારે પુરૂષ પાતાના સ્વરૂપમા સ્થિત 66 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १५-मोक्षस्वरूपम् ३३१ 'आत्मनः' इतिपदेन प्रत्यादिष्टम् । किञ्च तन्मते प्रकृति-पुरुषयोः संयोगोऽपि न घटते कुतो मोक्षचर्चा ?, तथाहि - नित्या प्रकृतिः प्रवृत्तिस्वभावा तदितरस्त्रभात्रा वा ? तयोरायः सावद्यः पक्षः, तत्र तत्मवृत्तेरुपरत्यभावेन मोक्षासम्भवात्, उपरत्यभ्युपगमे च प्रकृतेरनित्यत्वप्रसङ्गः । द्वितीयोऽपि पक्षो न क्षोदक्षमः प्रवृत्तेरेवाऽसम्भवतः कथमिव भवसम्भवः १, भवाभावे कस्य मोक्षः ? एवं तन्मते मोक्षस्यैवायौक्तिकत्वात्कथं तल्लक्षणस्य समीचीनत्वं सिध्येत् ? । हो जाता है, इसी अवस्था को मोक्षं कहते हैं । " ऐसी सांख्यमतानुयायिओंकी मान्यता है । 'आत्मनः ' पदसे उसका निराकरण किया गया है । सांख्यमतमें प्रकृति और पुरुषका संयोग ही सिद्ध नहीं होता तब मोक्ष की चर्चा ही क्या करना? सो ही आगे दिखलाते हैं कि - प्रकृति का स्वभाव प्रवृत्ति करनेका है या नहीं ?, पहला पक्ष दूषित है, क्योंकि प्रकृतिका स्वभाव यदि सर्वदा प्रवृत्ति करने का है तो उस प्रवृत्तिकी निवृत्ति नहीं होसकती और इसी कारणसे कभी मोक्ष भी नहीं होगा। दूसरा पक्ष भी विचार करनेसे बाधित होजाता है । जब प्रकृति प्रवृत्ति ही नहीं करेगी तो संसार कैसे होगा?, और जब संसार (कर्मसहित अवस्था) ही नहीं तो मोक्ष किससे होगा ?, अर्थात् किसी प्रकार मोक्ष ही नहीं बनता । जब मोक्ष नहीं बनता तो उसके लक्षण की निर्दोषता भी सिद्ध नहीं हो सकती । થઈ જાય છે, એ અવસ્થાને મેક્ષ કહે છે ” એવી સાંખ્યમતાનુયાયીઓની માન્યતા છે આત્મનઃ શબ્દથી એનું નિરાકરણ કરવામાં આવ્યું છે. સાંખ્યમતમા પ્રકૃતિ અને પુરૂષને સ યેગ જ સિદ્ધ નથી થતુ તે મેાક્ષની ચર્ચા જ શું કરવી ? તેજ આગળ અતાવવામા આવે છે કે-પ્રકૃતિને સ્વભાવ પ્રવૃત્તિ કરવાના છે કે નહિ ? પહેલે પક્ષ દૂષિત છે, કારણ કે પ્રકૃતિને સ્વભાવ જો સઈદા પ્રવૃત્તિ કરવાના છે તે એ પ્રવૃત્તિની નિવૃત્તિ થઇ શકતી નથી, અને તે કારણે કદાપિ મેક્ષ પણ થશે નિહ બીજો પક્ષ પણ વિચાર કરવાથી બાધિત થઇ જાય છે. જો પ્રકૃતિ પ્રવૃત્તિ જ નિડુ કરે તે સ સાર કેવી રીતે થશે ? અને જો સ સાર ( કમ સહિત અવસ્થા ) જ નથી તે મેક્ષ શાનાથી થશે ? અર્થાત્ કેઇ પ્રકારે માક્ષ જ નથી બનતુ, જો મેક્ષ નથી ખનતુ તા તેના લક્ષણની નિર્દેષતા પશુ સિદ્ધ થઈ શકે નહિ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - 3 श्रीदशवैकालिकसूत्रे ___ यच्चाऽऽजीवकोः (सम्प्रदायविशेषाः) मुक्तेः सकाशादात्मनः पुनरागमनमामनन्ति, तथाहि "ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य, कर्तारः परमं पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि, भवं तीर्थनिकारतः ॥१॥” इति, तत् 'पुनरप्रादुर्भावतये'-ति पदेनाऽपाकृतम्, यतो मोक्षः कर्मनाशे सति सम्पधते, कर्म च कर्मणैव जन्यते, ततश्च मुक्तावस्थायां कर्माभावात्कृतः पुनः कोत्पत्तिः?, तदभावे च कुतस्तरां संसारागमनम् ? संसारस्य कर्महेतुकत्वात् , न कारणमन्तरेण कार्योत्पत्तिरिति सर्वसंमतत्वाचेति । आजीवक सम्प्रदाय वाले ऐसा कहते हैं कि-"आत्मा मोक्ष से वापस लौट आती है। कहाभी है___"धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाले ज्ञानी परम पदको प्राप्त होकर जब तीर्थका अनादर होने लगता है तय मोक्षसे फिर संसारमें आ जाते हैं ॥१॥" इनका यह मत 'पुनरप्रादुर्भावतया' इस विशेषण से खण्डित हो गया है। क्योंकि कर्मोंके नाश होने पर ही मोक्ष होता है, और कर्म कर्मोंसे ही उत्पन्न होते हैं। मोक्षमें कोंका अभाव होजानेसे कर्मोंकी उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए संसारमें आगमन संभव नहीं है। कारणके विना कार्यकी उत्पत्ति नहीं होसकती, ऐसा सय सिद्धान्तवाले स्वीकार करते हैं। આજીવક સંપ્રદાયવાળા એમ કહે છે કે-“આત્મા મેક્ષથી પાછા ફરી આવે છે કહ્યું છે કે ધમતીની સ્થાપના કરનારા જ્ઞાનીઓ પરમ પદને પ્રાપ્ત થઈને જ્યારે તીર્થને અનાદર થવા લાગે છે ત્યારે મેક્ષમાંથી પાછા સંસારમાં આવી जय छ” (१) येने से मत 'पुनरप्रादुर्भावतया' से विशेषथी मति गयो छे કારણ કે કમેને નાશ થવાથી જ મોક્ષ થાય છે. અને કર્મ કર્મોથી જ ઉત્પન્ન થાય છે મેક્ષમાં કર્મોને અભાવ થઈ જવાથી કર્મોની ઉત્પત્તિ થતી નથી, તેથી સંસારમાં ફરી આવવાનો સંભવ નથી કારણ વિના કાર્યની ઉત્પત્તિ થઈ શકતી નથી, એવું સર્વ સિદ્ધાન્તવાળાઓ સ્વીકારે છે Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १५- मोक्षस्वरूपम् ३३३ " आत्मनः सततमूर्ध्वगतिर्मुक्ति” – रिति मण्डलीमतानुयायिनः, तच्च प्रमत्तप्रलपनमायम्, लोकाकाशानन्तरं धर्मास्तिकायस्यास्तित्वाभावात् । धर्मास्तिकायस्य जीवपुद्गलानां गतिनिमित्तत्वं प्रमाणसिद्धं, तथाहि - गमनोन्मुखानां जीवपुद्गलानां गतिर्वाद्यनिमित्तसापेक्षा गतित्वात्, बाह्यनिमित्तमत्र धर्मास्तिकायोऽन्यस्यासम्भवात्, लोकाकाशाऽनन्तरं तदभावान्न तस्मादूर्ध्वं गतिसंभवः । अत एवाऽगईणाई माईतमताभिमतमुक्तिस्वरूपमेवेति । · ननु नरामरतिर्यङ्नारकपर्यांयस्वरूप एव संसारस्तेभ्यः पृथग्भावेन न कस्यमण्डलीमत के माननेवाले कहते हैं कि - " आत्मा सदा ऊपर चली जाती है कहीं ठहरती नहीं है" यह कथन उन्मत्त पुरुषके प्रलापके सदृश है, क्योंकि लोकाकाशके बाद धर्मास्तिकायका सद्भाव नहीं है । यह बात प्रमाण से सिद्ध है कि धर्मास्तिकाय के विना जीव और पुद्गलोंकी गति विना बाह्य कारण के नहीं हो सकती, क्योंकि - 'वह गति है, जो जो गति होती है वह बाह्य निमित्तकी अपेक्षा रखती है । गति में बाह्य निमित्त धर्मास्तिकाय ही होसकता, क्योंकि अन्य किसीमें ऐसी शक्ति नहीं है । यह धर्मास्तिकाय लोकाकाश से आगे नहीं है, इसलिए लोकाकाशसे आगे आत्मा गमन भी नहीं कर सकती' । अत एव सिद्ध हुआ कि 'आर्हतमत (जिनमत ) में माना हुआ मोक्षका लक्षण ही सर्वथा निर्दोष है' । प्रश्न- मनुष्य, देव, तिर्यञ्च और नारकी पर्यायस्वरूप ही संसार है -- મ ડલીમતના માનનારાઓ કહે છે કે “આત્મા સદા ઉપર ચાલ્યેા જાય છે, उयाय थोलता रहेता नथी.” मा થન ઉન્મત્ત પુરૂષના પ્રલાપ જેવું છે, કારણ કે લેાકાકાશની પછી ધર્માસ્તિકાયને સદ્ભાવ જ નથી એ વાત પ્રમાણુથી સિદ્ધ થએલી છે કે ધર્માસ્તિકાય વિના જીવ અને પુદ્ગલેાની ગતિ ખાદ્ય કારણ વિના થઇ શકતી નથી, કારણ કે એ ગતિ છે, જે જે ગતિ હાય છે તે તે બાહ્ય નિમિત્તની અપેક્ષા રાખે છે” ગતિમાં બાહ્ય ધર્માસ્તિકાય જ હોઈ શકે ધર્માસ્તિકાય નિમિત્ત છે કારણ કે અન્ય કાર્યમા એવી શક્તિ નથી એ લેાકાકાશથી આગળ નથી, તેથી લેાકાકાશથી આગળ આત્મા ગમન કરી શકતા નથી. એટલે સિદ્ધ થયુ કે હે આતમત ( જૈનમત )મા માનેલું મેાક્ષનું લક્ષણુ જ सर्वथा निर्दोष छे " प्रश्न-मनुष्य, द्वेष, तिर्यय भने नारी - पर्यायस्व३५ ०४ સસાર છે. એ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे चिदात्मन उपलब्धिस्ततश्च मनुष्यादिस्वरूपसंसाराभावे तल्लक्षणस्याऽऽत्मनोऽपि विनाशः, अत एव 'अभावलक्षणो मोक्षः' इति चेदत्रोच्यते नारकादयो जीवस्य पर्यायाः, नहि पर्यायनाशे पर्यायिणोऽपि नाशः प्रत्युत पर्यायान्तरोत्पत्तिरेव संजायते, यथा कटकाऽऽकृतिविनाशेऽपि मुवर्णस्य न विनाशः किन्तु कुण्डलाधाकारान्तरोत्पत्तिदृश्यते, तथैव नारकादिपर्यायनाशे नात्मनोऽपि नाशः किन्तु सिद्धत्वपर्यायान्तरं सम्पद्यते । किश्च नारकादयः पर्यायाः कर्मकृताः सन्त्यतो हि कर्माभावे पर्यायाभावः, कारणाभावे कार्यस्याप्यभावाद् वह्नयमावे इन चारों अवस्थाओं से भिन्न किसी आत्माकी उपलब्धि नहीं होती, इसलिए संसारका अभाव होने से आत्माका भी अभाव होजायगा, अत एव मोक्षको अभावस्वरूप मानना चाहिए। __ उत्तर-नारक आदि जीवकी पर्यायें हैं। पर्यायोंका नाश होनेसे पर्यायी (आत्मद्रव्य) का नाश नहीं होता। बल्कि दुसरी पर्याय उत्पन्न होजाती है। जैसे सोनेके कड़ेका नाश होनेसे सोनेका नाश नहीं होता किन्तु कुण्डल आदि दूसरी पर्याय उत्पन्न होजाती है, वैसे ही नारक आदि पर्यायोंका नाश होनेपर भी आत्माका नाश नहीं होता किन्तु सिद्ध पर्याय उत्पन्न होजाती है । अथवा-- नारक आदि पर्यायें कर्मकृत हैं अतःकर्मके अभाव होनेपर उनका भी अभाव होता है, क्योंकि कारणके अभाव होनेसे कार्यका भी अभाव ચારે અવસ્થાથી ભિન્ન કેઈ આત્માની ઉપલબ્ધિ થતી નથી. તેથી સસારને અભાવ હોવાથી આત્માને પણ અભાવ થઈ જશે. તેથી મેક્ષને અભાવસ્વરૂપ માનવે જોઈએ ઉત્તર-નારક આદિ જીવન પર્યા છે. પર્યાને નાશ થવાથી પર્યાયી (આત્મદ્રવ્ય)ને નાશ નથી થતો, બલ્ક બીજે પર્યાય ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. જેમકે સેનાના કડાને નાશ થવાથી સોનાને નાશ નથી થતું, પરન્ત કુંડલ આદિ બીજે પર્યાય ઉત્પન્ન થાય છે તેવી રીતે નારક આદિ પર્યાને નાશ થતા પણ આત્માને નાશ નથી થતે કિન્તુ સિદ્ધપર્યાય ઉત્પન્ન થાય છે. અથવા– નારક આદિ પર્યાયે કર્મકૃત છે તેથી કને અભાવ થતાં તેને પણ અભાવ થાય છે કારણ અભાવ થવાથી કાર્યને પણ અભાવ થઈ જાય છે, Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १५ - मोक्षस्वरूपम् ३३५ धूमाभाववत् जीवत्वं तु न कर्मकृतं तस्य स्वाभाविकत्वादतो न खल कर्माभावे जीवाभावस्तन्त्वभावे घटाभाववत् तस्मान्नाऽभावलक्षणो मोक्षः किन्तु शाश्वतिकावस्थितिरूपः । ? असौ (मोक्षः) च सम्यग्ज्ञान-दर्शन- चारित्ररूपरत्नत्रय हेतुकः, अन्यतमाभावे तदसम्भवात् काञ्चनोपल वियोगवत्, यथा हि न केवलं ज्ञानमात्रेणोपलात्सुवर्णवियोगः सुसम्पाद्येो भवितुर्हति श्रद्धान-क्रिययोरभावात् (१), न श्रद्धानमात्रेण ज्ञान-क्रिययोरभावात् (२), नापि क्रियामात्रेण ज्ञान - श्रद्धानयोरभावात् (३), न ज्ञान-श्रद्धानमात्रेण क्रियाया अभावात् (४), न ज्ञान-क्रियामात्रेण श्रद्धानाभावात् (५), होजाता है, जैसे अनिका अभाव होनेसे घूमका अभाव होता है । आत्मा कर्मकृत नहीं है, वह स्वाभाविक है, अत एव कर्मका अभाव होनेसे आत्साका नाश संभव नहीं है । जैसे तन्तुओंका नाश होने से घटका अभाव नहीं होता, इसलिए मोक्ष अभाव स्वरूप नहीं है किन्तु शाश्वत स्थितिवाला है । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र स्वरूप रत्नत्रय मोक्षका कारण है । रत्नत्रय में से कोई एक न हो तो मोक्ष नहीं होसकता, जैसे सुवर्ण और पाषाणका वियोग । अर्थात् जैसे (१) अकेले ज्ञान द्वारा पाषाणसे सुवर्णको पृथक् नहीं कर सकते, क्योंकि श्रद्धान और क्रियाका अभाव है । (२) केवल श्रद्धानसे भी पृथक नहीं कर सकते, क्योंकि ज्ञान और क्रियाका अभाव है। (३) केवल क्रियासे भी पृथक नहीं कर सकते, क्योंकि ज्ञान और श्रद्धान नहीं है । (४) ज्ञान और श्रद्धानसे ही सुवर्ण જેવી રીતે અગ્નિના અભાવ થવાથી ધૂમાડાનેા પણ અભાવ થાય છે. આત્મા કકૃત નથી, એ સ્વાભાવિક છે. તેથી કના અભાવ થતા આત્માને નાશસ ભવિત નથી, જેમ તંતુઓના નાશ થવાથી ઘટના અભાવ થતા નથી એથી કરીને માક્ષ એ અભાવસ્વરૂપ નથી, કિન્તુ શાશ્વત સ્થિતિવાળા છે સભ્યજ્ઞાન, સમ્યગ્દર્શન અને સમ્યક્ચારિત્ર-સ્વરૂપ રત્નત્રય મેાક્ષનું કારણુ છે રત્નત્રયમાંથી કોઇ એક ન હેાય તે મેક્ષ થઇ શકતા નથી, જેમ કે સુવર્ણ અને પાષાણુના વિયાગ, અર્થાત્ જેમ-(૧) એકલા જ્ઞાનદ્વારા પાષાણુથી સુણુ અલગ કરી શકાતુ નથી, કારણ કે શ્રદ્ધાન તથા ક્રિયાના અભાવ છે. (૨) કેવળ શ્રદ્ધાનથી પણ અલગ કરી શકાતુ નથી, કારણ કે જ્ઞાન અને ક્રિયાને અભાવ છે (૩) કેવળ ક્રિયાથી પણુ અલગ કરી શકાતુ નથી કારણુ કે જ્ઞાન અને શ્રદ્ધાન નથી. (૪) જ્ઞાન અને શ્રદ્ધાનથી પણ સુવર્ણ અને પાષાણુ અલગ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ३३६ श्रीदशवैकालिको नापि श्रद्धानक्रियामात्रेण ज्ञानाऽभावात् (६) । एवमेव मोक्षोऽप्यन्यतमाभावे न संभवत्यपि तु समुदितरत्नत्रयादेवेति । तं मोक्षं च जानीयात-विद्यारि स्यर्थः ॥१५॥ और पाषाणको पृथक् नहीं कर सकते, क्योंकि वहां क्रिया नहीं है ।। ज्ञान और क्रियामात्रसे भी पृथक् नहीं कर सकते,क्योंकि श्रद्धान नहीं है (६)श्रहान और क्रिया मात्रसे भी पृथक् नहीं कर सकते, क्योंकि ज्ञान अभाव है। इसी प्रकार मोक्ष भी समुदित तीनोंसे प्राप्त होता है, किस एकके अभावमें नहीं होसकता। जिस प्रकार वन में आग लगने पर, वहाँ रहे हुए अन्धा नेत्रों अभावसे, पङ्ग चरणों के अभावसे और अश्रद्धालु अग्निकी दाहकता-शरि के प्रति श्रद्धा के अभावसे उस वन से नहीं निकल सकते हैं उसी प्रका सम्यग्ज्ञानरूपी नेत्रों से रहित होनेके कारण अन्ध जीव,सम्यक्चारित्र रहित होने के कारण पङ्ग जीव और सम्यग्दर्शन के अभाव से अश्रद्धात् जीव भी जन्म-जरा-मरण रूपी भीषण दुःखोंकी प्रचण्ड अग्नि से जल हुए इस संसार रूपी वन से नहीं निकल सकते हैं। जैसे-अन्ध,पङ्गु, और अश्रद्धालु वनाग्नि में जल मरते हैं उसी प्रकार ये भी संसाराग्निमें जल मरते हैं । परन्तु जिनके नेत्र और दोनों चरण अक्षत हैं, और अग्निक दाहकता-शक्ति के प्रति भी श्रद्धा है वे जिस प्रकार दावाग्नि-प्रज्वलित वनको पार कर जाते हैं उसी प्रकार जो जीव सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र કરી શકાતા નથી કારણ કે ત્યાં ક્રિયા નથી. (૫) જ્ઞાન અને ક્રિયા માત્રથી પણ અલગ કરી શકાતાં નથી, કારણ કે શ્રદ્ધાન નથી (૬) શ્રદ્ધા અને ક્રિયાથી પણ અલગ કરી શકાતાં નથી કારણ કે જ્ઞાનને અભાવ છે એ રીતે મોક્ષ પણ સમુદિત ત્રણેથી પ્રાપ્ત થાય છે, કેઈ એકને અભાવ હોય તે મોક્ષ પ્રાપ્ત થતું નથી જેમ વનમાં આગ લાગવાથી, ત્યા રહેલે આંધળે નેત્રે ન હોવાથી, લંગડે પગે ન હોવાથી, અને અશ્રદ્ધાળુ અગ્નિની દાહકતા-શકિત પ્રત્યે શ્રદ્ધા ન હોવાથી તે વનમાંથી નીકળી શકતા નથી તેમ સમ્યજ્ઞાનરૂપી નેત્રે ન હોવાથી આંધળે છે, સમ્યફચારિત્ર ન હોવાથી લગડે જીવ, અને સમ્યગ્દર્શન ન લેવાથી અશ્રદ્ધાળુ જીવ પણ જન્મ–જરા–મરણરૂપી ભીષણ દબોના પ્રચડ અગ્નિથી પ્રજવલિત આ સંસારરૂપી વનમાંથી નીકળી શકતો નથી. જેમ આધળે, લગળે અને અશ્રદ્ધાળુ વનનિમાં બની મરે છે તેમ આ જ પણ સંસારાગ્નિમાં બળી મરે છે પરંતુ જેના નેત્ર અને એક ચ૭ સાબૂત છે, અને અગ્નિની દહકતા-શકિત પ્રત્યે પણ શ્રદ્ધા છે તે જેમ દાવાગ્નિ પ્રણાવિત. વનને પાર કરી જાય છે તે જ પ્રકારે જે જી સભ્યજ્ઞાન, સચ્ચરિત્ર અને સભ્ય* Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १६ - पुण्यादिज्ञाने भोगनिर्वेदः १. 3 ४ ૫ દ ७५ ८ ५ मूलम् - जया पुण्णं च पावं च, बंधं मोक्खं च जाणइ । ૧૭ ३३७ ૧૦ " ૧૨ ૧૩ ૧૪ ૧૫ तया निविंद भोए, जे दिवे जे य माणुसे ॥१६॥ छाया - यदा पुण्यं च पापं च बन्धं मोक्षं च जानाति । तदा निर्विन् भोगान्, ये दिव्या ये च मानुषाः ||१६|| सान्वयार्थः - जया=जव पुण्णं च पावं च पुण्य और पापको, च =तथा बंध मुक्खं=बंध और मोक्षको जाणइ जानता है, तया=तव जे दिव्ये=जो देव सम्बन्धी य=और जे माणुसे = जो मनुष्यसम्बन्धी ( भोग हैं, उन) भए=भोगों को निव्विद = तत्व से विचारता है, अर्थात् निस्सार समझने लगता है ॥ १६ ॥ टीका- 'जया पुण्ण' - मित्यादि । यदा पूर्वमतिपादितलक्षणलक्षितं पुण्यादिकं जानाति तदा ये दिव्याः = दिवि = स्वर्गे भवाः देवसम्बन्धिनः, च =तथा ये मानुषाः = मनुष्यसम्बन्धिनः (भोगाः सन्ति तान् सर्वानपि ) भोगान् = भुज्यन्ते = निर्विश्यन्ते तत्तदिन्द्रियनो इन्द्रियानुकूलतयोपयुज्यन्त इति भोगाः शब्दादिविषयास्तान् निर्विन्ते= तत्त्वतो विचारयति - " भोगिभोगोपमाः खल्त्रिमे भोगा अशुचयोऽशुचिसम्भवाः शटन - पतन - विध्वंसनस्वभावा अशाश्वताथ, को नाम विवेकी एवंविधानिमान् भोगाःऔर सम्यग्दर्शन से युक्त हैं वे भी जन्म-जरा-मरणरूप भीषण दुःखों के प्रचण्ड - अग्नि से जलते हुए इस संसाररूपी वनको पार कर जाते हैं । इससे सिद्ध है कि रत्नत्रय से किसी एककी भी कमी होनेसे सिद्धि नहीं प्राप्त होसकती। उस प्रकारके मोक्षको जाने || १५ ॥ 'जया पुण्णं०' इत्यादि । जब पूर्वोक्तस्वरूपवाले पुण्य पाप बन्ध और मोक्षको जानता है तब देवों तथा मनुष्योंके सम्बन्धी भोगोंका वास्तविक विचार करता है । इन्द्रिय और मनकी अनुकूलतारूपसे जिनका उपयोग किया जाता है उन्हें भोग कहते हैं । भोगोंके विषय में साधु ऐसा विचार करते हैं कि - "ये भोग भुजंगके समान भयकर है, યુકત છે તે જીવા પણ જન્મ-જરા-મરણુરૂપ ભીષણુ દુખાના પ્રચડ અગ્નિથી પ્રજવલિત આ સંસારરૂપી વનને પાર કરી જાય છે એથી સિદ્ધ થાય છે કે એ રત્નત્રયમાંથી કોઈએક પણ જો એછું હાય તો સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થઈ શકતી નથી, એ પ્રકારના મેાક્ષને જાણે (૧૫) 15 जया पुण्णं० धूत्याहि न्यारे पूर्वोऽत - स्व३यवाणा एय पाप गंध ने મેક્ષને જાણે છે ત્યારે દેવે તથા મનુષ્યે સબધી ભેગેને વાસ્તવિક વિચાર કરે છે. ઇન્દ્રિય અને મનની અનુકૂળતારૂપે જેને ઉપયોગ કરવામાં આવે છે એને ભાગ કહે છે ભાગેાના વિષયમા સાધુ એવા વિચાર કરે છે કે " मे लोगो अभंग (सर्प)नां नेवा लय ४२ छे, अशुथि छे, अशुचि पहार्थोथी उत्यन्न थाय छे. Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३३८ श्रीदशवकालिकसूत्रे नुपभोक्तुभिलषेदपि? कस्य वा विवेकिनो वान्ताशनेच्छा, अतिपूतिगन्धिपूयरुधिरप्रवाहेऽवगाहनाऽऽकाढा, शार्दूलसदननिवासाभिलाषः, कलकलायमाने सीसककटाहादौ पतनस्पृहा, समन्ततो दन्दह्यमानभवनान्तरालपरिभ्रमणसाहसम् , अजगरविषधरमुपधानीकृत्य शयनेच्छावा जायेत? "खणमित्तसुक्खाबहुकालदुक्खा" इत्यादि पर्यालोचयन् निवदं प्राप्नोतीत्यर्थः ॥१६॥ मला-जया निविंदए भोए, जे दिवे जे य माणुसे। ૯ ૧૨ ૧૧ तया चयइ संजोगं, सभितर-बाहिरियं ॥ १७॥ छाया-यदा निर्विन्ते भोगान् , ये दिव्या ये च मानुषाः । तदा त्यजति संयोगं, साभ्यन्तर-बाह्यम् ॥१७॥ सान्वयार्थः-जया जब जे दिव्वे जो देवसंबंधी और जे यमाणुसे मनुष्यअशुचि हैं, अशुचि पदार्थोंसे उत्पन्न होते हैं, सड़ जाते हैं, गल जाते हैं, नष्ट होजाते हैं, नित्य नहीं रहते। कौन विवेकी ऐसे भोगोंको भोगनेकी अभिलाषा करेगा ?, किस विवेकशील व्यक्तिको वमन भक्षण करनेकी इच्छा होगी?, अहा ! कौन चाहेगा कि-'मैं अत्यन्त दुर्गन्धवाले पीप और रुधिरके प्रवाहमें अवगाहन (स्नान) करूँ?, क्या कोई सिंहकी मांद (गुफो)में निवास करने की इच्छा करता है ?, उकलते हुए शीशेकी कडाहीमें कौन बुद्धिमान् कूदनेकी कामना करता है? कोई नहीं करता है। अथवा चारों ओरसे धधकते हुए घरमें घुसनेका कौन साहस कर सकता है ?, और अजगर सर्पको उपधान (उसीसा-सिरहाना) बनाकर कौन शयन करना चाहेगा। ये विषय-भोग क्षणमात्र सुख देनेवाले हैं और बहुत काल तक दुःख देनेवाले हैं ॥" ऐसा विचार कर मुनि जन निर्वेद (वैराग्य)को प्राप्त करते हैं ॥१६॥ સડી જાય છે, ગળી જાય છે, નષ્ટ થઈ જાય છે, નિત્ય રહેતા નથી કે વિવેકી મનુષ્ય એવા ભેગો ભેગવવાની અભિલાષા કરશે?, કઈ વિવેકશીલ વ્યક્તિને વમન કરેલાંનું ભક્ષણ કરવાની ઈચ્છા થશે?, અહા કોણ ઈચ્છશે કેહું અત્યંત દુર્ગ ધવાળા પરૂ અને રૂધિરના પ્રવાહમાં અવગાહન (સ્નાન) કરીશ ? શું કઈ સિંહની ગુફામાં નિવાસ કરવાની ઈરછા કરે છે? ઊકળતા સીસાની કડાઈમાં કે બુદ્ધિમાન મનુષ્ય કૃદી પડવાની કામના કરે છે, કેઈ કરે નહિ. અથવા ચારે બાજુએથી અગ્નિથી ધગી રહેલા ઘરમાં પેસવાનું સાહસ કેણ કરી શકે ?, અને અજગર સર્પને ઉપધાન (ઓશીકું) બનાવીને સૂવાની કેણુ ઈચ્છા કરશે?, એ વિષય-ભેગ ક્ષણમાત્ર સુખ દેવાવાળા છે અને ઘણું કાળ સુધી દુઃખ દેવાવાળા છે” એ વિચાર કરીને મુનિજન નિવેદ (વૈરાગ્ય)ને પ્રાપ્ત કરે છે (૧૬) Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १७-१९ - संयोगादित्यागः संवरधर्म स्पर्शः ३३९ सम्बन्धी भए=भोगोंको निव्विद ए = तवसे विचारता है, तया तव सभितरबाहिरियं=आभ्यन्तर और बाह्य संजोगं = संयोगको चयइत्याग देता है ||१७|| टीका- 'जया निव्विंद' इत्यादि । यदा दिव्य-मानुष- भोगोपभोगेषु निर्वेदो जायते तदा साऽऽभ्यन्तरबाह्यम् = वहिर्भवो बाह्यः सुवर्णमणिमाणिक्यादिः, अभ्यन्तरे = अन्तःकरणे भव आभ्यन्तरः = क्रोधादिः, आभ्यन्तरेण सहितः साऽऽभ्यन्तरः स चासौ बाह्यचेति साभ्यन्तरबाह्यस्तम्, संयोगं - संयुज्यते = सम्बध्यतेऽनेनाssस्भेति संयोगः = ममस्त्रकृतसम्बन्धस्तम् व्यजति = परिहरति ॥ १७॥ ૧ ४ 3 २ मूलम् - जया चयइ संजोगं, सब्भितर बाहिरियं । ૫ ૬ ८ तया मुंडे भवित्ताणं, पचइए अणगारियं ॥ १८ ॥ छाया - यदा त्यजति संयोगं, साभ्यन्तर- बाह्यम् । तदा मुण्डो भून्वा, मव्रजत्यनगारिताम् ॥ १८ ॥ सान्वयार्थः - जया - जब सन्भितरबाहिरियं = आभ्यन्तर और बाह्य संजोगं= संयोगको चयइत्याग देता है, तथा तव मुंडे द्रव्यभावसे मुण्डित भवित्ता= होकर अणगारियं = साधुपने को पव्वइए=माप्त होता है || १८ || टीका- 'जया चय' इत्यादि । यदा बाह्याऽऽभ्यन्तरसंयोगविरहितो भवति तदा म्रुण्डः=मुण्डनं मुण्डः ('मुडि खण्डने' इत्यस्माद्भावे घञ ) स च द्वेधा-द्रव्यतो 'जया निदिए०' इत्यादि । जब देवसम्बन्धी और मनुष्य सम्बन्धी भोगोंको जान लेता है, तब सुवर्ण-मणिमाणिक्य आदि बाह्य परिग्रहका तथा क्रोधादि आन्तरिक परिग्रहका अर्थात् बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्याग कर देता है ||१७|| 'जया चयइ' इत्यादि । जब बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका परित्याग करता है तब मुण्डित हो जाता है । मुण्डन दो प्रकारका होता है जया निव्त्रिद० छत्याहि. ल्यारे देवसगंधी मने मनुष्यसमधी लोगोने જાણી લે છે, ત્યારે મુનિ સુવણૅ –મણુિ–માણિકયાદિ ખાદ્ય પરિગ્રહને તથા ક્રોધાદિ આંતરિક પરિગ્રહને અર્થાત્ ખાદ્યાભ્યતર પરિગ્રહને ત્યજી દે છે. (૧૭) जया चयइ० छत्याहि न्यारे माह्याभ्यंतर परिग्रहनो भुनि परित्याग ४रे છે ત્યારે મુતિ થઇ જાય છે. મુડન બે પ્રકારનાં હોય છે(૧) દ્રશ્ય-ક્રુડન Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीदशवैकालिकसूत्रे भावतश्च, तत्र द्रव्यतो मस्तककेशापनयनम् , भावतो रागद्वेषापनयनम् , मुण्डनधर्मयोगाधर्म्यपि मुण्डः मुण्डित इत्यर्थः, भूत्वा अनगारिताम् अनगारिणो भावोऽनगारिता साधुत्वं सर्वविरविलक्षणं सामायिकादिकमित्यर्थः, ताम् प्रव्रजति= मामोति-प्रजितो भवतीत्यर्थः ॥१८॥ मूलम् जया मुंडे भवित्ताणं, पवइएं अणगारियं । . ६ ७ 10 र तया संवरमुक्किट्ठ, धम्मं फासे अणुत्तरं ॥१९॥ छाया-यदा मुण्डो भूत्वा, प्रव्रजत्यनगारिताम् । · : तदा संवरमुत्कृष्टं, धर्म स्पृशत्यनुत्तरम् ॥१९॥ सान्वयार्थ:-जया जव मुंडे-द्रव्यभावसे मुण्डित भवित्ता होकर अणगारियं साधुपनेको पब्बइए प्राप्त होता है, तया तव उकिट्ठ-अत्यन्त प्रशस्त अणुत्तरं सर्वश्रेष्ठ संवरं-संवर धम्म-धर्मको फासे स्पर्श करता है-प्राप्त होता है।। . टीका-'जया मुंडे०'इत्यादि । यदा मुण्डो भूत्वाऽनगारितां प्रव्रजतिमामोति, तदा उत्कृष्टम् अतिप्रशस्तम् , अनुत्तरं निरविचारतया सर्वश्रेष्ठम् । यद्वा स्थिरं= निश्चलम् । अथवा जिनागमसिद्धत्वात् पतिजल्पविवर्जितम् , यद्वा 'अनुत्तर मित्येवत् क्रियाविशेषणम् , अनुत्तरम्-उक्तार्थकं यथा स्यात्तथा स्पृशतीति सम्बन्धः। १ अनुत्तरम् श्रेष्ठ, प्रतिजल्पविवर्जितं, स्थिरमिति शब्दकल्पद्रुमः । . (१) द्रव्यमुण्डन, (२) भावमुण्डन । मस्तकके केशोंकालुञ्चन करना द्रव्यमुण्डन कहलाता है । राग द्वेप आदिको दूर करना भावमुण्डन है। दोनों प्रकारोंसे मुण्डित होकर सर्वविरतिरूप सामायिक आदि चारित्रको प्राप्त होता है ॥१८॥ . 'जया मुंडे.' इत्यादि । जब मुण्डित होकर सर्वविरतिको प्राप्त होता है तब अत्यन्त प्रशस्त निरतिचार होने के कारण सर्वश्रेष्ठ निश्चल आचरणीय संवर धर्मको स्पर्श करता है । आते हुए कर्म जिस आत्मઅને (૨) ભાવ-મુડન મસ્તકના કેશનું લંચન કરવું એ દ્રવ્યમુંડન કહેવાય છે રાગ-દ્વેષ આદિને દૂર કરવા એ ભાવ-મુંડન છે બેઉ પ્રકારે મુંડિત થઈને સર્વવિરતિરૂપ સામાયિક આદિ ચારિત્રને પ્રાપ્ત થાય છે. (૧૮) जया मुंढे० या न्यारे भुडित ने सव वितिन प्राप्त थाय छे. અત્યંત પ્રશસ્ત નિરતિચાર થવાને કારણે સર્વશ્રેષ્ઠ નિશ્ચલ આચરણીય સવર Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. २०-संवरधर्मस्पर्शे कर्मर जोधुननम् ३४१ संवरं = संवियते = निरुध्यते आस्रवत्कर्म येन सः, यद्वा संवरणं संवरः = स्थगनम् । स द्रव्य-भावभेदाभ्यां द्विविधः । तत्र द्रव्यतस्तथाविधद्रव्येण (मसृणमृत्तिकादिना ) सलिलोपरि तरतरण्यादेरनारतमविशन्नीराणां विवराणां पिधानम्, भावतः - समिति-गुप्तिप्रभृतिभिरात्मतरण्यां क्षरस्कर्मसलिलानां स्थगनम् । अत्र च भावसंवरश्चारिलक्षणो गृह्यते, तं तल्लक्षणं धर्म स्पृशति = मामोति, अन्तःकरणत आत्मना सम्बन्धयतीत्यर्थः || १९ ॥ 1 २ ૫ ક 3 मूलम् - जया संवरमुक्किडं धम्मं फासे अणुत्तरं । ७ ४ ૧૦ ૯ तया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलु संकडं ॥ २० ॥ छाया - यदा संवरमुत्कृष्टं, धर्म स्पृशत्यनुत्तरम् । तदा धुनाति कर्मजो वोधिकलुषकृतम् ||२०|| सान्वयार्थः - जया = जब उक्कि अत्यन्त प्रशस्त अणुत्तरं = सर्वश्रेष्ठ संवरं = संवर धम्मं=धर्मको फासे = स्पर्श करता है, तया=तव अबोहिकलु संकर्ड=आत्माके मिथ्यात्व परिणाम द्वारा उपार्जित किये हुए कम्मर = कर्मरूपी रजको धुणइ= हटा देता है ||२०|| परिणाम से रुक जाते हैं उसे संवर कहते है । संवर, द्रव्य भावके भेद से दो प्रकारका है। जल पर चलती हुई नौका के छेदोंसे उसमें प्रवेश करनेवाले जलको चिकनी मिट्टी वस्त्र आदिसे बन्द कर देना द्रव्य-संवर है । आत्मारूपी नौकामें आस्रवरूपी छिद्रों द्वारा आनेवाले कर्मरूपी जलको रोक देना भाव-संवर है। यहां भाव-संवर अर्थात् चारित्रका अधिकार है । अर्थात् सर्वविरत मुनि भाव-संवर रूपी धर्मको प्राप्त करते हैं । अथवा अनुत्तर रूप से स्पर्श करते हैं, क्योंकि 'अनुत्तर' यह क्रियाविशेषण भी हो सकता है ॥ १९ ॥ ધર્માને સ્પર્શ કરે છે આવતાં ક્રમ જે આત્મપરિણામથી રોકાઈ જાય છે તેને ૫ વર કહે છે સ વર દ્રવ્ય-ભાવના ભેદે કરીને એ પ્રકારના છે. જળપર ચાલતી નૌકાના છિદ્રવાટે નૌકામાં પ્રવેશ કરનારા જળને ચીકણી માટી, વસ્ર આદિથી ખધ કરી દેવું તે દ્રવ્યસવર છે. આત્મારૂપી નૌકામાં આસવરૂપી છિદ્રોદ્વારા આવનારા કર્મરૂપી જળને રોકી દેવું એ ભાવ-સવર છે. અહીં ભાવસ વર એટલે ચારિત્રના અધિકાર છે અર્થાત્ સવિત મુનિ ભાવસવરૂપી ધર્મને પ્રાપ્ત કરે છે, અથવા અનુત્તર–રૂપે સ્પર્શ કરે છે, કારણકે ‘અનુત્તર’ એ ક્રિયાવિશેષણ પણ હોઇ શકે છે (૧૯) Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S ३४२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे टीका- 'जया संवर०' इत्यादि । यदा उत्कृष्टम् अनुत्तरं संवरं धर्मे स्पृशति तदा अवोधिकलुपकृतम् = बोधनं वोधिः = आत्मनः सम्यक्त्वपरिणामः तद्विपरीतोऽवोधिः = मिथ्यात्वाध्यवसायः स एव कलुषं पापं तेन कृतं जनितम् अवोधिकलुपकृतम्, तत्, 'कलुष' - मित्यत्रानुस्वार आर्षः । कर्मरजः = क्रियते = मिध्यात्वादिपरिणामैः सम्पाद्यते यत्तत् कर्म, तद्विधा द्रव्य भावभेदात्, तत्र द्रव्यतः कूपिकासंभृतकज्जलवत् सकललोकसंभृता आत्मना सह वद्धा वध्यमाना वन्धाश्च तथाविधपुद्गलपरमाणवः । भावतस्तु - आत्मनो रागद्वेपादिपरिणामः, अनयोश्च वीजवृक्षयोरनादिकालिककार्यकारणभाववत् पारस्परिककार्यकारणभावः, तथा च-द्रव्यकर्म भावकर्मणः कारणं कार्य च । भावकर्म च द्रव्य-कर्मणः ( कारणं कार्य च ) । 1 'जया संवर०' इत्यादि । जय साधु उत्कृष्ट अनुत्तर संवरधर्मको स्पर्श करते हैं तब आत्माके मिथ्यात्वपरिणामरूपी पापसे उत्पन्न हुए कर्मरूपी रजको धो डालते हैं । कर्मरज दो प्रकारका है (१) द्रव्यकर्मरज, और (२) भावकर्मरज । कुप्पीमें भरे हुए कज्जलकी तरह समस्त लोकाकाशमें व्याप्त तथा आत्मा के साथ बंधे हुए या बंधनेवाले और वंधते हुए विशेष प्रकारके ( कार्मण जातिके) पुद्गलपरमाणुओंको द्रव्यकर्म कहते हैं। आत्माके राग-द्वेष आदि विभाव परिणामोंको भावकर्म कहते हैं। वृक्षसे बीज उत्पन्न होता है और बीजसे वृक्ष उत्पन्न होता है। दोनों में कार्य कारणभाव अनादिकालीन है । इसी प्रकार द्रव्यकर्म और भावकर्ममें कार्य-कारण ના સંવર્॰ ઇત્યાદિ ત્યારે સાધુ ઉત્કૃષ્ટ અનુત્તર સવધર્મને સ્પર્શી કરે છે ત્યારે આત્માના મિથ્યાત્વ-પરિણામરૂપી પાપથી ઉત્પન્ન થએલા કર્માંરૂપ રજને પાઈ નાખે છે २०४ में प्रारनी छे. - (१) द्रव्य २०४, अने (२) लावउर्भर हुथ्यीभा ભરેલા કાજળની પેઠે સમસ્ત લેાકાકાશમાં વ્યાપ્ત તથા આત્માની સાથે . ધાચલા તથા બંધનારા અને ખ ધાતા વિશેષ પ્રકારના ( કાણુ જાતિના ) પુદ્દગલપરમાણુને દ્રવ્યક કહે છે આત્માના રાગ-દ્વેષ આદિ વિભાવ—પરિણામેને ભાવકમ` કહે છે. વૃક્ષથી ખીજ ઉત્પન્ન થાય છે અને ખીજથી વૃક્ષ ઉત્પન્ન થાય છે બેઉ કાટ્–કારણુભાવ અનાદિકાળના છે એ પ્રકારે દ્રવ્યકમ અને भाव Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. २०-द्रव्य-भावकर्मणोः कार्यकारणभाव: ३४३ - उक्तञ्च "जीवस्याशुद्धरागादिभावानां कर्म कारणम् । - कर्मणस्तस्य रागादिभावः प्रत्युपकारिवत् ॥१॥” इति । संसारी खल्वात्माऽनादिकालतः कर्म बध्नाति, तदुदयादात्मनि रागद्वेषाघुत्पत्तिः, तदनु यथा चविसंतप्तायःपिण्डः समन्तात् स्वसंसृष्टजलमाकर्षति तथाऽऽत्मैकक्षेत्रावगाहिकर्मपुद्गलानादत्ते, तैश्च रागादिकं भावकोत्पाद्यते, तच्च पुनरपि द्रव्यकर्मोंभाव है, अतः द्रव्यकर्म, भावकर्मका कारण भी है और कार्य भी है। कहाभी है "जीवके राग आदि अशुद्ध भावोंका कारण द्रव्यकर्म है और रागादि अशुद्ध भाव द्रव्यकर्मके कारण हैं । जैसे काई पुरुष किसीका उपकार कर देता है तो वह उपकृत पुरुष उस उपकारीका पीछा उपकार करता है ॥१॥" . संसारी जीव अनादिकालसे कर्मोंका बन्ध कर रहा है। उन बंधे हुए कर्मोंके उदय होनेपर आत्मामें राग-द्वेष आदिकी उत्पत्ति होती है। रागादिके उदय होनेपर जैसे तपा हुआ लोहेका गोला आस पासके जलको आकर्षित करता है वैसे ही आत्मा एकक्षेत्रावगाही अर्थात् जिस आकाशके प्रदेशमें आत्मा स्थित है उसी आकाश प्रदेश में स्थित कर्मके पुद्गलोंको ग्रहण करती है, उन रागादि-भावोंसे फिर द्रव्यकर्म કર્મમાં કાર્યકારણભાવ રહેલું છે તેથી દ્રવ્યકર્મ, ભાવકર્મનું કારણ છે અને કાર્ય પણ છે, તેમજ ભાવકર્મ દ્રવ્યકર્મનું કારણ છે અને કાર્ય પણ છે. કહ્યું છે કે “જીવના રાગાદિ અશુદ્ધ ભાવેનું કારણ દ્રવ્યકર્મ છે, અને રાગાદિ અશુદ્ધ ભાવ દ્રવ્યકર્મનું કારણ છે, જેમ કેઈ પુરૂષ કેઈને ઉપકાર કરે છે તે એ उपकृत ५३५ मेनो पाछ। ५४४२ ४रे छे. (१)" સસારી જીવ અનાદિ કાળથી કમેને બંધ કરી રહ્યો છે. એ બંધાયેલાં કર્મને ઉદય થતાં આત્મામાં રાગદ્વેષ આદિની ઉત્પત્તિ થાય છે. રાગાદિને ઉદય થતા જેમ તપાવેલ લેખડને ગેળે આસપાસના જળને આકર્ષિત કરી લે છે તેમ આત્મા એક-ક્ષેત્રાવાહી અર્થાત જે આકાશના પ્રદેશમાં આત્મા સ્થિત છે એ આકાશપ્રદેશમાં રહેલા કર્મના પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરે છે, એ રાગાદિ–ભાવેથી ફરી દ્રવ્યકર્મ બાંધે છે એ રીતે દ્રવ્યકર્મ અને ભાવકમ એક Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ན ३४४ श्रीदशवैकालिकसूत्रे त्पादयति, तदेव रज इत्र रजो जीवस्य मालिन्यहेतुत्वात् घातिकर्मचतुष्टयमित्यर्थः, तद् धुनाति = व्यपनयति = दूरीकरोतीत्यर्थः । कर्म रजोधुननं च यद्यपि धर्मध्यानेनापि जायते तथापि आत्यन्तिकतद्विधूननं शुक्लध्यानेनैव भवति, यथा मलापगमेन शुचिताधर्माभिसम्बन्धात् पटः शुक्ल इस्युच्यते तथा रागद्वेषमलापनयनाच्छुचिधर्मसम्बन्धाद् ध्यानमपि शुक्लमित्युच्यते, तच्चतुर्विधम्- (१) पृथक्त्ववितर्कसविचारम्, (२) एकत्ववितर्काविचारम्, (३) सूक्ष्मक्रियाऽनिवर्त्ति, (४) समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाति, इति । तत्र पूर्वगतश्रुतज्ञानानुसारेण ध्येयविशेषगतोत्पादादिनानापर्यायाणां द्रन्याबंधते हैं । इस प्रकार द्रव्यकर्म और भावकर्म एक दूसरेके उत्पादक हैं। इन्हीं कर्मोंको रज कहते हैं, क्योंकि ये आत्मामें मलिनता उत्पन्न कर देते हैं । संवरधर्मको ग्रहण करनेसे यह चार घातिकर्मरूपी रज दूर होजाती है । कर्मरजका दूर होना यद्यपि धर्म ध्यानसे होता है तथापि आत्य न्तिक रूपसे तो शुक्ल-ध्यान से ही होता है । जैसे मैलको दूर करनेसे शुचिताधर्म आजाता है, इसलिए वस्त्रको शुक्ल (सफेद) वस्त्र कहते हैं, इसी प्रकार राग-द्वेषरूपी मैलके हट जानेपर शुचिताधर्मके सम्बन्ध से ध्यान भी शुक्लध्यान कहलाता है । शुक्लध्यान चार प्रकारका है - (१) पृथक्त्ववितर्क - सविचार, (२) एकत्ववितर्क - अविचार, (३) सूक्ष्मक्रिय - अनिवर्त्ति, (४) समुच्छिन्नक्रियअप्रतिपाति । (१) पृथक्त्ववितर्क- पूर्वगत श्रुतज्ञानके अनुसार किसी ध्येय पदार्थकी બીજાનાં ઉત્પાદક છે એજ કાને રજ કહે છે, કારણ કે તે આત્મામાં મલિનતા ઉત્પન્ન કરે છે સવરધર્મીને ગ્રહણ કરવાથી એ ચાર ઘાતિકરૂપી રજ દૂર થઈ જાય છે જો કે કર્રીરજ ધર્મધ્યાનથી દૂર થાય છે તે પણ આત્મન્તિક રૂપથી તે શુકલ ધ્યાનથીજ થાય છે જેમ મેલ દૂર કરવાથી ચિંતા-ધર્મ આવી જાય છે તેથી વસ્ત્રને શુક્લ ( સફેદ ) વસ્ત્ર કહે છે, તેમ રાગદ્વેષરૂપી મેલ હુઠી જતાં શુચિતાધર્માંના સ ખ ધથી ધ્યાન પણ શુકલધ્યાન કહેવાય છે शुईस ध्यानना यार अक्षर हे (१) पृथत्ववित - सवियार, (२) ४त्ववितर्ड - अवियार, (3) सूक्ष्महिय अनिवर्ति, (४) समुच्छिन्नयि सप्रतिपाति. (૧) પૃથક્ વિત -પૂર્વગત શ્રુતજ્ઞાનને અનુસાર કઇ ધ્યેય પદાર્થીના ઉત્પાદ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. २०-शुक्लध्यानस्वरूपम् थिंक-पर्यायाथिकादिनानानयैरर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिसहितानुचिन्तनं पृथक्त्ववितर्कसविचारम् । तत्रार्थसंक्रान्तिस्तावत्-ध्येयस्यैकपर्यायपरित्यागेन पर्यायान्तरे, व्यञ्जने, योगे वा संक्रमः। व्यञ्जनं चात्र चतुर्दशपूर्वात्मकश्रुतसम्वन्धिशब्दाः, तत्रत्यं किञ्चिदेके व्यञ्जनमुपादाय ध्यानमारभ्य व्यञ्जनान्तरेऽर्थे योगे वा संक्रमणं व्यञ्जनसक्रान्तिः । योगसंक्रान्तिश्च पुनः काययोगतो मनोयोगे, मनोयोगतो वाग्योगे, इत्येवमेकस्माद् योगादन्यतरस्मिन् योगे संक्रमणम् । त्रिविधमेतत्संक्रमणं च ध्यातुरनिच्छायामपि तादृश-(असंक्रान्त)-ध्यानसंपादनसामर्थ्याभावाज्जायते । उत्पाद आदि पर्यायोंका द्रव्यार्थिक या पर्यायार्थिक आदि विविध नयोंसे, अर्थ, व्यञ्जन और योगकी संक्रान्ति सहित चिन्तन करना पृथक्त्ववितर्क शुक्ल ध्यान है। ध्येय वस्तुकी एक पर्यायको छोड़कर दूसरी पर्यायका ध्यान करना या व्यञ्जन अथवा योगमें संक्रान्त होजाना अर्थसंक्रान्ति है। यहाँ चौदह पूर्वरूप श्रुतके शब्दोंको व्यञ्जन कहा है। उन शब्दों में से किसी एक शब्दका ध्यान आरम्भ करके फिर किसी दूसरे व्यञ्जनका ध्यान करने लगना, अथवा अर्थ या योगमें संक्रान्त होजाना व्यञ्जनसंक्रान्ति हैं। काययोगसे मनोयोगमें, मनोयोगसे वचनयोगमें, इस प्रकार एक योगसें दुसरे योगमें संक्रान्त होजाना योगसंक्रान्ति है । यह तीनों तरहका संक्रमण ध्याताकी इच्छा न होनेपर भी उतनी अधिक सामर्थ्य न होनेके कारण होता है। આદિ નાના પ્રકારના પર્યાનું દ્રવ્યાર્થિક યા પર્યાયાર્થિક આદિ વિવિધ નથી, અર્થ વ્ય જન અને ગની સંક્રાન્તિસહિત ચિંતન કરવું એ પૃથફવિતક શુકલધ્યાન છે, ધ્યેયવસ્તુના એક પર્યાયને છોડીને બીજા પર્યાયનું ધ્યાન કરવું યા વ્યંજન અથવા રોગમાં સક્રાન્ત થઈ જવું એ અર્થસંક્રાતિ છે. અહીં ચોદ પૂર્વરૂપ શ્રતના શબ્દોને વ્યંજન કહેલ છે, એ શબ્દોમાંથી કેઈએક શબ્દનું ધ્યાન આરંભીને પછી કઈ બીજા વ્યંજનનું ધ્યાન લગાવવું અથવા અર્થે યા ાગમાં સંક્રાન્ત થઈ જવું એ વ્ય જનસ ક્રાન્તિ છે કાયયેગથી મને ગમા, મનેયેગથી વચનગમાં, એ પ્રકારે એક યેગથી બીજા એગમાં સંક્રાન્ત થઈ જવું એ યંગસ ક્રાન્તિ છે એ ત્રણે જાતનું સક્રમણ, ધ્યાતાની ઈચ્છા ન હોવા છતાં પણ એટલું અધિક સામર્થ્ય ન હોવાને કારણે થાય છે. Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ श्रीदशवैकालिकसूत्रे इदमत्र तात्पर्यम्— अत्र पूर्वगताः शब्दास्तदर्था वा ध्येया भवन्ति, परन्तु ध्यातुस्तादृशं सामर्थ्य न भवति येन स कञ्चिदेकं शब्दं वाऽर्थे वा ध्यायेत्, अत एव कञ्चिदेकमर्थ तत्पर्यायं वा परित्यज्येतरमर्थमितरपर्यायं वा ध्यायति । इदमेव च परिवर्त्तनं संक्रमणशब्देनोच्यते । उक्तश्च " अर्थादर्थान्तरे शब्दाच्छन्दान्तरे च संक्रमः । योगाद् योगान्तरे यत्र, सविचारं तदुच्यते ॥ द्रव्याद् द्रव्यान्तरं याति गुणाद् याति गुणान्तरम् । पर्यायादन्यपर्याय, सपृथक्त्वं भवत्यतः ॥” इति, तात्पर्य यह है कि इस ध्यानमें पूर्वगत शब्द या उसके अर्थका ध्यान किया जाता है, किन्तु इतनी सामर्थ्य नहीं होती कि एक ही शब्द या एक ही अर्थका ध्यान करते रहें, अत एव एक पदार्थ या उसकी पर्यायकों छोड़ कर दूसरी पर्यायका ध्यान करते हैं । इसी प्रकारके परिवर्तन या बदलनेको संक्रमण कहते हैं । कहा भी है 66 ' एक अर्थसे दूसरे अर्धमें, एक शब्दसे दूसरे शब्दमें, तथा एक योगसे दूसरे योगमें संक्रमण होता है, अतः उसे सविचार ( संक्रान्ति) कहते हैं ॥१॥ अर्थ व्यञ्जन और योगकी संक्रान्ति रूप होते हुए निज शुद्ध आत्मद्रव्यको एक गुणसे दूसरे गुणको, एक पर्यायसे दूसरी पर्यायको, प्राप्त होता है, अतः उसे पृथक्त्व कहते हैं ||२||" તાપ એ છે કે—આ ધ્યાનમાં પૂગત શબ્દ ચા તેના અર્થનું ધ્યાન કરવામાં આવે છે, કિંતુ એટલુ સામ` હતુ` નથી કે એકજ શબ્દ યા એકજ અર્થનું ધ્યાન કરતા રહે તેથી કરીને એક પદાર્થોં યા એના પર્યાયને ઇંડીને ખીજા પર્યાયનું ધ્યાન કરે છે આ પ્રકારના પરિવર્તનને ચા દલાવાને સક્રમણુ उडे छे. अधुं छे - “ એક અર્થથી ખીજા અર્થમા, એક શબ્દથી ખીજા શબ્દમાં તથા એક ચેગથી બીજા ચેગમાં સ ક્રમજી થાય છે, તેથી તેને વિચાર ( સ ક્રાન્તિ ) हे छे (१) અ બ્ય જન અને યાગની સંક્રાન્તિરૂપ થતા નિજ શુદ્ધ આત્મ દ્રવ્યને, એક ગુણથી ખીન્ન ગુણને, એક પર્યંચથી ખીજા પર્યાયને પ્રાપ્ત થાય છે, તેથી તેને સસ્પૃહ્ત્વ કહે છે. ” (ર) Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४गा. २० - शुक्लध्यानस्वरूपम् ३४७ नन्वर्थव्यञ्जनयोगान्तरेषु संक्रान्तस्य मनसः स्थैर्यासम्भवाद् ध्यानत्वमनुपपनमिति चेन, एकमेव ध्येयं लक्ष्यीकृत्य प्रवृत्तस्य ध्यानस्यार्थादौ संक्रमणेऽपि ध्येयैकमात्रोद्देश्यकतया मनःस्थिरीकरणरूपाया ध्यानक्रियायास्तत्रापि सद्भावात् । इदं च ध्यानं भङ्गश्रुतपाठकानां योगत्रयवतां वा मुनिपुङ्गवानां भवति । अनेन ध्यानेन क्षपकश्रेण्यां समारूढो मुनिरष्टमगुणस्थानादारभ्य क्रमशो दशमगुणस्थानचरमसमये बलवदपि मोहनीयकर्म क्षपयित्वा द्वितीयध्यानमाश्रित्य द्वादशं गुणस्थानमधिरोहति । उपशमश्रेण्यां समारूढस्तु तदानीं मोहनीयकर्म शमयित्वा एकादशमुपशान्तमोहगुणस्थानमारोहति । इदं च प्रथमं ध्यानमष्टमगुणस्थानादारभ्य क्षपकश्रेण्य प्रश्न - हे गुरुमहाराज ! इस ध्यानमें अर्थ, व्यञ्जन और योगोंमें मन संक्रान्त होता रहता है, इस कारण स्थिरता नहीं रह सकती; फिर इसे ध्यान कैसे कह सकते हैं ? | उत्तर - हे शिष्य ! परिवर्तन तो होता रहता है, परन्तु ध्येय एक ही रहता है | ध्येयकी एकता के कारण यह ध्यान कहलाता है । यह ध्यान पूर्वधारी तीन योगवाले श्रेष्ठ मुनियोंको ही होता है। इस ध्यान से दशर्वे गुणस्थानके अन्त समयमें क्षपकश्रेणीमें आरूढ मुनि बलवान् मोहनीय कर्मका क्षय करके बाहरवें गुणस्थान में पहुँच जाते हैं, और यदि उपशमश्रेणिमें आरूढ हों तो ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान में जाते हैं । यह प्रथम ध्यान उपशमश्रेणीकी अपेक्षासे आठवें પ્રશ્ન—હે ગુરૂમહારાજ ! આ ધ્યાનમા અર્થ વ્યંજન અને યાગમા મન સંક્રાન્ત થયા કરે છે તે કારણથી સ્થિરતા રહી શકતી નથી, તે પછી તેને ધ્યાન કેમ કહી શકાય ? ઉત્તર——હે શિષ્ય ! પરિવર્તન તા થયા કરે છે, પરન્તુ ધ્યેય એકજ રહે છે ધ્યેયની એકતાને કારણે એ ધ્યાન કહેવાય છે એ ધ્યાન પૂર્વાધારી ત્રણ ચેગવાળા શ્રેષ્ઠ મુનિએને જ થાય છે. આ ધ્યાનથી દસમા ગુણુસ્થાનના અત સમયે ક્ષષકશ્રેણીમા આઢ મુનિ મળવાન્ મેાહનીય–કમના ક્ષય કરીને ખારમા ગુણસ્થાનમા પહેાચી જાય છે, અને જે ઉપશમ-શ્રેણીમા આરૂઢ હેય તેા અગ્યારમા ઉપશાન્તમે ગુણુસ્થાનમા જાય છે એ પ્રથમ ધ્યાન, ઉપશમ-શ્રેણીની અપેક્ષાએ કરીને આઠમા ગુણસ્થાનથી લઈને Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ % 3D श्रीदशवकालिकमूत्रे पेक्षया दशमगुणस्थानं यावत् , उपशमश्रेण्यपेक्षया तु एकादशगुणस्थानं यावद्भवतीति विवेकः । (२) ततश्चैकत्ववितर्काऽविचारमारभते, यथा सिद्धगारुडिकादिमन्त्रः सकलशरीरस्यापि विषमं विषं मन्त्रसामर्थन सर्वावयवेभ्यः समाकृष्य दंशस्थाने समानीय संस्तम्भयति, तथा पूर्वगतश्रुतानुसारतोऽर्थ-व्यञ्जन-योगसंक्रान्तिराहित्येनाशेषविषयेभ्यः संहृत्यैकस्मिन्नेव पर्याये योगस्य निर्वातस्थाने दीपशिखावस्थिरीकरणम्-एकत्ववितर्काऽविचारम् । गुणस्थानसे लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक होता है। क्षपकश्रेणीकी अपेक्षासे तो अष्टमसे लेकर दशम गुणस्थान तक होता है, ग्यारहवाँ गुणस्थान उपशान्तमोह होनेसे क्षपकश्रेणीमें आरूढ मुनि उसका स्पर्श न करते हुए दूसरे ध्यानका आरम्भ करके यारहवें गुणस्थान में जाते हैं । (२) एकत्ववितर्क-अविचार-जैसे मन्त्र जाननेवाला पुरुष समस्त शरीरमें व्याप्त विषको मंत्रकी शक्तिद्वारा अन्य-अन्य अवयवोंसे खींचकर दंशस्थान (जहां विषैला जन्तुने काटा है उस जगह ) पर स्तंभित कर देता है, वैसे ही पूर्वगत श्रुतके अनुसार अर्थ, व्यञ्जन और योगोंके परिवर्तनसे रहित होकर समस्त विषयोंसे विमुख होकर एक ही पर्यायके ध्यानमें वायुरहित स्थानमें रखे हुए दीपककी शिखा के समान स्थिर होजाना 'एकत्ववितर्क' ध्यान कहलाता है ।। અગ્યારમા ગુણસ્થાન સુધી થાય છે ક્ષપક–ણની અપેક્ષાએ કરીને તે આઠમાથી લઈને દસમા ગુણસ્થાન સુધી થાય છે; અગ્યારમું ગુણસ્થાન ઉપશાન્તમેહ હેવાથી ક્ષપક શ્રેણીમાં આરૂઢ મુનિ એને સ્પર્શ ન કરતા બીજા ધ્યાનને આર ભ કરીને બારમા ગુણસ્થાનમાં જાય છે (૨) એકત્વવિતર્ક-અવિચાર–જેમ મંત્ર જાણવાવાળો પુરૂષ આખા શરીરમાં વ્યાપેલા વિષને મત્રની શકિત દ્વારા અન્ય અન્ય અવયવમાંથી ખેચી લઈને દંશસ્થાન ( ત્યા ઝેરી જંતુ કરડે હોય તે સ્થાન) પર સ્ત ભિત કરી દે છે, તેમ પૂર્વગત શ્રતને અનુસાર અર્થ વ્ય જન અને યુગના પરિવર્તનથી રહિત થઈને બધા વિષયેથી વિમુખ થઈ એકજ પર્યાયના ધ્યાનમાં, વાયુહિત સ્થાનમાં રાખેલા દીપકની શિખાની પેઠે સ્થિર થઈ જવુ એ “એકવિતક” કહેવાય છે Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. २०-शुक्लध्यानस्वरूपम् ३४९ - अयमाशयः-प्रथमं ध्यानं सपृथक्त्वं भवति, इदं तु पृथक्त्वरहितम् । अत्रैकमर्थं विहायार्थान्तरे, तथैकं शब्दं विहाय शब्दान्तरे, तथा योगाद् योगान्तरे संक्रमणं न भवति तस्मादिदमेकत्ववितर्काभिधानं ध्यानमिति । इदं च ध्यानं मनोवाकाययोगान्यतमवतामेव महामुनीनां जायते, अत्र योगानां संक्रमणाभावात् । तथा चोक्तम्-"निजात्मद्रव्यमेकं वा, पर्यायमथवा गुणम् । निश्चलं चिन्त्यते यत्र, तदेकत्वं विदुर्बुधाः ॥१॥ यद्वन्यञ्जनार्थयोगेषु, परावर्त्तविवर्जितम् । चिन्तनं तदविचारं, स्मृतं सद्धयानकोविदः ॥२॥” इति ।। तात्पर्य यह है कि पहला ध्यान पृथक्त्व (अनेकप्रकारता) सहित होता है किन्तु दूसरे भेदमें पृथक्त्व नहीं रहता। इसमें एक अर्थसे दूसरे अर्थमें संक्रमण नहीं होता, इसलिए इसे एकत्ववितर्क-ध्यान कहते हैं । ____ यह ध्यान मन वचन काय योगोंमें से किसी एक योगवाले मुनिराजको ही होता है, अर्थात् इस ध्यानके समय एक ही योगमें स्थिर रहते हैं, क्योंकि इसमें योगोंका संक्रमण नहीं होता। कहा भी है___"जिस ध्यानमें केवल निज आत्मा का अथवा उसकी एक पर्यायका या एक गुणका ध्यान किया जाता है उसे 'एकत्व' कहते हैं ॥१॥ जो व्यञ्जन अर्थ और योगोंके परिवर्तनसे.रहित चिन्तन किया जाता है उसे 'अविचार' कहते हैं ॥२॥" તાત્પર્ય એ છે કે પહેલું ધ્યાન પૃથફત્વ (અનેક-પ્રકારતા) સહિત હોય છે કિન્તુ બીજા ભેદમાં પૃથકત્વ રહેતું નથી. એમાં એક અર્થમાંથી બીજા અર્થમાં, એક શબ્દમાંથી બીજા શબ્દમાં અને એક ચેગમાંથી બીજા એગમાં સંક્રમણ થતું નથી, તેથી એને એકત્પવિત ધ્યાન કહે છે એ ધ્યાન મન વચન કાયાના એગોમાંના કેઈ એક વેગવાળા મુનિરાજનેજ થાય છે, અર્થાત્ એ ધ્યાનને સમયે એકજ યેગમાં સ્થિર રહે છે, કારણ કે એમાં ગોનું સંક્રમણ થતુ નથી કહ્યું છે કે જે ધ્યાનમાં કેવળ નિજ આત્માનું અથવા એના એક પર્યાયનું યા એક ગુણનું ધ્યાન કરવામાં આવે છે, તેને “એકત્વ કહે છે (૧) વ્યંજન અર્થ અને ગોના પરિવર્તનથી રહિત ચિંતન કરવામાં આવે છે તેને “અવિચાર ४ छ. (२)" Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे ___इदं ध्यानं क्षीणमोहनीयगुणस्थाने एव भवति, एतद्धयानचरमसमये क्षपकश्रेण्यारूढो मुनिर्ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीयमन्तरायाख्यं च, त्रीणि कर्माणि युगपत् क्षपयति, अस्य ध्यानस्य फलं च केवलज्ञानकेवलदर्शनाऽनन्तवीर्यपाप्तिरेव, प्रकृतध्यानद्वयमन्तरेण केवलज्ञानं लब्धुमशक्यम् । एतच्चोभयं ध्यानं छद्मस्थानां जायते, तृतीयचतुर्थे तु केवलिनामेव भवत इति वोद्धव्यम् ॥२०॥ घातिकमक्षयजनितफलं प्रदर्शयितुमुक्रमते-'जया धुणइ' इत्यादि । मूलम्-जया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलसंकडं । तया सबत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छइ ॥२१॥ छाया-यदा धुनाति कर्मरजोऽवोधिकलपकृतम् । तदा सर्वत्रगं ज्ञानं, दर्शनं चाभिगच्छति ॥२१॥ सान्वयार्थः-जया जब अबोहिकलुसंकडं-आत्माके मिथ्यात्वपरिणामद्वारा उपार्जित किये हुए कम्मरयं-कर्मरूपी रजको धुणइ हटा देता है, तया= तव सव्वत्तगं-सब जगह जानेवाले-सव पदार्थों को जाननेवाले नाणं-ज्ञानको च=और दसणं-दर्शनको अभिगच्छइ-माप्त करता है ॥२१॥ _ यह ध्यान क्षीणमोहनीय गुणस्थानमें ही होता है । इस ध्यानके अन्तमें ज्ञानावरणीय,दर्शनावरणीय और अन्तराय नामक तीन घातिकर्मोंका एक साथ ही क्षय हो जाता है । इस ध्यानका फल केवलज्ञान, केवलदर्शन और अनन्तवीर्यकी प्राप्ति है। इन दोनों ध्यानोंके विना केवलज्ञान नहीं प्राप्त होसकता । ये दोनों ध्यान छद्मस्थोंको होते हैं, तथा तीसरा और चौथा ध्यान केलियों को होता है ॥२०॥ घातिकर्मोंके क्षय होनेसे उत्पन्न होनेवाला फल घतलाते हैं-'जया धुणइ' इत्यादि । એ ધ્યાન ક્ષીણમેહનીય ગુણસ્થાનમાં જ થાય છે એ ધ્યાનના અંતમાં જ્ઞાનાવરણીય, દર્શનાવરણીય અને અન્તરાય નામનાં ત્રણ ઘાતિ-કમેને એકીસાથે જ ક્ષય થઈ જાય છે એ ધ્યાનનું ફલ કેવળ જ્ઞાન, કેવળ દર્શન અને અનંત વીર્યની પ્રાપ્તિ છે એ બેઉ ધ્યાન વિના કેવળ જ્ઞાન પ્રાપ્ત થઈ શકતું નથી એ બેઉ ધ્યાન છદ્રસ્થાને થાય છે, તથા ત્રીજું અને ચોથું ધ્યાન કેવળીઓને थाय छे. (२०) घाती भनि। क्षय थवाथी पनि थना३३१ मतावे -जया धुणइ ईत्यादि Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. २१-कर्मरजोधुनने केवलज्ञानप्राप्तिः टीका-यदाऽबोधिकलुषकृतं कर्मरजो धुनाति तदा सर्वत्रगं सर्वत्र गच्छति व्यामोतीति सर्वत्रगं सकललोकालोकव्यापि तत्, ज्ञान ज्ञायन्ते परिच्छियन्ते द्रव्य-गुण-पर्यायादयोऽनेनेति ज्ञानं केवलज्ञानमित्यर्थस्तत्, दर्शनं-दृश्यन्ते-साक्षाक्रियन्ते द्रव्यादयो येनेति दर्शनम् केवलदर्शनमित्यर्थस्तत् । “सामान्यार्थावबोधो दर्शनं, विशेषार्थावबोधो ज्ञान"-मित्युभयोर्भेदः, तथाहि "ज सामण्णग्गहणं ईसणमेयं विसेसियं नाणं" इति, चः समुच्चये, अभिगच्छतिकमजनितसकलाऽऽवरणाभावादतिशयेन सम्पामोति सयोगिकेवलिगुणस्थानमारोहतीत्यर्थः ॥२१॥ केवलज्ञान-केवलदर्शनयोः फलमाह-'जया सव्वत्तगं' इत्यादि । जब साधु मिथ्यात्वरूपी पापसे उत्पन्न हुए कर्मरजको नष्ट कर देते है तब समस्त लोकाकाश और अलोकाकाशमें व्यापी द्रव्य पर्यायोंको जाननेवाला केवलज्ञान तथा केवलदर्शन प्राप्त होता है। पदार्थोंका सामान्य ज्ञान होना दर्शन है और विशेष ज्ञान होना ज्ञान है, यही दोनोंमें भेद है, कहाभी है "सामान्यका ग्रहण होना दर्शन है और विशेष का ग्रहण होना ज्ञान है।" कर्मोंसे उत्पन्न हुए समस्त आवरणोंके अभावसे इन दोनों (ज्ञानदर्शन)को प्राप्त करते हैं ॥२१॥ केवलज्ञान और केवलदर्शन का फल कहते हैं-'जया सव्वत्तगं' इत्यादि । જ્યારે સાધુ મિથ્યાત્વરૂપી પાપથી ઉત્પન્ન થએલી કરજને નષ્ટ કરી નાખે છે, ત્યારે સમસ્ત કાકાશ અને અલકાકાશમાં વ્યાપેલા દ્રવ્ય પર્યાને જાણવાવાળું કેવળજ્ઞાન તથા કેવળદર્શન પ્રાપ્ત થાય છે. પદાર્થોનું સામાન્ય જ્ઞાન થવું એ દર્શન છે અને વિશેષ જ્ઞાન થવું એ જ્ઞાન છે. એ બેઉમા ભેદ છે કહ્યું છે કે – સામાન્યનું ગ્રહણ થવું એ દર્શન છે. અને વિશેષનું ગ્રહણ થવું એ ज्ञान छे." કથી ઉત્પન્ન થએલા સર્વ આવરણના અભાવથી એ બેઉ (જ્ઞાન-દર્શન)ને प्रास ४२ छे (२१) सज्ञान मने दर्शन ॥ ४९ -जया सन्चत्तगं त्यादि Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ १. ११७ १२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे मूलम्-जया सवत्तगं नाणं, दसणं चाभिगच्छइ। तया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली ॥२२॥ छाया-यदा सर्वत्रगं ज्ञानं, दर्शनं चाभिगच्छति । तदा लोकमलोकं च, जिनो जानाति केवली ॥२२|| सान्वयार्थः-जया जव सव्वत्तगं-सव जगह जानेवाले-सव पदार्थों को जाननेवाले नाणं-ज्ञानको च और दंसणं-दर्शनको अभिगच्छइ-माप्त करता है, तया तव जिणोधीतराग केवली केवलज्ञानी होते हुए लोगमलोगं च= लोक और अलोकको जाणइ-जानते हैं ||२२|| ___टीका-यदा केवलज्ञानं केवलदर्शनं च प्राप्नोति तदा जिना यातिकर्मविजेता, केवली केवलज्ञानी सन् लोकं लोक्यत इति लोकस्तं जानाति-करतलामलकबज्ज्ञानविषयीकरोति । आह-ननु कोऽयं लोकपदार्थः? यदि केनचिदेको ग्रामोऽवलोकितस्तर्हि किं तावानेव लोकः? न, अपरेण ततोऽप्यधिकग्रामदर्शनात् । तर्हि यावद् ग्रामादिक जब सर्वव्यापी ज्ञान तथा दर्शनको प्राप्त करते हैं तब केवली होकर लोक और अलोकको जानते हैं । जो देखा जाता है उसे लोक कहते हैं। प्रश्न-यदि किसीने एक ग्राम देखा हो तो लोक क्या उतना ही होगा ? उत्तर-उतना ही नहीं होगा, क्योंकि दूसरे उससे अधिक ग्राम देखते हैं ? प्रश्न-तो हमलोग जितने ग्रामोंको देखते हैं उतना ही लोक है ? જ્યારે સર્વવ્યાપી જ્ઞાન તથા દર્શનને પ્રાપ્ત કરે છે ત્યારે કેવળી થઈને લેક અને અલકને જાણે છે. જે જોઈ શકાય તેને લેક કહે છે. પ્રશ્ન –જે કોઈએ એક ગ્રામ જેયું હોય તે લેક શું એટલે જ હોય ? ઉત્તર–એટલે જ નહિ હોય, કારણ કે બીજાઓ એથી વધારે ગ્રામે જુએ છે પ્રશ્ન—તે આપણે જેટલાં ગ્રામને જોઈએ છીએ એટલે જ લેક છે? Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अध्ययन ४ गा. २२ - लोकस्वरूपम् ३५३ मस्माभिरवलोक्यते तावानेव लोकः ?, नहि, अनन्तज्ञानसम्पन्नेन सर्वज्ञेन यो लोक्यते स लोक इति । नन्वेतेनाऽलोकस्यापि लोकत्वप्रसङ्गस्तस्यापि सर्वज्ञेनावलोकितत्वात्, तथाचालोकोऽपि किं लोकः ? न, यतो लोक्यते धर्मास्तिकायाद्याधारभूत आकाशविशेषो यः स लोक इत्यवधार्यम् । स च कटितटोभयपार्श्वतो निहितहस्तद्वयो विस्फारितपादयुगलोऽवस्थितः पुरुष इव नृत्यद्वैवोपासकाकृतिको वा ऊर्ध्वाऽध-- स्तिर्यग्भेदभिन्नश्चतुर्दशरज्जुपरिमितोऽसंख्यातमदेशात्मक आकाशविशेषस्तम् । तद्विपरीतोऽलोकः । उत्तर - उतना ही नहीं है । अनन्तज्ञानी सर्वज्ञ भगवान् द्वारा जितना देखा जाता है उतना लोक है । प्रश्न - केवली भगवान् अलोकको भी देखते हैं तो उनके देखनेसे अलोक भी लोक हो जायगा ? उत्तर - नहीं होगा । भगवान् ने धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का आधारभूत जो आकाश देखा है उसे लोक कहते हैं, ऐसा समझना चाहिये । वह लोक कमरपर दोनों हाथ रखकर, पैर फैलाकर खड़े हुए पुरुष के आकार का, अथवा नाचते हुए भैरवोपासक (भोपा) की आकृतिका है। इसके तीन भेद हैं- (१) उदूर्ध्वलोक, (२) मध्यलोक, (३) अधोलोक । यह चौदह राजू जितना ऊंचा और असंख्यात - प्रदेशमय है । अलोकाकाश इससे विपरीत है । ઉત્તર——એટલે જ નહિ, અનંતજ્ઞાની સન ભગવાનદ્વારા જેટલે જોવાય છે એટલે લેાક છે. પ્રશ્ન—કેવળી ભગવાન્ તે અલેાકને પણ જુએ છે તેા અલાક પણ લેક થઈ જશે ? ઉત્તર—નહિ થાય ભગવાને ધર્માસ્તિકાય આદિ દ્રવ્યેાનું આધારભૂત જે આકાશ જોયુ છે અને લેાક કહે છે, એમ સમજવું જોઇએ. એ લેક કમર પર બેઉ હાથ રાખીને, પગ ફેલાવીને ઊભેલા પુરૂષના આકારને, અથવા નાચતા ભૈરવેપાસક (ભુવા)ની આકૃતિને છે તેના ત્રણ ભેદ છે (१) अह्नध्वंसोड, (२) मध्यलोङ, (3) अधोलो मे यौह रानू नेवडा उथो अने અસખ્યાત પ્રદેશમય છે. અલેાકાકાશ એથી વિપરીત છે એમના જોવાથી Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३५४ · श्रीदशवैकालिकसूत्रे अस्तु लोको जीवपुद्गलादीनामनाधारतयाऽवस्थानासम्भवात् , अलोकस्तु कयम् ?, तस्याऽमूतत्वेनेन्द्रियागोचरतयाऽस्तित्वसाधकप्रमाणाभावात् , इन्द्रियागोचरे चार्थे मनःप्रवृत्तेः कदाऽप्यसम्भवादिति न शङ्कनीयम् , इन्द्रियनोइन्द्रियविषयत्वाभावमात्रदर्शनेन तदस्तित्वनिराकरणस्याऽशक्यत्वात् , अन्यथा हि प्रपितामहादीनामपि तत एवाभावः प्राप्नुयात् । यतः 'आसन् प्रपितामहादयोऽस्मादादिशरीरस्याऽन्यथाऽनुपपन्नत्वात्' इत्यनुमानेन तेषामस्तित्वं साध्यते चेदलोकस्याप्यनुमानेन सिद्धिरनवथैव, तथाहि प्रश्न-जीव और पुद्गल आदि विना आधारके नहीं ठहर सकते; अतः लोकाकाश मानना तो ठीक है, परन्तु अलोकाकाशके अस्तित्वमें क्या प्रमाण है ?, कारण यह कि इन्द्रियोंका यह विषय नहीं है, क्योंकि अमूर्त है। जिस विषयमें इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति नहीं होती उसमें मन भी प्रवृत्त नहीं हो सकता। अत एव न इन्द्रियोंसे अलोकाकाशको जान सकते हैं और न मनसे । .. उत्तर-यह प्रश्न ठीक नहीं है, क्योंकि इन्द्रिय और मनका विषय न होनेसे उसके अस्तित्वका खण्डन नहीं हो सकता, अन्यथादादे परदादे आदि पूर्वजोंका भी अस्तित्व सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि वे भी इन्द्रिय और मनके विषय नहीं होते। यदि कोई इस अनुमानसे पूर्वजोंका अस्तित्व सिद्ध करे कि-पितामह (दादा) आदि पूर्वजोंका किसी समयमें -अस्तित्व था, क्योंकि उनके विना हमारा शरीर नहीं बन सकता तो अनुमानसे ही अलोककी भी सिद्धि मान लेनी चाहिए। अनुमान यह है પ્રશ્ન-જીવ અને પુદગલ આદિ આધાર વિના રહી શકતા નથી, તેથી લેકાકાશ માનવું એ તે બરાબર છે, પરંતુ એકાકાશના અસ્તિત્વને શું પ્રમાણ છે ?, કારણ એ છે કે ઈદ્રિયને એ વિષય નથી કેમકે અમૂર્ત છે. જે વિષયમાં ઈન્દ્રિયની પ્રવૃત્તિ થતી નથી તેમાં મન પણ પ્રવૃત્ત થઈ શકતું નથી એથી કરીને ઈન્દ્રિયેથી અકાકાશને જાણી શકાતું નથી તેમજ મનથી પણ જાણી શકાતું નથી. ઉત્તર–એ પ્રશ્ન બરાબર નથી કેમકે ઈન્દ્રિય અને મનને વિષય ન હોવાથી તેના અસ્તિત્વનું ખડન થઈ શકતું નથી એમ તે દાદા પડદાદા આદિ પૂર્વનું પણ અસ્તિત્વ સિદ્ધ નહિ થાય, કેમકે તે પણ ઈન્દ્રિય અને મનના વિષય નથી હતા જે કઈ અનુમાનથી પૂર્વજોનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ કરે કે પિતામહ (દાદા) આદિ પૂર્વજોન કેઈ સમયે અસ્તિત્વ હતું, કારણું કે એના વિના આપણું શરીર બની શકે નહિ, તે અનુમાનથી જ અલેકની પણ સિદ્ધિ માની લેવી જોઈએ, અનુમાન એ છે કે Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. २२ - अलोकस्वरूपम् ३५५ लोकः सप्रतिपक्षः, व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदाभिधेयत्वात्, यो हि व्युत्पत्ति - मच्छुद्धपदाभिधेयः स सप्रतिपक्ष एव भवति, यथा घटः । यश्च लोकप्रतिपक्षः स एव सद्भूतोऽलोकः, अस्तित्ववत एव प्रतिपक्षित्वसम्भवात् । ननु 'न लोकोऽलोक:' इति व्युत्पत्त्या घटादिष्वन्यतम एवालोकः सिध्यति किं पदार्थान्तरकल्पनया ? इति चेदुच्यते- 'न लोक:' इत्यत्र नवः पर्युदासार्थक लोक अपने प्रतिपक्ष (विरोधी - अलोक) की अपेक्षा रखता है, क्योंकि वह व्युत्पत्तिवाले समासरहित पदका वाच्य (अर्थ) है । जो जो व्युत्पत्तिवाले समासरहित पदका वाच्य होता है वह प्रतिपक्षसहित ही होता है, जैसे घट । घट व्युत्पत्तिवाला है और समासरहित है, अर्थात् दो पद मिल कर नहीं बना हुआ है, अत एव घटके प्रतिपक्ष अघट-पट, मुकुट, शकट, कट आदि भी अवश्य होते हैं । लोकका जो प्रतिपक्ष है वह अस्तित्ववान् अलोक है, क्योंकि अस्तित्ववान् पदार्थ ही किसीका प्रतिपक्ष हो सकता है । गधेका सींग आदि नास्तित्ववान् पदार्थ किसीके प्रतिपक्ष नहीं होते | प्रश्न- ' जो लोक नहीं वह अलोक है' ऐसा माननेसे लोकसे भिन्न जितने घट पट आदि पदार्थ हैं वे सब अलोक होंगे, क्योंकि वे लोक नहीं है - लोकसे भिन्न हैं । फिर घट आदि पदार्थोंसे भिन्न एक अलग अलोक क्यों मानते हो ? पोताना प्रतिपक्ष ( विरोधी असो! ) नी अपेक्षा राखे छे, કારણ કે એ વ્યુત્પત્તિવાળા સમાસરહિત શબ્દના વાચ્ય ( અ ) છે. જે વ્યુત્પત્તિવાળા સમાસરહિત શબ્દના વાચ્ચ હાય છે તે પ્રતિપક્ષસહિત જ હાય છે જેમ ઘ, ઘટ વ્યુત્પત્તિવાળા છે અને સમાસરહિત છે, અર્થાત્ ખે शण्डो भणवाथी मनेसेो नथी, तेथी घटना प्रतिपक्ष-अघट-पट, भुभुट, शउट, કટ આદિ પણ અવશ્ય હેય છે લેકના જે પ્રતિપક્ષ છે તે અસ્તિત્વવાન્ અલેક છે, કારણુ કે અસ્તિત્વવાન્ પદાર્થ જ કોઇના પ્રતિપક્ષ થઈ શકે છે ગધેડાનું શીંગડું વગેરે નાસ્તિત્વવાન્ પદાથ કાષ્ઠના પ્રતિપક્ષ થતા નથી. પ્રશ્ન~~ જે લેાક નથી તે અલેાક છે’ એમ માનવાથી લેાકથી ભિન્ન જેટલા ઘટ પટ આદિ પદાર્થા છે તે ખધા અલાક થશે, કારણ કે તે લેક નથી—àાકથી ભિન્ન છે પછી ઘટ આદિ પદાર્થાથી ભિન્ન એક જૂદા અલાક કેમ માનેા છે ? Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ श्रीदशवैकालिकसूत्रे अस्तु लोको जीवपुद्गलादीनामनाधारतयाऽवस्थानासम्भवात् , अलोकस्तु कथम्?, तस्याऽमूर्त्तत्वेनेन्द्रियागोचरतयाऽस्तित्वसाधकप्रमाणाभावात् , इन्द्रियागोचरे चार्थे । मनःप्रवृत्तेः कदाऽप्यसम्भवादिति न शङ्कनीयम् , इन्द्रियनोइन्द्रियविषयत्वाभावमात्र. दर्शनेन तदस्तित्वनिराकरणस्याऽशक्यत्वात् , अन्यथा हि प्रपितामहादीनामपि तत एवाभावः प्राप्नुयात् । यतः 'आसन् प्रपितामहादयोऽस्मादादिशरीरस्याऽन्यथाऽनु. पपन्नत्वात्' इत्यनुमानेन तेपामस्तित्वं साध्यते चेदलोकस्याप्यनुमानेन सिदिरनवथैव, तथाहि- प्रश्न-जीव और पुद्गल आदि विना आधारके नहीं ठहर सकते; अतः लोकाकाश मानना तो ठीक है, परन्तु अलोकाकाशके अस्तित्वमें क्या प्रमाण है ?, कारण यह कि इन्द्रियोंका यह विषय नहीं है, क्योंकि अमूर्त है । जिस विषयमें इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति नहीं होती उसमें मन भी प्रवृत्त नहीं हो सकता । अत एव न इन्द्रियोंसे अलोकाकाशको जान सकते हैं और न मनसे । उत्तर-यह प्रश्न ठीक नहीं है, क्योंकि इन्द्रिय और मनका विषय न होनेसे उसके अस्तित्वका खण्डन नहीं हो सकता, अन्यथादादे परदादे आदि पूर्वजोंका भी अस्तित्व सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि वे भी इन्द्रिय और मनके विषय नहीं होते। यदि कोई इस अनुमानसे पूर्वजोंका अस्तित्व सिद्ध करे कि-पितामह (दादा) आदि पूर्वजोंका किसी समय में -अस्तित्व था, क्योंकि उनके विना हमारा शरीर नहीं बन सकता तो अनुमानसे ही अलोककी भी सिद्धि मान लेनी चाहिए। अनुमान यह है પ્રશ્ન-જીવ અને પુગલ આદિ આધાર વિના રહી શકતા નથી, તેથી લેકકાશ માનવું એ તે બરાબર છે, પરંતુ અલકાકાશના અસ્તિત્વનું શું પ્રમાણ છે ?, કારણ એ છે કે ઇદ્રિને એ વિષય નથી કેમકે અમૂર્ત છે. જે વિષયમાં ઈન્દ્રિયની પ્રવૃત્તિ થતી નથી તેમાં મન પણ પ્રવૃત્ત થઈ શકતું નથી એથી કરીને ઈન્દ્રિયેથી અલકાકાશને જાણી શકાતું નથી તેમજ મનથી પણ જાણી શકાતું નથી. ઉત્તર–એ પ્રશ્ન બગબર નથી કેમકે ઈન્દ્રિય અને મનને વિષય ન હોવાથી તેના અસ્તિત્વનું ખડન થઈ શકતું નથી એમ તે દાદા પડદાદા આદિ પૂર્વજોનું પણ અસ્તિત્વ સિદ્ધ નહિ થાય, કેમકે તે પણ ઈન્દ્રિય અને મનના વિષય નથી હોતા જે કઈ અનુમાનથી પૂર્વજોનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ કરે કે પિતામહ (દાદા) આદિ પૂર્વજોનું કઈ સમયે અસ્તિત્વ હતું, કારણ કે એના વિના આપણું શરીર બની શકે નહિ, તે અનુમાનથી જ અલેકની પણું સિદ્ધિ માની લેવી જોઈએ, અનુમાન એ છે કે Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. २२ - अलोकस्वरूपम् ३५५ लोकः समतिपक्षः, व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदाभिधेयत्वात्, यो हि व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदाभिधेयः स समतिपक्ष एव भवति, यथा घटः । यश्च लोकप्रतिपक्षः स एव सद्भूतोऽलोकः, अस्तित्ववत एव प्रतिपक्षित्वसम्भवात् । ननु 'न लोकोऽलोकः' इति व्युत्पत्या घटादिष्वन्यतम एवालोकः सिध्यति किं पदार्थान्तरकल्पनया ? इति चेदुच्यते- 'न लोकः' इत्यत्र नञः पर्युदासार्थक लोक अपने प्रतिपक्ष (विरोधी - अलोक) की अपेक्षा रखता है, क्योंकि वह व्युत्पत्तिवाले समासरहित पदका वाच्य ( अर्थ ) है । जो जो व्युत्पत्तिवाले समासरहित पदका वाच्य होता है वह प्रतिपक्षसहित ही होता है, जैसे घट घट व्युत्पत्तिवाला है और समासरहित है, अर्थात् दो पद मिल कर नहीं बना हुआ है, अत एव घटके प्रतिपक्ष-अघट-पट, मुकुट, शकट, कट आदि भी अवश्य होते हैं। लोकका जो प्रतिपक्ष है वह अस्तित्ववान् अलोक है, क्योंकि अस्तित्ववान् पदार्थ ही किसीका प्रतिपक्ष हो सकता है । गधेका सींग आदि नास्तित्ववान् पदार्थ किसीके प्रतिपक्ष नहीं होते || प्रश्न- ' जो लोक नहीं वह अलोक है' ऐसा माननेसे लोकसे भिन्न - जितने घट पट आदि पदार्थ हैं वे सब अलोक होंगे, क्योंकि वे लोक नहीं है - लोकसे भिन्न हैं । फिर घट आदि पदार्थोंसे भिन्न एक अलग अलोक क्यों मानते हो ? લેક પેાતાના પ્રતિપક્ષ ( વિધી-અલેક) ની અપેક્ષા રાખે છે, કારણ કે એ વ્યુત્પત્તિવાળા સમાસરહિત શબ્દના વાચ્ય ( અર્થ ) છે. જે જે વ્યુત્પત્તિવાળા સમાસરહિત શબ્દને વાચ્ય હાય છે તે પ્રતિપક્ષસહિત જ હાય છે. જેમ ઘટ, ઘટ વ્યુત્પત્તિવાળા છે અને સમાસરહિત છે, અર્થાત્ ખે शब्दो भगवाथी मनेसेो नथी, तेथी घटना प्रतियक्ष-मघट-पट, भुकुट, शउट, કટ આદિ પણ અવશ્ય હેાય છે લેકના જે પ્રતિપક્ષ છે તે અસ્તિત્વવાન્ અલેક છે, કારણ કે અસ્તિત્વવાન પટ્ટા જ કાઈનેા પ્રતિપક્ષ થઈ શકે છે ગધેડાનું શીંગડું વગેરે નાસ્તિત્વવાન પદાર્થ કાષ્ટના પ્રતિપક્ષ થતા નથી પ્રશ્ન— જે લેાક નથી તે અલેાક છે' એમ માનવાથી લેાકથી ભિન્ન જેટલા ઘટ પટ આદિ પદાર્થોં છે તે બધા અલેક થશે, કારણ કે તે લેાક નથી—àાકથી ભિન્ન છે પછી ઘટ આદિ પદાર્થાથી ભિન્ન એક જૂદા અલેક કેમ માનેા છે ? Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ श्रीदशवेकालिकसूत्रे त्वात्, 'पर्युदासः सदृशग्राही ' ति नियमान्निषेध्यसदृशेनैव भाव्यम्, निषेध्यश्चात्र जीवाजीवाऽऽदिद्रव्याधारभूत आकाशविशेषात्मको लोकः, अतोऽलोकोऽप्याकाशविशेषरूप एव भवितुं योग्यः, यथा 'अधनोऽयम्' इत्युक्ते धनरहितो मनुष्य एव गृह्यते न तु घटपटादिः, तथेहाऽप्यलोको लोकानुरूप एव बोद्धव्य इति ॥ २२॥ "" उत्तर- जो लोक नहीं वह अलोक है। यहाँ नञ्समास है । नर्थ दो प्रकारका होता है । एक नञर्थ ऐसा होता है कि वह जिसका निषेध किया जाता है उस निषेध्यके समानका ही ग्रहण करनेवाला होता है उसे पर्युदास कहते है। कहा भी है किपर्युदास सदृशका बोधक होता है ।" अत एव लोकका निषेध रूप अलोक भी लोकहीके समान होना चाहिए । निषेध्य यहां जीव अजीव आदि द्रव्योंका आधारभूत आकाशविशेष है, अतः अलोक भी आकाशविशेष ( जीव अजीव आदि द्रव्योंके आधार से भिन्न) होना चाहिए। जैसे किसीने कहाकि यह 'अधन' है। इस वाक्यमें 'अधन' शब्द से यह नहीं समझा जाता है कि यह घड़ा है या कपड़ा है, किन्तु धनरहित मनुष्य अर्थ ही समझा जाता है । इसी प्रकार यहाँ 'अलोक ' शब्द से घड़ा नहीं समझना चाहिए किन्तु आकाशविशेष ही समझना चाहिए। केवली भगवान् इन लोक और अलोक दोनोंको जानते हैं ॥ २२ ॥ उत्तर—ने सो४ नथी ते सोछे, मां नन् समास छे. नञर्थ પ્રકારના હાય છે એક બર્થ એવા હોય છે કે તે જેના નિષેધ કરવામાં આવે છે એ નિષેધ્યની સમાનના જ ગ્રહણ કરનાર હાય છે, તેને દાસ કહે છે, કહ્યુ છે કે “ દાસ સદેશના ખેાધક હાય છે” તેથી કરીને લેાકના નિષેધરૂપ Àાક પણુ લેકની જ સમાન હોવા જોઇએ અહી નિષેધ્ય જીવ અજીવ આદિ દ્રવ્યેના આધારભૂત આકાશવિશેષ છે, તેથી અલેક પણ આકાશ-વિશેષ (જીવ અજીવ આદિ દ્રવ્યના આધારથી ભિન્ન ) હવેા જોઈએ, જેમકે કેાઈએ કહ્યું કે એ ઃ અધન' છે, એ વાકયમાં ‘અધન' શબ્દથી એમ નથી સમજાતું કે એ ઘડા છે ચા કપડું છે, કિન્તુ - ધનહિત મનુષ્ય એવા અર્થ જ સમજાય છે એ રીતે અહીં અલાક' શબ્દથી ઘડા યા કપડુ ન સમજવું જોઈએ, કિન્તુ આકાશવશેષ જ સમજવે જોઇએ, કેવળીભગવાન્ એ લેક અને અલેક બેઉને જાણે છે. (૨૨) Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. २३ - शैलेशीकरणस्वरूपम् 7 ૧ ४ ૫ ७ 3 मूलम् - जया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली । ३५७ ૧. ૧૧ ૧૨ तथा जोगे निरंभित्ता, सेलेसिं पडिवज्जइ ॥ २३ ॥ छाया - यदा लोकमलोकं च, जिनो जानाति केवली । तदा योगान्निरुध्य, शैलेशीं प्रतिपद्यते ||२३|| सान्वयार्थः -- जया = जब जिणो =त्रीतराग, केवली - केवलज्ञानी होये हुए लोगमलोगं च = लोक और अलोकको जाणइ जानते हैं, तया=तव जोगे-मनवचन - कायके योगोंका निरंभित्ता = निरोध करके सेलेसि = शैलेशीकरणको पडिवजह = प्राप्त करते हैं ||२३|| " टीका - ' जया लोग ' - मित्यादि । यदा जिनः केवली लोकालोकं जानाति तदा योगान् = मनोवाक्कायलक्षणान् निरुध्य, तथाहि - मुक्ति पदेऽन्तर्मुहूर्त भाविनि आयुष्यन्तर्मुहूर्त्तमात्रावशेषे सति यद्यधातिकर्मचतुष्टयं स्वभावतः समस्थितिकं स्यात्तदा निष्कलङ्कः परमकल्याणाऽऽस्पदीभूतः केवली सूक्ष्मक्रियाऽनिवर्त्त्याख्यं ध्यानमारभते । उत्कृष्टत आयुषः पण्मासावशेषे समुत्पन्न केवलस्य भगवतस्तु तदा 4 " जया लोग०" इत्यादि । जब घातिकर्मोंको जीतनेवाले केवली भगवान् लोक और अलोकको जान लेते हैं तब योगोंका निरोध करके शैलेशी अवस्थाको प्राप्त करते हैं । ८ (३) अन्तर्मुहुर्त मात्र आयु शेष रहने पर यदि बाकी रहे हुए चारों अघातिया कर्मोकी स्थिति स्वभावसे ही बराबर हो तो निष्कलङ्क परम कल्याणके आश्रयभूत- केवली प्रभु सूक्ष्मक्रिय नामक शुक्ल ध्यानके तीसरे पायेका ध्यान प्रारम्भ करते हैं, किन्तु जिन्हें उत्कृष्ट आयुकर्म छह मास अवशेष रहने पर केवलज्ञान उत्पन्न होता है उन्हें नियम से केवलिसमुद्धात जया लोग० इत्यादि न्यारे धाती अभेने तवावाणा ठेवणी भगवान् खेो અને અલાકને જાણી લે છે ત્યારે યાગાના નિધ કરીને શૈલેશી અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે. (૩) અન્તર્મુહૂત માત્ર આયુ શેષ રહેતા ને ખાકી રહેલા ચારે અઘાતી કર્માની સ્થિતિ સ્વભાવથી મરામર હોય તો નિષ્કલ ક પરમ કલ્યાણના આશ્રયભૂત કેવળી પ્રભુ સૂક્ષ્મક્રિય નામના શુકલ ધ્યાનના ત્રીજા પાયાનું ધ્યાન પ્રાર ભે છે કિન્તુ જેમને ઉત્કૃષ્ટ આયુકર્મ છ માસ અવશેષ રહેતા કેવળજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે, તેમને નિયમથી કેવળી સમુધ્ધાત કરવા પડે છે, કારણ કે એમનું આયુક Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ श्रीदशवेकालिकम युपोऽल्पत्वाद् वेदनीयनामगोत्रकर्मणां च स्थितिबाहुल्याच्च नियतसमुद्धातत्वात्, तत्कृत्वा वेदनीयादिषु चतुर्षु समस्थितिकेषु सत्सु तदारम्भः । यदा जघन्ययोगवतः सव्झिपर्याप्तस्य मनोद्रव्याणि समये २ निरुन्धन् असंख्यातसमयैः सम्पूर्ण मनोयोगं, तत्पश्चात्पर्याप्तद्वीन्द्रियस्य वाग्योगपर्यायतोऽसंख्यातगुणन्यूनवाग्योगपर्यायान् प्रतिसमयं निरुन्धन् असंख्यातसमयैः सम्पूर्ण बाग्योगं, ततश्च प्रथमसमयसमुत्पन्ननिगोदजीवस्य जघन्यकाययोगपर्यायतोऽसंख्यातगुणहीनकाययोगं प्रतिसमयं निरुन्धन् असंख्यातसमयैर्वादरकाययोगं च सर्वथा निरुणद्धि करना पड़ता है, क्योंकि उनका आयुकर्म अल्प होता है और उनके वेदनीय नाम गोत्र कर्मोकी स्थिति अधिक होती है, इसलिए वे पहले समुद्धातके द्वारा चारों कर्मोकी स्थिति यरावर करके फिर तीसरे पायेका ध्यान आरम्भ करते हैं । जय जघन्य योगवाले सब्जी पर्याप्तकके मनोद्रव्य और मनोद्रव्य के व्यापारोंसे असंख्यात गुणहीन मनोद्रव्योंका प्रतिसमय में निरोध करते हुए असंख्यात समयोंमें सम्पूर्ण मनोयोगका निरोध कर देते हैं। तय मनोयोगका निरोध करके पर्याप्त द्वीन्द्रियके वचनयोगकी पर्यायोंसे असंख्यात गुणहीन वचनयोगकी पर्यायोंका प्रतिसमय निरोध करते हुए समस्त वचनयोगका निरोध करते हैं । वचन योगका सम्पूर्ण निरोध करके प्रथम समय में उत्पन्न निगोदिया जीवके जघन्य काययोग की पर्यायों से असंख्यातगुणहीन काययोगका प्रतिसमय निरोध करते हुए असंख्यात समयोंमें बादर काययोगका भी सर्वधा निरोध कर देते हैं । અલ્પ હાય છે અને એમના વેદનીય નામ ગાત્ર કર્મીની સ્થિતિ વધારે હાય છે. તેથી કરીને તે પહેલા સમુધાતની દ્વારા ચારે કર્મોની સ્થિતિ ખરાખર કરીને પછી ત્રીજા પાયાનું ધ્યાન આર લે છે. જ્યારે જઘન્ય વેગવાળા સત્તી પર્યાપ્તકના મનેદ્રવ્ય અને સનેદ્રવ્યના વ્યાપારાથી અસંખ્યાતગુણુડ઼ીન મનેદ્રબ્યાને પ્રતિ સમયે નિધ કરતાં અસ ખ્યાત સમયેમાં સંપૂર્ણ મનેચેગને નિધ કરીને પર્યાપ્ત દ્વીન્દ્રિયના વચનચેગના પર્યાયે થી અસ ખ્યાતગુટ્ટીન વચનયેાગના પર્યાયાનેા પ્રતિસમય નિધિ કતા સમસ્ત વચનયોગને નિરેધ કરે છે. વચનયેગના સપૂત નિરોધ કરીને પ્રથમ સમયમા ઉત્પન્ન નિગેદિયા જીવના જધન્ય કાયયેાગના પર્યાચેથી અસ ખ્યાતગુણુટ્વીન કાર્યેાગના પ્રતિસમય નિધ કરતા અસ ખ્યાત સમયેામાં ખાદર કાયયેગને Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५९ अध्ययन ४ गा. २३-शैलेशीकरणस्वरूपम् तदेदं सूक्ष्मक्रियाऽनिवर्तिध्यानमुपक्रमते । तत्र श्वासोच्छासस्वरूपं मूक्ष्ममपि काययोगं निरुध्य अयोगित्वं प्राप्येत्यर्थः, शैलेशीम् शैलाः पर्वतास्तेषामीशःशैलेशः= मुमेरुस्तद्वत् स्थैर्य यस्यामवस्थायां सा, यहा शीलं यथाख्यातचारित्रं तस्येशः स्वामी शीलेशस्तस्येयमवस्था शैलेशी तां प्रतिपद्यते मध्यमकालेन 'अ-इ-उ-अ-ल' इत्येवंरूपपञ्चलघ्वक्षरोच्चारणसमकालस्थितिकं समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपातिध्यानमनुभवतीत्यर्थः, अर्थात् समस्त मनोयोग और वचनयोगका तथा बादर काययोगका निरोध होने पर सूक्ष्मक्रियाऽनिति नामक तीसरे ध्यानको आरंभ करते हैं । तीसरे ध्यानके समय श्वासोच्छ्वासरूप काययोगकी सूक्ष्मक्रिया ही रहती है । इस ध्यानसे उस सूक्ष्मक्रियाका भी निरोध करके अयोगी हो जाते हैं। अयोगी होकर अर्थात् तेरहवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थानमें पहुंचकर शैलेशी अवस्थाको प्राप्त होते हैं। जिसमें शैलों (पर्वतों) के ईश (स्वामी) सुमेरु पर्वतके समान स्थिरता रहती है उसे शैलेशी अवस्था कहते हैं। अथवा-शील (यथाख्यातचारित्र) के ईश(स्वामी) को शीलेश कहते हैं, उनकी अवस्थाको शैलेशी कहते हैं। इस शैलेशी अवस्थाको प्राप्त होकर न धीमे न जल्दी अर्थात् मध्यम काल से 'अ-इ-उ-क-ल' इन पांच ह्रस्व अक्षरोंके उच्चारणमें जितना समय लगता है उतने समय तक चौदहवें अयोगिकेवली गुणस्थानमें रह कर समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाति ध्यान ध्याते हैं। પણ સર્વથા નિરોધ કરી નાંખે છે અર્થાત્ સમસ્ત મનેયેગ અને વચનગને તથા બાદર- કાગને નિરોધ થતાં સૂફમક્રિયાશનિવર્તિ નામના ત્રીજા ધ્યાનને આર ભ કરે છે. ત્રીજા ધ્યાનને સમય શ્વાસોચ્છવાસરૂપ કાયાગની સૂમ-ક્રિયા જ રહે છે, એ ધ્યાનથી તે સૂક્ષ્મ-ક્રિયાને પણ નિરોધ કરીને અગી થઈ જાય છે. અગી થઈને અર્થાત તેરમે ગુણસ્થાનેથી ચોદમાં ગુણસ્થાનમાં પહોંચીને શૈલેશી અવસ્થાને પ્રાપ્ત થાય છે જેમા શલે (પર્વતે)ને ઈશ (સ્વામી) સુમેરૂ પર્વતની પિઠે સ્થિરતા રહે છે તેને શેલેશી અવસ્થા કહે છે, અથવા શીલ (યથાખ્યાત-ચારિત્ર)ના ઈશ (સ્વામી)ને શીલેશ કહે છે, એની અવસ્થાને લેશી કહે છે એ શૈલેશી અવસ્થાને પ્રાપ્ત થઈને, નહિ ધીમે કે નહિ જલદી અર્થાત मध्यम तथा अ-इ-उ-ऋ-ल से पांय व मक्षरोना प्यारमा । સમય લાગે એટલા સમય સુધી ચોદમે અગિકેવળી ગુણસ્થાનમાં રહીને સમુછિન્નક્રિયાપ્રતિપાતિ થાન થાવે છે Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० श्रीदशवैकालिकसूत्रे ननु सूक्ष्मक्रियाऽनिवर्त्याख्यस्य शुक्लथ्यानस्य कथं ध्यानपदप्रतिपाद्यता ?, ध्यानं हि नाम मनःस्थैर्यम् , केवलिनश्च तदानीं मनसोऽसत्त्वादिति चेन्न, __स्थैर्यावस्थापन्नत्वमेव ध्यानत्वम् , तच्च यथा स्थिरीभावमापन्नस्य छद्मस्थीयमनसस्तथैव केवलिकाययोगस्यापि मुस्थिरतया सुवचम् । • नन्वेवमपि समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपात्याख्यस्य शुक्लध्यानस्य कथं ध्यानत्वम् ? तत्र काययोगस्याप्यभावात् , इति चेदुच्यते-यथा कुम्भकारचक्रं तभ्रामकदण्डादिसम्बन्धाभावेऽपि प्राक्कालीनवेगतो भ्रमति तथा मनोवाकाययोगनिरोधेऽप्ययोगिनः प्राक्कृतध्यानधारावेगतो ध्यानं सम्पद्यते । प्रश्न-हे गुरुमहाराज ! मनकी स्थिरताको ध्यान कहते हैं । केवली भगवान के उस समय मन नहीं रहता; अतः सूक्ष्मक्रियाऽनिवत्ति शुक्ल ध्यान को ध्यान कैसे कहा जा सकता है । उत्तर-स्थिरता को ही ध्यान कहते हैं । वह स्थिरता जैसे छद्मस्थके मनोयोगकी होती है वैसे ही केवलीके काययोगकी स्थिरता होती है इसलिए उसे ध्यान कहते हैं। प्रश्न-तो समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाति-शुक्ल-ध्यानको ध्यान कैसे कह सकते हैं ? क्योंकी वहां काययोगका भी अभाव है । उत्तर-जैसे कुंभारका चाक, घुमानेवाले दण्ड आदिके संयोग न होनेपर भी पूर्वकालके वेगसे घूमता रहता है वैसे ही मन वचन कायका निरोध होजाने परभी पूर्व ध्यानकी धारा के वेगसे अयोगी केवलीके ध्यान होता है। પ્રશ્ન–-હે ગુરૂ મહારાજ ! મનની સ્થિરતાને ધ્યાન કહે છે. કેવળી ભગવાનને એ સમયે મન રહેતું નથી એટલે સૂમક્રિયાનિવર્તિ શુકલ ધ્યાનને ધ્યાન કેવી રીતે કહી શકાય ? ઉત્તર–સ્થિરતાને જ ધ્યાન કહે છે. એ સ્થિરતા જેવી છદ્મસ્થના મનેગની હોય છે તેવી જ કેવળીના કાયયેગની સ્થિરતા હોય છે, તેથી તેને ध्यान डे छे. પ્રશ્ન–તે સમુછિન્નક્રિયા અપ્રતિપાતિ-શુકલ-ધ્યાનને ધ્યાન કેવી રીતે કહી શકાય ? કારણ કે ત્યા કાગને પણ અભાવ છે. ઉત્તર—–જેમ કુંભારનો ચાકડે, તેને ઘુમાવનારા દંડ આદિને સવેગ ન થવા છતા પણ પૂર્વકાળના વેગથી ઘુમ્યા કરે છે, તેમજ મન વચન કાયને નિરોધ થઈ ગયા પછી પણ પૂર્વ ધ્યાનની ધારાના વેગથી અગી કેવળીને ધ્યાન હોય છે Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. २४ - अयोगिनो ध्यान सिद्धिः ३६१ किञ्च तत्र द्रव्ययोगाभावेऽपि भावयोगस्य सत्त्वाद् ध्यानमुपपद्यते, जीवोपयोगरूपस्य भावमनसस्तत्रापि सद्भावात् । अथ च यथा पुत्रभिन्नोऽपि पुत्रकार्यकरणेन पुत्र उच्यते तथा भवोपग्राहिकर्मनिर्जरणरूपस्य ध्यानकार्यस्य करणेन ध्यानत्वोपाचाराद् ध्यानशब्दाभिधेयत्वं सिद्धम् । अथ च यथैकस्य नानार्थकशब्दस्य वहवोऽर्था भवन्ति, तथा धातूनामनेकार्थत्वाद् ध्यैधातु निष्पादितस्य ध्यानशब्दस्यापि समुच्छिन्नक्रियाख्यं शुक्लध्यानमप्यर्थः । अपरं च - उक्तशुक्लध्यानस्य ध्यानत्वेन जिनागमप्रतिपाद्यतया ध्यानत्वं निर्वाधमित्यलम् ॥२३॥ ૧ २ ૫ मूलम् - जया जोगे निरंभित्ता, सेलेसिं पडिवज्जइ । ૬ ७ ૧૦ ૧૧ e तया कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ ॥२४॥ उस अथवा - द्रव्ययोगका अभाव होने पर भी भावयोगके सद्भावसे ध्यान होता है, क्योंकि जीवका उपयोगरूप भाव-मन अवस्थामें भी रहता है । अथवा जैसे पुत्र न होकर भी यदि कोई पुत्रका कार्य करता है तो वह पुत्र कहलाता है, वैसे ही भवोपग्राही कर्मों की निर्जरारूप ध्यानका कार्य करनेसे उपचार से वह ध्यान कहलाता है । अथवा जैसे नानार्थक शब्द के बहुतसे अर्थ होते हैं वैसे ही धातुओंके भी अनेक अर्थ होते हैं, इसलिए यहाँ 'ध्यै' धातुसे बने हुए ध्यान शब्दका अर्थ समुच्छ्न्निक्रियाऽप्रतिपाति-शुक्ल-ध्यान अर्थात् अयोगी गुणस्थानवालोंकी क्रिया भी समझ लेना चाहिए । अथवा जिनागममें इसको ध्यान कहा है अतः इसमें ध्यानत्व निर्बाध है ॥ २३ ॥ અથવા દ્રવ્યયેગને અભાવ થયા છતાં પણુ ભાવયેાગના સદ્ભાવથી ધ્યાન હાય છે કારણ કે જીવના ઉપયાગરૂપ ભાવમન એ અવસ્થામા પણ રહે છે. અથવા જેમ પુત્ર ન હેાવા છતા જો કોઈ પુત્રનુ કાર્ય કરે છે તે તે પુત્ર કહેવાય છે, તેમજ ભવાપગ્રાહી કાઁની નિરારૂપ ધ્યાનનું કાય કરવાથી ઉપચારે કરીને તે ધ્યાન કહેવાય છે. અથવા જેમ વિવિધાર્થક શબ્દના ઘણાય અર્થાં થાય છે તેમ ધાતુઓના પણુ અનેક અર્થાં થાય છે, અહીં થૈ ધાતુથી બનેલા ધ્યાન શબ્દના અર્થ સમુચ્છિન્નક્રિયાઽપ્રતિપાતિ-શુકલ-ધ્યાન અર્થાત્ અયાગી ગુણુસ્થાન વાળાએની ક્રિયા પણુ સમજી લેવી અથવા જિનાગમમા એને ધ્યાન કહ્યુ છે તેથી એમાં ધ્યાનત્વ નિર્માંધ છે. (૨૩) Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ३६२ श्रीदशवकालिकस्त्रे छाया- यदा योगान्निरुध्य, शैलेशी प्रतिपद्यते । तदा कर्म क्षपयित्वा, सिद्धिं गच्छति नीरजाः ॥२४॥ सान्वयार्थ:-जया जब जोगेभ्योगोंका निरूभित्ता-निरोध करके सेलेसि शैलेशीकरणको पडिवनइ प्राप्त करते हैं, तया-तव कम्म=कर्ममात्रकोखवित्ता खपा करके नीरओ-कर्मरजरहित-सब काँसे मुक्त होकर सिद्धि मोक्षको गच्छइ-जाते हैं ॥२४॥ टीका-'जया जोगे०' इत्यादि । यदा योगनिरोधं कृत्वा शैलेशी मामोति तदा कर्म वेदनीयाऽऽयुर्नामगोत्राख्यमघातिकर्मचतुष्टयलक्षणं क्षपयित्वा-क्षयं नीत्वा सर्वथा विनाश्येत्यर्थः 'ण'-मिति वाक्यालङ्कारे, नीरजा निर्गतं रजः सकलकर्ममलं यस्मादिति, रजसः उक्तलक्षणानिष्क्रान्तो वा नीरजाः सर्वकर्मोपाधिरहितः साधितात्मा प्रभुः सिद्धि-सिध्यन्ति-निष्ठितार्था भवन्ति यस्यां सा सिद्धिर्मुक्तिलक्षणा तां गच्छति पामोति; गत्यर्थधातूनां प्राप्त्यर्थत्वात् ॥२४॥ मूलम्-जया कम्म खवित्ताणं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ। तया लोगमत्थयत्थो, सिद्धो हवइ सासओ ॥२५॥ छाया-यदा कर्म क्षपयित्वा, सिद्धिं गच्छति नीरजाः । तदा लोकमस्तकस्थः, सिद्धो भवति शाश्वतः ॥२५॥ सान्वयार्थ:-जया जब कम्मं कर्ममात्रको खवित्ता खपा करके नीरओ% फर्मरजरहित होकर सिद्धि मोक्षको गच्छइ-जाते हैं, तया तव लोगमत्ययस्थोलोकके अग्रभाग पर स्थित सासओ-शाश्वत-नित्य सिद्धो-सिद्ध हवइहोजाते हैं ॥२५॥ 'जया जोगे' इत्यादि । जव योगोंका निरोध करके शैलेशी अवस्थाको प्राप्त होते हैं तब वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र, इन चार अधाति कोका क्षय करके सर्व कर्मोंसे मुक्त होकर भगवान् मोक्षको प्राप्त होते हैं ॥२४॥ जया जोगे त्या त्यारे योगान निराध शने शवेशी मस्थाने भारत થાય છે, ત્યારે વેદનીય, આયુ, નામ અને ગેત્ર એ ચાર અઘાતી કર્મોને ક્ષય કરીને સર્વ કર્મોથી મુક્ત થઈને ભગવાન્ મેષને પ્રાપ્ત થાય છે (૨૪) Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 - अध्ययन ४ गा. २५ - सिद्धानामूर्ध्वगतिस्वरूपम् ३६५ जलोपरिप्रतिष्ठाना भवति तथाऽष्टविधकर्मले पसंभारभराक्रान्त आत्मा जगज्जलधौ निमज्जति, तद्विरहितचोर्ध्वगतिधर्मत्वादूर्ध्वमेव गच्छति । तथा चोक्तं भगवता - ""जह मिउलेवालितं, गरुयं तुंबं अहो वयइ एवं । आसवकयकम्मगुरू, जीवा वचंति अहरगई || १॥ तं चैव तव्विमुकं, जलोवरि ठाइ जायलहुभावं । जह तह कम्मविमुका, लोयग्गपइडिया होंति || २ ||" इति । १ छाया - " यथा मृल्लेपाऽऽलिप्तं, गुरुकं तुम्बमधो व्रजत्येवम् । आश्रवकृतकर्मगुरवो, जीवा व्रजन्ति अधरगतिम् ॥ १ ॥ तदेव (तुम्) द्विमुक्तं (मृल्लेपविमुक्तं ), जलोपरि तिष्ठति जातलघुभावम् । यथा तथा कर्म्मविमुक्ता (सिद्धाः ) लोकाग्रप्रतिष्ठिता भवन्ति ||२|| " आजाती है । इसीप्रकार आठ कर्मरूपी लेपके भारसे भारी आत्मा संसाररूपी समुद्र में डूबी रहती है। जब कर्मरूपी लेपसे रहित होजाती है तब ऊर्ध्वगमनका स्वभाव होनेसे ऊर्ध्वगमन करती है । भगवानने कहा भी है " जैसे मिट्टीके लेपसे लिप्त तुम्बी भारी होनेसे नीचे की ओर जाती है वैसेही आस्रवसे उत्पन्न कर्मोंसे आत्मा अधोगतिको प्राप्त होती है ॥१॥ जैसे तुम्बी लेपसे मुक्त होनेपर लघु होकर जलके ऊपर आजाती है उसी प्रकार कर्म से मुक्त होकर आत्मा लोकके अग्रभाग पर विराजमान हो जाती है || २ || 33 એ તુખડી નીચેથી ઉઠીને જળની ઉપર આવી જાય છે. એજ પ્રકારે આઠે કરૂપી લેપના ભારથી ભારે એવા આત્મા સસારરૂપી સમુદ્રમાં ડુખી રહે છે, જ્યારે કર્મરૂપી લેપથી રહિત થઇ જાય છે ત્યારે ઊર્ધ્વગમનના સ્વભાવ હોવાથી ઊર્ધ્વ ગમન કરે છે. ભગવાને કહ્યુ પણ છે કે— · જેમ માટીના લેપથી લિસ તુંબડી ભારે હાવાથી નીચેની બાજુએ જાય છે, તેમજ, આસ્રવથી ઉત્પન્ન થએલા કર્માંથી આત્મા અર્ધગતિને પ્રાપ્ત થાય છે. (૧) જેમ તુખડી લેપથી મુકત થતા લઘુ થઈને જલની ઉપર આવી જાય છે, તેમ કમથી મુકત થઈ ને આત્મા લેાકના અગ્રભાગ પર વિરાજમાન થઈ જાય છે. (૨)” Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ 'श्रीदशवकालिकसूत्रे मवसीयते ? इति चेच्छ्रयताम्-तेपां गुरुत्वगुणाभावान्नाधस्तात् , कायादियोगपरप्रेरणयोरभावाच्च न तिर्यग्गतिर्भवति, ____यथा-नीरन्ध्रामतिशुष्कामनुपहतां चाऽलावू कुशादितृणैः परितः संवेष्टय तदुपरि स्निग्धमृत्तिकया सान्द्रं विलिप्याऽऽतपे संशोपयेत्, इस्थमष्टवारानुक्तप्रक्रियया यथाक्रमं वणवेष्टन-मूल्लेपन-संशोषणादीनि विधायाऽगाधसलिले प्रक्षिप्ता साऽलावूरष्टकृत्वोदत्तमूल्लेपजनितगौरवेणोलसलिलतलमतिक्रम्य तदधस्ताद् ‘भूतलसंलग्ना भवति, तदनु मन्दमन्दमनुक्रमतस्तेष्वष्टवारविनिहितमल्लेपेषु सार्द्रतामुपगम्य विशीर्णेषु सत्म मृत्तिकालेपजन्यभारराहित्येन लघुतामुपगता साऽलावूरधोभूतलमतिक्रम्य होती है ? नीचेकी ओर अथवा तिरछी गति क्यों नहीं होती? ___ उत्तर-हे शिष्य ! नीचेकी ओर उसीकी गति होती है जिसमें गुरुत्व गुण (भारीपन) पाया जाता है । सिद्धोंमें गुरुत्व गुण नहीं है अत एव उनकी गति नीचेकी ओर नहीं होती। काय आदि योग और दूसरेकी प्रेरणा न होनेसे तिरछी गति भी नहीं होती। जैसे-छिद्ररहित विलकुल सूखी हुई, विना टटी-फूटी तुम्बीको चारों ओर तृणपुञ्जसे बांध करके धूपमें सुखा ले, आठ वार ऐसा करके अगाध जलमें तुम्बीको डाल दे तो आठवारके लेपके भारीपनसे जलके तलमें पहुँचकर वह पृथ्वीसे लग जाती है। उसके पश्चात् गीलेपनसे जय धीरे-धीरे वह मिट्टीका लेप छूटने लगता तो क्रमशः मिट्टीके भारसे रहित होकर लघुता (हलकापन) पाकर वह तुम्बी नीचेसे उठकर जलके ऊपर થાય છે? નીચેની બાજુએ અથવા તિથી ગતિ કેમ નથી થતી? ઉત્તર-હે શિષ્ય! નીચેની બાજુએ તેની ગતિ થાય છે કે જેમાં ગુરૂત્વગુણ (ભારેપણું) હોય છે સિદ્ધોમાં ગુરૂવ ગુણ નથી, તેથી તેમની ગતિ નીચેની બાજુએ નથી થતી કાય આદિ વેગ અને બીજાની પ્રેરણા ન હોવાથી તિથી ગતિ પણ થતી નથી, જેમ છિદ્રહિત, બિલકુલ સુકાયલી, તૂટ્યા ફૂટયા વિનાની તુંબડીને ચારે બાજુએ ઘાસ-તરણથી બાધીને તેની ઉપર ચીકણી માટીને સારી પેઠે લેપ કરીને તડકામાં સૂકવી નાખે, આઠ વાર એમ કરીને અગાધ જળમાં એ તુ બડીને નાખી દે તે આઠ વારના લેપના ભારે ૫ણથી જળને તળીયે પહોંચીને તે પૃથ્વીને અડીને રહે છે પછી જ્યારે લીલાપણાથી ધીરે ધીરે એ માટીનો લેપ છૂટવા લાગે છે ત્યારે ક્રમશઃ માટીના ભારથી રહિત થઈને લઘુતા (હલકાપણું) પામીને Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अध्ययन ४ गा. २५-सिद्धानामवगाहनास्वरूपम् ३६७ उक्तस्वरूपाः सिद्धाश्वरमशरीरतस्तृतीयभागन्यूना उत्कृष्टतो द्वात्रिंशदङ्गलसमधिकत्रयस्त्रिंशदुत्तरशतत्रयधनुःपरिमिताः, जघन्यतोऽष्टाङ्गलाधिकरनिप्रमाणाः । - यच मरुदेवीदेहप्रमाणस्य सपादपञ्चशतधनुष्ट्वात्तत्तृतीयभागे पातिते तस्याः साईत्रिशतधनुःपरिमिताऽवगाहना भवति तेनात्र न विरोधः, गजाधिरूढत्वेन वृद्धत्वेन वा शरीरसङ्कोचसम्भवात् । यत्तु जघन्यतः सप्तहस्तोच्छ्रितानां सिद्धिः शास्त्रेषु श्रूयते तत्तीर्थकरापेक्षया, सिद्धोंके चरम शरीरसे त्रिभाग कम, उत्कृष्ट तीनसौ तेतीस (३३३) धनुष और बत्तीस (३२) अंगुलकी, तथा जघन्य एकरत्नि और आठ अंगुलकी अवगाहना होती है। मरुदेवीके शरीरकी अवगाहना सवा पाँचसौ (५२५) धनुषकी थी, उसमेंसे तीसरा हिस्सा कम करनेसे साढे तीनसौ (३५०) धनुषकी अवगाहना होती है, किन्तु यहाँ पर उत्कृष्ट अवगाहना तीनसौ तेतीस धनुष और बत्तीस अंगुलकी बताई गई है, इससे यहां विरोध नहीं समझना चाहिए, क्योंकि मरुदेवी हाथी पर आरूढ थी, इसलिए या वृद्धावस्थाके कारण शरीरका सिकुडना (संकुचित होना) संभव है। यह जो आगममें सुना जाता है कि जघन्य सात हाथ ऊंचे शरीरवालोंको मोक्ष प्राप्त होता है सो यह नियम तीर्थंकरोंकी अपेक्षासे समझना चाहिए । तीर्थकरोंके सिवाय अन्य भव्य जीव दो हाथ ऊँचे सिद्धाना यम शरीरथी निमा माछी, अष्ट ऋणुस तेत्रीस (333) ધનુષ અને બત્રીસ (૩૨) આંગળની તથા જઘન્ય એક પત્નિ અને આઠ આંગળની અવગાહના હોય છે. મરૂદેવીના શરીરની અવગાહના સવા પાંચસે (પર૫) ધનુષ્યની હતી, તેમાંથી ત્રીજો ભાગ ઓછો કરવાથી સાડા ત્રણસે (૩પ૦) ધનુષ્યની અવગાહના હોય છે કિંતુ અહીં ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના ત્રણસોને તેત્રીસ ધનુષ અને બત્રીસ આગળની બતાવી છે, તેથી વિરોધ સમજ નહિ, કારણ કે મરૂદેવી હાથી પર આરૂઢ હતી તેને લીધે ચા વૃદ્ધાવસ્થાને કારણે શરીરનું સંકુચિત થવું એ સભવિત છે આગમને જે સંભળાય છે કે–જઘન્ય સાત ડાથે ઉચા શરીરવાળાઓને જ મેક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે તે નિયમ તીર્થ કરેની અપેક્ષાએ સમજે જોઈએ તીર્થ કરે. સિવાયના બીજા ભવ્ય છ બે હાથ ઉચા શરીરવાળા હોવા છતાં પણ મુક્ત Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ श्रीदशवेकालिकसूत्रे अथवा यथा वातादिरूपवाधकविरहादूर्ध्वगतिस्वभावायाः प्रदीपकलिकायाः, बीजबन्ध विच्छेदाद्रीजकोशगतैरण्डवीजस्य चोर्ध्वगतिः संजायते तथाऽऽत्मनोऽपि तादृशगतिस्वभावस्य विरोधिकर्मवन्ध विच्छेदादूर्ध्वगतिरेवेति । यथैरण्डवीजमूर्ध्वं गत्वा पुनःपतति तथा तु न मुक्तात्मनः पातसम्भवः, अधःपतन हेतु भूतगुरुत्वगुणाभावादिति प्रागुक्तमेव । ननु शरीराभावात्तेषामात्मप्रदेशाः पारदद्रव्यवत् कथं न विकीर्णा भवन्तीति चेन्न, तद्विसर्पक नामकर्माभावात्मदेशवत्त्वगुणसद्भावाच्च । अथवा - जैसे हवा आदि किसी बाधकके न होने से दीपककी लौ ऊपरको जाती है, बीजकोष के बन्धके टटनेपर एरण्डका बीज ऊपरको जाता है, उसी प्रकार आत्माके ऊर्ध्वगमनके विरोधी कर्मयन्धका सर्वधा अभाव होजानेसे आत्मा ऊर्ध्वगति करती है । जैसे एरण्डका बीज पहले ऊपरको जाकर फिर नीचे गिर पड़ता है वैसे आत्मा नहीं गिर सकती, क्योंकि नीचे गिरानेका कारण गुरुस्वगुण आत्मामें नहीं है, यह पहले ही कह चुके हैं। प्रश्न- हे गुरुमहाराज । शरीरका अभाव होनेसे सिद्धोंके आत्माके प्रदेश पारेके समान फैल क्यों नहीं जाते ? उत्तर - हे शिष्य । आत्मप्रदेशोंको फैलानेवाले नामकर्मका अभाव होनेसे तथा प्रदेशवत्त्व गुणके सद्भावसे सिद्धोंके आत्मप्रदेश नहीं फैलते हैं । અથવા, જેમ હવા આદિ કાઈ ખાધક ન હેાવાથી દીપકની ચૈત્ત ઉપર જ જાય છે, ખીજકેાષનેા છે. ધ તુટવાથી એર ડાનું બીજ ઉપર ४ જાય छे, તેમ આત્માના ઊધ્વગમનના વિરોધી કધના સવ થા અભાવ થઈ જવાથી આત્મા ઊધ્વગતિ જ કરે છે જેમ એરડાનું ખીજ પહેલા ઉપર જઈને પછી નીચે પડી જાય આત્મા પડી શકતે નથી કારણ કે નીચે પાડવાનું કારણુ ગુરૂત્વ ગુણુ નથી. એ પહેલા કહેવામાં આવેલુ જ છે. છે, તેમ સ્માત્મામાં પ્રશ્ન-~~હે ગુરૂ મહારાજ ! શરીરને અભાવ હાવાથી સિદ્ધોના આત્માના પ્રદેશે! પારાની પડે ફેલાઈ કેમ જતા નથી ? ઉત્તર-૩ શિષ્ય ! આત્મપ્રદેશને ફેલાવનારા નામકર્માંના અભાવ હાવાથી તથા પ્રદેશવવ ગુણને સદ્દભાવ હાવાથી સિદ્ધોના આત્મપ્રદેશ ફેલાતા નથી. Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. २५ - सिद्धानामवगाहनास्वरूपम् ३६७ उक्तस्वरूपाः सिद्वाश्वरमशरीरतस्तृतीयभागन्यूना उत्कृष्टतो द्वात्रिंशदङ्गुलसमधिकत्रयस्त्रिंशदुत्तरशतत्रयधनुः परिमिताः, जघन्यतोऽष्टाङ्गलाधिकरत्रिप्रमाणाः । यच्च मरुदेवीदेहप्रमाणस्य सपादपञ्चशतधनुष्ट्वात्तत्तृतीयभागे पातिते तस्याः सार्द्धत्रिशतधनुः परिमिताऽवगाहना भवति तेनात्र न विरोधः, गजाधिरूढत्वेन वृद्धत्वेन वा शरीरसङ्कोचसम्भवात् । यत्तु जघन्यतः सप्तहस्तोच्छ्रितानां सिद्धिः शास्त्रेषु श्रूयते तत्तीर्थकरापेक्षया, सिद्धोंके चरम शरीर से त्रिभाग कम, उत्कृष्ट तीनसौ तेंतीस (३३३) धनुष और बत्तीस (३२) अंगुलकी, तथा जघन्य एकरत्नि और आठ अंगुलकी अवगाहना होती है । मरुदेवी के शरीरकी अवगाहना सवा पाँचसौ (५२५) धनुषकी थी, उसमेंसे तीसरा हिस्सा कम करनेसे साढ़े तीनसौ (३५०) धनुषकी अवगाहना होती है, किन्तु यहाँ पर उत्कृष्ट अवगाहना तीनसौ तेतीस धनुष और बत्तीस अंगुलकी बताई गई है, इससे यहां विरोध नहीं समझना चाहिए, क्योंकि मरुदेवी हाथी पर आरूढ थी, इसलिए या वृद्धावस्थाके कारण शरीरका सिकुडना (संकुचित होना) संभव है । यह जो आगममें सुना जाता है कि जघन्य सात हाथ ऊंचे शरीरवालोंको मोक्ष प्राप्त होता है सो यह नियम तीर्थकरों की अपेक्षासे समझना चाहिए | तीर्थंकरोंके सिवाय अन्य भव्य जीव दो हाथ ऊँचे સિદ્ધોના ચરમ શરીરથી ત્રિભાગ ઓછી, ઉત્કૃષ્ટ ત્રણસે તેત્રીસ (૩૩૩) ધનુષ અને ખત્રીસ (૩૨) આંગળની તથા જઘન્ય એક રત્નિ અને આઠે આંગળની અવગાહના હાય છે મર્દેવીના શરીરની અવગાહના सवा पांयसेो (पश्च) धनुष्यनी हुती, તેમાંથી ત્રીજો ભાગ ઓછે કરવાથી સાડા ત્રણસેા (૩૫૦) ધનુષ્યની અવગાહના હાય છે કિન્તુ અહીં ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના ત્રણસેાને તેત્રીસ ધનુષ અને ખત્રીસ આગળની ખતાવી છે, તેથી વિરોધ સમજવા નહિ, કારણ કે મદેવી હાથી પર આરૂઢ હતી તેને લીધે યા વૃદ્ધાવસ્થાને કારણે શરીરનું સંકુચિત થવુ એ સભવિત છે આગમમા જે સ લાળાય છે કે—જઘન્ય સાત હાથ ઉંચા શરીરવાળાઓને જ મેક્ષ પ્રાપ્ત થાય તે નિયમ તીર્થંકરોની અપેક્ષાએ સમજવા સિવાયના બીજા ભવ્ય જીવા એ હાથ ઉચા શરીરવાળા હોવા જોઇએ તીય કરા છતા પણુ મુક્ત Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ श्रीदशवैकालिकसूत्रे अन्ये तु द्विस्वोच्छ्रिता अपि सिध्यन्ति, तदपेक्षया हि प्रोक्तस्वरूपा जधन्याऽवगाerisatar | एवमुक्तस्वरूपेो जन्म-जरा-मरणा-ऽऽधि-व्याधिवाधापटलीकलडूली भावगर्भ - निवासत्राससन्ततिविनिष्क्रान्तः शाश्वतः सिद्धो भवतीत्यर्थः । 'शाश्वत' पदेन चात्र " सम्प्राप्तसिद्धिपदो ह्यात्मा न पुनः संसारित्वमवामीति हेतोरभावात् न च कारणमन्तरेण कार्योत्पत्तिर्जायते " इति वोधितम् ||२५|| उक्तं म्रुगतिरूपं धर्मफलं, सम्प्रति तत् कस्य दुर्लभं भवती ? - ति दर्शयति- 'सुहसायगस्स ०' इत्यादि । २ 3 मूलम्-सुहसायगस्स समणस्स, सायाउलगस्स निगामसाइस्स । . ૫ उच्छोलणापहोयस्स, दुल्लहा सुगई तारिसगस्स ॥२६॥ शरीरवाले होनेपर भी मुक्त होजाते हैं । उनकी अपेक्षासे ही सिद्धों की जघन्य अवगाहना एक रत्नि और आठ अंगुलकी कही गई है। ऐसे सिद्ध जन्म-जरा-मरण, आधि, व्याधि, बाधा, कलडुलीभाव ( संसारपरिभ्रमण ), गर्भवासके दुःखोंसे रहित शाश्वत सिद्ध होजाते हैं। यहाँ 'शाश्वत' पद से यह वोधित किया है कि सिद्धि पदको प्राप्त आत्मा फिर संसारी अवस्थाको प्राप्त नहीं होती है, क्योंकि संसारमें आनेके कारणभूत कर्मोंका अभाव है । कारणके विना कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती ||२५|| यहाँ तक धर्मका सुगतिरूप फल कहा, यह फल किसे दुर्लभ होता है सो दिखाते है - ' सुहसायगस्स ' इत्यादि । થઈ જાય છે. એમની અપેક્ષાએ જ સિદ્ધોની જઘન્ય અવગાહના એક ત્નિ અને આઠે આંગળની કહેવામાં આવી છે. मेवा सिद्धो भ-रा-भय, आधि-व्याधि, गाधा, उस उसीलाव (ससारપરિશ્રમણ), ગર્ભવાસનાં દુ:ખાથી રહિત શાશ્વત સિદ્ધ થઈ ાય છે અહીં ‘ શાશ્વત ’ શબ્દથી એમ બેધિત કરવામા આવ્યું છે કે સિદ્ધિપદને પ્રાપ્ત થએલા આત્મા કી સસરી અવસ્થાને પ્રામ થતા નથી, કારણ કે સંસારમાં આવવાનાં કારણભૂત કના અભાવ કે કારણ વિના કાર્યની ઉત્પત્તિ થતી નથી. (૨૫) અહીં સુધી ધર્મનું સુગતિરૂપ ફળ કહ્યું, એ ફળ કેાને દુભ થાય ૐ તે विछे- हसायगस्स प्रत्याहि Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. २६-मुगतेदौलभ्यम् ३६९ छाया-मुखास्वादकस्य श्रमणस्य, शाताकुलकस्य निकामशायिनः । उत्क्षालनाप्रधौतस्य, दुर्लभा मुगतिस्तादृशकस्य ॥२६॥ मुगति की दुर्लभता बतलाते हैं सान्वयार्थ:-सुहसायगस्स-मुखकी आसक्ति रखनेवाले सायाउलगस्समुखके लिए व्याकुल रहनेवाले निगामसाइस्स-मर्यादासे अधिक सोनेवाले उच्छोलणापहोयस्स-शरीरकी विभूषा करनेवाले तारिसगस्स-ऐसे समणस्स-साधुको सुगईमुगति दुल्लहा दुर्लभ है ॥२६॥ टीका-मुखास्वादकस्य-मुखस्य याप्तमनोरमशब्दाापभोगस्य आस्वादका आसक्त्या ग्राहकस्तस्य, शाताकुलकस्य-शातार्थम्-मुखार्थम् आकुलका व्यग्रः उद्विग्नो वा तस्य, निकामशायिनः निकामम् अतिशयितं मध्यवत्तियामद्वयादधिक रात्रौ, निष्कारणं दिवसे वा शेते स्वपिति तच्छीलो निकामशायी-सूत्रार्थमननादिसमयमुल्लङ्घन्य शयानस्तस्य, उत्क्षालनाप्रधौतस्य-उत्क्षालनया-प्रक्षालनया मप्रकर्षार्थ-विभूषार्थ धौतानि-उज्ज्वलीकृतानि नयन-वदन-नख-कर-चरणवस्त्रादीनि येन स तस्य शरीरादिविभूषाकारिण इत्यर्थः । तादृशकस्य-तीर्थकराऽऽज्ञाऽनाराधकस्य, श्रमणस्य श्रमणब्रुवस्य वेशमात्रेण साधोः मुगतिः-सिद्धिलक्षणा गतिः दुर्लभा दुष्पापा 'भवती'-ति शेषः । प्राप्त हुए मनोज्ञ शब्दादि उपभोगोंको आसक्तिपूर्वक ग्रहण करनेवाले, सुखप्राप्ति के लिए व्याकुल रहनेवाले, दो मध्य प्रहरोंसे अधिक रात्रिमें, या कारणविशेष विना दिनमें अर्थात् सूत्रार्थके मनन करनेके समयका उल्लंघन होने तक सोनेवाले, तथा विभूषाके लिए आँख, मुख, नख, हाथ-पैर वस्त्र आदिको धोनेवाले अर्थात् शरीरको विभूषित करनेवाले; अतः तीर्थकरकी आज्ञाके विराधक, ऐसे श्रमणको सिद्धिगतिकी प्राप्ति दुर्लभ है। - પ્રાપ્ત થએલા મનેઝ શબ્દાદિ ઉપભોગને આસકિતપૂર્વક ગ્રહણ કરનાર, સુખપ્રાપ્તિને માટે વ્યાકુળ રહેનારા, બે મધ્ય પહેરેથી વધુ રાત્રિમાં ચા કારણ– વિશેષ વિના દિવસમાં અર્થાત સૂત્રાર્થનું મનન કરવાના સમયનું ઉલ્લઘન થાય ત્યા સુધી સૂનારા તથા વિભૂષા (શોભા) ને માટે આખ, મુખ, નખ, હાથ-પગ વસ્ત્ર આદિને ધનાર અર્થાત્ શરીરને વિભૂષિત કરનારા એટલે કે તીર્થ કરની આજ્ઞાના વિરાધક, એવા શ્રમણને સિદ્ધિગતિની પ્રાપ્તિ દુર્લભ છે Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकसूत्रे 'सुखास्वादकस्ये' - त्यनेन सम्प्राप्तमनोज्ञशब्दादिविषयकाऽऽसक्तिर्निराकृता । 'शाताकुलकस्ये' त्यनेनाऽप्राप्तमुखव्याक्षिप्तिर्निरस्ता । 'निकामशायिनः" इत्यनेन च प्रमादनिवृत्तिः सूचिता । ' उत्क्षालनामधौतस्ये ' - त्यनेन च ब्रह्मचर्यरक्षार्थी विभूषाऽपाकृता ||२६|| एवं तर्हि कस्य मुक्तिः सुलभा ? इति जिज्ञासायामाह - 'तवोगुण०' इत्यादि । 2 ३७० ર मूलम्-तबोगुणपहाणस्स, उज्जुमइ खंतिसंजमरयस्स । ૫ ८ परीसहे जिणंतस्स, सुलहा सुगई तारिसगस्स ॥ २७ ॥ छाया - तपोगुणप्रधानस्य, ऋजुमतेः क्षान्तिसंयमरतस्य । परीपहान् जयतः, सुलभा सुगविस्तादृशकस्य ||२७|| सान्वया:- तवोगुणपहाणस्स = तपरूपी गुणों को मुख्य समझनेवाले उज्जुमह = सरल बुद्धिवाले खंति संजमरयस्स = क्षान्ति और संयममें लीन परीसहे =परीपोंको जिणंतस्स = जीतनेवाले तारिसगस्स = ऐसे ( श्रमणोंको) सुगई =सुगति सुलहा=मुलभ है ||२७| [ सुहसागरस' पदसे यह सूचित किया है कि साधुको प्राप्त शब्दादि विषयोंमें आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। 'साया उलगस्स ' पदसे अप्राप्त विषयसुखोंके लिए आकुल नहीं होना चाहिए, ऐसा सूचित किया है। 'निगमसाइस्स' पदसे प्रमादका परित्याग करना प्रदर्शित किया है। 'उच्छोलणापहोयस्स' पदसे ब्रह्मचर्यके संरक्षण के लिए शरीरको विभूषित करनेका निषेध किया गया है ||२६|| 60 यदि ऐसा है तो सुगति किसके लिए सुलभ होती है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर कहते हैं-' तवोगुणपाणस्स ' इत्यादि । મુદસયસ શબ્દથી એમ સૂચિત કરવામાં આવ્યું છે કે સાધુએ પ્રાપ્ત શબ્દાદિ વિષયમાં આસક્તિ રાખવી न लेखे, सायाउलगस्स राष्टथी सास विषयाने माटे आग न यवु लेागो मे सूचित छे. निगामसाइस्स राष्टथी प्रभावना परित्याग श्वानुं प्रदर्शित इयु छे उच्छोलणापરોયસ શબ્દથી બ્રહ્મચર્યના રક્ષણને માટે શરીરને વિભૂષિત કરવાને નિષેધ કરवामां आव्यो छे (२६) જો એમ છે તે સુતિ કેને માટે સુલભ હાય છે? એવી જિજ્ઞાસા થત छे- तत्रोगुणपढाणस्स त्याहि Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. २७ - सुगते : सौलभ्यम् ३७१ टीका - तपोगुणप्रधानस्य तपति = अन्तर्भावितण्यर्थतया तापयति दहत्यष्टविधं कर्मेति तपः षष्ठभक्तादि तदेव गुणस्तपोगुणः स प्रधानं= मुख्यो यस्य स तस्य, ऋजुमतेः =ऋज्वी = सरला मतिर्बुद्धिर्यस्य स तस्य, क्षान्तिसंयमरतस्य= क्षान्तिः कषायनिग्रहः संयमः = सावद्यव्यापारोपरतिस्तयोः रतः = तत्परस्तस्य, परीषहान्=अनुकूल-प्रतिकूललक्षणान् जयतः = अभिभवतः, तादृशकस्य - रत्नत्रयाराधकस्य 'श्रमणस्ये'-त्यनुषज्यते; सुगतिः सुलभा । ' तपोगुणप्रधानस्ये ' त्यनेनेन्द्रिय-नोइन्द्रियविजेतृत्वं सूचितम् । 'ऋजुमते - रित्यनेन मोक्षार्थिना कपटकदाग्रहरहितेन भवितव्यमिति वोधितम् । ' क्षान्तिसंयमरतस्ये '-त्यनेन ' क्षमायुक्त एव संयमः फलद: ' इति द्योतितम् |' परीपदान् जयतः' इत्यनेन च मनः स्थैर्ये शरीरममत्व परित्यागश्चेति ध्वनितम् ||२७|| जो आठ कर्मोंको भस्म करनेवाले षष्ठ अष्टम आदि तप- गुणसे प्रधान हैं, सरल-बुद्धि हैं, तथा क्रोधादि कषाय के निग्रह और सावद्य व्यापारके त्याग स्वरूप संयममें लीन हैं, अनुकूल-प्रतिकूल - परीषहोंको जीतने वाले हैं, उन मोक्षके मार्ग - रत्नत्रय के आराधक मुनियोंको सिद्धिस्वरूप सुगतिकी प्राप्ति सुलभ है । ' तवोगुणपहाणस्स' इस पदसे इन्द्रियों तथा मनका जीतना सूचित किया है । 'उज्जुमइ' पद से यह सूचित किया गया है कि मोक्षार्थीको कपट और कदाग्रहसे रहित होना चाहिए ।' खंति संजमरयस्स' पद से सूचित होता है कि वही संयम फलदाता होता है जो क्षमासे युक्त हो । 'परीसहे जिणंतस्स' पदसे मनकी स्थिरता तथा शरीरकी ममताका त्याग बतलाया गया है || २७ ॥ જે આઠ કર્માંને ભસ્મ કરનારા છઠ્ઠ અઠ્ઠમ આદિ તપશુણુથી પ્રધાન છે, સરલ-બુદ્ધિ છે, તથા ક્રોધાદિકષાયના નિગ્રહ અને સાવદ્ય વ્યાપારના ત્યાગસ્વરૂપ संयभभां तीन छे, अनुण-प्रतिष्ण-परीषहोने लतवावाजा, भेवा-भोक्षना भार्ग - રત્નત્રયના આરાધક મુનિઓને સિદ્ધિ-સ્વરૂપ સુગતિની પ્રાપ્તિ સુલભ છે. गुणपाणस्स थे शब्दथी द्रियो तथा भनने तवानुं सूचित रे छे. ઉજ્જુનરૂ શબ્દથી સૂચવ્યુ છે કે મેક્ષાથીએ કપટ અને કદાગ્રહથી રહિત થવુ જોઇએ. વંતિસંનમયક્ષ એ પદથી સૂચિત થાય છે કે તેજ સયમ ફળદાતા थाय है ? क्षमाथी युक्त होय परीसहे जिणंतस्स पहथी भननी स्थिरता તથા શરીરની મમતાના ત્યાગ બતાવેલા છે (૨૭) Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिको ३७२ चारित्रस्य महत्त्वमाह-पच्छावि ते' इत्यादि । मूलम्-पच्छावि ते पयाया, खिप्पं गच्छंति अमरभवणाई। ओ तवो संजमो य खंती य बंभचेरं च ॥२८॥ छाया-पश्चादपि ते प्रयाताः, सिमं गच्छन्त्यमरभवनानि । येपां प्रियं तपः संयमश्व, शान्तिश्च ब्रह्मचर्य च ॥२८॥ चारित्र का महत्त्व वतलाते हैं सान्वयार्थ:-जेसिं-जिनको तवों तपस्या संजमो-संयम य और खंतीक्षमा य-तथा वंभचेरं ब्रह्मचर्य पिओ प्रिय है,ते वे पच्छाविपश्चात्भी अर्थात् एकवार चारित्र खण्डित हो जानेपर वापस, अथवा वृद्धावस्थामें भी पयाया-आये हुए अर्थात् चढते परिणामोंसे संयम स्वीकार कियेहुए खिप्पं शीघ्र अमरभवणाई-स्वर्ग अथवा अपवर्ग-मोक्ष-कोभी गच्छन्ति-माप्त हो जाते हैं ॥२८॥ टीका-येपां (श्रमणानां) तपः अनशनादि द्वादशविधम् , संयमा सावद्यव्यापारविरविलक्षणः सप्तदशविधः, शान्तिः अमर्पोत्पादकाऽऽक्षेपवचनादिसइनस्वरूपा, ब्रह्मचर्य-विपयसेवनपरिहारलक्षणम् , चकाराः समुच्चयार्थाः, प्रियम्= अभीष्टं रुचिरमित्यर्थः, ते (श्रमणाः) पश्चादपि चारित्रखण्डनानन्तरमपि वृद्धत्वेऽपि वा प्रयाता: पद्धभावेन गृहीतसंयमाः सन्त आर्द्रकुमार-पुण्डरीकादिवत् , सिमं चारित्रका महत्त्व दिखाते हैं-'पच्छावि ते-' इत्यादि। जिन श्रमणोंको अनशन आदि बारह प्रकारका तप, सावद्य व्यापारका त्यागरूप सत्रह प्रकारका संयम, क्रोधजनक आक्षेपपूर्ण वचनोंका सहन करनारूप क्षान्ति, सर्वथा मैथुनका परित्याग, ये प्रिय होते हैं, वे कदाचित् मोहकर्मके उदयसे खण्डित-चारित्र होकर भी, अथवा वृद्ध होनेपर भी चढते परिणामोंसे आर्द्रकुमार, पुण्डरीक आदिके यात्रिनु भ७१ ताये - पच्छावि ते. त्याहि જે શ્રમને અનશન આદિ બાર પ્રકારને તપ, સાવધ વ્યાપારના ત્યાગરૂપ સત્તર પ્રકારને સંયમ, ક્રોધજનક આક્ષેપપૂર્ણ વચનેને સહન કરવારૂપ ન્તિ, સર્વથા યુનને પીયાગ, એ પ્રિય હોય છે, તેઓ કદાચિત મેહકના ઉદયથી ખંડિતચારિત્ર થઈને પણ અથવા વૃદ્ધ હોવા છતા પણ ચડતા પરિણામેથી Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० २९ - उपसंहारः - ३७३ शीघ्रम् अमरभवनम् =न म्रियन्त इत्यमरा ः = सिद्धा आयुषोऽभावात् तेषां भवनम् = आलयः सत्ता वा तत् सिद्धक्षेत्रं सिद्धस्वरूपं वेत्यर्थः । यद्वा न म्रियते यत्र तद्मरम् = अविनाशि तच्च तद् भवनं स्थान तत् सिद्धपदमित्यर्थः । अथवा न म्रियन्ते अकालमृत्युना इत्यमराः=देवास्तेषां भवनं तत् स्वर्गलोकमित्यर्थः । बहुवचनं चोभयार्थद्योतनार्थम्, गच्छन्ति = यान्ति ॥ २८ ॥ उपसंहारमाह-' इच्छेयं ' इत्यादि । , ७ ૧ ૨ 3 मूलम् - इच्चेयं छज्जीवणियं, सम्मदिट्ठी सया जए । ૧૧ ५ પ્ ५ ૧૦ दुलहं हित्तु सामन्नं, कम्मुणा न विराहिज्जासि-त्तिबेमि ॥२९॥ छाया - इत्येतं षड्जीवनिकार्य, सम्यग्दृष्टिः सदा यतः । दुर्लभं लब्ध्वा श्रामण्यं, कर्मणा न विराधयेत् ॥ २९ ॥ इति ब्रवीमि । उपसंहार करते हैं— सान्वयार्थः - सम्म द्दिट्ठी = सम्यक्त्वी मनुष्य सया= सदैव जए = यतनावान् होकर दुलहं दुर्लभ ऐसे सामन्न= साधुपने को लहित्तु प्राप्त करके इच्चेय = इस पूर्वोक्त स्वरूपवाले छज्जीवणियं = षड्जीवनिकाय - छह प्रकारके जीवसमूह - की कम्मुणा = मन वचन कायके व्यापारसे न विराहिज्जासि = विराधना न करे; तिमि = श्रीसुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामीसे कहते हैं कि मैंने भगवान् महावीर स्वामी से जैसा सुना है वैसा ही तुमसे कहता हूँ ||२९|| ॥ इति चतुर्थाध्ययनस्य शब्दार्थः ॥ ४ ॥ ૧૨ समान फिर संयमको ग्रहण करके शीघ्रही अमरभवन - (सिद्धिस्थान अथवा स्वर्गलोक ) को प्राप्त होते हैं । 'अमर भवन' के दो अर्थ होते हैं - (१) जहां मृत्यु नहीं होती ऐसा स्थान मोक्ष है, क्योंकि वहां आयुकर्मका सर्वथा अभाव है, और (२) अमर भवन स्वर्गलोकको भी कहते हैं, क्योंकि स्वर्गलोक में अकाल मृत्यु नहीं होती ||२८|| उपसंहार करते हैं- 'इच्चेयं' इत्यादि । આર્દ્ર કુમાર, પુડરીક આદિની પેઠે ફરી સયમને ગ્રહણ કરીને શીઘ્ર અમરભવન (સિદ્ધસ્થાન અથવા સ્વલાક) ને પ્રાપ્ત થાય છે ८ અમરભવન'ના બે અર્થ થાય છે (૧) જ્યાં મેક્ષ છે, કારણ કે ત્યા આયુકના સર્વથા અભાવ ભવન સ્વલેાકને પણ કહે છે, કારણ કે સ્વગ્લેકમાં उपसंहार ४२ छे-इच्चेयं ० त्याहि. મૃત્યુ હાતુ નથી એવું સ્થાન હાય છે અને અકાલમૃત્યુ થતુ (૨) અમરનથી (૨૮) Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ - - श्रीदशवकालिकसूत्रे टीका-सम्यग्दृष्टिः सम्यक्-यथाऽवस्थितत्त्वेनाऽविपर्यस्ता दृष्टि तत्त्वरुचिरभिमायो वा यस्य स तथोक्तः, सम्यग्दर्शनवानित्यर्थः, सदा-नित्यं यतः यतनावान् दुर्लभं दुष्पापं, श्रामण्यं श्रमणभावं लब्ध्वा सम्प्राप्य इत्येतम्-उक्तलक्षणम्, पड्जीवनिकायं कर्मणा-मनोवाकायव्यापारेण न विराधयेत् देशतः सर्वतो वा न प्रमर्दयेत् न पीडयेदित्यर्थः । 'इति ब्रवीमी'-ति माग्वत् ॥२९॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषा-कलित-ललितकलापाऽऽलापक-मविशुद्ध-गद्य-पद्य-नैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दकशाहूछत्रपति-कोल्हापुररान प्रदत्त-जैनशास्त्राचार्य-पद-भूपितकोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्य-श्रीघासीलालबतिविरचितायां श्रीदशवकालिकमूत्रस्याऽऽचारमणिमन्जूपाख्यायां व्याख्यायां चतुर्थ 'षड्जीवनिकाया'-ऽऽख्यमध्ययनं समाप्तम् ।। ४ ॥ तत्त्वोंके यथार्थ स्वरूपका श्रद्धान करनेवाला सम्यग्दृष्टि जीव दुर्लभ श्रमणताको प्राप्त करके सदैव पहले कहे हुए स्वरूपवाले षडजीवनिकायकी मन वचन कायसे एकदेश या सर्वदेशसे कभी भी विराधना न करेपीड़ा न पहुँचावे ॥ श्रीसुधर्मास्वामी जम्बूस्वामीसे कहते हैं-हे जम्बू ! अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान महावीरसे जैसा मैंने सुना है वैसा ही तुझे कहा है-इत्यादि पहले के समान समझ लेना ॥२९॥ इति “षड्जीवनिकाया"-नामक चौथा अध्ययनका हिन्दीभापानुवाद समाप्त ॥४॥ તના યથાર્થ સ્વરૂપનું શ્રદ્ધાન કરવાવાળે સભ્યદૃષ્ટિ જીવ દુર્લભ શ્રમણતાને પ્રાપ્ત કરીને સદેવ પહેલા કહેલા સ્વરૂપવાળા વજીવનિકાયની મન વચન કાયાથી એકદેશ યા સર્વદેશે કરીને કદાપિ વિરાધના ન કરેપીડા ન ઉપજાવે. શ્રીસુધર્માસ્વામી જંબૂવામીને કહે છે–હે જંબૂ! અંતિમ તીર્થકર ભગવાન મહાવીર પાસેથી જેવું મેં સાંભળ્યું છે તેવું જ તને કહ્યું છે-ઈત્યાદિ પહેલાની પિઠે सभ यु (२८) ઈતિ “ઘડૂછવનિકાયા” નામક ચેથા અધ્યયનનું ગુજરાતી ભાષાનુવાદ સમાસ. (૪) Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ अध्ययन ५ अध्ययनोपक्रमः ३७५ अथ पञ्चमाध्ययनम् । गतं चतुर्थाध्ययनम् , तत्र च षड्जीवनिकायरक्षणलक्षणो भिक्षोराचारःप्रतिपादितः, स हि शरीरस्थित्यधीनपालनकः, शरीरं चाक्षम्रक्षणमन्तरेण शकटमिव इझालं विना वाष्पयन्त्रमिव जठरानलतापव्याधिवाधोपशमनौपधीभूतमाहारमन्तरेण वर्तितुमक्षममतोऽस्मिन् पञ्चमाध्ययने 'संयमिना कदा, कस्मात् , केन विधिना, कीगाहारो ग्रहीतव्यः ?' इति सविस्तरं प्रतिपादयितुमुपक्रमतेयद्वा-चतुर्थाध्ययने मूलगुणाः सन्दर्शिताः, इह तु मूलगुणपोषकोत्तरगुणा पांचवां अध्ययन। चौथे अध्ययनमें षड्जीवनिकायकी रक्षा-रूप भिक्षुका आचार प्रतिपादित किया गया है। इस आचारका पालन शरीरकी स्थिति पर निर्भर है। जैसे विना औगन (वांगण) के गाडी नहीं चल सकती, विना कोयलेके रेलगाड़ी नहीं चल सकती, उसी प्रकार जठराग्निके संताप रूप व्याधिकी बाधाको शान्त करनेके लिए औषधिके समान आहारको ग्रहण किये विना शरीरकी स्थिति नहीं रह सकती। इसलिए पांचवें अध्ययनमें विस्तारसे यह प्रतिपादन करते हैं कि 'संयमीको कब, किससे, किस विधिसे, और किस प्रकारका आहार ग्रहण करना चाहिये। - अथवा-चौथे अध्ययनमें मूल गुणोंका वर्णन किया गया है, इस अध्ययनमें मूलगुणोंको पुष्ट करनेवाले उत्तर गुणोंमेंसे पिण्डैषणाका पांचभु मध्ययन. ચેથા અધ્યયનમાં જીવનિકાયની રક્ષારૂપ ભિક્ષુને આચાર પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યા છે. આ આચારનું પાલન શરીરની સ્થિતિ પર નિર્ભર છે. જેમ ઉંજણ વિના ગાડું ચાલી શકતું નથી અને કેયલા વિના રેલગાડી ચાલી શકતી નથી તેમ જઠરાગ્નિના સંતાપ રૂપ વ્યાધીની બાધાને શાન્ત કર્યા વિના શરીરની સ્થિતિ રહી શકતી નથી તે માટે પાચમા અધ્યયનમાં વિસ્તારથી એ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે કે “સંયમીએ કયારે, કેની પાસેથી, કેવી વિધિથી અને કેવા પ્રકારનો આહાર ગ્રહણ કરે જોઈએ? અથવા-ચેથા અધ્યયનમાં મૂળ ગુણોનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે, આ અધ્યચનમાં મૂળ ગુણને પુષ્ટ કરનારા ઉત્તર ગુણેમાથી પિંડેષણનું કથન કરવામાં આવે છે. Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ श्रीदशवेकालिकसूत्रे न्तर्गता पिण्डेषणाऽभिधीयते । पिण्डेषणा च पिण्डस्य- समयभाषया प्रसिद्धस्यान्नपानस्यैपणारूपा, तत्र पिण्डनं पिण्डः = एकत्र समुदितवहुपदार्थसमुदायः सद्विविधःद्रव्यपिण्डो भावपिण्डव, तत्र क्षुधा विघातकत्वेनाशनादिरूपो द्रव्य पिण्डः, कर्मविघातकत्वेन ज्ञानादिलक्षणः प्रशस्तभावपिण्डः, अप्रशस्त भावपिण्डस्त्वसंयमादिरूपः प्रकृतानुपयोगित्वादुपेक्षितः । द्रव्य पिण्डो हि प्रशस्तभावपिण्ड परिपोषकस्तं विना तस्यासम्पाद्यत्वात्, तथाहि - ज्ञानाद्यात्मकमशस्वभावपिण्डस्याराधना शरीरस्थित्यधीना, शरीरपरिस्थितिथाहारं विना न यथावत्साधनायालम्, आहारादिकश्च द्रव्यपिण्ड एवेति सिद्धं द्रव्यपिण्डस्य प्रशस्त भावपिण्डपरिपोषकत्वम् । तस्य च सावद्य निरवयकथन करते हैं । 'पिण्ड' शास्त्रीय भाषामें अन्न-पान नामसे प्रसिद्ध है, उसकी एपणा करना 'पिण्डेषणा' है । एक स्थानपर बहुत पदार्थोंका समुदाय होना पिण्ड कहलाता है । पिण्ड दो प्रकारका है- (१) द्रव्यपिण्ड और (२) भावपिण्ड अशन आदिको द्रव्यपिण्ड कहते हैं, क्योंकि उससे क्षुधाका नाश होता है। ज्ञानादि प्रशस्त-भावपिण्ड है, क्योंकि वह कर्मोंका नाश करनेवाला है, अप्रशस्त-भावपिण्ड असंयमादिरूप है, उसका यहाँ अधिकार नहीं है । द्रव्यपिण्ड, प्रशस्त - भावपिण्डका पोषक है, क्योंकि उसके विना प्रशस्त-भावपिण्डकी प्राप्ति नहीं हो सकती, अर्थात् ज्ञानादिरूप प्रशस्त - भावपिण्डकी आराधना शरीरकी स्थितिके अधीन और शरीरकी स्थिति आहारके विना नहीं होसकती । आहार आदि द्रव्यपिण्ड ही है । इससे यह सिद्ध हुआ कि द्रव्यपिण्ड प्रशस्त भाव‘ પિંડ ’ શબ્દ શાસ્ત્રીય–ભાષામા અન્નપાનના નામે ઓળખાય છે, તેની એષણા કરવી એ પિંડૈષણા કહેવાય છે. એક સ્થાન પર ધણા પદાર્થોને સમુદાય હા मे 'पिंड ' 'हेवाय छे. पिंड में प्राश्नो होय छे, (१) द्रव्य-पिंड रहने (૨) ભાવપિંડ અશન આદિને દ્રવ્યપિંડ કહે છે કારણુ કે તેથી ક્ષુધાના નાશ થાય છે. જ્ઞાનાદિ એ પ્રશસ્ત-ભાવપડ છે, કારણ કે તે કર્મોને નાશ કરવાવાળું છે અપ્રશસ્ત-ભાવપિંડ અસયમાદિપ છે, એને અહી અધિકાર નથી દ્રવ્યપિંડ એ પ્રાન્ત-ભાવપિંડને પોષક છે, કારણ કે તેના વિના પ્રશસ્તભાવડની પ્રાપ્તિ થઈ શકતી નથી અર્થાત્ જ્ઞાનાદિ-રૂપ પ્રશસ્ત-ભાપિંડની અર્ધનારીની સ્થિતિને અધીન હૈ, અને શરીરની સ્થિતિ આહાર વિના હૈઈ શકતી નથી આહારાદિ દ્રવ્યડિજ ‰ તેથી એ સિદ્ધ થયુ કે દ્રવ્યપિંડ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. १- भक्तपानगवेषणाविधिः ३७७ भेदाभ्यां द्वैविध्येऽपि संयमिभिर्निरवद्यपिण्ड एव ग्राह्य इति तदेषणाधिकारः - 'संपत्ते' इत्यादि । २ 3 मूलम् - संपत्ते भिक्खकालम्मि, असंभंतो अमुच्छिओ । ૫ ૐ ७ ८ इमेण कमजोगेण, भत्तपाणं गवेस ॥ १ ॥ छाया - सम्माप्ते भिक्षाकालेऽसम्भ्रान्तोऽमूच्छितः । अनेन क्रमयोगेन भक्तपानं गवेषयेत् ॥ १॥ ॥ अथ पञ्चमाध्ययनम् ॥ सान्वयार्थ :- मुनिको आहारपानी लेने की विधि कहते हैं – भिक्खकालम्मि= गोचरीका समय संपत्ते = होनेपर असंभंतो- उद्वेगरहित (और) अमुच्छिओ= आसक्तिरहित होकर इमेण कमजोगेण= इस आगे बताई जानेवाली विधिसे भत्तपाणं = भात- पानीकी गवेसए= गवेषणा करे | टीका - भिक्षाकाले गोचरीसमये, सम्प्राप्ते = स्वाध्यायाद्यनन्तरं द्रव्यक्षेत्र - कालभावानुकूलतया समायाते ' मुनि 'रिति शेषः, असम्भ्रान्तः = यत्किञ्चिन्निमित्तजनितचित्तव्याक्षेपजन्यत्वरारहितः - अनाक्षिप्तचित्त इत्यर्थः, ईर्योपयोगवानिति भावः, 'कदा कुत्र वाशनादिमाप्तिर्भविष्यती' त्यादिचिन्ताऽऽहितचाञ्चल्यरहित इति पिण्डका पोषक है । द्रव्यपिण्ड, सावग्र भी होता है और निरवद्य भी होता है। संयमीको निरवद्य पिण्ड ही ग्रहण करना चाहिए; इसलिए द्रव्यपिण्डकी एषणाका अधिकार आरम्भ किया जाता है 'संपत्ते' इत्यादि । द्रव्यक्षेत्र कालभावके अनुसार स्वाध्याय आदि क्रियाओंके पश्चात् जब गोचरीका समय हो तब मुनि किसी कारणवश उत्पन्न हुए चित्तविक्षेपजन्य भ्रान्तिरहित होकर, अर्थात् ईर्ष्या (गमन) में उपयोग रखकर, अथवा ' कब और कहाँ अशन आदिकी प्राप्ति होगी ? इस પ્રશસ્ત ભાવપિંડના પાષક છે દ્રવ્યપિંડ સાવદ્ય પણ હોય છે અને નિરવદ્ય પણ હાય છે. સયમીએ તા નિરવદ્યપિંડ જ ગ્રહણ કરવા જોઇએ એટલા માટે દ્રશ્યपिंडनी शेषणाना अधिभर आरंभवामां आवे छे-संपत्ते भिक्खकालम्मि त्याहि. દ્રવ્ય—ક્ષેત્ર—કાળ—ભાવને અનુસાર સ્વાધ્યાયાદિ ક્રિયાઓની પછી જ્યારે ગૌચરીને સમય થાય ત્યારે મુનિ કોઇ કારણવશ ઉત્પન્ન થયેલા ચિત્તવિક્ષેપથી જન્મેલી ભ્રાન્તિથી રહિત થઈને અથાત્ ઈર્ષ્યા (ગમન)માં ઉપયેગ રાખીને, અથવા કયારે અને કયાં અશન આદિની પ્રાપ્તિ થશે ? એ પ્રકારની ચિંતાજન્ય Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ श्रीदशकालिकसूत्रे यावद, अमूच्छितः आहारादौ मनोरमशब्दादिविषयेषु वा नासक्तः सन् अनेन= वक्ष्यमाणेनैतदध्ययनव्यावर्णितस्वरूपेण क्रमयोगेन-प्रकारेण भक्तपानं-भतं च पानं चेत्यनयोः समाहारे भक्तपानम् , भक्तम्, ओदनादिकम् , पानन्द्राक्षादिजलं मुनियोग्य गवेपयेत् अन्वेपयेत् (अन्विच्छेत्)। 'संपत्ते' इत्यनेन मुनिना यथासमयं कार्य सम्पादनीय' मित्याविष्कृतम् । 'असंभंतो' इत्यतो मनास्थैर्य विधेयमित्युपदिष्टम् । 'अमुच्छिओ' इत्यनेन विषयगृध्नुत्वमपाकृतम् ॥१॥ गवेपणाविधिमाह- से गामे वा' इत्यादि।। मूलम्-से गामे वा नयरे वा, गोयरग्गगओ मुणी। चरे मंटमर्णावग्गो, अवखित्तेण चेयसा ॥ २ ॥ छाया-स ग्रामे वा नगरे वा, गोचराग्रगतो मुनिः।। ___ चरेन्मन्दमनुद्विमोऽव्याक्षिप्तेन चेतसा ||२|| • सान्वयार्थः-से-बह मुणी साधु गामे गाँव वा=अथवा नगरे नगरमें वानिश्चयसे गोयरग्गगओ-निर्दीप भिक्षाके लिए गया हुआ अणुविग्गो-उद्वेग प्रकारकी चिन्ताजन्य चचलतासे रहित होकर आहार तथा मनोज शब्दादि विषयोंमें आसक्त न होता हुआ, जैसा इस अध्ययनमें वर्णन किया गया है उस विधिसे, मुनिके योग्य ओदन आदि भक्त तथा दाख आदिका धोवनरूप पानकी गवेषणा करे। गाथामें 'संपत्ते' पदसे यह सूचित्त किया है कि मुनिको समय पर ही कार्य करना चाहिए । 'असंभंतो' पदसे यह प्रगट किया है कि माधुको मनकी स्थिरता रखनी चाहिए । 'अमुच्छिओ' पदसे विपयोंमें आसक्तिका निराकरण किया गया है ॥१॥ ચંચલતાથી રહિત થઈને આહાર તથા મનેણ-શબ્દાદિ વિમા આસકત ન થતાં, આ અધ્યયનમાં વર્ણવ્યા પ્રમાણેની વિધિથી, મુનિને દિન આદિ ભાત તથા દ્રાક્ષ આદિના ધોવણુરૂપ પાનની ગવે શું કરે ગાધામ સંપત્તિ દિથી એમ સુચિત કરવામાં આવ્યું છે કે મુનિએ સમય પર જ કાર્ય કરવું જોઇએ કમંતો શબ્દથી એમ પ્રકટ કર્યું છે કે સાધુએ મનની દિધતા રાખવી જોઈએ વસિયો શબ્દથી દિપમાં આસક્તિનું નિમ ४२० ४२पामा मा०यु छ (1) Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७९ अध्ययन ५ उ १ गा. २-गोचयाँ चित्तस्थैर्योपदेशः रहित होता हुआ अव्वक्खित्तेण-शान्त-स्थिर चेयसा-चित्तसे मंद इर्यासमिति सोधता हुआ चरे-जावे ॥२॥ ___टीका-से-अथ-पिण्डगवेषणासमये, यद्वा 'से' इति तच्छब्दस्य प्रथमैकवचनरूपं तेन सा पक्रान्तः मुनिः मुणति-प्रतिजानीते सर्वसावधव्यापारोपरतिमिति, मन्यते-जानाति जिनाज्ञयाऽनेकान्तात्मकजीवाऽजीवादिपदार्थसार्थमिति वा 'मुनिः अनगारः, स च द्विविधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतः-मुनि कर्तव्यक्रियाकलापविकलो लिङ्गमात्रोपजीवी, भावतस्तु-मोहनीयकर्मक्षय-क्षयोपशमसमुद्भूतज्ञानादिरत्नत्रयप्रकटीभूतात्मस्वरूपः, प्रकृते च भावमुनिः प्रसङ्गगम्यः। १ आधे 'मुण प्रतिज्ञाने' अस्मादौणादिक इन्, पृपोदरादित्वाण्णस्य नः । द्वितीये-'मन ज्ञाने' इति धातोः ‘मनेरुच्चे'-त्यौणादिकमत्रेण इन्प्रत्ययः स च कित् अकारस्योकारादेशश्च । यद्वा 'मुणी' इति प्राकृतसमः संस्कृत एव, शब्दसिद्धिरप्युक्तव, तदा छायायां 'मुणिः' इत्यपि समावेशमर्हति । अव गवेषणाकी विधि बताते हैं-'से गामे वा०' इत्यादि। 'मुनि' शब्दके अनेक अर्थ हैं-(१) जो समस्त सावद्य व्यापारके त्यागकी प्रतिज्ञा करते हैं उन्हे मुनि कहते हैं । (२) जिनेन्द्र भगवान्की आज्ञाके अनुसार जीव अजीव आदि पदार्थोंको अनेकान्तस्वरूप जानने वाले मुनि कहलाते हैं । मुनि दो प्रकारके होते है-(१) द्रव्यमुनि और (२) भावमुनि । मुनियोंके आचारका पालन न करनेवाला मुनिवेषधारी द्रव्यमुनि कहलाता है । मोहनीय कर्मके क्षय और क्षयोपशमसे उत्पन्न हुए सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयके द्वारा जिनकी आत्माका स्वरूप प्रकट होगया है उन्हें भावमुनि कहते हैं । यहां भावमुनिका अधिकार समझना चाहिए। वे गवेषणानी विधि मतावे छे-से गामे वा० त्या મુનિ શબ્દના અનેક અર્થો છે. (૧) જે સર્વ સાવદ્ય વ્યાપારના ત્યાગની પ્રતિજ્ઞા કરે છે–તેને મુનિ કહે છે. (૨) જિનેન્દ્ર ભગવાનની આજ્ઞાને અનુસાર જીવ અજીવ આદિ પદાર્થોને અનેકાન્તસ્વરૂપ જાણવાવાળા મુનિ કહેવાય છે. મુનિ બે પ્રકારના હોય છે (૧) દ્રવ્યમુનિ અને (૨) ભાવમુનિ મુનિઓના આચારનું પાલન ન કરનારા મુનિવેષધારી દ્રવ્યમુનિ કહેવાય છે, મેહનીય કર્મના ક્ષય અને ક્ષપશમથી ઉત્પન્ન થએલા સમ્યગાન સમ્યગુદર્શન અને સભ્યફચારિત્રરૂપ રત્નત્રયની દ્વારા જેના આત્માનું સ્વરૂપ પ્રકટ થઈ ગયું છે. તેને ભાવમુનિ કહે છે. અહી ભાવમુનિને અધિકાર સમજ જોઈએ, Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसत्रे ग्रामे वा अथवा नगरे, द्वितीय-'वा'-शब्दात् खेटकवटादौ, गोचराग्रगतःगोरित्र चरणं यथायोग्यं स्वल्पस्वल्पग्रहणं गोचरः, अग्रः-आधाकर्मादिदोपरहिततया श्रेष्ठः, स चासौ गोचरश्चेति गोचरागः, आपत्वाद्विशेषणपूर्वनिपाताभावः, अग्रगोचर इत्यथः, तत्र गतःवर्तमानः गोचराग्रगतः अव्याक्षिप्तेन स्थिरेण भिक्षागतसकलदोपोपयोगवतेत्यर्थः, चेतसा-चित्तेन अनुद्विग्नः-अलाभादिपरीपहजनितक्षोभरहितः, मन्दं शनैर्यथास्यात्तथा ईर्यापथं शोधयन्नित्यर्थः, चरेत् गच्छेत् । 'गोयरग्गगओ' इत्यनेन नवकोटिविशुद्धाहारो ग्रहीतव्य इति सूचितम् । 'अव्वक्खित्तेण चेयसा' इत्यनेन चित्तस्थर्येणेव भिक्षादिशुद्धिर्भवतीति ध्वनितम् । 'अणुविग्गो' इत्यतः परीपहसहनसामर्थ्य वोधितम् ॥ २ ॥ . गोचरीगमनप्रकारानाह-'पुरओ' इत्यादि ।। _वह भावमुनि पिण्ड-गवेषणाका समय होने पर ग्राम, नगर खेडा, कर्वट आदिमें यथायोग्य थोड़ा-थोडा निर्दोष आहार ग्रहण करता हुआ भिक्षाके समस्त दोषोंका उपयोग रखनेवाले अर्थात् अव्याक्षिप्त चित्तसे अलाभ आदि परीपह जनित क्षोभसे रहित होकर ईर्यापथ शोधते हुए मन्दगतिसे चले। __ 'गोयरग्गगओ' पदसे यह सूचित हुआ है कि साधुको नवकोटिविशुद्ध आहार लेना चाहिए। 'अब्वक्वित्तेण चेयसा' इससे यह धोतित होता है कि चित्तकी स्थिरतासे ही भिक्षाकी शुद्धि निभ सकती है। 'अणुविग्गो' पदसे परीषद सहनेका सामर्थ्य प्रगट किया है ॥२॥ गोचरीके लिए गमनविधि यताते हैं-'पुरओ' इत्यादि । એ ભાવ મુનિ પિંડગવેવણને સમય થતાં ગ્રામ, નગર, ગામડું, કર્વર આદિમાં યથાયેગ્ય ઘડો થેડે નિર્દેવ આહાર ગ્રહણ કરતાં, ભિક્ષાના બધા દેને ઉપગ રાખવાવાળ અર્થાત અવ્યાક્ષિત-ચિત્તથી અલાભ આદિ પરીવસ્તુથી ઉત્પન્ન થતા ક્ષેભથી રહિત થઈને ઈર્યાપથ શોધતાં મંદ ગતિએ ચાલે. गोयरग्गगी थी मे सूयित युछे साधुमे नयरिये विशुद्ध આહાર લેવું જોઈએ કવિ જેવા એથી એમ પ્રકટ થાય છે કે ચિત્તની स्थितायी निशानी शुद्धि नमी थे, अगुब्बिग्गो साथी पर सर. વાનું સામર્થ્ય પ્રકટ કર્યું છે (૨) सायीन भाट गमनविधि ताछे-पुरो प्रत्याहि. - Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ३ - गोचर्यां गमनविधिः 3 ર ૧૦ मूलम् - पुरओ जुगमायाए, पेहमाणो महिं चरे । પ ७ वजंतो बीयहरियाई, पाणे य दगमट्टियं ॥ ३ ॥ छाया - पुरतो युगमात्रया, प्रेक्षमाणो महीं चरेत् । वर्जयन् वीजहरितानि, प्राणश्च दकमृत्तिकाम् ||३॥ गोचरी में चलने की विधि कहते हैं— सान्वयार्थ :- पुरओ-सामने जुगमायाए = धूसर प्रमाण दृष्टिसे महि = पृथिवीको पेहमाणो-देखता हुआ बीयहरियाई - बीज, हरी, पाणे द्वीन्द्रियादिक पाणी य= और दगम हियं सचित्त जल तथा सचित्त मिट्टीको वज्र्ज्जतो =वर्जता हुआ चरे=चले ||३|| टीका - युगमात्रया = जूसरभमाणया तत्प्रमाणमसृतयेत्यर्थः 'दृष्टये 'ति शेषः । वस्तुतस्तु 'कचिद्वितीयादेः' इति नियमादत्र द्वितीयार्थे षष्ठी, तेन 'जुगमायाए ' इत्यस्य 'युगमात्रा' - मिति च्छाया, तथाच - युगमात्रां= मोक्तार्थी स्वशरीरममितामिति भावः, महीं=भूमिं मार्गभूमिमिति भावः, पुरतः = स्वाग्रतः प्रेक्षमाणः = सम्यगवलोकयन् वीजहरितानि=प्रसिद्धानि, प्राणान् = द्वीन्द्रियादिप्राणिनः, दकमृत्तिकां= सचित्तं जलं मृत्तिकां च वर्जयन् = परिहरन् चरेत् = गच्छेत् ॥३॥ 3 ४ ૫ ૬ ७ मूलम् - ओवायं विसमं खाणुं, विजलं परिवज्जए । ३८१ ૯ ૧૦ २ संकमेण न गच्छिना, विज्जमाणे परक्कमे ॥ ४॥ छाया - अवपातं विषमं स्थाणुं, विजल परिवर्जयेत् । सक्रमेण न गच्छेत्, विद्यमाने पराक्रमे ॥४॥ सान्वयार्थः- परक्कमे= दूसरे मार्ग के विजमाणे = ढोनेपर (साधु) ओवाय = जिस मार्ग में गिर पड़नेकी शंका हो विसमं खड़े आदिके कारण विकट हो खाणुं = काटे हुए धान्यके डंठलोंसे युक्त (और) विजलं = कीचड़वाला हो उस अपने शरीर प्रमाण रास्ता सामने भली भाँति अवलोकन करता हुआ, बीज, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय आदि प्राणी सचित्तजल और सचित्त मृत्तिकाको बचाता हुआ गमन करे ॥ ३॥ પેાતાના શરીર પ્રમાણુ રસ્તા સામે સારી રીતે અવલેકન કરતાં, ખીજ, વનસ્પતિકાય, દ્વીન્દ્રિયાદિ પ્રાણી, ચિત્ત જળ અને ચિત્ત માટીને ખચાવી होता गमन पुरे (3) Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ श्रीदशवकालिकसूत्रे मार्गको परिवज्जए छोड़े, तथा संकमेण कीचड आदिके कारण जिस मार्गमें ईट काठ आदि लांघने के लिए रखे हों उससे भी न गच्छेज्जा नहीं जावे ॥४॥ टीका-ओवायं.' इत्यादि । 'परकमे' इति आक्रमणमाक्रमः अवलम्बनं परश्वासावाक्रमश्च पराक्रमः परस्याऽऽक्रमो वा पराक्रमस्तस्मिन् , यद्वा 'परक्रमे इतिच्छाया, ततश्च परश्चासौ क्रमश्च परक्रमस्तस्मिन् ‘सर्वथा गत्यन्तरे' इत्यर्थस्तथा च-पराक्रमे अथवा परक्रमे उपाये विद्यमाने वर्तमाने सति अवपातः स्खलनस्थानं सत्यप्यालोके येन सञ्चरणे स्खलनमवश्यसम्भाव्यं तम् , विपमं दुर्गमत्वाद्विकटं मार्ग स्थाणु-लूनसस्यादिस्थुडं तद्बहुलं क्षेत्रादिमार्गमित्यर्थः, विजलं-विगतं जलं यस्मात्तत् तथोक्तं पड्विलस्थलं परिवर्जयेत् परित्यजेत् , संक्रमेण संक्रम्यते समुलध्यते जलकदमादिवहुलविषमस्थानं येन स संक्रमः इष्टका-काष्ठ-पापाणादिनिर्मितमार्गविशेपस्तेन न गच्छेत् न सञ्चरेत् । 'विजमाणे परक्कमे' इत्यनेनोपायान्तराभावे नायं प्रतिषेध इत्यपवादः मचितः ॥४॥ १ गतमयतया संभावितस्खलनकम् । २ उन्नताऽवनतत्वादुर्गमम् । 'ओवायं०' इत्यादि । पर अवलम्बको यहाँ पर परक्रम अथवा पराक्रमसे कहा गया है अत एव अर्थ यह है कि दूसरे मार्गके रहते हुए, जिसमें चलनेसे गिर पड़नेकी संभावना हो, दुर्गम होने के कारण विकट हो, जिसमें काटे हुए ज्वार आदिके डंठल हों, और जो कीचड़. वाला हो, जल-कीचड आदिकी अधिकता होनेसे लांघनेके लिए ईट, काष्ठ, पत्थर आदि रखे हुए हों, उस विपम मार्गसे गमन न करे। 'विजमाणे परकमे' इस पदसे यह सूचित किया है कि दूसरा ગોવા, ઈત્યાદિ પર અવલંબને અહીં પરકમ અથવા પરાક્રમથી કહેવામાં આવેલ છે, એથી એ અર્થ થાય છે કે બીજો માર્ગ હોવા છતા, જેમાં ચાલવાથી પડી જવાની સંભાવના હોય, દુર્ગમ હોવાને લીધે વિકટ હોય, જેમાં કાપેલી જુવાર આદિનાં કુંડા હોય, અને જે કીચડવાળો હોય, પાણી-કીચડ વગેરે વધુ હેવાના કારણે એળ ગવા માટે ઈટ, લાકડું કે પથર આદિ રાખેલાં હેય, એવા વિષમ માર્ગથી ગમન ન કરે. વિમા પર એ શબ્દથી એમ સૂચવ્યું છે કે બીજો માર્ગ ન હોય Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ५-विषममार्गगमने विराधना तत्र गच्छतो हानिमाह-'पवडते' इत्यादि । मूलम्-पवडते व से तत्थ, पक्खलंते व संजए। हिंसेज पाणभ्याई, तसे अदुव थावरे ॥५॥ छाया-प्रपतंश्च स तत्र, प्रस्खलँश्च संयतः। हिस्यात्माणभूतानि, सान् अथवा स्थावरान् ॥५॥ पूर्वोक्त मार्गसे जाने में दोष बताते हैं सान्वयार्थः-से-उस मार्गसे जानेवाला वह संजए-साधु क-यदि तत्थ वहां पवडते-गिर जाय व अथवा पक्खलंते रपट पड़े तो तसे त्रस-द्वीन्द्रियादि अदुव अथवा थावरे-स्थावर-पृथिव्यादि पाणभूयाई-भाणी भूतोंकी हिंसेज्जा हिंसा करे। अर्थात् ऐसे मार्ग में जानेसे साधुको आत्म और संयम दोनोंकी विराधनाका संभव है ॥५॥ टीका-तत्र-तस्मिन् अवपातादौ प्रपतन् प्रस्खलँश्च स संयतः साधुः प्रसान् द्वीन्द्रियादिलक्षणान् , स्थावरान् पृथिव्यायेकेन्द्रियान्, अथवा प्राणभूतानित्रसस्थावरोभयविधान् प्राणिनो हिंस्यात्-मर्दयेत् पीडयेदिति यावत् । पतनादिना चाऽऽत्मविराधनाधपि नियतं भावीति भावः ॥५॥ मार्ग न हो तो यह निषेध नहीं है-अर्थात् अन्य मार्गके अभावमें ऐसे मार्गसे भी जा सकते हैं ॥४॥ ऐसे मार्गमें चलनेसे होनेवाली हानि बताते है-'पवडते.' इत्यादि। यदि अवपात आदि पूर्वोक्त मार्गोंमें गमन करनेसे गिर पड़े या रपट जावे तो द्वीन्द्रिय आदि त्रस या पृथिवीकायिक आदि स्थावर जीवोंकी अथवा दोनों प्रकारके जीवोंकी हिंसा होती है तथा गिरने आदिसे आत्मविराधना भी अवश्य होती है ॥५॥ તે એને નિષેધ નથી–અર્થાત અન્ય માર્ગને અભાવે એવા માર્ગથી પણ જઈ शाय छ (४) मेवा भाभा यासवाथी थनारी नि सतावे छ- पवडते. त्यादि જે અપાત આદિ પૂર્વોક્ત માર્ગોમાં ગમન કરવાથી પડી જાય ત્યા લપસી જાય તે દ્વીન્દ્રિયાદિ ત્રસ યા પૃથ્વીકાયિક આદિ સ્થાવર જીવેની અથવા બેઉ પ્રકારના જીવોની હિંસા થાય છે, તથા પડવાથી આત્મવિરાધના પણ અવશ્ય थाय छ (५) Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीदशवकालिकम्त्रे - - - मूलम् तम्हा तेण न गच्छिज्जा, संजए सुसमाहिए। सइ अन्नेण मग्गेण, जयमेव परकमे ॥६॥ छाया-तस्मात् तेन न गच्छेत् , संयतः मुसमाहितः । सत्यन्यस्मिन् मार्गे, यतमेव पराक्रामेत् ॥६॥ सान्वयार्थ:-तम्हा=इसलिए सइ अन्नेण मग्गेण-दूसरे मार्गके होते हुए सुसमाहिए भगवान्की आज्ञाका आराधक संजए-साधु तेण-उस मार्गसे न गच्छिज्जा-नहीं जावे, (अगर दूसरा मार्ग न हो तो साधु उसी मार्गसे) जयमेव-जीवोंकी यतना करता हुआ परक्कमे गमन करे ॥६॥ - टीका-'तम्हा' इत्यादि । तस्मात्-सस्थावरादिहिंसाभयाद्धेतोः मुसमाहिता सकलपाणिगणसंरक्षणप्रवणान्तःकरणः संयतः अन्यस्मिन् मार्गे सतिविद्यमाने तेन गादिमार्गेण न गच्छेत् । अन्यमार्गाभावे तु तेनापि गादिमार्गेणापि यतमेव-सयत्नमेव यतनयैवेत्यर्थः, पराक्रामेत् गच्छेत् । 'संजए' इत्यनेनाऽनगारस्य यत्नवत्त्वम्, 'सुसमाहिए' इत्यनेन चोपयोगवच्चं प्रतिपादितम् । अत्रेदमवधेयम् चतुर्थगाथया प्रतिजातेऽर्थे पञ्चमगाथया हेतुमुपन्यस्यानया पप्ठ__ 'तम्हा' इत्यादि । स स्थावरकी विराधनाके भयसे समस्त प्राणियोंकी रक्षा करनेकी इच्छावाले मुनि अन्य मार्ग होनेपर उस खड्डे आदिवाले मार्गसे गमन न करे। दुसरा मार्ग न हो तो उसी मार्गसे यतनापूर्वक गमन करे । 'संजए' पदसे साधुकी यतनापरायणता और 'सुसमाहिए' पदसे उपयोगवत्ता प्रगट की है। ___ यहाँ पर यह बात समझनेकी है कि चौथी, पाँचवों और छठी, इन तीनों गाथाओंसे परार्थानुमानका प्रकार दर्शाया गया है, अर्थात चौथी तम्हा त्या. उस स्थापना विराधनाना खायधी गधा प्राधागानी २६॥ કરવાની ઈચ્છાવાળા મુનિ બીજો માર્ગ હોવા છતાં એ બાડા આદિવાળા માર્ગથી ગમન કરે નહિ બીજો માર્ગ ન હોય તે એ માર્ગ યતનાપૂર્વક ગમન કરે संजए Aथी साधुनी यतनायनयाता भने मुसमाहिए थी येगबत्ता પ્રકટ કરવામાં આવી છે અ એ વાત સમજવાની છે કે, જેથી પાચમી અને છઠ્ઠી એ ત્રણ ગાથાઓથી પાર્વાનુમાનને પ્રકાર દર્શાવવામાં આવ્યું છે અર્થાત ચોથી Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ७-८ - गमने पृथिवीकायादियतना ३८५ गाथयोपसंहारः कृत इति परार्थानुमानमकारो दर्शितो गाथाभिराभिस्तिसृभिरिति ६ । पृथिवीकाययतनामाह--' इंगालं ' इत्यादि । ५ ૯ ૧૦ ७ मूलम् - इंगालं छारियं रासिं, तुसरासिं च गोमयं । ૨ 3 ४ ससरक्खेहिं पाएहि, संजओ तं नइक्कमे ॥ ७ ॥ छाया - आङ्गारं क्षारिकं राशि, तुषराशिं च गोमयम् । सरजस्काभ्यां पादाभ्यां, संयतस्तं नातिक्रामेत् ॥७॥ पृथिवीकाय की यतना कहते हैं सान्वयार्थ :- संजओ - साधु ससरक्खेहिं सचित रजसे भरे हुए पाएहि = पैरोंसे तं=उस इंगालं= कोयलेके तथा छारियं = राखके तुसरासिं= भूसेके पुंजको च और गोमयं = गोवर के पुञ्जको न करे अर्थात् इन पर पैर रखकर न जावे ॥ ७॥ रासि = पुञ्ज - ढेर को नइक्कमे = आक्रमण टीका - संयतः सरजस्काभ्यां = सचित्तधूलिधूसरिताभ्यां पादाभ्याम् = चरणाभ्याम् तं=परिहार्यतया प्रसिद्धम् आङ्गारम् = अङ्गारसम्बन्धिनम्, क्षारिकं=भस्मसम्वन्धिनम् गोमयं = गोमय (गोपुरीष) - सम्बन्धिनम् राशि= पुञ्जम् तुपराशि = धान्यत्वकपुचं च नातिक्रामेत्= तदुपरि सचित्तरजोऽत्रगुण्ठितचरणावारोप्य न चरेदित्यर्थः, पृथिवीकायविराधनासंभवात् । उपलक्षणतश्च यत्र पृथिवीकायोपमर्दनं संभवति तत्सर्वमतिक्रम्य न क्रामेदिति ॥७॥ गाथासे प्रतिज्ञा पाँचवीं गाथासे हेतु और छठी गाथासे उपसंहार किया गया है ॥६॥ अव पृथिवीकायकी यतना कहते हैं-' इंगालं ' इत्यादि । साधु, सचित्तधूलियुक्त पैरोंसे अंगार, भस्म (राख) और गोवर आदिकी राशिको न लाँचे, तथा तुषराशिका भी उल्लंघन करके न जावे । क्योंकि इससे पृथ्वीकायकी हिंसा होती है। उपलक्षणसे यह भी समझना चाहिए कि जिससे पृथिवीकायकीविराधना ही उसकोलांघकर गमन नकरे ||७|| ઉપસ હાર કરવામા ગાથાથી પ્રતિજ્ઞા, પાંચમી ગાથાથી હેતુ અને છઠ્ઠી ગાથાથી सान्यो छे (६) હવે પૃથિવીકાયની યતના કહે છે ફુંગારું ઇત્યાદિ સાધુ, સચિત્ત-મૂળયુક્ત પગે અંગાર ભસ્મ (રાખ) અને છાણુ આદિના * ઢગલાને ન ઓળંગે તથા તુષ ( ભૂસુ ) ના ઢગલાનું પણ ઉલ ઘન કરીને ન જાય; કારણ કે એથી પૃથ્વીકાયની હિંસા થાય છે ઉપલક્ષણે કરીને એમ પણ સમજવું કે જેથી પૃથિકીકાયની વિરાધના થાય એને ઉલ ધીને ગમન ન કરે. (૭) Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे - अपकायादियतनामाह-'न चरेन' इत्यादि । मूलम् न चरेज वासे वासते, मिहियाए पडतिए । 'महावाए व वायंते, तिरिच्छसंपाइमेसु वा ॥८॥ छाया-न चरेद् वर्षे वर्षति, मिहिकायां पतन्त्याम् । महावाते वा. वाति, तिर्यसंपातेषु वा ॥८॥ अप्काय आदिकी यतना कहते हैंसान्वयार्थः-वासे वासंते वर्षा वरसते हुए मिहियाए पहंतिए धूअर-कुहरागिरते हुए व-तथा महावाए वायंते महावायु-आँधी-के चलते हुए वा और तिरिच्छसंपाइमेसु-तीड-पतंगादिकोंके उडते हुए (साधु) न चरेजगोचरी न जावे ॥८॥ टीका-वर्षे वर्पतिवृष्टौ सत्याम् , मिहिकायां धूमिकायां पतन्त्यां सत्यां महावातेप्रचण्डपवने वाति वहति सति, तिर्यक्सम्पातेपु-तिर्य पतनशीलेषु शलभादिषु सत्सु न चरेत् । 'वासे वास्ते' इत्यनेन शीकरपातसमयेऽपि गमननिषेधः तस्यापि दृष्टावन्तर्भावात् अप्कायविराधनासाधनत्वाच्च ॥८॥ उक्ता प्रथममहाव्रतविराधनाऽधुना चतुर्थमहाव्रतविराधनाया इतरमहाव्रतविराधनाअप्कायादिकी यतना कहते हैं-'न चरेज वासे० ' इत्यादि। जब वर्षा बरस रही हो, कुहरा (बूंअर) पड़ रहा हो, आँधी चल रही हो, टिड्डी आदि उड़ रहे हों, तब साधु गमन न करे। 'वासे वासंते' इस पदसे यह भी ग्रहण कर लेना चाहिए कि जब फुहारे पड़ रहे हों तष भी गमन न करे, क्योंकि वह भी वर्षाहीमें अन्तर्गत है और उस समय जानेसे अप्कायकी विराधना होती है ॥८॥ प्रथम महाव्रतकी विराधना बतानेके बाद अब अन्यमहाव्रतोंकी विराधना ___ अ५४ायाहिनी यतना ४९ छ-न चरेज्ज वासे० त्या न्यारे १२साई વરસી રહ્યો હોય, ધુમસ (ઝાકળ પડી રહ્યો હોય, આધી ચાલી રહી હય, ટીડ ઉડી રહ્યાં હોય, ત્યારે સાધુ ગમન ન કરે વારે વારે એ શબ્દથી એમ પણ ગ્રહણ કરી લેવું જોઈએ કે જ્યારે વરસાદની ફરફર પડી રહી હોય ત્યારે પણ ગમન ન કરે, કારણ કે તે પણ વરસાદમાં જ આવી જાય છે, અને તે સમયે જવાથી मायनी विराधना थाय छे (८) પ્રથમ મહાવ્રતની વિરાધને બતાવ્યા પછી હવે બીજા મહાવ્રતની વિરાધનાના Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अध्ययन ५ उ. १ गा. ९-ब्रह्मचर्यव्रतयतना हेतुभूततया तामाह-'न चरेज्ज वेस०' इत्यादि । मूलम् न चरेज वेससामंते, बंभचेरवसाणुए । बंभयारिस्स दंतस्स, हुज्जा तत्थ विसुत्तिया ॥९॥ छाया-न चरेद् वेशसामन्ते, ब्रह्मचर्यवशानुगः । ब्रह्मचारिणो दान्तस्य, भवेत्तत्र विस्रोतसिका ॥९॥ ब्रह्मचर्य ही सव व्रतों का कारण है, अतः चतुर्थवत की यतना कहते हैं सान्वयार्थः-बंभचेरवसाणुए ब्रह्मचर्यकी रक्षा चाहनेवाला साधु वेससामते वेश्याके पाड़े-मुहल्ले में न चरेज्ज-गोचरी नहीं जावे, (क्योंकि) तत्थ वहां (गोचरी जानेसे) दंतस्स इन्द्रिय और मनको काबूमें रखनेवाले वंभयारिस्स-ब्रह्मचारी साधुके भी विसुत्तिया मानसिक विकार हुज्जा पैदा हो जाता है, साधारण मनुष्यकी तो बातही क्या ? अर्थात् उसके मानसिक विकार जरूर उत्पन्न हो जाता है ॥९।। क्योंकि टीका-ब्रह्मचर्यवंशानुगः ब्रह्मचर्य कामवासनापरित्यागलक्षणव्रतं, वशं स्वायत्तताम् अनुगमयतिप्रापयतीति स तथोक्तः ब्रह्मचारीत्यर्थः । यद्वा 'ब्रह्मचविसानके' इति, 'ब्रह्मचर्यवशाऽऽनये' इति वा संस्कृतं, तस्य 'वेशसामन्ते' इत्यनेन विशेषणतया सम्बन्धस्तथा च-ब्रह्मचर्यस्यावसानम् अन्तो यस्मात्स तस्मिन्-ब्रह्मचर्यविनाशके इति प्रथमस्यार्थः । ब्रह्मचर्य वशमानयति दर्शनादिना स्वाधीनं करोतीति ब्रह्मचर्यवशानयस्तस्मिन् ब्रह्मचर्यभ्रंशके इति द्वितीयस्यार्थः । वेशसामन्ते वेशः वेश्यागृहम् 'वेशों वेश्यागृहे गृहे' इति कोशाव, तस्य सामन्ते समीपे वेश्यापाटके वा न चरेत्न गच्छेत् । का हानि ? रित्याह'ब्रह्मे-ति, तत्र वेशसामन्ते गमनेनेति प्रसङ्गलभ्यम् , दान्तस्य-जितेन्द्रियस्यापि के कारण होनेसे चतुर्थ महाव्रतकी विराधनाका कथन करते हैं-'न चरेज वेस०' इत्यादि। ब्रह्मचारी साधु गोचरीके लिए, ब्रह्मचर्यका नाश करनेवाले वेश्याघरके समीपमें या वेश्याके पाड़े (मुहल्ले) में न जावे । वहाँ जानेसे क्या हानि है ? सो बताते हैं वेश्याके पाडेमें गमन करनेसे जितेन्द्रिय ब्रह्म१२७१ डावान सीधेयतुर्थ भातना विराधनानु ४थन १२ छ: न चरेज्ज वेस० छत्या. ન બ્રહ્મચારી સાધુ ગોચરીને માટે, બ્રહ્મચર્યને નાશ કરવાવાળા વેશ્યાગૃહની સમીપે યા વેશ્યાઓના મહેલલામાં ન જાય ત્યાં જવામાં શી હરક્ત છે? તે હવે બતાવે છે –વેશ્યાના મહેલામા ગમન કરવાથી જિતેન્દ્રિય બ્રહ્યાચારી Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ श्रीदशवेकालिकसूत्रे ब्रह्मचारिणः = साधोर्विस्रोतसिका = तदूपलावण्यावलोकनचिन्तनादि कचवरेण चेतोनलिकासमागच्छद्भावनासलिलप्रवाह निरोधे श्रद्धाभूमिसमुत्पन्नब्रह्मचर्यमूलका - हिंसासत्यास्तेयाऽपरिग्रहरूपाऽऽलवालसंवर्द्धित - ज्ञान - क्रियास्कन्धसुदृढ - समितिगुप्त्यादिशाखामशाखावितता - ऽष्टादशसहस्त्रशीलाङ्गपत्र-ध्यान- कुसुमाऽपवर्ग-फलसम्पसमृद्धसंयमद्रुमशोषिणी चित्तविकृतिर्भवेदिति सूत्रार्थः ॥ ९ ॥ सकृद्गमनदोषं प्रतिपाद्येदानीमसकृद्गमनदोषान् प्रदर्शयति- 'अणाययणे' इत्यादि । ૧ 3 ४ २ मूलम् - अणाययणे वरंतस्स, संसग्गीए अभिक्खणं । ૫ ७ ५ वयाणं पीला, सामन्नम्म य संसओ ||१०| १० हुज्ज १ ' कूड़ा-करकट ' 'कचरा' इति भाषा | चारी साधुके भी मनमें विकार उत्पन्न होसकता है। अर्थात् वेश्याके रूप- लावण्यका अवलोकन करने और विचार करनेरूप कचरे से चित्तरूपी नलद्वारा आत्मामें आता हुआ विशुद्ध भावनारूप जलका प्रवाह रुक जाता है । भावना-जलका प्रवाह रुक जानेसे वह संयमरूपी तरु सूख जाता है, जो तरु श्रद्धारूपी भूमिमें उत्पन्न होता है, ब्रह्मचर्य जिसकी जड़े हैं, अहिंसा-सत्य- अस्तेय - अपरिग्रह- रूपी क्यारी है, जो ज्ञान और क्रियारूपी स्कन्धसे दृढ़ है, समिति-गुप्ति आदि शाखा प्रशाखाएँ जिसकी फैली हुई हैं, अठारह हजार शीलाङ्ग जिसके पत्ते हैं, ध्यान ही जिसके पुष्प है, और मुक्ति-सम्पत्तिही जिस वृक्षके फल हैं ||९|| एकबार गमन करनेके दोष बताकर बारंबार गमन करनेके दोष कहते है- 'अणाययणे० ' इत्यादि । સાધુના મનમા પણ વિકાર ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. અર્થાત્ વેશ્યાના રૂપ-લાવણ્યનું અવલેાકન, વિચાર, ઇત્યાદિરૂપ કચરાથી ચિત્તરૂપી નળદ્વારા આત્મામાં આવતા વિશુદ્ધ ભાવનાજળના પ્રવાહ રોકાઈ જવાથી એ સચમરૂપી તરૂ સુકાઈ જાય છે, કે જે તરૂ શ્રદ્ધારૂપી ભૂમિમાં ઉત્પન્ન થાય છે, પ્રાચય જેના મૂળ છે, અહિંસાસત્ય-અસ્તેય-અગ્રહરૂપી કયારી છે, જે જ્ઞાન અને ક્રિયારૂપી થડ વડે દૃઢ છે, સમિતિ-ગુપ્તિ આદિ શાખા-પ્રશાખા જેની ફેલાઇ રહી છે, અઢાર હજાર શીલાગ જેના પાદડા છે, ધ્યાન જ જેના પુષ્પ છે અને મુક્તિસ પત્તિજ તે તના ફળ છે (૯). એકવાર ગમન કરવાના દેષ પતાવીને વારવાર ગમન तावे छे- अणाययणे० धत्याहि કરવાના પે Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ___ अध्ययन-५ उ. १ गा. १०-११-ब्रह्मचर्यव्रतयतना छाया--अनायतने चरतः संसर्गेणाऽभीक्ष्णम् । भवेदवतानां पीडा, श्रामण्ये च संशयः ॥१०॥ वेश्या के पाड़े में एकवार जाने का दोष कह कर अब अनेक वार जानेका दोष कहते हैं सान्वयार्थः-अणाययणे वेश्याके पाड़ेमें अथवा इस प्रकारके दूसरे अयोग्य स्थानों में चरंतस्स-गोचरी जानेवाले साधुके अभिक्ख गंवारंवार संसग्गीए3 संसर्ग होने के कारण क्याण-महावतोंको पीला-पीडा हुज होती है अर्थात् वे दुषित हो जाते हैं । (इतना ही नहीं किन्तु उस साधुके) सामन्नम्मि य-चारित्रसाधुपने में भी संसओ सन्देह हो जाता है ॥१०॥ टीका-अनायतने-अयोग्यस्थाने वेश्यागृहसमीपादौ अभीक्ष्ण वारंवारम् चरता-पर्यटतः साधोः संसर्गेण-प्रेक्षणादिसंपर्कण (मूले प्राकृतवात्स्त्रीत्वम् ) व्रतानां ब्रह्मचर्यादीनां पीडा-विराधना, चकारोऽप्यर्थे, नैतावत्येव हानिः किन्त्वन्याऽपीत्याह-श्रामण्ये चारित्रेऽपि संशयः पालनीयतासन्देहो भवेत, तथाहि " दुश्वरब्रह्मचर्यादेर्भविष्यति फलं न वा ?।। चेन्न जाने कियत् कीहक्, कदा वा तद्भविष्यति ॥१॥ तथाऽमाप्तसुखप्राप्ति, मुद्दिश्य विहितो मया। उपस्थितमुखत्याग उचितः किं न वोचितः ॥२॥” इत्यादि। वेश्या-घरके समीप या ऐसेही अन्य अयोग्य स्थानोंमें बार बार गमन करनेवाले साधुके वेश्याको देखने आदि संसर्गसे ब्रह्मचर्य आदि व्रतोंमें पीड़ा होजाती है, अर्थात् व्रत दूषित होजाते हैं । यही एक हानि नहीं है किन्तु उसके श्रामण्य (चारित्र)में भी संदेह होजाता है कि "इस दुश्चर ब्रह्मचर्यका फल मिलेगा या नहीं ?, यदि मिलेगा भी तो न जाने कितना मिलेगा, कैसा मिलेगा, और कब मिलेगा ? ॥१॥ मैंने अप्राप्त सुखकी प्राप्तिके लिए प्राप्त सुखका त्याग कर दिया है सो यह-उचित किया है या अनुचित ? ॥२॥" इत्यादि। વેશ્યાગ્રહની સમીપે યા એવાજ અન્ય અગ્ય સ્થાનેમાં વારંવાર જવાવડે વેશ્યાને જેવા આદિ સ સર્ગથી સાધુના બ્રહ્મચર્ય આદિ વ્રતમાં પીડા થઈ જાય છે, અર્થાત્ વ્રત દૂષિત થઈ જાય છે આ એક જ હાનિ નથી પરંતુ એના શ્રમણ્ય (ચારિત્ર)મા પણ સ દેહ ઉત્પન્ન થાય છે કે-“આ દુર બ્રહ્મચર્યનું ફળ મળશે કે નહિ?, જે મળશે તે પણ શી ખબર કેટલું મળશે, કેમ મળશે અને કયારે મળશે? (૧) મે અપ્રાસ સુખની પ્રાપ્તિને માટે પ્રાસ સુખને ત્યાગ કરી નાખે છે तो मेलयित यु छ : मनुथित ? (२)" छत्याल, Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । श्रीदशवकालिकसूत्रे यद्वा-'चकारादत्र' काका-विचिकित्सा-भेदो-न्माद-दीर्घकालिकरोग-केवलिप्रज्ञप्तधर्मभ्रंशादयो दोषाः संगृह्यन्ते ॥१०॥ उपसंहरति-'तम्हा एयं' इत्यादि।। मूलम् तम्हा एयं वियाणित्ता, दोसं दुग्गइवणं । वज्जए वेससामंत, मुणी एगंतमस्सिए ॥११॥ छाया-तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गतिवर्द्धनम् । ___ वर्जयेद्वेशसामन्तं, मुनिरकान्तमाश्रितः ॥११॥ सान्वयार्थ:-तम्हा=इसलिए दुग्गइवडणं-दुर्गतिको बढानेवाले एयं इस दोसं-दोषको वियाणित्ता जानकर एगतमस्सिए मोक्षाभिलापी मुणी-मुनि वेससामंते वेश्याके पाड़े-मोहल्ले-को वजए-वर्जे अर्थात् भिक्षादिके लिए वहां नहीं जावे । भावार्थ-इस प्रकारके संसर्गसे साधुका मन उद्विग्न हो जानेसे मनमें अनेक कुतर्कणाएं होने लग जाती हैं, तव उसका मन ज्ञान-ध्यान-आदि शुभ कार्यों में नहीं लगकर आत-रौद्र-ध्यान करने लगता है। इसलिए साधु ऐसे संसर्गको ही टाले ॥११॥ टीका-तस्माद्धेतोः एतं पूर्वोक्तं दुर्गतिवर्द्धनं दुर्गतिमापकं दोपंव्रतविराधनादि__ अथवा गाथामें आये हुए 'च' शब्दसे विषयसेवनकी आकांक्षा; संयमसे घृणा, भेद, उन्माद, दीर्घकालिक रोग और केवलीप्ररूपित धर्मसे भ्रष्टता आदि अनेक दोष समझ लेना चाहिये । अर्थात् ऐसे अयोग्य स्थानोंमें गमन करनेसे इत्यादि दोष होते हैं ॥१०॥ उपसंहार करते हैं-'तम्हा एयं' इत्यादि । इसलिए इस-दुर्गतिको बढ़ानेवाले, व्रतोंकी विराधनारूप-दोषको અથવા ગાથામાં આવેલા જ શબ્દથી વિષય–સેવનની આકાંક્ષા, સયમથી ઘણા, ભેદ, ઉન્માદ, દીર્ધકાલિક રોગ અને કેવળી-પ્રરૂપિત ધર્મમાંથી ભ્રષ્ટતા આદિ અનેક દેશે સમજી લેવા. અર્થાત્ એવા અયોગ્ય સ્થાને મા ગમન કરવાથી એ પ્રકારના દેષ થાય છે (૧૦) सा२ ४२ छ-तम्हा एयं त्याह એટલા માટે, એ દુર્ગતિને વધારવાવાળા, વ્રતની વિરાધનારૂપ દોષને Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. १२-मार्गगमनयतना लक्षणं विज्ञाय अवबुध्य एकान्तम्-एका अद्वितीयः अन्तो-निश्चयो व्रतरक्षणविषयको मोक्षप्राप्तिविषयको वा एकान्तस्तम् आश्रित: आस्थितो मुनिः वेशसामन्तं वेश्यापाटकगमनं वर्जयेत् परित्यजेत् ।। 'वियाणित्ता' इत्यनेन सम्यगववोधमन्तरेण दोषपरित्यागो याथातथ्येन न संभवतीति, 'एगंतमस्सिए' इत्यनेन च मुनिना सततं मोक्षकलक्ष्येण भवितव्यमिति सूचितम् ॥११॥ मार्गयतनामेव विशिष्याऽऽह-'साणं' इत्यादि । मूलम्-साणं सूइयं गाविं, दित्तं गोणं हयं गयं । ૧૦ ૧૧ ૧૨ संडिब्भं कलहं जुद्धं, दूरओ परिवज्जए ॥१२॥ छाया-श्वानं सूतां गां, दृप्तं गोणं हयं गज़म् । संडिब्भं कलहं युद्धं, दूरतः परिवर्जयेत् ॥१२॥ साधु जहाँ भिक्षा के लिये न जावे उन स्थानों को विशेष रूपसे कहते हैं सान्वयार्थः-साणं-जहां काटनेवाला कुत्ता हो सूइयं थोडे कालकी व्याई हुई गावि-गाय हो दित्तं मदमस्त गोणं गोधा साण्ड अथवा बैल (और) हयं= घोड़ा (अथवा) गयं-हाथी हो (तथा) संडिब्भं जहां बच्चे खेल रहे हों कलहं= परस्पर वाग्युद्ध-गाली-गलोच-हो रहा हो जुद्धं शस्त्र आदिसे युद्ध होता हो (ऐसे स्थानको साधु) दरओ-दूरसे ही परिवजए वर्जे, अर्थात् ऐसी जगह साधु जानकर व्रतोंकी रक्षा और मोक्षकी प्राप्तिके निश्चयमें स्थित मुनि वेश्याके पाड़े (चकले)में भिक्षा आदिके लिए न जावे । 'वियाणित्ता' पदसे यह सूचित किया है कि भलीभाँति जाने विना दोषका अच्छी तरह परित्याग नहीं हो सकता। 'एगंतमस्सिए' पदसे यह प्रगट किया है कि मुनिको सदा मोक्षप्राप्तिका लक्ष्य रखना चाहिये॥११॥ मार्गकी यतनाको विशेषरूपसे बताते हैं- 'साणं०' इत्यादि । જાણુને તેની રક્ષા અને મોક્ષની પ્રાપ્તિના નિશ્ચયમાં સ્થિત મુનિએ, વેશ્યાના મહોલ્લામાં ભિક્ષા આદિને માટે જવું નહિ વિયાળા શબ્દથી એમ સૂચિત કર્યું છે કે–સારી રીતે જાણ્યા વિના દેને સારી પેઠે પરિત્યાગ થઈ શકતું નથી guતમસિંg શબ્દથી એમ પ્રકટ કર્યું છે કે મુનિએ સદા મેક્ષપ્રાપ્તિનું લક્ષ્ય રાખવું જોઈએ. (૧૧) भागनीयतनान विशेष३ मताव छे. साणं. त्या. Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे कदापि गोचरी नहीं जावे । भावार्थ - ऐसे स्थानमें गोचरी जानेसे कुत्ते आदिके कारखाने आदिके कारण तथा पात्रे फूटजाने आहार गिरजाने आदि अनेक प्रकार से संयम और आत्मा दोनोंकी विराधना होती है ॥ १२ ॥ टीका - श्वानं कुक्कुरं 'दृप्त' - मितीहाऽपकृष्य सम्बध्यते, तथाच दृप्तम् उद्धतं दंशनस्वभावम् उन्मादिनं वेत्यर्थः, नवप्रसूतशुन्या अप्युपलक्षणमेतत् । सूतां नवप्रसूतां गां= सौरभेयीं, नवममृतमहिष्या अप्युपलक्षणाद् ग्रहणम् =चण्डस्त्रभावं गोणं नृपभं, इयं घोटकं, गज हस्तिनं च संडिन्भं = शिशुक्रीडनस्थानं, कलई = वाग्युद्धं, युद्धम् = दण्डादण्डि-शस्त्राशस्त्रि-प्रभृतिकम् दूरतः परिवर्जयेत्, आत्मसंयमोभयविराधनाहेतुत्वात् ॥ १२॥ " गमनप्रकारमाह-- 'अणुन्नए ' इत्यादि । t ૨ 3 ४ मूलम् - अणुन्नए नावणए अप्पट्ठेि अणाउले । ७ ८ ५ इंदियाई जहाभागं दमइत्ता मुणी चरे ॥ १३ ॥ छाया - अनुन्नतो नावनतोऽमहृष्टोऽनाकुलः । इन्द्रियाणि यथाभागं दमयित्वा मुनिश्चरेत् ॥ १३॥ , जहां उन्मत्त (पागल - हड़क्या) या काटनेवाला कुत्ता, नयी वियाई हुई ( प्रसूता ) कुतिया, नवप्रसूता गाय या नवप्रसूता भैंस आदि, मदोन्मत्त बैल, घोड़ा हाथी हों उस स्थानको, तथा बच्चोंके खेलनेके, कलह (मुँह की लडाई) के और युद्ध (शस्त्रकी लड़ाई) के स्थानको साधु दूरसे त्यागे । अर्थात् जहाँ ये सब हों वहां न जावे-दूर ही रहे, क्योंकि इससे आत्मविराधना संयमविराधना और उभयविराधना होती है ॥ १२ ॥ चलनेका प्रकार कहते हैं - 'अणुन्नए० ' इत्यादि । त्या उन्मत्त (गाडो-हुडडायो ) अथवा १२ नारी तसे, नवी वीयायसी (प्रसूता) કૂતરી, નવપ્રસૂતા ગાય ચા નવપ્રસૂતા ભેશ આદિ, મદૅન્મત્ત ખળદ ઘેાડા હાથી ઈત્યાદિ હાય તે સ્થાનને, તથા ખાળકાએ રમવાના, उत्साह (महोनी सडाई)ना અને યુદ્ધ (શસ્ત્રની લડાઇ)ના સ્થાનને સાધુ દૂરથી જ ત્યાગે, અર્થાત્ જ્યા એ બધાં ાય ત્યા ન જાય દૂર જ રહે, કારણ કે તેથી આત્મવિરાધના, સ યમવિરાધના અને ઉભયવિરાધના થાય છે (૧૨) यासवान अार ! छे - अणुन्नए० ४त्याहि. Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. १३-गोचर्चा कायचेष्टापकारः गोचरी में घूमते हुए साधु को किस प्रकार की चेष्टा रखनी चाहिये सो बताते हैं सान्वयार्थः-मुणीयोचरीमें धूमता हुआ साधु अणुन्नए-द्रव्यसे ऊंचा नहीं देखनेवाला, भावसे जात्यादिगवरहित नावणए अव्यसे शरीरको अत्यन्त नहीं नमानेवाला, भावसे दीनतारहित अप्पहिडे-मिलनेवाले आहार आदिके विचारसे रहित अणाउले इष्ट अनिष्ट आहार आदिकी प्राप्ति होना न होना आदि व्याकुलतासे रहित (साधु) इंदियाई-श्रोत्र आदि इन्द्रियोंका जहाभागं यथाक्रम अर्थात् जिस समय जिस इन्द्रियका विषय उपस्थित हो उस समय उस इन्द्रियका दद्महत्ता दमन-निग्रह-करके चरे-विचरे ॥१३॥ __टीका-अनुन्नतः-अनुच्छ्रितः, स च द्रव्यत ऊर्ध्वानवलोकयिता, भावतो जात्यादिगवरहितः, नावनतानातिप्रहः, स द्रव्यतो नातीवनताङ्गः, भावतो दैन्यरहितः। अप्रहृष्टः अप्रमुदितः उपलप्स्यमानाहारवस्त्रपात्रादिभावनानन्यप्रमोदरहित इत्यर्थः। अनाकुल: अक्षुब्धः इष्टाऽलाभाऽनभीष्टलाभभावनाजनितमनःक्षोभवर्जित इत्यर्थः, मुनिः इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि यथाभाग-भज्यते-सेव्यते इति भागो विषयः, भागमनतिक्रम्य यथाभागं यथाविषयं-यस्येन्द्रियस्य यो विषयः सम्पाप्तस्तमनुसृत्येत्यर्थः, दमयिखा-निगृह्य मनोज्ञा-ऽमनोज्ञशब्दादिविषयेषु रागापरागपरित्यागं कृत्वेत्यर्थः, चरेत् । ___ मार्गमें चलते समय साधु अनुन्नत अर्थात् द्रव्यसे ऊपरकी ओर न देखता हुआ, और भावसे जाति कुल आदिके अभिमानसे रहित, नावनत अर्थात् द्रव्यसे अत्यन्त न झुका हुआ, तथा भावसे दीनतारहित, अप्रहृष्ट अर्थात् मिलनेवाले आहार आदिके विचारसे प्रमोदरहित, अनाकुल अर्थात् इष्टकी अप्राप्ति तथा अनिष्टकी प्राप्तिके विचारसे उत्पन्न होनेवाली व्याकुलतासे रहित मुनि जहाँ जिस इन्द्रियका विषय उपस्थित हो वहाँ उस इन्द्रियका दमन करके अर्थात् मनोज्ञविषयमें रागऔर अमनोज्ञ विषयमें द्वेषका परित्याग करता हुआ भिक्षा आदिके लिए विचरे। માર્ગમાં ચાલતી વખતે સાધુ અનુન્નત અર્થાત દ્રવ્યથી ઉપરની બાજુએ ન જોતા અને ભાવથી જાતિકુળના અભિમાનથી રહિત, નાવનત અર્થાત. દ્રવ્યથી અત્યન્ત ન નમ્યા વિના તથા ભાવથી દીનતા-રહિત. અપ્રહણ અર્થાત, મળવાના આહારાદિના વિચારથી પ્રદરહિત, અનાકુલ અર્થાત ઈષ્ટની અપ્રાપ્તિ તથા અનિષ્ટની પ્રાપ્તિના વિચારથી ઉત્પન્ન થનારી વ્યાકુળતાથી રહિત જ્યાં જે ઈદ્રિયને વિષય ઉપસ્થિત હોય ત્યા તે ઈદ્રિયનું દમન કરીને અર્થાત્ મનેજ્ઞ વિષયમાં રાગ અને અમને વિષયમાં શ્રેષને પરિત્યાગ કરતા, ભિક્ષા આદિને માટે વિચરે Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ % A . श्रीदशवकालिकसूत्रे : 'अणुन्नए' 'नावणए' इत्येताभ्यामीर्यायतनाऽहकारवर्जनदैन्यराहित्यानि मुचितानि । 'अप्पहिढे' इत्यनेन माध्यस्थ्यं वोधितम् । 'अणाउले' इतिपदेन साधो रसलोलुपत्वं निराकृतम् । 'जहाभागं' इत्यनेन च यत्र यस्येन्द्रियस्य विषयप्राप्तिस्तत्र तस्यैवदमनं वास्तविकमिन्द्रियदमनं, न तु दर्शनविषये कर्णपिधानमित्यादि बोध्यम् ॥१३॥ मूलम् दवदवस न गच्छेज्जा, भासमाणो य गोयरे। "૧૦ ૯ ૧૧ हसंतो नाभिगच्छेज्जा, कुलं उच्चावयं सया ॥१४॥ छाया-द्रुतद्रुतस्य न गच्छेत्, भापमाणश्च गोचरे। ___ हसन् नाभिगच्छेत्, कुलमुच्चावचं सदा ॥१४॥ सान्वयार्थः-गोयरे-भिक्षाचरीमें (साधु) दवद्वस्स-अति शीघ्रतासे दड़वड़र दौड़ता हुआ य-तथा भासमाणो-बोलता हुआ न गच्छेज्जा नहीं चले (और) हसंतो-हँसता हुआ भी नाभिगच्छेजा नहीं जावे, (तथा) उच्चावयं= उच्च-द्रव्यसे सप्तभूमिक महलोंवाले, भावसे-धन-धान्यादिसे समृद्ध, नीच-द्रव्यसे घासफूसकी झोपडीवाले, भावसे धन-धान्यादिरहित कुलं-कुलमें सया-हमेशा जावे। (२श्रु.१अ.२उ.) आचाराङ्गमूत्रमें बताये हुए सब कुलोमें भिक्षाके लिए जावे 'अणुन्नए' और 'नावणए' इन दो पदोंसे ईयाकी यतना, अहकारका परिहार और दीनताका त्याग सूचित किया है। 'अप्पहिडे' पदसे मध्यस्थता प्रगट की है। 'अणाउले' पदसे साधुकी रसलोलुपताका निराकरण किया है । 'जहाभागं' पदसे यह प्रदर्शित किया है कि जहाँ जिस इन्द्रियका विषय उपस्थित हो वहाँ उसका दमन करना ही वास्तवमें इन्द्रियमन कहलाता है, किन्तु चक्षुइन्द्रियका विषय उपस्थित होनेपर यदि कान मूंद लिए जायँ तोइन्द्रिय-दमन नहीं कहलासकता, इत्यादि।॥१३॥ अणुन्नए मने नावणए ये मे शाथी ध्यानी यतन मन परिહાર અને દીનતાને ત્યાગ સૂચિત કર્યો છે કે શબ્દથી મધ્યસ્થતા પ્રકટ 3री छ. अणाउले २०४थी साधुनी सखोदुयतार्नु निरा४२५ यु छ जहाभागे શબ્દથી એમ પ્રદર્શિત કર્યું છે કે જ્યાં જે ઈદ્રિય વિષય ઉપસ્થિત હોય ત્યાં તેનું દમન કરવું એજ વસ્તુત. ઈદ્રિયદમન કહેવાય છે, કિત ચક્ષ ઈન્દ્રિયને વિષય ઉપસ્થિત થતા જે કાન સંકેચવામાં આવે છે તે ઈદ્રિયદમન કહેવાતું नथी इत्यादि. (१३) Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. १४-गोची कायचेष्टामकारः ३९५ अर्थात् जिस समय जिस देशमें जो कुल दुगुंछित न हों उन सब कुलोंमें गोचरी जावे, साधुको चाहिए कि ईर्यासमिति सोधता हुआ रागद्वेषरहित होकर भिक्षाके लिए विचरे ॥१४॥ टीका-गोचरे-भिक्षायां भिक्षार्थमित्यर्थः, द्रुतद्गुतस्य-शीघ्र-शीघ्रम् 'दवदवे' त्यस्याव्ययत्वेऽप्यार्षवात्सविभक्तिकत्वम्, यद्वा क्रियाविशेषणत्वेन द्वितीयान्त:बौचित्येऽप्यार्षत्वात्षष्ठ्यन्तवम् , न गच्छेत् न यायात् । भाषमाणः संलपन् च-तथा इसन्-हास्यं कुर्वन् नाभिगच्छेत् । उच्चावचम् उदक् च अवाक् च इत्युचावचम्-('मयूरव्यंसकादयश्च' (२।१।७२) इति निपातनात्समासः सिद्धिश्च) उच्चनीचात्मकमनेकविधमित्यर्थः । 'उच्चावचं नैकभेद'-मित्यमरः। कुलं गृहम् । तत्र द्रव्यत उच्चगृहं-सप्तभूमिकमासादादिकम् , शारदशशाङ्क-घनसार-हार-नीहार-कुन्दावदातमुधोज्ज्वलहादिकं मोत्तुङ्गतोरणादिकं च । भावत उच्चगृहं-धनधान्यादि १ धातूपावभावनां प्रति फलांशस्य कर्मीभूततया फलसामानाधिकरण्ये द्वितीया। २ 'कुलं जनपदे गोत्रे, सजातीयगणेऽपि च । भवने च तनौ क्लीव'-मिति मेदिनी॥ 'द्ववस्स०' इत्यादि ।साधु गोचरीके लिए जल्दीर (दड़बड़२) न चले। बातचीत करता हुआ, तथा हँसता हुआ भी गमन न करे। उच्चनीच अर्थात् धनवान् और निर्धन आदिके कुलोंमें सदा भिक्षाके लिए जावे । उच्च कुल दो प्रकारका है-(१) द्रव्यसे उच्च और (२) भावसे उच्च । (१) सतमंजिला आदि, शरदऋतुके चन्द्रमा, कपूर, हार, बर्फ, या कुन्द पुष्पके समान स्वच्छ, कलई (चूना) पोतनेसे जगमगाता हुआ, और जिसका फाटक खूब ऊंचा हो ऐसे महल आदि द्रव्य-उच्च कहलाते हैं। । (२) धन-धान्यरूपी सम्पत्तिसे समृद्ध कुल भावसे उच्च कहलाता है। नीचा कुल भी दो प्रकारका है दवदवस्स. त्यात साधु गोयशने भाटे तावणे वो न याले વાત-ચીત કરતે કે હસતા-હસતે પણ ન ચાલે ઉચ્ચ-નીચ અર્થાત્ ધનવાન-નિધન આદિનાં કુળમા સદા ભિક્ષા માટે જાય. ઉચ્ચકુળ બે પ્રકારના છે: (૧) દ્રવ્યથી ઉચ્ચ અને (૨) ભાવથી ઉચ્ચ (१) सात-Horal राय, श२६ातुन। यद्रमा ४५२, (भातीना) २, ५२३ या કુંદપુષ્પની પિઠે સ્વચ્છ (ત) હોય, ચૂને પેળવાથી ઝગમગતા હોય અને જેનું ફાટક ખૂબ ઉચુ હોય એ મહેલ આદિ દ્રવ્ય–ઉચ્ચ કહેવાય છે (૨) ધન-ધાન્યરૂપી સંપત્તિથી સમૃદ્ધ કુળ ભાવથી ઉચ્ચ કહેવાય છે. નીચકુળ પણ બે પ્રકારનાં હોય છે – Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ ___ श्रीदशवैकालिकसूत्रे सम्पदा समृद्धम् । द्रव्यतो नीचगृहं-धनधान्यादिरहितं दरिद्रगृहम् , सदा-सर्वटा अभिगच्छेत् चरेत् । अथवा उच्चावचशब्देन उग्रकुलादीनि गृह्यन्ते, तथाहि 'उग्गकुलाणि वा भोगकुलाणि वा राइन्नकुलाणि वा खत्तियकुलाणि ६ इक्खागकुलाणि वा हरिवंसकुलाणि वा एसियकुलाणिवा वेसियकुलाणि व गंडागकुलाणि वा कोटागकुलाणि वा ‘गामरक्खकुलाणि वा बुक्कासकुलाणि व 'अन्नयरेसु वा तहप्पगारेस कुलेस अदुगुंछिएमु अगरहिएम असणं वा४ फासुर जाव पडिगाहिज्जा (सू. ११- आचाराङ्ग. २ श्रु० १ अ. २ उ.)। ___ अत्र 'अदुगुछिएम' 'अगरहिएम' इति पदाभ्यां यस्मिन् समये यत्कुल मजुगुप्सितमगर्हितं भवेत्तदा तस्मिन्नेव कुले गन्तव्यमिति वोध्यते । अत्र 'दवदवस्से '-त्यादिना पकायरक्षणविचक्षणता समाख्याता । (१) द्रव्यसे नीचा, और (२) भावसे नीचा। (१) वांस, लकडी, घास, फूससे बनेहुए झोंपड़ेको द्रव्यसे नीचा कहते हैं । (२) धन-धान्य आदि संपत्तिसे रहित निर्धनके कुलको भावसे नीचा कहते हैं । इन सब प्रकारके घरों में साधु भिक्षाके लिए जावे । अथवा 'उच्चावच' शब्दसे उग्रकुलादि समझ लेना चाहिए । वे बारह प्रकारके कुल आचारांग सूत्र में (२श्रु०११०२उ०सू.११में) भगवानने कहे हैं । आचारांग सूत्रमें आये हुए 'अदुगुंछिए' और 'अगरहिए' पदसे यह सूचित किया है कि जिस देश और जिस समयमें जो 'कुल अनिन्दित और अगर्हित हो उसमें मुनि, भिक्षाके लिए जावे। यहां 'दववस्स' इत्यादि पदसे षटकायकी रक्षामें सावधानी प्रगट की है। (१) द्रव्यथी नायु मने (२) भावथी नीयु (१) वास, AII, घास-पाथी બનેલા ઝુપડાને દ્રવ્યથી નીચું કહે છે. (૨) ધન-ધાન્યાદિ સંપત્તિથી રહિત નિર્ધનના કુળને ભાવથી નીચુ કહે છે એ સર્વ પ્રકારના ઘરમાં સાધુ ભિક્ષાને માટે જાય અથવા સત્ર શબ્દથી ઉગ્રકુળાદિ સમજી લેવા જોઈએ એ બાર પ્રકારનાં કુળ આચારાગ સૂત્રમા (રહ્યુ-૧અ ૨ઉ સૂ૦૧૧મા) ભગવાને કહ્યા છે આચારાગ સૂત્રમાં આવેલા अदगुछिए भने अगरहिए शहाथी मेम सुन्धित यु छ ४२ हे मने रे સમયમાં જે કુલ અનિ દિત અને અગહિત હોય તેમાં મુનિ ભિક્ષા માટે જાય અહીં વવા ઈત્યાદિ શબ્દથી પકાયની રક્ષામાં સાવધાની પ્રકટ કરી છે Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. १५ - गोचर्यं कायचेष्टाप्रकारः ३९७ 'भासमाणो' पदेनैकस्मिन् समये कार्यद्वयं सोपयोगं निष्पत्तुं न संभवतीति, 'हसंतो' इत्यनेन गाम्भीर्यम्, 'उच्चावचं ० ' इत्यादिना प्रतिबन्धराहित्यं समतासाहित्यं च द्योतितम् ॥१४॥ २ 3 ४ ५ ७ मूलम् - आलोअं थिग्गलं दारं, संधिं दगभवणाणि य । ૯ ૧. ૧ चरंतो न विणिज्झाए, संकट्ठाणं विवज्जए ॥१५॥ छाया - आलोकं थिग्गलं द्वारं, सन्धि दकभवनानि च । चरन् न विनिर्ध्यायेत्, शङ्कास्थानं विवर्जयेत् ॥ १५॥ सान्वयार्थ :- चरंतो- भिक्षा के लिए घूमता हुआ साधु आलोयं = जाली-झरोखेकी तरफ थिग्गलं= ईंट आदि से भरे हुए भींतके छिद्रकी तरफ दारं- दरवाजेकी तरफ संधि-भींतकी सांधकी तरफ अथवा चोरोंद्वारा किये हुए भींतके छेदकी तरफ य-तथा द्गभवणाणि पलेण्डा आदिकी तरफ न विणिज्झाए =टक-टकी लगाकर नहीं देखे, (क्योंकि ये सब ) संकट्ठाणं - शङ्काके स्थान हैं, (इसलिए इन्हें ) विवज्जए = विशेषरूप से त्यागे । भावार्थ = ऐसे स्थानोंको देखनेसे गृहस्थको साधुके प्रति चोर लम्पट आदिका सन्देह उत्पन्न हो जाता है, तथा एषणाकी यथोचित शुद्धि भी नहीं होती ॥ १५ ॥ टीका- 'आलोअं०' इत्यादि । चरन् -भिक्षितुं गच्छन् मुनिः आलोकं = त्रातायनजालिकाप्रभृति, थिग्गलं = देशीयभाषया प्रसिद्धं भित्त्यामिष्टकादिरचितम्, " भासमा' पद से यह प्रगट किया है कि एक ही साथ दो कार्य उपयोगपूर्वक नहीं हो सकते। ' हसंतो ' पदसे गंभीरता द्योतित की है और ' उच्चावयं०' इत्यादि पदसे प्रतिबंध (नेसराय) - रहितता और समतासे सहितता प्रगट की है || १४ || 'आलोयं ० ' इत्यादि । भिक्षा लेनेके निमित्त गमन करता हुआ मुनि झरोखा, जाली, भीत, दरवाजा, सेंध (चोरों द्वारा दीवार में किया માસમાળો શબ્દથી એમ પ્રકટ કર્યુ છે કે એકીસાથે એ કાર્યાં ઉપયેગપૂર્ણાંક થઈ શકતાં નથી દસંતો શબ્દથી ગંભીરતા પ્રકટ કરી છે અને કાવય ઇત્યાદિ શબ્દોથી પ્રતિખ ધ ( નેસરાય રહિતતા અને સમતાથી સહિતતા પ્રકટ डुरी छे (१४) आलोयं इत्यादि लिक्षाने भाटे गमन उरतो भुनि अइयो, भजी, लत, દરવાજો, ચારે પાડેલું ખાંડુ (ખાતરીયાથી પાડેલું ખાંકેરૂ) અને ઉકભવન અર્થાત Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ - 3 श्रीदशवकालिकसूत्रे द्वारं-विवरम् , सन्धि-तस्करादिखातभिचिभागं दकभवनानि-जलस्थानानि, 'चे'. ति समुच्चये; न नैव विनिर्ध्यायेत् सविशेष विलोकयेत् । यत एतानि (आलोकादीनि) शङ्कास्थानानि साधोराचारविषयकसन्देहोत्पादकस्थानानि, सूत्रे जातावेकवचनम् , अतस्तानि विवर्जयेत्-विशेषेण परित्यजेत् ॥१५॥ मूलम्-रन्नो गिहवईणं च, रहस्सारक्खियाण य । संकिलेसकरं ठाणं, दूरओ परिवजए ॥१६॥ छाया- राज्ञो गृहपतीनां च, रहस्यमारक्षकाणां च । ___संक्लेशकरं स्थानं, दूरतः परिवर्जयेत् ॥१६॥ - सान्वयार्थः-रन्नो-चक्रवर्ती आदि राजा महाराजाओंके च तथा गिहवईणं-शेठ आदि सद्गहस्थोंके च और आरक्खियाण-नगरके रक्षक-कोतवाल आदिके रहस्सं सलाह करनेके एकान्त स्थानको (साधु) दूरओ-दूरहीसे परिवज्जए-त्यागे; (क्योंकि ऐसे) ठाणं-स्थान संकिलेसकरं असमाधिको पैदा करनेवाले होते हैं । भावार्थ-राजा आदिकोंके एकान्त स्थानकी तर्फ देखनेसे अथवा वहां जाने से उनको साधुके प्रति क्रोध अश्रद्धा होना आदि अनेक दोपोंकी संभावना है ॥१६॥ टीकाः–'रन्नो' इत्यादि । राज्ञः चक्रवर्द्धचक्रिमभृतेः, गृहपतीनां गृहस्वा. मिना श्रेष्ठयादीनाम् आरक्षकाणांनगररक्षिणां च रहस्य-रहसि-एकान्ते भवं हुआ छेद-सन्धि) और उदकभवन अर्थात् परेंडा आदि की तरफ दृष्टि न डाले, क्योंकि ये शंकास्थान हैं, इनकी ओर देखनेसे लोगोंको साधुके चारित्रमें सन्देह उत्पन्न होता है, अतएव इन शंकास्थानोंका विशेष रूपसे परित्याग करना चाहिए ॥१५॥ 'रन्नो०' इत्यादि। जिस एकान्त भवनमें चक्रवर्ती, अर्द्धचक्री, माण्डलिक आदि राजा, श्रेष्ठी (सेठ) आदि गृहस्थ और नगरकी रक्षा પણઆરાની તરફ દૃષ્ટિ ન નાખે, કારણ કે એ બધા શકાસ્થાનો છે તેની તરફ જેવાથી લેકેને સાધુના ચરિત્રમા સ દેહ ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી એ શકાસ્થાને વિશેષરૂપે પરિત્યાગ કરે (૧૫) रन्नो० ॥त्या मेन्त भवनमा यवती, म यही, भांडलिट मा રાજા, શ્રેણી (શેઠ) આદિ ગૃહસ્થ અને નગરની રક્ષા કરનારા (કેટવાળ) વગેરે સલાહ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. १६-१८-गोचर्या कुल(गृह)प्रवेशविधिः रहस्य मन्त्रगृहम्, संक्लेशकरम् असमाधिजनकं स्थानं हेतु गर्भमिदं विशेषणं तथा च संक्लेशकरत्वादित्यर्थः, दूरतः परिवर्जयेत् सर्वथा संत्यजेत् ॥१६॥ १ २ ३ ४ ५ ६ मूलम्-पडिकुठं कुलं न पविसे, मामगं परिवजए। अचियत्तं कुलं न पविसे, चियत्तं पविसे कुलं ॥१७॥ छाया-प्रतिक्रुष्टं कुलं न प्रविशेत् , मामकं परिवर्जयेत् । अचियत्तं कुलं न विशेत् , चियत्तं प्रविशेत्कुलम् ॥१७॥ सान्वयार्थः-पडिकुटुं-शास्त्रनिषिद्ध कुलं-कुल-घर में न पविसे प्रवेश नहीं करे, मामगं-कृपणके घरको परिवजए घरजे-नहीं जावे, अचियत्तं प्रतीतिरहित अथवा प्रीतिरहित कुलं-कुल-घर में न पविसे प्रवेश न करे, (किन्तु) चियत्तं-प्रतीति और प्रीतिवाले कुलं-घरमें पविसे प्रवेश करे ॥१७॥ टीका-'पडिकुटुं०' इत्यादि । प्रतिक्रुष्ट-निषिद्धं, कुलं गृहं न प्रविशेख, मामक='मा मदीयं गृहं श्रमणाः प्रविशन्तु'-इति प्रतिषेधकारिणो गृहं तथासामयिकव्याख्यादर्शनात् , परिवर्जयेत् । अचियत्तं देशीयशब्दोऽयम्-अभीतिमत्, यत्र साधुप्रवेशेन गृहिणामप्रीतिर्भवेत् तत् , अप्रतीतिमद्वा अविश्वस्तमित्यर्थः, यत्र गमनेन परेषां साधुविषयेऽप्यविश्वासो भवेत् , तादृशं कुलं न प्रविशेत् , करनेवाले (कोटवाल) आदि सलाह करते हों उस भवन को दरहीसे त्यागे, क्योंकि ऐसे स्थान असमाधिको उत्पन्न करनेवाले होते हैं ॥१६॥ ___'पडिकुटुं' इत्यादि । शास्त्रोंमें निषेध किये हुए घर में साधु प्रवेश न करे। जिसने अपने घरमें आनेका निषेद्य कर दिया हो कि 'श्रमण निन्थ हमारे घर पर न आवे' उन घरोंका भी साधु त्याग करे । साधु के प्रवेश करनेसे जिस घरवालेको अप्रीति उत्पन्न हो, या जिस कुलमें विश्वास न हो ऐसे कुलमें भी प्रवेश न करे, क्योंकि इससे (ત્રણ) કરતા હોય, એ ભવનને મુનિ દૂરથી જ ત્યાગે, કારણ કે એવાં સ્થાને અસમાધિને ઉત્પન્ન કરવાવાળાં હોય છે (૧૬) पडिकुटुं त्या सोमा निषेध ४२वा गृहम साधु प्रवेश न ४२ देणे પિતાના ઘરમાં આવવાને નિષેધ કર્યો હોય કે “શ્રમણ નિષે અમારા ઘરમાં આવવું નહિ એવા ઘરને પણ સાધુ ત્યાગ કરે સાધુએ પ્રવેશ કરવાથી જે ઘરવાળાને અપ્રીતિ ઉત્પન્ન થાય, યા જે કુળમાં વિશ્વાસ ન હોય, એવા કુળમાં પણ સાધુ પ્રવેશ ન કરે, કારણ કે એથી સાધુ પરથી બીજાઓને પણ વિશ્વાસ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० श्रीदशवकालिकसूत्रे गृहस्थानां संक्लेशसंभवात् । नन्वेवं तर्हि कुत्र प्रविशेत्तदाह-चियत्तं मोतिमत् मतीतिमद्वा कुलं भविशेत् ॥१७॥ मूलम्-साणीपावारपिहियं, अप्पणा नवपंगुरे। , . कवाडं नोपणुल्लिज्जा, उग्गहं सि अजाइया ॥१८॥ छाया-शाणी-पावारपिहितम् आत्मना नाऽपतृणुयात् । कपाटं नो प्रणुदेव, अवग्रहं तस्याऽयाचित्वा ॥१८॥ । सान्वयार्थ:-सि (से)-उस गृहस्वामी की उग्गह-आज्ञा अजाइया लिये विना साणीपावारपिहियंसन आदिके बने हुए परदेसे ढके हुए घरको अप्पणा साधु खुद नावपंगुरे नहीं खोले, (तथा) कवाडं-किवाडको भी नोपणुल्लिज्जा नहीं उघाड़े, तात्पर्य यह है कि गृहस्वामीको पूछकर ही उघाड़ना चाहिए ॥१८॥ टीका-'साणीपावार०' इत्यादि । तस्य गृहस्वामिनः अवग्रह-निदेशम् , - अयाचित्वा अगृहीत्वा आज्ञामन्तरेणेत्यर्थः, शाणीमावारपिहितं-शाणी-शणवल्कलनिर्मितजवनिका, मावार-ऊर्णादिरचितकम्बलादिस्ताभ्यां पिहितम्-आवृतम् , यद्वा शणीमावारेण-शणरचितपरदया' स्थगित 'द्वार'-मितिशेषः, आत्मना-स्वयम् न अपवृणुयात्नापसारयेत् । तथा कपाटम् अररम् 'किवाडे-ति भाषाप्रसिद्धं नो प्रणुदेन प्रेरयेत् नोद्घाटयेदित्यर्थः, तदुद्धाटनस्य स्नानभोजनादिसमासक्तानां १ परदा-परान्-परपुरुषान् दर्शनादानेन धति खण्डयतीति परदा ।। दूसरोंका साधुपरसे भी विश्वास हट जाता है । साधु उस घरमें प्रवेश करे जिसमें प्रवेश करनेसे गृहस्थको प्रीति और विश्वास हो ॥१७॥ 'साणीपावार' इत्यादि । गृहस्वामीकी आज्ञा लिये विना टट्टर या कम्बल आदि किसी वस्तुसे ढके हए या सनके परदास बंद द्वारको तथा किवाडको स्वयं न खोले, क्योंकि ऐसा करना स्नानादि હઠી જાય છે સાધુ એ ઘરમાં પ્રવેશ કરે કે જેમાં પ્રવેશ કરવાથી ગૃહસ્થને પ્રીતિ અને વિશ્વાસ ઉપજે (૧૭) साणीपावार० एत्याहि स्वाभीनी माज्ञा दीधा विना टट या मनी આદિ કઈ વસ્તુથી ઢાંકેલુ યા સણના પડદાથી બંધ કરેલું એવું દ્વાર તથા કમાડ, સાધુ પિતે ન લે, કારણ કે એમ કરવું એ નાનાદિ કરતી સ્ત્રી આદિને Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. १९-गोचर्या मलमूत्रव्युत्सर्जनविधिः ४०१ स्न्यादीनामप्रतीतिकारणत्वात, तादृशव्यवहारानौचित्याच, तस्मादावश्यकतायां तत्स्वामिनं पृष्ट्वैवोद्घाटयेदिति भावः ॥१८॥ मूलम्-गोयरग्गपविट्ठो य, वच्च-मुत्तं न धारए। ओगासं फासुअं नच्चा, अणुन्नविअ वोसिरे ॥१९॥ छाया-गोचराग्रप्रवष्टिश्च, वर्गों-मूत्रं न धारयेत् । ___ अवकाशं प्रामुकं ज्ञात्वा, अनुज्ञाप्य व्युत्सृजेत् ॥१९॥ सान्वयार्थः-गोयरग्गपविट्ठो गोचरीमें गया हुआ मुनि वच्च-मुत्तं मल और मूत्रको नधारएनहीं रोके अर्थात् मल-मूत्र-की वाधा उपस्थित होनेपर उनके वेगका अवरोध न करे, (किन्तु) फासुयंमाशुक-जीवरहित ओगासं-स्थण्डिलभूमिको नच्चा-जानकर अणुन्नविय-गृहस्थकी आज्ञा लेकर वोसिरे मल-मूत्रका त्याग करे ॥१९॥ टीका-'गोयरग्ग०' इत्यादि । पूर्व निवृत्तवाधोऽपि गोचराग्रप्रविष्टो मुनिः पुनस्तद्वाधायामुपस्थितायां वर्ची-मूत्र=मलं प्रस्रावं च न-धारयेत्-नावरुन्ध्यात् । यत उक्तम् "जओ मुत्तनिरोहे चक्खूबघाओ भवति, वच्चनिरोहे जीविओवधाओ करती हुई स्त्री आदिको अप्रतीतिका कारण है, तथा लोकव्यवहारसे भी अनुचित है, अतः आवश्यकता होने पर उसके स्वामीको पूछ करके ही किवाड़ परदा आदि खोलना चाहिए ॥१८॥ 'गोयरग्ग०' इत्यादि । गोचरी जानेके पहले लघुनीत और बड़ीनीतकी शंकाको निवृत्त करलेने पर भी यदि गोचरीके लिए चले जाने पर पुनः लघुशंका आदि की शंका होजायतोमल-मूत्र को रोके नहीं, क्योंकि कहा है__ "मूत्रके निरोध करने से नेत्रोंको हानि होती है और मलका અપ્રતીતિનું કારણ બને છે, તથા લેકવ્યવહારથી પણ અનુચિત છે તેથી જરૂર પડતા તેના સ્વામીને પૂછી લઈને જ કમાડ પડદે આદિ ખેલવાં જોઈએ. (૧૮) गोयरग्ग० त्या शायरी 41 पौड धुनीति भने पनातिनी શકાને નિવૃત્ત કરવા છતા પણ જે ગેચરી માટે નીકળી ગયા પછી ફરી લઘુશકા આદિની શકા થઈ જાય તે મળ-મૂત્રને રોકવા નહિ, કારણ કે કહ્યું છે કે “મૂત્રને નિરોધ કરવાથી નેત્રને હાની થાય છે અને મળને નિરોધ કરવાથી Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ असोहणा य आयविराहणा इत्यादि । नन्वेवं तर्हि किं कुर्यात् ? इत्याह- प्रामुकं - निर्जन्तुकं निरवद्यमित्यर्थः, अवकाश स्थण्डिलं ज्ञात्वा, अनुज्ञाप्य = गृहस्थं संसूच्य तदाज्ञामादायेत्यर्थः, व्युत्सृजेत् = परित्यजेत् ॥१९॥ + श्रीदशवैकालिक सूत्रे ૧ २ 8 ४ मूलम् - णीयदुवारं तमसं कुगं परिवजए । ७ પ્ ८ अचक्खुविसओ जत्थ, पाणा दुप्पडिलेहगा ॥२०॥ छाया - नीचद्वारं तामसं, कोष्ठकं परिवर्जयेत् । अचक्षुर्विषयो यत्र, प्राणाः दुष्प्रतिलेखकाः ||२०| सान्वयार्थः - णीयदुवारं = नीचे द्वारवाले तमसं = प्रकाशरहित कुडगं = कोठेको परिवज्जए=वरजे अर्थात् वहां आहार- पानी नहीं लेवे, क्योंकि जत्थ = जहां अचक्खुविसओ-आँखका प्रसार नहीं होता ( वहां ) पाणा = द्वीन्द्रिय आदि प्राणियोंका दुष्पडिलेहगा - प्रतिलेखन नहीं हो सकता ||२०|| टीका- 'णीयदुवारं०' इत्यादि । नीचद्वारं = नीचं निम्नं द्वारं-प्रवेश-निर्गममार्गों यस्य स तं तथोक्तम्, तादृशप्रदेशे प्रवेश निर्गमाभ्यामात्मसंयमविराधनायाः संभवात्, तामसम्= तमोयुक्तमप्रकाश मित्यर्थः, कोष्ठकं = गृहाभ्यन्तरमपवरकादिकं परिवर्जयेत् न तत्राऽऽहारादिकं गृह्णीयादित्यर्थः । किं सामान्येनायं निषेधः ? निरोध करने से जीवन को हानि पहुंचती है, तथा बुरी तरह आत्मविराधना होती है।" ८ तो क्या करे सो बताते हैं - जीवरहित ( निरवद्य) स्थान देखकर गृहस्थकी आज्ञा लेकर उस स्थान में मल-मूत्रका त्याग करे || १९|| णीयदुवारं ० ' इत्यादि । नीचे द्वारवाले कोठेमें भिक्षाके लिए नहीं जाना चाहिये, क्योंकि उसमें जाने-आनेसे आत्मा और संयमकी - विराधनाका संभव है | तथा अन्धकारयुक्त कोठे में भी आहार आदि જીવનને હાનિ પહેાચે છે, અને ખરાબ રીતે આત્મ-વિરાધના થાય છે,' તા શુ કરવુ, તે હવે ખતાવે છે-જીવર્હુિત ( નિરવદ્ય) સ્થાન જોઇને ગૃહસ્થની આજ્ઞા લઇને એ સ્થાનમાં મળ-મૂત્રને ત્યાગ કરે (૧૯) ચતુવાર ઈત્યાદિ નીચા દ્વારવાળા એરડામાં ભિક્ષાને માટે ન જવું, કારણ કે તેમા જવા-આવવાથી આત્મા અને સંયમની વિરાધનાને સભવ છે. તથા અધકારયુક્ત એરડામાં પણ આહાર આદિ ગ્રહણુ ન કરવા; તાત્પર્ય એ 1 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } 슬 ह च " ६ 1 ४०३ अध्ययन ५ उ. १ गा. २०-२२ - भिक्षार्थं गृहप्रवेशविधिः नेत्याह-यत्र=यस्मिन् कोष्टकादौ, अचक्षुर्विषय: = अत्र 'अ' 'चक्षुर्विषय:' इति पृथक् पदद्वयं तत्र 'अ' इति निपातो नञर्थकः 'अभावे ना - नो नापी' त्यमरात्, तथाच चक्षुर्विषय: चक्षुरिन्द्रियजन्यव्यापारप्रसरः अ=न भवेदिति शेषः, ततः किमित्याह =माणाः=द्वीन्द्रियादयः दुष्प्रतिलेखका : = दुर्निरीक्ष्या 'भवन्ती' ति शेषः, तत्र भिक्षां गृह्णतः साधोरीयै- षणयोः शुद्धिर्न जायते ||२०|| ૧ 3 ૪ ५ ર मूलम् - जत्थ पुप्फाई बीयाई, विप्पइन्नाई कुट्टए । ૬ . ૯ ૧૦ अहुणोवलित्तं उल्लं, दट्ठूणं परिवजए ॥ २१ ॥ छाया - यत्र पुष्पाणि बीजानि विप्रकीर्णानि कोष्टके । अधुनोपलिप्तमा, दृष्ट्वा परिवर्जयेत् ॥ २१ ॥ सान्वयार्थः-जत्थ=जिस कुट्टए = कोठे में पुप्फाइं= फूल (और) बीयाइं = बीज विप्पइन्नाई - बिखरे हुए हों उस कोठेको, तथा अनुणोवलिप्तं तुरन्त के लिपे हुए उल्लंगीले कोठेको दहूणं - देखकर परिवज्जए = बरजे ॥२१॥ टीका- ' जत्थ' इत्यादि । यत्र कोष्ठके गृहे वा सचित्तानि पुष्पाणि बीजानि वा विप्रकीर्णानि इतस्ततः प्रसृतानि भवेयुः यद्वा तत्काल लिप्तमत एवांद्रे कोष्ठकादि तत् साधुः परिवर्जयेत् = तत्र न गच्छेदित्यर्थः ॥ २१ ॥ , ग्रहण न करे । तात्पर्य यह है कि जिस कोठेमें अन्धकारके कारण नेत्रोंकी प्रवृत्ति न होती हो, और इसीलिए द्वीन्द्रिय प्राणी सरलता से दिखाई न देते हों उसमें भिक्षा लेनेसे ईर्ष्या और एषणा की शुद्धि नहीं होती ॥ २० ॥ C जत्थ पुप्फाई ० इत्यादि । जिस कोठे आदिमें सचिन्त पुष्प सचित्त बीज बिखरे हुए हों, तथा तत्काल लिपनेसे जो गीला हो उस कोठे या अन्य-गृह आदिमें प्रवेश न करे ॥२१॥ છે કે જે એરડામા અધકારને કારણે નેત્ર કામ ન કરી શક્તાં ડાય અને તેથી કરીને દ્વીન્દ્રિયાદિ પ્રાણી સહેલાઈથી ન જોઈ શકાતા હૈાય તેમા ભિક્ષા લેવાથી સાધુની ઇર્ષ્યા તથા એષણાની શુદ્ધિ જળવાતી નથી (૨૦) जत्थ पुष्फाई० इत्यादि ने गोरडा माहिमां सचित्त युष्य सथित्त जीन વેરાયલા હાય તથા તત્કાળ લીંપવામા આવ્યેા હેાવાથી લીલેા હૈાય તે ઓરડામાં યા ગૃહાર્દિમાં પ્રવેશ ન કરવા (૨૧) Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २३ ४०४ श्रीदशवकालिकसूत्रे मूलम्-एलगं दारगं साणं, वच्छगं वावि कोटए । उल्लंधिया न पविसे, विउहित्ताण व संजए ॥२२॥ छाया-एडकं दारकं श्वानं, वत्सकं वाऽपि कोष्ठके । उल्लङ्घय न भविशेत, व्यूह्य वा संयतः ॥२२॥ सान्वयार्थः-एलग-भेड दारकंचालक साणं-कुत्ते वच्छगं-बछडे अपिवाइस प्रकार दूसरे अर्थात् बकरा-बकरी पाडा-पाडी आदिको उल्लंधिया लांघ करके, वा अथवा विउहित्ताण-हाथ आदिसे हटाकर संजए साधु कोहएकोठे-घर में न पविसे प्रवेश नहीं करे ॥२२॥ ___टीका-'एलगं' इत्यादि । संयता मिक्षुः, एडकंगड्ढकं, दारकम् अर्भकम् श्वान कुक्कुर, वत्सकं-गोशिशुं वा, अपिशब्दादजामहिष्यादिशिशुग्रहणम्, उल्ल. ध्य अतिक्रम्य व्यूह्य-अपोह्य हस्तादिनाऽपसार्येत्यर्थः, कोष्ठके न प्रविशेत् ॥२२॥ मूलम्-असंसत्तं पलोइज्जा, नाइदूरावलोयए । उप्फुल्लं न विणिज्झाए, नियहिज्ज अयंपिरो ॥२३॥ छाया-असंसक्तं प्रलोकेत, नातिदरमवलोकेत । उत्फुल्लं न विनिायेत् निवर्तताऽजल्पन् ॥२३॥ सान्वयार्थः-असंसत्तं आसक्तिरहित होकर पलोइज्जा-देखे अर्थात् रागादिपूर्वक किसीको न देखे, नाइदूरावलोयए अत्यन्त दूर दृष्टि डालकर-लम्वी दृष्टिसे न देखे तथा उप्फुलं आँखें फाड़-फाडकर अथवा मुसकराता हुआ टकटकी लगाकर नविणिज्झाए नहीं देखे, (भिक्षाकी प्राप्ति न हो तो) अथपिरो कुछभी नहीं वोलता हुआ अर्थात् वडवडाहट नहीं करता हुआ वहांसे नियटिज्ज वापस लौट जावे ॥२३॥ टीका-'असंसत्' इत्यादि। असंसक्तम् आसक्तिरहितं यथास्यात्तथा 'एलगं०' इत्यादि । भेड़ तथा बकरा, बालक, कुत्ता, बछड़ा तथा पाडा-पाडी आदिका उल्लंघन करके, अथवा उनको हाथ आदिसे हटाकर साधु कोठे आदिमें प्रवेश न करे ॥२२॥ ' असंसतं.' इत्यादि । आसक्त होकर रागादिपूर्वक किसीका एलगं०त्यादि. ३२ तथा ५४३, १४, इत३, पाछा तथा पा-पाडी मान ઓળંગીને અથવા તેને હાથ આદિથી હઠાવીને સાધુ ઓરડામાં પ્રવેશ ન કરે (૨૨) असंसत्तं. त्याहि मासरत छन समापि न मानन - ४२९. Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. २३-भिक्षार्थ स्थितस्य कायचेष्टाप्रकारः ४०५ प्रलोकेत-पश्येत् , अन्यथा रागादिसम्भवात् । अतिदूरं दातुरागमनमदेशात्परं नावलोकेत, साधौ तस्करतादिशङ्कासंभवात् । उत्फुल्लं-स्मेरं यथा स्यात्तथा नेत्रे विस्फार्येत्यर्थः न विनिर्ध्यायेत्=न पश्येत् । कदाचिद्भिक्षाया अलाभे अजल्पन्= दैन्योपालम्भवचनानि अब्रुवन् निवर्त्तत-प्रत्यावर्चेत । 'असंसत्तं' इति पदेन दृष्टयनुरागोऽपाकृतः । 'नाइदूरा०' इत्यादिना साधौ चौरत्वाद्याशङ्का निराकृता । 'उप्फुल्लं.' इत्यादिना, वराकेणानेन साधुना नावलोकितो नाप्यनुभूत एतादृशो विभवोऽतोऽयं दीनः' इत्याद्याशङ्का व्युदस्ता ॥२३॥ मूलम्-अइभूमि न गच्छिज्जा, गोयरग्गगओ मुणी। कुलस्स भूमि जाणित्ता, मियं भूमि परक्कमे ॥२४॥ अवलोकन न करे । दाता जिस स्थानसे आता हो उस स्थानसे ज्यादा दूर न देखे, क्योंकि दूर तक देखनेसे किसीको ऐसी शंका हो जाय कि 'यह चोर है' इत्यादि । किसी पदार्थकी ओर आंखें फाड़-फाड़ कर न देखे । यदि भिक्षाकी प्राप्ति न हो तो दीन वचन न बोले-न बड़बड़ावे, किन्तु मौनसहित पीछा फिर जावे। . 'असंसत्तं' पदसे नेत्रविषयक अनुराग का त्याग प्रगट किया है। 'नाइदरा०' इत्यादि पदसे यह सूचित किया है कि साधुको ऐसा आचरण करना चाहिए जिससे किसीको चोर आदि होनेका सन्देह न हो। 'उप्फुल्लं०' इत्यादि पदसे इस सन्देह को दूर किया है कि कोई यह न समझे कि-'अरे! इस बेचारे साधुने ऐसी विभूति न कभी देखी है और न कभी भोगी है इसलिए यह बड़ा दीन है ॥२३॥ દાતા જે સ્થાનમાંથી આવતું હોય એ સ્થાનથી વધારે દૂર ન જેવું, કારણ કે દૂર સુધી જેવાથી કેઈને એવી શકા આવી જાય કે “આ ચેર છે” ઈત્યાદિ. જે ભિક્ષાની પ્રાપ્તિ ન થાય તે દીન વચન ન બેસવાં, કે ન બડબડવું, પરતુ મૌનસહિત પાછાં ફરવું असंसत्तं० २०४थी नेत्रविषय: अनुरागनी त्या प्रट ये छे नाइदरा० ઈત્યાદિથી એમ સૂચિત કરવામાં આવ્યું છે કે સાધુએ એવું આચરણ કરવું જોઈએ કે જેથી કેઈને ચાર આદિ હોવાને સદેહ ન પડે ૩ng૦ ઈત્યાદિ શબ્દથી એ સ દેહ દૂર કર્યો છે કે કઈ એમ ન સમજે કે “અરે ! આ બિચારા સાધુએ એવી વિભૂતિ નથી કેઈવાર જોઈ અને નથી કેઈવાર ભોગવી તેથી એ गई हीन छ (23) Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ - - । श्रीदशवकालिकसूत्रे छाया-अतिभूमिं न गच्छेत् , गोचराग्रगतो मुनिः । कुलस्य भूमि ज्ञात्वा, मितां भूमि पराक्रामेत् ॥२४॥ सान्वयार्थः-गोयरग्गगओ-गोचरीमें गेया हुआ मुणी साधु अइभूमि गृहस्थकी मर्यादित भूमिसे अगाड़ी उसकी आज्ञाके विना न गच्छिज्जा नहीं जावे, (किन्तु) कुलस्सन्गृहस्थके घरकी भूमि मर्यादित भूमिको जाणित्ता जानकर मियं भूमि-जिस घरमें जहांतक जानेकी मर्यादा हो वहांतक ही परकमे-जावे ॥२४॥ टीका-'अइभूमि०' इत्यादि । गोचराग्रगतो मुनिः अतिभूमि परमवेशाय गृहस्थाननुमतां भूमिमतिक्रम्य-उल्लध्य न गच्छेत् । तर्हि किं कुर्यात् ? इत्याहकुलस्य भूमि मर्यादां स्थित्यवधि ज्ञात्वा मितां-परिच्छिन्नां स्वावस्थानयोग्यां भूमि-स्थानं पराक्रामेत् गत्वा तिष्ठेत् , विपरीताचरणे हि गृहस्थरोषादिसम्भवः ॥२४॥ मूलम् तत्थे पडिलेहिज्जा, भूमिभागं वियक्खणो। सिणाणस्स य वच्चस्स, संलोगं परिवजए ॥२५॥ छाया-तत्रैव पतिलिखेत् , भूमिभागं विचक्षणः । स्नानस्य च वर्चसः, संलोकं परिवर्जयेत् ॥२५॥ सान्वयार्थः-तत्थेव-जिस मर्यादित भूमिपर खड़ा है उसी भूमिभागे=भूमिभागको वियक्खणो विचक्षण साधु पडिलहिज्जा-अतिलेखन करे, अर्थात् वहांकी 'अइभूमि० इत्यादि । जिस घरमें भूमिकी जितनी मर्यादा हो उसे उल्लंघन करके मुनि गृहस्थकी आज्ञा विना आगे नहीं जावे, किन्तु उस कुलकी मर्यादाको जानकर गमन करने योग्य परिमित स्थान तकही जाकर खड़ा हो जाय-अर्थात् किसीकी मर्यादाका उल्लंघन न करे। इसके विपरीत आचरण करनेसे गृहस्थको क्रोध आने आदिकी संभावना रहती है ॥२४॥ - ચાર્જિંગ ઈત્યાદિ જે ઘરમાં ભૂમિની જેટલી મર્યાદા હોય એને ઉલ્લંઘીને મુનિ ગૃહસ્થની આજ્ઞા વિના આગળ ન જાય, પરન્તુ એ કુળની મર્યાદાને જાણીને ગમન કરવા યોગ્ય પરિમિત સ્થાન સુધી જ જઈને ઊભા રહે, અર્થાત્ –કેઈની મર્યાદાનું ઉલ ઘન ન કરે, એથી વિપરીત આચરણ કરવાથી ગૃહસ્થને કે આદિ ઉત્પન્ન થવાની સંભાવના રહે છે (૨૪) Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. २४ - २६ - गृहस्थगृहे स्थितिविधिः ४०७ भूमिको पूंजकर खड़ा रहे और सिणाणस्स = स्नानघरकी तर्फ य = तथा वच्चस्स = टट्टी पेशाब - घरकी तर्फ संलोगं दृष्टि परिवज्जए =न डाले ||२५|| टीका- 'तत्थेव०' इत्यादि । विचक्षणः = निपुणः तत्रैव = स्वाधिष्ठानस्थान एव भूमिभागं प्रति लिखेत् = संपश्येत्, स्नानस्य स्नानगृहस्य वर्चसः = वचगृहस्य च मलपरित्यागगृहस्येत्यर्थः, संलोकं = प्रेक्षणं परिवर्जयेत् । 'विअक्खणो' इत्यनेनाऽगीतार्थस्य स्वतन्त्रतया गोचरीगमनं निषिद्धम् । 'सिणाणस्स' इत्यादिना च नग्न स्त्र्यादिदर्शनाद्रागादिसंभव इति सूचितम् ||२५|| २ 3 ४ मूलम-दगमट्टियआयाणे, बीयाणि हरियाणि य । ૫ ७ ૐ परिवज्जं तो चिट्टिज्जा, सर्विदिय समाहिए ॥ २६ ॥ छाया - दकमृत्तिकाऽऽदानं, वीजानि हरितानि च ॥ परिवर्जयंस्तिष्ठेत्, सर्वेन्द्रियसमाहितः ||२६|| सान्वयार्थ : - ( और वहां भी) दगमट्टियआयाणे = सचित्त जल और मिट्टीयुक्त मार्गको घीयाणि= शालि आदि बीजोंको य= और हरियाणि हरित कायको परिवज्वंतो=वरजता हुआ अर्थात् उससे हटकर सव्विदियसमाहिए = सब इन्द्रियों को गोपता हुआ चिट्ठिज्जा = खड़ा रहे ||२६|| ' तत्थेव ० ' इत्यादि । विचक्षण भिक्षु जिस मर्यादित भूमि पर खड़ा है वहींके भूमिभागका प्रतिलेखन करे, स्नानघर तथा उच्चार आदिके स्थानकी ओर दृष्टि न डाले । 'वियक्खणो' पदसे अगीतार्थ साधुको स्वतन्त्र गोचरी करनेका निषेध किया गया है । ' सिणाणस्स' इत्यादि पदोंसे - 'नग्नस्त्री आदि दीखजानेके कारण रागादि भाव उत्पन्न होना संभव है ' यह सूचित किया गया है ॥२५॥ સથવ॰ ઇત્યાદિ વિચક્ષણુ ભિક્ષુ જે મર્યાદિત ભૂમિ પર ઊભેા હાય ત્યાના ભૂમિભાગનુ પ્રતિલેખન કરે, સ્નાન—ઘર તથા ઉચ્ચાર આદિના સ્થાન (જાજરૂ)ની તરફ દૃષ્ટિ ન ફેંકે વિયરવળો શબ્દથી ગીતાથ સાધુને સ્વતંત્ર ગોચરી કરવાને નિષેધ કરવામાં આવ્યે છે સારસ ઈત્યાદિ પદેથી નગ્ન સ્ત્રી આદિ દેખાઇ જવાને કારણે રાગાદિ ભાવ ઉત્પન્ન થવાના સભવ છે ’–એમ સૂચિત કરવામા આવ્યું છે (૨૫) 6 Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - , श्रीदशवकालिकसूत्रे टीका-'दगमटिय०' इत्यादि । 'दकमृत्तिकाऽऽदानंदकं च मृत्तिका चेति दकमृत्तिके, आदीयते-आनीयतेऽनेनेत्यादानं मार्गः, दकमृचिकयोरादानं दकमृत्तिकाऽऽदान-जलमृत्तिकाऽऽनयनमार्गस्तत् । बीजानि=सचित्तानि शाल्यादीनि, हरितानि बनस्पतिमात्राणि, चकारादन्यान्यप्यकल्प्यवस्तुजातानि परिवर्जयन्= परित्यजन् सर्वेन्द्रियसमाहितः तत्तदिन्द्रियविषयव्यासङ्गरहितस्तिष्ठेत् अवस्थिति कुर्यात् ॥२६॥ मूलम् तत्थ से चिढमाणस्स, आहरे पाणभोयणं । अकप्पियं न गेण्हिज्जा, पडिगाहिज्ज कप्पियं ॥२७॥ छाया-तत्र तस्मै तिष्ठते, आहरेत्पान-भोजनम् ।। अकल्पिकं न गृह्णीयात् , प्रतिगृह्णीयात्कल्पिकम् ॥२७॥ सान्वयार्थः-तत्थ-वहां चिट्ठमाणस्स-खड़े हुए तस्स-उस साधुके लिए (गृहस्थ) पाणभोयणं आहार-पानी आहरे लाकर देवे तो (साधु उसमें) अकप्पियं-अकल्पनीय आहार आदि न गेण्हिज्जा नहीं लेवे, (किन्तु)कप्पियंकल्पनीय होवे तो पडिगाहिज्जलेवे ॥२७॥ ___टीका-'तत्थ से०' इत्यादि । तत्र गृहस्थगृहे तिष्ठते तस्मै भिक्षवे १ दकशब्दो जलपर्यायवचन:-'प्रोक्तं माज्ञैर्भुवनमतं जीवनीयं दकं च ।' इति हलायुधकोशात् । २ सूत्रे प्राकृतत्वाच्चतुर्थ्याः पष्ठी । 'दगमट्टिय०' इत्यादि । सचित्त जल और मृत्तिका लाने के मार्गका, और शालि आदि सचित्त बीज, वनस्पतिकाय तथा अन्य अकल्प्य पदार्थोंका वर्जन करता हुआ-उनसे दूर हट कर सब इन्द्रियोंका संयम करता हुआ खड़ा होवे ॥२६॥ 'तत्थ से' इत्यादि । गृहस्थके घरमें खड़े हुए साधुको गृहिणी (स्त्री) दगमट्टिय० ।त्या सयित्त | मने मारीनु म२ ula (in२) मा સચિત્ત બીજ, વનસ્પતિકાય તથા અન્ય અકખ્ય પદાર્થોનું વર્જન કરતા-તેનાથી દૂર હઠીને સર્વ ઈદ્રિયોને સયમ કરતા ઊભે રહે (૨૬) तत्थ से त्या गृहस्थन। घरमा समेत साधुने डिपी (सी) माई Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ५ उ. १ गा. २७-२९-आहारग्रहणविधिः ४०९ गृहिण्यादिः पानभोजन-पान-पेयं तिलतण्डुलादिधावनजलम् भोजनं भोज्यमन्नादिकम् आहरेत्-उपनयेत्-दद्यादित्यर्थः । तत्रायं विशेषः उपनतेषु पानभोजनादिषु अकल्पिक कल्पितुमयोग्यमनेषणीयमित्यर्थः, न गृह्णीयात्-नाददीत, कल्पिककल्प्यं निरवयं प्रतिगृह्णीयात् ॥२७॥ मूलम्-आहरती सिया तत्थ, परिसाडिज्ज भोयणं । दितियं पडियाइक्खे, न में कप्पइ तारिसं ॥२८॥ छाया-आहरन्ती स्यात्तत्र, भोजनं परिशाटयेत् । ___ ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥२८॥ सान्वयार्थः-और-आहरंती-आहार-पानी देती हुई वह-दात्री सिया-कदाचित् अगर तत्थ वहां भोयण भोजन-पान परिसाडिज्ज-नीचे गिरावे तो दितियं देती हुई उस वाईसे (साधु) पडियाइक्खे कहे कि तारिसं-इस प्रकारका आहार-पानी मे मुझे न कप्पइ-नहीं कल्पता है ॥२८॥ टीका-'आहरंती०' इत्यादि । आहरन्ती-भिक्षामानीय ददती गृहिणी स्यात्-कदाचित् तत्र स्थाने भोजनम् आहारं परिशाटयेत्-इतस्ततो विकिरेत् जानुप्रमाणोच्चप्रदेशात् कणादिमात्रमपि, तदधम्मदेशाच निरन्तरं पातयेदिति वृद्धाः, तदा ददतीं प्रति भिक्षुः आचक्षीत-ब्रुवीत, तादृशम्-उक्तप्रकारकमन्नादिकं मे= मम न-कल्पते=न-युज्यते न ग्राह्यमिति भावः । आदि तिल तण्डुल आदिका धोवन, तथा अन्नादिक देवे तो उनमेंसे अकल्पनीय (अनेषणीय) पदार्थोंका ग्रहण न करे, कल्पनीयका ग्रहण करे ॥२७॥ 'आहरंती' इत्यादि । अशनादि देते समय दाताके हाथसे घुटनेसे ऊपरके प्रदेशसे यदि एक भी कण गिर जाय, अथवा घुटनेसे नीचेके प्रदेशसे निरन्तर गिर रहा हो तो भिक्षु दातासे कहे कि ऐसा अन्नादिक मेरे लिए ग्राह्य नहीं है। તલ તદલ (ચેખા) આદિનું ધાવણ તથા અનાદિક આપે તે એમાંથી અકલ્પનીય (અનેષણય) પદાર્થોને ગ્રહણ ન કરે, કલ્પનીયને ગ્રહણ કરે. (૨૭) __आहरंती. त्याहि. भशनाहि हेती. मते हाताना हाथमाथी धुनी ઉપરના પ્રદેશથી જે એક પણ કણ પડી જાય, અથવા ઘુંટણથી નીચેના પ્રદેશથી નિરંતર પડી રહ્યું હોય તે ભિક્ષુ દાતાને કહે કે એવાં અનાદિ મારે ગ્રાહ્ય નથી. Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , श्रीदशवकालिकसूत्रे टीका-'दगमट्टियः' इत्यादि । दकमृत्तिकाऽऽदानंदकं च मृत्तिका चेति दकमृत्तिके, आदीयते-आनीयतेऽनेनेत्यादानं मार्गः, दकमृत्तिकयोरादानं दकमृत्तिकाऽऽदानं जलमृत्तिकाऽऽनयनमार्गस्तत् । बीजानि-सचित्तानि शाल्यादीनि, , हरितानिबनस्पतिमात्राणि, चकारादन्यान्यप्यकल्प्यवस्तुजातानि परिवर्जयन्= परित्यजन् सर्वेन्द्रियसमाहितः तत्तदिन्द्रियविषयव्यासङ्गरहितस्तिष्ठेत् अवस्थिति कुर्यात् ॥२६॥ मूलम् तत्थ से चिट्ठमाणस्स, आहरे पाणभोयणं । ___ अकप्पियं न गेण्हिज्जा, पडिगाहिज कप्पियं ॥२७॥ छाया-तत्र तस्मै तिष्ठते, आहरेत्पान-भोजनम् ।। अकल्पिकं न गृह्णीयात् , प्रतिगृह्णीयात्कल्पिकम् ॥२७॥ सान्वयार्थः-तत्थ वहां चिट्ठमाणस्स-खड़े हुए तस्स-उस साधुके लिए (गृहस्थ) पाणभोयणं आहार-पानी आहरे लाकर देवे तो (साधु उसमें) अकप्पियं-अकल्पनीय आहार आदि न गेण्हिज्जा नहीं लेवे, (किन्तु) कप्पियंकल्पनीय होवे तो पडिगाहिज्ज-लेवे ॥२७॥ टीका-'तत्थ से०' इत्यादि । तत्र गृहस्थगृहे तिष्ठते तस्मैर भिक्षवे १ दकशब्दो जलपर्यायवचन:-'प्रोक्तं प्राज्ञैर्मुवनमतं जीवनीयं दकं च ।' इति हलायुधकोशात् । २ सूत्रे प्राकृतत्वाचतुर्थ्याः पष्ठी । 'दगमहियः' इत्यादि । सचित्त जल और मृत्तिका लाने के मार्गका, और शालि आदि सचित्त वीज, वनस्पतिकाय तथा अन्य अकल्प्य पदार्थोंका वर्जन करता हुआ-उनसे दूर हट कर सब इन्द्रियोंका संयम करता हुआ खड़ा होवे ॥२६॥ 'तत्थ से' इत्यादि । गृहस्थके घरमें खड़े हुए साधुको गृहिणी (स्त्री) दगमट्टिय० ४त्या सथित्त ११ भने भारीनु भने शाति (१२) माहि સચિત્ત બીજ, વનસ્પતિકાય તથા અન્ય અકષ્ય પદાર્થોનું વજન કરતા-તેનાથી २ उहीने सर्पद्रियाना सयम ४२ सो रहे. (२१) तत्थ से त्या स्थाना घरमा ससा साधुने डिपी (l) मा Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. २७-२९-आहारग्रहणविधिः गृहिण्यादिः पानभोजन-पानं-पेयं तिलतण्डुलादिधावनजलम् भोजनं भोज्यमन्नादिकम् आहरेत्-उपनयेत्-दधादित्यर्थः। तत्रायं विशेष उपनतेषुपानभोजनादिषु अकल्पिक कल्पितुमयोग्यमनेषणीयमित्यर्थः, न गृह्णीयात नाददीत, कल्पिक कल्प्यं निरवचं प्रतिगृह्णीयात् ॥२७॥ मूलम्-आहरती सिया तत्थ, परिसाडिज्ज भोयणं । ૧ ૧૦ ૧૨ ૯ दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥२८॥ छाया-आहरन्ती स्यात्तत्र, भोजनं परिशाटयेत् ।। ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥२८॥ सान्वयार्थः-और-आहरंती-आहार-पानी देती हुई वह-दात्री सिया-कदाचित् अगर तत्थ-वहां भोयण भोजन-पान परिसाडिज्ज-नीचे गिरावे तो दितियं-देती हुई उस वाईसे (साधु) पडियाइक्खे-कहे कि तारिसं-इस प्रकारका आहार-पानी मे=मुझे न कप्पह-नहीं कल्पता है ॥२८॥ टीका-'आहरंती.' इत्यादि । आहरन्ती-भिक्षामानीय ददती गृहिणी स्याव-कदाचित् तत्र स्थाने भोजनम् आहारं परिशाटयेत् इतस्ततो विकिरेत् जानुप्रमाणोचप्रदेशात् कणादिमात्रमपि, तदधम्मदेशाच्च निरन्तरं पातयेदिति वृद्धाः, तदा ददतीं प्रति भिक्षुः आचक्षीत-ब्रुवीत, तादृशम् उक्तमकारकमन्नादिकं मे= मम न-कल्पते-न-युज्यते न ग्राह्यमिति भावः । आदि तिल तण्डुल आदिका धोवन, तथा अन्नादिक देवे तो उनमेंसे अकल्पनीय (अनेषणीय) पदार्थोंका ग्रहण न करे, कल्पनीयका ग्रहण करे ॥२७॥ 'आहरंती' इत्यादि। अशनादि देते समय दाताके हाथसे घुटनेसे ऊपरके प्रदेशसे यदि एक भी कण गिर जाय, अथवा घुटनेसे नीचेके प्रदेशसे निरन्तर गिर रहा हो तो भिक्षु दातासे कहे कि ऐसा अन्नादिक मेरे लिए ग्राह्य नहीं है। તલ તલ (ચોખા) આદિન ધાવણ તથા અન્નાદિક આપે તે એમાથી અકલ્પનીય (અનેષણય) પદાર્થોને ગ્રહણ ન કરે, લ્પનીયને ગ્રહણ કરે (૨૭) आहरंती. त्यात मनाहि ती मते हाताना डायमाथी धुनी ઉપરના પ્રદેશથી જે એક પણ કણ પડી જાય, અથવા ઘુંટણથી નીચેના પ્રદેશથી નિરંતર પડી રહ્યું હોય તે ભિક્ષુ દાતાને કહે કે એવાં અશનાદિ મારે ગ્રાહ્યા નથી. Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे पाकादिगृहकार्याणां प्रायः स्त्र्यधीनत्वेन तत्रोपस्थिविप्राधान्यात्तग्रहणम् |२८| ૫ 2 3 ४ मूलम् - संमदमाणी पाणाणि, बीयाणि हरियाणि य । ४१० ૬ ७ ८ હું असंजमकरिं नच्चा, तारिसं परिवजए ॥ २९ ॥ छाया -- संमदयन्ती प्राणान् वीजांनि हरितानि च । असंयमकरीं ज्ञात्वा तादृशीं परिवर्जयेत् ||२९|| , सान्वयार्थ:-तथा-पाणाणि= बेइन्द्रियादिक प्राणियोंको बीयाणि= शालि आदि बीजोंको य=और हरियाणि = हरी वनस्पतिकायको संमद्दमाणी = पैरों से कुचलती हुई ( आहार- पानी देवे तो ) उसे असंजमकरिं = साधुके लिये अयतना करनेवाली नच्चा = जानकर (साधु) तारिसं= सदोष आहार देने वाली उसे परिवज्जए बरजे अर्थात् उसके हाथसे आहार- पानी नहीं लेवे ||२९|| टीका- 'संमद्दमाणी०' इत्यादि । प्राणान् वीजानि हरितानि च संमर्दयन्ती= पादसंघट्टनादिना पीडयन्ती अशनादिकं दद्यादिति शेषः, तदा असंयमकरीं = साधुनिमित्तमयतनाकारिणीम् ज्ञात्वा तादृशीम् = उक्तस्त्ररूपां सदोषमाहारादिकं ददतीं तां परिवर्जयेत् = प्रत्यादिशेत्, तद्धस्ततो नानादिकं गृह्णीयादित्यर्थः । इयं भिक्षादानामागच्छन्ती प्राणादीनि मर्दयतीति तद्विराधना मय्यध्यापद्येतेति भावयन् भिक्षां न गृह्णीयादिति भावः ||२९|| रसोईका काम प्रायः स्त्रियोंके अधीन रहता है और रसोईमें मुख्यतया स्त्री मौजूद रहती है, अत एव गाथामें स्त्रीका ग्रहण किया है ॥ २८ ॥ ' संमदमाणी ० ' इत्यादि । प्राण बीज वनस्पति आदि सचित्तको कुचलती - रौंदती हुई अन्नादि देवे तो साधुके लिए अयतना करनेवाली समझकर उसे त्याग देवे, अर्थात् उसके हाथ से अन्नादि ग्रहण न करे । तात्पर्य यह है कि-' यह भिक्षा देने के लिए जो अयतना कर रही है ऐसी રસેઇનુ કામ પ્રાય: સ્ત્રીઓને અધીન રહે છે અને સેઇમા મુખ્યત્વે સ્ત્રી હાજર રહે છે, તેથી ગાથામા સ્ત્રીને ગ્રહણ કરવામા આવી છે (૨૮) संमद्दमाणी० त्याहि आयु मीन वनस्पति माहि सत्तिने उग्रडतीઢાળતી (આ) અન્નાદિ આપે ! સાધુને માટે અયતના કરનારી સમજીને તેને ત્યજી દે અર્થાત્ એના હાથથી અન્નાદિ ગ્રહણુ ન કરે. તાત્પર્ય એ છે કે— આ ભિક્ષા આપવાને જે અયતના કરી રહી છે, એવી અવસ્થામાં આહાર લેવાથી Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ३०-३१ - संहरणस्य चतुर्भङ्गन्यः २ ४ ૫ मूलम् - साहद्दु निक्खवित्ताणं, निक्खवित्ताणं, सचित्तं घट्टियाणिय । १ ७ ८ तहेव समणट्टाए, उद्गं संपणुलिया ॥ ३० ॥ & ૧૦ ૧૨ ૧૧ ओगाहइत्ता चलइत्ता, आहरे पाणभोयणं । ૧૪ ૧૭ ૧૫ ૧૮ ૧૬ दिंतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ॥३१ ॥ ४११ छाया - संहृत्य निक्षिप्य, सचित्तं घट्टयित्वा । des श्रमणार्थम् उदकं संप्रणुद्य ॥३०॥ अवगाह्य चालयित्वाssहरेत्पानभोजनम् । ददवीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥३१॥ सान्वयार्थः- समणट्टाए= साधुके लिए साहहु संहरण करके अर्थात् एक वरतन से दूसरे वरतनमें डालकरके, निक्खिवित्ताणं = सचित्त वस्तु पर आहारादिको रखकर अथवा आहारादिके ऊपर सचित्त वस्तुको रखकर, सचित्तं = सचित्त वस्तुका घट्टियाणिय- संघट्टा - स्पर्श करके, तहेव = उसीप्रकार उद्गं सचित्त अप्कायको संपणुल्लिया = इधर-उधर रखकर, ओगाहइत्ता = वर्षा से आँगनमें भरे हुए पानी में अवगाहन प्रवेश करके, चलइत्ता = रुके हुए जलको नालीद्वारा या हाथसे बाहर निकालकर यदि पाणभोयण = आहार- पानी आहरे = देवे तो दितियं = देती हुई उस वाईसे (साधु) पडियाइक्खे = कहे कि तारिस = इस प्रकारका आहारपानी मे= मुझे न कप्पड़ नहीं कल्पता है ||३०-३१ ॥ टीका - 'साहहु०' इत्यादि, 'ओगाहइत्ता' इत्यादि च । यदि श्रमणार्थे = भिक्षुनिमित्तं संहृत्य = भाजनाद्भाजनान्तरे संहरणं कृत्वा, 3 अवस्थामें आहार लेनेसे मुझे भी इस हिंसाका भागी बनना पड़ेगा ' ऐसा विचार करके मुनि उससे आहार न ले || २९ ॥ ( साहहु ० ' इत्यादि, और ' ओगाहहत्ता ० ' इत्यादि । यदि मणके लिए एक वर्त्तनसे दूसरे वर्त्तनमें संहरण करके ( निकालकर ), निक्षेपण મારે પણ એ હિંસાના ભાગી નવુ પડશે.' એવા વિચાર કરીને મુનિ તેના હાથથી આહાર લે નહિ साह० छत्याहि, मने ओगाहइत्ता० इत्याहि ले श्रमायुने भाटे मे વાસણમા ખીજા વાસણમાં સહરણ કરીને ( કાઢીને ), નિક્ષેપણુ કરીને (એકને Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ' मा ' ४१२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे संहरणस्य चतुभङ्गी यथा (१) सचित्ते सचित्तस्य, (२) सचित्तेऽचित्तस्य, (३) अचित्ते सचित्तस्य, (४) अचित्तेऽचित्तस्य संहरणम् । एषु चतुर्थों भङ्गो ग्राह्यः । अस्यापि चत्वारो भङ्गा भवन्ति, तद्यथा (१) शुष्के शुष्कस्य, (२) शुष्के आर्द्रस्य, (३) आई शुष्कस्य, (४) आते आर्द्रस्य संहरणम् । करके (एकके ऊपर दुसरेको रखकर), सचित्तके साथ संघटा करके (जलको हिलाकर), तथा अवगाहन करके-वर्षा ऋतुमें घरके आंगनमें रुके (भरे) हुए वारिसके जलमें प्रवेश करके या उसे नालीद्वारा निका. लकर पान-भोजन देवे तो देनेवालीसे श्रमण कहे कि 'ऐसा अन्न-पान आदि मुझे ग्राह्य नहीं है।' __ पहले संहरणका वर्णन करते हैं-संहरणको चौभंगी इस प्रकार होती है (१) सचित्तमें सचित्तका, (२) सचित्तमें अचित्तका (३) अचित्तमें सचित्तका, (४) अचित्तमें अचित्तका। इन चार भंगोंमेंसे चौथा भंग साधुको कल्पनीय है। इसके भी चार भंग होते हैं (१) सूखेमें सूखेका, (२) सूखेमें गीलेका। (३) गीलेमें सूखेका, (४) गीलेमें गीलेका । ઉપર બીજાને રાખીને), સચિત્તની સાથે સંઘટ કરીને, જળનું ઉપમન કરીને (જળને હલાવીને) તથા અવગાહન કરીને, વર્ષ તુમાં ઘરના આંગણામાં ભરેલા વરસાદના પાણીમાં પ્રવેશ કરીને યા એને નાળી (ખાળ) વડે કાઢી નાંખીને ભેજનપાન આપે તે એ આપનારીને શ્રમણ કહે કે “એવા અન્ન-પાન મારે ગ્રાહ્ય નથી ” પહેલાં સંહરણનું વર્ણન કરે છે. સંહરણની શોભગી આ પ્રકારે થાય છે – (१) सथित्तमा सन्यित्तनु, (२) सथित्तमा मथित्तनु, (3) भयित्तम साथतर्नु, (४) मभित्तमां मयित्तनु। એ ચાર ભાંગામાથી ચે ભાગો સાધુને માટે કલ્પનીય છે એના પણ ચાર ભાગા થાય છે – [१] सूपमा सूडानु, (२) सूमो दीखानु, (3) Eleli सूानु भने (૪) લીલામાં લીલાનું 72Mr Ha - Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ३०-३१-संहरणस्यचतुर्भङ्गन्यः एतेऽपि पुनः प्रत्येकं स्वगताल्पत्ववहुत्वाभ्यां भिन्नाश्चतुर्भङ्गान् भजन्ते । तत्र [१] 'शुष्के शुष्कस्ये'-त्येतदाख्यप्रथभङ्गस्य चतुर्भङ्गी यथा (१) अल्पशुष्क अल्पशुष्कस्य, (२) अल्पशुष्के बहुशुष्कस्य, (३) बहुशुष्केऽल्पशुष्कस्य, (४) बहुशुष्के बहुशुष्कस्य संहरणम् । [२] 'शुष्के आर्द्रस्ये'-त्येतद्वितीयभङ्गस्य चतुर्भङ्गी यथा (१) अल्पशुष्केऽल्पास्य, (२) अल्पशुष्के वहादस्य, (३) बहुशुष्केऽल्पास्य, (४) बहुशुष्के वहास्य संहरणम् । [३] 'आट्टै शुष्कस्ये'-तितृतीयभङ्गस्य चतुर्भङ्गी यथा(१) अल्पाद्रेऽल्पशुष्कस्य, (२) अल्पादें बहुशुष्कस्य, (३) वहाऽल्पशुष्कस्य, ये चारों भंग भी अल्पता और बहुलताके भेदसे चार चार प्रकारके होते हैं [१] 'सूखेमें सूखेका' इस प्रथम भंगकी चौभंगी इस तरह है (१) थोड़े सूखेमें थोड़े सूखेका, (२) थोड़े सूखेमें बहुत सूखेका । (३) बहुत सूखेमें थोड़े सूखेका, (४) बहुत सूखेमें बहुत सूखेका । [२] 'सूखेमें गीलेका' इस दूसरे भंगकी चौभंगी-- • (१) थोड़े सूखेमें थोड़े गीलेका, (२) थोड़े सूखेमें बहुत गीलेका, (३) बहुत सूखेमें थोड़े गीलेका, (४) बहुत सूखेमें बहुत गीलेका। [३] 'गीलेमें सूखेका' इस तीसरे भंगकी चौभंगी(१) थोड़े गीलेसें थोड़े सूखेका, (२) थोड़े गीलेमें बहुत सूखेका, એ ચાર ભાંગે પણ અલ્પતા અને બહુલતાન ભેદ કરીને ચાર ચાર प्रारना थाय छे. [૧] “સૂકામાં સૂકાનુ” એ પ્રથમની ચૌભાંગી આ પ્રમાણે છે (१) था31 सूमा था। सूत्रानु, (२) थोऽ1 सूमो मई सूर्नु, (૩) બહુ સૂકામાં થોડા સૂકાનું, (૪) બહુ સૂકામાં બહુ સૂકાનું [२] 'सूम दासानु' में भी मानी यौली (૧) ઘેડા સુકામાં થોડા લીલાનું, (૨) ઘેડ સૂકામાં બહુ લીલાનું (૩) બહુ સૂકામાં થોડા લીલાનું, (૪) બહુ સૂકામા બહુ લીલાનું [3] clari सूत्रानु' मे alon मानी यालil(૧) ઘેડા લીલામાં શેડા સૂકાનું, (ર) ઘેડા લીલામાં બહુ સૂકાનું, Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे (४) बहाई बहुशुष्कस्य संहरणम् । [४] 'आर्द्र आर्द्रस्येति चतुर्थभङ्गस्य चतुर्भङ्गी यथा (१) अल्पाऽल्पाद्रस्य, (२) अल्पादें-वहार्द्रस्य, (३) बहाद्देऽल्पास्य, (४) बहादें वहाईस्य संहरणम् । आस पूर्वोक्तभङ्गीषु प्रत्येकचतुर्भङ्गयाः 'अल्पशुष्केऽल्पशुष्कस्य 'वहुशुष्केऽल्पशुष्कस्ये-त्यादिरूपौ प्रथम-तृतीयभङ्गौ कल्प्यो शेषावकल्प्यौ, तथाग्रहणे पात्रोत्थापनादिना दातुः कष्ट-पात्रस्फुटन-तद्गतवस्तुविकरणाऽमीत्यादिसम्भवात् । (३) बहुत गीलेमें थोड़े सूखेका, (४) बहुत गीलेमें बहुत सूखेका । [४] 'गीलेमें गीलेका' इस चौथे भंगकी चौभंगी (१) थोड़े गीलेमें थोड़े गीलेका (२) थोड़े गीलेमें बहुत गीलेका। (३) बहुत गीलेमें थोड़े गीलेका, (४) बहुत गीलेमें बहुत गीलेका। ___ इन चारों चौभंगियोंमेंसे 'थोड़े सूखेमें थोड़ा सूखा मिलाना' और 'बहुत सूखेमें थोड़ा सूखा मिलाना 'ये पहले और तीसरे भंग ग्राह्य हैं। दूसरे और चौथे भंग ग्राह्य नहीं हैं। इस प्रकारके ग्रहण करनेसे वर्तन उठानेके कारण दाताको कष्ट, वर्तनका फूटजाना, और वस्तुका विखरजाना, और अप्रीति होना आदि दूषण होते हैं। जैसे किसी दाताने बहुत गीलेका या बहुत सूखेका संहरण करनेके लिए बड़ा भारी वर्तन उठाया तो उसे कष्ट होगा। (૩) બહુ લીલામાં થડા સૂકાનું, (૪) બહુ લીલામાં બહુ સૂકાનું [૪] લીલામા લીલાનું” એ ચોથા ભાગની ચભંગી– (१) थे।31 सीमामा यौ31 सीसानु', (२) थोडे मीसाम महु दासानु, (3) બહુ લીલામા છેડા લીલાનું, (૪) બહુ લીલામાં બહુ લીલાનું. આ ચાર ચૌભંગીઓમાથી “ડા સૂકામા ડું ચૂક મેળવવું” અને બહુ સૂકામાં છે ડું સુકુ મેળવવું એ પહેલા અને ત્રીજા ભાગા ગ્રાહ્ય છે. બીજા અને ચોથા ભાગ ગ્રાહ્ય નથી એ પ્રમાણે ગ્રહણ કરવાથી વાસણ ઉપાડવાને કારણે દાતાને કષ્ટ, વાસણ ફૂટી જવું અને વસ્તુ વેરાઈ–ળાઈ જવી, અને અપ્રીતિ થવી આદિ દુષણ થાય છે, જેમકે કે દાતાઓ બહુ લીલાનું યા બહુ સૂકાનું સંહરણ કરવાને માટે બહુ ભારે વાસણ ઉપાડ્યું હોય તેને કઈ થાય. Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ३० - ३१ - निक्षेपणचतुर्भयः ४१५ निक्षिप्य=एकस्योपर्यन्यस्य निक्षेपणं कृत्वा । निक्षेपणं च त्रिधा- सचित्तमचित्तं मिश्रं चेति, एतानाश्रित्य तिस्रश्चतुर्भङ्गयों भवन्ति । तत्र[१] सचित्ताऽचित्तयोश्चतुर्भङ्गी यथा (१) सचि सचित्तस्य, (२) सचित्तेऽचित्तस्य, (३) अचित्ते सचित्तस्य, (४) अचित्तेऽचित्तस्य निक्षेपणम् । १ । [२] सचित्त मिश्रयचतुर्भङ्गी यथा (१) सचित्त सचित्तस्य, (२) सचित्ते मिश्रस्य, (३) मिश्र सचित्तस्य, (४) मिश्र मिश्रस्य निक्षेपणम् । २ । [३] अचित्त - मिश्रयचतुर्भङ्गी यथा (१) अचित्तेऽचित्तस्य, (२) अचित्ते मिश्रस्य, (३) मिश्रेऽचित्तस्य, (४) मिश्र निक्षेपण दोष तीन प्रकारका है - ( १ ) सचित्त, (२) अचित्त, और (३) मिश्र । इन तीनोंको आश्रित करके तीन चौभंगियाँ होती हैं । [१] सचित्त-अचित्तकी चौभंगी ( ९ ) सचित्तपर सचित्तका, (२) सचित्तपर अचित्तका, (३) अचित्त पर सचित्तका, (४) अचित्तपर अचित्तका । १ । [२] सचित्त मिश्रकी चौभंगी (१) सचित्त पर चित्तका, (२) सचित्त पर मिश्रा, (३) मिश्रपर सचित्तका, (४ मिश्रपर मिश्रका निक्षेप करना । २ । [३] अचित्त-मिश्रकी चौभंगी (१) अचित्त पर अचित्तका, (२) अचित्त पर मिश्रका । (३) मिश्रपर निक्षेपायु होष त्रषु प्राश्नो छे (१) सयित्त, (२) सभित, (3) भिश्र. એ ત્રણને આશ્રિત કરવાથી ત્રણ ચૌલગી થાય છે. [१] सचित्त-अभित्तनी योनंगी (१) सत्ति पर सथित्ततु, (२) सचित्तयर अभित्तनुं, (3) अथित्त પર સચિત્તનું (૪) અચિત્તપર અચિત્તનું ૧ા [२] सथित्त-भिश्रनी योलजी - (१) सत्ति पर सवित्तनु, (२) सचित्त पर भिश्रनु, (3) मिश्र पर સચિત્તનું, (૪) મિશ્ર પર મિશ્રનું, નિક્ષેપણુ કરવું ારા [3] अथित्त-भिश्रनी गौलगी - (१) अत्ति पर अत्तिनु, (२) अत्ति पर भिश्रतु, (3) मिश्र पर Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mom my ४१६ श्रीदशवैकालिकसूत्रे मिश्रस्य निक्षेपणमिति । ३ । पुनरपि पृथिव्यादिकायषट्कोपरि पृथिव्यादीनां निक्षेपणेन प्रथमचतुर्भङ्गीस्थितप्रथमभङ्गस्य 'सचिचे सचित्तस्ये' - त्येवंरूपस्य पत्रिंशद्भेदा भवन्ति, तद्यथा(१) पृथिव्यां पृथिव्याः, (२) अपाम्, (३) तेजसः, (४) वायो:, (५) वनस्पतेः, (६) सस्य निक्षेपणमिति षट् (६) । rance यादावपि प्रत्येककायस्य निक्षेपणेन षट्त्रिंशद् भेदा जायन्ते । एवं शेषभङ्गत्रयस्यापि प्रत्येकं पत्रिंशद् भेदा भवन्ति । संकलनया प्रथमचतुर्भङ्गाअचित्तका, (४) मिश्रपर मिश्रका निक्षेप करना । ३ । फिर भी पृथिवी आदि षट्काय पर पृथिवीकायका निक्षेपण करने से प्रथम चतुर्भगी के 'सचित्त पर सचित्तका' इस प्रथम भंगके छत्तीस भंग होते हैं । वे इस प्रकार हैं (१) पृथिवी पर पृथिवीका, (२) अप्का, (३) तेजका, (४) वायुका, (५) वनस्पतिका और (६) त्रसका निक्षेपण करना । इसी प्रकार अकाय आदि पर पृथिवीकाय आदि छह कायोंका निक्षेपण करने से छत्तीस भंग होते हैं, अर्थात् छह काय पर छह कायका निक्षेपण होता है अतः छहसे छहका गुणन करनेसे प्रथम भंगके छत्तीस भेदोंकी संख्या निकलती है। ऐसे 'सचित्त पर सचित्तका' सचित्त पर मिश्रका मिश्र पर सचित्तका, और 'मिश्र पर मिश्रका' इन सब (४) भंगों की छत्तीस छत्तीस संख्या जोड़ देने से (३६+३६+३६+३६)અચિત્તનું, (૪) મિશ્ર પર મિશ્રનું નિક્ષેપણુ કરવું વળી પણ પૃથિવી આદિ ષટ્કાય પર પૃથિવીકાયનું નિક્ષેપણુ કરવાથી પ્રથમ ચભંગીના · સચિત્ત પર સચિત્તનું એ પ્રથમ ભાંગાના છત્રીસ ભાંગા તે આ પ્રમાણે છે— થાય છે. (१) पृथिवी पर पृथिवीलु, (२) अय् (भज)तु (3) तेल्नु (४) वायुनु, (4) वनस्पतिनु, (६) त्रसनुं निक्षेपणु ४२५ એ રીતે અપ્લાય આદિ પર પૃથિવીકાય આદિ છ કાર્યાનું નિશ્ચેષણ કરવાથી છત્રીસ ભાંગા થાય છે, અર્થાત્ છ કાય પર છકાયનું નિક્ષેપણ થાય છે એટલે છને છએ ગુણવાથી પ્રથમ ભગના છત્રીસ ભેદૅની સંખ્યા નીકળે છે. એસ ‘સચિત્ત પર ચિત્તનુ’ ‘સચિત્ત પર મિશ્રનુ' ‘મિશ્ર પર સચિત્તનું અને ‘મિશ્ર પર મિશ્રનું” એ બધા (૪) ભાંગાની છત્રીસ-છત્રીસ સ ખ્યા જોડી દેવાથી Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ.१ गा. ३०-३१-निक्षेपणचतुर्भङ्गन्यः ४१७ श्चतुश्चत्वारिंशदुत्तरमेकशतं भङ्गा भवन्ति । उक्तप्रकारेण शेषचतुर्भङ्गीद्विकस्यापि भङ्गसम्पादने संकलनया सर्वे भेदा द्वात्रिंशदधिकानि चतुःशतानि (४३२)सम्पद्यन्ते। इमे एककायस्योपर्येकस्यैव कायस्य निक्षेपणभेदाः प्रदर्शिताः, किन्तु 'एककाये कायद्वयस्य, कायद्वये चैकस्ये'-त्यादिनिक्षेपणेन चाऽन्येषामपि संभवः, यथा_ 'पृथिव्यां पृथिव्यप्काययो'-रित्यादि, पृथिव्यप्काययोर्वनस्पते'-रित्यादि च स्वयमवसेयमिति विस्तरभयाद्विरम्यते । पूर्वोक्तषु भङ्गसमुदयेषु 'अचित्तेऽचित्तनिक्षेपण'-लक्षणभङ्गस्य कल्प्यत्वम् , शेषा एकसौ चँवालीस (१४४) भंग हो जाते हैं। दूसरी दो चौभंगियोंके भी इतने ही भंग होते हैं, उनको जोड़नेसे चारसौ बत्तीस (४३२) भंग होते हैं। ये चारसौ वत्तीस (४३२) भंग एक काय पर एक कायका निक्षेपण करनेसे होते हैं, किन्तु एक काय पर दो कायका, जैसे पृथिवीकाय पर पृथिवीकायका और अपकायका निक्षेपण करनेसे, तथा दो कायों पर एक कायका, जैसे पूर्वोक्त दो कायों पर वनस्पति आदि किसी एक कायका निक्षेपण करनेसे और भी बहुतेरे भंग होते हैं। संयोगसे बननेवाले इन उत्तर भंगोंको स्वयं समझ लेना चाहिए, विस्तार भयसे यहाँ नहीं बताते । पूर्वोक्त भंगोंमेंसे अचित्त पर अचित्तका निक्षेपण करनेरूप एक भंग कल्पनीय है, अवशेष साक्षात् या पारम्परिक निक्षेपणरूप सब (38+3+38+38) मे से युवाणीस (१४४) मां थाय छे. मी में न्योलीએના પણ એટલાજ ભેદ થાય છે, એને જોડવાથી ચારને બત્રીસ (૪૩૨) ભાગા થાય છે એ ૪૩૨ ભાંગે એક કાય પર એક કાયનું નિક્ષેપણ કરવાથી થાય છે, પરતુ એક કાય પર બે કાયનું, જેમકે – પૃથિવી કાય પર પૃથિવી કાયનું અને અપકાયનું નિક્ષેપણ કરવાથી, તથા બે કાર્યો પર એક કાયનું જેમ પૂર્વોક્ત બે કાર્યો પર વનસ્પતિ આદિ કોઈ એક કાયનું નિક્ષેપણ કરવાથી બીજા પણ ઘણા ભાગા થાય છે. એ સગથી થતા ઉત્તર ભાગા પિતાની મેળે સમજી લેવા, બહુ વિસ્તાર થવાને કારણે અહીં આપ્યા નથી પૂર્વોક્ત ભાંગામાંથી અચિત્ત પર અચિત્તનું નિક્ષેપણ કરવારૂપ એક ભાગે Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ श्रीदशकालिक आनन्तर्यस्वरूपाः पारम्पर्यस्वरूपा वा निखिला अकल्प्या एवेति वोद्धव्यम् । __ सचित्तं सचित्तपृथिव्यादिकं घट्टयित्वा संस्पृश्य संचाल्य वा, संस्पर्शनं सचिचाऽचित्त-मिश्रभेदात्त्रिविधं, तदपि पृथिव्यादिकायषट्केन भिद्यमानमष्टादशविधं, पुनर्दार-देय-भेदाभ्यां द्विविधतया संकलनया षट्त्रिंशद् भेदा जायन्ते, एतेषामपि पुनः-आनन्तर्य-पारम्पर्यभेदाद् द्वासप्ततिभैदा भवन्ति । एवं कायद्वयकायत्रिकादिसंस्पर्शनेनोत्तरोत्तरभूरिभेदाः स्वयभूहनीयाः प्रेक्षावद्भिरिति । ननु पारम्परिकसंघटनेन दीयमानाऽऽहारादिवर्जने पृथ्वीसंघट्टनमनिवार्यमितिभंग अकल्प्य हैं। संस्पर्शन तीन प्रकारका है-(१) सचित्त संस्पर्शन, (२) अचित्त संस्पर्शन, और (३) मिश्र संस्पर्शन। इन तीनोंके पृथिवी आदि षटकायके भेदसे अठारह भेद होते हैं । दाता और देय (वस्तु) के भेदसे छत्तीस भेद होते हैं । और अनन्तर तथा परम्पराके भेदसे वहत्तर (७२) भेद होजाते हैं । इनके सिवाय दो कायका या तीन कायका स्पर्श करनेसे और भी भेद होजाते हैं, वे भेद बुद्धिमानोंको स्वयं विचार लेने चाहिए। प्रश्न-हे गुरुमहाराज ! यदि पारम्परिक संघटनसे दिये हुए आहार आदिका भी त्याग किया जायगा तो साधु कभी आहार नहीं ले सकेंगे क्योंकि पृथ्वीका संघटन अनिवार्य है-आहार आदि पृथिवीपर रहते हैं और सचित्त जल भी पृथ्वी पर रहता है, अतः सचित्त जलका पृथिवीका ક૯૫નીય છે, બાકીના સાક્ષાત્ યા પારંપરિક નિક્ષેપણુરૂપ બધા ભાગા અકલ્પનીય છે સસ્પર્શન ત્રણ પ્રકારનાં છે –(૧) સચિત્ત સંસ્પર્શન, (૨) અચિત્ત સસ્પ ર્શન, અને (૩) મિશ્ર સંસ્પર્શન એ ત્રણેના પૃથિવી આદિ ષકાયના દે કરીને અઢાર ભેદ થાય છે દાતા અને દેય (વસ્તુ)ના ભેદે કરીને છત્રીસ સંદ થાય છે અને પછી તેવી જ પરંપરાના ભેદે કરીને બેર (૭૨) ભેદ થાય છે તે ઉપરાંત બે કાયને યા ત્રણ કાયને સ્પર્શ કરવાથી બીજા પણ ભેદ થાય છે. તે ભેદે બુદ્ધિમાનેએ સ્વયં વિચારી લેવા प्रश्न- २३ मा२।०८ ! २ प२२५२४ संघटनथी माता PARSEना પણ ત્યાગ કરવામાં આવશે તે સાધુ કદાપિ આહાર લઈ શકશે નહિ, કારણ કે પૃથિવીનું સ ઘટન અનિવાર્ય છે–આહારદિ પ્રથિવી પર રહે છે અને સંચિત જળ પણ પૃથિવી પર જ રહે છે. એટલે સચિત્ત જળનું પૃથિવી સાથે સ ઘટન છે Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ३०-३१ - संघट्टनमकारः ४१९ तत्संघट्टनेऽपि वर्जनप्रसक्तौ भिक्षूणां सर्वदाऽऽहारप्रतिषेधप्रसङ्ग इति चेन्न, पृथिव्या अचलतया तत्सञ्चलनाद्यभावेन तत्संघट्टने जीववाधाया असम्भवात्, तत्संघट्टिताऽऽहाराऽऽदानं भिक्षूणामप्रतिषेध्यमिति भावः । उक्तपारम्परिकसंघट्टिताऽऽहाराऽऽदानविषये प्रतिषेधश्चलाऽऽधारविषयः, तत्र प्राणिपीडासंभवात् व्यवहारदोषाच्चेति भावः । एतेषु मध्ये गाथोक्तं सचित्तम्, अन्तर्गर्भितत्वान्मिश्रं च संस्पृश्य सञ्चाल्य वा तथैव = पुनरपि उदकम् = अप्कायं 'सचित्त' - मित्यनुवर्त्तते सम्म = संप्रेर्य इतस्ततः कृत्वेत्यर्थः ||३०|| तथा " अवगाह्य=वर्षाकाले 'गृहाङ्गणप्रतिरुद्धजलान्तः प्रविश्य चालयित्वा = प्रणालिकादिना निस्सार्य च पानभोजनमाहरेत् तदा ददतीमित्यादि पूर्ववत् ॥३१॥ पुरः कर्मदोषमाह - 'पुरेकम्मेण ' इत्यादि । १ 'गृहाङ्गने 'ति तु सम्यक्, तवर्गपञ्चमान्तस्याङ्गनशब्दस्यैवाकरग्रन्थेषु निर्णीतत्वादिति श्री रुचिपत्युपाध्यायाः । संघटा है और पृथिवीका आहारादिके साथ संघटा है, इसलिए आहारादिका तथा सचित्त जलका पारम्परिक संघटा होता ही है । उत्तर - हे शिष्य ! पृथिवी अचल है, उसका संचलन नहीं होता, अत एव ऐसे संघटेसे जीवोंको बाधा नहीं होती, इसलिए पृथिवी से संघटित आहारका ग्रहण करना साधुओंके लिए निषिद्ध नहीं है। पहले पारम्परिक संघटित आहारका जो त्याग बताया गया है उसे चल आधार विषयक ही समझना चाहिये, क्योंकि उस संघट्टनसे प्राणियोंको पीडा होती है तथा व्यवहारदोष भी लगता है ॥ ३० ॥ ३१ ॥ अब पुरः कर्म्मदोष कहते हैं-' पुरेकम्मेण० ' इत्यादि અને પૃથિવીનુ આહારાદિ સાથે સઘટન છે, તેથી કરીને આહારાદિનું તથા સચિત્ત જળનું પારસ્પરિક સુઘટન થતુ જ હાય છે ઉત્તર-હે શિષ્ય ! પૃથિવી અચલ છે, તેનું સચલન થતુ નથી, તેથી એવા સ ઘટનથી જીવાને ખાધા થતી નથી એથી કરીને પૃથિવીથી સ ઘટિત આહારનું ગ્રહણ કરવું એ સાધુએને માટે નિષિદ્ધ નથી પૂર્વે પારસ્પરિક સઘટિત આહારને જે ત્યાગ બતાવવામાં આવ્યેા છે, તેને ચલ-આધાર વિષયક જ સમજવા જોઈએ, કારણ કે એ સ ઘટનથી પ્રાણીઓને પીડા થાય છે તથા વ્યવહારાષ यागु लागे छे ( 3०-31 ) हवे पुर. भोष छे - पुरेकम्मेण ० ४त्याहि Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० श्रीदशवैकालिकसूत्रे ५ मूलम् - पुरेकम्मेण हत्थे, दबीए भायणेण वा । ७ ૧૭ ૯ ૧૧ e दिंतियं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ||३२|| छाया -- पुरः कर्मणा हस्तेन, दय भाजनेन वा । ददतीं प्रत्याचक्षीत, तादृशं मे न कल्पते ॥ ३२ ॥ पुरः कर्म दोष कहते हैं— सान्वयार्थः - पुरेकम्मेण= साधुके आने के पहले या सामने साधुके लिए सचित्त जलसे किया हुआ हस्तादिधावन पुरःकर्म कहलाता है, उस पुरःकर्मवाले हत्थे = हाथ से दब्बीए= उस प्रकारकी कडछी अथवा चमचासे वा = अथवा भायणे = दूसरे वरतन से (आहारादि) दितियं = देती हुईको पडियाइक्खे = कहे कि तारिस = इस प्रकारका आहार मे=मुझे न कप्पड़ नहीं कल्पता है ||३२|| टीका - पुरः कर्मणा = पुरः = पूर्वम् अग्रतो वा कर्म - क्रिया पुरःकर्म, तेन पुर:कर्मणा, लक्षणया पुरः कर्मयुक्तेनेत्यर्थः, अस्य च हस्तादिभिस्त्रिभिः सम्बन्धः, हस्तेन= करेण, दर्या = खजाकया, भाजनेन=अमत्रेण वा ददतीं प्रत्याचक्षीतेत्यादि पूर्ववत् । नवे गृहस्थानां पचन-पाचनादिक्रियामन्तरेणाऽऽहाराद्यसंभव इति साध्यागमनात्माक पचनादिक्रियाऽवश्यं कर्त्तव्या, तथा सति पुरः कर्मदोपदुपितत्वेन साधू के आने से पहले या सामने की जानेवाली क्रिया को पुरःकर्म कहते हैं। पुरःकर्मयुक्त हाथसे, कुडछी (चमचा) से अथवा वर्तनसे देनेवाली प्रति साधु कहे कि ऐसा आहार मुझे नहीं कल्पता है । 1 प्रश्न- हे गुरुमहाराज ! गृहस्थ जबतक पचन- पाचन आदि क्रिया न करे तब तक आहार वन नहीं सकता है, अत एव मुनिके आगमन के पहले पचन - पाचन आदि क्रिया अवश्य करनी पडती है । ऐसा करने से वह आहार पुरः कर्म से दूषित होगा तो भिक्षु कभी भिक्षा ग्रहण नहीं સાધુ આવતાની પહેલા યા સાધુની સામે કરવામા આવતી ક્રિયાને પુરક કહે છે, પુર ક યુક્ત કડછીથી કે વાસથી દેનારીની પ્રત્યે સાધુ કહે કે એવે આહાર મને કલ્પતે નથી પ્રશ્ન-હે ગુરૂ મહારાજ ! ગૃહસ્થ ત્યાંસુધી પચન-પાચન આદિ ક્રિયા કતૅ નથી, ત્યાસુધી આહાર અની શકતેા નથી, એટલે મુનિના આગમન પહેલાં પચનપાચનાદિ ક્રિયા જરૂર કરવી પડે છે એમ કરવાથી એ આહાર પુરાકથી કૃષિત થાય તેના ભિક્ષુ કદાપિ ભિક્ષા ગ્રહણ કરી શકે નહિ. સાધુની સામે કરવામાં Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२१ अध्ययन ५ उ. १ गा. ३२-पुर:कर्मस्वरूपम् साधूनामाहारग्रहणाप्रसक्तिः, साधुसमक्षं क्रियमाणानां क्रियाणां पुरःकर्मत्वे गृहस्थकृताऽभ्युत्थानादिक्रियाणामपि पुरस्कर्मत्वापत्तौ तद्गृहस्थप्रदचभिक्षाया अपि पुर:कर्मदोषयुक्तत्वेन ग्रहणाभावप्रसङ्गः ? इति चेत् , अत्रोच्यते___ व्युत्पत्त्याऽभ्युत्थानगमनपचनपाचनादीनामपि पुरःकर्मत्वसंभवेऽपि समयपरिभाषाबलात् केवलं भिक्षादानतः प्राक् साधुमुद्दिश्य सचित्तोदकेन हस्तभाजनादिप्रक्षालनस्यैव पुरःकर्मत्वेन सिद्धान्तितत्वम् , न तु पचन-पाचनाभ्युत्थानादेरपीति। ___ अत्र दातृ-द्रव्य-गृहाण्याश्रित्याष्टौ भङ्गा भवन्ति यथाकर सकते, साधुके सामने की जानेवाली क्रियाको भी पुरस्कर्म माना जाय तो गृहस्थकी अभ्युत्थान-वन्दन-आदि क्रियाएँ भी पुरस्कर्म कहलायेंगी, इसलिए उसके द्वारा दिया हुआ पुरःकर्मसे दूषित आहार साधु कैसे ग्रहण करेंगे? ___ उत्तर-हे शिष्य ! व्युत्पत्तिसे पचन-पाचन आदि क्रियाएँ भले ही पुरःकर्म कहलावेंकिन्तु समय-(शास्त्र)-की परिभाषासे भिक्षादानसे पहले साधुको उद्देश्य करके सचित्त जलसे हाथ या वर्तन आदिका प्रक्षालन करना ही पुरःकर्म कहलाता है, पचन-पाचन आदि क्रियाओंको अथवा खड़े होने आदिको पुरस्कर्म नहीं कहते । इस पुरःकर्मके, दाता, द्रव्य और गृहकी विवक्षासे आठ भंग होते हैं, वे यहाँ बताते हैंઆવનારી ક્રિયાને પણ જે પુરકમ માનવામા આવે તે ગૃહસ્થની અલ્પત્થાનવંદન-આદિ ક્રિયાઓ પણ પુરકમ કહેવાશે, તે પછી તેને હાથે આપવામાં આવેલે પુરાકથી દૂષિત આહાર સાધુ કેવી રીતે ગ્રહણ કરશે? ઉત્તર–હે શિષ્ય! વ્યુત્પત્તિથી પચન-પાચન-આદિ ક્રિયાઓ ભલે પુરકર્મ કહેવાય, પરંતુ સમય-( શાસ્ત્ર)-ની પરિભાષા પ્રમાણે ભિક્ષાદાનની પહેલાં સાધુને ઉદ્દેશ્ય કરીને સચિત્ત જલથી હાથ યા વાસણ આદિ દેવા એ જ પુરકમ કહેવાય છે પચન-પાચન-આદિ ક્રિયાઓ અથવા ઊભા થવા આદિની ક્રિયા એ પુરકર્મ કહેવાતા નથી આ પુર.કર્મના, દાતા, દ્રવ્ય અને ગૃહની વિવક્ષાએ કરીને આઠ ભાગ થાય છે, તે અહીં બતાવે છે– Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे ४२२ (१) स दाता (पुरः कर्मकर्त्ता ), अन्यद् द्रव्यम्, अन्यद्गृहम् । (२) स दाता, अन्यद्रव्यम् तद्गृहम् (यत्र पुरःकर्म कृतम् ) । (३) स दाता, तद्द्रव्यम् (यद्रव्यमुद्दिश्य पुरः कर्म कृतम् ), अन्यद्गृहम् । (४) स दाता, तद्रव्यं, तद्गृहम् । (५) अन्यो दाता, तद्रव्यं, तद्गृहम् । (६) अन्यो दाता, तद्द्रव्यम्, अन्यद्गृहम् । (७) अन्यो दाता, अन्यद्रव्यं, तद्गृहम् । (८) अन्यो दाता, अन्यद्द्रव्यम्, अन्यद्गृहम् । एष्वष्टसु भङ्गेषु प्रथमाऽष्टमौ भङ्गौ साधूनां कल्प्यौ, तदितरे १ - वही (पुरः कर्म करनेवाला) दाता, अन्य द्रव्य, २ - वही दाता, ३- वही दाता, ४- वही दाता, ५-- अन्य दाता, ६--- अन्य दाता, ७- अन्य दाता, ૧ ૨ 3 अन्य गृह । वही गृह । ८-- अन्य दाता, अन्य गृह । इन आठ भंगोमेंसे पहला भंग और आठवाँ भंग साधुके लिये कल्प्य हैं और अन्य सब अकल्प्य है । ४ ૫ ७ ८ अन्य द्रव्य, वही द्रव्य, वही द्रव्य, मेन (पुर:उर्भ ४२नार ) हाता, मेन हाता मेन हाता, वही द्रव्य, वही द्रव्य, अन्य द्रव्य, अन्य द्रव्य, मेन छाता, अन्य छाता, अन्य हाता, અન્ય દાતા, अन्य हाता भङ्गा अकल्प्याः । अन्य गृह । वही गृह । अन्य गृह । वही गृह । वही गृह | અન્ય દ્રવ્ય, અન્ય દ્રવ્ય, એજ દ્રવ્ય, शोभ द्रव्य, એજ દ્રવ્ય, मेन द्रव्य, અન્ય દ્રવ્ય, અન્ય દ્રવ્ય, આ આઠે ભાંગામાંથી પહેલેા ભાગે અને આઠમે ભાગે સાધુને માટે ૫નીય છે અને બીજા બધા અપનીય છે. અન્ય ગૃહ એજ ગૃહ અન્ય ગૃહ એજ ગૃહ शेन शृड અન્ય ગૃહ એજ ગૃહે અન્ય ગૃહે Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ३२ - पुरः कर्मदूषिताहारनिषेधः ४२३ साधूनुदिश्य करदर्व्यादिप्रक्षालने पुरः कर्मनिमित्तको दोषो भवत्येवेति न तद्दिने तत्राशनादिकं ग्राह्यम् । ननु कस्मिद्भिवने येन पुरः कर्म्माचरितं तदितरस्य करतो भिक्षोपादाने कथं दोषः ? इति चेदुच्यते यथा येन विषाक्तमन्नं सम्पाद्यते तदितरस्य हस्तादप्युपादीयमानं तदेवान्नं महतेऽनर्थाय कल्पते, तथा पुरः कर्मदूषितमपि । अत्रायं विशेष: - यत्र गृहे पुरःकर्म समाचरितं तत्र तस्मिन् दिवसे सर्व द्रव्यमकल्पयमेव ||३२|| यह सदा स्मरण रखना चाहिये कि यदि साधुके निमित्त हाथ या कुड़छी आदिको धोया हो तो पुरःकर्म दोष लगता ही है, इसलिये उस घरमें साधु, भिक्षा नहीं लेवे । प्रश्न- हे गुरुमहाराज ! किसी मकानमें एकने पुरः कर्म किया तो उससे आहार आदि न लेकर, दूसरे वर्त्तन या दूसरे व्यक्ति के हाथसे लिया जाय तो क्यों दोष लगता है ? उत्तर - हे शिष्य ! जैसे- किसीने विष मिश्रित आहार बनाया हो तो बनाने वालेसे न लेकर दूसरेके हाथसे लिया जाय तो भी वह आहार महान् अनर्थकारी होता है, उसी प्रकार, पुरः कर्म-दुषित आहार आदि भी अनर्थकारक होता है। इतनी फिर विशेषता समझनी चाहिये कि, जिस घरमें पुरः कर्म किया गया हो उस घरमें उस दिन सब द्रव्य अकल्प्य होते हैं ॥ ३२ ॥ એ વાત સદા યાદ રાખવી કે જો સાધુને નિમિત્તે હાથ યા કડછી આદિને ધાવા હાય તે પુર:કર્મ દોષ લાગે છે જ, તેથી એ દિવસે એ ઘરમાં સાધુ ભિક્ષા લે નહિ પ્રશ્ન-હે ગુરૂ મહારાજ ! કોઇ મકાનમા એકે પુર:કમ કર્યુ. હાય તેા ત્યા તેનાથી આહારાદિ ન લેતા, બીજા વાસણથી યા ખીજી વ્યકિતના હાથથી લેવામાં આવે તા કેમ દોષ લાગે ? ઉત્તર–ડે શિષ્ય । જેવી રીતે કાઇએ વિષમિશ્રિત આહાર બનાવ્યા હૈાય તે અનાવનારના હાથથી ન લેતા મીજાના હાથથી લેવામા આવે તેાપણુ એ આહાર મહાન્ અનર્થકારી થાય છે, તેમ પુર.ક દૂષિત આહારાદિ પણું અને કારક થાય છે એટલી વિશેષતા સમજવી જોઇએ કે, જે ઘરમા પુર.કમ કરવામાં આવ્યુ હાય તે ઘરમાં એ દિવસે ૫ધાં દ્રવ્યો અકલ્પનીય બને છે (૩૨) Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ - श्रीदशवैकालिकसूत्रे - wam - मूलम् एवं उदउल्ले ससिणि ससरक्खे मटिया ऊसे। हरियाले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे ॥३३॥ गेरुय-वन्निय-सेडिय,-सोरडिय-पिट्ट-कुक्कुस कए य। १८ १३ १४ ૧૫ ૧૬ ૧૭ ૧૯ . उकिट्ठ-मसंसट्टे, संसट्टे चेव बोद्धव्वे ॥ ३४ ॥ छाया-एवम् उदकादः सस्निग्धः, सरजस्को मृत्तिका ऊपः । हरितालं हिङ्गुलकं, मनःशिलाऽञ्जनं लवणम् ॥३३॥ गैरिक-वर्णिक -सेटिका,-सौराष्ट्रिका-पिष्ट-कुकुसाः कृतश्च । उत्कृष्टमसंसृष्टा, संसृष्ट एव वोद्धव्यः ॥३४॥ सान्वयार्थः-एवं-इसी प्रकार उद्उल्ले-टपकते हुए जलसहित ससणि?गीली रेखाओंसे सहित या ससरक्खे सचित्त रजसे गुण्ठित सहित हाथ आदि हो, (तथा) मट्टिया-सचित्त मिट्टी ऊसे-साजीखार हरियाले हरताल हिंगुलएहिंगलू मणोसिला-मैनसिल अंजणे सौवीराजन लोणे-सचित्त नमक ।। गेरुयगेरु वन्निय-पीली मिट्टी सेडिय-श्वेत मिट्टी-खड़ी सोरहिय-सोरठी मिट्टी-गोपीचन्दन पिट्ठ-तत्कालका पीसा हुआ आटा (तथा) कुकुस-तत्कालके खांडे. हुए धान्यके तुप-भूसे-से भरे हुए य और उकिट-चाकूसे बनाये हुए कोले, तूंचे, ककड़ी आदिके कोमल कोमल टुकड़े, इन पूर्वोक्त किसी वस्तुसे भी असंस?खरडे-लिपे-हुए हाथ आदिको साधुके लिए किसी प्रकारसे अलिप्त बनाया हो, धोकर या पूंछकर साफ किया हो, ऐसे हाथको संसद्धे-चेव कए लिप्तही योद्धव्वेजान लेवे, अर्थात् इस प्रकारके असंपृष्ट हाथ आदिसे अथवा इनसे संसृष्ट हाथ आदि से साधु आहार-पानी नहीं लेवे, यह प्रकरणगत सम्बन्ध है ॥३३-३४॥ . टीका-'एवम् उदउल्ले०' इत्यादि । एवम् इत्थमेव पुरःकर्मवदित्यर्थः । उदका लत्सचित्तजलविन्दुकः, सस्निग्धः ईपदाः आर्दीभूतहस्तरेखादिकः एवं उदउल्ले' इत्यादि, 'गेरुथ' इत्यादि च । इसी प्रकार, गिरते हुए सचित्त जलकी बूंदोंसे युक्त, थोडा, गीला एवं उदउल्ले त्याहि गेरुय त्या એ પ્રમાણે, પડતા સચિત્ત જળનાં બિંદુઓથી યુકત, થોડા લીલા (હાથની Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ३३-३५-पश्चात्कमपिताहारनिषेधः ४२५ विन्दुनिपातरहित इति यावत् , सरजस्का सचित्तरजोऽवगुण्ठितः, हस्तादिवोद्धव्यः, तथा मृत्तिका-साधारणसचित्तमृत्तिका, ऊप:-क्षारमृत्तिका, हरितालं स्वनामप्रसिद्धपीतवर्णधातुविशेषः, हिङ्गलकं स्वनामख्यातपार्थिवरागद्रव्यविशेषः, मन:शिला स्वनामख्यातरक्तवर्णधातुविशेषः 'मेनसील' इतिप्रसिद्धः अञ्जनं सौवीराजनम् , लवणं-सचित्तसामुद्रिकलवणम् , गैरिक-वर्णिक-सेटिका-सौराष्ट्रिका-पिष्टकुकुसा इति, मूले आपत्वाल्लुप्तविभक्तिकं पदम् , तत्र गैरिकः स्वनामप्रसिद्धो धातुः, वर्णिका-पीतवर्णमृत्तिका, सेटिका-श्वेतमृत्तिका 'खडी' इतिभाषापसिद्धा, सौराष्टिका-गोपीचन्दनं पिष्टं गोधूमादिचूर्णम् , कुक्कुसः तत्कालकण्डितधान्यतुपः, च-पुनः उत्कृष्ट-कूष्माण्डा-लावू-त्रपुप-तरम्बुजादीनां शस्त्रकृतं श्लक्ष्णखण्डम् , एतैर्मृत्तिकादिभिरसंसृष्टः साधवे भिक्षां ददामीतिकृत्वा संसर्गसम्मार्जनेन तदलिप्तः, संसृष्टः तत्संसर्गसम्मार्जनेनापि तल्लिप्त एव कृतः विहितो हस्तादिर्वोध्यः। पुरःकर्मयुक्तेन हस्तादिनेव उदकार्दादिहस्तादिना, तथा मृत्तिकादिसंमृष्टहस्तादिकं केनापि विधिना साधुनिमित्तमसंसृष्टीकृत्य सम्माज्य, एवं मृत्तिकादिसंसृष्टहस्तादिना च ददती प्रत्याचक्षीत-तादृशं मे न कल्पत इति ॥३३॥३४॥ (हाथकी रेखा गीली हो), सचित्त रजसे सहित तथा साधारण सचित्त मिट्टी, खारी मिट्टी, हरताल, हिंगुल, मैनसील, अंजन, सचित्त नमक, गेरू, पीली मिट्टी, खडिया मिट्टी, गोपीचन्दन, ताजा पीसा हुआ गेहूं आदिका आटा, तत्काल खांडा हुआ धान्यका तुष (वुस्सा), कुम्भड़ा (कद्दू), तुम्बा (ककड़ी), तथा तरबूजके छोटे२ खंड, इन सबसे हाथ लिप्त हो अथवा किसी प्रकारसे साधुके लिये उसे (सचित्तसे लिप्त हाथको ) अलिप्त किया हो और उस हाथसे भिक्षा देवे तो साधु कहें कि 'ऐसा आहार हमें नहीं कल्पता है' ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ રેખાઓ લીલી હોય,) સચિત્ત રજથી સહિત, તથા સાધારણ સચિત્ત માટી, भारी माटी, २तास, डिगी, भसीस, सुरभी, सन्यित्त भी, ३, पीजी માટી, ખડીની માટી, ગોપીચ દન, તાજા દળેલા ઘઉ આદિને આટે, તાજા ખાડેલા ધાન્યના તુષ ધૂ લુ), કેહલુ, દૂધી તથા તડબૂચના કકડા, એ બધાથી હાથ લિસ હોય, અથવા કોઈ પ્રકારે સાધુને માટે તેને (સચિત્તથી ખરડાયેલા હાથને) અલિપ્ત કર્યા હોય અને એ હાથથી ભિક્ષા આપે તે સાધુ કહે કે 'वो मा२ भने ४६५तो नथी.' (33-3४) Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ ४ मूलम् - असंसट्टे श्रीदशवैकालिकसूत्रे ૫ ७ ८ हत्थेण, दवीए भायणेण वा । ૧૧ હું ૧૦ ૨ 3 दिजमाणं न इच्छिज्जा, पच्छाकम्मं जहिं भवे ॥३५॥ छाया - असंसृष्टेन हस्तेन, दर्ग्या भाजनेन वा । दीयमानं नेच्छेत् पश्चात्कर्म यत्र भवेत् ||३५|| , सान्वयार्थ :- जहिं-जहां पच्छाकम्मं पश्चात्कर्म साधुको आहार आदि देनेके वाद सचित्त जलसे हाथ आदिका धोना भवे होनेवाला हो उस प्रकारके असंसद्वेण= व्यञ्जन शाक कड़ी आदि से अलिप्त याने साफ 'ऐसे' हत्थेण = हाथ दवीए = कडछी वा = अथवा भायणेण =वरतनसे दिज्जमाणं-दिये जानेवाले आहार आदिकी साधु न इच्छिज्जा = इच्छा न करे, अर्थात् उस आहारादिको साधु न लेवे ॥ ३५ ॥ टीका - पश्चात्कर्म - दोषमाह - 'असंसद्वेण०' इत्यादि । यत्र = हस्तादौ पश्चात् = दानानन्तरं कर्म भवेत् = सम्भवेत् तादृशेन असंसृष्टेन = व्यञ्जनादिनाऽलिप्तेन हस्तेन दर्या भाजनेन वा 'असंसृष्टेने ' - त्येतत्प्रत्येकं सम्बध्यते, दीयमानमाहारादिकं नेच्छेत् = नाभिलषेत् मनसाऽपीत्यर्थात् । यत्र स्वार्थी व्यञ्जनादिना हस्तादिकं नोपलिप्तं किन्तु भिक्षुमुद्दिश्य भक्तादिदानार्थं हस्तालुपलेपो जायते, तत्र दानानन्तरं अब पश्चात्कर्मदोष बताते हैं-' असंसद्वेण ' इत्यादि । भिक्षा देने के अनन्तर गृहस्थको साधुके निमित्तसे चित्त जल आदिके द्वारा हाथ आदि प्रक्षालन करने की संभावना हो तो साधु, ऐसे व्यञ्जन आदिसे अलिप्त हाथ, कुछी अथवा वर्त्तनसे दिये जानेवाले आहारकी अभिलाषा न करे । गृहस्थके हाथ अपनेलिये व्यञ्जन आदिसे लिप्त न हों तो उन हाथों से साधुको भिक्षा देवे, तदनन्तर सचित्त जलसे हाथका धोना सम्भव है हुवे पश्चात् भोष जताये छे-असंसद्रेण धत्याहि. ભિક્ષા આપ્યા પછી સાધુને નિમિત્તે સચિત્ત જળ આદિ દ્વારા હાથ આદિ ધેાઇ નાખવાની ગૃહસ્થને માટે સભાવના હાય, તે સાધુ એવા વ્યજન આદિથી અલિપ્ત હાથ, કડછી અથવા વાસણથી આપવામા આવનારા આહારની અભિલાષા ન કરે ગૃહસ્થના હાથ પેાતાને માટે વ્યંજનાદિથી લિપ્ત ન હેાય તા એ હાથથી સાધુને ભિક્ષા આપે, પછી સચિત્ત જળથી હાથ ધેાવાને સભવ છે અને એ Page #479 --------------------------------------------------------------------------  Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ श्रीदशवैकालिकसूत्रे ૨ * 3 ૫ ૧ मूलम्-दुण्हं तु भुंजमाणाणं, एगो तत्थ निमंतए । ७ ८ ૧૧ ૧૦ ર दिजमाणं न इच्छिज्जा, छंद से पडिलेहए ॥३७॥ 1 छाया - द्वयोस्तु भुञ्जानयो:, एकस्तत्र निमन्त्रयेत् । दीयमानं नेच्छेत् छन्दं तस्य प्रतिलेखयेत् ॥ ३७॥ सान्वयार्थः- तत्थ = वहां भुंजमाणाणं भोजन करते हुए दुण्डं दोनों में से तु= यदि एगो = एक आदमी निमंत= निमन्त्रित करे - आहारादि देना चाहे तो दिज्जमाणं = वह दियाजानेवाला आहारादि (साधु) न इच्छिज्जा =न चाहे-न लेवे; (किन्तु ) से उस नहीं निमन्त्रण करनेवालेके छंद - अभिप्रायको पडिलेहए= देखे ||३७|| टीका - ' दुहं तु' इत्यादि । तत्र = तयोः = एकवस्तुस्वामित्वेन प्रसिद्धयोः, द्वयोः भुञ्जानयो: = (अत्र सप्तम्यर्थे पष्ठी भुजधातुश्च पालनाभ्यवहारो भयार्थकस्ततश्च) पालयतोः, भोक्तुमुद्यतयोश्च मध्ये (पालनार्थकत्वे तु परस्मैपदं स्वयमूहनीयम् ) ( यदि ) एक: = अन्यतरः निमन्त्रयेत् - दातुमुत्रतेत, तदा दीयमानम् ( आहारादि ) भिक्षुः नेच्छेत्, किन्तु तस्य = दानोद्यतेतरस्य छन्दं = अभिप्रायं भ्रू-नेत्रविकारादिरूपचिद्वैः प्रतिलेखयेत्=प्रेक्षेत- 'दानमस्येष्टं न वे ' -ति निश्चिनुयादित्यर्थः ||३७|| ततः किं कुर्यादित्याह - ' दुण्हं तु ' इत्यादि । " दुहं तु ० ' इत्यादि । यदि एक वस्तुके दो स्वामी हों तथा दो गृहस्थ भोजन करनेके लिये उद्यत हुए हों, और उन दोनोंमेंसे एक व्यक्ति आहार देनेके लिये उद्यत हो तो ऐसे आहारकी इच्छा भिक्षु न करे, किन्तु दूसरेके भौंह नेत्र आदि विकारसे अभिप्रायका अनुभव करे कि वहराने (देने) में इसकी सम्मति है या नहीं ? ॥ ३७ ॥ इसके पश्चात् क्या करे ? सो कहते हैं- 'दुहं तु०' इत्यादि । તુ તુ॰ ઇત્યાદિ. જો એક વસ્તુના બે સ્વામી હાય તથા મે ગૃહસ્થા ભેજન કરતા હાય અને એ એમાથી એક આહાર આપવા માટે ઉદ્યત હૈાય તે એવા આહારની ઇચ્છા ભિક્ષુ ન કરે પરંતુ ખીજાના ભ્રમર, નેત્ર, આદિના વિકારથી અભિપ્રાયના અનુભવ કરે કે વહેારાવવામા એની સંમતિ છે કે નહિ ? (૩૭) मे पछी शु रे ? ते हे छे-दुण्डं तु० ४त्याहि Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ३८-३९ - आहारग्रहणविवेकः २ ४ 3 ૫ ૧ मूलम्-दुण्हं तु भुंजमाणाणं, दोवि तत्थ निमंतर | ७ १२ ૧૧ ८ ટ્ ૧૦ दिज्जमाणं पडिच्छिना, जं तत्थेसणियं भवे ॥३८॥ छाया - द्वयोस्तु भुञ्जानयो, द्वावपि तत्र निमन्त्रयेताम् | -- ४२९ दीयमानं प्रतीच्छे, धत्तत्रैषणीयं भवेत् ||३८|| सान्वयार्थ :- अगर - भुंजमाणाणं भोजन या खाद्य पदार्थोंके रक्षण करते हुए दुहं = दोर्मे से तु=यदि तत्थ = वहां दोवि= दोनों ही निमंतए - निमन्त्रण करे - आहारादि धामे तो तत्थ = उस आहारादिमें से जं-जो एसणियं = एषणीय निर्दोष हो वह दिज्ज माणं दिया जानेवाला आहारादि पडिच्छिज्जा = लेवे ||३८|| टीका- यद्युभावपि निमन्त्रयेतां तदा तत्र यदेषणीयं तद् गृह्णीयादित्यर्थः ॥ ३८ ॥ ૧ २ 3 ४ मूलम् - गुहिणीए उवण्णत्थं, विविहं पाणभोयणं । ૫ ૐ ७ ८ भुंजमाणं विवज्जिज्जा, भुत्तसेसं पडिच्छए ॥ ३९॥ छाया - गुर्विण्यै उपन्यस्तं विविधं पान - भोजनम् । भुज्यमानं विवर्जयेद्, भुक्तशेषं प्रतीच्छेत् ||३९|| सान्वयार्थः- गुब्विणीए गर्भवती के लिए उवण्णत्थं बनाकर रखा हुआ विवि = नाना प्रकारका पाणभोयणं = खान-पान (यदि वह ) भुंजमाणं = खा रही हो तो ( उस आहारादिको साधु) विवज्जिज्जा = बरजे न लेवे, (किन्तु) भुत्त से सं= गर्भवती के भोजन करलेनेके बाद जो शेष रहा हो तो उसे पच्छिए = लेवे ||३९ ॥ टीका- 'गुच्चिणीए०' इत्यादि । गुर्विण्यै = गर्भवत्यै, उपन्यस्तं=गर्भपोषणार्थ= तदीयरुच्यनुकूलतया सम्पादितं स्थापितं वा विविधं नैकमकारं पान - भोजनं= यदि वे दोनों आहार देनेको उद्यत हों और वह आहार एषणीय हो, तो ग्रहण कर लेवे ॥ ३८ ॥ 'गुब्विणी० ' इत्यादि । गर्भवती स्त्रीकी इच्छा के अनुसार अर्थात् उसके लिये बनाये हुए तथा गर्भको पुष्ट करनेवाले अनेक प्रकारके पान જો આહાર આપવામા એ બેઉ ઉદ્યત હાય અને એ આહાર એષણીય હાય તા સાધુ તે ગ્રહણ કરે (૩૮) गुब्विणी० त्याहि गर्भवती खीनी रछाने अनुसरीने अर्थात् मेने માટે મનાવેલા તથા ગર્ભને પુષ્ટ કરનારા અનેક પ્રકારના પાન અને લેાજન Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० श्रीदर्शने कालिकसूत्रे पानं= पेयं प्रयाणकादिकं भोजनं भोज्यं मोदकादिकं (तया) भुज्यमानम् = उपभुज्यमानं च विवर्जयेत् न गृह्णीयात् यतस्तदर्थोपकल्पिताऽऽहारादिग्रहणे यथारुच्याहाराद्यभावात्तदिच्छाभङ्गस्ततश्च गर्भपीडा - तत्पातादिसम्भवः । ननु तर्हि किं विवर्जयेदित्याह - 'भुक्ते' ति-भुक्तशेषं = भुक्तादवशिष्टं प्रतीच्छेत्= सर्वथा उपाददीत ||३९|| ૧ ૬ ४ 3 मूलम् - सिया य समणडाए, गुहिणी कालमासिणी । ર ८ ७ ८ ર ૧૦ ૧. उहिया वा निसीएज्जा, निसन्ना वा पुणुट्टए ॥ ४०॥ १३ ૧૮ ૧૪ ૧૫ ૧૬ १७ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं । ૧૯ २० २३ २२ २४ ૨૧ दितियं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥४१॥ छाया --- स्याच्च श्रमणार्थ, गुर्विणी कालमासिनी । उत्थिता वा निपीदेत्, निषण्णा वा पुनरुत्तिष्ठेत् ॥४०॥ तद्भवेद्भक्त पानं तु संयतानामकल्पिक (त) म् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥४१॥ सान्वयार्थ : - =और कालमासिणी = नजदीक प्रसवकालवाली गुब्विणी= गर्भवती स्त्री सिया= यदि कदाचित् उडिया वा पहले से खड़ी हो ( किन्तु ) समrary = साधुके लिए अर्थात् साधुको आहारादि देनेके लिए निसीएज्जा = बैठे वा=अथवा निसन्ना=पहले से बैठी हुई (साधुके लिए) पुण= फिर उट्टए ऊठे, और भोजन ( मोदक आदि ) का और वह जिसका उपभोग कर रही हो उस आहारका (साधु) त्याग करे - ग्रहण न करे। क्योंकि उसके लिये बनाये हुए भोजनको ग्रहण करनेसे उसकी इच्छाका भंग होकर गर्भको पीडा पहुँचेगी, और गर्भपात तक होनेका सम्भव हो जायगा । तो क्या वैसा आहार लेवे ही नहीं ? सो कहते हैं - गर्भवती के भोजन कर लेने बाद जो आहार अवशेष रहे उसे ग्रहण करने में दोष नहीं है ||३९|| (મેદક આદિ)ના અને તે જેને ઉપભેગ કરી રહી હૈાય તે આહારના સાધુ ત્યાગ કરે—ગ્રહ” ન કરે, કારણ કે એને માટે બનાવવામાં આવેલા ભેજનને ગ્રહણ કરવાથી તેને ચને અનુસાર ભાજન નહિ મળે, તેથી એની ઇચ્છાને ભગ થશે અને ગર્ભને પીડા પહોચશે, અને ગર્ભપાત પણ થઇ જવાને સાવ રહેશે તા શું એવા આહાર લેવેજ નહિ ? તે માટે કહે છે કે-ગર્ભવતી ભાજન કરી રહે ત્યારપછી જે આહાર અવશેષ રહે તેને ગ્રહણુ કરવામા ઢેષ નથી (૩૯) Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ४०-४१आहारग्रहणविवेकः तं तु-तो वह भत्तपाणं आहार-पानी संजयाण साधुओंके लिए अकप्पियं= अकल्पनीय भवे होता है, (अतः) दितियं देनेवालीसे (साधु) पडियाइक्खे कहे कि तारिसं-इस प्रकारका आहारादि मे-मुझे न कप्पइ-नहीं कल्पता है।४०॥४१॥ टीका-सिया य०' 'तं भवे' इत्यादि । च-पुनः उत्थिता दण्डवत्समवस्थिता, कालमासिनी कालमासशब्देनात्र प्रसवकालमासो गृह्यते, स च सप्तमासादारभ्य सार्द्धसप्तरात्राधिकं नवमासं यावत् , तद्वती-प्राप्तमसवयोग्यसमयेत्यर्थः, गुर्विणी गर्भवती, स्यात्-कदाचित् , श्रमणार्थ-साधुनिमित्तं-साथवे दातुमित्यर्थः, निपीदेवउपविशेत् , वा अथवा, निषण्णा-उपविष्टा पुनरुत्तिष्ठेत् , तदा तत्-तया दीयमानं भक्त-पानं तु संयतानां संयमवताम् अकल्पिक(त)म् अग्राह्यम् , अतो ददती प्रत्याचक्षीतेत्यादि पूर्ववत् । 'सर्व वाक्यं सावधारणं भवती-तिन्यायेन उन्थिता यदि दातुमुपविशेदेव, 'सिया य०' इत्यादि 'तं भवे०' इत्यादि च । प्रसव-काल-मासवाली अर्थात् सातवें महीनेसे आरम्भ करके साढ़े सात रात सहित नववें महीने तक, अर्थात् सातवें महीनेके बाद प्रसव होनेतकके समयवाली स्त्री, यदि खड़ी हुई हो और साधुको भिक्षा देनेके लिये बैठे, अथवा बैठी हुई हो किन्तु भिक्षा देने के लिये उठे तो उसके द्वारा दिया जानेवाला आहार, संयमियोंके लिये कल्प्य नहीं है, अतः देनेवाली (स्त्री) से कहे कि 'ऐसा आहार हमें कल्पता नहीं है।' सब वाक्य, 'सावधारण अर्थात् निश्चय करानेवाले होते हैं। इस न्यायके बलसे यहाँ पर यह तात्पर्य निकलता है कि यदि देनेवाली बैठी हो और खड़ी होकरके ही आहार देवे, या खडी हो किन्तु बैठ करके ही सिया य० त्या तं भवे. त्याहि प्रसव-भासवाणी अर्थात् सातमा મહીનાથી આર ભીને સાડા સાત રાત સહિત નવમા મહીના સુધી, એટલે કે સાતમા મહિના પછી પ્રસવ થાય ત્યા સુધીના સમયવાળી સ્ત્રી જે ઊભી હોય અને સાધુને ભિક્ષા આપવાને માટે બેસે, અથવા બેઠી હોય પરંતુ ભિક્ષા આપવાને માટે ઉઠે તે તેણે આપેલે આહાર સંયમીઓને માટે કલ્પનીય નથી, દેનારી સ્ત્રીને કહેવું કે “એ આહાર મને કલ્પતે નથી” બધાં વાળે “સાધારણ અર્થાત નિશ્ચય કરાવવાવાળાં હેય છે એ ન્યાયાનુસાર અહીં એ તાત્પર્ય નીકળે છે કે જે આપનારી બેઠી હોય અને ઊભી થઈને જ આહાર આપે યા ઊભી હેય પરન્ત બેસીને જ આહાર આપે તે એ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे उपविष्टा वोत्तिष्ठेदेव तदा दीयमानमाहारादिकमकल्पिकं (तं) स्यादिति । तत्तात्पर्याऽवधारणेनेदमायाति-उत्थिता तादृशी गर्भवती यद्युत्थितैव, उपविष्टा व पविष्टेव दद्यात्तदा साधूनां नाऽकल्पिकं (तं) किन्तु ग्राह्यमेवेति स्थविरकल्पिकापेक्षमिदम् । जिनकल्पिभिस्तु प्रथम दिवसादेव तया दीयमानं न गृह्यते इति वृद्धाः ॥ 'कालमासिनी' पदेन, पष्ठमासानन्तरं गर्भस्य गुरुत्वेनोत्थानादिक्रियायां तत्सञ्चलनादिना तस्या गर्भस्य च पीडाऽवश्यंभाविनीति संचितम् ॥ ४० ॥ ४१ ॥ ४ ૫ 1 3 मूलम् - थणगं पिज्जमाणी (य), दारगं वा कुमारियं । ૯ ७ ૧૦ तं निक्खिवितु रोयंतं, आहरे पाण-भोयणं ॥ ४२ ॥ ૧૧ ૧૬ ૧૨ ૧૩ ૧૪ ૧૫ तं भवे भत्त-पाणं तु, संजयाण अकप्पियं । १७ ૧૮ २२ २० २२ १७ दिंतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥४३॥ आहार देवे तो उससे दिया जानेवाला आहार अकल्प्य होता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ऐसी गर्भवती स्त्री यदि बैठी हो और बैठी बैठी ही आहार देवे या खड़ी हो और खड़ी खडी ही आहार देवे तो साधुओं के लिये अकल्प नहीं है, किन्तु कल्पनीय ही है । यह बात, स्थविर - कल्पकी अपेक्षासे समझनी चाहिये। वृद्धोंका मत है कि जिनकल्पी महाराज, गर्भके प्रथम दिन से ही गर्भवती स्त्रीके हाथसे दिया जानेवाला आहार सर्वथा नहीं लेते हैं । 'कालमासिनी' पदसे यह सूचित किया है कि छठे महीने के बाद गर्भ भारी हो जाता है, इस कारण हिलने-डोलने से गर्भवतीको तथा उसके गर्भको पीडा अवश्य होती है ॥ ४० ॥ ४१ ॥ રીતે આપવામાં આવતા આહાર અકલ્પ્ય અને છે એનું તાત્પર્ય એ થયું કે એવી ગર્ભવતી સ્ત્રી ને બેઠી હાય તેા એડી-મેડી જ આહાર આપે યા ઊભી હાય તા ઊભી ઊભી આહાર આપે તે સાધુને માટે તે અકલ્પ્ય નથી, પરંતુ કલ્પનીય છે આ વાત સ્થવિર-કલ્પની અપેક્ષાએ સમજવી જેઈએ વૃદ્ધોને મત એવા છે કે જિનકલ્પી મહારાજ ગર્ભના પ્રથમ દિવસથી જ ગર્ભવતી સ્ત્રીના હાથથી આપવામા આવતા આહાર સર્વથા લેતા નથી. વાળમાસની એ શબ્દથી સૂચિત કરવામા આવ્યું છે કે છઠા મહીના પછી ગ ભારે થઈ જાય છે તેથી હીલ-ચાલ કરવાથી ગર્ભવતી તથા એના ગર્ભને भवस्य पीटा थाय छे (४०-४१) Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ.१ गा. ४२-४३-आहारग्रहणविधिः ४३३ - छाया-स्तन्यं पाययन्ती (च), दारकं वा कुमारिकाम् । तं निक्षिप्य रुदन्त,-माहरेत्पान-भोजनम् ॥४२॥ तद्भवेद्भक्त-पानं तु, संयतानामकल्पिक(त)म् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादशम् ॥४३॥ सान्वयार्थः-दारगं लड़के कुमारियं लड़की वा अथवा नपुंसक किसीभी बच्चेको थणगं-स्तन्य-ध पिज्जमाणी पिलाती हुई तं-उस बचेको रोयंत रोते हुएको निक्खिवित्तु-भूमि आदि पर रखकर (यदि) पाण-भोयणं आहारपानी आहरे देवे, तं तु-तो वह भत्तपाणं आहार-पानी संजयाणं-साधुओंके लिए अकप्पियं अकल्पनीय भवे-होता है, (अतः) दितियं देनेवालीसे पडियाइक्खे-कहे कि तारिसं-इस प्रकारका आहारादि मे=मुझे न कप्पइ= नहीं कल्पता है ॥४२-४३॥ ____टीका–'थणगं' इत्यादि । दारकं-शिशुम् , कुमारिकां-बालिकाम् , 'वा' शब्दात्संगृहीतं नपुंसकञ्च, स्तन्यं दुग्धं पाययन्ती, तं-पिवन्तं शिशुप्रभृतिक रुदन्तं= क्रन्दन्तं निक्षिप्य भूम्यादौ निधाय पान-भोजनमाहरेत् तदा तद्भक्त-पानं तु संयतानामकल्पिक(त) भवेत् , अतो ददतीं प्रत्याचक्षीत-तादशं मे न कल्पत इति । ___ अत्रायमभिसन्धिः-यदि दारकादिः केवलं स्तन्यपानोपजीवी स्तन्यपानान्न__ भोजनोभयोपजीवी वा भवेत् तं पाययन्ती स्तन्यपानं सन्त्याज्य पानभोजनं दद्यात् , 'थणगं' इत्यादि, 'तं भवे' इत्यादि । स्त्री यदि, लड़के, लड़की या नपुंसकको दूध पिलाती हो और उस पीनेवाले रोते हुए बालक आदिको, जमीन पर रख कर, पान-भोजन देवे तो साधु कहे कि 'ऐसा आहार, मुझे नहीं कल्पता है, यहाँ तात्पर्य यह है कि, यदि बालक दूधमुहाँ हो अथवा दूध भी पीता हो और अन्न भी खाता हो, उस बालकको स्तनपान छुड़ा कर आहार पानी देवे, थणगं० ईत्यादि, तं भवे० ४त्याह જે સ્ત્રી પુત્ર પુત્રી કે નપુંસકને દૂધ પાતી હોય અને એ પીનારા રેતા બાળક આદિને જમીન પર મૂકીને ભેજન-પાન આપે તે સાધુ કહે કે એ આહાર મને કહપતે નથી ” અહી તાત્પર્ય એ છે કે જે બાળક દૂધમુખ (દૂધ પર જ) હોય અથવા દૂધ પીતુ હાય તથા અન્ન પણ ખાતુ હેય, તે એવા બાળકને સ્તનપાન છોડાવીને આહાર-પાણી આપે, અથવા કેઈ બાળક સ્તનપાન mmmmmu Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ श्रीदशवकालिकमरे अथवा य. शिशुः स्तन्यमपिवन्नके समीपे वा तिष्ठेत्तं परित्यज्य दातुं पृथग्भूतायां तस्यां यदि स रुयात् तदापि तया दीयमानमाहारादिकं संयतानामकल्पिक(त)म् , शिश्वाबाहारान्तराय-कर्कशहस्त-भूमि-मञ्चकादिस्पर्शजनितपीड़ा-मांसाशि-मार्जारकुकुरादिजन्तुकृतोपघातादिसम्भवात् , दृश्यते हि कचन निर्जनादौ स्थाने शृगालादयो बालानपहृत्य पलायन्त इति ॥४२॥४३॥ मूलम्-जं भवे भत्तपाणं तु, कप्पाकप्पंमि संकियं । ૧૧ ૧૦ ૧૨ ૯ दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥४४ छाया-यद्भवेद्भक्त-पानन्तु, कल्प्याकल्प्ये शङ्कितम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तदृशम् ॥४४॥ सान्वयार्थः-ज-जो भत्तपाणं तु-अशनादि कप्पाकप्पम्मि-कल्प्य अकल्प्यके विपयमें संकियं शङ्कित-शङ्कास्पद भवे हो तो दितियं देनेवाली से पडियाइक्खे-कहे कि तारिसं इस प्रकारका आहारादि मे मुझे न कप्पइ-नहीं कल्पता है ॥४४॥ या कोई बालक, स्तन-पान न करता हुआ भी गोदमें या समीपमें बैठा हो, उसे छोड़कर स्त्री आहार देनेके लिये जावे और बालक रोने लगे तो भी उसके द्वारा दिया जानेवाला आहार, संयमियोंको ग्राह्य नहीं है, क्योंकि इससे उसके बालकके आहारमें अन्तराय पड़ती है, मातृ-विरहजन्य दुःख होता है, कठोर हाथ, भूमि, खाट आदिके स्पर्शसे पीड़ा होती है और मांसभोजी विलाव कुत्ते आदि जानवरोंके द्वारा उपघात होनेका सम्भव रहता है। कहीं२ (पहाड़ी प्रदेशोंमें) शृगाल (गीदड़), वालकोंको उठा कर ले भागते हैं ऐसा देखा जाता है ॥ ४२ ॥ ४३ ।। ન કરતુ હોય પણ ખેાળામા યા સમીપમાં બેઠું હોય, તેને છોડીને સ્ત્રી આહાર આપવાને માટે જાય અને બાળક જેવા લાગે તે પણ તેણે આપેલ આહાર સયમીઓને માટે ગ્રાહ્ય નથી, કારણ કે તેથી તેના બાળકના આહારમા અતરાય પડે છે, માતૃવિરહજન્ય દુઃખ થાય છે, કઠેર હાથ, ભૂમિ, ખાટલા આદિના સ્પર્શથી પીડા થાય છે અને માસજી બીલાડા કુતરા આદિ જાનવરો દ્વારા ઉપઘાત થવાને પણ સંભવ રહે છે કયાક કયાક (પહાડી પ્રદેશમા) શિયાળ બાળકને Grcी कनय छे, लेवामा मावे छे (४२-४3) Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ ४ __ १०८ १८ अध्ययन ५ उ. १ गा. ४४-४६-शङ्कित-मुद्रिताहारनिषेधः ४३५ टीका-'जं भवे०' इत्यादि । यद्भक्त-पानं तु कल्प्याकल्प्ये कल्प्यं च अकल्प्यश्चेति समाहारद्वन्द्वे कल्प्याकल्प्यं तस्मिन् , भावप्रधानश्चाय निर्देशस्ततश्च कल्प्यत्वेऽकल्प्यत्वे चेत्यर्थः, कल्प्यत्वमुद्गमादिदोषरहितत्वमकल्प्यत्वं च तत्सहितत्वम् , तत्र शङ्कितं शङ्का(संशय)युक्तत्वम् 'इदं भक्तपानं कल्प्यमकल्प्यं वे'-त्येवंविधसंशयविषयीभूतमित्यर्थः, भवेत् तत् ददतीं प्रत्याचक्षीत-तादृशं मे न कल्पत इति ॥४४॥ मूलम्-दगवारेण पिहियं, नीसाए पीढएण वा । लोढेण वा विलेवेण, सिलेसेण वि केणइ ॥४५॥ ૧૨ ૧૩ ૧૪ ૧૮ ૧૭ तं च उभिदिआ दिज्जा, समणटाए व दावए। ૨૩ ૨૨ ૨૪ ૨૧ दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिस ॥४६॥ छाया-दकवारेण पिहितं, निश्रया पीठकेन वा । लोष्टेन वा विलेपेन, श्लेषेण वा केनापि ॥४५॥ तच्चोद्भिद्य दद्यात् , श्रमणार्थ वा दापयेत् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥४६॥ सान्वयार्थः-दगवारेण जलके भरे हुए घड़ेसे नीसाए घंटीके पुडियेसे या पीसनेकी शिलासे वा अथवा पीढएण-पीढेसे लोढेण लोढेसे वा अथवा विलेवेण-मिट्टी आदिके लेपसे वि-अथवा केणइ-दूसरे किसी प्रकारके सिलेसेण मोम लाख आदि चिकने पदार्थ से पिहियं-आच्छादित या मुद्रित कियाहुआ अशनादिका वरतन हो, तं च-उसे यदि समणहाए-साधुके लिए उभिदिआ-उघाड़ (खोल) कर दिज्जा-खुद देवे वा अथवा दावए-दूसरेसे दिलावे तो दितियं देती हुईसे साधु पडियाइक्खे-कहे कि तारिसं-ऐसा आहारादि मे-मुझे (लेना) न कप्पइ-नहीं कल्पता है ॥४५-४६॥ 'जं भवे' इत्यादि । 'यह भक्त-पान कल्प्य है या अकल्प्य' इस प्रकार जिसमें सन्देह हो वह भक्त-पान देनेवालीसे साधु कहे कि ऐसा आहार मुझे ग्राह्य नहीं है ॥४४॥ जं भवे. त्या सामान-पान प्य छ है मय से प्रारना જેમાં સદેહ ઉત્પન્ન થાય તે ભજન-પાન આપનારીને સાધુ કહે કે એ આહાર भने प्राह नथी (४४) Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्रीदशवैकालिकस्त्रे : टीका-'दगवारेण' 'तंच' इत्यादि । दकेति दकं जलं (प्रोक्तं पार्भुवनममत जीवनीयं दकं च' इति हलायुधः,) वारयति बहिनिःसरणतो निरुणद्धीति दकवारः जलसंभृत-कलसादिभाजनं तेन, निश्रया घरट्रेन-पेपणचक्रेण शिलापट्टेन (पेपणार्थपापाणेन) वा, पीठकेन-काष्ठनिर्मिताऽऽसनेन, लोप्टेन शिलादिखण्डेन, विलेपेन=मृत्तिकादिलेपेन, केनापि श्लेषेण=सिक्थ-लाक्षादिना वा पिहितम्-आच्छादितं मुद्रितं वा यदन्नादिमाजनमिति प्रसङ्गलभ्यं भवेत् , तच्च श्रमणार्थमुद्भिद्य-उद्घाटय (स्वयं) दद्यादापयेद्वा तदा गुरुतरवस्तूत्थापनक्लेशहिंसादिसम्भावनया ददतीं प्रत्याचक्षीतेत्यादि पूर्ववत् ॥ ४५ ॥ ४६॥ मूलम् असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा । ૧૩ ૧૪ ૯ ૧૧ ૧૦ जं जाणेज्जा सुणेज्जा वा, दाणट्ठा पगडं इमं ॥४७॥ ૧૫ ૨૦ ૧૬ ૧૭ ૧૮ ૧૯ तं भवे भत्त-पाणं तु, संजयाण अकप्पियं । , ૨૫ ૨૪ ૨૬ ૨૩ दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥४८॥ 'दकवारेण०' इत्यादि, 'तं च' इत्यादि । जलसे भरेहुए वर्तनसे, चक्की के पुडसे, मसाला आदि पीसनेकी शिलासे, पीढ़े (बाजोट) से, लोढे (मसाला आदि पीसनेके वजनदार पत्थर) से ढके हुए, तथा मिट्टी आदिके लेपसे,अथवा अन्य किसीसे छांदे या लाख आदिसे मुद्रित किया हुवा अन्न-पान,साधुके लिये उघाड़कर स्वय देवे या दूसरेसे दिलावे तो क्लेश और हिंसाकी सम्भावनाके कारण देनेवालीको कहे कि ऐसा आहार हमें ग्राह्य नहीं है। तात्पर्य यह है कि, भारी वस्तुके उठानेमें स्व-पर-विराधना आदि अनेक दोपोंकी सम्भावना होनेसे यह निषेध किया गया है ॥ ४५ ॥ ४६ ॥ दकवारेण त्या तं च त्यादि. જળથી ભરેલા વાસણથી, ઘટીના પડથી, મસાલે વાટવાના ઓરિશિયાથી બાજોઠથી, મસાલે વાટવાને વજનદાર પત્થરથી, ઢાકેલું તથા માટી આદિના લેપથી અથવા અન્ય કઈ પદાર્થથી છાદેલું કે લાખ આદિથી બંધ કરેલું વાસ સાધુને માટે ઉઘાડીને અન્ન-પાન પિતે આપે યા બીજા પાસે અપાવે તે કલેશ અને હિંસાની સ ભાવનાથી આપનારીને સાધુ કહે કે એ આહાર અને ગ્રાહૃા નથી. તાત્પર્ય એ છે કે ભારે વસ્તુ ઉપાડવા સ્વપર-વિગધના આદિ અનેક દેવેની સ ભાવના હોવાથી એ નિષેધ કરવામાં આવ્યા છે (૪૫-૪૬) Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ५ उ. १ गा. ४७-४८-दानार्थों पकल्पिताहारनिषेधः ४३७ छाया-अशनं पानकं वापि खाद्यं स्वाद्यं तथा । यजानीयात् शृणुयाद्वा, दानार्थ प्रकृतमिदम् ॥४७॥ तद्भवेद्भक्त-पानं तु, संयतानामकल्पिक(त)म् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥४८॥ सान्वयार्थः-ज-जो असणं ओदन आदि अशन पाणगंदाख आदिका धोवन वावि-अथवा खाइमं केला आदि खाद्य तहा और साइम-एलची लूंग आदि स्वाय इमं यह 'दाणहा' पथिकों को देने के लिए पगडं-उपकल्पितनिकाला हुआ है जो अपने या अपने कुटुम्बके लिए काममें नहीं लाया जावे ऐसा जाणेज्ज-जान लेवे वा अथवा सुणिज्जा-किसीसे सुन लेवे तो तंबह भत्तपाणं तु-आहार-पानी संजयाणं साधुओंके लिए अकप्पियं-अकल्पनीय भवे होता है, (अतः) दितियं-देती हुई से साधु पडियाइक्खे-कहे कि तारिसइस प्रकारका आहारादि मे मुझे (लेना) न कप्पइ-नहीं कल्पता है ।।४७-४८।। ___टीका-'असणं०' इत्यादि, 'तं भवे०' इत्यादि च । यत् अशनं भोज्यमोदन-पूरिकादिकं, पानक द्राक्षादिजलम् , अपिवा-अथवा खाद्य-कदलीफलादिकं, स्वाधम्=एला-लबग-कर्पूर-पूगीफलादिकम् , 'दानार्थ-देशान्तरादागतेन वणिगादिना साधुवादार्थ स्वकीयप्रशसानिमित्तं दातुम् , इदं प्रकृत-नियतरूपेणोपकल्पितम्' इति जानीयात्-आमन्त्रणादिना अवगच्छेत् , शृणुयाद्वा-कुतश्चि'असणं०' इत्यादि, तथा 'तं भवे०' इत्यादि । ओदन-आदि अशन, दाखका जल आदि पान, केला आदि खाद्य, लोंग, कपूर, इलायची, सुपारी आदि स्वाय, 'यह देशान्तरसे आये हुए वणिक् आदिने अपनी प्रशंसाके निमित्त देनेके लिये रक्खा है।' ऐसा जो समझे या किसीसे सुने तो वह अशनादि, संयमियोंको कल्पनीय नहीं है, असणं त्याहि, तथा तं भवे. त्या ઓદન આદિ અશન, દ્રાક્ષના ધાવણનું જળ આદિ પાન, કેળાં આદિ ખાદ્ય, લવીંગ, કપૂર, ઈલાયચી, સેપારી આદિ સ્વાદ્ય, “આ દેશાન્તરથી આવેલા વણિક આદિએ પિતાની પ્રશંસાને લીધે આપવાને માટે રાખેલ છે ” એવું જે સમજવામાં કે કઈ પાસેથી સાભળવામાં આવે તે એ અનાદિ સંયમીઓને Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ૧૫ ૨૦ ४३८ श्रीदशवैकालिकसूत्रे दाकर्णयेद्वा तद्भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकं भवेत् , अतस्तद्ददतीमत्याचक्षीत-तादृशं मे न कल्पत इति ॥ ४७ ।। ४८ ॥ मूलम्-असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । ૧ ૧૨ ૧૩ ૧૪ ૯ ૧૧ ૧૦ जं जाणेज सुणेज्जा वा, पुण्णहा पगडं इमं ॥४९॥ ૧૬ ૧૭ ૧૮ तं भवे भत्त-पाणं तु संजयाण अकप्पियं । - રર ર૫ ર૪ ર૬ ર૩ दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥५०॥ छाया-अशनं पानकं वापि, खाद्यं स्वायं तथा । यज्जानीयाच्छृणुयाद्वा, पुण्याथै प्रकृतमिदम् ॥४९॥ तद्भवेद्भक्तपानं तु, संयतानामकल्पिक(त)म् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥५०॥ सान्वयार्थः-जं असणं पाणगं वावि खाइमं तहा साइमं जो अशन पान खादिम स्वादिम इमं पुण्णहा पगडं=' यह करुणावुद्धिसे दीन-हीन-जनोंके लिए पुण्यार्थ निकाल रखा है' इस प्रकार जाणेज जान लेवे वा अथवा सुणिजाकिसी दूसरेसे सुन लेवे तो तंबह भत्तपाणं तु-आहार-पानी संजयाणं साधुओंके लिए अकप्पियं-अकल्पनीय भवे होता है, (अतः) दितियं देती हुईसे साधु पडियाइक्खे-कहे कि तारिसं-इस प्रकारका आहारादि मे-मुझे (लेना) न कप्पड़ नहीं कल्पता है ॥४९॥-५०॥ ___टीका-'असणं०' इत्यादि, 'तं भवे०' इत्यादि च । यदशनादिकं 'पुण्यार्थ=पुण्याय=सुकृतायेदं दयाधिया,वनीय(प)क-श्रमणार्थोपकल्पितस्याग्रे वक्ष्यइसलिये ऐसा भक्त-पान आदि देनेवाली से कहे कि यह मुझे नहीं कल्पता है ॥ ४७ ॥४८॥ 'असणं०' इत्यादि, तथा 'तं भवे.' इत्यादि । जो 'अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य ट्या-बुद्धिसे दीन-हीन जनोंको માટે કલ્પનીય નથી તેથી એવા ભેજન-પાન આદિ આપનારીને સાધુ કહે કે से भने ४८५ता नथी. (४७-४८) असणं. त्यादि, तथा तं भवे. त्या આ અશન, પાન, ખાદ્ય, સ્વાઘ, દયા-બુદ્ધિથી દીન હીન જનેને આપવાને Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ४९-५०- पुण्यार्थीपकल्पिताहारनिषेधः ४३९ माणत्वादत्र दीनेभ्यो वितरणार्थमिदं प्रकृतम् - उपकल्पितम् - स्व-स्वपोष्यवर्गो भयोपभोग्यभिन्नतया स्थापितमिति यावत्' इति जानीयात् शृणुयाद्वा तद्भक्तपानमित्यादि पूर्ववत् । पूर्वगाथायां 'दाणा' इत्यत्र दान - शब्देन स्वप्रशंसार्थं दानं गृह्यते, प्रकृते 'पुण्णड्डा' इत्यत्र पुण्य-शब्देन स्त्रप्रशंसाव्यतिरिक्तफलाभिसन्धानेन दानं गृह्यते इति दानपुण्ययोर्भेदः । ' महाव्रतधारिभ्य एव यद्दीयते तत्रैव पुण्यं न तु तदितरेभ्यः प्रदाने, तथा सति हि प्रत्युत पापकलापः समुत्पद्यते ' इति केचिदाहुः, ('तेरहपथी' शब्देन प्रसिद्धाः साधव आहुः ) तद् भ्रान्तिविलसितम्, देनेके लिये है- अर्थात् पुण्यार्थ बनाया गया है' ऐसा जाने या सुने तो वह संयमीके लिये ग्राह्य नहीं है, अत एव ऐसा आहार देनेवालीसे कहे कि- ' यह भक्त-पान लेना मुझे नहीं कल्पता है' । पहली गथामें आये हुए ' दाणा' पदके 'दान' शब्द से ' अपनी प्रशंसाके लिये दिया जानेवाला दान' अर्थ ग्रहण किया है, किन्तु इस गाथा में 'पुण्णट्टा ' के 'पुण्य' शब्द से अपनी प्रशंसाके सिवाय अन्य किसी प्रयोजन से दिया जानेवाला दान' अर्थ होता है-दान और पुण्यमें यही अन्तर है । 'कोई-कोई कहते हैं कि - " महाव्रतधारी मुनियोंको जो दान दिया जाता है उसीमें पुण्य है- दूसरों को देने में नहीं, दूसरों को देने से उलटा पाप लगता है" । उनका यह कहना भ्रान्ति-मूलक है, क्योंकि, भगवान्ने १ तेरहपंथी सप्रदाय के साधु । માટે છે, અર્થાત્ પુણ્યાર્થે બનાવવામાં આવ્યા " मेवु लागुवामा या सांभળવામા આવે તે એ સંયમીને માટે ગ્રાહ્ય નથી તેથી કરીને એવા આહાર આપનારીને સાધુ કહે કે—એ ભેાજન-પાન લેવા મને કલ્પતા નથી. પહેલી गाथामा मावेला दाणट्ठा पहना दान શબ્દથી પેાતાની પ્રશંસાને માટે આપવામાં આવતું દાન ’ એવા અર્થગ્રહણ કર્યાં છે, પણ આ गाथामा पुण्णट्ठा भाना पुण्य शहथी 'पोतानी પ્રશસા સિવાયના અન્ય કઇ પ્રયેાજનથી આપવામા આવતુ દાન ' એવા અર્થ થાય છે દાન અને પુણ્યમાં એ અતર છે, ૧૩ઇ-કાઇ કહે છે કે—મહાવ્રતધારી મુનિઓને જે દાન આપવામા આવે છે તેમા પુણ્ય છે ખીજાએને દેવામા પુણ્ય નથી, ખીજાઓને દેવામા ઉલટુ પાપ सागे छे " मेमनु मेवुं वुं श्रान्तिभूस छे, अरागु है लगवाने पुण्गट्ठा पगडं , ૧ તેરહપ થી સપ્રદાયના સાઘુએ ! “ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० श्रीदशवेकालिकसूत्रे भगवता हि 'पुण्णट्ठा पगडं' इत्यनेन 'पुण्यार्थमुपकल्पितं द्रव्यं साधूनामकल्प्य 'मिति बोधितं, तत्र महाव्रतधारकेतरेभ्यः प्रदातुमुपकल्पितस्य द्रव्यस्य तन्मते पुण्यार्थत्वाभावेन 'पुण्णहा पगडं' इति वाक्यं निर्विषयतामपद्येत । ननु पुण्यार्थीपकल्पितद्रव्यस्याकल्प्यत्वस्वीकारे साधोः शिष्टकुळे भिक्षाग्रहणमैत्राकल्प्यं स्यात्, पुण्यार्थमेव तेपां पाकमत्तेने तु क्षुद्रजन्तुवत्स्वोदरपूर्तिमात्रार्थमिति चेन्न, तथाहि - यद्यपि शिष्टकुले सम्पादितमन्नं पुण्यार्थप्रकृतं तथापि यदन्येभ्यो 'पुण्णट्ठा पगडं' इस कथन से पुण्यके लिये निकाले हुए द्रव्यको साधुओं के वास्ते अकल्पनीय बताया है। यदि महाव्रतियोंको छोड़कर अन्य किसी को देने में पुण्य न हो तो भगवान्‌का किया हुआ यह निषेध किस पर लागू पड़ेगा ?, तात्पर्य यह है कि पुण्यके लिये निकाले हुए दूव्यको, मुनियोंके लिये अकल्पय बताने से यह सिद्ध होता है कि दूसरोंको दान देने से भी पुण्यकी प्राप्ति होती है । शंका- यदि पुण्यार्थ निकाला हुआ द्रव्य, साधुओंको ग्राह्य नहीं है तो शिष्टकुलमें साधु, कभी भिक्षा ग्रहण कर ही नहीं सकते, क्योंकि शिष्ट जन, पुण्यके लिये ही रसोईका आरम्भ करते हैं, साधारण (क्षुद्र) प्राणियों की तरह अपने ही उदरकी पूर्त्तिके लिये नहीं । समाधान- यद्यपि शिष्टकुलमें तैयार किया हुआ आहार पुण्यके लिये ही संपादित होता है तथापि जो आहार दूसरोंको ही देने के लिये बनाया એ કથન વડે પુણ્યને માટે કાઢેલા દ્રવ્યને સાધુઓને માટે અકલ્પનીય અતાવ્યું જો મહાવ્રતીએ સિવાયના ખીજાઓને આપવામાં પુણ્ય ન હોય તે ભગવાને કરેલા એ નિષેધ કાને લાગુ પડશે ?, તાત્પ એ છે કે પુણ્યને માટે કાઢેલા દ્રવ્યને મુનિઓને માટે અકલ્પ્ય બતાવ્યુ હોવાથી એમ સિદ્ધ થાય છે કે બીજાએને દાન આપવાથી પણ પુણ્યની પ્રાપ્તિ થાય છે શકા—જો પુછ્યા કાઢેલું દ્રવ્ય સાધુઓને માટે ગ્રાહ્ય ન હૉય તે શિષ્ટ કુળમા સાધુ કદાપિ ભિક્ષા ગ્રહણ કરી શકશે જ નહિ, કારણ કે શિષ્ટજન પુરુષને માટે જ રસોઇને આરંભ કરે છે સાધાણુ (ક્ષુદ્ર) પ્રાણીઓની પેઠે માત્ર પેાતાનુજ ઉદર ભરવાને માટે નિ સમાધાન-તે કે શિઘ્ર કુળમાં તૈયાર કરવામાં આવતા આહાર પુણ્યને માટે જ સંપાદિત હોય છે, તે પણ જે આડાર ખીતએને આપવાને માટે બનાવવામાં आवे छे, पोताना उपलोगने भाटे नहि, ते पुण्णट्टा पगडं ( पुण्यार्थ निष्पादित) Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ५ उ. १ गा. ५१-५२-वनीपकार्थोपकल्पिताहारनिषेधः ४४१ दातुमेव निष्पादितं न तु स्त्रोपभोगार्थं तदेवान्नं 'पुण्यार्थप्रकृत'-शब्देनात्र गृह्यते, एतदेव देयमित्युच्यते । ईदृशस्यैव ग्रहणे प्रतिषेधः, आरम्भान्तरायादिदोषभसङ्गात् । यत्तु स्वस्य स्वपोष्यवर्गस्य चोपभोगार्थमुदारवुद्धया सम्पादितं, तच्चानियतदानार्थवाददेयमित्युच्यते । अस्य ग्रहणे साधो रम्भादिदोषप्रसङ्गः, साध्वर्थपाकमहत्तेरभावात् । किञ्च-शास्त्रे, शिष्टकुले भिक्षाग्रहणस्य विधानान्न तथाविधाऽऽहारग्रहणे दोष इत्यलं पल्लवितेन ॥ ४९ ॥ ५० ॥ मूलम्-असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । ૧ ૧૨ ૧૩ ૧૪ ૯ ૧૧ ૧૦ जं जाणेज सुणेजा वा, वणिमट्ठा पगडं इमं ॥५१॥ जाता है अपने उपभोगके लिये नहीं, वही 'पुण्णट्ठा पगडं' (पुण्यार्थ निष्पादित) और वही 'देय' कहलाता है। इस प्रकारके आहारको ही ग्रहण करनेका निषेध किया गया है। क्योंकि, उसे लेलेनेसे आरंभ और अन्तराय आदि दोषोंका प्रसंग होता है। जो आहार, अपने और अपने आश्रित जनोंके उपभोगके लिये उदार बुद्धिसे निष्पन्न किया जाता है, वह अनियत दानके लिये होनेसे 'अदेय' कहलाता है। इस अदेय आहारको ग्रहण करनेसे साधुको आरम्भ-आदि दोष नहीं लगते हैं, क्योंकि वह साधुके निमित्त नहीं थनाया जाता है, तथा शास्त्र में, शिष्टकुलमें भिक्षा ग्रहण करनेका विधान है, इसलिये भी शिष्टकुलमें आहार ग्रहण करने में दोष नहीं आसकता, इतना ही समाधान काफी है ॥ ४९ ॥५०॥ અને એજ “દેય” કહેવાય છે એ પ્રકારના આહારને પણ ગ્રહણ કરવાને નિષેધ કરવામાં આવ્યું છે, કારણ કે એ લેવાથી આરભ અને અતરાય આદિ દેને પ્રસગ ઉત્પન્ન થાય છે જે આહાર પિતાને માટે અને પિતાને આશ્રિત જનેના ઉપભેગને માટે ઉદાર-બુદ્ધિથી નિપન્ન કરવામાં આવે છે તે અનિયત દાનને માટે હોવાથી અદેય’ કહેવાય છે એ અદેય આહાર ગ્રહણ કરવાથી સાધુને આરંભ-આદિ દોષ લાગતા નથી, કારણ કે એ સાધુને માટે બનાવવામાં આવેલ હેતે નથી, તથા શાસ્ત્રમાં શિકુળમા ભિક્ષા ગ્રહણ કરવાનું વિધાન છે, તેથી પણ શિષ્ટકુળમાં આહાર ગ્રહણ કરવામા દેષ લાગી શકતા નથી એટલું જ સમાધાન पूरतु छ (४८-५०) Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ श्रीवैकालिकसूत्रे " ૧૫ २० ૧૬ १७ ૧૮ ૧૯ तं भवे भत्त-पाणं तु, संजयाण अकप्पियं । રા ૫ २४ २९ २३ दिंतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ५२ ॥ ככ छाया - अशनं पानकं वापि, खाद्यं स्वाद्यं तथा । यज्जानीयाच्छृणुयाद्वा, वनीय - ( प ) - कार्य प्रकृतमिदम् ॥५१॥ तद्भवेद्भक्त - पानं तु, संयतानामकल्पिकम् । ददवीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादशम् ||५२ ॥ सान्वयार्थ :- जं असणं पाणगं वाचि खाइमं तहा साइमं जो अशन पान खादिम स्वादिम इमं वणिमट्ठा पगडं=यह भिखारी और दरिद्रोंके लिए उपकल्पित है ऐसा जाणेज्ज=जान लेवे चा = अथवा सुणिज्जा = किसी दूसरे से सुन लेवे तो तं= वह भत्तपाणं तु=आहार- पानी संजयाणं साधुओंके लिए अकप्पियं=अकल्पनीय भवे = होता है, (अतः) दितियं = देती हुईसे साधु पडियाइक्खे कहे कि तारिसं= इस प्रकारका आहारादि मे = मुझे (लेना) न कप्पड़ नहीं कल्पता है ॥५१-५२॥ टीका- 'असणं ० ' इत्यादि 'तं भवे० ' इत्यादि च । यद् अशनादिकं वनीय(प) कार्यम् = वनीय (प) कः = याचकमात्रं यद्वा सिद्धान्नमात्रोपजीवी, अथवा वनी=स्वकीय दुरवस्थामदर्शनपुरःसरं प्रियाऽऽलापादिना लभ्यद्रव्यं, तां याति = मानोतीति वनीयः, स एव वनीयकः, 'वनीपके'तिपाठपक्षे तु तां पूर्वोक्तां वनीं पिवति = आस्वादयतीति, पाति रक्षति वा वनीपः स एव वनीपकः, अथवा वनुते = मायो दातुः सम्माननीयेष्वात्मनो भक्ति प्रकटयन् याचत इति वा, ('वनु याचने' अस्माद्धातोरौणादिक ईपकप्रत्ययः । ) यदिवा = सान्त्वनं - बुभुक्षाजनिततापो 'असणं' इत्यादि, तथा 'त भवे० ' इत्यादि । याचकमात्रको अथवा सिद्ध ( तैयार ) भिक्षा लेकर जीवन निर्वाह करनेवालेको वनीयक कहते हैं, 'वनीपक' पाठपक्ष में-दाता के माननीय गुरु आदि भक्ति प्रकट करके लीजानेवाली भिक्षाको बनी कहते हैं, और ऐसी भिक्षा लेनेवाला 'वनीपक' कहलाता है, अथवा जो, भूखका नाप त्यादि असण० त्याहि तथा तं भवे० ચાચક-માત્રને અથવા સિદ્ધ ( તૈયાર ) ભિક્ષા લઈને જીવન નિર્વાહકરનારાને વનીયક’ કહે છે વનીપદ પાટના પક્ષમા—દાતાના માનનીય શુરૂઆદિમા ભક્તિ પ્રકટ કરીને લેવામાં આવતી ભિક્ષાને વની કહે છે, અને એવી ભિક્ષા લેનાર ત્રીપદ્મ કહેવાય છે. અથવા જે ભૂખનેા તાપ મટાવીને સાંત્વના આપે Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ५३-५४ श्रमणार्थीपकल्पिताहारनिषेधः ४४३ पशमनलक्षणं नयति = प्रापयतीति वनीः, यद्वा वन्यते = याच्यते = भिक्ष्यत इति वनी = भिक्षणीयद्रव्यम्, ('वनु याचने' अस्मादौणादिक इन् कृदिकारादिति ङीष् ) तां पाति = उपकल्प्य रक्षतीति वनीपः = गृहस्थस्तं कायति = प्रार्थयते भियोक्त्यादिनेति atusस्तदर्थमिदं प्रकृतमित्यादि पूर्ववत् ।। ५१ ।। ५२ ।। २ 3 ५ ४ ९ ૮ ७ मूलम् - असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । ૧૦ ૧ ૧૩ 13 ૧૪ ८ ૧૧ जं जाणेज्ज सुणेज्जा वा, समणट्ठा पगडं इमं ॥ ५३ ॥ ૧૫ २० ૧૬ १७ ૧૮ ૧૯ तं भवे भत्त-पाणं तु, संजयाण अकप्पियं । २५ २४ ૨૨ ૨૬ २३ २१ दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तादिसं ॥५४॥ छाया - अशनं पानकं वापि, खाद्यं स्वाद्यं तथा । यज्जानीयाच्छृणुयाद्वा, श्रमणार्थं प्रकृतमिदम् ||५३ || तद्भवेद्भक- पानं तु संयतानामकल्पिकम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ||५४ ॥ सान्वयार्थः - जं असणं पाणगं वावि खाइमं तहा साइमं जो अशन पान खादिम स्वादिम इमं समणट्ठा पगडं= यह निर्ग्रन्थ शाक्य तापस गैरिक और आजीवक, इन पांच प्रकारके श्रमणोंके लिए उपकल्पित है, ऐसा जाणेज्ज=जान लेवे वा=अथवा सुणिज्जा=किसी दूसरेसे सुन लेवे तो तं = वह भत्तपाणं तु= आहार- पानी संजयाणं = साधुओंके लिए अकप्पियं = अकल्पनीय भवे = होता है, (अतः) दितियं = देती हुईसे साधु पडियाइक्खे = कहे कि तारिस - इस प्रकारका आहारादि मे = मुझे ( लेना) न कप्पड़ नहीं कल्पता है ||५३-५४ ॥ = मिटाकर सान्त्वना प्रदान करे उसे वनी (भिक्षा देनेके लिये रखा हुआ अन्नादि ) कहते हैं, उसको सुरक्षित रखनेवाला गृहस्थ 'वनीप' कहलाता है, और उस वनीप (गृहस्थ ) से प्रार्थना करके भिक्षा प्राप्त करने वालेको 'वनीपक' कहते हैं । उस वनीपकके लिये बनाया हुआ देवे तो देनेवालीसे कहे कि ऐसा आहार मुझे कल्पना नहीं है ॥ ५१ ॥ ५२ ॥ तेने वनी ( भिक्षा आपवाने रामेसा अन्नाहि) उडे छे मेने सुरक्षित रामनार गृहस्थ वनीप उडवाय छे, अने मे वनीप (गृहस्थ ) ने आर्थना उरीने लिक्षा પ્રાપ્ત કરનારને વનપદ્મ કહે છે એ વનીપકને માટે બનાવેલેા આહાર આપે તે આપનારીને સાધુ કહે કે એવા આહાર મને કલ્પતો નથી (૫૧-૫૨) Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४४४ श्रीदशवैकालिकसूत्रे . टीका--'असणं०' इत्यादि, तथा 'तं भवे०' इत्यादि । श्रमणाय श्रमणाःलोकप्रसिद्धयनुरोधतो निर्ग्रन्थ-शाक्य-तापस-गैरिका-ऽऽजीवकभेदेन पञ्चधा, तत्र निर्ग्रन्थाः पञ्चमहाव्रतधारिणः, शाक्याः सौगताः, तापसा: जटाधारिणः, गैरिकाः रक्तवर्णधातुविशेपरञ्जितवस्त्रधारिणः, परिव्राजका इत्यर्थः, आजीवकाः गोशालकमतानुयायिनस्तदर्थमिदं प्रकृतमित्यादि माग्वत् ॥५३॥५४॥ मूलम्-उद्देसियं कीयगडं, पूइकम्मं च आहडं । अझोयरय पामिञ्च, मीसजायं विवजए ॥५५॥ छाया-औदेशिकं क्रीतकृतं, पूतिकर्म चाभ्याहृतम् । अध्यवपूरक मामित्यं, मिश्रजातं विवर्जयेत् ॥५५॥ सान्वयार्थः-उद्देसियं औदेशिक-किसी एकको उद्देश करके बनाये हुए अशनादिको कीयगडं खरीदे हुएको पूइकम्मं आधाकर्मादिदोपसे दृपित ऐसे आहारसे मिले हुएको आइडं सामने लाये हुएको पामिञ्च-उधार लाये हुएको च और मीसजाए अपने तथा साधुओंके लिए मिश्रित (भेला) करके बनाये हुए अशनादिको (साधु) विवज्जए-बरजे, अर्थात् ऐसा आहार हो तो नहीं लेवे ॥ ५५ ॥ 'असणं०' इत्यादि तथा 'तं भवे०' इत्यादि । लोकमें पाँच प्रकारके श्रमण होते हैं-(१) निर्ग्रन्थ (पंच महाव्रतधारी), (२) सौगत (बुद्धके अनुयायी), (३) तापस (जटाधारी), गैरिक (गेरुआ वस्त्र पहिननेवाले ), (६) आजीवक (गोगालके मतानुयायी)। इनके लिये जो आहार बनाया गया हो वह, संयमियोंके लिये कल्प्य नहीं है, अत एव ऐसा आहार देनेवालीसे साधु कहे कि मुझे नहीं कल्पता है ॥ ५३ ॥ ५४ ।। असणं० /त्या तया तं भवे. त्याहि. सोमा पांय ना श्रम। डाय छ. (१) नि ५ (५महातधारी), (२) सोगत (मुना मनुयायी), (3) तास ( 1), (४) गै२ि४ (ગેરુઆ વસ્ત્રો પહેરનાગ), (૫) આજીવક (ગશાળના મતાનુયાયી) એમને માટે જે આહાર બનાવવામાં આવ્યું હોય તે સ યમીઓને માટે કપ્ય નથી, તેથી એ આહાર આપનારીને સાધુ કહે કે તે મને કલ્પત નથી (૫૩૫૪) Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ५५ - औदेशिकक्रीतकृताहारस्वरूपम् ४४५ टीका- 'उद्देसियं०' इत्यादि । १ - औद्देशिकम् = उद्देशनमुद्देशस्तेन कृत- मौदेशिकम् । तद्विविधं - सामान्यौदेशिकं विशेषौदेशिकं च तत्राद्यं प्रतिदिनं स्वार्थ सम्पाद्यते तावत्सम्पादनप्रवृत्तौ सत्यां 'भिक्षादानं गृहस्थाऽऽचारः' इति बुद्धया 'यः कश्चित्साधुरागच्छेत्तस्मै देय' - मिति सामान्यत उद्दिश्य समधिकं निष्पादितम् । द्वितीयं - कमप्येकं साधुं व्यक्ति-विशेषरूपेणोद्दिश्य सम्पादितम् । २ - क्रीतकृतं क्रयणं गृहस्थकर्तृक, तेन सम्पादितं क्रीतकृतं क्रीतमित्यर्थः, तत्रिविधं द्रव्यक्रीतं, भावकीतं, मिश्रक्रीतञ्च तत्र द्रव्य - क्रीतं स्वपरतदुभयभेदेन त्रिधा - स्वद्रव्यक्रीतं, परद्रव्यक्रीतम् उभयद्रव्यक्रीतञ्च । तदपि सचित्ताऽ-चित्त-मिश्रभेदात्प्रत्येकं , 'उद्देसियं०' इत्यादि । [१] किसी को उद्देश करके बनाया हुआ आहार, औदेशिक कहलाता है। वह दो प्रकारका है - १ - सामान्य औदेशिक और २ - विशेष - औद्देशिक। जितना आहार, प्रतिदिन गृहस्थ बनाता है उतना आहार बनाते समय ऐसा विचार करना कि 'भिक्षा देना गृहस्थका कर्त्तव्य है, इसलिये जो कोई साधु आवेगा उसे दे देंगे' ऐसा विचार कर बनाया हुआ आहार 'सामान्य - औदेशिक' और किसी एक साधुके निमित्त बनाया हुआ आहार, 'विशेष - औद्देशिक' कहलाता है । [२] खरीद किया हुआ आहार क्रीतकृत कहलाता है । वह तीन प्रकारका है (१) - द्रव्य-क्रीत (२) - भावक्रीत (३) - मिश्रक्रीत । द्रव्यक्रीत तीन प्रकारका है(१) - अपने द्रव्य से खरीदा हुआ, ( २ ) - पराये द्रव्यसे खरीदा हुआ, (३) - दोनों द्रव्यों से खरीदा हुआ। ये तीनों भेद तीन २ प्रकारके हैं। स्वद्रव्य उद्देसियं ० धत्यादि (१) -अने उद्देशाने मनावेो आहार मोटेशिऽ अडेवाय छे તે બે પ્રકારના હાય છે (१) सामान्य-सोद्देशि ाने (२) विशेष-सोद्देशि જેટલેા આહાર પ્રતિદિન ગૃહસ્થ મનાવે છે એટલેા આહાર બનાવતી વખતે એવે વિચાર કરવા કે ‘ભિક્ષા આપવી એ ગૃહસ્થનુ કન્ય છે, તેથી જો કેાઈ સાધુ આવશે તે તેને આપીશ' એવા વિચાર કરીને બનાવેલા આહાર સામાન્યઓદ્દેશિક, અને કોઇ એક સાધુને નિમિત્તે બનાવેલે આહાર વિશેષ – ઔદ્દેશિક કહેવાય છે (૨)-ખરીદ રેલેા આહાર żીતકૃત કહેવાય છે તે ત્રણ પ્રકારના છે– (१) द्रव्यगीत, (२) लावडीत, (3) मिश्रीत द्रव्यद्वीत त्रयु प्राश्नो छे - ( १ ) पोताना દ્રવ્યથી ખરીદેલા, (૨) પરાયા દ્રવ્યથી ખરીદેલેા, (૩) બેઉ દ્રન્ચેથી ખરીદેલે Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ श्रीदशवेकालिकसूत्रे त्रिविधं - सचित्तस्त्रद्रव्यक्रीतम्, अचित्तस्वद्रव्यक्रीतं, मिश्रस्वद्रव्यक्रीतं, सचित्तपरद्रव्यक्रीतम् अचिरा परद्रव्यक्रीतं, मिश्रपरद्रव्यक्रीतं, सचित्तोभयद्रव्यक्रीतम्, अचित्तोभयद्रव्यक्रीतं, मिश्रोभयद्रव्यक्रीतश्चेति । इत्थं द्रव्य क्रीतं नवधा भवति । " भाव क्रीतं द्विविधं - स्वभावकीतं परभावकीतञ्च तत्र स्वभावक्रीतं - सांचौ समुपागते तदर्थे गृहस्थेन स्वविद्या - मन्त्रादि दत्त्वा क्रीतम् । परभावक्रीतं विद्या१ - विद्याससाधना रोहिणीमज्ञप्त्यादिरूपा, मन्त्रः - असाधनो वशीकरणादिः । क्रीतके भेद - (१) अपने सचित्त द्रव्यसे खरीदा हुआ, (२) - अपने अचित्त द्रव्यसे खरीदा हुआ, (३) - अपने सचित्त और अचित्त, दोनों प्रकारके द्रव्यसे खरीदा हुआ । - परद्रव्यक्रीतके भेद - (१) - दुसरे के सचित्त द्रव्यसे खरीदा हुआ, (२) - दूसरे के अचित्त द्रव्यसे खरीदा हुआ, (३) दूसरे के दोनों प्रकारके द्रव्यसे खरीदा हुआ । उभयक्रीतके भेद - ( १ ) - दोनोंके सचित्त द्रव्यसे खरीदा हुआ (२) दोनोंके अचित्त द्रव्यसे खरीदा हुआ (३) दोनोंके सचित्त और अचित्त द्रव्यसे खरीदा हुआ। ये सब द्रव्यक्रीत हैं । भाव-क्रीत, दो प्रकारका है - (१) - स्वभावक्रीत, (२) - पर भावक्रीत । साधुके आने पर, साधुके लिये, अपनी विद्या या अपना मन्त्र दे कर, गृहस्थद्वारा खरीदा हुआ आहार स्वभावक्रीत है, दूसरेने विद्या-मंत्र એ ત્રણે ભેદ ત્રણ-ત્રણુ પ્રકારના છે સ્વદ્રવ્યકીતના ભેદ–(૧) પેાતાના સચિત્ત દ્રવ્યથી ખરીદેલા, (૨) પાતાના ચિત્ત દ્રવ્યથી ખરીદેલા, (૩) પાત્તાના સચિત્ત અને અચિત્ત મેઉ પ્રકારના દ્રવ્યથી ખરીદેલા પરદ્રવ્યકીતના ભેદ–(૧) બીજાના ચિત્ત દ્રવ્યથી ખરીદેલે, (૨) ખીન્દ્રના અચિત્ત દ્રવ્યથી ખરીદેલા, (૩) ખીજાના બેઉ પ્રકારના દ્રવ્યથી ખરીદેલા ઉભયકીતના ભેદ–(૧) બેઉના ચિત્ત દ્રવ્યથી ખરીદેલા, (૨) એઉના અચિત્ત દ્રવ્યથી ખરીદેલે, (૩) બેઉના સચિત્ત અને અર્ચિત્ત દ્રવ્યથી ખરીદેલે એ બધે દ્રવ્યક્રોત છે लावडीत मे प्रान्तो (१) स्व-लावीत, (२) पर-लावट्ठीत, साधु गावे ત્યારે સાધુને માટે પેતાની વિદ્યા યા પેાતાને મંત્ર આપીને ગૃહસ્થદ્વારા ખરીદેલા આહાર એ સ્વ-ભાવક્રીત છે. બીજાએ વિદ્યા-મંત્ર આપીને સાધુને માટે Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ॰ १ गा. ५५ - क्रीतकृताहारस्वरूपम् ४४७ मन्त्रादि दत्त्वा साधुकृते परेण क्रीतमुपलभ्यान्येन गृहस्थेन दीयमानं तदनेकविधं स्वयमूह्यम् । मिश्र - ( द्रव्य - भावरूप ) - क्रीतस्य च नव भङ्गाः, यथा -- १ - स्वकीयेन द्रव्येण स्वकीयेन भावेन । २ – स्वकीयेन द्रव्येण परकीयेण भावेन । ३ - परकीयेण द्रव्येण स्वकीयेन भावेन । ४ - परकीयेण द्रव्येण परकीयेण भावेन । ५ – स्वकीय- द्रव्य- भावाभ्यां परकीयेण द्रव्येण । ६ - स्वकीय द्रव्य भावाभ्यां परकीयेण भावेन । देकर, साधुके लिये आहार आदि खरीदा हो और साधुके आने पर उस आहारको दूसरा लेलेवे तो उसे परभाव- क्रीत कहते हैं, वह अनेक प्रकारका है सो स्वयं समझ लेना चाहिये । मिश्र ( द्रव्य भावरूप ) - क्रीतके नौ भंग होते हैं १- अपने द्रव्य से २- अपने द्रव्यसे ३- परके द्रव्य से ४- परके द्रव्य से ५- अपने द्रव्य भावसे ६- अपने द्रव्य भाव से अपने भावसे । परके भावसे । अपने भावसे । परके भावसे । परके द्रव्यसे । परके भावसे । આહારદિ ખરીદેલા હાય અને સાધુ આવે ત્યારે એ આહારને ખીજે લઇ લે તે તે પરભાવકીત કહેવાય છે તે અનેક પ્રકારના હોય છે તે પેાતાની મેળે સમજી લેવુ मिश्र (द्रव्य-भाव३५ ) श्रीतना नव लागा थाय छे ૧ પેાતાના દ્રવ્યથી પેાતાના ભાવથી ૨ પેાતાના દ્રવ્યથી પરના ભાવથી. ૩ પરના દ્રવ્યથી પેાતાના ભાવથી ૪ પરના દ્રવ્યથી પરના ભાવથી ૫ પેાતાના દ્રવ્ય-ભાવથી પરના દ્રવ્યથી ૬ પેાતાના દ્રવ્ય-ભાવથી પરના ભાવથી Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ श्रीदशवेकालिकसूत्रे ७- परकीय द्रव्य भावाभ्यां स्वकीयेन द्रव्येण । ८ - परकीय द्रव्य - भात्राभ्यां स्वकीयेन भावेन । ९ - स्वकीय- द्रव्य-भावाभ्यां परकीय द्रव्यभावाभ्याञ्च क्रीतम्, इति । g एष च दोष उद्गमदोषान्तर्गतत्वेन गृहस्थोत्थितः उक्तञ्च - " सोलस उग्गम- दोसे, गिहिणो उ समुडिए बियाणाहि । उपायणा य दोसे, साहूओ समुट्ठिए जाण ॥ १ ॥ इति' ३ - पूतिकर्म = पूतेः = अपवित्रस्य कर्म - मिलनरूपं पूतिकर्म लक्षणया तेन युक्तं पूतिकर्म । पूतिकरणं द्रव्यभावभेदाद्विमकारकम्, तत्र - द्रव्यतो यथा - शुचिद्रव्येऽपवित्र सम्मेलनं, यथा पेय- पयः परिपूरितपात्रेऽल्पी ७- परके द्रव्य भावसे अपने द्रव्यसे । अपने भावसे । ८- परके द्रव्य भावसे ९- अपने द्रव्य भावसे और परके द्रव्य भावसे खरीदा हुआ। यह क्रीतकृत दोष, उद्गमदोषोंके अन्तर्गत है, इसलिये गृहस्थके द्वारा लगता है । कहा भी है " सोलह उद्गम दोष, गृहस्थके द्वारा लगते हैं और उत्पादना दोप, साधु द्वारा लगते हैं । " [३] पूतिकर्म - पवित्र वस्तुमें अपवित्र वस्तुके मिल जानेको पूतिकर्म कहते हैं, यह दो प्रकारका है- (१) - द्रव्य पूतिकर्म और (२) भाव-पूतिकर्म । (१) - पवित्र में अपवित्र द्रव्य मिलाना द्रव्य - पूति - कर्म है, जैसे पीने योग्य दूधसे भरे हुए वर्त्तनमें थोडीसी भी मदिराका मिलजाना, अथवा ૭ પરના દ્રવ્ય-ભાવથી પેાતાના દ્રવ્યથી ૮ પરના દ્રવ્ય-ભાવથી પેાતાના ભાવથી ૯ પાતાના દ્રવ્ય-ભાવથી અને પરના દ્રવ્ય ભાવથી ખરીદેàા. એ ક્રીતભૃત દેષ ઉદ્ગમ દેષની અંદર દ્વારા લાગે છે. કહ્યું છે કે-‘સાળ ઉદ્ગમદોષ દનાદેષ સાધુઢારા લાગે છે.” રહેલેા છે, તેથી કરીને ગૃહસ્થની ગૃહસ્થદ્વારા લાગે છે અને ઉત્પા (૩) ધૃતિક-પવિત્ર વસ્તુમા અપવિત્ર વસ્તુ મળી નય તેને પૂતિકમ अहे थे, से प्रान्नु छे (१) द्रव्य- धृतिप्रभ ने (२) लाव-यूतिर्भ (१) पवित्र દ્રવ્યમા અપવિત્ર દ્રવ્ય મેળવવું એ દ્રવ્ય-પૃતિક છે, જેમકે પીવા ચેગ્ય દૂધથી ભરેલા વાસણમાં ચેડીક દિગનુ મળી જવું, અથવા પીવા ચેાગ્ય ખીર આદિમાં Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ५५ - आहृताद्याहारस्वरूपम् यानपि सुरासंसर्गः, यद्वा पायसादिपवित्रभोक्तव्यपदार्थे क्षतादिक्षरद्रक्त-पूयादिविन्दुमात्रस्यापि मिश्रणम् । - भावतः – विशुद्ध आहारादावाधाकर्मादिदोषदूषितान्नादेः सिक्थमात्रेणापि मेलनम्, तदशनेन च साधूनां चारित्रमालिन्यं भवतीति भावपूतिरभिधीयते । दोषोऽयमाधाकर्मादिदोषदूषितान्नादिसंसृष्टहस्तभाजनादिनिमित्तेनापि सम्भ ४४९ वति । ४-आहृतं = साधुनिमित्तं गृहादितोऽभिमुखमानीतम् । ५- 'अज्झोयरय' इति लुप्तविभक्तिकं पदम्, 'अध्यवप्ररक' मिति तच्छाया, स्वार्थे पाकक्रियायां समारब्धायां खाने योग्य खीर आदिमें रक्त पीप आदि अपवित्र पदार्थका मिल जाना । (२) विशुद्ध आहार आदिमें आधाकर्मी आदि दोषोंसे दूषित अन्नका एक भी सीध (कण) मिल जाना, भाव- पूतिकर्म है। ऐसा आहार लेनेसे मुनियोंके चारित्रमें मलिनता आजाती है, इस कारण इसे भावपूति कहते हैं । आधाकर्मी दोषसे दूषित अन्न आदि से भरे हुए हाथ या वर्त्तनके निमित्त से भी यह दोष लग जाता है । [४] - आहृत-साधुके लिये साधुके सामने लाया हुआ आहार आदि अभ्याहृत कहलाता है, ऐसा आहार लेना अभ्याहृत- दोष दूषित आहार है । समय, [५] अध्यत्र पूरक - अपने लिये भोजन बनाना प्रारम्भ किया हो उस 'गॉव में साधु पधारे हैं' यह सुनकर और अधिक मिला कर લેહી પરૂ આદિ અપવિત્ર પદાર્થનું પડી જવુ (૨) વિશુદ્ધ આહારાદિમા આધાકી આદિ દેષથી દૂષિત અન્નને એક પણ કછુ મળી જવા એ ભાવપૂર્તિ કર્મો છે. એવા આહાર લેવાથી મુનિઓના ચારિત્રમા મલિનતા આવી જાય છે. તેથી તેને ભાવપૂતિ કહે છે આધાકમી દ્વેષથી દૂષિત અન્નાદિથી ભરેલા હાથ યા વાસણના નિમિત્તથી પણ એ દેષ લાગી જાય છે (૪) આત–સાધુને માટે સાધુની સામે લાવેલા આહાર આદિ અભ્યાદ્ભૂત કહેવાય છે એવા આહાર અભ્યાત દેષ-દૂષિત આહાર છે, (૫) અચવપૂરક-પેાતાને માટે ભેજન બનાવવાના પ્રારંભ કર્યાં હાય, તે સમયે ગામમા સાધુ પધાર્યા છે' એમ સાંભળીને ખીજું વધારે મેળવીને બના ( Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० धीदशकालिकसूत्रे . ग्रामे साधुसमागमनं निशम्य तदर्थमधिकनिक्षेपणेन सम्पादितमिति तदर्थः । इदमत्र हृदयम्-यद्येवमन्यलिङ्गनिमित्तमधिकं पूरितं, तत्र तदानानन्तरमवशिष्टमन्नादिकं साधुभिर्दाडं, तत्रान्तरायदोपानवतारादिति । ६-मामित्यं साधुनिमित्तमुद्धाररूपेण कुतश्चिदानीय दीयमानम् ।७-मिश्रजातं-मिश्रेण मिश्रभावेन 'पूर्वत एव दाद-भिक्षाचरोभयानुसन्धानेनेत्यर्थः जातं-निष्पन्नम् । तद्विविधं सामान्यमिश्रजातं विशेपमिश्रजातं चेति, तत्र-सामान्यमिश्रजातं सामान्यरूपेण स्वपोष्यवर्गार्थ गृहस्थागृहस्थसाधु-पाखण्डिप्रभृतिभिक्षाचरार्थश्चैकत्र रन्धितम् , विशेषमिश्रजातं यहादनिमित्त १ पूर्वतः पाकाथै प्रवृत्तेः प्रागेव । पनाया हुआ आहार अध्यवपूरक कहलाता है, तात्पर्य यह कि यदि अन्यलिङ्गियोंके निमित्त अधिक आहार मिला कर बनाया हो तो उन्हें दे देनेके बाद बचा हुआ आहार, साधुओंको ग्राह्य है, क्योंकि वहाँ अन्तराय-दोष नहीं लगता। [६] प्रामित्य-साधुके निमित्त कहींसे उधार लेकर दिया जानेवाला आहार, प्रामित्य कहलाता है। [७] मिश्रजात-पहलेसे ही दाता और भिक्षु दोनोंके लिये बनाया हुआ आहार, मिश्रजात है। मिश्रजातके दो भेद हैं-(१) सामान्य मिश्रजात और (२)-विशेष मिश्रजात । (१)-साधारण तौर पर अपने पोप्यवर्गके लिये तथा गृहस्थ, अगृहस्थ, साधु, पाखण्डी आदिके लिये मिलाकर रांधा हुआ आहार 'सामान्य मिश्रजात' कहलाता है । (२)-जो आहार आदि अपने लिये વેલે આહાર અધવપૂરક કહેવાય છે તાત્પર્ય એ છે કે જે અન્યલિંગીઓ (અન્યધમઓ)ને નિમિત્તે વધારે આહાર મેળવીને બનાવ્યું હોય તે તેને આપી દીધા પછી વધેલે આહાર સાધુઓને માટે ગ્રાહ્ય બને છે, કારણ કે તેમાં અંતરાય દોષ લાગતું નથી (૬) પ્રામિત્ય–સાધુને નિમિત્તે કહીંથી ઉધાર લાવીને આપવામાં આવેલ આહાર પ્રાનિત્ય કહેવાય છે (૭) મિશ્રત–પહેલા જ દાતા અને ભિક્ષુ બેઉને માટે બનાવેલે આહાર - બ્રિજાત છે. મિશ્રાતના બે ભેદ છે (૧) સામાન્ય-મિશ્રાવત (૨) વિશેષમશ્ર જાત. (૧) સાધારણ રીતે પિતાના પિવર્ગને માટે તથા ગૃહસ્થ, અગૃહસ્થ, સાધુ પાખંડી આદિને માટે એક કરીને રાંધેલા આહાર સામાન્ય-મિશ્રાત કહેવાય છે Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ५६-निःशङ्किताहारग्रहणाज्ञा ४५१ केवलं साधुनिमित्तश्च सहैव निष्पन्नमन्नादिकम् , तद् विवर्जयेत् परित्यजेत् न गृहीयादित्यर्थः, साधुरिति शेषः। औदेशिका-ध्यवपूरक-मिश्रजातेषु परस्परमेष विशेष:औदेशिकं-पाकमवृत्त्यनन्तरं साध्वागमनात्मागेकमेव साधु सामान्यरूपेण विशेषरूपेण वोद्दिश्य सम्पादिते सम्भवति । अध्यवपूरकं साधुसमागमश्रवणसमनन्तरमधिकनिक्षेपेण जायते । मिश्रजातं-पाकप्रवृत्तिसमय एव गृहस्थ-भिक्षाचरयोः कृते संमिश्रितेऽनादौ समुत्पद्यते ॥ ५५ ।। मूलम् उग्गमं से अ पुच्छिज्जा, कस्सहा केण वा कडं ? । सुच्चा निस्संकियं सुद्धं, पडिगाहिज्ज संजओ ॥५६॥ छाया-उद्गमं तस्य च पृच्छेत्कस्याथै केन वा कृतम् ? । श्रुत्वा निःशङ्कितं शुद्धं, प्रतिगृह्णीयात्संयतः ॥५६॥ १ इतरभिक्षाचरव्यतिरेकेण । और साधुके लिये मिलाकर बनाया जाय उसे 'विशेषमिश्रजात' कहते हैं। ऊपर कहे हुए सब प्रकारके आहारका अनगारको परिहार करना चाहिये। ___ औदेशिक, अध्यवपूरक और मिश्रजात दोषोंमें यह भेद है-भोजन बनानेमें प्रवृत्त होनेके पश्चात् और साधुके आनेसे पहले, किसी भी एक साधुके लिये अथवा अमुक एक साधुके लिये बनाये हुए आहारमें औद्देशिक दोष होता है। आहार बनाते समय, साधुका आगमन सुन कर अधनमें अधिक ऊर (डाल) कर बनानेसे अध्यवपूरक दोष होता है। भोजन बनाते समय, गृहस्थ और भिक्षु, दोनोंके लिये भोजन बनानेसे मिश्रजात दोष लगता है ॥५५॥ (૨) જે આહાર આદિ પિતાને માટે અને સાધુને માટે એકઠા કરીને બનાવવામાં આવે તેને વિશેષ-મિશ્રજાત કહે છે ઉપર કહેલા બધા પ્રકારના આહારને અણગારે પરિહાર કર જોઈએ શિક, અધ્યપૂરક અને મિશ્રજાત મા આ ભેદ છે-ભજન બનાવવામાં પ્રવૃત્ત થયા પછી અને સાધુ આવ્યા પહેલા, કેઈ પણ એક સાધુને માટે અથવા અમુક એક સાધુને માટે બનાવેલા આહારમાં ઓશિક દેષ લાગે છે આહાર બનાવતી વખતે સાધુનું આગમન સાભળીને આધણમાં વધારે ઓરી દેવાથી અધ્યવપૂરક દેષ લાગે છે ભેજન બનાવતી વખતે ગૃહસ્થ અને ભિક્ષુ બેઉને માટે જોજન બનાવવાથી મિશ્રજાત દોષ લાગે છે (૫૫) Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - १० ११ श्रीदशवकालिकसूत्रे सान्वयार्थः-से उस आहारादिकी उग्गम उत्पत्ति पुच्छिज्जा-पूछे कि-(यह अशनादि) कस्सहा-किसके लिए वा और केण-किसने कडं बनाया है ?, फिर सुचा-गृहस्थके मुख से अशनादिकी उत्पत्ति सुनकर (यदि वह) निस्संकियं औदेशिक आदि शङ्कारहित य और सुद्धं निर्दोप हो तो संजए-साधु पडिगाहिज्ज ग्रहण कर लेवे ॥५६॥ टीका-'उरगम' इत्यादि । कस्याथै किंनिमित्तम्, केन वा का कृतं निष्पादितम् , अन्नादौ 'विशुद्धमविशुद्धं वेति संशये तन्निराकरणाय तस्य संशयितस्यान्नादेः उद्गमम् उद्गमनमुद्गमस्तम् उत्पत्तिमित्यर्थः, पृच्छेत् पतिवचनेन ज्ञातुमिच्छेत् , श्रुत्वा प्रतिवचन'-मितिशेषः, संयतः शसिताऽऽहारग्रहणभीरुः साधुः, निःशङ्कितंदोपशङ्कावर्जितम् अत एव शुद्धं निरवयं प्रतिग्रहीयात्-निरवद्यत्वेन निश्चये सतीति भावः ॥५६॥ मूलम्-असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । ૮ ૧૩ ૧૨ पुप्फेसु होज्ज उम्मीसं, बीएसु हरिएसु वा ॥५७॥ ૧૪ ૧૯ ૧૫ ૧૬ ' तं भवे भत्त-पाणं तु, संजयाण अकप्पियं । - ૨૦ ૨ ૨૪ ૩ ૨૫ ૨૨, दितियं पडियाइक्वे, न मे कप्पइ तारिसं ॥५८॥ छाया-अशनं पानकं वाऽपि, खाद्य स्वायं तथा । पुप्पैर्भवेदुन्मिश्र, वीज रितेर्वा ॥५७॥ तद्भवेद्भक्त-पानं तु, संयतानामकल्पिक(त)म् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ।।५८।। 'उग्गमं०' इत्यादि । 'आहार अशुद्ध है या विशुद्ध है। इस प्रकारका सन्देह होने पर साधु, ऐसा पूछ लेवें कि यह आहार, किसके लिये घनाया गया है और किसने बनाया है, इसका उत्तर सुन कर निर् वानाका निश्चय करके निशंकित अत एव निरवद्य आहार हो तो साधु. ग्रहण करें ॥५६॥ કામંડ ઈત્યાદિ “આહાર અશુદ્ધ છે કે વિશદ્ધ છે એ પ્રકારને સદેહ પડતા સાધુ એવું પૂછી લે કે આહાર કેને માટે બનાવેલ છે અને કે બનાવ્યું છે ?, એનો ઉત્તર સાંભળીને નિવઘતાને નિશ્ચય કરીને નિશક્તિ, એટલે નિરવો આહાર હોય તે સાધુ ગ્રહણ કરે (૫૬) १८ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५३ अध्ययन ५ उ. १ गा. ५७-५८-पुष्पादिमिश्रिताहारनिषेधः सान्वयार्थ:-असणं पाणगं वावि खाइमं तहा साइमं अशन पान खादिम तथा स्वादिम (यदि) पुप्फेसु-सचित्त फूलोंसे बीएसु-शालि आदि बीजोंसे वाअथवा हरिएसु-हरित कायसे उम्मीसं-मिश्रित होज हो तो तं-वह भत्तपाणं तु अशनादि संजयाणं साधुओंके लिए अकप्पियं-अकल्पनीय भवे है, (अतः) दितियं-देती हुईसे साधु पडियाइक्खे-कहे कि तारिसं-इस प्रकारका आहारादि मे=मुझे (लेना) न कप्पइ-नहीं कल्पता है ॥५७॥-५८॥ ___टीका-'असणं०' इत्यादि, 'तं भवे०' इत्यादि च । यदशनादिकं सचित्तपुष्प-बीज-हरितकायैरुन्मिश्र=संयुक्तं भवेत्तदकल्प्यमिति वाक्यार्थः । सूत्रे 'पुप्फेम' इत्यादौ तृतीयार्थे सप्तमी ॥५७॥५८॥ मूलम् असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । उदगम्मि होज्ज निक्खितं, उत्तिंगपणगेसु वा ॥५९॥ ૩ ૮ ૪ ૫ ૧૬ ૧૭ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं । दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥६॥ छाया-अशनं पानकं वापि, खाद्यं स्वाद्य तथा । उदके भवेनिक्षिप्तमुत्तिङ्गपनकेषु वा ॥५९॥ तद्भवेद्भक्त-पानं तु, संयतानामकल्पिक(त) म् ।। ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादशम् ॥६॥ सान्वयार्थः-असणं पाणगं वावि खाइमं तहा साइमं जो अशनादि चार प्रकारका आहार (यदि) उदगम्मि-सचित्त जलके ऊपर वा अथवा . उत्तिंगपणगेसु-कीड़ियोंके दरके ऊपर या लीलन-फूलन पर निक्खित्तं-रखा 'असणं०' इत्यादि, तथा 'तं भवे' इत्यादि । जो अशन पान आदि, सचित्त पुष्प, सचित्त बीज और हरितकायसे युक्त हो वह, संयमीके लिये कल्पनीय नहीं है, अतः ऐसा आहार देनेवालीसे साधु कहे किऐसा आहार मुझे नहीं कल्पता है ।। ५७ ॥५८॥ असणं० त्याहि, तथा तं भवे. त्याहि २ मशनपान माहि, सचित्त પુષ્પ, સચિત્ત બીજ અને હરિતકાય (વનસ્પતિ) થી યુક્ત હોય તે સયમીને માટે કલ્પનીય નથી, એટલે એ આહાર આપનારીને સાધુ કહે કે–એ આહાર भने यता नथी (५७-५८) Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४५४ श्रीदशवैकालिकात्रे हुआ होज्ज हो तो तंबह भत्तपाणं तु-अशनादि संजयाणं साधुओंके लिए अकप्पियं-अकल्पनीय भवे है, (अतः) दितियं देती हुईसे साधु पडियाइक्खे कहे कि तारिसं-इस प्रकारका आहारादि मे=मुझे (लेना) न कप्पइ-नहीं कल्पता है ॥५९॥६०॥ ____टीका-'असणं०' इत्यादि, 'तं भवे०' इत्यादि च । यदशनादिकमुदके सचित्तजलोपरि, उत्तिङ्गपनकादिपु-उचिङ्गाः भूमौ वर्तुलविवरविधायिनो गर्दभमुखाऽऽकृतयः क्षुद्रकीटविशेपाः, कीटिकानगरादयो वा, पनका अङ्कुरितोऽनङ्कुरितो वा पञ्चवर्णानन्तकायवनस्पतिविशेषः, तत्र निक्षिप्तं स्थापितं भवेत् , तद्भक्त-पानं संयतानामकल्पिक(त)-मित्यादि पूर्ववत् ॥५९॥६०॥ मूलम्-असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। ८ १० १३ १२ १४ तेउम्मि हुज निक्खित्तं, तं च संघट्टिया दए ॥६१॥ ૧૭ ૧૮ ૧ पाणं तु, संजयाण अकप्पियं । दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ६२ ॥ छाया-अशनं पानकं वापि, खाचं स्वायं तथा । तेजसि भवेन्निक्षिप्त, तच्च संघदृय दद्यात् ॥६१।। तद्भवेद्भक्तपानं तु, संयतानामकल्पिक(त)म् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥६२।। सान्वयार्थः-असणं पाणगं वावि खाइमं तहा साइम-जो अशन पान 'असणं०' इत्यादि, तथा 'तं भवे.' इत्यादि । जो अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य सचित्त जल पर रखा हुआ हो तथा किडीनगर (चिउँटियोंके समृह) या लीलन-फूलन पर रक्खा हो वह, संयमियोंके लिये कल्प्य नहीं है, अतः ऐसा आहार देनेवालीसे कहे कि ऐसा आहार मुझे कल्पता नहीं है' ॥ ५९ ॥ ६॥ असणं. त्यादि, तथा तं भवे० या रे शन, पान, ध, वाय સચિત્ત જળ પર રાખેલા હેય, તથા કીડીનગર (કીડીઓને સમૂહ) યા લીલન-ફુલન પર ખેલો હૈય, તે સંયમીઓને માટે કલ્પનીય નથી. એટલે એ આહાર આપનારીને સાધુ કહે કે- એ આહાર મને કલ્પત નથી” (૫૯-૬૦) तं भवे भत्तपाण' २४ २५ २० ६२॥ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ५९ - ६४ - तेजोविराधनायामाहारनिषेधः ४५५ खादिम स्वादिम तेउम्मि = तेजस्काय पर निक्खित्तं रखा हुआ हुज्ज= हो च= अथवा तं=उस तेजस्कायको संघट्टिया - संघट्टा (छू) करके दए = देवे तो तंत्रह भत्तपाणं तु अशनादि संजयाणं = साधुओंके लिए अकप्पियं=अकल्पनीय भवे = है, (अतः) दितियं = देती हुईसे साधु पडियाइक्खे = कहे कि तारि सं= इस प्रकारका आहारादि मे = मुझे न कप्पड़ नहीं कल्पता है ||६१ ||६२ || टीका- 'असणं' इत्यादि, 'तं भवे० ' इत्यादि च । यदशनादिकं तेजसि= तेजस्कायोपरि निक्षिप्तं = निहितं भवेत् यच्च तत् - तेजः - अग्निकायमित्यर्थः, संघट्टय= संस्पृश्य दद्यात्, तत् = उभयविधं भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकं (तं भवेत्, अतस्तद्ददतीं प्रत्याचक्षीत - तादृशं मे न कल्पत इति ॥ ६१ ॥ ६२ ॥ 7 ૧ ૨ 3 ४ ૫ मूलम् - एवं उस्सिकया ओसिक्किया, उज्जालिया पज्जालिया । દ ७ ૧૦ ૧૧ निवाविया उस्सिचिया, निस्सिचिया ओवत्तिया ओयारिया दए ॥ ६३ ॥ ८ ૧૨ १७ ૧૩ ૧૪ ૧૫ ૧૬ तं भवे भत्त-पाणं तु, संजयाण अकप्पियं । ૧૯ २२ २१ २३ २० दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ६४ ॥ छाया - एवम् उत्क्षिप्य अवक्षिप्य, उज्ज्वाल्य प्रज्वाल्यू । निर्वाप्य उत्सिच्य, निषिच्य अपवर्त्य अवतार्य दद्यात् || ६३ || तद्भवेद्भक्त- पानं तु, संयतानामल्पिक (त) म् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् || ६४ || अग्निकायके साक्षात् संघट्टेका निषेध करके अब परम्परा-संघट्टेका निषेध करते हैंसान्वयार्थः=एवं=जिस प्रकार अग्निकायको स्पर्श करके दिया जानेवाला अशनादि नहीं लेते, उसी प्रकार उस्सिक्किया = चूल्हे आदिमें इन्धनको अन्दर 'असणं०' इत्यादि, तथा 'तं भवे० ' इत्यादि । जो अशन पान आदि, तेजस्काय पर रक्खा हो अथवा अग्निकायका संघट्टा करके देवे तो वह, साधुके लिये ग्राह्य नहीं है । अतः देनेवाली से कहे कि - ' ऐसा आहार, मुझे नहीं कल्पता है ॥ ६१ ॥ ६२ ॥ असणं० छत्याहि, तथा तं भवे० छत्याहि ने ग्मशन પર રાખેલે હાય અથવા અગ્નિકાયનું સઘટન કરીને આપે ગ્રાહ્ય નથી એટલે તે આપનારીને સાધુ કહે કે ' એવા नथी ' (११-६२) यान याहि तेन्स्य તે તે સાધુને માટે આહાર અને કલ્પતા Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L ४५६ श्रीदशवेकालिकसृत्रे सरका कर ओसिक्किया=अधिक इन्धनको चूल्हे के अन्दर से बाहर निकालकर उज्जालिया=बुझी हुई अग्निको फूंक आदि से उद्दीपित - सलगा - कर पज्जालिया = जलती हुई अनको अधिक प्रदीप्त कर निव्वाविया = अग्निको पानी आदिसे बुझाकर उस्सिचिया = अग्निपर पकते हुए अन्नादिको कुछ बाहर निकाल कर निस्सिचिया उभरते हुए दुग्धादिमें जल छिड़ककर अवन्तिया = अमिपर रहे हुए अन्नादिको दूसरे बरतन में निकालकर ओयारिया = अग्निपर रहे हुए अन्नादिके वरतनको नीचे उतारकर अर्थात् अनिकायका परम्परासे संघट्टा करके दए = अशनादि देवे तो तं = वह भत्तपाणं तु अशनादि संजयाणं = साधुओं के लिए अकप्पियं =अकल्पनीय भवे - है, (अतः) दितियं = देती हुईसे साधु पडियाइक्खे = कहे कि तारिस = इस प्रकारका आहारादि मे = मुझे (लेना) न कप्पइ = नहीं पता है || ६३ ॥ ६४ ॥ टीका- 'एवं०' इत्यादि, 'तं भवे०' इत्यादि च । एवम् उक्तप्रकारेण तेजस्कायविपय इवेति भावः, उत्क्षिप्य = ' यावत्कालं साधवेन्नादिकं ददामि तावत्कालनिर्मा प्रशाम्यतु' इति बुद्धया चुल्लयादाविन्धनमुत्सार्य, अवक्षिप्य = दाहभयादिन्धनं निःसार्य, उज्ज्वाल्य अनुज्ज्वलितं फूत्कारादिनोद्दीप्य, प्रज्वाल्य - उद्दीप्तं प्रकर्षेण संवर्ध्य, निर्वाप्य = प्रशान्तीकृत्य, उत्सिच्य= अग्न्युपरिस्थितमन्नादिकं किञ्चिafsष्कृत्य, निषिच्य = उद्धल हुग्धादिकं जलेन प्रशाम्य, अपवर्त्य = भाजनान्तरे ' एवं उस्सिक्किया० ' इत्यादि, तथा 'तं भवे' इत्यादि । ८ जब तक आहार देती हूं तब तक, अग्नि न बुझ जाय ' ऐसा विचार कर चूल्हे में इंधन सुलगाकर, अन्न आदि जलनेके भयसे इंधन बाहर निकाल कर, फूँक आदिसे चूल्हा जला कर, जलती अग्निको तेज कर ग्रा बुझा कर, अनि पर पकते हुए आहारको कुछ एक ओर कर, तथा पानी डाल कर उबाल (उफान ) को शान्त कर, अथवा अन्न आदि सहित एवं उस्सिक्किया० त्यादि, तथा तं भवे० धत्याहि. ત્યાં સુધી આહાર આપતી હોઉં, ત્યાં સુધી અગ્નિ હાલવાઇ ન જાય,' એવા વિચાર કરીને ચૂલામાં ઇંધણા સળગાવીને, અન્નાદિ મળી જવાના ભયથી ધડ્ડા ખડ઼ાર કાઢીને, કુક આદિથી લેા સળગાવીને, બળતા અગ્નિને તેજ કરીને યા મુઝાવીને, અગ્નિ પર પાકતા આહારને કાઇ એક બાજીએ કરીને તય પણી નાંખીને ઊભરાને ાત કરીને, અથવા અન્નાદિ સહિત વાસ”ને નીચે Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ॰ १ गा॰ ६५-६६ - दुर्गममार्गगमननिषेधः ४५७ निधाय, अवतार्य = अन्नादिसहितं भाजनमेवोत्तार्य वा दद्यात्, तद्भक्त-पानं तु संयतानामकल्पिकं (तं) भवेदतस्तद्ददतीं प्रत्याचक्षीत - 'तादृशं मे न कल्पते' इति ६३ ॥ ६४ ॥ ૧૧ २ ૫ ४ 3 ८ ७ + ૧ मूलम् - हुज्ज कट्टं सिलं वावि, इट्टालं वावि एगया । ૧૦ ૧૨ 13 ૧૫ ૧૪ ठवियं संकमट्टाए, तं च होज चलाचलं ॥६५॥ " ૧૯ ૧૬ ૧૮ २० २९ २४ પ न तेण भिक्खू गच्छेजा, दिट्ठो तत्थ असंजमो । ૧૯ २२ २३ રા गंभीरं झसिरं चेव, सव्विंदिय समाहिए ॥ ६६ ॥ छाया - भवेत्काष्ठं शिला वाऽपि, इट्टालं वाऽप्येकदा | स्थापितं संक्रमार्थे तच्च भवेच्चलाचलम् ॥ ६५ ॥ न तेन भिक्षुर्गच्छेद्दृष्टस्तत्रासंयमः ॥ गम्भीरं शुषिरं चैव, सर्वेन्द्रिय- समाहितः ॥ ६६ ॥ सान्वयार्थ :- एगया=किसी समय अर्थात् वर्षा आदिके समय संकमट्ठाए = जाने-आनेके लिए कट्ठे काठ वावि=या सिलं = शिला वावि = अथवा इटालं= ईंटका टुकड़ा ठवियं = रखा हुआ हुज्ज हो च=और तंत्रह (यदि ) चलाचलं= अस्थिर - डगमगाता हुज्ज=हो तो तेण उस मार्ग से तथा जो गंभीरं=ऊंडा- गहरा और झुसिरं = पोला स्थान हो उससे सव्विदियसमाहिए = समस्त इन्द्रियों को वशमें रखनेवाला भिक्खू = साधु न गच्छेज्जा नहीं जावे, (क्योंकि) तत्थ = वहां पर केवली भगवानने असंजमो-असंयम दिट्ठो देखा है ||६५ ॥ ६६ ॥ टीका – 'हुज्ज क०' इत्यादि, 'न तेण०' इत्यादि च । एकदा = एकस्मिन् काले वर्षादौ यत् काष्ठं = सञ्चरणोपयोगि दारू, अपिवा शिला - मस्तरखण्डम् अपित्रा नको नीचे उतार कर यदि आहार देवे तो वह आहार अनगारके लिये ग्रहण करने योग्य नहीं है । अतः देनेवाली से कहे कि - ' ऐसा आहार मुझे नहीं कल्पता है' ॥ ६३ ॥ ६४ ॥ 'हृज्ज कट्ठे० ' इत्यादि, तथा 'न तेण०' इत्यादि । नदी आदिमें बरसात आदिके समय, जाने-आनेके लिये जो काठ, ઊતારીને જો આહાર આપે તે તે આહાર અનગાર ને માટે ગ્રહણ કરવા ચેગ્ય નથી એટલે તે આપનારીને સાધુ કહે કે— એવા આહાર મને કલ્પતા નથી ’ (૬૩-૬૪) हुज्ज कटुं० त्याहि तथा न तेण० छत्याहि નદી આદિમા વરસાદને વખતે આવવા-જવા માટે જે લાડાં, પત્થર, ઈ ટ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४५८ श्रीदशवकालिकसूत्रे इटालम् इष्टकाशकलं, संक्रमार्थ गमनागमनार्थ स्थापितम् आरोपितं भवेत, तच्च काष्ठादिकं यदि चलाचलम् अस्थिरं कम्पमान भवेत् तदा तेन काष्ठादिना सर्वेन्द्रियसमाहितः वशीकृतसकलेन्द्रियो भिक्षुः साधुः न गच्छेत् । 'चेव'-शब्दः समुच्चये अपिवेत्यर्थः, गम्भीरं-निम्नत्वेन प्रकाशशून्यं, शुपिरंगहरवत्सावकाशं 'प्रदेश'मिति शेपः, न गच्छेदिति पूर्वेण सम्बन्धः । अगमने हेतुमाह-तत्रेति, तत्र-तस्मिन् असंयमः स्वपरविराधनादिरूपो दृष्टः अवलोकितः केवलिभिरिति शेषः । चलाचलविशेपणककाष्ठादिपदेन प्रस्खलन-पतनादिनाऽऽत्मविराधना, एकेन्द्रियद्वीन्द्रियादिप्राणिगणोपमर्दनेन पर-विराधनासम्भावना च सूचिता । गम्भीरादिप्रदेशगमनेनापि मोक्तदोषसमधिकहिंस्रादिजन्तुजनितोपघातादिप्रचुरदोपसम्भवः भूचितः । _ 'सबिदियसमाहिए' इतिपदेन साधोरिन्द्रियविषयाऽऽसक्तिनिराकरणपत्थर या ईंट आदि रोप दिया हो और यदि वह हिलता हो तो समाधिमान् संयमी, उस मार्गसे गमन न करे । और जो प्रदेश, नीचा होनेसे अन्धकारमय हो या खड्डेवाला हो उससे भी साधुको गमन नहीं करना चाहिये, क्योंकि ऐसे मार्गमें गमन करनेसे स्व-पर-विराधना-रूप असंयम केवली भगवान्ने देखा है। हिलते हुए काठ आदिपर चलनेसे रपटने या गिर पड़नेसे आत्मविराधनाकी और एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय आदि प्राणियोंके उपमर्दनसे पर-विराधनाकी सम्भावना सूचित की है। गहरे (नीचे) प्रदेशमें गमन करनेसे उक्त दोषोंके सिवाय हिंसक जन्तुओंसे उत्पन्न होनेवाला उपघात आदि बहुतसे दोपोंका होना सूचित किया है। 'सञ्चिदियसमाहिए' पदसे यह વગેરે પેલાં હોય અને જે તે હલતા હોય તે સમાધિવાન સંચમી એ માર્ગે ગમન ન કરે અને જે પ્રદેશ નીચે લેવાથી અંધકારમય હોય યા ખાડાવાળો હોય તે માગે પણ સાધુએ ગમન કરવું ન જોઈએ, કારણ કે એવા માગે ગમન કરવાથી સ્વ-પરવિરાધનારૂપ અસંયમ કેવળી ભગવાને જે છે હલતાં લાકડા આદિ પર ચાલવાથી લપસી જવાથી યા પડી જવાથી આત્મવિરાધનાની અને એકેન્દ્રિય કીન્દ્રિય પ્રાણીઓના ઉપમનથી પર-વિધિનાની સંભાવના મૂચિત કરી છે નીચાણવાળા પ્રદેશમાં ગમન કરવાથી ઉત ઉપરાંત હિંસક જંતુઓથી ઉત્પન્ન થનારો ઉપધાત આદિ ઘણા દ દેવાનું भूथित यु. सन्निदियसमाहिए पथी मेम वाभा माव्यु छ । साधु-मामे Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ६७-६९ - मालाहृतभिक्षानिषेधः ४५९ परायणता प्रतिपादिता । 'भिक्खु ' पदेन च यमनियमपूर्वकमेव भिक्षाग्राहित्व मिति बोधितम् ॥ ६५ ॥ ६६ ॥ ૧૦ ૧૨ ४ ૫ मूलम् - निस्सेणिं फलगं पीढं, उस्सवित्ताणमारुहे । 19 ८ ૧૧ २ 3 ૧. मंचं कीलं च पासायं, समणडाए व दावए ॥ ६७ ॥ 13 १४ ૧૫ ૧૬ ૧૭ ૧૮ दुरूहमाणी पवडेज्जा, हत्थं पायं च लसए । ૧૯ २० २१ २२ २३ २४ पुढवीजीवेवि हिंसेज्जा, जे य तन्निसिया जगे ॥ ६८ ॥ ૨૬ २७ २८ 30 एयारिसे महादोसे, जाणिऊण महेसिणो । ૫ 31 ३२ 33 ३४ ૨૯ तम्हा मालोहडं भिक्खं, न पडिगिण्हंति संजया ॥ ६९ ॥ छाया - निश्रेणि फलक पीठम्, उत्सृज्य आरोहेत् । मञ्चं कीलञ्च प्रासादं, श्रमणार्थमेव दायिका ॥६७॥ दुरा (दु) रोहन्ती प्रपतेत्, हस्तौ पादौ च लूपयेत् । पृथ्वीजवानपि हिंस्या, -द्यानि च तन्निः श्रितानि जगन्ति ॥ ६८|| एतादृशान्महादोषान् ज्ञात्वा महर्षयः । " तस्मान्मालापहृतां भिक्षां, न गृह्णन्ति संयताः ॥ ६९ ॥ सान्वयार्थ :- दाव ए = दान देनेवाली स्त्री यदि समणट्ठा एव = साधुके लिएही निस्सेणि= नसैनी - निसरणी-सीढी फलगं= पाटे पीढ= पीढे मंच खाट व= और कील - कीलेको उस्सवित्ताणं = ऊंचा - खड़ा करके पासाय= प्रासाद - मंजिल पर आरुहे = चढे तो दुरूह माणी = इस प्रकार कष्टसे चढती हुई वह पवडेज्जा = शायद गिर जायगी और अपना हत्थं-हाथ पाय= पैर लूसए-तोड़ बैठेगी तथा पुढवीजी अवि = पृथिवीकाय के जीवोंको भी च=और जे=जो तन्निस्सिया = उस पृथ्वीकी नेसराय में रहे हुए जगे द्वीन्द्रियादि जीव है उन्हें भी हिंसेज्जा = मारेगी ||६७ ||६८ || प्रकट किया गया है कि साधुओंको इन्द्रिय-चपलताका त्याग करना चाहिये । 'भिक्खु ' पदसे धोतित किया गया है कि साधुओंको यमनियमों का पालन करते हुए ही भिक्षा ग्रहण करना चाहिये || ६५ ॥ ६६ ॥ ઇન્દ્રિય ચપલતાને ત્યાગ કરવા જોઇએ. મિવું શબ્દથી એમ પ્રકટ કરવામાં આવ્યુ છે કે સાધુઓએ યમ-નિયમનું પાલન કરતાં જ ભિક્ષા ગ્રઢણુ કરવી लेहरियो ( हय-६६) Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे तम्हा=इसीलिए एयारिसे ऐसे पूर्वोक्त प्रकारके महादोसेदाताकी मृत्यु तक होनेकी संभावनाके कारण महादोषोंको जाणिऊण जानकर संजया= सकल सावध व्यापारसे विरत हुए महेसिणो महर्षि लोग मालोहडं-मालापहत (मालसे लाई हुई) भिक्खं-भिक्षाको न पडिगिण्हति नहीं लेते हैं ॥६९॥ टीका-मालापहृतभिक्षादोषमाह-'निस्सेणि' इत्यादि । 'दावए' इत्यत्र प्राकृतत्वाल्लिङ्गव्यत्ययस्तथा च दायिका दात्री, श्रमणार्थमेव साधुनिमित्तमेव-साध भिक्षादानार्थमेवेत्यर्थः, निश्रेणि वंशादिनिर्मितं सोपानं, फलक-शयनोपयोगि दारुमयाऽऽसनं, पीठं काष्ठनिमितोपवेशनोपयोगि लघ्वासन-पीढ़ा' इति प्रसिद्धं, मञ्च-खट्वां वंशदलादिरचितोच्चासनं वा, कीलं-शङ्ख, चकारान्मुसलादिकम् उत्सृज्य ऊर्वीकृत्य, मासादम्-उच्चगृहं तत्रानेकभूमिकासम्भवेनाऽऽरोहणादिकं युज्यत इति तद्भमिकायां लक्षणा, तथा च-उच्चगृहभूमिकामित्यर्थः, आरोहे-उपलक्षणया गच्छेदित्यर्थः । तेन विसृषु वक्ष्यमाणास मालापहृतासु भिक्षासु समन्वयः । निश्रेण्यादिना सदुःखमारोहणं भवतीत्यत आह-दुरा (दू) रोहन्ती-सदुःखमूर्ध्वप्रदेशमासादयन्ती सती प्रपतेत , हस्तौ पादौ च लूपयेत् त्रोटयेत् , पृथ्वीजीवानपि हिंस्यात्-पीडयेत्, यानि च तन्निःश्रितानि पृथिव्या मालापहृत भिक्षाके दोष बताते हैं-निस्सेणि' इत्यादि, 'दुरूहमाणी' इत्यादि, तथा 'एयारिसे' इत्यादि । दाता, यदि साधुके लिये नसैनी, सीढी (निसरणी), पाटा, पीढा (वाजोट), मांचा, खूटी अथवा मूसल आदिको ऊँचा करके ऊँचे मकानकी दूसरी मंजिल पर चढ़ कर, आहार लावे तो वह आहार आदि, मालापहृत कहलाता है। नसैनी (सीढी) आदि पर चढनेसे यदि गिर पड़े तो हाथ पैर टूट जाय, पृथ्वीकाय-आदि जीवोंकी विराधना होजाय वे भातापत निक्षाना दोषी पाये -निस्सेणिं त्याल, दुरुहमाणी. त्या, तथा एयारिसे त्या ने तो साधुने भाटे सीटी (नीस२९), पाट, RB, भाया, भू અથવા મૂશળ (સાંબેલું) આદિને ઉચા કરીને ઉંચા મકાનના બીજા મજલા પર ચઢીને આહાર લાવે છે તે આહાર માલાપહત કહેવાય છે. સીડી આદિ પર ચડવાથી જે પડી જાય તે હાથ–પગ તૂટી જાય, પૃથ્વીકાય આદિ જવાની Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ६७-६९-मालाहतभिक्षास्वरूपम् ४६१ श्रितानि जगन्तिमाणिनस्तानि हिंस्यादिति पूर्वेण सम्बन्धः तस्मात् यतो निश्रेण्यादिना समारोहणे पतनादिद्वारा दातुः स्व-परोभयविराधना सम्भवति अतः कारणात् एतादृशान्-उक्तलक्षणान् महादोषान्दात्प्रभृतीनां मृत्योरपि सम्भवेन दारुणकर्मविपाकहेतुत्वात्मकृष्टदूषणानि ज्ञात्वा संयताः सकलसावधयोगसमुपरताः महर्षयः घोरपरीपहोपसर्गसहिष्णुत्वान्महामुनयः, मालापहृतां-मालो भूमिकाचाची देशीयशब्दः, ततः अपहृताम् आनीतां भिक्षां न प्रतिगृह्णन्ति-न स्वीकुर्वन्ति । मालापहता भिक्षा भूमिकाया ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्भेदेन त्रिविधा-ऊर्यमालापहृता, अधोमालापहता, तिर्यमालाऽपहृता चेति । तत्रोलमालापहृता पूर्व व्याख्याता। अधोमालाऽपहृता यस्या भूमिकाया निश्रेण्यादिनाऽवरुह्य आनीता । तिर्यङ्माला १ मालः 'मंजिल' इति भाषाप्रसिद्धः ।। तथा जो प्राणी, पृथ्वीपर सञ्चार कर रहे हों उनकी भी हिंसा होजाय, इसलिये ऐसी अवस्थामें स्व, पर और उभयकी विराधनाका होना सम्भव है, यहाँ तककि दाताकी मृत्यु भी हो जा सकती है, अतः इन महादोषोंको अत्यन्त दुःखदायी जान कर, संयमी महामुनि, नसैनी (सीढ़ी) आदि द्वारा माला (मंजिल) से उतारा हुआ आहार आदि स्वीकार नहीं करते ॥ — मालाके भेदसे मालापहृत भिक्षा, तीन प्रकारकी है-(१) ऊर्ध्व-माला. पहृत (२)-अधो-मालापहृत और (३)-तिर्यगमालापहृत। इनमें, ऊर्ध्वमालापहृत भिक्षाका विवेचन, पहले कह आये हैं। ऊपरके मंजिलसे नीचेकी ओर नसैनी (निसरणी) लगाकर, लाई हुई भिक्षा, अधोमालाવિરાધના થાય, તથા જે પ્રાણી પૃથ્વી પર સચાર કરી રહ્યા હોય તેમની પણ હિંસા થઈ જાય, તેથી એવી અવસ્થામાં સ્વ, પર અને ઉભયની વિરાધના થવી સ ભવિત છે, એટલે સુધી કે દાતાનું મૃત્યુ પણ થઈ જઈ શકે છે, તેથી કરીને એ મહદોને અત્યંત દુઃખદાયી જાણીને સયમી મહામુનિ નીસરણી આદિદ્વારા માળથી ઉતારેલે આહાર આદિ સ્વીકારે નહિ માળ-મજલા-ના ભેદે કરીને માલાપહત ભિક્ષા ત્રણ પ્રકારની છે (૧) ઉદ્ઘ भातापाहत, (२) मामासापाहत मन (3) तिय-मासापात मेi - માલાપહુત ભિક્ષાનું વિવેચન પહેલા કરવામાં આવ્યુ છે ઉપરના મજલાથી નીચેની બાજુએ નીસરણું લગાવીને લાવેલી ભિક્ષા અહેમાલાપહુત કહેવાય છે. Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९.११ १२ . 13 ४६२ श्रीदशवकालिकसूत्रे । पहृता तु यस्यां भूमिकायां दायिका तिष्ठेत्तस्यामेव, नद्यादौ जलप्रवाहावरोधिसेतुवन्निश्रेण्यादिकं तिर्यक् संस्थाप्य तद्वारा असंश्लिष्टापरभागे गमनागमनेनाऽऽनीता। दुष्पापशिक्यादिस्थस्यातिगम्भीरकुमूलादिस्थस्य चान्नादेग्रहणे चरणोन्नमनादिनाऽनेकविधकष्टसम्भवादेवंविधापि भिक्षा तदन्तर्जेयेति ॥६७॥६८॥६९॥ मूलम्-कंदं मूलं पलंबं वा, आमं छिन्नं च सन्निरं । तुंबागं सिंगबेरं च, आमगं परिवजए ॥ ७० ॥ छाया-कन्दं मूलं प्रलम्बं वा, आमं छिन्नं च सन्निरम् । तुम्बकं शृङ्गवेरञ्च, आमकं परिवर्जयेत् ।।७०॥ सान्वयार्थः-आमं सचित्त कंद-मूरण आदि कन्द मूलं-विदारिकादि मूल पलंव-ताल आदिके फल वास्तथा छिन्नं चकाटी हुई भी सन्निरं बथुए आदिकी भाजीको (तथा) आमगं सचित्त तुंबागं तूंवे च=और सिंगवेर अदरख-आदे-को साधु परिवज्जए-बरजे ७०॥ पहृत कहलाती है। जिस मंजिलमें देनेवाली मौजूद हो उसीकी बराबरी पर, दूसरी ओर जानेके लिये पुलकी तरह नसैनी (निसरणी) या लकड़ी आदिको तिरछा रख कर चढे तो वहाँसे लाई हुई भिक्षा, तिर्यगमालापहृत कहलाती है । बड़ी कठिनाईसे पहुँचने योग्य छींके या आलेमें तथा गहरी कोठरीमें रक्खी हुई भिक्षा ग्रहण करनेसे पैर उठाने आदि अनेक कष्ट होते हैं इसलिये, ऐसी भिक्षा भी इसी मालापहृत भिक्षामें अन्तर्गत समझनी चाहिये। यह सब प्रकारकी भिक्षा साधुको अकल्प्य है॥॥६७॥ ६८॥ ६९॥। જે મજલામાં ભિક્ષા આપનારી હાજર હોય, તેની બરાબર, બીજી બાજુએ જવાને માટે પૂલની પિઠે નીસરણી યા લાકડું પાટિયુ તો છું રાખીને ચડે તે ત્યાથી લાવેલી ભિક્ષા તિર્યમાલાપહૃત કહેવાય છે બહુ મુશ્કેલીથી પહેચી શકાય એવાં સી કા, યા છાજલીમાં તથા ઉડી કેટડીમાં રાખેલા અશનાદિ ગ્રહણ કરવાથી પગ ઉપાડવા આદિના અનેક કણો પડે છે, તેથી એવી ભિક્ષા પણ આ (માલાપહત) ભિક્ષામાંજ સમાયલી સમજી લેવી એ સર્વ પ્રકારની ભિક્ષા સાધુને भाटे प्य छ (१७-१८-६८) Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६३ १५ अध्ययन ५ उ. १ गा. ७०-७२-आहारग्रहणविवेकः टीका-'कंद' इत्यादि । कन्दं, मूलम्, इमे प्राग्व्याख्याते, वा अथवा प्रलम्ब-तालादिफलम् आमम् अपक्वं-सचित्तमित्यर्थः । च-पुनः छिन्नंकर्तितमपि सन्निरं-पत्रशाकं-वास्तूकादिकं, तुम्बकम् अलावूविशेष, शृङ्गबेरम् आर्द्रकं चकारादन्यदपि प्रत्येकसाधारणवनस्पतिमात्रम् आमकम् अपक्वं सचित्तं परिवर्जयेत् त्यजेत्-न गृह्णीयादित्यर्थः ॥७०॥ मूलम् तहेव सत्तुचुन्नाई कोल-चुन्नाई आवणे । सक्कुलिं फाणियं पूअं, अन्नं वावि तहाविहं ॥७॥ विकायमाणं पसढं, रएणं परिफासियं । ૨૦ ૧૯ ૨૧ ૧૮ दितियं पडियाइक्खे, न में कप्पइ तारिसं ॥७२॥ छाया-तथैव सक्तु-चूर्णानि, कोल-चूर्णानि आपणे। शष्कुली फाणितं, पूपमन्यद्वापि तथाविधम् ॥७१।। विक्रीयमाणं प्रसह्य, रजसा परिस्पृष्टम् ।। ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥७२।। सान्वयार्थः-तहेव-जिसप्रकार सचित्त कन्दादि अग्राह्य हैं उसीप्रकार सत्तुचुन्नाई-भुने हुए जौ या चनेका आटा-सत्तू कोलचुन्नाई-बेरोंका चूरा सक्कुलिं= तिलपापड़ी फाणियंगीला गुड़ पूर्य-मालपूवा (तथा) तहाविहं-उसीप्रकारके अन्नं वावि-औरभी पदार्थ जो आवणे-दुकानपर विकायमाणं बेचनेके लिए रखे हुए हैं वे (यदि) पसदं वस्त्रसे आच्छादित होनेपर भी रएणं-सचित्त सूक्ष्म रजसे परिफासियं व्याप्त हों तो दितियं देनेवालीसे पडियाइक्खे-कहे कि 'कदं' इत्यादि । सचित्त कन्द, मूल, ताड-फल आदि तथा कटा हुआ भी सचित्त पत्तोंका शाक-बथुआ आदि, और सचित्त तुम्बा तथा अदरख भी साधु ग्रहण न करे । 'च' शब्दसे यह भी समझना चाहिये कि इनके सिवाय कोई भी सचित्त-प्रत्येक या साधारण वनस्पति, साधुको नहीं कल्पती है ॥ ७० ॥ कदं० इत्यादि सन्यित्त ४, भूज, ताण माहि तथा अपेक्षा वा छता સિચિત્ત પાદેડાનું શાક–બથુઆની ભાજી આદિ અને સચિત્ત દૂધી આદિ તથા આદુ પણ સાધુ ગ્રહણ ન કરે શબ્દથી એમ પણ સમજવું કે તે ઉપરાંત કઈ પણ સચિત્ત-પ્રત્યેક યા સાધારણ વનસ્પતિ સાધુને ક૫તી નથી (૭૦) Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DELINE "LE THE ४६४ श्रीदशवेकालिकसूत्रे तारिस = इस प्रकारका आहारादि मे= मुझे (लेना) न कप्पड़ नहीं कल्पता है || ७२ ॥ टीका - ' तहेव' इत्यादि, 'विक्कायमाणं' इत्यादि च । तथैव = यथा पूर्वोक्तं सचित्तकन्दादिक्रमग्राह्यं तेनैव प्रकारेण सक्तु-चूर्णानि = सक्तव एव चूर्णानि तानि सक्तनित्यर्थः, भृष्टयवादिचूर्णान्येव सक्तव उच्यन्ते, कोल-चूर्णानि = वदरीफलचूर्णानि, शष्कुलीं = तिलपर्पटिकां फाणितं द्रुतगुडं, पूपम् = अपूपम्, तथाविधं= तादृशम् अन्यदपिवा दध्यादिकम्, आपणे क्रय-विक्रयस्थाने, विक्रीयमाणं= विक्रयार्थं स्थाप्यमानं, रजसा = सचित्त रेणुना, प्रसह्य = हठात् वस्त्रादिनाऽऽच्छादनेऽपि यथाकथञ्चित्मकारेणेति भाव, परिस्पृष्टं = व्याप्तं वायुसमुत्थितरजः संस्पृष्टम् ददतीं प्रत्याचक्षीत - ' तादृशं मे न कल्पत' इति ॥ ७९ ॥७२॥ ૧ ૨ 3 ४ ૫ मूलम् - बहुअट्ठियं पुग्गलं, अणिमिसं वा बहुकटयं । ૬ ७ ८ ८ ૧૦ ૧૧ अच्छियं तिदुयं बिल्लं, उच्छुखंडं व सिंबलिं ॥७३॥ ૫ १३ ૧૬ १२ ૧૪ अप्पे सिया भोयणजाए, बहु उज्झणधम्मिए । १७ ૧૮ २१ २० २२ ૧૯ दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ७४ ॥ ' तहेव ' इत्यादि, तथा 'विक्कायमाणं ' इत्यादि । जैसे, सचित्त कन्द, मूल आदि त्याज्य हैं वैसेही सत्तू, बेरोंका चूर्ण, तिलपापडी, पिघला हुआ गुड, पूआ तथा ऐसी दही आदि अन्यान्य वस्तुएँ, बेचने के लिये दुकान में रक्खी हों, और सचित्त रजसे व्याप्त हों, अर्थात् वस्त्रसे ढँक रखने पर भी पवनके द्वारा पहुँची हुई सूक्ष्म सचित्त रजसे युक्त हों तो वह आहार कल्पनीय नहीं है । इसलिये साधु, देनेवाली से कहे कि 'ऐसा आहार, मुझे नहीं कल्पता है ॥ ७१ ॥ ७२ ॥ तत्र त्याहि तथा विक्कायमाण इत्यादि જેમ સચિત્ત કદ-મૂળ આદિ ત્યાજ્ય છે, તેમજ સTM, બેરનુ ચૂર્ણ તલપાપડી, નરમ ગાળ, તથા એવા પ્રકારની બીજી દહી આદિ નરમ વસ્તુએ વેચવાને માટે દુકાનમા રાખી હોય અને ચિત્ત રજથી વ્યાપ્ત હોય અર્થાત્ વજ્રથી ઢાકી રાખ્યા છતા પવનઢાગ પહોંચેલી સૂક્ષ્મ સચિત્તરંજથી યુક્ત હાય તે તે આહાર કલ્પનીય નથી તેથી સાધુ તે આપનારીને કહે કે એવા આહાર મને ૫તા નથી (૭૧ ૭૨) Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ७३-७४-फलप्रकरणे त्याज्यफलनामानि ४६५ छाया-वष्ठिकं पुद्गलम् , अनिमिषं वा बहुकण्टकम् । अक्षीवं तिन्दुकं विल्वम् , इक्षुखण्डं वा शाल्मलिम् ॥७३॥ अल्पं स्याभोजनजातं, बहूज्झनधर्मिकम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥७४॥ सान्वयार्थः-बहुअद्वियं-बहुवीजा अर्थात् सीताफल अणिमिसं-अनन्नास बहुकंटयंपनस-कटहल अच्छियं-शोभाञ्जनकी फली, जो 'मुनगा' नामसे प्रसिद्ध है। तिदुयं-तेन्दु विलंबेल सिंबलिं-सेमल इन नामके पुग्गलं-फलोंको व और उच्छुखंड-गन्ने-शेरडी के टुकड़ोंको, तथा जिस पदार्थमें भोयणजाए= खानेयोग्य अंश अप्पे सिया-थोडा हो और उज्झणधम्मिएन्डालदेनेयोग्य अंश बहु-बहुत हो ऐसे फल आदि दितियं देनेवालीसे साधु पडियाइक्खेकहे कि तारिसं-इस प्रकारका आहारादि मे-मुझे (लेना) न कप्पइ-नहीं कल्पता है ॥७३।७४॥ टीका-'बहुअट्टियं०' इत्यादि, 'अप्पे सिया' इत्यादि च। वहस्थिकम् बहूनि, अस्थीनि-बीजानि-अस्थि-बीजमिति रायमुकुटः, वैद्यकश्चेति शब्दकल्पद्रुमः; यस्मिन् , यद्वा बहूनि अस्थिकानि ‘अस्थिकं-बीजे मेदोजधातौ चेति राजनिघण्टुः' इति वैद्यकशब्दसिन्धुः; यस्मिंस्तत्, बहुवीजकं-योगरूढमेतत् , सीताफलादिकमित्यर्थः 'बहुअट्टियं' इत्यादि तथा 'अप्पे सिया' इत्यादि । 'अस्थि' शब्दका अर्थ, बीज होता है, रायमुकुट तथा वैद्यकोषोंमें 'अस्थि शब्दका बीज ही अर्थ है, ऐसा 'शब्दकल्पद्रुम' अभिधानमें भी लिखा है । अत एव बदस्थिक शब्दका अर्थ है-बहुत बीजोंवाला । यह शब्द योगरूढ है, अत एव सीताफल अर्थ होता है। निघण्टुमें भी सीताफल (सरीफा)के इतने नाम गिनाये हैं वहुअढियं० त्याह, तथा अप्पे सिया. त्या मस्थि' शहना अर्थ બીજ (ઠળીયે) થાય છે રાયમુકુટ તથા વૈદ્યકામાં અસ્થિ શબ્દને બીજ એ જ અર્થ છે, એમ “શબ્દકલ્પદ્રુમ મા પણ લખ્યું છે એટલે વહથિ. શબ્દને અર્થ થાય છે બહુ બીજે વાળું, એ શબ્દ ગરૂઢ છે, એટલે સીતાફળ અર્થ થાય છે નિઘ ટુમાં પણ સીતાફળનાં આટલાં નામ ગણાવ્યાં છે Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - त एव । पुद्गलम् अग्रेऽप्यस्य सम्बन्ध विदेशप्रसिद्धम् । ४६६ श्रीदशवकालिकसूत्रे "सीताफलं गण्डमात्रं, वैदेहीवल्लभं तथा । कृष्णवीजं चाग्रिमाख्यमातृप्यं वहुवीजकम् ॥१॥” इति निघण्टुकोषः। यद्वा 'बहुअट्टियं' इत्यस्य 'वह्वष्ठिक' मितिच्छाया, 'फलबीजे पुमानष्ठिः' इति कोपात् , अर्थस्तूक्त एव । पुद्गलम्-रसद्धयात्मकपूरणपरिपाकानन्तराधःपतनात्मकग लमधर्मकत्वात्पुद्गलः फलसामान्यं तम् , अग्रेऽप्यस्य सम्बन्धः, सीताफलादिनामकं फलमिति भावः । अनिमिपम् अनन्नासम् अन्तर्बहिःसकण्टकं वङ्गादिदेशप्रसिद्धम् । बहुकण्टकंकण्टकिफलं-पनसं 'कटहर' इत्यनेन प्रसिद्धम् , अस्य त्वग्भावे, सर्वावयवावच्छेदेन कण्टकव्याप्त्या बहुकण्टकत्वं सिध्यति, अनिमिषपदार्थस्य त्वन्तर्वहिः सकण्टकत्वेऽपि विरलकत्वादस्माद्भेदः अक्षीव-शोभाञ्जनम् फलपकरणात्तत्फलिकाम्, त्वचः स्थौल्य-कार्कश्याधिक्यदोषेभ्यो वीजानां वाहुल्याचात्यधिकत्याज्यभागां 'मुनिगा' इति देशविशेषप्रसिद्धाम् । तिन्दुकम् अण्डाकृतिकं फलविशेषम् अल्पाकारस्याप्यस्य फलस्य वीजानां स्थौल्यवाहुल्यादिदं त्याज्यांशवहुलं 'तेंदु' इति "सीताफल, गण्डमात्र, वैदेहीवल्लभ, कृष्णबीज, अग्रिम, आतृप्य और बहुवीजक ॥१॥" इनमें 'बहुबीजक' शब्द भी सीताफलके लिये आया है, और यह ऊपर बताया ही जा चुका है कि 'अस्थि' शब्दका अर्थ वीज होता है। इसलिये बहुबीजक और बहस्थिक एक ही है, अतः बहस्थिकका अर्थ सीताफल ही है। अथवा 'अट्ठिय 'की छाया, 'अष्ठिक' होती है, कोपमें लिखा है कि फलके बीजको 'अष्ठि' कहते हैं । इससे भी पूर्वोक्त अर्थ ही सिद्ध होता है, इसलिये, सीताफलको तथा बंग आदि अन्य अन्य देशोंमें प्रसिद्ध अनन्नाश (अनास)फल विशेष, कटहर, मुनिगा (सोहिंजन) की फली, तेन्दु, वेल, गन्नेका खण्ड ___ "साता मात्र, वडीलतम, मी अश्रिम, सातपय भने गी " એમાં “બહુબીજક' શબ્દ પણ સીતાફળને માટે આવ્યા છે, અને ઉપર બતાવવામા આવ્યુ જ છે કે “અસ્થિ” શબ્દનો અર્થ “બી” થાય છે એટલે બહુબીજક અને બહંસ્થિત એક જ છે, અર્થાત્ બડ્ડસ્થિકને અર્થ સીતાફળ જ છે અથવા अटिय ना छाया अप्ठिक थाय छ, उपमा न्यु छ ना पीने 'अष्ठि' કહે છે તેથી પણ પૂર્વોક્ત અર્થ જ સિદ્ધ થાય છે એ રીતે સીતાફળ, તથા બંગ અદિ અન્ય-અન્ય દેશોમાં પ્રસિદ્ધ અન્નનાસ, કટર, મુનિગાની (એક પ્રકારની). ફળી, તેન્દુ, બિવફળ, (બીલા) શેરડીની કાતળી, સેમલ આદિ ફળ, જેમા ખાદ્ય Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ७५ - पानग्रहणविधिः ४६७ प्रसिद्धम् । विल्वम्, इक्षुखण्डं, शाल्मलिं च एतानि प्रसिद्धार्थकानि । तथा यत्र भोजन जातं = भोज्यांशः अल्पं = स्वल्पम्, उज्झनधर्मिकं = त्याज्यांशः वहु =अधिकं स्यात् = भवेत् तत्फलादिकमन्यदपि ददतीं प्रत्याचक्षीत - तादृशं मे न कल्पते इति । सामान्यलक्षणेन त्याज्यफलादिज्ञानं शिष्याणां दुष्करं स्यादिति प्रथमं विशेषरूपेण कतिचित्फलानि प्रदर्श्य त्याज्यसामान्यलक्षणं निरूपितं तेन न पूर्वगाथायास्तापर्यानुपपतिरिति दिक् || ७३ ||७४ || १ 3 ર ४ ૫ मूलम् - तहेवुच्चावयं पाणं, अदुवा वार- धोयणं । ८ ૬ ७ संसेइमं चाउलोदगं, अहुणाधोयं विवज्जए ॥ ७५ ॥ एवं सेमल आदि फल, जिनमें खाद्य अंश कम हो तथा त्याज्य अंश अधिक हो उन सब फल आदिको देनेवाली से कहे कि ऐसा आहार, मुझे नहीं कल्पता है । अनन्नास में भीतर भी काँटे होते हैं और बाहर भी, और कटहरके छिलके में सर्वत्र काँटे ही काँटे होते हैं । दोनों बहुकण्टक हैं, किन्तु अनन्नासमें काँटे कम और तीखे होते हैं, अतः वह कटहर से भिन्न है । अन्य भेद लोक प्रसिद्ध ही हैं । सामान्य लक्षण करनेसे त्यागने योग्य फलोंका ज्ञान शिष्योंको कठिनतासे होता, अतः पहले कुछ विशेष फलोंके नाम गिना कर, उस प्रकार के सभी फलोंका त्याग बताया है। इसलिये, पहली गाथासे इसका सम्बन्ध ठीक बैठता है ॥ ७३ ॥ ७४ ॥ અંશ આછા હાય તર્યા ત્યાજ્ય અશ વધારે હેાય એ મધાં ફળ આદિ આપનારીને સાધુ કહે કે એવા આહાર મને કલ્પતા નથી અનન્નાસમા અદર કાંટા હાય છે અને છેતરામાં સર્વાંત્ર કાટા જ હોય છે બેઉ કાટા ઓછા અને તીખા હાય છે, તેથી તે લાક-પ્રસિદ્ધ છે બહાર પણ હાય છે, અને કટારના બહુક ટક છે, પરન્તુ અનન્નાસમાં કહરથી જૂદું ફળ છે. અન્ય ભેદ સામાન્ય લક્ષણુ ખતાવવાથી ત્યાગવા ચેગ્ય ફળાનું જ્ઞાન શિષ્યાને મુશ્કેલીથી થાય છે, એટલે પહેલા કેટલાક વિશેષ ફળાના નામ ગણાવીને એ પ્રકારના બધા ફળાના ત્યાગ મતાન્યેા છે. તેથી પહેલી ગાથાથી આને સંધ ઠીકખ ધ મેસે छे (७३-७४) Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ श्रीदशैवैकालिकसूत्रे छाया - तथैवोच्चावचं पान - मथवा वारकधावनम् । संस्वेदिमं तण्डुलोदकम्, अधुनाधतं विवर्जयेत् ॥७५॥ अव पान ग्रहण करने की विधि बताते हैंसान्वयार्थ :- तदेव जैसे अशन उसीप्रकार पाणं=पान उच्चावयं-उच्च-सुन्दर वर्णादिसे युक्त, जैसे दाख आदिका धोवन, अवच - सुन्दर वर्णादिसे रहित जैसे मेथी र आदिका धोवन वारधोयणं - गुड़ के घड़ेका धोवन संसेइमं =भाजीका तथा आटेकी थालीका धोवन अदुवा=अथवा चाउलोदगं= चाँवलोंका धोवन ( ये सब यदि ) अहुणाधोयं तुरन्तका धोया हुआ हो तो उसे (साधु) विवज्जए= वर्जे - न लेवे ॥७५॥ टीका - अशनग्रहण विधेरनन्तरं पानग्रहण विधिमाह ' तहेवृच्चावयं' इत्यादि । तथैव यथाऽशनं तेनैव प्रकारेण, पानं पेयं, कर्मणि ल्युट् उच्चावचमिति उदक = च अवाक् च उच्चावचम् - अनेकप्रकारम् उत्कृष्टानुत्कृष्टमित्यर्थः, तत्र उत्कृष्टं = रुचिरवर्णगन्धरसस्पर्शयुक्तं द्राक्षादिधावनजलं प्रपाणकादिकं च अनुत्कृष्टं = रुचिरवर्णादिहीनं मेथिका - करीर - शमी फलिका- तिलादिधावनजलम् । वारकधावनं = गुडघट-घृतघटादि धावनजलं, संस्वेदिमं = क्वथितशाकादिजलं पिष्टस्थालीप्रक्षालनजलच, तण्डुलोदकं=तण्डुलधावनजलम् । एतत्सर्वम् अधुनाधौतम् - तत्काल धौतम्-अन्त , अशन ग्रहण करनेकी विधि बताकर अब पान ग्रहण करने की विधि दिखाते हैं - ' तहेवुच्चावयं ' इत्यादि । उच्च (उत्कृष्ट) मनोज्ञ वर्ण गन्ध रस स्पर्शवाला दाख आदिका धोवन तथा शर्बत आदि पान, अवच (अनुत्कृष्ट) अमनोज्ञ वर्ण गन्ध रस स्पर्शवाला मेथी केर साँगरी तथा तिल छाछ आदिका घोवन आदि पान, गुड़ या घीके घड़ेका घोवन, औटाये (उवाले) हुए हरा शाक आदिका पानी, आटेकी थाली आदिका धोवन, चावलका धोवन । ये सब यदि तत्कालके धोये हुए हों अर्थात् अन्तर्मुहर्त्तके अभ्यन्तरके धोये हों तो અશન ગ્રહણ કરવાની વિધિ ખતાવીને હવે પાન ગ્રહણ કરવાની વિધિ तावे . - तदेबुच्चावयं इत्यादि ઉચ્ચ (ઉત્કૃષ્ટ ) મનહર વણું ગધ રસ સ્પર્શીવાળુ દ્રાક્ષ આદિનું ધાવણુ તથા શરખત આદિ પાન, અવચ (અનુત્કૃષ્ટ) અમનેજ્ઞ વગધ રસસ્પર્શીવાળુ मेथी, डेरा, जीन्डानी जी (सागरियो ) तथा तल છાશ આદિનુ પાન, ગેળ યા ઘીના ઘડાનું Àત્રણ, ઉકાળેલા લીલા શાક આટાની થાળી આદિ ધાવણુ, ચેખાનું ધાવણુ, એ બધા જે તાજા ધાવણ આદિ આદિનું પાણી, ધાએલાં હાય Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ५ उ. १ गा. ७५-पानग्रहणविधिः ४६९ म॒हूर्त्तान्तधौतं चेदित्यर्थस्तदा विवर्जयेत्न गृह्णीयात् । उपलक्षणमेतत् , उक्तञ्चाऽऽचाराङ्गे श्रीभगवता "से भिक्खू वार जाव अणुपविढे समाणे से जंपुण पाणगजायं जाणेजा, तं जहा-उस्सेइमं वा संसेइमं वा चाउलोदगं वा अन्नयरं वा तहप्पगारं पाणगजातं अहुणाधोयं अणंविलं अवोक्तं अपरिणत अविद्धत्थं अफामुयं जाव णो पडिगाहेज्जा । अह पुण एवं जाणेज्जा चिराधोयं अविलं वोकंतं परिणतं विद्धत्थं फासुयं जाव पडिगाहेज्जा । से भिक्खू वार जाव अणुप्पविढे समाणे से जं पुण पाणगजातं छाया-१-"अथ भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा यावत्-अनुप्रविष्टः सन् स यत्पुनः पानकजातं जानीयात् , तद्यथा-उत्स्वेदिमं वा संस्वेदिमं वा तण्डुलोदकं वा अन्यतरदा तथाप्रकारं पानकजातम् अधुनाधौतम् अनम्लम् अव्युत्क्रान्तम् अपरिणतम् अविध्वस्तम् अप्रामुकं यावत् नो प्रतिगृह्णीयात् । अथ पुनरेवं जानीयात्-चिरयौतम् अम्लं व्युत्क्रान्तं परिणतं विध्वस्तं प्रामुकं यावत् प्रतिगृह्णीयात् । अथ भिक्षुर्वा २ यावत्अनुपविष्टः सन् स यत्पुनः पानकजातं जानीयात् , तद्यथा-तिलोदकं वा इनको ग्रहण न करे । ये तो उपलक्षण मात्र हैं, आचारांग सूत्र में भगवानने कहा है "साधु अथवा साध्वी पानीके लिए गृहस्थके घरमें प्रवेश करकेआटेके बरतनका घावन, शाक आदिका बाफा हुआ पानी, चावलोंका धोवन तथा इस प्रकारका और भी कोई पानी तुरतका धोया हुआ हो, स्वादसे चलित न हुआ हो अर्थात् जिसका धोवन हो उस वस्तुका स्वाद न आता हो, जिसका वर्ण रस् गन्ध स्पर्श न बदला हो-सर्वथा चित न हुआ हो, शस्त्र-परिणत न हो तो ग्रहण न करे । यदि तुरतका धोया हुआ न हो-बहुत देरका धोया हुआ हो, स्वादसे चलित हो गया हो અર્થાત્ અતર્મુહૂર્તની અંદર અદરની ધએલાં હોય તે તેને ગ્રહણ કરવાં નહિ એ તે ઉપલક્ષણમાત્ર છે આચારાંગ સૂત્રમાં ભગવાને કહ્યું છે કે “સાધુ અથવા સાધ્વી પાણીને માટે ગૃહસ્થના ઘરમાં પ્રવેશ કરીને; આટાના વાસણનુ ધાવણ, શાક આદિ જેમા બાફેલાં હોય તે પાણી, ચેખાનું ધવણુ, તથા એ પ્રકારનું બીજુ પણ કેઈ પાણું તુરતનું બેએલ હય, સ્વાદથી ચલિત થયું ન હોય, અર્થાત્ જેનું ધાવણ હોય તે વસ્તુને સ્વાદ ન આવતો હાય, જેના વર્ણ રસ ગધ સ્પર્શ ન બદલાયા હેય-સર્વથા અચિત્ત ન થયું હોય, શસ્ત્રપરિણત ન હોય, તે તે ગ્રહણ ન કરે જે સુરતનું છે એવું ન હોય બહુ વખતનું ઘેલું હોય, સ્વાદથી ચલિત થયું હોય, અને શસ્ત્રપરિણત હોય તે Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० . . श्रीदशवैकालिकसूत्रे " . जाणेज्जा तंजहा-तिलोदगं वा तुसोदगं वा जवोदगं वा आयामं वा सोवीरं वा सुद्धवियर्ड वा अण्णयरं वा तहप्पगारं पाणगजायं पुवामेव आलोएज्जा-आउसोत्ति वा० ७। से भिक्खू वा२ जाव समाणे से जं पुण जाणेज्जा तंजहा-अंवपाणगं वा अंबाडगपाणगं वा कविठ्ठपाणगं वा मातुलिंगपाणगं वा मुद्दियापाणगं वा दालिमपाणगं वा खज्जूरपाणगं वा नालिकेरपाणगं वा करीरपाणगं वा कोलपाणगं वा आमलगपाणगं वा चिंचापाणगं वा अन्नयरं वा तहप्पगारं पाणगजायं" इत्यादि। उक्तं दिगम्बराचार्येण वट्टकेरस्वामिनाऽपि मूलाचारेतुषोदकं वा यवोदकं वा आयामं वा सौवीरं वा शुद्धविकृतं वा अन्यतरत् वा तथाप्रकारं पानकजातं पूर्वमेव आलोचयेत्-आयुष्मन् ! इति वा ७ । अथ भिक्षुर्वार यावत् अनुपविष्टः सन् स यत्पुनर्जानीयात् , तद्यथा-आम्रपानकं वा आम्रातकपानकं वा कपित्थपानकं वा मातुलुङ्गपानकं वा मृद्वीकापानकं वा दाडिमपानकं वा खजूरपानकं वा नालिकेरपानकं वा करीरपानकं वा कोलपानकं वा आमलपानकं वा चिश्चापानकं वा, अन्यतरद्वा तथाप्रकारं पानकजातम्” इत्यादि । और शस्त्रपरिणत हो तो ग्रहण करे । तिलोदक, तुषोदक, यवोदक, ओसामण, सोवीर (अगछण), उष्णोदक तथा इस प्रकारका और भी पानी गृहस्थका दिया हुआ कल्पता है। साधु यदि आमका धोवन, अंबाडगका धोवन, कविठ (कैथ)का धोवन, बिजौरेका धोवन, द्राक्षका धोवन, अनारका धोवन, खजूरका धोवन, नारियलका पानी (धोवन), केरका धोवन, वेरका धोवन, आँवलेका धोवन, इमलीका धोवन, अथवा इस प्रकारका और भी धोवन जाने और यदि वह अत्यम्ल न हो. तुरतका धोया हुआ न हो, स्वादचलित हो और शस्त्रपरिणत हो तो कल्पता है।" दिगम्बराचार्य वट्टकेर-स्वामीने भी मूलाचारमें कहा हैગ્રહણ કરે તિલેદક, તુષાદક, યદક, ઓસામણ, વીર, ઉષ્ણદક તથા એ પ્રકારનું બીજું પણ પાણી ગૃહસ્થ આપેલ હોય તે કલ્પ છે જે સાધુ કેરીનું धावण, मा1 (मनाणियानु) धापा, तानु धावाणु, भानु धावर, દ્રાક્ષનું વણ, અનારનું ધાવણ, ખજૂરનું ઘણુ, નારિયેળનું પાણી (વણ), કેરાનું ધાવણ, બેરનું ધોવણ, આબળાનું ધોવણ, આંબલીનું ધાવણ, અથવા એ પ્રકારનું બીજુ પણ ધોવણ જાણે અને જે તે બહુ અશ્લ (ખાટું) ન હોય, સુરતનું ઘોએલું ન હોય, સ્વાદચલિત હોય અને શસ્ત્રપરિણત હોય તે કપે છે” દિગારાચાર્ય વટ્ટકેર સ્વામીએ પણ મૂલાચારમાં કહ્યુ છે – Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ७६-७७ - पानग्रहणविधिः १" तिलतंडुल- उसणोदय, चणोदय-तुसोदय- अविद्धत्थं । अण्णं तहाविदं वा, अपरिणदं णेव गेण्डिज्जा || ४७३ ||" इति । इति गाथार्थः ॥७५ || तर्हि कीदृशं पानं गृह्णीयात् ? इत्यत आह- 'जं जाणेज्ज' इत्यादि, 'अजीवं' इत्यादि च । ७ ८ 3 मूलम्-जं जाणेज चिराधोयं, मईए दंसणेण वा । ४ ૫ ↑ ૧૦ ૧૧ ૧૨ ૧૩ पडिपुच्छिऊण सुच्चा वा, जं च निस्संकियं भवे ॥७६॥ ૧૪ ૧૫ ૧૬ ૧૮ ૧૭ अजीवं परिणयं नच्चा, पडिगाहिज्ज संजए । ૧૩ २० ૨૧ २२ २३ अह संकियं भविज्जा, आसाइत्ताण रोयए ॥७७॥ ४७१ छाया - यज्जानीयाचिराद्धौतं, मत्या दर्शनेन वा । प्रतिपृच्छय श्रुत्वा वा, यच्च निश्शङ्कितं भवेत् ॥ ७६ ॥ अजीवं परिणतं ज्ञात्वा, प्रतिगृह्णीयात्संयतः । अथ शङ्कितं भवेत्, आस्वाद्य रोचयेत् ॥७७॥ सान्वयार्थ :- मईए = बुद्धिसे वा= अथवा दंसणेण = देखने से पडिपुच्छिकण = छाया - १ तिलतण्डुलोष्णोदकं चणकोदकं तुषोदकम् अविध्वस्तम् । अन्यत् तथाविधं वा, अपरिणतं नैव गृह्णीयात् ||४७३ || " तिलोदक, तन्दुलोदक, उष्णोदक, चनेका पानी, तुषका पानी, तथा इस प्रकारका और भी जल यदि अविध्वस्त (सचित्त) हो और शस्त्रपरिणत न हो तो ग्रहण नहीं करना चाहिए अर्थात् शस्त्रपरिणत हो तो ना कल्पता है ||१|| " (मूलाचार गा. ( ४७३ ) ॥ ७५ ॥ कैसा घोवन ग्रहण करना चाहिए ? सो बताते हैं- 'जं जाणेज्ज ' इत्यादि, 'अजीवं ' इत्यादि । ८८ तिमोह, तन्दुबो, लोह, यागानुं पायी, तुषनु પ્રકારનૢ ખીજુ પણ જળ જો અવિધ્વંસ્ત (સચિત્ત ) હાય અને હાય તા ગ્રહણ કરવું ન જોઇએ. અર્થાત્ શસ્ત્રપરિત હૈાય તે ( भूसायार जा ४७३) (७५) वुधोवायु ग्रह ४२ ले ? ते जतावे छे :- जं जाणेज्ज० छत्याहि, તથા અનીયં ઇત્યાદિ पाएगी, तथा खे અપરિષ્કૃત ન લેવુ ક૨ે છે Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे पूछकर वा = अथवा सुच्चा = बात करते हुए सुनकर जं-जिस घोवनको चिराघोयं = चिरधौत-बहुत देरका धोया हुआ जाणेज्ज=जाने, च =तथा जं=जो निस्संकियं = 'इससे तृषा शान्त होगी या नहीं ?' इस प्रकारकी शङ्कारहित भवे = हो तो उसे अजीवं जीवरहित-अचित्त और परिणयं शस्त्रपरिणत नच्चा = जानकर संजए= साधु पडिग्गाहिज्ज = लेवे; अह-अथ - अगर वह संकियं = ' इस से तृषा बूझेगी या नहीं ?' इस प्रकारकी शङ्कासे युक्त भविज्जा हो तो उसे आसाइत्ताणचखकरके रोयए निर्णय करे ॥ ७६ ॥ ७७ ॥ " टीका - मत्या बुद्ध्या दर्शनेन दृष्ट्या वा धौतजले तदीयवर्णादिपरिज्ञानाय तत्राऽऽगमानुगामिन्या मनीषया दृष्टिनिपातेन वेति भावः प्रतिपृच्छय= सम्यक् पृष्ट्वा श्रुत्वा वा तत्पतिवचनं प्रश्नमन्तरेणाऽपि कस्यचिन्मुखाद्वा निशम्य यत् चिराata जानीयात् यच्च निश्शङ्कितम् = अनुपयोगित्वशङ्कारहितं भवेत् तद् अजीवं=मासुकं परिणतं = स्वपरशस्त्रादिनाऽवस्थान्तरं प्राप्तं ज्ञात्वा संयतः = साधुः प्रतिगृह्णीयात् । ये तु ' घटिकाद्वयानन्तरं धावनजलं सचित्तं भवतीति मुहूर्त्तात्परं तत्तोयमनुपादेय' मित्याहुः, तन्न समीचीनम्, व्यञ्जनाद्युपलिप्तकरदधावनार्थं पाकमदेशे पूर्व आगमानुसार बुद्धि अथवा दृष्टिसे धोवनका वर्ण आदि जान कर पूछ कर अथवा किसी से सुन कर धोवन बहुत देरका धोया हुआ हो तो ग्रहण करे | तथा 'उपयोगी है या अनुपयोगी ? इस प्रकारकी शंकाका निर्णय करके प्रासु तथा अवस्थान्तरको प्राप्त होगया जानकर साधु ग्रहण करे । जो लोग यह कहते हैं कि-' धोवन जल दो घड़ीके बाद सचित्त होनेसे अग्राह्य है ' यह उनका कहना ठीक नहीं, क्योंकि, यदि दो घड़ीके बाद धोवन जल सचित्त हो जाय तो शाक आदिसे लिप्त हाथ આગમાનુસાર બુદ્ધિ અથવા દૃષ્ટિથી ધાવણુને વદિ જાણી-પૂછીને અથવા કેાઇ પાસેથી સાભળીને ધાવણુ બહુ વખતથી ધાએલુ હાય તા તે ગ્રહણ કરે તેમજ ઉપયેગી છે કે અનુપયેગી ?' એ પ્રકારની શંકાના નિર્ણય કરીને પ્રાત્સુક તથા અવસ્થાતરને પ્રાપ્ત થએલું જાણીને સાધુ તે ગ્રહણ કરે ८ જે લેાકેા કહે છે કે- ધાવણુનુ પાણી બે ઘડી પછી ચિત્ત હાવાથી અગ્રાહ્ય છે ’ તે તેમનુ કહેવાનું ખરાખર નથી, કારણ કે જો બે ઘડી પછી ધાવણુનુ જળ ચિત્ત થઇ જાય તે શાક આદિથી ખરડાયલા હાથ યા કડછી-આદિ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ७६-७७ - पानग्रहणविधिः ] स्थापितजलस्य मुहूर्त्तानन्तरं तन्मते सचित्ततायां तदानीं तदुदकक्षालितकरदयदिना निरवद्याशनग्रहणमपि तेषां दोषावहं भवेत्, तत्संमतसचित्तजल संसृष्ट करदवसंसर्गवत्त्वात् । मुहूर्तात्परमेव धावनजलस्य सचित्तत्वाङ्गीकारे 'अणाधोयं विवज्जए' इति प्रकृतसूत्रस्य ' जं जाणेज्ज चिराधोयं ' इति प्रकृतसूत्रस्य च विरोधापत्तिः, तथाहि - अधुनाधौ तस्य मुहूर्त्तान्तर्गततया तत्र तन्मते सचिचताया अभावे तद्वर्जनोपदेशाऽसङ्गतिः, चिराद्धौतस्य च मुहूर्त्तानन्तरं तन्मते सचित्ततया तदुपादानोपदेशस्य चासङ्गतिः स्यात्, तस्मात् पिपासापनोदनशक्तिशालिनश्चिराद्धौतस्य ग्रहणं शास्त्रसंमतमित्यत्रधेयम् । ४७३ या कुडछी आदि धोनेके लिए गृहस्थ (रसोया) रसोईके समय अपने पास एक पानीका बर्तन रखता है, उस जलसे हाथ और कुडछी घो धो कर दाल आदि परोसता है, ऐसी दशा में उक्त मतसे देर तक रक्खे रहने के कारण यदि वह हाथ या कुडछी आदिका धोवन सचित्त हो जाता है तो उस धोवनमें धोयी हुई कुडछी या हाथसे दिया जानेवाला निरवद्य अन्नादि भी उनको अग्राह्य हो जायगा । 'तहेवुचावयं ' इस गाथाके अन्तिम चरणमें 'अहुणाधोयं विवज्जए' यह कह कर भगवानने यह स्पष्ट कर दिया है कि तुरतका धोया हुआ जल अग्राह्य है, और इसीको 'बिद्ध सुबद्धं भवति' इस न्याय से 'जं जाणेज्ज चिराधोयं ' इस गाथासे सुस्पष्ट कर दिया है कि देरका घोया हुआ धोवन ग्रहण करना चाहिए । अतः दो घड़ीके बाद धोवनमें जीवोंकी उत्पत्ति मानना जैनागमसे विरुद्ध है और उत्सूत्र- प्ररूपणाका भागी बनना है । ધાવાને માટે ગૃહસ્થ (રસેર્ચા) રસાઈને સમયે પોતાની પાસે પાણીનું એક વાસણ રાખે છે, એ જળથી હાથ અને કડછી ધાઈ–ધાઈને દાળ આદિ પીરસે છે, એવી દશામા ઉકત મત પ્રમાણે કેટલાક સમય સુધી રહેલું હાવાને કારણે જો એ હાથ યા કડછી આદિનું ધાવણુ સચિત્ત થઇ જાય તેાએ ધાવણમા ધાએલી કડછી યા હાથથી આપવામા આવતુ નિરવદ્ય અન્નાદિ પણ એમને અગ્રાહ્ય મની नय तहेवुच्चावयं मे गाथाना अतिभ यरभा अहुणाधोयं विवज्जए એમ કહીને ભગવાને એ સ્પષ્ટ કરી આપ્યુ છે કે તુરતનું ધેાએલુ જળ અગ્રાહ્ય छे, भने ने द्विर्वद्धं सुबद्धं भवति मे न्याये ने जं जाणेज्ज चिराधोयं ગાથાથી સુસ્પષ્ટ કરી આપ્યુ છે કે કેટલાક સમય પહેલાંનું ધાએલુ ધાવણુ ગ્રહણ કરવુ જોઇએ એટલે એ ઘડી પછી ધેાવણમાં જીવાની ઉત્પત્તિ માનવી એ જૈનાગમથી વિરૂદ્ધ છે અને ઉત્સૂત્રપ્રણાના ભાગી ખનવુ છે Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकसूत्रे अथ शङ्कितं = 'पिपासाऽपनोदकं न वा ?' इति संशयविषयो भवेत्तदा आस्वाद्य= उक्त संशयापनोदयार्थं किञ्चित्पीत्वा रोचयेत् = निर्णयेत् ॥ "अजीव " - मित्यनेन जीवराहित्यं 'परिणत'- मित्यनेन च सर्वथाऽचित्तत्वं सूचितम् ॥७६॥७७॥ आस्वादनविधिं प्रदर्शयन् निर्णयप्रकारमाह - 'थोव० ' इत्यादि । ४७४ ૫ 3 मूलम्-थोबमासायणद्वाए, हत्थगम्मि दलाहि मे । ૧૨ ૧૧ ७ ૧૦ ८ ૯ मा मे अच्चं बिलं पूयं, नालं तिहं वित्तिय ॥७८॥ छाया --- स्तोकमास्वादनार्थे, हस्तके देहि मे । मा मे अत्यम्लं पूति, नालं तृष्णां विनेतृम् ॥७८॥ सान्वयार्थः- ( निर्णय करनेके लिए साधु दाता से कहे कि - हे आयुष्मन् ! ) आसायणट्ठाए = चखनेके लिए थोवं थोड़ासा धोवन मे = मेरे हत्थगम्मि = हाथमें rofect, (हाथ में लेकर चखने पर यदि निश्वय हो जाय कि वह घोवन ) अचविले = अत्यन्त खट्टा पूयं दुर्गन्धित और तिन्ह= प्यास विणित्तए = बुझानेके लिए नाल = समर्थ नहीं है इसलिये यह मे= मेरे लिए उपयोगी मा नहीं है ॥ ७८ ॥ तथा 'इससे प्यास मिट जायगी या नहीं ?' ऐसा सन्देह उत्पन्न हो जाय तो उस सन्देहको दूर करनेके लिए थोड़ासा पानी चख कर निर्णय करे । 'अजीव ' पदसे जीवराहित्य और 'परिणयं ' पदसे मिश्रकी शंकाका अभाव सूचित किया है || ७६ ॥ ७७ ॥ आस्वादन ( चखने) की विधि बताते हुए निर्णय करनेका प्रकार बताते हैं-' धोव० ' इत्यादि । તેમજ ૮ એથી તરસ મટશે કે નહિ ?’ એવા સંદૅડ ઉત્પન્ન થાય તે એ સદેહ દૂર કરવાને થોડું પાણી ચાખીને નિર્ણય કરવા બનીય શબ્દથી જીવાહિત્ય અને પર્યં શબ્દથી મિશ્રની શંકાને અભાવ સૂચિત કર્યો છે ( ૭૬-૭૭ ) આસ્વાદન (ચાખવા)ની વિધિ ખતાવતા નિણુંય કરવાના પ્રકાર મતાવે छे-धोत्र० छत्याहि Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ७८-८१ - पानग्रहणविधिः ४७५ टीका—आस्वादनार्थम्-उपयोगित्वाऽनुपयोगित्वज्ञानार्थं स्तोकं स्वल्पं तिलतण्डुलादिजलं मे मम हस्ते 'देहि' इति दात्रीमुद्दिश्य वदेदिति भावः । तद्दत्तं धौतजलमास्वाद्य निश्चिनुयात् इदम् अत्यम्लं पूति = अनिष्टगन्धयुक्त तृष्णां = पिपासां विनेतुम्=अपाकर्त्तुं नालं=न समर्थम्, इति मे मम मा= नहि उपयोगीति शेषः ॥७८॥ निश्चयानन्तरं कर्त्तव्यमाह - 'तं च' इत्यादि । ૧ ૨ 3 ४ ৬ ૫ मूलम्-तं च अच्चंबिलं पूयं, नालं तिन्हं विणित्तए । ૧૧ ૧૨ ૧૩ ૧૦ दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ७९ ॥ छाया - तच्चाऽत्यम्लं पूति, नालं तृष्णां विनेतुम् । ॥७९॥ ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥ ७९ ॥ तब वह साधु क्या करे 2, सो बताते हैंसान्वयार्थः- अच्चंबिलं=अत्यन्त खट्टे पूयं दुर्गन्धियुक्त और तिन्ह विणित्तए नालं= प्यास मिटानेके लिए असमर्थ तं च-उस धोवनको दितियं = देनेवालीसे साधु पडियाइक्खे = कहे कि तारिस - इस प्रकारका घोवन मे = मुझे न कप्पड़ नहीं कल्पता है ||७९ || टीका — तच्च धौतजलमत्यस्लं पूति तृष्णां विनेतुं नालमिति ददतीं प्रत्याचक्षीत - तादृशं मे न कल्पते इति ॥ ७९ ॥ 'धोवन उपयोगी है या नहीं ?" इस शंकाका निवारण करने के लिए देनेवाली बाईसे साधु कहे कि - ' मेरे हाथमें थोड़ासा पानी दो ।' उस दिये हुए धोवनका आस्वादन करके निश्चय करे कि - 'यह बहुत खट्टा है, दुर्गन्धवाला है, प्यास शान्त करने के लिए समर्थ नहीं है अतः मेरे लिए उपयोगी नहीं है ॥ ७८ ॥ ' ऐसा निश्चय करके क्या करना चाहिए ? सो कहते हैं - तं च' इत्यादि । उस बहुत खट्टे, दुर्गन्धित और प्यास बुझानेमें असमर्थ घोवनको देनेवाली बाईसे कहे कि ऐसा धोवन मुझे नहीं कल्पता है ॥ ७९ ॥ ધાવણ ઉપયાગી છે કે નહિ ?” એ શકાનું નિવારણ કરવાને માટે ધાવણુ આપનારી ખાઇને સાધુ કહે કે “મારા હાથમાં ઘેાડું પાણી આપે ’ એ આપેલા ધાવણુનું આસ્વાદન કરીને નિશ્ચય કરે કે ‘આ હુ ખાટું છે, દુર્ગંધ વાળુ છે, તરસ શાંત કરવા માટે સમર્થ નથી, તેથી મારે માટે ઉપયેગી નથી ' (૭૮) " એવા નિશ્ચય કરીને શુ કરવું જોઇએ? તે હવે કહે છે-તું ૬૦ ઇત્યાદિ એવા અહુ ખાટા, દુર્ગંધિત અને તરસ છીપાવવામા અસમર્થ ધાવણને આપનારી ખાઇને સાધુ કહે કે એવું ધાવણુ મને કલ્પતુ નથી (૭૯) Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४७६ श्रीदशवकालिकसूत्रे । मूलम्-तं च होज्ज अकामेणं, विमणेण पडिच्छियं । तं अप्पणा न पिबे, नो वि अन्नस्स दावए ॥०॥ छाया-तच्च भवेद् अकामेन, विमनसा प्रतिगृहीतम् । तद् आत्मना न पिवेत्, नो अपि अन्यस्मै दापयेत् ॥८०॥ सान्वयार्थः-तं-वह उस प्रकारका धोवन यदि अकामेणं-विना इच्छासे दाताके अनुरोधसे च=तथा विमणेणं-मनके दूसरी तरफ होनेके कारण पडिच्छिय-लेलिया गया हो तो तं-उस धोवनको न-न तो अप्पणा अपने खुद पिवेपिये और नोन अन्नस्स अवि-दूसरोंकोभी दावए देवे ॥८०॥ टीका-'तं च' इत्यादि। तच्च धौतजलं यदि अकामेन स्वानिच्छया, दाभ्यनुरोधेनेति भावः; विमनसा अन्यमनस्कतया, 'हेतौ तृतीया' प्रतिगृहीतं तद् आत्मना स्वयं न पिवेद नो अपि अन्यस्मै दापयेत् ॥८०॥ तर्हि किं कुर्यात् ? इत्याह-'एगंत०' इत्यादि । मूलम्-एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेहिया। जयं परिढविज्जा, परिठ्ठप्प पडिक्कमे ॥ ८१ ॥ छाया-एकान्तमवक्रम्याऽचित्तं प्रत्युपेक्ष्य । ___यतं परिष्ठापयेत् , परिष्ठाप्य प्रतिक्रामेत् ।। ८१ ॥ उस धोवनका क्या करे ? सो वताते हैं सान्वयार्थः-एगतं एकान्त स्थानम अवक्कमित्ता-जाकरके अचित्तं-एके न्द्रियादिमाणीरहित अचित्त स्थानको पडिलेहिया पूंजकर उस धोवनको जयं 'तं च' इत्यादि । यदि ऐसा पानी अनिच्छापूर्वक दाताके अनुरोधसे अथवा विना ध्यानसे ग्रहण कर लिया हो तो स्वय उसे न पिये और न दुसरेको पिलावे ॥ ८०॥ फिर क्या करे सो कहते हैं-'एगंत०' इत्यादि । तं च त्यादि ने सयु पाए भनिछापू हाताना मनुरोधथी अथवा બે-ધ્યાનથી ગ્રહણ કરી લીધુ હોય તે પિતે તે ન પીએ અને ન બીજાને पीपावे. (८०) पछी शु ४३ ते ४ छ-एगंत. त्या Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ५ उ. १ गा. ८२-८३-कारणे गोचर्यो भोजनविधिः ৪৩৩ यतनासे परिहविज्जा-परिठवे-डाले, परिदृप्प परिठवके आकर पडिक्कमे इरियावहिया पडिकमे-करे ॥८१॥ ___टीका-एकान्तं विविक्तपदेशम् , अवक्रम्य गत्वा तत्र अचित्तम् एकेन्द्रियादिमाणिवर्जितं प्रत्युपेक्ष्य-निरीक्ष्य यत-सयत्नं यथास्यात्तथा परिष्ठापयेत्, सविधि “वोसिरे" इति त्रिरुच्चार्य व्युत्सृजेत् । परिष्ठाप्य परिष्ठापनानन्तरं ग्रामादहिरवहिर्वाऽऽसन्नभूमिमागत्य प्रतिक्रामेत् ऐर्यापथिकी कुर्यात् ॥८१॥ अशनपानग्रहणविधेरनन्तरं भोजनविधिमाह-'सिया' इत्यादि, 'अणुन्नवित्तु' इत्यादि च । मूलम्-सिया य गोयरम्गगओ, इच्छिज्जा परिभुत्तुङ । कुडगं भित्तिमूलं वा, पडिलेहिताण फासुयं ॥८२॥ अणुन्नवितु मेहावी, पडिच्छन्नम्मि संवुडे । ૧૮ ૧૯ ૧૫ हत्थगं संपमज्जित्ता, तत्थ भुजिज्ज संजए ॥३॥ छाया-स्याच गोचराग्रगतः इच्छेत् परिभोक्तुम् कोष्ठकं भित्तिमूलं वा, प्रत्युपेक्ष्य प्रामुकम् ॥८२॥ अनुज्ञाप्य मेधावी, प्रतिच्छन्ने संहते । हस्तकं संप्रमृज्य तत्र भुञ्जीत संयतः ॥८३॥ एकान्त स्थानमें जाकर एकेन्द्रिय आदि प्राणियोंसे रहित स्थान देखकर यतनापूर्वक "वोसिरे" ऐसा तीन बार उच्चारण करके परिठवे। परिठचनेके पश्चात् गाँवमें या गाँवके बाहर ठहरनेके स्थान पर आकर इरियावहियाका प्रतिक्रमण करे ॥८१॥ अशन-पान ग्रहण करने की विधि बतानेके बाद आहार करनेकी विधि बताते हैं-'सिया य' इत्यादि, 'अणुन्नवित्तु' इत्यादि । એકાત સ્થાનમાં જઈને એકેન્દ્રિય આદિ પ્રાણુઓથી રહિત સ્થાન જોઈને यतनापू' 'वोसिरे से त्रएवा२ रन्यारण ४शन परिसवे परिहया पछी ગામમા યા ગામની બહાર રહેવાના સ્થાન પર આવીને ઈરિયાવહિયાનું प्रतिभएर ४२ (८१) અશન–પાન ગ્રહણ કરવાની વિધિ બતાવ્યા બાદ આહાર કરવાની વિધિ सतावे छे-सिया य एत्यादि तथा अणुन्नवित्तु त्यादि. Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ श्रीदशवकालिकसूत्रे सान्वयार्थ:-गोयरग्गगओ-गोचरीमें गया हुआ मेहावी-सामाचारीका जानकार संजए-साधु सिया य-कदाचित् अगर वाल्यावस्थाके अथवा ग्लानपनेके कारण वहीं परिभुत्तुळं आहार करना इच्छिज्जा-चाहे तो वहां फासुयंप्रामुक-एकेन्द्रियादिमाणी रहित कुटुगं-कोठेको वा अथवा भित्तिमूलं भीतके समीपके स्थानको पडिलेहिताण-पूंजकर तथा दृष्टि से देखकर अणुन्नवित्तु= गृहस्थकी आज्ञा मांगकर तत्थ-वहां पडिच्छन्नम्मि-ऊपरसे छाये हुए और संवुडे चारों तर्फसे घिरे हुए स्थानमें हत्थगं-हाथोंको अथवा अपने शरीरको संपमज्जित्ता-पूंजकरके (साधु) भुंजिज्ज आहार करे ॥८२॥८३॥ टीका-स्याच्च कदाचित् गोचराग्रगतः भिक्षामनुपविष्टो मुनिः, वाल्य-ग्लानत्व-पिपासादिकारणवशात्परिभोक्तुमिच्छेत् तदा प्रामुकम्=एकेन्द्रियादिमाणिविवर्जितं कोष्ठकम् अन्तर्ग्रहादिकं वा अथवा भित्तिमूलं कुडत्यसमीपवर्तिप्रदेशं प्रत्युपेक्ष्य-दृष्टया विलोक्य अनुज्ञाप्य तत्स्वामिनोऽनुज्ञामादाय तत्र प्रतिच्छन्ने ऊर्ध्वतस्तृणादिभिराच्छादिते, सहते-समन्तत आटते किन्तु प्रकाशयुक्त प्रदेशे, यद्वा 'संवृतः' इति प्रथमान्तं संयतस्य विशेषणं तेन, मेधावी साधुसामाचारीकुशलः संयतः साधुः संवृतः मनोवाक्कायगुप्तः सन् हस्तकं हस्तौ संप्रमृज्य संशोध्य, अथवा 'हस्तकम्' इति तृतीयार्थ प्रथमा, तथा च-हस्तकेन-इस्तं कायतिधातूना यदि भिक्षाके लिए गये हुए भिक्षुको बालकपन, ग्लानता अथवा प्यास आदि किसी कारणसे आहार करनेकी इच्छा हो जाय तो वहाँ प्रासुक कोठा अथवा भीतके पास कोने आदिकी प्रतिलेखना करके मकानके स्वामीकी आज्ञा लेकर ऊपरको तृण आदिसे छाये हुए चारों ओरसे बन्द किन्तु प्रकाशयुक्त स्थानमें स्थित होकर मन वचन कायकी सम्यक् प्रकार प्रवृत्ति करता हुआ साधुसामाचारीका ज्ञाता मुनि हाथोंको જે ભિક્ષા માટે ગએલા ભિક્ષુને બાળકપણ, ગ્લાનતા અથવા તરસ આદિ કઈ કારણે આહાર કરવાની ઈચ્છા થઈ જાય તે ત્યાં પ્રાસુક કેકે અથવા ભી તની પાસે ખૂણા આદિની પ્રતિલેખના કરીને મકાનના સ્વામીની આજ્ઞા લઈને ઉપર ઘાસ આદિથી છાએલા ચારે બાજુથી બંધ પરનું પ્રકાશયુક્ત કથાના મહીને મન વચન કાયાની સમ્યક્ પ્રકારે પ્રવૃત્તિ કરતાં સાધુ-સમાચારીને જ્ઞાતા મુનિ હાથને પ્રમાજિત કરીને સાફ કરીને) યા હસ્તક (હસ્તગત રજોહરણ)થી Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ८२-८३-कारणे गोचर्या भोजनविधिः ४७९ मनेकार्थत्वात्मामोतीति हस्तकम् , ('आतोऽनुपसर्गे का' इति कमत्ययः,) रजोहरणं तेन, तस्य धारणे हस्तस्य सर्वथा निमित्तत्वात् , प्रायः कक्षप्रदेशे धारणेऽपि इस्ताश्रयं विना तदीयधारणासम्भवाच । संप्रमृज्य-तत्स्थानं कायं च संशोध्य भुञ्जीत अभ्यवहरेत् । ___यत्तु “हस्तकं मुखवस्त्रिकारूपमादाय तेन कार्य संप्रमृज्य" इति व्याख्यातं तदयुक्तं, 'हस्तक' पदार्थस्य 'संप्रमृज्य' पदार्थेऽन्वयसम्भवे आदाये-ति पदान्तराक्षेपपूर्वकमन्यपदार्थेऽन्वयकल्पनाया अनौचित्यात् । किश्च कोप-व्याकरणादिषुहि हस्तकशब्दो मुखबस्त्रिकारूपेऽर्थे न दृश्यते । शास्त्रेऽपि-"मुहपत्तिं पडिलेहित्ता" इत्यादि दृश्यते न तु 'हत्थगं' पडिलेहिता' इत्यादि । ____ यच्च-"विधिना तेन मुखवस्त्रिकारूपेण हस्तकेन कार्य प्रमृज्य तत्र भुञ्जीत" प्रमार्जित (साफ) करके या हस्तक अर्थात् हस्तगत रजोहरणसे काय और स्थानकी प्रमार्जना करके आहार करे । किसी-किसीने 'हस्तकं संप्रमृज्य' का ऐसा अर्थ किया है कि 'मुखवस्त्रिका लेकर उससे शरीर-प्रमार्जना करे' ऐसा अर्थ करना ठीक नहीं है, क्योंकि मुखवस्त्रिकाके साथ प्रमार्जन करनेका सम्बन्ध मिलते न देख उन्हें एक 'आदाय' शब्द (लेकर) अपनी ओरसे मिला दिया है। इस प्रकार सम्बन्ध मिलाना उचित नहीं है। इसके सिवाय कोषोंमें कहीं 'हस्तक' शब्दका अर्थ मुखवस्त्रिका नहीं किया है और न व्याकरणमें ही ऐसा देखाजाता है। आगमोंमें 'मुहपत्ति पडिलेहित्ता' इत्यादि पद देखे जाते हैं, किन्तु 'हत्थगं पडिलेहिता' कहीं नहीं देखा जाता। तथा "मुखवस्त्रिकारूप हस्तकसे कायकी प्रमार्जना करके आहार करे" કાયા અને સ્થાનની પ્રમાર્જના કરીને આહાર કરે કેઈકેઈએ ત સંઘપૃષચ ને એ અર્થ કર્યો છે કે- મુખવશ્વકા લઈને તેથી શરીરની પ્રાર્થના કરે, પણ એ અર્થ કરે એ બરાબર નથી, કારણ કે મુખવસ્ત્રિકાની સાથે પ્રમાર્જન કરવાને સ બ ધ મળતો નહિ જેવાથી તેમણે એક ગાય શબ્દ (લઈને) પોતાની તરફથી મિલાવી દીધું છે આ પ્રમાણે સ બ ધ મિલાવી દે એ ઊંચત નથી વળી કેમાં કયાય “હસ્તક” શબ્દને અર્થ મુખવસ્ત્રિકા કર્યો નથી અને વ્યાકરણમાં પણ એ અર્થ જેવામા આવતું નથી, આગામા મુર્તિ પરિદત્તા ઈત્યાદિ પદ જોવામાં આવે છે, डिन्तु हत्थगं पडिलेहित्ता ४याय नपामा मातु नथी તથા “ મુખવસ્ત્રિકારૂપ હસ્તકથી કાયની પ્રમાર્જના કરીને આહાર કરે” Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० श्रीदशवैकालिकसूत्रे इति व्याख्यातं तदप्ययुक्ततरम् । हस्ते मुखवस्त्रिकाधारणे मुखवत्रिकाधारणोद्देश्यभू- . तायाः मूक्ष्मव्यापिसम्पातिमवायुकायादिजीवहिंसानिवृत्तेरसिद्धया मुखवत्रिका मुख एव धारणीयेत्याशयस्य जागरूकत्वात् , अत एव भगवतापि सूक्ष्मव्यापिसम्पातिमवायुकायादिजीवाऽयतनानिवृत्तये मुखोपरि धारणीयसदोरकाप्टपुटमुखप्रयाणवस्त्रखण्डरूपेऽर्थे मुखवत्रिकाशब्दः प्रयुक्तो, न तु हस्तवत्रिकाशब्द इति कथमपि हस्तकशब्देन मुखवस्त्रिकारूपोऽर्थों न लभ्यते । एवं च तेन कायप्रमार्जनकथनं सर्वथाऽऽगमविरुद्धमेवेति बोध्यम् ॥८२॥८३॥ __ ऐसी व्याख्या करना भी अत्यन्त अयुक्त है, क्योंकि मुखवस्त्रिका धारण करनेका प्रयोजन सूक्ष्म, व्यापी, सम्पातिम तथा वायुकाय आदि जीवोंकी हिंसाका परिहार करना है। मुखवस्त्रिकाको हाथमें रखनेसे उक्त प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। इससे यह सिद्ध होता है कि मुखवस्त्रिका मुखपर ही धारण करनी चाहिए । इसलिए मुखके निमित्तसे होनेवाली, सूक्ष्म, व्यापी, सम्पातिम और वायुकाय आदि जीवोंकी विराधनाकी निवृत्तिके लिए मुख पर धारण करने योग्य उस मुखपरिमाण सदोरक और आठ पुड़वाले वस्त्रखण्डको भगवानने 'मुखवस्त्रिका' शब्दसे कहा है, 'हस्तवस्त्रिका' शब्दका प्रयोग कहीं नहीं किया, अत एव 'हस्तक' शब्दसे मुखवस्त्रिकाका अर्थ किसीभी प्रकार नहीं निकल सकता। इस प्रकार 'उससे कायकी प्रमार्जना करना' । यह अर्थ आगमसे सर्वथा विरुद्ध है ॥ ८२ ॥ ८३ ॥ એવી વ્યાખ્યા કથ્વી એ પણ અત્યંત અયુકત છે, કારણ કે મુખવસ્ત્રિકા ધારણ કરવાનું પ્રજન સૂમ, વ્યાપી, સખ્યાતિમ તથા વાયુકાય આદિ જેની હિંસાને પરિહાર કર એ છે મુખવસ્ત્રિકાને હાથમાં રાખવાથી ઉક્ત પ્રયજન સિદ્ધ થતુ નથી એથી એમ સિદ્ધ થાય છે કે મુખવસ્ત્રિકા મુખ પર જ ધારણ કરવી જોઈએ તેથી મુખના નિમિત્ત થનારી સૂક્ષ્મ, વ્યાપી, સાપતિમ અને વાયુકાય આદિ જીની વિરાધનાની નિવૃત્તિને માટે મુખ પર ધારણ કરવા યોગ્ય એ મુખ પરિમાણ દોરા સાથેના અને આઠ પડવાળા વસ્ત્રખંડને ભગવાને “મુખવસ્ત્રિકા” કહી છે, “હરતવસ્ત્રિકા” શબ્દનો પ્રયોગ કર્યો નથી એટલે “હસ્તક” શબ્દથી મુખવર્સિકાને અર્થે કોઈ પણ પ્રકારે નીકળી શકતા નથી. એ રીતે “મુખત્રિ કાચી કાયાની પ્રમાર્જના કરવી” એ અર્થ આગમથી સર્વથા વિરૂદ્ધ છે (૮૨-૮૩) Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૫ १६ १७ अध्ययन ५ उ. १ गा. ८४-८६-आहारगतवीजादिपरिष्ठापनविधिः ४८१ मूलम् तत्थ से भुंजमाणस्स, अट्ठियं कंटओ सिया। तण-कह-सक्करं वावि, अन्नं वावि तहाविहं ॥८॥ ૧૮ ૧૯ तं उक्खिवित्तु न निक्खिवे, आसएण न छड्डए । ૨૧ ૨૦ ૨૨ ૨૩ ૨૪ हत्थेण तं गहेऊण, एगंतमवक्रमे ॥ ८५॥ छाया-तत्र तस्य भुञ्जानस्य, अष्ठिकं कण्टकः स्यात् । तृण-काष्ठ-शर्कर वापि, अन्यद्वापि तथाविधम् ।।८४॥ तद् उत्क्षिप्य न निक्षिपेत्, आस्येन नोज्झेत् । हस्तेन तद् गृहीत्वा, एकान्तमपक्रामेत् ॥८५॥ सान्वयार्थः-तत्थ वहां कोठे आदिमें भुंजमाणस्स आहार करते हुए से उस साधुके (आहारमें) अट्टियं-बीज कंटओ-कांटा तण-तिनका कह-काठ वावि-और सक्करं-छोटा कंकर वा-तथा अन्नं वावि औरभी तहाविहं-उस प्रकारका पदार्थ सिया-आगया हो तो तं-उसे उक्खिवित्तु-निकालकर न निक्खिवे इधर-उधर नहीं डाले, तथा आसएणं-मुख से भी न छड्डए-न फेंकेन यूँके (किन्तु)तं-उसे हत्थेण-हाथसे गहेऊण-लेकर एगंत-एकान्त स्थानमें अवकमे-जावे ॥८४॥८५॥ ___टीका-'तत्थ से' इत्यादि, 'तउक्खिवित्तु' इत्यादिच। तत्र कोष्ठकादिस्थाने भुञ्जानस्य तस्य भिक्षोभॊजने अष्ठिकं-वीजं, कण्टका तीक्ष्णायो दुम-गुल्म-लताद्यङ्गविशेषः, अपिवा तृण-काष्ठ-शर्कर-तृणं च काष्ठं च शर्करा चैतेषां समाहारः। तत्र तृणं-कुशादिक, काष्ठं खदिरादिसमुद्भवं दारु, शर्करा क्षुद्रपापाणखण्डम् । अन्यदपि वा तथाविध तज्जातीयं स्यात् भवेत् तद्-अष्ठिकादिकम् उक्षिप्य न निक्षिपेत्-उत्क्षेपणं कृत्वा यत्र तत्र न क्षिपेत्, आस्येन-मुखेनापि नोज्झेत्-थूत्कृत्य 'तत्थ से' इत्यादि, 'तं उक्खिवित्तु' इत्यादि । उस कोठे आदिमें आहार करनेवाले भिक्षुके भोजनमें बीज, काँटा, तिनका, लकडी, किरकिरी-कंकर या और कोई उस प्रकारकी वस्तु हो तो उसे निकाल कर जहाँ-तहाँ न डाले तथा मुखसे भी न थूके किन्तु उसको हाथमें तत्थ से० छत्याल, तथा त उक्खिवित्तु० ४त्या मे मा माहार કરનારા ભિક્ષુના ભેજનમાં બીજ, કાટા, તણખલાં લાકડું, કાકરી-કાકરા યા એવા પ્રકારની બીજી કઈ વસ્તુ હોય તે તે કાઢી નાખી જ્યા-ત્યાં નાંખે નહિ, તથા Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४८२ । । । श्रीदशवैकालिकसुत्रे न क्षिपेत् । तर्हि किं कुर्यात् ? इत्याह-तद् हस्तेन गृहीत्वा एकान्तमपक्रामेत्गच्छेत् ।।८४||८५॥ मूलए-एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेहिया। जयं परिट्टविजा, परिठ्ठप्प पडिक्कमे ॥ ८६ ॥ १४ छाया-एकान्तमपक्रम्याऽचित्तां प्रत्युपेक्ष्य ।। यतं परिष्ठापयेत्, परिष्ठाप्य प्रतिक्रामेत् ॥८६॥ . एकान्त में जाकर क्या करे ? सो बताते हैं सान्वयार्थ:-एगंतं एकान्त स्थानमे अवक्कमित्ता-जाकरके अचित्तं एकेन्द्रियादिप्राणीरहित अचित्त स्थानको पडिलेहिया-पंजकर उस धोवनको जय% यतनासे परिविज्जा-परिठवे-डाले, परिदृप्प परिठवके आकर पडिक्कमे इरियावहिया पडिकमे-करे ॥८६॥ टीका-'एगंत०' इत्यादि। विजनप्रदेशं गत्वां अचित्तांभूमिं चक्षुषा निरीक्ष्य वीजादिकं सयत्नं व्युत्स्नेत, तदनु स्थानमागत्य प्रतिक्रामेत् ऐर्यापथिकी कुर्यादिति भावः। मूलम्-सिया य भिक्खू इच्छिज्जा, सिज्जमागम्म भुत्तुङ । सपिंडपायमागम्म उंडुअं से पडिलेहिया ॥ ८७ ॥ विणएणं पविसित्ता, सगासे गुरुणो मुणी। ૨૦ ૨૧ ૧૭ ૧૮ રર इरियावहियमायाय, आगओ य पडिकमे ॥ ८८॥ छाया-स्याच्च भिक्षुरिच्छेत्, शय्यामागम्य भोक्तुम् । सपिण्डपातमागम्य, उन्दुकं से (तत्र) प्रत्युपेक्ष्य ॥८७|| लेकर एकान्त स्थानमें जावे ॥ ८४ ॥ ८५॥ 'एगंत०' इत्यादि । एकान्तमें जाकर अचित्त भूमि देख कर वहाँ यतनाके साथ उस वीज काटे आदिको डाले। फिर अपने स्थान पर आकर ईरियावहियाका प्रतिक्रमण करे ।। ८६ ॥ મુખથી પણ ધૂકે નહિ, પરંતુ તેને હાથમાં લઈને એકાન્ત સ્થાનમાં જાય (૮૪-૮૫) Twi૦ ઈત્યાદિ. એકાન્તમાં જઈને અચિત્ત ભૂમિ જોઈને ત્યા યતનાપૂર્વક એ બીજ કાંટા આદિને નાખે પછી પિતાના સ્થાન પર આવીને ઇરિયાવહિયાનું પ્રતિક્રમણ કરે (૮૬) ૧૫ ૧૯ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ८७-८८ - उपाश्रयागतस्य भोजनविधिः विनयेन प्रविश्य, सकाशे गुरोर्मुनिः । ऐर्यापथिकीमादाय, आगतश्च मतिक्रामेत् ||८८ || ४८३ सान्वयार्थः - सिया य= अगर भिक्खू साधु सिज्ज वसति उपाश्रयमें ही आगम्म=आकर भुत्त = आहार करना इच्छिज्जा = चाहे तो सपिंडवायं = भिक्षाके सहित आगम्म= आकर विणणं = 'मत्थरण वंदामि निस्सीहि ' इस प्रकार बोलनेरूप विनयसे पविसित्ता = उपाश्रयमें प्रवेश करके से वहां यं भोजनके स्थानको पडिले हिया = अच्छी तरह देखकर गुरुणो = रत्नाधिकके सगासे= समीप आगओ य= आया हुआ मुणी=मुनि इरियावहियं = इरियावहियाका पाठ आयाय = लेकर पढकर पडिक्कमे = कायोत्सर्ग करे । तात्पर्य यह है कि प्रबल पिपासा आदि खास कारण के विना तो उपाश्रयमें आकर ही साधुको आहार करना चाहिये किन्तु गृहस्थके घरमें नहीं करे ||८७॥८८॥ टीका- 'सियाय' इत्यादि, 'विणएणं' इत्यादि च । भिक्षुः साधुः शय्यां= वसतिं स्यात् एव आगम्य भोक्तुमिच्छेत् । 'अत्र स्यादित्यव्ययमवधारणार्थे तेन 'प्रबलपिपासादिकारणाभावे वसतिं विहायाऽन्यत्र न भोक्तव्य' मिति तात्पर्यं गम्यते । तदा सपिण्डपानं पिण्डपातो - भिक्षालाभस्तेन सहाऽऽगम्य त्रिनयेन = " मत्थएण वंदामि निस्सीहि " इतिपठनलक्षणेन प्रविश्य उपाश्रयमिति शेषः, से= सः, यद्वा सेशब्दो मगधदेशप्रसिद्धः 'तंत्र' शब्दार्थे वर्त्तते तेन से तत्र उन्दुकं = स्थानं प्रत्यु 'सियाय' इत्यादि, ' विणणं' इत्यादि । साधु उपाश्रयमें आकर ही आहार करनेकी इच्छा करे । यहाँ 'स्यात्' अव्यय निश्चयबोधक है इससे यह तात्पर्य प्रगट होता है कि पिपासा आदि किसी प्रबल कारणके विना उपाश्रयके सिवाय अन्यत्र आहार नहीं करना चाहिए । अत एव भिक्षा लाकर " मत्थएण वदामि निस्सीहि ?' यह पाठ उच्चारण करके उपाश्रयमें प्रवेश करे फिर भोजन करनेके स्थानकी सिया य० छत्याहि, तथा विणणं त्याहि साधु उपाश्रयमां भावीने આહાર કરવાની ઇચ્છા કરે, અહીં ચાત્ અવ્યય નિશ્ચયમેાધક છે, તેથી એ તાત્પર્ય પ્રકટ થાય છે કે તરસ આદિ કાઈ પ્રખળ કારણ વિના ઉપાશ્રય સિવાય अन्यत्र भाडार न उरवो लेागो गोटले लिक्षा सावीने मत्थएण वंदामि निस्सीहि એ પાઠે ઉચ્ચારીને ઉપાશ્રયમાં પ્રવેશ કરે પછી ભેજન કરવાના સ્થાનની સમ્યક્ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ श्रीदशैवैकालिकसूत्रे पेक्ष्य = सम्यङ् निरीक्ष्य गुरोः = रत्नाधिकस्य सकाशे आगतश्च मुनिः ऐर्यापथिकीम् “ इच्छामि पडिकमिउं" इत्यादिलक्षणाम् आदाय = पठित्वा प्रतिक्रामेत् = कायोत्सर्ग कुर्यात् ॥८७॥८८॥ तत्र (कायोत्सर्गे किं कुर्यात् ? इत्याह- 'आभोइत्ताण' इत्यादि, 'उज्जुप्पन्नो' इत्यादि च । ૧૦ ७ ૮ e मूलम् - आभोइत्ताण नीसेस, अइयारं जहकमं । २ 3 ४ ૫ ૧ गमणागमणे चेव, भत्ते पाणे य संजए ॥ ८९ ॥ ૧૧ ૧૨ 13 ૧૪ उज्जुपपन्नो अणुविग्गो, अवक्खित्तेण चेयसा । ૧૯ ૧૫ ૬ 1७ ૧૮ आलोए गुरुसगासे, जं जहा - गहियं भवे ॥ ९० ॥ छाया - आभोग्य निश्शेषम्, अतिचारं यथाक्रमम् । गमनागमने चैव, भक्ते पाने च संयतः ॥ ८९ ॥ ऋजुप्रज्ञः अनुद्विग्नः, अव्याक्षिप्तेन चेतसा | आलोचयेद् गुरुसकाशे, यद् यथा गृहीतं भवेत् ॥९०॥ " सान्वयार्थः-संजए=कायोत्सर्गमें रहा हुआ मुनि गमणागमणे = जाने आने में चेव = और भत्ते = आहार य-तथा पाणे = पानीके ग्रहण करनेमे ( लगे हुए ) नीसेसं = सब प्रकारके अइयारं = अतिचारोंको, तथा जं=जो अशनादि जहा = जिस प्रकार गहियं भवे = ग्रहण किया हुआ हो उसे भी, जहक्कमं= यथाक्रमअनुक्रम से आभोत्ताण - उपयोगसहित चिन्तन करके, उज्जुप्पन्नो-सरल बुद्धिवाला अणुविचग्गो = उद्वेगरहित वह मुनि अव्वक्खित्तेण - विक्षेपरहित - एकाग्र चेपसा=चित्त से गुरुसगासे = गुरुके समीप आलोए = आलोवे ॥८९॥९०॥ सम्यक् प्रकार प्रतिलेखना करके दीक्षा में बड़े मुनिके समीप आकर “इच्छामि पडिक्कमिङ " इत्यादि ईरियावहियाका पाठ बोल करके कायोत्सर्ग करे ॥ ८७ ॥ ८८ ॥ कायोत्सर्ग में क्या करना चाहिए सो कहते हैं - ' आभोत्ताण इत्यादि, 'उज्जुप्पन्नो' इत्यादि । " अारे प्रतिझेमना रीने दीक्षामा भोटा भुनिनी सभीये भावाने इच्छामि पडिक मिउं ઇત્યાદિ ઇરિયાહિયાના પાઠ મેલીને કાાત્સર્ગી કરે. (૮૭–૮૮) प्रयोत्सर्गभा शुं २५ लेते हे आभोइत्ताण० त्याहि तथा उज्जुप्पन्नो० ४त्याहि Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ८९-९१-गोचरीगतातिचारालोचनाविधिः ४८५ टीका-संयतः कायोत्सर्गस्थो मुनिः, गमनागमने-गतागते चैव भक्ते पाने च संजातं निश्शेष समग्रम् अतिचारं-मुनिमर्यादालङ्घनलक्षणम् यथाक्रमम् आभोग्य= सोपयोगं विचिन्त्य ऋजुप्रज्ञा-सरलबुद्धिः अनुद्विग्ना-प्रशान्तः, अव्याक्षिप्तन-अव्याकुलेन चेतसा मनसा गुरुसकाशे-शुद्धं प्रमादादिवशेनाऽशुद्धं वा यद् यस्माद् यत्र वा यथा गृहीतं भवेत् तदपि गुरुसमीपे कथयेदित्यर्थः । 'उज्जुप्पन्नो' इत्यनेनाऽकुटिलमतिरेव सम्यगालोचयतीति सूचितम् । 'अणुविग्गो' अनेन क्षुधादिपरिषहजेतृत्वमावेदितम् । 'अव्वक्खित्तेण चेयसा' इत्यनेन 'एकाग्रचित्तेनैवाऽतिचारस्य सम्यक् स्मरणं भवती'-ति स्पष्टीकृतम् ॥८९॥९०॥ कायोत्सर्गमें स्थित होकर गमनाऽऽगमनमें, तथा-आहार पानीके लेनेमें जोअतिचार लगे हों उन सबका क्रमशः चिन्तन करके सरलवुद्धि शान्त-चित्तवाला संयमी व्याकुलतारहित चित्तसे गुरुके समीप आलोचना करे। प्रमाद् आदिके वशसे जहां जैसा शुद्ध या अशुद्ध आहार आदि लिया गया हो वह भी गुरुसे निवेदन करे। 'उज्जुप्पन्नो' पदसे यह सूचित किया है कि कुटिलतारहित वुद्धिवाला ही यथार्थ आलोचना कर सकता है। 'अणुश्विग्गो' पदसे क्षुधा आदि परीषहोंका जीतना प्रगट किया है। 'अव्वक्खित्तेण चेयसा' पदसे यह सूचित किया है कि एकाग्र-चित्तसे ही अतिचारोंका अच्छी तरह स्मरण हो सकता है ॥ ८९ ॥१०॥ કાયેત્સર્ગમાં સ્થિર થઈને ગમનાગમનમાં, તથા આહારપાણી લેવામાં જે અતિચાર લાગ્યા હોય તે સર્વનું ક્રમશ: ચિંતન કરીને સરલબુદ્ધિ શાન્ત-ચિત્તવાળો સયમી વ્યાકુળતા–રહિત ચિત્તથી ગુરૂની સમીપે આલેચના કરે પ્રમાદ આદિને વશ થઈને જ્યા જે શુદ્ધ યા અશુદ્ધ આહાર આદિ લેવામાં આવેલ હોય તે પણ ગુરૂને નિવેદન કરે उज्जुप्पन्नो शvथी मेम सूयित ४२वामां भाव्युछे है दुटिसताडित भुद्धिवास यथार्थ माटोयना ४३॥ श छ, अणुधिग्गो १४थी क्षुधा माहि પરીષહોને જીતવાનું પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે વ્યવિવે ચલી શબ્દથી એમ સૂચિત કર્યું છે કે એકાગ્ર-ચિત્તથી જ અતિચારનું સારી રીતે સ્મરણ થઈ श: छे (८८-८०) Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ,८६ १४ श्रीदशकालिकसूत्रे मूलम् न सम्ममालोइयं हुजा, पुत्विं पच्छा व जं कडं। ११. पुणो पडिक्कमे तस्स वोसट्टो चिंतए इमं ॥९१ ॥ छाया-न सम्यगालोचितं भवेत्, पूर्व पश्चाद्वा यत्कृतम् । । पुनः प्रतिक्रामेत्तस्य, व्युत्सृष्टश्चिन्तयेदिदम् ॥९॥ सान्वयार्थः-जं जो अतिचार पुब्वि-पहले व=तथा पच्छा-पीछे कडंकिया है वह सम्मं सम्यक् प्रकारसे-अच्छी तरह याने-'पहले लगे हुए पापको पहले आलोवे और पीछे लगे हुए पापको पीछे आलोवे' इस प्रकार आलोइयं-आलोचित न कुज्जा नहीं किया हो तो तस्स-उस अतिचारको पुणो फिरसे पडिक्कमे आलोवे, (और) वोसहोकायोत्सर्गमें रहा हुआ साधु इमं= इस- आगे कहा जानेवाला' प्रकार चिंतए-चिन्तन करे ॥९१॥ टीका-'न सम्म०' इत्यादि । यत्-यस्माद्धेतोः पूर्व पश्चाद्वा कृतमतिचारं सम्यक प्राकृतं प्रागालोचितव्यं पश्चात्कृतं च पश्चादालोचितव्यमिति क्रमेण आलोचितं प्रकाशितं न भवेचेदतः तस्य अतिचारस्य (सम्बन्धसामान्ये पष्ठी) पुनः प्रतिक्रामेत् । व्युत्सृष्टः कायोत्सर्गस्थः इदं वक्ष्यमाणं चिन्तयेत् ।।९१॥ तदेवाऽऽह-'अहो' इत्यादि। मूलम्-अहो जिणेहिं असावज्जा, वित्ती साहूण देसिया । मोक्खसाहणहेउस्स, साहुदेहस्स धारणा ॥ ९२॥ 'न सम्म०' इत्यादि । आगे-पीछे किये हुए अतिचारोंकी सम्यक् प्रकार अर्थात् पहले किये हुए अतिचारोंकी पहले और पश्चात् किये हुएकी पश्चात्-आलोचना न की गई हो तो अतिचारोंका पुनः प्रतिक्रमण करना चाहिए और कायोत्सर्गमें स्थित होकर ऐसा ( अगली गाथामें कहे जानेवाला) विचार करे ॥२१॥ उसी विचारको कहते हैं-'अहो' इत्यादि । न सम्म० त्या माणसा रेसा अतियारोनी सभ्य मारे मर्थात् પહેલા કરેલા અતિચારોની પહેલા અને પાછળ કરેલા અતિચારોની પાછળ આલેચના ન કરવામાં આવી હોય તે અતિચારને પુન:પ્રતિક્રમણ કરવું જોઈએ, અને કાર્યોત્સર્ગમાં સ્થિત થઈને એ (આગલી ગાથામાં કહેવામાં આવનાર) વિચાર કરે (૯૧). से वियार हुये छे-अहो० ४त्यादि ५ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -अध्ययन ५ उ. १ गा. ९२-९४-कायोत्सर्गादौ चिन्तनप्रकारः ४८७ छाया-अहो ! जिनैः असावद्या, रत्तिः साधुभ्यो देशिता । ___ . मोक्षसाधनहेतोः, साधुदेहस्य धारणाय ।।१२।। सान्वयार्थः-अहो आश्चर्य है कि-मोक्खसाहणहेउस्स मोक्ष प्राप्तिके निमित्तभूत साहुदेहस्स-साधुशरीरके धारणा निर्वाह-स्थितिमात्र के लिए साहूण-मुनियोंको जिणेहि-तीर्थकर भगवानने असावज्जा-निर्दोष वित्ती भिक्षावृत्ति-(आचार) देसिया बताई है ॥१२॥ टीका-अहो आश्चर्य मोक्षसाधनहेतोः अपवर्गसिद्धिनिमित्तभूतस्य साधुशरीरस्य धारणाय=स्थितिमात्रार्थ साधुभ्यः मुनीनुदिश्य निनः तीर्थङ्करैः, असावद्या-दोषरहिता वृत्तिः भिक्षालक्षणा देशिता-उपदिष्टा ॥९२॥ मूलम्-णमुक्कारेण पारिता, करिता जिणसंथवं । सज्झायं पट्टवित्ताणं, वीसमेज्ज खणं सुणी ॥१३॥ छाया-नमस्कारेण पारयित्वा, कृत्वा जिनसंस्तवम् । स्वाध्यायं पठित्वा, विश्राम्येत् क्षणं मुनिः ॥१३॥ सान्वयार्थः-कायोत्सर्ग में पूर्वोक्त प्रकार से चिन्तन करनेके वाद मुणी साधु नमुक्कारेण नमस्कार मन्त्रसे पारित्ता-कायोत्सर्गको पार-समाप्त करके जिणसंथवं="लोगस्स उज्जोयगरे" इत्यादि संपूर्ण जिणसंथव-(जिन भगवान्की स्तुति) करित्ता-करके तथा सज्झायं-सज्झाय-कमसे कम मूलशास्त्रकी पांच गाथाओंका स्वाध्याय पट्टवित्ता-पढकर खणं-क्षणभर 'जितनेमें दूसरे मुनिराज भी शामिल हो जाते हैं। इस अभिप्रायसे कुछ देर वीसमेज्ज-विश्राम करे ॥१३॥ टीका-'णमुक्कारेण इत्यादि। मुनिः संयतः नमस्कारेण णमो अरिहंताणं' इत्युच्चारणलक्षणेन कायोत्सर्गमिति शेषः, पारयित्वा समाप्य जिनसंस्तवं"लोगस्स ___अहो! यह शरीर मोक्षकी सिद्धिका कारण है अतः इसकी स्थितिके लिए तीर्थङ्कर भगवानने साधुओंको निर्दोष भिक्षा लेने का उपदेश दिया है ॥ ९२ ॥ ''णमुक्कारेण' इत्यादि । मुनि (णमो अरिहंताणं' पदका उच्चारण करके कायोत्सर्गको समाप्त करे । फिर 'लोगस्स उज्जोयगरे' इत्यादि અહા! આ શરીર મેક્ષની સિદ્ધિનું કારણ છે, એટલે એની સ્થિતિને માટે તીર્થકર ભગવાને સાધુઓને નિર્દોષ ભિક્ષા લેવાને જ ઉપદેશ આપે છે (૯૨) णमुक्कारेण त्या भुनि णमो अरिहंताणं पहनु न्या२९५ ४ीने येત્સર્ગને સમાપ્ત કરે, પછી રોજણ કન્નોરે ઈત્યાદિ જિનસંસ્તવ પૂર્ણ કરીને Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 13 १४८८ श्रीदशवैकालिकमूत्रे उज्जोयगरे" इत्यादिलक्षणं सम्पूर्ण कृत्वा-विधाय स्वाध्याय="धम्मो मंगलमुकिलु०" इत्यादिगाथापञ्चकादन्यून मूलशास्त्रं पठित्वा क्षणं क्षणमात्र 'मण्डलेऽन्यमुनयोऽपि समागत्य संमिलिता भवन्तु' इत्याशयेन विश्राम्येद-विश्रान्ति कुर्यात् ॥९३॥ विश्राम्यन् मुनिः किं कुर्यात् ? इत्याहमूलम्वीसमंतो इमं चिंते, हियमई लाभमहिओ । जइ मे अणुग्गहं कुज्जा, साहू हुज्जामि तारिओ ॥९॥ छाया-विश्राम्यन् (मुनिः) इदं चिन्तयेत्, हितमर्थ लाभार्थिकः । यदि मम अनुग्रहं कुर्यात्, साधुर्भवामि तारितः ॥१४॥ विश्रामके समय मुनि क्या करे ? सो बताते हैं सान्वयार्थः-वीसमंतो=विश्राम करता हुआ लाभमडिओ कर्मनिर्जराका अभिलाषी साधु इम-इस-इसी गाथाके उत्तरार्द्धमें कहेजानेवाले-प्रकार हियं= मोक्षप्राप्तिरूप हितके करनेवाले अट्ठ-भावी प्रयोजनको चिंते-चिन्तन करे, जैसे जइ-यदि-अगर साहू-कोईभी मुनिराज मे मेरे ऊपर अणुग्गहं कुज्जा अनुग्रह करें अर्थात्-मेरे भागके आहारमें से कुछ आहार लेलें तो मैं तारिओ हुज्जाइस संसार-समुद्रको तैर जाऊं-पार कर जाऊं ॥९४॥ टीका-विश्राम्यन् विश्रान्ति कुर्वाणो लाभार्थिका कर्मनिर्जराभिलापी इदंगायोत्तरार्दै वक्ष्यमाणं हितं युक्त्यवाप्तिरूपम् अर्थ-भाविषयोजनं चिन्तयेत्-विचारयेत्, यदि कोऽपि साधु-मुनिः मम-मदुपरि अनुग्रहं-मया मदर्थं वोपनीतस्यानादेग्रहणलक्षणं कुर्यात् तर्हि अहं तारितः-दुस्तरभवसागरतः समुत्तारितो भवामीत्यर्थः ॥१४॥ जिन संस्तव पूर्ण करके 'धम्मो मंगलमुक्किी' इत्यादि कमसे कम पांच गाथाओंकी मूल-शास्त्रकी सज्झाय करके थोड़ी देर विश्राम करे कि जिससे अन्य मुनि भी आकर शामिल हो जावें ।। ९३॥ विश्राम करता हुआ मुनि क्या करे सो कहते हैं-'वीसमंतो' इत्यादि। धम्मो मंगलमुकिट इत्यादि माछामा माछी पांय यासानी भूशानी समय કરી ડીવાર વિશ્રામ કરે કે જેથી અન્ય મુનિ પણ આવીને શામિલ થઈ જાય (૨) • विश्राम ४२तां भुनि ४३ ते छ-वीसमंतो० छत्यादि. Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ अध्ययन ५ उ. १ गा. ९४-९५-अन्यमुनिभ्य आहारग्रहणप्रार्थना ४८९ एवं विचिन्त्य स पूर्व स्वभागमन्नादिकं ग्राहयितुं सर्वेषु मुनिषु रत्नाधिक प्रार्थयेत् । यदि गृह्णीयातहि सम्यक, नागीकुर्याचेदेवं निवेदयेत्-"आर्यपादाः ! कस्मैचिन्मुनये भवद्भिः स्वयमेव वितीयता"-मिति । अथ रत्नाधिको यथेच्छं दद्यात् । यदि चाऽदत्वा रत्नाधिकः 'त्वमेव यथेच्छं प्रयच्छे-ति ब्रूयात् तदा तेन शिष्येण किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह-'साहवो' इत्यादि। मूलम्साहवो तो चियत्तेणं, निमंतिज जहक्कम । जह तत्थ केइ इच्छिज्जा, तेहिं सद्धिं तु मुंजए ॥९५॥ छाया-साधून ततः चियत्तेणं, निमन्त्रयेद् यथाक्रमम् । यदि तत्र केऽपि इच्छेयुः, तैः सार्द्ध भुञ्जीत ॥९५॥ कर्मोंकी निर्जराकाअभिलाषी साधु विश्राम करते समय इस मुक्ति रूप हितके करनेवाले अर्थका चिन्तन करे-यदि कोई मुनिराज मुझ पर अनुग्रह करके मेरे भागके अन्न आदिको ग्रहण करें तो मैं इस दुस्तर भवसागरसे तिर जाऊँ ॥ ९४ ।।। ऐसा विचार करके प्रथम सब मुनियोंमे जो रत्नाधिक (दीक्षामें बड़े) हों उनसे अपना भाग ग्रहण करनेकी प्रार्थना करे । यदि ग्रहण करें तो अच्छा ही है। न ग्रहण करें तो ऐसा निवेदन करे--'हे भदन्त ! आप ही किसी मुनिको यह आहार वितीर्ण कीजिए' फिर रत्नाधिक इच्छानुसार देदेवें । यदि वे न देकर यह आज्ञा देवें कि-'तुम्ही इच्छानुसार देदो' तो शिष्यको क्या करना चाहिए ? सो बताते हैं-'साहवो' इत्यादि। કર્મોની નિજ રને અભિલાષી સાધુ વિશ્રામ કરતી વખતે આવા મુકિતરૂપ હિતના કરવાવાળા અર્થનુ ચિતન કરે કે ઈ મુનિરાજ મારા પર અનુગ્રહ કરીને મારા ભાગના અન્ન આદિને ગ્રહણ કરે તે હુ આ દુસ્તર ભવસાગરથી તરી જઉ (૯૪) એ વિચાર કરીને પહેલા બધા મુનિઓમાં જે રત્નાધિક (દક્ષામા વડા) હેય તેમને પિતાને ભાગ ગ્રહણ કરવાની પ્રાર્થના કરે છે તે ગ્રહણ કરે તે સારું, ન ગ્રહણ કરે છે એવું નિવેદન કરે કે હે ભદત આપ જ કઈ મુનિને આ આહાર વહેચી આપ” પછી રત્નાધિક ઈચ્છાનુસાર આપે છે તે ન આપતા એવી આજ્ઞા કરે કે “તમે ઈચછાનુસાર આપી દે તે શિષ્ય શું કરવું नय? ते मतावे छे-साहवो. त्यादि Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - S ४९० श्रीदशवकालिको पूर्वोक्त प्रकार से चिन्तन करके अपने हिस्से का अशनादिको लेनेके लिये सव मुनियों में से रत्नाधिक-दीक्षा म बड़े-मुनिसे पहले प्रार्थना करे, यदि वे लें तो अच्छा ही है, अगर वे न लें तो उनसे कहे-'हे भगवन् ! आपही अपने हाथ से । किसी दूसरे सन्त को दीजिये। ऐसा कहने पर यदि वे अपने हाथ से किसी को दें तो ठीक ही है, यदि खुद न देकर उसीसे कह देवें कि 'तुमही तुम्हारी इच्छा के अनुसार जो लेवे उसको दे दो' तब उसे क्या करना चाहिये, सो बताते हैं__ सान्वयार्थः-तो इस प्रकार गुरु महाराजकी आज्ञा प्राप्त होने पर वह साधु । साहवो सव सन्तोंको चियत्तेणं त्याग-बुद्धिसे अर्थात् उदार चित्तसे जहक्कम रत्नाधिकके क्रमानुसार निमंतिज्ज-निमन्त्रण करे-आहार धामे, जइ-यदि-अगर तत्थ-उनमें से केइ-कोई साधु इच्छिज्जा-आहार लेना चाहें तो (उन्हें देकर) ' तेहिं सद्धिं तु-उनके साथ बैठकर भुंजए खुद भी आहार करे ॥९५॥ टीका-तो-ततः गुरोरादेशाऽनन्तरम् असौ साधून चियत्तेणं-देशीयशब्दोऽयम्' परमप्रीत्या उदारचेतसेत्यर्थः, यथाक्रम-रत्नाधिकक्रममनुसृत्य निमन्त्रयेत् । स्वभागग्रहणाय प्रार्थयेत्-'इदं गृहीत्वाऽनुगृह्यता'-मिति वदेदित्यर्थः । यदि तत्र , मुनीनां मध्ये केऽपि मुनय इच्छेयुः ग्रहीतुमभिलपेयुस्तदा तेभ्योऽपि वितीय तैः सार्दै स्वयमपि भुञ्जीत='चपड़-चपड़े' ति शब्दमकुर्वन्नभ्यवहरेत् ॥९५॥ मूलम्-अह कोइ न इच्छिज्जा, तओ भुंजिज्ज एगओ। आलोए भायणे साहू, जयं अपरिस्साडियं ॥ ९६॥ गुरुकी आज्ञा मिलनेके अनन्तर प्रसन्न चित्तसे उदारताके साथ दीक्षामें बड़े-छोटेके क्रमसे साधुओंको अपना भाग ग्रहण करनेकी प्रार्थना करे, अर्थात् 'यह आहार ग्रहण करनेका अनुग्रह कीजिए। ऐसा कहे । उन मुनियों में से कोई ग्रहण करनेकी इच्छा करें तो उन्हें वितीर्ण करके उनके साथ आप भी चपड़-चपड़ शब्द न करता हुआ आहार करे ॥ १५ ॥ ગુરૂની આજ્ઞા મળ્યા પછી પ્રસન્ન ચિત્તથી ઉદારતાની સાથે દીક્ષામાં મેટાનાનાના ક્રમે કરીને સાધુઓને પિતાને ભાગ ગ્રહણ કરવાની પ્રાર્થના કરે અર્થાત આ આહાર ગ્રહણ કરવાને અનુગ્રહ કરે” એમ કહે એ મુનિઓથી કઈ ગ્રહણ કરવાની ઇરછા કરે તે તેમને વહેંચી આપીને તેમની સાથે પિતે પણ ચપડાપડ અવાજ કર્યા વિના આહાર કરે. (૫) Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ श्रीदशचैकालिकसूत्रे लवणं = लवणरसयुक्त, इत्यादि प्रकारका कैसा भी हो; किन्तु अन्नट्ठपत्तं = साधुको न उद्देश करके गृहस्थने अपने लिये बनाये हुए, अथवा स्वादसुखके सिवाय सिर्फ शरीर - निर्वाहके लिए विधान किये हुए और लद्धं = आगमोक्त विधिसे मिले हुए एयं = इस पूर्वोक्त प्रकारके तीखे आदि अशनादिको संजए = रागद्वेपरहित साधु महु घयं व मीठे घी-शक्करकी तरह अर्थात् जिस प्रकार घी-शक्कर युक्त भोजनको रुचिपूर्वक भोगते हैं उसी प्रकार भुंजिज्ज = भोगवे ॥९७॥ टीका- 'तित्तगं' इत्यादि । संयतः तिक्तकं, कटुकं, कपायम्, अम्लं, मधुरं, वा = अथवा लवणं = क्षारम्, तत्तद्रसयुक्तमित्यर्थः । एतत्सर्वमन्नादिकम् अन्यार्थ - प्रयुक्तं = गृहस्थैः स्वनिमित्तं सम्पादितं न तु साध्वर्थं शुद्धमित्यर्थः, यद्वा अन्यार्थ = स्वादसुखादन्यस्मै प्रयोजनाय शरीरमात्र निर्वाहार्थमिति यावत्, प्रयुक्तम् = आगमेन विहितं लब्धं = प्राप्तं सत् मधुघृतमित्र तत्र मधु = शर्करादिमधुरद्रव्यं घृतं = प्रतीतं तद्वत् यथा मधुघृतभोजने प्रवृत्तिर्जायते तथाऽन्यान्यपि तिक्तकादीनि तचुल्यभावेन भुञ्जीत । उक्तञ्च सङ्ग्रहगाथयो: ܕ 3 'तित्तगं' इत्यादि । तीखे, कडुवे कसायले खट्टे मीठे अथवा क्षाररसवाले पदार्थ जो गृहस्थने अपने लिए बनाये हैं अर्थात् साधुके लिए न बनाये हों, अथवा स्वाद-सुखके सिवाय अन्य प्रयोजनके लिए अर्थात् शरीर के निर्वाहके लिए यदि आगमानुसार विधिसे प्राप्त हुए हों तो उन्हें ऐसे भोगे जैसे घी-शक्करका आहार किया जाता है । तात्पर्य यह है कि - साधुको निरवद्य अन्त प्रान्त आदि जैसा आहार मिले उस सबको समभावसे भोगना चाहिए। जैसे संग्रह गाथाओं में कहा है- ક્ષારરસ तित्तगं छत्याहि तीया, उडवा उसायला, माटा, भीहा, अथवा વાળા પદાર્થોં જે ગૃહસ્થે પાતાને માટે મનાવ્યા હોય અર્થાત્ સાધુને માટે ન બનાવ્યા હોય અથવા સ્વાદ-સુખ સિવાય અન્ય પ્રયજનને માટે અર્થાત્ શરીરના નિર્વાહુને માટે તે આગમાનુસાર વિધિથી પ્રાપ્ત થયા હોય તે તમને એવી રીતે ભેગવે કે જેમ ઘી-સાકરના આહાર કરવામા આવતુ હાય તાત્પર્ય એ છે 3-સાધુને નિરવદ્ય અત-પ્રાંત આદિ જેવા આદ્ગાર મળે એ બધાને સમભાવથી ભગવવા તેઇએ. સગ્રહ ગાથામાં કહ્યુ છે કે~ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ९६-९७-आहारपरिभागविधिः ४९१ छाया-अथ कोऽपि न इच्छेत्, ततो भुञ्जीत एककः। - आलोके भाजने साधुः, यतम् अपरिशातयन् ॥१६॥ सान्वयार्थः-अह अथ-यदि कोइ-कोई न इच्छिज्जा-आहार लेना नहीं चाहे तो तओ-फिर साहूबह साधु एगओ-अकेला-द्रव्यसे स्वयं एक ही, भावसे राग-द्वेष-संग-रहित आलोए-प्रकाशयुक्त-चौड़े मुंहवाले भायणे-पात्रमें जयं यतनापूर्वक अर्थात् मांडलेके दोषोंको टालकर अपरिसाडियं-सीथ-कणका विन्दु-मात्र भी आहार नहीं गिराता हुआ भुजिज्ज-आहार करे ॥१६॥ टीका-'अह' इत्यादि। यदि कोऽपि ग्रहीतुं नेच्छेत् तदनन्तरं साधु एककः= द्रव्येण स्वयमेव, भावेन रागद्वेषरहितः आलोके प्रकाशमाने भाजने मशकादिक्षुद्रजन्तवो यथा दृष्टिपथमागच्छेयुस्तदर्थमिति भावः । यत-सयतनं मण्डलदोषभावानुसन्धानपूर्वकम् अपरिशातयन् सिक्थादिकमविकिरन् भुञ्जीत ॥१६॥ मूलम्-तित्तगं च कडुयं च कसायं, अंबिलं च महुरं लवणं वा। १२ १४१३. ५ १६ १७ एय लद्धमन्नट्ठपउत्तं, महुघयं व भुंजिज्ज संजए ॥९७॥ छाया-तिक्तकं च कटुकं च कपायम्, अम्लं च मधुरं लवणं वा। एतल्लब्धमन्यार्थप्रयुक्तं, मधु-घृतमिव भुञ्जीत संयतः ॥९॥ सान्वयार्थः-वह आहार यदि-तित्तगं-तीखा कडुयं कड़वा च और कसायं कषायला च-और अंबिलं-खट्टा च और महुरं-मीठा वा अथवा 'अह' इत्यादि । यदि कोई भी मुनि आहार ग्रहण करने की इच्छाप्रकाशित न करें अर्थात् न लें तोअकेला-रागद्वेषरहित वह साधु,ऐसे पानमें भोजन करे जिसमें प्रकाश पड़ रहा हो । प्रकाश-युक्त पात्र में आहार करनेका विधान इसलिए किया है कि मच्छर आदि सूक्ष्म जन्तु दीख सके । मण्डल दोषांका विचार करता हुआ सीथ-मात्र भी अन्नादि न बिखेरता हुआ आहार करे ॥९६॥ ગ, ઈત્યાદિ જે કોઈ પણ મુનિ આહાર ગ્રહણ કરવાની ઈચ્છા પ્રકાશિત ન કરે અર્થાત ન લે તે એકલા-રાગદ્વેષરહિત તે એવા પાત્રમાં જે જન કરે કે જેમાં પ્રકાશ પડતે હોય પ્રકાશયુક્ત પાત્રમાં આહાર કરવાનું વિધાન એટલા માટે કર્યું છે કે મચ્છર આદિ સૂમ જતુ દેખી શકાય મડલ દેને વિચાર કરતા એક કણ જેટલું પણ અન્ન ન વેરાવા દેતા રમાહાર કરે. () Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3A ४९४ श्रीदशवकालिकसूत्रे छाया-अरसं विरसं वापि, सूचितं वा अमुचितम् । आर्द्र वा यदि वा शुष्कं, मन्यु-कुल्माप-भोजनम् ॥९८॥ उत्पन्नं नाविहीलयेत्, अल्पं वा बहु प्रामुकम् । मुधालब्धं मुधाजीवी, भुञ्जीत दोपवर्जितम् ।।९९॥ सान्वयार्थः-अरसं नमक आदि रसरहित वावि-तथा विरसं अधिक दिनोंकी बनी हुई विरस-वासी-सूखी-रोटी आदि या पुराने चॉवल आदिका भोजन सूइयं हींग आदिका वधार (छोंक) दिया हुआ वा अथवा असूइयंनहीं वधार दिया हुआ शाक आदि उल्लंगीला-करंवा, राइता आदि वा तथा सुक-सूखा-भुने हुए चने-भूगडे-आदिजइवा अथवा मंथुकुम्मासभोयणं वेरके चूरेका भोजन या कुलथीका भोजन अथवा उड़दका वाकुला (यह पूर्वोक्त सत्र प्रकारका अशनादि) उप्पण्णं जो गोचरीके समय शास्त्रमर्यादासे मिल गया वह अप्प थोड़ा हो वा-या बहु-बहुत हो उसकी नाइहीलिज्जा अबहेलना न करे, किन्तु फासुयं मामुक-अचित्त और मुहालद्धं निष्काम-विना किसी प्रत्युपकारके माप्त हुए-उस अशनादिको मुहाजीवी-निष्कास-सिर्फ संयम-यात्राका निर्वाहसेजीनेवाला अर्थात् निरपेक्ष भिक्षा लेनेवाला साधु दोसवज्जियं-भोजनके संयोजनादि दोपोंको टालकर भुंजिज्जाम्भोगचे ॥९८॥९९॥ टीका-'अरसं' इत्यादि, 'उप्पण्णं' इत्यादि च । अरसं-लवणादिरसरहितम् , अप्राप्तरसं वालचणकादिनिष्पादितं वा, अपिवा विरसं-चिरकालनिष्पादितत्वेन विगतरस, पुराणौदनादिकं वा, सूचित-हिमादिसंस्कृतं वा-अथवा अभूचितं= तद्वर्जितम्, आई-करम्भादिक, शुष्कं भर्जितचणकादिकम् । मन्थुकुल्मापभाजन मन्धुश्च कुल्मापश्चाऽनयोः समाहारे मन्युकुल्मापं, तद्, भुज्यते यत्तद्भोजनं, मन्युकुल्मापं च तद्भोननं चेति विग्रहः, तत्र मन्युः बदरचूर्णादिकम् , कुल्मापा-कुलत्या, 'अरसं' इत्यादि, 'उप्पण्णं' ह । ... तथा पाल चणक आदि अरस या बहुत पुराना : . .. आदि द्वारा छोंका हुआ या न छोंका हुई.. . सखे-भुने हुए चने आदि, बेर, दि. अरस या ४ આદિ અલ યા બહ न १५.२९, दीड र ! + Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ५ उ. १ गा. ९८-९९-आहारपरिभोगविधिः ४९५ यद्वा अर्द्धविन्नमाषः 'उडदवाकुला' इति भाषापसिद्धः । एतत् पूर्वोक्तं सर्वम् उत्पन्न शास्त्रमर्यादयोपलब्धं, पासुकं-निर्जीवं, मुधालब्ध मन्त्रतन्त्रादिप्रकारमन्तरेण प्राप्तं, तद् यदि अल्पं स्वल्पं सरसमन्नादिकं, वा-अथवा वहु प्रचुरम् असारमशनादिकम् , उपलक्ष्येति शेषः, नातिहीलयेत्=न निन्देत् । अल्पीयसि सरसवस्तुनि लब्धे-"कथमेतावतेवोदरपूतिर्भवेत्" इति, एवमसारवस्तुनि प्रचुरतरे लब्धे सति "किमनेन प्रचुरतरेणापि निष्प्रयोजनेने"-त्येवंरूपां निन्दां न कुर्यादिति हृदयम् । किन्तु मुधाजीवी-मुधा-व्यर्थ-निष्पयोजन शरीरेन्द्रियपुष्टिप्रयोजनविकलं जीवितुं शीलमस्येति सः, संयमयात्रानिर्वाहार्थमेव भिक्षाग्रहणशील इति भावः । यद्वा मुधाजीवी निर्दोपभिक्षाजीवी-जात्यायनाविष्करणपूर्वकभिक्षाग्राहक इत्यर्थः, दोषवर्जित संयोजनादिमण्डलदोषा यथा न भवेयुस्तथा भुञ्जीत । 'उत्पन्नं' इत्यनेन भोजन । ये सब यदि शास्त्रोक्त विधिसे प्राप्त हुए हों, प्रासुक हों, मंत्रतंत्र आदिका प्रयोग किये विना मिले हों, थोड़े हों या बहुत हों अर्थात् सरस अन्नादि थोड़ा हो और नीरस आहार बहुत हो तो मुधाजीवीअर्थात् संयमयात्राके निर्वाहके लिए जीवन धारण करनेवाला, अथवा निर्दोष अर्थात् जाति-आदिको न प्रगट करके भिक्षा लेनेवाला साधु उस आहारकी अवहेलना न करे । तात्पर्य यह है कि-सरस आहार कम मिले तो ऐसा न कहे कि-'इतने थोड़े आहारसे उदरपूर्ति कैसे होगी।' नीरस आहार अधिक मिले तो ऐसा न कहे कि-'इस बहुतेरे व्यर्थ आहारसे क्या लाभ?।' इस प्रकार आहारकी निन्दा न करे, किन्तु आहारके संयोजना आदि मण्डल दोषोंको टाल कर भोगे। અથવા કળથી યા અડદના બાકળાનું ભેજન, એ સર્વ જે શાસ્ત્રોક્ત વિધિથી પ્રાપ્ત થયા હય, પ્રાસુક હોય, મત્ર-તત્ર આદિને પ્રયોગ કર્યા વિના મળ્યા હોય, , થડા હોય યા વધારે હોય, અર્થાત સરસ અન્નાદિ ડું હોય અને નીરસ આહાર વધારે હોય, તે મુધાજીવી–અર્થાત સ યમયાત્રાના નિર્વાહને માટે જીવન ધારણ કરનાર અથવા નિર્દોષ અર્થાત્ જાતિ આદિને પ્રકટ કર્યા વિના ભિક્ષા લેનાર સાધુ એ આહારની અવહેલના કરે નહિ, તાત્પર્ય એ છે કે સરસ આહાર ઓછો મળે તે એમ ન કહે કે “આટલા થોડા આહારથી ઉદરપૂતિ કેવી રીતે થશે?” નીરસ આહાર વધારે મળે તે એમ ન કહે કે “આ ઘણુ બધા વ્યર્થ આહારથી શું લાભ?” એ પ્રમાણે આહારની નિન્દા ન કરે, પરન્ત આહારના સચેજના આદિ મ ડલ દોષને ટાળીને ભગવે - Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४९४ श्रीदशवकालिकसूत्रे छाया-अरसं विरसं वापि, सूचितं वा अमूचितम् । आर्द्र वा यदि वा शुष्क, मन्यु-कुल्माष-भोजनम् ॥१८॥ उत्पन्नं नातिहीलयेत् , अल्पं वा बहु भासुकम् । मुधालब्धं मुधाजीवी, भुञ्जीत दोपवर्जितम् ।।९९॥ सान्वयार्थः-अरसं-नमक आदि रसरहित वाचि तथा विरसं-अधिक दिनोंकी बनी हुई विरस-वासी-सूखी-रोटी आदि या पुराने चाँग्ल आदिका भोजन सूइयं हींग आदिका बघार (छोंक) दिया हुआ वा अथवा असूइयं नहीं वधार दिया हुआ शाक आदि उल्लंगीला-करंवा, राइता आदि वास्तथा सुकं-मुखा-भुने हुए चने-भुगडे-आदिजइवा अथवा मंथुकुम्मासभोयणं वेरके चूरेका भोजन या कुलथीका भोजन अथवा उड़दका वाकुला (यह पूर्वोक्त सब प्रकारका अशनादि) उप्पण्णं-जो गोचरीके समय शास्त्रमर्यादासे मिल गया वह अप्पं थोड़ा हो वा-या बहु-बहुत हो उसकी नाइहीलिज्जा अबहेलना न करे, किन्तु फासुयं मासुक-अचित्त और मुहालद्धं-निष्काम-विना किसी प्रत्युपकारके प्राप्त हुए-उस अशनादिको मुहाजीवी-निष्काम-सिर्फ संयम-यात्राका निर्वाहसेजीनेवाला अर्थात् निरपेक्ष भिक्षा लेनेवाला साधु दोसवज्जियं-भोजनके संयोजनादि दोपोंको टालकर भुजिज्जा-भोगवे ॥९८॥९९॥ टीका-'अरसं' इत्यादि, 'उप्पण्णं' इत्यादि च । अरसं-लवणादिरसरहितम्, अप्राप्तरसं वालचणकादिनिष्पादितं वा, अपिवा विरसं-चिरकालनिष्पादितत्वेन विगतरसं, पुराणौदनादिकं वा, सूचित हिङ्ग्वादिसंस्कृतं वा अथवा अनचितंतद्वर्जितम्, आंद्रेकरम्भादिक, शुष्कं भर्जितचणकादिकम् । मन्थुकुल्मापभोजन मन्युश्च कुल्मापश्चाऽनयोः समाहारे मन्थुकुल्मापं, तद्, भुज्यते यत्तद्भोजनं, मन्युकुल्मापं च तद्भोजनं चेति विग्रहः, तत्र मन्युः बदरचूर्णादिकम् , कुल्मापः कुलत्या, 'अरसं' इत्यादि, 'उप्पणं' इत्यादि च । नमकरहित तथा याल चणक आदि अरस या बहुत पुराना ओदन आदि चिरस, हींग आदि द्वारा छोंका हुआ या न छोंका हुआ, गीला करंबा आदि, सूखे-भुने हुए चने आदि, बेरका चूर्ण आदि, अथवा कुलथी या उड़दके याकलाका ___अरस त्याहि, तथा उप्पणं. त्यात मीथी रहित तथा पास-या આદિ અરસ યા બહુ જૂને એદન-આદિ વિરસ, હીંગ આદિથી વઘારેલું યા ન વઘારેલું, લીલે કરે બો આદિ, સૂકા-ભૂજેલા ચણા આદિ, બેરનું ચૂર્ણ આદિ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ९८-९९ - आहारपरिभोगविधिः ४९५ , यद्वा अर्द्धस्विन्नमापः ‘उडदवाकुला' इति भाषाप्रसिद्धः । एतत् पूर्वोकं सर्वम् • उत्पन्न = शास्त्रमर्यादयोपलब्धं, मासुक=निर्जीवं, मुधालब्धं = मन्त्रतन्त्रादिप्रकारमन्तरेण प्राप्तं, तद् यदि अल्पं = स्वल्पं सरसमन्नादिकं वा = अथवा बहु प्रचुरम् असारमशनादिकम् उपलक्ष्येति शेषः, नातिदीलयेत् =न निन्देत् । अल्पीयसि सरसवस्तुनि लब्धे-“कथमेतावतैवोदरपूर्तिर्भवेत्" इति, एवमसारवस्तुनि प्रचुरतरे लब्धे सति " किमनेन प्रचुरतरेणापि निष्प्रयोजनेने" त्येवंरूपां निन्दां न कुर्यादिति हृदयम् । किन्तु मुधाजीवी = मुधा - व्यर्थ - निष्प्रयोजनं शरीरेन्द्रियपुष्टिप्रयोजनविकलं जीवितुं शीलमस्येति सः, संयमयात्रा निर्वाहार्थमेव भिक्षाग्रहणशील इति भावः । यद्वा मुधाजीवी = निर्दोपभिक्षाजीवी - जात्याद्यनाविष्करणपूर्वकभिक्षाग्राहक इत्यर्थः, दोषवर्जितं = संयोजनादिमण्डलदोषा यथा न भवेयुस्तथा भुञ्जीत । 'उत्पन्नं' इत्यनेन भोजन । ये सब यदि शास्त्रोक्त विधिसे प्राप्त हुए हों, प्रासुक हों, मंत्रतंत्र आदिका प्रयोग किये बिना मिले हों, थोड़े हों या बहुत हों अर्थात् सरस अन्नादि थोड़ा हो और नीरस आहार बहुत हो तो मुधाजीवीअर्थात् संयमयात्रा निर्वाहके लिए जीवन धारण करनेवाला, अथवा निर्दोष अर्थात् जाति आदिको न प्रगट करके भिक्षा लेनेवाला साधु उस आहारकी अवहेलना न करे । तात्पर्य यह है कि- सरस आहार कम मिले तो ऐसा न कहे कि -' इतने थोड़े आहारसे उदरपूर्ति कैसे होगी ।' नीरस आहार अधिक मिले तो ऐसा न कहे कि - 'इस बहुतेरे व्यर्थ आहारसे क्या लाभ? ।' इस प्रकार आहारकी निन्दा न करे, किन्तु आहारके संयोजना आदि मण्डल दोषोंको टाल कर भोगे । , અથવા કળથી યા અડદના ખાકળાનું લેાજન, એ સવો શાસ્ત્રોકત વિધિથી પ્રાપ્ત થયાં હોય, પ્રાસુક હાય, મંત્ર-તંત્ર આદિને પ્રયોગ કર્યાં વિના મળ્યા હોય, ઘેાડા હાય યા વધારે હાય, અર્થાત્ સરસ અન્નાદિ થાડુ હાય અને નીરસ આહાર વધારે હાય, તે મુધાજીવી-અર્થાત્ સ યમયાત્રાના નિર્વાહને માટે જીવન ધારણ કરનારે અથવા નિર્દોષ અર્થાત જાતિ આદિને પ્રકટ કર્યા વિના ભિક્ષા લેનાર સાધુ એ આહારની અવહેલના કરે નહિ, તાત્પર્ય એ છે કે—સરસ આહાર . એછે મળે તે એમ ન કહે કે · આટલા થાડા આહારથી ઉદરપૂર્તિ કેવી રીતે થશે ? નીરસ આહાર વધારે મળે તે એમ ન કહે કે - આ ઘણા ખધા ન્યુ મહારથી શે લાભ?' એ પ્રમાણે આહારની નિન્દા ન કરે, પરન્તુ આહારના સર્ચજના આદિ મંડલ દ્વાષાને ટાળીને ભેગવે Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ श्रीदर्शनैकालिकसूत्रे शास्त्रमर्यादयैव गीतार्थेनान्नादि ग्राह्यमिति सूचितम् | 'फासुर्य' अनेन सचित्तमचित्तं वेति परीक्ष्य ग्रहीतव्यमिति दर्शितम् । 'मुहालद्धं' इतिपदेन दातुरुपकारं विधाय भिक्षाग्रहणे आधाकर्मादयो बहवो दोषाः समापतन्तीति तथा नोपादेयमिति प्रकटितम् । 'दोसवज्जियं' इतिपदेन निर्दोपभिक्षामाप्तावपि मण्डलदोपवत्त्वेन सदोषत्वं दुर्निवारमिति मण्डलदोषरहितं भोक्तव्यमिति प्रादुष्कृतम् ॥९८ ॥ ९९ ॥ 3 ४ ૫ मूलम् - दुलहाओ मुहादाई, मुहाजीवी वि दुलहा । ९ १० ८ मुहादाई मुहाजीवी, दोवि गच्छेति सुग्गई ॥१००॥ ॥ तिबेमि ॥ छाया - दुर्लभा मुधादातारः, मुधाजीविनोऽपि दुर्लभाः । मुधादातारः मुधाजीविनः, द्वावपि गच्छतः सुगतिम् ॥१००॥ इति ब्रवीमि ॥ सान्वयार्थः - मुहादाई= निष्काम - प्रत्युपकारकी आशा न रखकर - देनेवाले दुलहाओ = दुर्लभ हैं और मुहाजीवीवि निष्काम-दाताके कार्यकी अपेक्षा न 'उपपन्नं' पद से यह सूचित किया है कि गीतार्थ साधुको शास्त्रकी मर्यादाके अनुसार ही आहार ग्रहण करना चाहिए । 'फासुयं' पदसे सचित्त-अचित्तकी परीक्षा करके ग्रहण करना द्योतित किया है । 'मुहाल ' पदसे यह दर्शाया है कि दाताका उपकार करके भिक्षा ग्रहण करने से आधाकर्म आदि बहुतसे दोष आते हैं, अतः ऐसी भिक्षा नहीं लेनी चाहिए । 'दोसवज्जिय' पदसे यह प्रगट किया है कि निर्दोष भिक्षा उपलब्ध होजाने पर भी मण्डल दोष लगने से वह भिक्षा अवश्य' दूषित होजाती है; इसलिए उनका परिहार करके ही आहार करना चाहिए ॥ ९८ ॥ ९९ ॥ ઉપરૢ શબ્દથી એમ સૂચિત કરવામાં આવ્યુ` છે કે ગીતા સાધુએ શાસ્ત્રની મર્યાદાને અનુસાર જ भाडार ग्रह उवो लेहये. फामुय राष्टथी સચિત્ત અચિત્તની પરીક્ષા કરીને ગ્રહણ કરવાનું કહેવામાં આવ્યું છે મુદ્દાનું શબ્દથી એમ દર્શાવવામાં આવ્યું છે કે દાતાના ઉપકાર કરીને ભિક્ષા ગ્રહણ ફરવાથી આધાકમ આદિ ઘણા દ્વેષ લાગે છે, તેથી એવી ભિક્ષા ન લેવી જોઇએ. ટ્રોવનિયં શબ્દથી એમ બતાવવામા આવ્યુ છે કે નિર્દોષ ભિક્ષા ઉપલબ્ધ થતાં પણ મડલ દોષ લાગવાથી એ ભિક્ષા અવશ્ય દૂષિત થઈ જાય છે, તેથી એને પરિહાર કરીને જ આહાર કરવા જોઇએ. (૯૮-૯૯) 1 1 Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. १००-मुधादायि-मुधाजीविनोर्मोक्षावाप्तिः ४९७ रखकर-निरपेक्ष-लेनेवाले भी दुल्लहा दुर्लभ हैं, क्योंकि मुहादाई-निष्काम देनेवाले और मुहाजीवी-निष्काम-निरपेक्ष लेनेवाले दोविन्ये पूर्वोक्त दोनों ही सुग्गइं-मोक्षगतिको गच्छंति प्राप्त होते हैं । श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामीसे कहते हैं कि हे जम्बू ! ति भगवान् महावीर स्वामीने जैसा फरमाया है वैसा ही तुझे वेमिन्मैं कहता हूं ॥१०॥ ॥इति श्रीदशवैकालिक सूत्रके पांचवें अध्ययनके पहले उद्देशका सान्वयार्थ संपूर्ण।। ___टीका-'दुल्लहाओ' इत्यादि । मुधादातारः प्रत्युपकारानभिलाषिणो दायकाः दुर्लभाः दुष्पापास्तादृशानां विरलत्वात्, मुधाजीविनोऽपि दातृकार्यानपेक्षनिरपेक्षभिक्षाग्राहिणोऽपि दुर्लभाः, सुधादातारः मुधाजीविनश्च द्वावपि दाता भिक्षुश्च उभावप्युक्तविधौ मुगति-सिद्धगतिं गच्छता प्राप्नुतः। 'मुधादातारः' 'मुधाजीविनः' इत्यत्र बहुवचनं व्यक्तिविवक्षया । 'द्वावपि' इत्यत्र द्विवचनं तु मुधादातृत्व-मुधाजीवित्वोभयधर्मगतद्वित्वसख्याविवक्षयेति बोध्यम् ॥ इति ब्रवीमीति प्राग्वत् ॥१०॥ । इति श्री-दशवैकालिकमत्रस्याऽऽचारमणिमञ्जूषाख्यायां व्याख्यायां पश्चमाध्ययनस्य प्रथमोद्देशक : समाप्तः ॥५-१। 'दुल्लहाओ' इत्यादि । प्रत्युपकार (बदला) की आशा न रखनेवाले दाता दुर्लभ हैं, और दाताका कार्य न करके भिक्षा ग्रहण करनेवाले साधु भी विरले होते हैं। प्रत्युपकारकी चाह न रखनेवाले दाता और किसीका कार्य विना किये भिक्षा ग्रहण करनेवाला आत्मार्थी साधु, इन दोनोंको मोक्षगतिकी प्राप्ति होती है। श्रीसुधर्मास्वामी जम्बूस्वामीसे कहते हैं-हे जम्बू ! चरम जिनेश्वर भगवान् महावीर स्वामीने जैसा उपदेश दिया है वैसा मैंने कहा है ॥१०॥ इति दशवैकालिक सूत्रके पाँचवें अध्यनके पहले उद्देशका हिन्दी-भाषानुवाद समाप्त ॥५-१॥ दुल्लहाओ० इत्यादि निष्ठाभ-प्रत्यु५४२ (१४सा)नी मा॥ न रामनार होता દુર્લભ છે અને નિષ્કામ–દાતાનું કાર્ય ન કરતાં ભિક્ષા ગ્રહણ કરનાર-સાધુ પણ વિરલ જ હોય છે પ્રત્યુપકારની ઈચ્છા ન રાખનાર દાતા અને કેઈનું કાર્ય કર્યા વિના ભિક્ષા ગ્રહણ કરનાર આત્માથી” સાધુ, એ બેઉને મેક્ષ ગતિની પ્રાપ્તિ થાય છે શ્રી સુધમાં સ્વામી જંબૂ સ્વામીને કહે છે કે–હે જ બૂ! ચરમ જિનેશ્વર ભગવાન્ મહાવીર સ્વામીએ જે ઉપદેશ આપે છે તે જ મે કહ્યો છે (૧૦૦) ઈતિ દશવૈકાલિકસૂત્રના પાચમા અધ્યયનને પહેલા ઉદ્દેશાને ગુજરાતીભાષાનુવાદ સમાસ (પ-૧) Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४९८ श्रीदशवैकालिकाने ॥ अथ पञ्चामाध्ययनस्य द्वितीय उद्देशः ॥ प्रथमोद्देशकथितपिण्डैषणाया अवशिष्टविधिमाह-'पडिग्गहं' इत्यादि । मूलम्-पडिग्गहं संलिहिताणं, लेवमायाइ संजए। + १० ११ १२ दुगंधं वा सुगंधं वा, सर्व भुंजे न छड्डए ॥१॥ छाया-प्रतिग्रहं संलिह्य, लेपमर्यादया संयतः। दुर्गन्धं वा मुगन्धं वा, सर्व भुञ्जीत न मुञ्चेत् ॥ १॥ सान्वयार्थः-पडिग्गह-पात्रेको लेवमायाए-लेपकी मर्यादासे अर्थात् जब । तक छांछ आदिका लेप लगा रहे तब तक संलिहित्ताणं अंगुलीसे पोंछकर संजए-साधु दुगंधं वा-अनिष्ट गन्धवाला हो चाहे सुगंधं वा-मुरभि गन्धवाला पदार्थ हो उस सव्वंसवको भुंजे-भोगवे; किन्तु न छड्डए-कुछभी न छोड़ेजूठन न डाले ॥१॥ टीका-प्रतिग्रह-पात्रं लेपमर्यादया लेप मर्यादीकृत्य यथा लेपसम्बन्धः पात्रे नावतिष्ठेत तथा संलिह्य पात्रस्थं तक्रादिलेपमङ्गल्यादिना निश्शेपं पोञ्छय संयतः=मुनिः, दुर्गन्धम् अनिष्टगन्धयुक्तं-पुरातनगोधूमवर्जरिकावलचणकादि । पांचवाँ अध्ययनका दूसरा उद्देश। प्रथम उद्देशमें कही हुई विधिके अतिरिक्त-अवशिष्ट पिण्डेपणाकी विधि इस दूसरे उद्देशमें कहते हैं-'पडिग्गहं' इत्यादि । ___ आहार करनेके पात्रमें जो लेप लगा रह जाय उसे अंगुली-आदि द्वारा पोंछकर मुनि अमनोज्ञ गन्ध या मनोज्ञ गन्धवाले समस्त अन्न पानको भोगे; उसे छोड़े नहीं, अर्थात् सीथ मात्र भी जूठा न डाले। पुराने गेहूँ, बाजरे, बाल, चने आदिकी बनी हुई ठडी या गर्म रोटी आदि अन्न, मध्ययन पांय -देश माने. પ્રથમ ઉદ્દેશમાં કહેલી વિધિ ઉપરાત અવશિષ્ટ પિડેષણની વિધિ આ मी देशमा -पडिग्गई ध्या આહાર કરવામાં પાત્રમાં જે લેપ લાગેલે રહી જાય, તેને આંગળી આદિ વડે લૂછીને મુનિ અમનેઝ ગધ યા મનેણ ગધવાળા બધા અન્ન-પાનને ભેગવે, તેને છેડે નહિ, અર્થાત્ જરા પણ બાકી ન રાખે. જૂના ઘઉં, બાજરી, વાલ, Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - _13 १४ २० अध्ययन ५ उ. २ गा. १-आहारपरिभोगविधिः ४९९ निष्पादिनं शीतमुष्णं वाऽन्नम्, अम्लतक्रपाचितवल्लचणकचूर्णनिष्पादितं शीतमुष्णं वा शाकविशेषादिकं, पर्युषिततक्रादिरूपं पानं च, तेषाममनोज्ञगन्धवत्वादिति भावः। सुगन्ध-सुरभिगन्धयुक्तं वा घृतपूरपायसादि तस्यैलालवङ्गकेसरकपूरादिमनोज्ञगन्धवृत्त्वादिति भावः। सर्व-मनोज्ञामनोज्ञरूपं सकलं भुञ्जीत न तु मुश्चेत् परित्यजेत्-नावशेषयेदिति भावः ॥१॥ मूलम्-सज्जा निसीहियाए, समावन्नो य गोयरे । अयावयट्ठा भुच्चाणं, जइ तेणं न संथरे ॥२॥ तओ कारणमुप्पण्णे, भत्तपाणं गवेसए । विहिणा पुवउत्तेण इमेणं उत्तरेण य ॥३॥ छाया-शय्यायां नैषेधिक्यां, समापन्नश्च गोचरे। अयावदर्थ भुक्त्वा , यदि तेन न संस्तरेत् ॥ २ ॥ ततः कारणे उत्पन्ने, भक्त-पानं गवेषयेत् । विधिना पूर्वोक्तेन, अनेन उत्तरेण च ॥३॥ सान्वयार्थः-सेज्जा-वसति-उपाश्रय में निसीहियाए-आहार करने के स्थान पर य अथवा गोयरे-भिक्षाचरीमें समावन्नो प्राप्त हुआ मुनि अयावयहाजरूरीसे कम अर्थात् थोड़ा भुच्चाणं-खाकर-खानेपर जइ-यदि-अगर तेणंउस अशनादिसे न संथरे-न सरे अर्थात् संयमयात्राका निर्वाह के लिए पर्याप्त -पूरा न हो तओ=तो कारणं क्षुधा-वेदनीयकी शान्ति न होनेरूप कारण के उप्पन्ने-उत्पन्न होनेपर साधु पुव्वउत्तेण-पूर्वोक्त-" संपत्ते भिक्खकालम्मि" खट्टी छाछकी बनी हुई ठढी या गर्म कढी आदि शाक, पर्युषित (वासी) खट्टी छाछ आदि पान, ये अमनोज्ञ गन्धवाले होते हैं। और घेवर पायस आदि, एलची लवंग केसर आदिके मिश्रित होनेसे मनोज्ञ गन्धवाले होते हैं, इन सबको समभावसे भोगवे ॥१॥ ચણ આદિની બનાવેલી ઠડી યા ગરમ રોટલી આદિ અન્ન, ખાટી છાશની બનેલી ઠંડી યા ગરમ કઢી આદિ શાક, પર્કષિત ખાટી છાશ આદિ પાન, એ બધાં અમનેઝ ગંધવાળાં હોય છે અને ઘેબર, પાયસ (દૂધપાક) આદિ, એલચી, લવીગ, કેસર આદિથી મિશ્રિત હેઈને મને ગધ વાળા હોય છે, એ मधाने समाव सागवे. (१) Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकसूत्रे इत्यादिरूप विधि से य= तथा इमेणं=इस उत्तरेणं = आगे कहे जानेवाली - "कालेग णिक्खमे भिक्खु" इत्यादिरूप विधिसे भत्तपाण= आदार - पानी गवेस ए = गवेषे अर्थात् भिक्षा लेनेके लिए जावे ||२||३|| ५०० टीका - 'सेज्जा' इत्यादि, 'तओ' इत्यादि च । शय्यायां =त्रसतौ, नैषेधिक्यां= निपदनस्थाने स्वाध्यायभूमिकायामित्यर्थः, गोचरे = भिक्षाचर्यायां च =वा समापन्नः = सम्प्राप्तो मुनिः, उपलब्धमन्नादिकम् अयावदर्थम् = अपरिसमाप्तम् अल्पं = क्षुधोपशमनानमित्यर्थः संयम निर्वाहार्थं यावताऽन्नादिकेन भाव्यं तावन्नेति यावत्, भुक्त्वा यदि तेन भोजनेन न संस्तरेत् = संयमयात्रां निर्योढुं न शक्नुयात् |२| ततः = तदनन्तरं कारणे = प्रयोजने आर्पस्वात्सप्तम्यर्थे प्रथमा, उत्पन्ने सति = क्षुधावेदनोपशमनाभावे पूर्वोक्तेन = " संपत्ते भिक्खकालम्मि ” इत्यादिरूपेण अनेन उत्तरेण= " कालेण णिक्खमे भिक्खू० " इत्यादिवक्ष्यमाणलक्षणेन विधिना=प्रकारेण भक्तपानं गवेपयेत् = अन्वेपयेत् पुनर्भिक्षार्थं गच्छेदिति सूत्रार्थः ॥ ३ । 'सेज्जा' इत्यादि, 'तओ' इत्यादि । उपाश्रय में बैठने के स्थान में अर्थात् स्वाध्याय भूमिमें तथा गोचरीमें गए हुए मुनिको अल्प, अर्थात् क्षुधाकी शान्ति न हो सकने योग्य अन्न आदि मिला हो और उससे संयमयात्राका निर्वाह न हो सके, अर्थात् लाया हुआ आहार पर्याप्त नहो तो ऐसा कारण उत्पन्न होने पर, अर्थात् क्षुधावेदनीयके शान्त न होने पर " संपत्ते भिक्खकालम्मि" इत्यादि पूर्वोक्त विधिसे, तथा "कालेण णिक्खमे भिक्खु" इस गाथासे प्रारम्भ करके आगे बताई जाने वाली विधि से भक्त पानकी गवेषणा करे, अर्थात् भिक्षाके लिए फिर गमन करे ॥ २ ॥ ३ ॥ सेज्जा० छत्याहि, तथा ओ० इत्यादि उपाश्रयमां मेसवाना स्थानमां स्मर्थात् સ્વાધ્યાયભૂમિમાં તથા ગોચરીમાં ગએલા મુનિને અલ્પ અર્થાત્ ક્ષુધાની શાન્તિ ન થઇ શકે અર્થાત્ લાવેલા આહાર પૂરતા ન હોય, તે એવુ કારણુ ઉત્પન્ન થતા અર્થાત્ ક્ષુધાવેદનીય શાન્ત नथवाने सीधे संपत्ते भिक्खकालम्मि छत्यादि पूर्वोउ विधिथी, तथा कालेण णिक्खमे भिक्खू मे गायाथी આગળ બતાવવામાં આવનારી વિધિથી ભકત-પાનની વેષણા કરે માટે ફરીથી ગમન કરે (૨–૩) પ્રાર ભ કરીને અર્થાત્ ભિક્ષાને I 1 Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 अध्ययन ५ उ. २ गा. २ - ४ - आहारापर्याप्तौ पुनर्गोचरीगमनविधिः तमेव विधिमुपदर्शयन् कालयतनामाह - ' कालेण' इत्यादि । ३ ૧ ४ ५ ૬ क्खिमे भिक्खू, कालेण य पक्किमे । । २ मूलम् - काले ५०१ ७ ८ & १० ૧૧ ૧૨ अकालं च विवज्जित्ता, काले कालं समायरे ॥ ४ ॥ छाया - कालेन निष्क्रामेद् भिक्षुः कालेन च प्रतिक्रामेत् । अकालं च विवर्ज्य, काले कालं समाचरेत् ॥ ४ ॥ अब भिक्षा लेने की विधि बताते हैं सान्वयाथः - भिक्खू=मुधाजीवी मुनि कालेण= गोचरीके समय से - जिस देशमें जो समय भोजनका हो उस समय के होनेसे णिक्खमे = भिक्षाके लिए जावे, य= और काले = समय से ही वापस आनेका उचित समय हो जानेसे पडिक्कमे = वापस लौट आवे, च =और अकालं = भिक्षाके अनुचित समयको विवज्जिन्त्ता = छोड़कर काले= उचित समयमें कालं= भिक्षादिक समायरे = आचरे - गोचरीके लिए घूमे ॥ ४ ॥ टीका - भिक्षुः = मुधाजीवी मुनिः कालेन = भिक्षोचितसमयेन यस्मिन् देशे यो गृहस्थानां भोजनसमयः स एव भिक्षूणां भिक्षाकालस्तेनेत्यर्थः निष्क्रामेत् = निर्गच्छेत्, भिक्षायै इति शेषः कालेनैव = प्रत्यागमनोचितसमयेनैव यथा स्वाध्यायप्रतिबन्धो न भवेत् तथा भिक्षां गतस्य साधोः परावर्त्तनसमयो निर्दिष्टस्तेनैवेति भावः । (करणे सहार्थे वा तृतीया) । ' चकारोऽत्र 'एव' कारार्थकः ' प्रतिक्रामेत् =प्रत्यागच्छेत् । अकाल = भिक्षानुचितसमयं विवर्ज्य = परित्यज्य काले= भिक्षोचितवेलायां कालं=लक्षणया तत्कालोचितकृत्यं भिक्षादिकं समाचरेत् = भिक्षार्थी उसी विधिको दिखाते हुए कालकी यतना कहते हैं- 'कालेण' इत्यादि । जिस देशमें गृहस्थोंके भोजनका जो समय हो वही समय भिक्षुको भिक्षाके लिए उचित है, अत एव भिक्षाके लिए उसी समय जाना चाहिए और गोचरीके लिए गये हुए साधुको ऐसे उचित समय पर लौट आना चाहिए, जिससे स्वाध्याय आदि क्रियाओं में अन्तराय न पड़े। मे विधिने मतावता अजनी यतना हे छे. - कालेण० छत्यादि જે દેશમાં ગૃહસ્થાના ભેજનને જે સમય હોય તે સમય ભિક્ષાને માટે ઉચિત છે, તેથી ભિક્ષાને માટે તે સમયે જવું જોઈએ અને ગોચરીને માટે ગએલા સાધુએ એવા ઉચિત સમયે પાછા ફરવું જોઇએ કે જેથી સ્વાધ્યાય આદિ ક્રિયાએ મા અતરાય ન પડે તથા જે સમય ભિક્ષાને Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५०२ श्रीदशवकालिकमूत्रे क्रामेदित्यर्थः । बहुशः कालशब्दोपादानं 'मुनीनां यथाकालमेव सकलं कृत्यं विधेय'-मिति ध्वनयति ॥४॥ ___ अकालचारित्वेनाऽलब्धभिक्षो भिक्षुः केनचित्साधुना "भोः ! भिक्षा स्वया लब्धा न वा" इति पृष्टो वदति-"कुतोऽत्र मितम्पचानां हीनदीनानां ग्रामे भिक्षालाभः?" तदाऽसौ अकालचारिणं कथयति-'अकाले' इत्यादि। मूलम् अकाले चरिसी भिक्खू, कालं न पडिलेहिसि। अप्पाणं च किलामेसि, संनिवेसं च गरिहसि ॥५॥ छाया-अकाले चरसि भिक्षो!, कालं न प्रत्युपेक्षसे। आत्मानं च लमयसि, संनिवेशं च गईंसे ।।५।। अकालचारी होने के कारण भिक्षा नहीं मिलने पर असन्तुष्ट हुए साधुको कालचारी साधु पूछता है-हे साधु ! आपको भिक्षा मिली कि नहीं?, तब वह कहता है-इस कंजूसों के गाम में भिक्षा कहाँ पड़ी है। इस पर वह कालचारी साधु उससे कहता है सान्वयार्थः-भिक्खू हे भिक्षु ! आप अकाले असमयमें भिक्षाका समयन होनेपर ही चरिसी-गोचरी फिरते हो, च और कालं गोचरीका समय न तथा जो समय भिक्षाके लिए उचित न हो उसका परिहार करके द्रव्य क्षेत्र काल भावसे उचित समय पर ही भिक्षाके लिए जाना चाहिए। गाथामें बहुत वार काल शब्दका प्रयोग करनेसे यह आशय प्रगट होता है कि-साधुओंको प्रत्येक क्रिया उचित समय पर ही करनी चाहिए ॥४॥ कोई साधु असमयमै भिक्षाके लिए जानेवाले दूसरे साधुसे पूछा गया कि-'हे भिक्षु ! तुम्हें भिक्षाका लाभ हुआ या नहीं?' तय उसने कहा-'इन कंगाल कंजूसोंके गाँवमें भिक्षाकहाँप्राप्त होसकती है। तब वह अकालमें गोचरी करनेवालेके प्रति कहता है-'अकाले०' इत्यादि। માટે ઉચિત ન હોય તેને પરિહાર કરીને દ્રવ્ય ક્ષેત્ર કાળ ભાવથી ઉચિત સમયે જ ભિક્ષને માટે જવું જોઈએ ગાથામાં ઘણીવાર કાલ રાદને પ્રવેશ કરવાથી એ આશય પ્રકટ થાય છે કે-સાધુઓએ પ્રત્યેક ક્રિયા ઉચિત સમયે જ કરવી જોઈએ (૪) કે ઈ સાધુ સમયમાં ભિક્ષાને માટે જનારા બીજા સાધુને પૂછયું કેહિં બિ! તમને વિક્ષાન લાવે છે કે નહિ ?” ત્યારે તેણે કહ્યું “આ કંગાલ કંકોના ગામમાં બિટ કયાથી પ્રાપ્ત થઈ શકે ?” ત્યારે એ અકાળે ગોચરી २.२ ५ प्रत्ये ३९ -अाले. त्यादि. Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૧ अध्ययन ५ उ. २ गा. ५-६-समयमर्यादया गोचरीगमनोपदेशः ५०३ पडिलेहिसी नहीं देखते, अतः अप्पाणं आत्माको किलामेसि-किलामनाखेद-पहुंचाते हो च और संनिवेसं गामकी गरिहसि-निन्दा करते हो । तात्पर्य यह हुआ कि गोचरीका समय हुए विना घूमनेसे साधु भगवानकी आशाका विराधक होता है, और दीनता प्रगट करनेके कारण उसके चारित्रमें मलिनता होती है; अतः जिस देशमें जो भिक्षाका समय हो उसी समयमें साधुको भिक्षाके लिए जाना चाहिये ॥५॥ टीकाहे भिक्षो ! त्वम् अकाले असमये चरसि-भिक्षाथै गच्छसि किन्तु कालं-भिक्षोचितसमयं न प्रत्युपेक्षसे नाद्रियसे, तेन च हेतुनाऽऽत्मानं क्लमयसि पीडयसि मिक्षालाभाभावेन भ्रमणाधिक्येन चेति भावः । संनिवेशं ग्रामं च पुनः गर्हसे निन्दसि । भगवदाज्ञाविराधकत्वेन दैन्यमकाशनेन च चारित्रमालिन्यं जायते, ततोऽनुचितकाले भिक्षार्थ न गन्तव्यमिति ॥ ५॥ मूलम् सइ काले चरे भिक्खू , कुजा पुरिसकारियं । अलाभु-त्ति न सोइजा, तवु-त्ति अहियासए ॥६॥ छाया-सति काले चरेद् भिक्षुः, कुर्यात्पुरुषकारम् । अलाम इति न शोचेत्, तप इति अधिषहेत ॥ ६॥ सान्वयार्थः-भिक्खू साधुको काले-भिक्षाका समय सइ-होनेपर चरे गोचरीके लिए धूमना चाहिए और पुरिसकारियं-उत्साह पूर्वक घूमनेरूप हे भिक्षु ! आप असमयमें भिक्षाके लिए जाते हैं, समयका खयाल नहीं रखते। इसी कारण अधिक भ्रमण करनेसे या भिक्षाके न मिलनेसे तुम अपनी आत्माको पीडित करते हो, और ग्राम-नगरकी निन्दा करते हो। अकालमें भिक्षाके लिये गमनरूप भगवानकी आज्ञाकी विराधना करनेसे तथा दीनताप्रगट करनेसे चारित्रमें मलिनता आती है इसलिए अनुचित समयमें भिक्षाके लिए नहीं जाना चाहिए ॥६॥ હે ભિક્ષુ! આપ અસમયમાં શિક્ષાને માટે જાઓ છે, સમયને ખ્યાલ રાખતા નથી એ કારણે વધારે ફરવાથી યા ભિક્ષા ન મળવાથી તમે તમારા આત્માને પીડિત કરે છે અને ગ્રામ-નગરની નિ દા કરે છે અકાળે શિક્ષાને માટે જવારૂપી ભગવાનની આજ્ઞાની વિરાધના કરવાથી તથા દીનતા પ્રકટ કરવાથી ચારિત્રમાં મલિનતા આવે છે, તેથી અનુચિત સમયે ભિક્ષાને માટે જવું ન नमे (५) Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ - श्रीदशवकालिको पुरुषार्थ भी कुज्जा करना चाहिये, और भिक्षा न मिलनेपर वह अलाभु आज मुझे भिक्षा नहीं मिली त्ति-इस प्रकार न सोइज्जा-सोच न करे, किन्तु तवुआज मेरे अनशन ऊनोदरी आदि तप हुआ है त्ति इस प्रकार सोचकर अहियासए क्षुधा-परीपहको सहन करे-सन्तुष्ट रहे । तात्पर्य यह है कि-साधुओंको सिर्फ भिक्षाके ही लिए गोचरीमें घुमना नहीं हैं किन्तु वीर्याचारके लिए भी भगवान्ने गोचरीमें घुमना कहा है ॥६॥ टीका-'सइ' इत्यादि । भिक्षुः काले-भिक्षोचितसमये प्राप्ते सति, यहा 'सइकाले' इत्यस्य 'स्मृतिकाले' इतिच्छाया तत्र-स्मर्यन्ते साधत्रो दादभिर्दानार्थ यस्मिन् समये तस्मिन्नित्यर्थः, चरेत्-भिक्षार्थ गच्छेत् । पुरुपकारं-पराक्रमम् उत्साहपूर्वकभिक्षार्थभ्रमणलक्षणं कुर्यात्-विदध्यात् । कदाचिदलाभे सति अलामा अद्य भिक्षालाभो न संजात इति न शोचे-न परितपेत्, किन्तु तपा= अय मेऽनशनावमौदरिकादिरूपं तपः सम्पन्नमिति कृत्वा अधिपहेत-सन्तुष्येत् । भिक्षाया अलाभेऽपि वीर्यचारो मया सम्यगाराधितः, यतो न केवलमन्नार्थमेव भिक्षाचरणं भिक्षुणां, किन्तु वीर्याचारार्थमपि भगवता समादिष्टमिति भावार्थः ॥ ६॥ 'सइकाले' इत्यादि। भिक्षु उचित समय प्राप्त होनेपर ही भिक्षाके लिए जावें। उत्साहपूर्वक भिक्षार्थ भ्रमणरूप पुरुपार्थ करें। कभी भिक्षाका लाभ न हो तो ऐसा सोच न करें कि-'आज मुझे भिक्षा नहीं मिली,' किन्तु ऐसा विचार करके सन्तुष्ट रहें कि-आज भिक्षा न मिली तो सहज ही मेरे अनशन आदि तप होगया, अर्थात् भिक्षाका लाभ न होनेपर भी मैंने भली भाँति वीर्याचारका आराधन किया है। साधु केवल अन्नादिककी प्राप्तिके लिए भिक्षाचरी नहीं करते किन्तु वीर्याचारकी आराधनाके लिए भी भिक्षाचरीमें जाना भगवान ने बताया है ॥६॥ ___सइ काले. त्या नियत समय यता लक्षाने माटे. य. ઉત્સાહપૂર્વક ભિક્ષાર્થ ભ્રમણારૂપ પુરૂષાર્થ કરે કઈવાર ભિક્ષાને લાભ ન થાય તે એ વિચાર ન કરે કે “આજ મને ભિક્ષા ન મળી.” પરંતુ એ વિચાર કરીને સંતુષ્ટ રહે કે-આજ ભિક્ષા ન મળી તે સહેજે મારાથી અનશન આદિ ન થઈ ગયું અર્થાત શિક્ષાને લાભ ન થવાથી પણ મે ભલી પડે વીર્યાચારનું આરાધન કર્યું છે સાધુ કેવળ અન્નાદિની પ્રાપ્તિને માટે જ વિગરી કરતા નથી, કિન્તુ વીર્યાચારની આરાધનાને માટે પણ ભિક્ષાચરીમાં જવું जापाने मा०यु. (१) Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अध्ययन ५ उ. २ गा. ७-८-गोचयों क्षेत्रयतना ५०५ क्षेत्रयतनामाह-'तहेवु०' इत्यादि। मूलम्-तहेवुच्चावया पाणा, भत्तहाए समागया। तं उज्जुयं न गच्छिज्जा, जयमेव परक्कमे ॥७॥ छाया-तथैवोच्चावचाः प्राणाः, भक्तार्थ समागताः। तेपाम्ऋजुकं न गच्छेत्, यतमेव पराक्रामेत् ॥ ७॥ ___ सान्वयार्थ:-तहेव-उसीमकार उच्चावया उच्च जातिके हंसादिक अवच-नीच जातिके कौए आदि पाणा-पाणी (यदि) भत्तहाए-चुगा-पानीके लिए समागया-आये हों-इकटे हुए हों तोतं उज्जुयं-उन प्राणियोंके सामने नगच्छिज्जा नहीं जावे, (किन्तु) जयमेव यतनापूर्वक ही-आसपाससे अथवा अन्य मार्गसे अर्थात् जिस तरह उन प्राणियोंको किसी प्रकारका त्रास न पहुचे उसीतरह परकमे जावे ॥७॥ ___टीका तथैव-तद्वत् उच्चावचाः तत्र उदञ्चः-उच्चजातीया ईसादयः, अनाश्च:= नीचजातीयाः काकप्रभृतयः, यद्वा उच्चावचाः अनेकविधाः, "उच्चावचं नैकभेद". मित्यमरात्, प्राणा: पाणिनः भक्तार्थम् अन्न-पानार्थ मार्गादौ समागता समायाता भवन्ति चेत् 'तं'-तेषाम् , आपत्वात् षष्ठीबहुत्वे प्रथमैकवचनम्, ऋजुकंसंमुखं न गच्छेत्, तेषामन्नपानान्तरायादिमचुरदोषापातात् । तर्हि किं कुर्यात् ? यतमेव-सयतनमेव यथा तेषां संत्रासो न भवेत्तथा पराक्रामेत्-चरेत् अन्यमार्गेण अब क्षेत्रकी यतना हैं-'तहेवु० इत्यादि। हंस-आदि उच्च-जातीय और काक-आदि नीच-जातीय प्राणी यदि भोजन-पानके लिए रास्तेमें आये हों तो उनके सामने न जावें । सामने जानेसे उनके चुगे-पानीमें विघ्न पड़ जानेके कारण भक्त-पानकी अन्तराय आदि अनेक दोष लगते हैं, अतः यतना-पूर्वक, अर्थात् जिससे वे भयभीत न हों उस प्रकार दूसरे मार्गसे या एक किनारेसे गमन करें। के क्षेत्रनी यतना ४ छ.-तहेवु० त्या હ સ—આદિ ઉચ્ચ-જાતીય અને કાગડે--આદિ નીચ જાતીય પ્રાણી જે ભજન-પાનને માટે રસ્તામાં આવેલા હોય તે તેની સામે ન જવું સામે જવાથી તેમને પાણી પીવા ચણવા વગેરેમાં વિદન પડવાથી ભકત-પાનની અતરાય આદિ અનેક દેશે લાગે છે એટલે યતનાપૂર્વક અર્થાત જે રીતે તેઓ ભયભીત ન થાય એ રીતે બીજે માગે યા એક બાજુએથી ગમન કરવું. તાત્પર્ય એ છે કે Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ श्रीदशवैकालिक मूत्रे तत्पार्श्वतो वा गन्तुं यतेतेत्यर्थः, इंसादिभिः प्राणिभिः सर्वतः समाक्रान्ते पथि अन्यमार्गेण, एकदेशावच्छेदेन समाक्रान्ते च पार्श्वतोऽन्यभागेनेति विवेकः ॥ ७ ॥ २ 3 ૫ ९ r मूलम् - गोयरग्गपविट्ठो य, न निसीइज्ज कत्थइ । ૧૦ ७ ११ ૧૩ ♦ ૧ कहं च न पबंधिज्जा, चिट्ठित्ताण व संजए ॥ ८ ॥ छाया - गोचराग्रमविष्ट, न निपीदेत् कुत्रापि । कथां च न मवध्नीयात् स्थित्वा च संयतः ॥८॥ सान्वयार्थ :- संजए = साधु गोयरग्गपविट्ठो य= गोचरीके लिए गया हुआ कत्थई = कहीं भी न निसीइज्ज नहीं बैठे, च =और चिट्टित्ताण व= खड़ा रहकर भी कह-धर्मकथा न पधिज्जा = न कहे ||८|| टीका- 'गोयरग्ग०' इत्यादि । संयतः = मुनिः गोचरायप्रविष्टः सन् कुत्रापि गृहादौ न निपीदेत् = नोपविशेत्, च = अथच स्थित्वा = तिष्ठन् उपविश्य वा कथां = धर्मकथां न प्रवध्नीयात्=ससन्दर्भ वक्तुं नारभेत, किन्त्येकस्यैव प्रश्नस्य संक्षेपत एकमेव समाधानं कर्तुमईति, अन्यथा दायकाऽरुचिप्रभृतिविविधदोपप्रसङ्गः ||८|| तात्पर्य यह है कि अगर समस्त मार्ग हंस कबूतर या कौए आदि प्राणियोंसे व्याप्त हो तो दूसरे मार्गसे, और एक तरफ चुगा-पानी करते हों तो एक किनारे होकर गमन करना चाहिए ॥ ७ ॥ 'गोरग०' इत्यादि । गोचरीके लिए गये हुए मुनि किसी के घरमें बैठें, न खड़े-खड़े संदर्भके साथ धर्मकथा कहना आरम्भ करें, । अवसर हो तो एक प्रश्नका एक ही समाधान खड़े-खड़े संक्षेपसे कर देवें । बैठने से या लम्बी धर्मकथा करनेसे दाताकी अरुचि आदि अनेक दोष होते हैं ॥ ८ ॥ જે આખા મા હંસ કબૂતર યા કાગડા વગેરે પ્રાણીઓથી ભરેલા હાય તે ખીજે માર્ગે, અને એક તરફ તેએ ચણુતાં-પાણીપીતા હોય તે તેની ખાજુએ ઇને ગમન કરવુ જોઇએ (૭) गोअरग्ग० प्रत्याहि गोयरीने भाटे गमेसेो मुनि अठाना घरभां न मेसे, ઊભેઊભે સદા સહિત ધર્મ કથા કહેવાના આરંભ ન કરે. અવાર હાય તે એક પ્રશ્નનું એકજ સમાધાન ઊભા ઊભાં સક્ષેપમાં કરી કે બેસવાથી યા લાંબી ધર્મકથા કરવાથી દાતાની અગ્નિ આદિ અનેક દ્વેષા થાય છે (૮) " 1 Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. ९-११-भिक्षाथै गृहप्रवेशविधिः ५०७ द्रव्ययतनामाह-'अग्गलं' इत्यादि। मूलम् अग्गलं फलिहं दारं, कवाडं वावि संजए। अवलंबिया न चिट्ठिजा, गोयरग्गगओ मुणी ॥९॥ छाया-अगलं फलकं द्वारं, कपाटं वाऽपि संयतः।। अवलम्ब्य न तिष्ठेत् , गोचराग्रगतो मुनिः ॥९॥ सान्वयार्थः-गोयरग्गगओ-गोचरीके लिए गया हुआ संजए इन्द्रियोंका संयम रखनेवाला मुणी-साधु अग्गल-आगल-भोगल अथवा सकली फलिहंदोनों किवाडोंको रोक रखनेवाला काष्ठ (हुड़ा) को दारं-दरवाजा वावि-अथवा कवाडं-किवाड़को अवलंबिया-पकड़कर या इनका सहारा लेकर न चिट्ठिज्जा खड़ा न होवे ॥९॥ टीका-गोचराग्रगतः भिक्षाचरीनिर्गतः, संयतः संयमी मुनिः, अर्गलं कपाटपट्टद्वयदृढसंयोजककाष्ठादिनिर्मितकीलविशेष शृङ्खलादि च, फलकम् अवष्टम्भककाष्ठविशेष, द्वारं गृहादेनिगमप्रवेशमार्गम्, अपिवा कपाटं स्वनाममसिद्धद्वाराच्छादकदारुफलकविशेषम् अवलम्ब्य=आश्रित्य न तिष्ठेत् ॥ ९॥ ૬ ૯ ૮ ૭ ૧૦ ૧૧ ૧૨ मूलम्-समणं माहणं वावि, किविणं वा वणीमगं । उवसंकमंतं भत्तट्टा, पाणहा एव संजए ॥१०॥ तमइक्वमित्तु न पविसे, नवि चिट्टे चक्खुगोयरे। एगतमक्कमित्ता, तत्थ चिहिज संजए ॥११॥ ૧૩ ૧૪ ૧૫ ૧૬ छाया-श्रमणं ब्राह्मणं वाऽपि, कृपणं वा वनीपकम् । उपसंक्रामन्तं भिक्षार्थ, पानार्थमेव संयतः ॥ १० ॥ तम् अतिक्रम्य न प्रविशेत् , नापि तिष्ठेत् चक्षुर्गोचरे । एकान्तमवक्रम्य तत्र तिष्ठेत् संयतः ॥ ११ ॥ अब द्रव्ययतना कहते हैं- अग्गलं' इत्यादि । गोचरीके लिए गये हुए मुनिको आगल, सांकल, फलक (खूटीआदि), दरवाजा या किवाडका सहारा लेकर खड़ा नहीं रहना चाहिए ॥९॥ वे द्रव्य-यतना ४ छ-अग्गलं त्यादि ગેચરી માટે ગએલા મુનિએ આગળ, સાંકળ, ફલક (ખૂટી આદિ) દરવાજે યા કમાડને આધાર લઈને ઊભા રહેવું ન જોઈએ (૯) Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदर्शकालिक सान्ग्यार्थः-संजए=साधु भत्तट्ठा = अन्न के लिए और पाणट्ठा एव = पानी लिए ही उवसंकमंत = गृहस्थके घर पर आते हुए समण-निर्ग्रन्थ मुनिको वाि अथवा माहणं = ब्राह्मणको किविणं कृपण वा=अथवा वणीमगंन्दरि भिखारीको (देखकर ) तं- उन श्रमणादिको अइक्कमित्तु = लांघकर न पविसे गृहस्थके घरमें न जावे, नवि =और न चक्खुगोयरे - उनके दृष्टिगोचर- दृष्टिमार चिट्ठे = ठहरे, (किन्तु ) एगतं = एकान्त स्थानमें-जहां उनकी दृष्टि न पडती हो ऐसी जगह अवक्कमित्ता=जाकर संजए = इन्द्रियों का संयम करता हुआ चुप-चाप तत्थ = वहां चिट्ठे= खड़ा रहे ॥ १० ॥ ११ ॥ टीका--' समणं' इत्यादि, 'तमइ०' इत्यादि च । संयतः, गृहस्थद्वारे भक्तार्थमेव पानार्थमेव, एवशब्दस्योभयत्र सम्बन्धः । उपसंक्रामन्तं = समीपमायान्तं यान्तं वा श्रमणादिकं वेति शेषः । तत्र वनीपकः = याचकविशेषः, अन्यत् सुगमम् । तं=श्रमणादिकम् अतिक्रम्य = उल्लङ्घन्य तस्याग्रतो भूत्वेत्यर्थः गृहस्थगृहं न प्रविशेत्, एतावदपि न तेषां चक्षुर्गोचरेऽपि = दृष्टिपथेऽपि न तिष्ठेत् किन्तु स संयत एकान्तं = यत्र तेषां दृष्टिर्न पतेत् तं प्रदेशम् अत्रक्रम्य = गत्वा तत्र तिष्ठेत् ॥ १० ॥ ११ ॥ पूर्वोविधेरपालने दोपमाह - ' वणीमगस्स' इत्यादि । २ 3 ४ ५ ५ ७ मूलम् - वणीमगस्स वा तस्स, दायगस्सुभयस्स वा । ५०८ १ ર ૧૧ ५ ૧૩ अप्पत्तियं सिया हुज्जा, लहुत्तं पवयणस्स वा ॥ १२ ॥ ' समणं' इत्यादि, 'तमइ० ' इत्यादि । श्रमण, ब्राह्मण, कृपण और वनीपकको गृहस्थके दर्वाजे पर भोजन या पानीके लिए आया देखकर साधु उसे उल्लङ्घन करके गृहस्थके घरमें प्रवेश न करें, इतना ही नहीं, जहाँ उनकी दृष्टि पड़ती हो ऐसे स्थान पर भी खड़े न हों, किन्तु एकान्त प्रदेशमें जाकर स्थित होवें, जहां उनकी दृष्टि न पहुँचे || १० | ११॥ ऐसा न करनेमें दोप कहते हैं-'वणीमगस्स ' इत्यादि । समण० इत्यादि तथा तमइ० प्रत्याहि श्रभय, श्राह्मप्य, कृपय भने वनी પને ગૃહસ્થના દરવાત પર ભેજન યા પાણીને માટે આવેલા જોઈને સાધુ એમને એળંગીને ગૃહસ્થના ઘરમા પ્રવેશ ન કરે, એટલું જ નહિ જ્યા એમની છુ પડતી હોય એવા સ્થાન પર પણ ઊત્તે ન રહે, કિંતુ એકાત પ્રદેશમાં ઇને ઊભે રહે કે ત્યાં એમની દષ્ટ પાસે નિર્ડ (૧૦-૧૧) अन न उद्यामां है.५ उडे - 'वणीमगस्स० ' इत्यादि. Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. १२-१३-भिक्षार्थ गृहप्रवेशविधिः छाया-वनीपकस्य वा तस्य, दायकस्योभयो । . अनीतिकं स्याद् भवेत्, लघुत्वं प्रवचनस्य वा ॥१२॥ पूर्वोक्त विधिके अपालन में दोप बताते हैं सान्वयार्थः-(ऐसा न करनेसे) सिया-कदाचित्-शायद तस्स-उस वणीमगस्स-श्रमणादि वनीपक पर्यन्तको वा अथवा दायगस्सन्दाताको वा-या उभयस्स-दोनों-दाता और याचक-को अप्पत्तियं-अप्रीति-द्वेष या मनमें खेद हो जाती है, वा और पवयणस्स-जिनशासनकी लहुत्तं लघुता हुज्जा होती है ॥१२॥ टीका-स्यात् कदाचित् वनीपकस्य याचकविशेषस्य वा अथवा तस्य श्रमणादेः, दायकस्य दातुर्वा, उभयोः दात-याचकयोर्वा अमीतिकं द्वेषः, मनःखेदो वा भवेद, प्रवचनस्य-जिनशासनस्य लघुत्वं लघुता वा भवेदिति सम्बन्धः॥१२॥ कदा गन्तव्य ?-मित्याह-'पडिसेहिए' इत्यादि। मूलम्-पडिसेहिए व दिन्ने वा, तओ तम्मि नियत्तिए । उवसंकमिज भत्तट्ठा, पाणहाए व संजए ॥ १३ ॥ छाया-प्रतिषेधिते वा दत्ते वा, ततस्तस्मिन् निवृत्ते । उपसंक्रामेत् भक्ताथै, पानार्थ वा संयतः॥१३॥ कब जाना चाहिये, सो बताते हैं सान्वयार्थ:-पडिसेहिए-दाताके निषेध कर देने पर व-अथवा दिने अन्नादिके दिये जाने पर वा-या-दाताके मौन साधने पर तओ-उस स्थानसे संभव है, उन्हें उल्लङ्घन करके जानेसे या उनके सामने खड़े रहने से उस वनीपक या दाताको अथवा दोनोंको देष तथा खेद उत्पन्न होजाय। तथा प्रवचनकी लघुता होती है। अतः उन्हें उल्लंघन करके जाना साधुका कल्प नहीं है ॥१२॥ कब जाना चाहिए ? सो कहते हैं-'पडिसेहिए' इत्यादि। સભવિત છે તેમને ઓળગીને જવાથી યા એમની સામે ઊભા રહેવાથી એ વનપક યા દાતાને અથવા બેઉને દ્વેષ તથા ખેદ ઉત્પન્ન થઈ જાય. તથા પ્રવચનની લઘુતા થાય છે, એટલે એમને એળ ગીને જવું એ સાધુને કહ્યું नया (१२) यारे नये ? ते छ-पडिसेहिए. त्यादि. Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५१० श्रीदशवैकालिको तम्मि उन श्रमणादिकोंके नियत्तिए चले जाने पर संजए-साधु भत्तहाआहार व अथवा पाणट्ठाए पानीके लिए उवसंकमिज्ज-जावे ॥१३॥ टीका-प्रतिपेधिते-दात्रा प्रतिषेधं प्राप्ते वा=अथवा दत्ते अन्नादिके, वाशव्दादातुस्तूष्णीभावावलम्बनाद् विलम्बादिनिमित्तवशाद्वा ततः तत्स्थानात् तस्मिन् बनीपकादौ निवृत्ते प्रतिनिवृत्ते सति संयतः भक्तार्थ पानार्थ वा उपसं. क्रामेत्-भिक्षा ग्रहीतुं गच्छेत् ।। १३ ॥ मूलम्-उप्पलं पउमं वावि, कुमुयं वा मगदंतियं । ८८ १० ११ १२ १३ १४ अन्नं वा पुप्फसच्चित्तं, तं च संलंचिया दए ॥१४॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं । २५ . ० २२ . २५ २४ २९ 3 .. दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥१५॥ छाया-उत्पलं पद्मं वाऽपि, कुमुदं वा मगदन्तिकाम् ।। अन्यद्वा पुष्पसचित्तं, तच संलुच्य दद्यात् ॥ १४ ॥ तद् भवेद् भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकम् । ददती मत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ।। १५॥ सान्वयार्थ:-उप्पलं नील कमल पउमं रक्त कमल बावि अथवा कुमुयं - चन्द्रविकासी कमल वा-या मगदंतिय-मालती-मोगरेके फूलको वा-अथवा ।. अन्नं दुसरे भी इसी प्रकारके जो पुप्फसचित्तं सचित्त पुष्प ही तंच-उनको भी (अगर) संलंचिया लोच करके दए देवे तो तंबह भत्तपाणं तु आहारपानी संजयाण-संयमियोंको अकप्पियं-अकल्पनीय भवे होता है, अतः दितियं देनेवालीसे पडियाइवखे-कहे कि तारिसं-इस प्रकारका आहार मे मुझे न कप्पइ-नहीं कल्पता है ॥१४॥१५॥ दाताके वनीपक आदिको दान देनेकी मना कर देने पर, अथवा अन्न आदिके देदेने पर या मौन साध लेने पर, अथवा विलम्ब होने आदिके कारणसे जब वह वनीपक आदि उस घरसे लौट जाय तव संयमीको भक्त-पानके लिए उस घरमें जाना चाहिए ॥ १३॥ દાતાએ વનપક આદિને દાન દેવાની મનાઈ કર્યા પછી અથવા અન્ન આદિ આપી ચૂક્યા પછી યા મોન સાધી લીધા પછી, અથવા વિલબ છે ઈત્યાદિને કારણે જ્યા એ વનપક આદિ એ ઘરથી પાછા ફરે ત્યારે સમી: વકત-પાનને માટે એ ઘરમાં જવું જોઈએ (૧૩) Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १४३ २ ५६ ७ अध्ययन ५ उ. २ गा. १४-१७-पुष्पसंस्पर्शकहस्ताद्भिक्षानिषेधः ५११ टीका–'उप्पलं' इत्यादि "तं भवे' इत्यादि च । उत्पलं-श्यामल-धवललोहित-भेदेन त्रिविधं कमलम् , अपिवा पद्म-सूर्यविकासि कमलं, कुमुद-चन्द्रविकासि कमलं वा अथवा मगदन्तिकां मालतीपुष्पम् , अन्यद्वा पुष्पसचित्तं पुष्पेषु सचित्तं पुष्पसचित्तं सचित्तपुष्पमात्रमित्यर्थः, तच्च संलम्च्य संछिद्य यदि दात्री भक्त-पानं दद्यात्, तर्हि तद् भक्तपानं तु संयतानामग्राह्यं भवेदिति ददती प्रत्याचक्षीत-तादृशंदोषयुक्तं मे=मम न कल्पत इति ॥ १४ ॥ १५ ॥ मूलम् उप्पलं पउमं वावि कुमुयं वा मंगदंतियं । अन्नं वा पुप्फसचित्तं, तं च संमदिया दए ॥१६॥ ૧૫ ૨૦ ૧૬ ૧૭ ૧૮ ૧૯ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं । .૨૧ ૨૨ ૨૩ ૨૪ ૨૫ ૨૩ दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥१७॥ छाया-उत्पलं पद्मं वाऽपि कुमुदं वा मगदन्तिकाम् । अन्यद्वा पुष्पसचित्तं तच्च संमद्यं दद्यात् ॥ १६ ॥ तद् भवेद् भक्तपानं, तु संयतानामकल्पिकम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते तादृशम् ॥ १७ ॥ सान्वयार्थ:-उप्पलं नील कमल पउमं-रक्त कमल वावि-अथवा कुमुयं= चन्द्रविकासी कमल वा-या मगदंतियं-मालती-मोगरेके फूलको वा अथवा _ अन्नं-दूसरे भी इसी प्रकारके जो पुष्फसचित्तं सचित्त पुष्प हैं तंच-उनको भी (अगर) संमदिया-पैरों आदिसे कुचलकर दए देवे तो तं-वह भत्तपाणं तु= 'उप्पल' इत्पादि, 'तं भवे' इत्यादि। दाता नीला सफेद और लाल कमल, सूर्यविकासी कमल, चन्द्रविकासी कमल, मालतीका फूल तथा अन्य सचित्त पुष्प तोड़ कर आहारपानी देवे तो वह संयमियोंके लिए ग्राह्य नहीं है इसलिए देनेवालीसे कहे कि ऐसा दोषयुक्त आहार मुझे नहीं कल्पता है ॥१४॥१५॥ उप्पलं० एत्याहि तथा तं भवे. त्याहिन्न होता, नी सह ॥ सास કમળ, સૂર્યવિકાસી કમળ, ચદ્રવિકાસી કમળ, માલતીનું પુલ તથા અન્ય સચિત્ત પુષ્પ તેડીને પછી આહાર પણ આપે છે તે સયમીઓને માટે ગ્રાહ્ય નથી તેથી તે આપનારીને સાધુ કહે કે એ દેષયુકત આહાર મને કલ્પતે नथी (१४-१५) Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ श्रीदशवेकालिकमुत्रे आहार- पानी संजयाणं संयमियोंको अकप्पियं=अकल्प्य भवे=होता है, (अतः) दितियं = देनेवाली से पडियाइक्खे = कहे कि तारिस इस प्रकारका आहार मे= मुझे न कप्पइ=नहीं कल्पता है || १६ ||१७|| टीका - ' उप्पलं' इत्यादि, 'तं भवे' इत्यादि च । उत्पलादिकं संमर्च = करचणादिना तत्संमर्दनं कृत्वा, अशनादि दद्यात् तद् भक्त पानं तु संयतानामग्राह्यमित्यादि पूर्ववद् व्याख्येयम् । अत्र 'संम' शब्देन संमर्दनं यथा कथञ्चिस्पर्शमात्रमपि गृद्यते, उत्पलादिगतसूक्ष्मजीवानां तावताऽपि पीडोत्पत्तेरवश्यम्भावात् । ' संमद्दमाणी पाणाणि वीर्याणि हरियाणि य' इत्यस्यैव प्रथमोदेशके समस्तवनस्पतीनां ग्रहणेऽपि पुनस्त्रोत्पलादीनां ग्रहणं न पुनरुक्तिदोपजनकं, पूर्वत्र सामान्यरूपेणाऽत्र च विशेषरूपेणोपादानादिति बोध्यम् ॥ १६ ॥ १७ ॥ 'उप्पल' इत्यादि, 'तं भवे' इत्यादि । पूर्वोक्त उत्पलादिकों में से किसी सचित्त फूलको मर्दन करके अथवा संघटा मात्र भी करके आहार देवे तो देने वाली से साधु कहे कि ऐसा आहार लेना मुझे नहीं कल्पता है || यहां 'मर्दन' शब्द से स्पर्शमात्रका भी ग्रहण होता है, क्योंकि कमल आदिके जीवोंको स्पर्श करनेसे भी अवश्य पीडा होती है । प्रथम उद्देश में " संमदमाणी पाणाणि बीयाणि हरियाणिय' इस पदसे ही सव वनस्पतिकायका ग्रहण कर लिया था, यहाँ फिर उत्पल आदिका ग्रहण किया है यह पुनरुक्ति दोष नहीं समझना चाहिए, क्योंकि पहले सामान्यरूपसे निषेध किया था और यहां विशेषरूपसे निषेध किया है ॥ १६ ॥ १७ ॥ उप्पल धत्यादि, तथा तं भवे त्याहि पूर्वोश्त उसण माहिगाथी उ ચિત્ત ફૂલનું મન કરીને અથવા માત્ર સંઘટન પણ કરીને આહા આપે તે આપનારીને સાધુ કહે કે એવા આહાર લેવા અને કલ્પતા નથી. અહી 'भर्दन' શબ્દી સ્પર્ધા-માત્રનું પણ મહેણુ થાય છે, કારણ કે કમળ આદિના જવાને स्पर्श उरपायी यतु अवश्य पीडा याय है, प्रथम देशमां संमदमाणी पाणाणि वीयाणि हरियाणि य मे पहथीन गधी वनस्पतिअयनु अणु उश्यामां गाच्यु હતુ, અહીં ફરીથી કમળ આદિનું ગ્રહણ કર્યું' છે, એ પુનરૂતિ દ્વેષ સો ના, કારણુ કે પહેલાં સામાન્યરૂપે નિષેધ કર્યા હતા, અને અહીં વિશેષરૂપ निषेध ज्यों है (१६-१७) 1 Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. १८ - २० - सचित्तहरितकायनिषेधः ૧ २ 3 ४ ૫ मूलम् - सालुयं वा विरालियं, कुमुयं उप्पलनालियं । ५१३ ७ ८ ૯ मुणालियं सासवनालियं, उच्छुखंडं अनिव्वुडं ॥१८॥ વા १७ ૧૯ ૧૮ १० १२ तरुणगं वा पवालं, स्वखस्स तणगस्स वा । ૧૩ ૧૬ ૧૫ ૧૪ ૨૦ ૨૧ अन्नस्स वावि हरियस, आमगं परिवज्जए ॥ ९९ ॥ छाया - शालूकं वा विरालिकां, कुमुदम् उत्पलनालिकाम् । मृणालिकां सर्पपनालिकाम्, इक्षुखण्डम् अनिर्वृतम् ॥ १८ ॥ तरुणकं वा प्रवालं, वृक्षस्य, तृणकस्य वा । अन्यस्य वाऽपि हरितस्य, आमकं परिवर्जयेत् ॥ १९ ॥ सान्वयार्थः - सालुयं = कुमुदादिका मूल विरालियं = पलासका कन्द-साधारण वनस्पतिविशेष कुमुयं = चन्द्रविकासी श्वेत कमल उप्पलनालियं = कमलनाल मुणालियं=कमलतन्तु सासवनालियं = सरसोंकी भाजी या कान्दल वा = अथवा उच्छुखंडं=गन्नेके टुकड़े, (ये सब यदि) अनिव्वुडं - शस्त्रपरिणत - अचित्त न हों तो, (तथा) रुक्खस्स = इमली आदि वृक्षके वा= अथवा तरुणगस्स = मधुर तृणादिकोंके वा=और अन्नस्सवि= दूसरे प्रकारके भी हरियस - हरित कायके तरुri = कोंपल पत्ते आदि वा = अथवा पवालं कच्ची कोंपल नहीं खिले हुए पत्तेआदि आमगं = सचित्त हों तो उन्हें परिवज्जए = बरजे - नहीं लेवे ॥१८॥१९॥ टीका – 'सालुयं' इत्यादि 'तरुणगं' इत्यादि च । शालूकं = कुमुदादिमूलं, विरालिकां= पलाशकन्दं साधारणवनस्पतिजातिविशेषं, कुमुदं = चन्द्रविकासिश्वेतकमलम्, उत्पलनालिकां = कमलनालं, मृणालिकां = बिसं 'भे' इति भाषामसिद्धां, सर्षपनालिकां=सर्पपपत्रशाकं, सर्पपकन्दलीं वा, इक्षुखण्डम् = इक्षुशकलं वा, एतत्सर्वम् अनिर्वृतम् = शस्त्राऽपरिणतम् । तथा वृक्षस्य = अम्लिकादेः वा=अथवा । 'सालुयं' इत्यादि, 'तरुणगं' इत्यादि । कमलका मूल, पलाश (ढाक) का मूल अर्थात् साधारण वनस्पतिकी जातिविशेष, तथा सफेद कमल, कमलकी नाल, सरसोंके पत्तेका शाक, गन्नेका खण्ड, ये सय सालय० छत्याहि, तरुणग० प्रत्याहि उभजनुं भूण, पसाशनुं भूझ, अर्थात् સાધારણ વનસ્પતિની જાતિ વિશેષ, તથા સફેદ કમળ, કમળની નાળા, સરસવના પાંદડાનું શાક, શેરડીની કાતળી, એ બધા જે શસ્ત્રથી પરણિત ન હેાયતા એના Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ श्रीदशवकालिकसत्रे तृणकस्य मधुरतृणादेः, अन्यस्य हरितस्यापि वा हरितकायमात्रस्य तरुण-तरुणदशाऽऽपन्नं पत्रादिकं, प्रवालं-मृकुमारं पत्रादिकं वा, आमक-सचित्तं परिवर्जयेत् ॥ १८ ॥ १९ ॥ मूलए-तरुणियं वा छिवाडिं, आमियं भज्जियं सई। * ૧૧ ૧૨ ૧૨ दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥२०॥ छाया-तरुणिकां वा छिवाडीम्, आमिकां भजितां सकृत् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥ २० ॥ सान्वयार्थः-तरुणियं कच्ची जिसके वीज पके नहीं हों ऐसी वा अथवा सई-एक वार भज्जियम्भुनी हुई आमियं-सचित्त छिवाडि-फलीको दितियदेनेवालीसे (साधु) पडियाइक्खे-कहे कि तारिसं-इस प्रकारका आहार मे= मुझे न कप्पइ-नहीं कल्पता है ॥ २० ॥ ____टीका-'तरुणियं' इत्यादि। तरुणिकाम् अपरिपक्ववीजाम् अपरित्यक्तत्वकसंश्लेपावस्थापन्नामित्यर्थः, छिवाडी देशीयोऽयं शब्दः' मुद्ग-चवल-तुवरिकादिफलिका सकृद्भर्जिताम्-एकवारं भृष्टां वा अथवा आमिकां सचित्तां ददती प्रत्याचक्षीत तादृशं मे न कल्पत इति । ॥२०॥ यदि शस्त्रसे परिणत न हों तो इनका, तथा-इमली आदि वृक्षके, मधुर तृण आदिके तथा अन्य हरेक वनस्पतिके पत्ते कोंपल आदि जो सचित्त हों तो उनका त्याग करना चाहिए ॥ १८॥ १९ ॥ तरुणियं' इत्यादि। जिसके बीज न पके हों ऐसी मूंग, चवला, तुअर (अरहर) आदिकी फली एक-वार पूँजी हुई हो तथा सचित हो तो देनेवाली बाईसे साधु कहे कि यह लेना मुझे नहीं कल्पता है ॥२०॥ તથા આબલી આદિના વૃક્ષના, મધુર તૃણ આદિના, તથા બીજી બધી વનસ્પતિના પાદડા, કુપળ, આદિ જો સચિત્ત હોય તો એને ત્યાગ કરવો જોઈએ. (૧૮) (૧૯) तरुणियं या ना मी पायां न डाय मेवा भर, योगा, तु३२ આદિની સીગ એકવાર ભૂજેલી હેય તથા સચિત્ત હોય તે તે આપનારી બાઈને સાધુ કહે કે એ લેવી અને ક૫તી નથી. Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ f अध्ययन ५ उ. २ गा. २१-२२ - सचित्ताहार- पाननिषेधः 3 ૧ ૫ $ मूलम् - तहा कोलमणुस्सिन्नं, वेलुयं कासवनालियं । ८ ४ ૧૭ तिलपप्पडगं नीमं, आमगं परिवज्जए ॥ २१ ॥ छाया - तथा कोलमनुत्स्विन्नं, वेणुकं काश्यपनालिकाम् । तिलपर्यटकं नीपम्, आमकं परिवर्जयेत् ॥ २१ ॥ सान्वयार्थ :- तहा - उसी प्रकार अणुस्सिन्नं विना उबाले हुए कोलं= बेर तथा वेलुयं = केर या वांसकी कोंपल कासवनालियं = श्रीपर्णीका फल तिलपप्पडगं - तिलपापड़ी नीम-कदम्बका फल ( ये सब यदि ) आमगं - सचित्त हों तो उन्हें परिवज्जए-बर्जे ॥२१॥ २ ܕ टीका - 'हा' इत्यादि । तथा तद्वत् अनुत्स्विन्नं = सलिलानलसंयोगेनाऽनुस्कालितम् - अकथितमित्यर्थः, कोलं= बदरीफलम्, आमकम् = अशस्त्रो पहतम्, अस्य वेणुकादौ सर्वत्र सम्बन्धः, वेणुकं = वंशकरीरं वंशाङ्कुरमित्यर्थः काश्यपनालिकां = श्रीपर्णीफलम् अत्र 'आमग ' - मित्यस्य लिङ्गविपरिणामेनान्त्रयः । तिलपर्पटकं प्रसिद्धमेव, नीपं कदम्बफलं परिवर्जयेत् ॥ २१ ॥ ૧ २ 3 * ४ ૫ मूलम् - तहेव चाउलं पिट्ठ, विडं वा तत्तनिव्वुडं । ५१५ - ७ ८ तिल- पिछं पूइ - पिन्नागं, आमगं परिवजए ॥ २२ ॥ छाया - तथैव ताण्डुलं पिष्टं विकटं वा तप्तनिर्वृतम् । तिलपिष्टं पूतिपिण्याक्रम्, आमकं परिवर्जयेत् ॥ २२ ॥ सान्वयार्थः- तहेव = उसी प्रकार चाउल पिट्ठ=चाँवलोंका आटा तथा और भी किसी तरहका आटा वा = अथवा तत्तनित्र्युडं = पहले गर्म किया हुआ किन्तु १ 'नोमं' इत्यत्र 'नीपाssपीडे मो वा' (मा. ८।१।२३४) इति प्राकृतमूत्रेण पस्य मः ।। 'तहा कोल० ' इत्यादि । इसी प्रकार जल और अग्निमें नहीं उबाले हुए वेर, सचित्त वाँसके अंकुर तथा काश्यपनालिका (गंभारीफल) तिलपापडी और कदम्बके फल ये सब यदि सचित्त हों तो इनका याग करे-ग्रहण न करे ॥ २१ ॥ तदा कोल० इत्यादि मे प्रभालु भजमने अग्निमां नहि असां मोर, સચિત્ત વાસના અંકુર તથા કાશ્યપનાલિકા ( ગ ભારી ફળ ), તલપાપડી અને કદમ્બના ફળ જે ચિત્ત હાય તા એના ત્યાગ કરવા-ગ્રહણ કરવાં નહિં (૨૧) Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीदशवकालिकसूत्रे फिर ठंडा होया हुआ वियर्ड-पानी तिलपिहुं-तिलकुट्टा पूइपिन्नाग-सरसोंकी खल (ये) आमगं-सचित्त हों तो परिवज्जए घरजे ॥२२॥ टीका-'तहेव' इत्यादि । तथैव तेनैव प्रकारेण ताण्डुलंतण्डुलसम्बन्धि पिष्ट-चूर्णम्, उपलक्षणमेतगोधूमादेरपि, वा-अथवा तप्तनिवृत-पूर्व तप्तं पश्चान्निवृत शीतलं यत्तत्तथोक्तम् , उष्णोदकं यदा शैत्यापन्नं ततः कालादारभ्य ग्रीष्मे यामपञ्चकाय शीतकाले यामचतुष्टयात्परं, वर्षाकाले च प्रहरत्रयानन्तरं सचित्तं जायते । अत्रेयं सङ्ग्रहगाथा "जम्मि समयम्मि उण्डो,-दगं च सीयं भवे तो पच्छा। पंच-चउ-त्तिय-जामा, गिम्हे हेमंत-पाऊसे ॥ १॥" इति ।। विकट-समयपरिभाषया सलिलं, तिलपिष्ट-तिलकुट्ट प्रसिद्धं, पूतिपिण्यार्क सर्षपकल्कम् आमक-सचित्तं परिवर्जयेत् ॥२२॥ १ छाया-" यस्मिन् समये उष्णोदक च शीत भवेत्ततः पश्चात् । पञ्चचतुस्विकयामाः, ग्रीष्मे हेमन्त-पावृषोः ॥ १॥ 'तहेव' इत्यादि । इसी प्रकार तत्कालका पीसा हुआ चाँवल गेहूँ आदिका आटा तथा पहले अचित्त होने पर भी कालकी मर्यादा व्यतीत होने पर पुनः सचित्त हुआ जल, तुरतका बना हुआ तिलकुट, तत्कालकी सरसों आदिकी लली, इन सचित्त वस्तुओंको ग्रहण न करे । गर्म पानीके अचित्त रहनेकी मर्यादा-ठढा होजाने पर ग्रीष्म ऋतुमें पांच , पहर, शीतकालमें चार पहर और वर्षाकालमें तीन पहरकी होती है, उसके बाद वह (जल) सचित्त होजाता है। इस विषयमें एक संग्रह गाथा है जो संस्कृत-टीकामें लिखी-गई है ॥ २२ ॥ तहेव० ४त्या में प्रमाणे तो हो या 4s महिना આટે, તથા પહેલા અચિત્ત હોવા છતા પણ કાળની મર્યાદા વ્યતીત થતાં પુનઃ સચિત્ત થએલું જળ, તુરતને બનાવેલ તલકુટ, સુરતની સરસવ આદિની ભેળ એ સચિત્ત વસ્તુઓને પણ ગ્રહણ ન કરે ગરમ પાણી અચિત્ત રહેવાની મર્યાદા ઠંડુ થઈ ગયા પછી ગ્રીષ્મ ઋતુમાં પાચ પહોર, શીયાળામાં ચાર પહોર અને વર્ષાઋતુમાં ત્રણ પહોરની હોય છે, ત્યારબાદ એ જળ સચિત્ત બની જાય છે એ વિપકમાં એક સગ્રહગાથા છે તે સંસ્કૃત ટીકામાં લખી છે (૨૨) Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. २३-२४-सचित्ताहारनिषेधः M मूलम् -कविढं माउलिंग च, मूलगं मूलगत्तियं । १० - - - - A आमं असत्थपरिणयं, मणसावि न पत्थए ॥ २३ ॥ छाया-कपित्थं मातुलिङ्गं च, मूलकं मूलकर्तिकाम् । _ आमम् अशस्त्रपरिणतं, मनसाऽपि न प्रार्थयेत् ॥ २३ ॥ सान्वयार्थ :-कविट्ठ-कैथ-कविठ माउलिंग-विजौरा मूलगं-मूला च-और मूलगत्तियंमूलेके कन्दका टुकड़ा आमं-कच्चा असत्थपरिणयं-स्वकाय परकाय आदि शस्त्रसे परिणत न हुआ हो तो उसे मणसावि-मनसे भी न पत्थए न चाहे ॥२३॥ टीका-'कविलु' इत्यादि । कपित्थं 'कैथ कविठ' इति भाषायां, मातुलिङ्ग-वीजपूरकं 'विजौरा नींवू' इति भापायां, मूलकं-सपत्रं, मूलकर्तिकांमूलककन्दखण्डम् , आमम्=अपक्कम्, अशस्त्रपरिणतम्-अलब्धस्वपरकायादिशस्त्रयोगं मनसाऽपि न प्रार्थयेत्-एतद्विपयिणीमिच्छामपि न कुर्यादित्यर्थः। 'आमम्' इत्यस्य 'अशस्त्रपरिणतम्' इत्यस्य च लिङ्गविपरिणामेन 'मूलकत्तिका'-मित्यत्र सम्बन्धः । मूलकस्याऽनन्तकायत्वात् शस्त्रपरिणतिर्दुष्करेति बोधयितुमेकार्थकस्याऽऽमादिशब्दद्वयस्योपादानम् ।। २३॥ . मूलम्-तहेव फलमंथूणि, बीयमंथूणि जाणिय । विहेलगं पियालं च, आमगं परिवजए ॥ २४॥ छाया-तथैव फलमन्थन् वीजमन्यून् ज्ञात्वा । विभीतकं मियालं च, आमकं परिवर्जयेत् ॥ २४ ।। . 'कवि' इत्यादि । कैथ (कविठ) विजौरा नीबू , मूला और मूलेके खण्ड यदि अचित्त-शस्त्रपरिणत न हों तो इन्हें ग्रहण करनेकी इच्छा भी नहीं करनी चाहिए। मला अनन्तकाय है, अतः उसका शस्त्रपरिणत होना कठिन है इसीसे यहां एक अर्थवाले 'आमक' और 'अशस्त्रपरिणत' ये दो शब्द दिये हैं ॥ २३ ॥ कविटं-त्याहि 8, मीनदीम, भूगा मन भूजाना ४४६1 ने અચિત્ત-શસ્ત્રપરિણત ન હોય તે તે ગ્રહણ કરવાની ઈચ્છા પણ ન કરવી જોઈએ મૂળે અનંતકાય છે એટલે એ શસ્ત્રપરિણત B કઠિન છે, તેથી અહી એક सवाणा 'साम' भने 'मशन-परिगुत' मेवा मे शम्ही यापेक्षा छे. (२3) Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ - मूलम् समुयाणं चरे भिक्ख . कलं उजा ११ श्रीदशकालिकसूत्रे सान्वयार्थः-तहेव-इसी प्रकार फलमंथूणि-बेर आदि फलोंका चूर्ण-चरा वीयमंथूणि शालि आदि वीजोंका चूर्ण-चूरा विहेलगं बहेडा च और पियाल-रायण अथवा दाख (इन्हें) आमगं-सचित्त जाणिय-जानकर-जाने तो परिवज्जए-बरजे-न ले ॥ २४ ॥ टीका'तहेव फल.' इत्यादि । तथैव-तद्वत् फलमन्यून-बदरादिचूर्णान्, वीजमन्यून-फलवीजचूर्णान्, विभीतक 'वहेडा' इति प्रसिद्धं, च-पुनः प्रियालं-राजादनफलं 'रायण' इति भाषाप्रसिद्धम् । यद्वा 'प्रियाला'-मिति च्छाया, प्रियालांन्द्राक्षाम् , आमकं सचित्तं ज्ञात्वा परिवर्जयेत् , सचित्तं चेन्न गृह्णीयादित्यर्थः । यद्वा 'जाणिय' इत्यस्य 'याँश्चे'-ति च्छाया; याँश्च वीजमन्यूनित्यन्वयः ॥ २४ ॥ कुलं उच्चावयं सया। नीयं कुलमइकम्म, ऊसढं नाभिधारए ॥२५॥ छाया-समुदानं चरेद् भिक्षुः, कुलमुच्चावचं सदा। ' नीचं कुलमतिक्रम्य, उच्छ्रितं नाभिधारयेत् ॥२५॥ सान्वयार्थः-भिक्खू साधुको सया-हमेशा उच्चावयं ऊंच-नीच अर्थात् धनवान् और गरीव कुलं-कुल-घर में समुयाणं-शुद्ध भिक्षाका अनुसन्धान-पूर्वक चरे-घूमना चाहिए, (किन्तु) नीयं-गरीव कुलं-कुल-घर-को अइकम्म छोड़कर ऊसदं धनवान्के घरपर नाभिधारए=नहीं जाना चाहिए ॥२५॥ टीका-'समुयाणं' इत्यादि । भिक्षुः सदा-नित्यम् उच्चावचम्-उदउच्च धनधान्यादिसमृद्धम् , अवाक् अवचं-तद्विकलं कुलं प्रति समुदान-गृहस्थ 'तहेव फल०' इत्यादि। इसीप्रकार बेर आदिका चूरा, फलके वीजोंका चूरा, तथा बहेडा, रायण अथवा दाख,ये सचित्त हों तो ग्रहण न करे ॥२४॥ 'समुयाणं' इत्यादि । भिक्षु सदा धन-धान्य आदिसे समृद्ध कुलोंमें तथा धन-धान्यहीन कुलोंमें समुदानी भिक्षाके लिए गमन करें। एकही तहेव फल० त्याहि मे ॥२ मार मानि यूथ, ni मीनन यूर्य, તથા બહેડા, રાયણ અથવા દ્રાક્ષ એ સચિત્ત હોય તે ગ્રહણ કરવા નહિ (૨૪). समुयाणं० या मिनु सहा धन-धान्य माहिया समृद्ध जोमा तथा ધન-ધાન્યથી હીન કુળોમાં સમુદાની શિક્ષાને માટે ગમન કરે એક જ ઘેરથી Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. २५-२६ - भिक्षाचरणे विवेकोपदेशः । समुदायसम्बन्धि भैक्ष्यं, न त्वेकस्मिन्नेव गृहे तत्राऽऽधाकर्मादिदोपसम्भवादिति भावः, चरेत् = गच्छेत् । नीच= विभवविधुरं कुलम् अतिक्रम्य = उल्लङ्घय परित्यज्येति यावत्, उच्छ्रित=समृद्धं कुलं नाभिघारयेत् न गच्छेत् प्रचुरसरसभक्तपानादिलिप्सया निर्धनं विहाय विभवसंपन्नं सदनं नाभिगच्छेत्, किन्तु उभयत्रापि यायादिति भावः । 'समुयाणं' इति - पदेनाऽनेकगृहतः स्वल्पं - स्वल्पं ग्रहणाद् भिक्षाया निर्दोषता सूचिता । 'उच्चावयं' इति पदेन समभावो व्यक्तीकृतः । 'नीयं कुलं ' इत्युत्तरार्द्धेन रसलोलुपतापरित्याग आविष्कृत इति ॥ २५ ॥ ૯ ૧૭ 1 मूलम् अदीणो वित्तिमेसिज्जा, न विसीएज पंडिए । 3 ४ ૫ अमुच्छिओ भोयणम्मि, मायन्ने एसणारए ॥ २६ ॥ छाया - अदीनः वृत्तिमेषयेत् न विषीदेत् पण्डितः । ܕ ५१९ अमृच्छितो भोजने, मात्रा एषणातः || २६ ॥ सान्वयार्थ :- पंडिए = बुद्धिमान् साधु भोयणम्मि=भोजनमें अमुच्छिओ= गृद्धि-लोलुपता-रहित मायने = आहार- पानीकी मात्राको जाननेवाला एसणारए= आहारकी शुद्धिमें तत्पर अदीणो= दीनता नहीं दिखलाता हुआ वित्ति = भिक्षागोचरी - की एसिज्जा = गवेषणा करे, (किन्तु भिक्षा न मिलने पर ) न विसीएज्ज= खेद न करे ||२६|| घरसे भिक्षा न लें, क्योंकि आधाकर्म आदि दोष लगने की संभावना है । निर्धन कुलको छोड़कर सरस भक्त-पानकी लालसा से सम्पत्तिशाली कुलमें भिक्षाके लिए नहीं जाना चाहिए । 'समुयाणं' पदसे यह सूचित किया है कि अनेक कुलोंसे थोड़ीथोड़ी भिक्षा लेनेसे ही भिक्षाकी निर्दोषता होती है । 'उच्चावयं' पदसे समभाव सूचित किया है । 'नीयं कुलं' इत्यादि उत्तरार्द्धसे रसलोलुपताका त्याग व्यक्त किया है ।। २५ । ભિક્ષા ન લે, કારણ કે આધાકમાં આદિ દ્વેષ લાગવાને સ ંભવ છે, નિન કુળને છેડીને સરસ ભકત-પાનની લાલસાથી સંપત્તિશાળી કુળમા ભિક્ષાને માટે જવું ન જોઇએ સમુચાળ પદથી એમ સૂચિત કરવામાં થાડી-થોડી ભિક્ષા લેવાથી જ ભિક્ષાની નિર્દોષતા સમભાવ સૂચિત કર્યાં છે નીયં પૂર્ણ ઇત્યાદિ व्यस्त हुये है (२५) આવ્યું છે કે અનેક કુળમાંથી જળવાય छे उच्चावयं शहथी ઉત્તરાથી રસ-લાલુપતાના ત્યાગ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे टीका- 'अदीणो' इत्यादि । पण्डितः = सकलभिक्षादोषज्ञः साधुः भोजने = आहारे अमूच्छितः = अगृध्नुः मात्राज्ञः = मात्रां = भक्तपानेन स्वकीयोदरपूर्तिप्रमाणं क्षुन्निमित्तकवैकल्यप्रशमनैकसाधनप्रमाणं वा जानातीति मात्राज्ञः प्रमाणाधिकभोजनेन प्रमादादिदोपोद्भवस्य संभवेन साधूनामाहारप्रमाणमवश्यं विधेयमिति । एषणारतः=उद्गमादिदूषणव्यतिरिच्यमानगवेषणपरायणः, अदीनः = दैन्यरहितः सन् वृत्ति= भिक्षालक्षणाम् एषयेत् = अन्वेषयेत्, अलाभे सति न विषीदेत् = न खिद्येत् । 'अदीणो' इति पदेन स्वदैन्याऽऽविष्कर णेनाऽऽत्मनोऽधःपतनं शासनलघुता च प्रसज्यते इति व्यज्यते । 'न विसीएज्ज' अनेन भिक्षाया अलाभेऽपि स्वात्मप्रसन्नतां न परित्यजेदिति द्योतितम् | 'पंडिए' इत्यनेन सर्वथापरिशुद्ध ? ५२० 'अदीणो' इत्यादि । भिक्षाके समस्त दोषोंका ज्ञाता मुनि आहारमें मूर्च्छा न रखें और आहारके परिमाणका ख्याल रखें। जितने आहार से क्षुधावेदनीय उपशान्त होजाय वही आहारका परिमाण है, उससे अधिक आहार करनेसे प्रमाद आदि दोष उत्पन्न होते हैं, इसलिए साधुओंको आहारका परिमाण अवश्य करना चाहिए । साधु उद्गम आदि दोषोंको न लगाते हुए दीनताका त्याग करके भिक्षाकी गवेषणा करें, और भिक्षाका लाभ न हो तो खेद न करें । 'अदीणो' पदसे यह प्रगट होता है कि दीनता दिखानेसे आत्माका अधःपतन और जिनशासनकी लघुता होती है । 'न विसीएज' पदसे यह सूचित किया है कि आहार - लाभ न हो तो भी आत्मिक प्रसन्नताका परित्याग न करना चाहिए | 'पंडिए' पदसे सर्वथाशुद्ध भिक्षा ग्रहण અતીળો ઇત્યાદિ. ભિક્ષાના બધા દોષોના જ્ઞાતા મુનિ આહારમાં મૂર્છા ન રાખે અને આહારના પરિમાણુને ખ્યાલ રાખે જેટલા આહારથી ક્ષુધા-વેદનીય ઉપશાન્ત થઈ જાય તે જ આહારનું પરિમાણુ છે એથી વધારે આહાર કરવાથી પ્રમાદ આદિ દોષ ઉત્પન્ન થાય છે, તેથી સાધુઓએ આહારનું પરિમાણુ અવશ્ય કરવું જોઈએ. સાધુ ઉદ્ગમ આદિ દ્વેષ ન લાગવા દેતા દીનતાને! ત્યાગ કરીને ભિક્ષાની ગવેષણા કરે, અને ભિક્ષાને લાભ ન થાય તા તેથી ખેદ ન કરે. अदीणो राष्टथी म प्रउट थाय છે કે દીનતા ખતાવવાથી આત્માનું અધ.પતન અને જિનશાસનની લઘુતા થાય છે ન વિસીન્ન શબ્દથી એમ સૂચિત કર્યું છે કે આહારલાભ ન થાય તેા પણુ આત્મિક પ્રસન્નતાને પરિત્યાગ ન કરવા જોઈએ હિદ્ શબ્દથી સÖથા શુદ્ધ ભિક્ષા ગ્રહણ કરવાની ચેાગ્યતા Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. २७-२८-भिक्षाचरणे विवेकोपदेशः - भिक्षाग्रहणयोग्यताऽऽवेदिता। 'अमुच्छिओ' इतिपदेनाऽऽहारादिलोलुपता निराकृता । 'मायन्ने' इत्यनेन निर्दोपसरसभक्तपानादौ प्राचुर्येण दीयमानेऽपि प्रमाणाधिक न ग्राह्यमिति स्पष्टीकृतम् । ' एसणारए' इति-पदेनाऽऽधाकर्मादिसकलभिक्षादोपानुसन्धानेनैव विशुद्धभिक्षाग्रहणं भवितुमर्हतीत्याविष्कृतम् ॥२६॥ मूलम्-बहुं परघरे अस्थि विविहं खाइम साइमं । १४ १२ न तत्थ पंडिओ कुप्पे, इच्छा देज परो न वा ॥२७॥ छाया-बहु परगृहे अस्ति, विविधं खायं स्वाघम् । न तत्र पण्डितः कुप्येत् , इच्छा दद्यात् परो न वा ॥२७॥ सान्वयार्थः-परघरे-गृहस्थके घरमें विविहं-नाना प्रकारका खाइमंदाख पिस्ता वादाम आदि खाद्य साइम-एलची लूंग आदि स्वाय बहुं-बहुत अस्थि है, (किन्तु) इच्छा-इच्छा-मरजी-है कि परो-गृहस्थ देज्ज-देवे वा अथवा न-न देवे । नहीं देने पर तत्थ-उस गृहस्थ पर पंडिओ-बुद्धिमान् साधु न कुप्पे= कुपित न होवे ॥२७॥ टीका-'बहु' इत्यादि। परगृहे-गृहस्थभवने विविधं-नैकप्रकारं खाद्यन्द्राक्षापिस्तवादामादिक, स्वावम्-एलालवङ्गादिकम् बहु-प्रभूतमस्ति, किन्तु इच्छा चेत् करनेकी योग्यता व्यक्त होती है । 'अमुच्छिओ' पदसे आहार आदिकी लोलुपताका त्याग ध्वनित होता है। 'मायन्ने' पदसे यह सूचित किया है कि निर्दोष और सरस आहार अधिक प्राप्त हो रहा हो तो भी प्रमाणसे अधिक नहीं ग्रहण करना चाहिए । 'एसणारए' पदसे यह योतित किया है कि आधाकर्म आदि भिक्षाके समस्त दोषोंका अनुसन्धान करनेसे ही विशुद्ध भिक्षाका ग्रहण होना संभव है ॥ २६ ॥ 'बहु' इत्यादि । गृहस्थके घरमे भाँति-भाँतिके खाद्य और भाँतिभातिके स्वाद्य विद्यमान रहते हैं, उसकी इच्छा हो तो देवे, न हो तो વ્યકત થાય છે ચારિો શબ્દથી આહાર આદિની લપતાને ત્યાગ ઇવનિત થાય છે માયને શબ્દથી એજ સૂચિત કરવામાં આવ્યું છે કે નિર્દોષ અને સરસ આહાર વધારે પ્રાપ્ત થઈ રહ્યો હોય તે પણ પ્રમાણુથી વધારે ગ્રહણ ન કરવા જોઈએ. પITRU શબ્દથી એમ સચત કરવામાં આવ્યું છે કે આધાકર્મ આદિ ભિક્ષાના બધા દેનું અનુસંધાન કરવાથી જ વિશુદ્ધ ભિક્ષાનું ગ્રહણ સભવિત છે (૨૬) वहुं० त्याहि गृहस्थना घरमा त२- तना माध भने मात-सातना સ્વાઘ વિદ્યમાન હોય છે તેની ઈરછા હોય તે આપે અને ન હોય તે ન આપે, Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ । - - श्रीदशवकालिकात्रे परम् गृहस्थः दद्यात् न वा दद्यात्, तत्र दातरि, यद्वा तत्र-खाद्ये स्वाद्ये तु अदीयमाने सति न कुप्येत्-न क्रुध्येत्-'कीदृशोऽयमविवेकी ? प्रचुरेऽपि बहुविधखाधादिके विद्यमाने साधवे न ददातीति क्रोधावेशदूपितान्तःकरणो न भवेत् । अत्र 'पंडिए' इति-पदेन सदसद्विवेकशालित्वं, तेन च मनोविजयित्वमावेदितम् ॥२७॥ एतदेव प्रपञ्च्यते-'सयणा०' इत्यादि। मूलम् सयणासणवत्थं वा, भत्तं पाणं व संजए। अदितस्स न कुप्पेज्जा, पञ्चक्खेवि य दीसउ ॥२८॥ छाया-शयनासनवस्त्रं वा, भक्तं पानं वा संयतः। अददतो न कुप्येत्, प्रत्यक्षेऽपि च दृश्यमाने ॥२८॥ पूर्वोक्त विषय को ही विशद करते हुए कहते हैं सान्वयार्थः-सयणासणवत्थं-शयन-वसति, आसन-पाटलादिक, वस्त्र-चादर आदि वा अथवा भत्तं आहार व-तथा पाणं-पानी आदि किसी भी वस्तुके पञ्चक्खेवि य-प्रत्यक्ष-सामने पड़ी दीसउदीखने पर भी अदितस्स नहीं देते हुए गृहस्थ पर संजए-साधु न कुप्पेज्जा-कोप न करे, (क्योंकि)-"इच्छा देज्ज परो, न वा" देवे न देवे गृहस्थकी मरजी है, ऐसा पूर्व गाथासे संबंध है ॥२८॥ टीका-संयतः शयनासनवस्त्रं-शयनं च आसनं च वस्त्रं चेत्येषां समाहारः, तत्र शय्यतेऽस्मिन्निति शयनं वसतिः, आस्यते--उपविश्यतेऽस्मिन्निति-आसनपीठफलकादिकं, वस्यते आच्छाद्यते शरीरमनेनेति वस्त्रं-शाटकादिकं, भक्तं न देवे । यदि न दे तो साधुको ऐसा क्रोध न करना चाहिए कि-'यह कैसा अविवेकी है कि इतना बहुत खाद्य स्वाद्य मौजूद होने पर भी ।। . साधुको नहीं देता।' यहाँ 'पंडिए' पदसे सत् और असत्का विवेक , प्रगट किया है और उससे मनको जीतना सूचित किया है ॥२७॥ इसीका विस्तार-पूर्वक कथन करते हैं-'सयणा०' इत्यादि। यदि कोई गृहस्थ शय्या, आसन, वस्त्र, भक्त या पान सामने જે ન આપે તો સાધુએ એ ફોધ ન કરવું જોઈએ કે, “આ કે અવિવેકી છે કે “આટલાં બધાં ખાદ્ય-સ્વાદ્ય હાજર હોવા છતા પણ સાધુને આપતે નથી અહીં કિg શબ્દથી સત્ અને અસતને વિવેક પ્રકટ કર્યો છે, અને તેથી મનને જીતવાનું સૂચિત કર્યું છે (૨૭) मेनु विस्तारपूर्व प्रथन ४३ छे-सयणाoया જે કઈ ગૃહસ્થ શય્યા, આસન, વસ્ત્ર, , ભક્ત યા પાન સામે દેખાતા Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. २९-३० - भिक्षाचरणे विवेकोपदेशः ५.२३ भोज्यं, पानं= पेयम् अददतः = अप्रयच्छतः, (अत्र सम्बन्धसामान्ये षष्ठी) प्रत्यक्षेऽपि दृश्यमाने शयनादौ न कुप्येत् = कोपावेशेन चित्तत्रिकृर्ति न कुर्यादिति सूत्रार्थः ॥ २८ ॥ ૧ ४ 3 २ ૫ ૬ ७ मूलम् - इत्थियं पुरिसं वावि, डहरं वा महल्लगं । ૧૦ ८ & ૧૪ ૧૨ ૧૧ ૧૩ ૧૫ वंदमाणं न जाएजा नो अ णं फरुसं वए ॥ २९ ॥ छाया - स्त्रियं पुरुषं वाऽपि, डहरं वा महान्तम् । वन्दमानं न याचेत, नो च तं परुषं वदेत् ॥ २९ ॥ सान्वयार्थ :- इत्थियं = स्त्री वावि = अथवा पुरिसं= पुरुष डहरं = छोटा बालक वा= या महल्लगं=बड़ा - जुवान या बुड्ढा हो वंदमाणं वन्दना करते हुएको न जाएज्जा=न जाँचे-उससे भिक्षा के लिए याचना न करे, (और दूसरे समय याचना करने पर यदि किसी कारण वश वह भिक्षा न दे तो ) = उस गृहस्थ के प्रति साधु फरुसं= कठोर वचन नो य=नहीं वए=बोले ||२९|| टीका – 'इत्थियं' इत्यादि । स्त्रियम् अपिवा पुरुषं डहरं = बालकं, 'देशीयोऽयं शब्दः ' जन्मतः पञ्चदशवर्षे यावत्, वा = अथवा महान्तं तरुणं स्थविरं वा वन्दमानं= वन्दनां कुर्वन्तं न याचेत - न-भिक्षेत | वन्दनप्रवृत्तस्य गृहस्थस्य याचनायां चित्तविक्षेपादिना वन्दनान्तरायः, चित्तवैरस्यप्रसङ्गश्च - ' कीदृशोऽयं कुक्षिम्भरिः साधुद्वन्दनसमयेऽपि न धैर्य दधाति, भिक्षायामेव दत्तचित्तो रङ्कव ' - दिव्यादि । दिखाई देने पर भी साधुको न दे तो भी साधु क्रोध न करें ॥ २८ ॥ 'इथियं' इत्यादि । स्त्री, बालक, युवक (जुवान ) या वृद्ध, वन्दना कर रहा हो तो उससे उस समय भिक्षाकी याचना नहीं करनी चाहिए । कोई वन्दना कर रहा हो और उससे याचना करे तो वन्दनामें अन्तराय पड़ती है, और गृहस्थके मनमें ऐसा विचार आता है कि- 'देखो यह साधु कैसा पेटू (पेट भरा) है कि वन्दना करते समय भी धीरज नहीं હાવા છતાં પણ સાધુને ન આપે તે પણ સાધુ ક્રોધ ન કરે (૨૮ ) इत्थियं ० छत्याहि स्त्री, जाज, જીવાન યા વૃદ્ધ વંદના કરી રહ્યાં હાય તે તે વખતે તેમની પાસે ભિક્ષાની યાચના કરવી ન જોઇએ કાઇ વદના કરી રહ્યાં હોય અને તેમની પાસે યાચના કરવામાં આવે તે વક્રનામા અંતરાય પડે છે, અને ગૃહસ્થના મનમા એવા વિચાર આવે કે જુએ, આ સાધુ કેવા પેટ ભરી છે કે વંદના કરતી વખતે પણ ધીરજ ધરતા નથી, ૨કની પેઠે ८ છે Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५२४ श्रीदशकालिकमूत्रे अन्यदा याचितेऽपि भाकपानाधभावादददाने तं च गृहस्थं परुष-निष्ठुरवाक्यं न वदेव मुनिरिति शेपः । यथा व्यथैव त्वद्वन्दनचेष्टा, नाल साधुतोपाय, केवलंकिंशुककुसुमवद्राह्यरमणीयतामात्रमाकलयसी'-त्यादि ।।२९।। मूलम्-जे न वंदे न से कुप्पे समुक्कसे। एवमन्नेसमाणस्स, सामन्नमणुचिट्ठई ॥३०॥ छाया-यो न वन्दते न तस्य कुष्येत्, वन्दितो न समुत्कर्पयेत् । . एवमन्वेपमाणस्य, श्रामण्यमनुतिष्ठति ॥ ३० ॥ सान्वयार्थ:-जे-जो गृहस्थ न वंदे-साधुको बन्दना न करे तो से उस पर न कुप्पे-क्रोध न करे (और) वंदिओ-बन्दना किया हुआ न समुक्कसे गर्वित न होवे-घमड न करे। एवं-इस प्रकार अन्नेसमाणस्स-जिनशासनकी आराधना करनेवालेके सामन्नं साधुपना-चारित्र अणुचिटइ-आराधित स्थिर होता है, अर्थात् मान अपमानमें समान रहनेवाले मुनिको ही सम्यक् प्रकारसे चारित्रकी आराधना होती है ॥३०॥ टीका-'जे' इत्यादि । यो गृहस्थः साधुं न वन्दते से तस्य अवन्दमानस्य न कुप्येत् कीदृगय विवेकविकलः, यन्मामुपस्थित साधुमवमन्यते' इति कृत्वा धरता, रंककी तरह केवल भिक्षाकी चिन्ता कर रहा है। अन्य समय याचना करने पर भी यदि गृहस्थ भिक्षा न दे तो कठोर वचन न बोले कि-'वस रहने दे, तेरी वन्दना वृथा है, इससे साधुओंको सन्तोष नहीं हो सकता, तू टेसू (पलाश-केसूडा) के फूलकी नाई दिखावटी रमणीयता (नम्रता) धारण करता है' इत्यादि ॥२९॥ . 'जे' इत्यादि। कोई साधुको वन्दनान करे तो उसे उसपर कुपित न होना चाहिए कि-'यह कैसा अविवेकी है कि सामने उपस्थित साधुका કેવળ ભિક્ષાની ચિંતા કરી રહ્યો છે ” બીજા સમયે યાચના કરતા પણ જે ગૃહસ્થ ભિક્ષા ન આપે તે સાધુ કઠેર વચન ન બેલે કે “બસ, રહેવા દે, તારી વંદના વૃથા છે, તેથી સાધુઓને સતેજ નથી થઈ શકત, તુ કેસૂડાના सनी पेठे हेमाडपानी २भएयता (नभ्रत ) धार ४२नारी छ,' त्याह (२८) ઈત્યાદિ કે સાધુને વદના ન કરે તે સાધુએ તેના પર કુપિત ન થવું જોઈએ કે “આ કે અવિવેકી છે કે સામે ઊભેલા સાધનો અનાદર કરે છે Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. ३१-३२-भिक्षाऽपह्नवनिषेधः, तदोषाश्च ५२५ कोपावेशेन मनो विकृतं न विदध्यात् । वन्दितः सार्वभौमादिनाऽपि नमस्कृतश्च न समुत्कर्षयेत् आत्मानमिति शेपः, " अहमेतादृशो माननीयो जगति, यदेवंविधा नरेन्द्रादयोऽपि मम चरणौ प्रणमन्ती'-त्यायभिमानं न कुर्यादित्यर्थः । एवम्= उक्तमकारेण अन्वेपमाणस्य-जिनशासनमनुतिष्ठतः साधोः श्रामण्यं साधुत्वं चारित्रमिति यावत् अनुतिष्ठति-स्थिरीभवति, मानापमानसमानमानसस्यैव साधोनिरतिचारचारित्रं सम्पद्यत इति भावः ॥३०॥ स्वपक्षे चौर्य निषेधयति-'सिया' इत्यादि । मूलम् -सिया एगइओ लद्धं, लोभेण विणिगृहइ । मामेयं दाइयं संतं, दणं सयमायए ॥ ३१॥ छाया-स्यात् एककः लब्ध्वा, लोभेन विनिगहते । ___ ममेदं दर्शितं सद्, दृष्ट्वा स्वयमाददीत ॥३१॥ अब स्वपक्ष-साधुपक्ष में चोरी का निषेध बताते ह सान्वयार्थः-सिया कदाचित्-अगर एगइओ जघन्यप्रकृतिवाला अकेला गोचरी गया हुआ साधु लर्बु-सरस अशनादि पाकर लोभेण-खानेके लोभसे (उसे) विणिगृहइ-छिपा लेवे-नीरस वस्तुको ऊपर रखकर सरस वस्तुको उसके नीचे दवा रखे, क्योंकि मम-मेरी दाइय संत=दिखलाई हुई एयं-इस वस्तुको दणं-सरस देखकर सयं-स्वय-आचार्य आदि खुद आयए-लेलेंगे अर्थात् मुझे नहीं देंगे या थोड़ी देंगे ॥३१॥ अनादर करता है ?, तथा चक्रवती आदि राजा-महाराजा भी वन्दना करें तो आत्मप्रशंसा (घमंड) न करे कि-'मैं संसारमें ऐसा माननीय हूँ कि ऐसे राजा महाराजा भी मेरे चरणोंमें गिरते हैं। इस प्रकार जिन-शासनमें स्थित साधुका चारित्र स्थिर (दृढ) रहता है, अर्थात् सत्कार और तिरस्कार होने पर अन्तःकरणमें विकार न करनेवाले अनगारका आचार निरतिचार पलता है ॥ ३०॥ स्वपक्षमें चौर्यका निषेध करते हैं-'सिया' इत्यादि। તથા ચક્રવતી આદિ રાજા-મહારાજા પણ વદન કરે તે આત્મપ્રશંસા (ઘમંડ) ન કરે કે હું જગતમાં એ માનનીય છું કે એવા રાજા મહારાજા પગ મારા ચરણોમાં પડે છે ” એ રીતે જિનશાસનમાં સ્થિત એવા સાધુનું ચારિત્ર સ્થિર (દઢ) રહે છે, અર્થાત્ સત્કાર અને તિરસ્કાર થતાં પણ અંતઃકરણમાં વિકાર ન કરનારા અનગારને આચાર નિરતિચાર પણે પેલે છે ( ૩૦ ) स्वपक्षमा योयना निषेध ४२ छ-सिया त्याहि. Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ श्रीदशवैकालिकसूत्रे टीका-स्यात् कदाचित् एकका कश्चिज्जघन्यप्रकृतिकः साधुः लब्यापाप्य आहारादिकमिति शेषः लोभेन-उत्कृष्टसरसवस्तुलिप्सया विनिग्रहते-संवणुते-नीरसवस्तुजातमुपरि कृत्वोत्कृष्टरसवद्वस्तु समपटुते । अपह्नवे हेतुमाह-ममेदमुत्कृष्टं वस्तु 'दाइय' दर्शितं सत् दृष्ट्वा आचार्यादिः स्वयमेवाऽऽददीत-गृहीयात्, न मह्यं दास्यति अल्पं वा दास्यतीति भावः ॥३१॥ अपनवकरणस्य दोषमाह-'अत्तहा' इत्यादि। मूलम् अत्तहागुरुओ लुद्धो, बहु पावं पकुवई । ( ૧૧ ૧૨ ૧૩ दुत्तोसओ य से होइ, निवाणं च न गच्छई ॥३२॥ छाया-आत्मार्थगुरुको लुब्धः, बहुपापं प्रकुरुते । दुस्तोपकश्च स भवति, निर्वाणं च न. गच्छति ॥ ३२ ॥ पूर्वोक आचरण करने वाले साधु की क्या दशा होती है? सो बताते हैं सान्वयार्थ:-अत्तहागुरुओ-अपने स्वार्थ साधनमें लगा हुआ लुद्धोजिहाका लोलुपी से वह साधु बहु-बहुत पावं-पाप पकुवई-करता है, य और (इस भवमें) दुत्तोसओ-असन्तोषी होइ-बना रहता है, च-तथा निव्वाणं मोक्षको न गच्छद नहीं पाता है, अर्थात् अनन्तसंसारी होकर चतुर्गतिमें भटकता ॥ ३२॥ . ____टीका-आत्मार्थगुरुका आत्मनः अर्थः प्रयोजनमित्यात्मार्थ. स एव गुरुः प्रधानं यस्य स तथोक्तः स्वार्थसाधनसमर्थ इत्यर्थः, यद्वा आत्मार्थमेव गुरु-प्रधान वस्तु यस्य स तथोक्तः अन्याऽलक्षितोत्कृष्टसरसवस्तुजाताऽऽस्वादक: अत एवं लुब्धः- मनोरमरसाभिलापी सन् बहु-प्रचुरं पापम् आत्ममालिन्यजनकं दुष्कर्म जो क्षुद्रप्रकृतिवाला साधु उत्कृष्ट सरस आहार प्राप्त करके इस विचारसे उसे छिपा लेता है कि-मैं इसे दिखा दूंगातो आचार्य आदि इसे ले लेंगे-मुझे न देंगे अथवा थोडासा दंगे ॥ ३१॥ - 'अत्तट्ठा' इत्यादि। वह दूसरोंसे छिपाकर सरस आहार करनेवाला स्वार्थ-साधनमें समर्थ साधु मनोज रसका अभिलापी होकर अत्यन्त ही જે મુદ્ર પ્રકૃતિવાળે સાધુ ઉતકૃષ્ટ સરસ આહાર પ્રાપ્ત કરીને એવા વિચારથી એને છુપાવે કે-હ એને બતાવીશ તે આચાર્ય આદિ એ લઈ લેશે, મને નહિ, આપે અથવા થડે જ આપશે” (૩૧) મત્તા, ઈત્યાદિ એ બીજાથી છુપાવીને સરસ આહાર કરનારે સ્વાર્થ સાધનામાં સમર્થ સાધુ મને રસને અભિલાષી થઈને અત્યત પાપકર્મનું Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. ३३ - गुरुपरोक्षे भिक्षापहारिलक्षणम् ५२७ करोति = विधत्ते, स चाऽस्मिन् जन्मनि दुस्तोषकः = अन्तमान्वाद्याहारेण दुःसम्पादनीयतोपः - असन्तोपी भवति, निर्वाणं =मोक्षं च न गच्छति =नोपैति । 'अत्तट्ठागुरुओ' इत्यनेन पुद्गलानन्दित्व, 'लुडो' अनेन मायापरत्वं तस्करवृत्तित्वं च प्रकटितम्, 'दुत्तोसओ' इत्यनेन चेप्सितवस्त्वमाप्तौ सन्तोषाभावः सूचितः ॥ ३२ ॥ गुरुसमक्षापहारकमुक्त्वा गुरुपरोक्षतोऽपहारकमाह - 'सिया' इत्यादि । ૧ ૨ ૫ 3 ४ मूलम् - सिया एगइओ लखुं, विविहं पाण-भोयणं । ૧૦ ૧૧ ૬ ७ ८ ५ भगं भगं भोच्चा विवन्नं विरसमाहरे ॥ ३३ ॥ छाया — स्यात् एककः लब्ध्वा, विविधं पान - भोजनम् । भद्रकं भद्रकं भुक्त्वा, विवर्ण विरसमाहरेत् ॥ ३३ ॥ सान्वयार्थः- एगइओ=अकेला पूर्वोक्त स्वभाववाला रसलोलुपी साधु गोचरी गया हुआ सिया = कदाचित कोई बख्त ऐसा भी करे कि विवि-नाना प्रकारके पाणभोयण = आहार- पानीको लद्धं = पाकर ( उसमेंसे) भद्दगं भद्दगं अच्छे-अच्छे सरस आहारको भुच्चा वहीं कहीं एकान्त स्थानमें खाकर विविन्न - विकृत वर्णपापकर्मका उपार्जन करता है। वह इस जन्ममें साधारण, नीरस आहार से कभी सन्तुष्ट नहीं होता, न मोक्ष प्राप्त कर सकता है । 'अत्तट्ठागुरुओ' इस पदसे पुद्गलानन्दीपन, 'लुडो' पदसे मायाचारमें परायणता तथा तस्करवृत्ति ( चोरी ) और 'दुत्तोसओ' पदसे अभीष्ट वस्तु न मिलने पर असन्तोष सूचित किया है ॥ ३२॥ गुरुसमक्षका अपहार कहकर अब गुरुके परोक्षका अपहार कहते हैं'सिया' इत्यादि । ઉપાર્જન કરે છે. તે આ જન્મમાં સાધારણ નીરસ આહારથી કદાપિ સંતુષ્ટ ન થતાં મેાક્ષને પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી अत्तट्ठागुरुओ मे पहथी यु‌गसान दीपाशु, लुडो पहथी भायायारभां પરાયણુતા તથા તસ્કરવ્રુત્તિ ( ચોવૃત્તિ ) અને જુત્તોતો પદ્મથી અભીષ્ટ વસ્તુ ન મળવાથી ઉપજતા અસતોષ સૂચિત કર્યાં છે (૩૨) ગુરૂ સક્ષના અપહાર કડીને હવે ગુરૂની પક્ષના અપહાર કહે છે— सिया० छत्याहि Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ ५२८ । श्रीदशवकालिकसूत्रे वाले वाल चने आदिका बना हुआ तुष आदि जिसमें बहुत हों ऐसे (तथा) विरसं-लवणादि रस सहित अशनादिको आहरे-उपाश्रयमें लावे ॥३३॥ टीका-स्यात् कदाचित् एकका कश्चित् रसलोलुपी विविधं पान-भोजनं लब्ध्वा भिक्षाचर्यायामेव यत्र-कुत्रचिदलक्षितप्रदेशे भद्रकं भद्रकम् उत्कृष्टमुस्कृष्टं बहुविधान्नादिषु प्रशस्तं प्रशस्तमेव घृतपूराऽपूपादिकं भुक्त्वा विवर्ण-विकृतवर्ण वल्लचणकादिनिष्पन्नं तुषादिवहुलं विरसं-लवणादिरसवर्जितमन्नादिकम् आहरेद आनयेत् वसताविति शेषः ॥३३॥ एवं करणे किं प्रयोजनम् ? इत्याह-'जाणंतु' इत्यादि । मूलम्-जाणंतु ता इमे समणा, आययही अयं मुणी संतुट्ठो सेवई पंतं, लूहवित्ती सुतोसओ ॥३४॥ छाया-जानन्तु तावत् इमे श्रमणाः आत्मार्थी अयं मुनिः। सन्तुष्टः सेवते मान्तं, रूक्षत्तिः सुतोपकः ॥ ३४॥ वह ऐसा क्यों करता है ? इसमें कारण कहते हैंसान्वयार्थ:-ता-प्रथम इमे-ये-उपाश्रयमें रहे हुए दूसरे समणा-साधु (मुझे इस प्रकार) जाणंतु-जाने कि अय-यह मुणी-साधु आययट्ठी-मोक्षार्थी-आत्मार्थी है, संतुढो जैसा मिला उसीमें सन्तोप करनेवाला लूहवित्ती-सरस स्निग्धादि आहारकी अभिलापारहित सुतोसओ-थोड़े आहारसे भी सतोपी है और पंतवासी-कुसी तथा निस्सार अन्नादिका सेवई-सेवन करता है ॥३४॥ कदाचित् कोई रसलोलुपी साधु विविध प्रकारका पान-भोजन पाकर अच्छा-अच्छा भोजन भिक्षाचरीमें ही किसी एकान्त स्थानमें खावे, और बाल चणक आदि अन्त-प्रान्त तथा विना नमक मसालेका ठंढा आहार उपाश्रयमें ले आवे ॥ ३३ ॥ ऐसा करनेका प्रयोजन कहते हैं-'जाणंतु' इत्यादि । કદાચિત કઈ રસલુપી સાધુ વિવિધ પ્રકારના પાન-ભોજન મેળવીને સારૂ-સારૂં ભેજન ભિક્ષાચરીમાં જ કઈ એકાત સ્થાનમાં ખાઈ લે અને વાલ ચણા આદિ અત–પ્રાત તથા મીઠા મરચા વિનાને નીરસ ઠડે આહાર ઉપાશ્રયમાં Bावे (33) मेम ४२वार्नु प्रयोन डे छे-जाणंतु० त्यादि. Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. ३४ - ३५ - भिक्षापहारे दोषाः ५२९ टीका -- तावत् = निश्चयेन इमे = मानसप्रत्यक्षविषयाः उपाश्रयस्थाः श्रमणाः = साधव:- 'अयं मुनिः आत्मार्थी = आत्महितार्थी सन्तुष्टः = यथालब्धसन्तोपी रुक्षवृत्तिः = सरसाऽनभिकाङ्क्षी सुतोषकः = अल्पेनापि परितोषशीलः प्रान्तं = पर्युपितं निस्सारं वाऽन्नादिकं सेवते ' इति मां जानन्तु || ३४ ॥ किमर्थं स्वदोपगोपनमाचरती ? - त्याह- 'पूयणट्ठा' इत्यादि । 3 ૧ ર 3 मूलम् - पूयणट्ठा जसोकामी, माणसम्माणकामए । ૫ ८ ४ ७ G बहुं पसवई पावं, मायासलं च कुवइ ॥ ३५ ॥ छाया - पूजनार्थः यशःकामी, मानसम्मानकामुकः । वहु प्रमृते पाप, मायाशल्य च कुरुते ||३५|| उपर्युक्त साधु के दोष बताते हैं सान्वयार्थ :- पूयणट्टा = वस्त्र पात्रादि से सत्कार चाहनेवाला जसोकामी = अपने महत्त्व और प्रसिद्धिका इच्छुक माणसम्माणकाम ए = मान-सम्मानका अभिलापी साधु बहुं बहुत पार्व= पाप- मोहनीयादि को पसवई = पैदा करता है, च = और मायासहं = कपटरूप भावशल्यको कुच्च उत्पन्न करता है । तात्पर्य यह है कि हृदयमें खुचे हुए वाणके अग्रभागरूप द्रव्य - शल्यकी तरह हृदयमें रहा हुआ यह मायारूप भाव- शल्य मनुष्यको, अनन्त दुस्सह दुःखोंका कारणभूत चतुगतिक संसारमें घूमाता हुआ अविचलशान्तिमय सुख से वश्चित कर देता है ||३५|| ये उपाश्रयमें स्थित साधु मुझे ऐसा समझें कि - ' - यह साधु आत्मार्थी है, जैसा मिला उसीमें सन्तोषी है, सरस आहारकी आकांक्षा नहीं करता, थोड़े ही आहारसे सन्तुष्ट हो जाता है और साररहित ठंढा अन्त-प्रान्त आहारका सेवन करता है' ||३४|| अपना दोष छिपाता क्यों है ? सो कहते हैं- 'पूणा' इत्यादि । આ ઉપાશ્રયમાં રહેલા સાધુ મને એવા માને કે—આ સાધુ આત્માથી છે, જેવા આહાર મળ્યે તેમાં સ તાષ માનનારો છે, સરસ આહારની આકાંક્ષા કરતા નથી થેડા જ આહારથી સતુષ્ટ થઈ જાય છે, અને સારરહિત ઠંડા संत-प्रात भाडार सेवन उरे छे, ' (३४) पोताना दोष द्वेभ छुपावे छे ? ते हे छे-पूयणट्ठा० हत्याहि Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 श्रीदशवेकालिकमुत्रे ५३० टीका -- पूजनार्थः = पूजन = वस्त्र पात्रा ऽन्नपानादिना सत्कारः स एवार्थः = प्रयोजनं यस्य स तथोक्तः प्रशस्तवस्तूपभोगार्थीत्यर्थः, अत एव यशः कामी =यश: = स्वमहत्त्वप्रसिद्धिस्तत्कामयते = इच्छतीति 'अहो ! अयमेव सः' इत्येवं प्रशंसावचना भिलापीत्यर्थः, मानसम्मानकामुक : = मानश्च सम्मानश्चेति मान-सम्मानौ तयोः कामुक इति विग्रहः, तत्र मानः = अभ्युत्थानादिलक्षण आदरः, सम्मान:= गुणोत्कीर्त्तनेन गौरवप्रकटनम्, आदरगौरवाभिलाषुक इत्यर्थः । एवं कुर्वन् साधुः किं सम्पादयती ? त्याह- बहु-प्रभूत पापं = दुष्कृत प्रभूते = जनयति, च = पुनः मायाशल्यं = माया = शाठयेन मनोवाक्कायप्रवृत्तिः, सैव शल्यं = शल्यते = वाध्यते पीडयते आत्माऽनेनेति विग्रहः, मायालक्षणं भावशल्यं कुरुते - उत्पादयति, हृदयनिखातत्रुटितवाणाग्ररूपद्रव्यशल्यवदिदं मायारूपं भावशल्यं हृदयस्थित सत् निरन्तराऽनन्तदुस्सहदुःखकारणीभवत् चतुर्गतिकसंसारे भ्रामयत् अविचलशान्तिसुखाद् दूरतरीकरोति तादृशं साधुमिति भावः ||३५|| अच्छे-अच्छे वस्त्र पात्र अन्न पान आदि से अपना सत्कार चाहनेवाला, प्रशस्त वस्तुओंके भोगका लोलुपी, 'अहो ! यह वही है' ऐसे यशका अभिलाषी, मान ( आनेपर खड़ा होजाना ) तथा सम्मान ( गुणगान द्वारा गौरव प्रगट करना) की इच्छावाला साधु बहुत पापोंको तथा कपटरूप मायाशल्यको उत्पन्न करता है । छातीमें चुभकर वहीं टूट जानेवाले द्रव्य - शल्य (तीरकी नोंक) की तरह हृदयमें स्थित मायारूप भावशल्य निरन्तर असीम व्यथाका कारण होता है, तथा चतुर्गति संसार में इधर-उधर भटकता हुआ अविचल शान्तिमय सुखसे उस साधुको वश्चित ( अलग ) कर देता है ||३५|| સારા—સારા વસ્ત્ર-પાત્ર-અન્ન-પાન આદિથી પેાતાને સત્કાર ચાહનાર, પ્રશસ્ત વસ્તુઓનાભાગના લાલુપી-‘અહા ! એ આ જ છે' એવા યશને અભિલાષી, માન (આવતા જ ઉભા થઈ જવું) તથા સમ્માન ( ગુણુગાનન્દ્વારા ગૌરવ પ્રકટ કરવું) ની ઈચ્છાવાળા સાધુ ઘણાં પાપેને તથા કપટરૂપ માયા-શલ્યને ઉત્પન્ન કરે છે છાતીમા પેસીને ત્યા જ તૂટી જનારા દ્રવ્ય-શલ્ય (તીરની અણી) ની પેઠે હૃદયમાં રહેલ માયારૂપ ભાવ-શલ્ય નિરંતર અસીમ વ્યથાનું કારણ અને છે, તથા ચતુતિ સસારમા અહી-તહી” ભટકાતા અવિચલ શાન્તિમય સુખથી એ સાધુને વંચિત (रहित) उरी नायो छे (34) Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. ३६-मद्यपाननिषेधः मद्यपानप्रतिषेधमाह-'सुरं वा' इत्यादि। मद्यपानावना १० ११ १२ मूलम् सुरं वा, मेरगं वावि, अन्नं वा मज्जगं रसं । ससक्खं न पिबे भिक्खू , जसं सारक्खमप्पणो ॥ ३६ ॥ छाया-मुरां वा मेरकं वाऽपि, अन्यद् वा माधक रसम् । ससाक्षि न पिवेद् भिक्षुः, यशः संरक्षन् आत्मनः ॥३६॥ अब मद्यपान का दोप बताते हैं सान्वयार्थ:-भिक्खू-साधु अप्पणो अपने जसं-संयमको सारक्ख बचाता हुआ सुरंगौड़ी, माध्वी और पैष्टी, इन तीनों प्रकारकी मदिराको वा 'वा' शब्दसे अथवा बारहों प्रकारकी मदिराको वावि-तथा मेरगं-सरकेको अन्नं वा और भी दूसरे प्रकारके मज्जगं-मदजनक भंग गांजा अफीम चरस आदि मादक रसं-रस-द्रव्य-को ससक्खं केवली भगवान् की साक्षीसे अर्थात् उनका ज्ञान सर्वव्यापक होनेसे एकान्तमें भी न पिये नहीं पिये ॥ मदिराके बारह भेद इस प्रकार हैं-(१) महुआ, (२) फणस, (३) द्राख, (४) खजूर, (५) ताड (ताडी), (६) गन्ना-शेरडी, (७) धावड़ीके फूल, (८) मक्खियोंकी शहद, (९) कैठ (कठोती), (१०) मधु (अन्य प्रकारकी शहद), (११) नारियल, और (१२) _ पिष्ट (आटा), मदिरा इन वारह वस्तुओंसे बनती है ॥३६॥ टीका-भिक्षुः आत्मनः स्वस्य यश संयम संरक्षन् सुरां-मदिरां, सा च त्रिविधा-गौडी, माध्वी, पैष्टी चे'-ति । 'तत्र गौडी-गुडनिष्पादिता, माध्वी-मधु(महुडा) संपादिता, पैष्टीव्रीह्यादिपिष्टनित्तेति । यद्वा 'पिटेण सुरा होइ' इति मद्य-पानका निषेध कहते हैं-'सुरं वा' इत्यादि। । जो साधु अपने संयमकी रक्षा करना चाहते हैं उन्हें मदिरा या सिरका एकान्तमें भी कदापि न पीना चाहिए। मदिरा तीन प्रकारकी है (१) गौड़ी (२)माध्वी और (३) पैष्टी। गुड़से बनाई हुई गौडी, महुआसे बनाई हुई माध्वी तथा धान्य आदिके पिष्ट (आटे) से बनाई हुई पैष्टी कहलाती है । 'पिटेण सुरा होइ' इस वचनसे यही जान पडता है कि भधयाना निषेध ४ छ-मुरं वा० त्या જે સાધુ પિતાના સયમની રક્ષા કરવા ઈચ્છે છે, તેણે મદિરા યા સરકે એકાતમાં પણ કદાપિ પી ન જોઈએ મદિરા ત્રણ પ્રકારની છે (૧) ગોડી, (२) मापी, (3) पेष्टी गणमाथी मनावती गौडी, ममाथी मनावी માધ્વી તથા ધાન્ય આદિના પિષ્ટ (આટા) માંથી બનાવેલી પિછી કહેવાય છે. Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ श्रीदशवैकालिक मृत्रे वचनाद् व्रीह्यादिपिष्टनिर्वृत्तैव सुरेत्युच्यते । चन्द्रहासाभिधं मद्यमिति वा । मेरकं = सरकानामधेयं मथम् । अन्यद्वा माद्यकं = मदजनकं रसम् । मादकत्वेन द्वादशविधमद्यस्य तदितरस्य विजयादेव सर्वस्य संग्रहः, तदुक्तमितरत्र - मदहेतुद्रवद्रव्यं मद्यमित्यभिधीयते ' इति । द्वादशविधमद्यानि यथा - “ माध्वीकं पानसं द्राक्षं, खार्जु तालमैक्षत्रम् । मैरेयं माक्षिकं टाङ्कं माधुकं नारिकेलजम् ||२|| मुख्यमन्नविकारोत्थं, मद्यानि द्वादशैव च । " इति । एतत्सर्वं सुरादिकं ससाक्षि न पिबेत्, साक्षिभिः केवल्यादिभिः सहेति ससाक्षि धान्य आदिके आटे से मदिरा बनती है। अथवा पैष्टी मदिरा 'चन्द्रहास' नामकी मदिरा समझनी चाहिए। इनके सिवाय भंग गाँजे आदि और कोई भी नशैली वस्तुका साधुको सेवन नहीं करना चाहिए जैसा कि कहा है- 'मदके कारण स्वरूप पिघले हुए पदार्थको मद्य कहते हैं।' मद्य बारह प्रकारके समझने चाहिएँ वे ये हैं " (१) महुआका, (२) पनसका, (३) दाखका, (४) खजूरका, (५) ताड़का (ताड़ी), (६) सांटेका, (७) मैरेय-धौ धावड़ी के फूलका, (८) माक्षिक (मक्खियोंकी शहद) का, (९) टंक (कवीठ-कैथ) का, (१०) मधुका, (११) नारियलका और (१२) पिष्ट (आटे) का बना हुआ मद्य । ये मद्यके मुख्य भेद यारह हैं । ” इन सबको केवली भगवानकी साक्षीसे न पिये । केवल भगवानकी વિદેળ મુરા ઢોર્ એ વચનથી એમ માલુમ પડે છે કે—ધાન્ય આદિના આટાથી મદિરા અને છે અથવા પૈકી મદિરા ચંદ્રહાસ' નામની મદિરા સમજવી જોઇએ તે ઉપરાત ભાંગ, ગાà, ખીજી-ખીજી કાઈ પણ કેડ઼ી વસ્તુનું સેવન સાધુ ન કરે, જેમકે કહ્યું છે કે~~ ८ , મદના કારણ સ્વરૂપ પીગળેલા પદાર્થને મદ્ય કહે છે મદ્ય બાર પ્રકારના સમજવા, તે નીચે મુજ “(१) भहुडाना, (२) इयुसनो, (3) द्राक्षनो (४) सन्नूरनो (च) ताडनो (ताडी), (६) शेरडीना, (७) भैरेय-धावडीना इसनेो, (८) भाक्षि- भघना, (6) ढंड (डोहा) तो, (१०) मधुनो, (११) नारिभेजना, राने (१२) पिष्ट (साटा) नो અનેલા મદ્ય એમ મદ્યના મુખ્ય ભેદ ખાર છે એ બધાને કેવળી ભગવાનની સાક્ષીએ પીએ નહિં. કેવળી ભગવાનની સાક્ષી J . L Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 ४५ अध्ययन ५ उ. २ गा. ३७-मद्यपायिनो दोषप्रकटनम् ५३३ केवल्यादीनां साक्षित्वं कदापि कचिदपि प्रतिरोद्धमशक्यं, तेषां सर्वज्ञत्वात्सर्वदशित्वाच, तेन एकान्तेऽपि न पिवेदित्यर्थः ॥३६॥ मूलम्-पियए एगओ तेणो, न मे कोई वियाणइ । १० . . . १२ १३ १४ १3 तस्स पस्सह दोसाइं, नियडिं च सुणेह मे ॥३७॥ छाया-पिबति एककः स्तेनः, न मे कोऽपि विजानाति । ___तस्य पश्यत दोपान् , निकृतिं च शृणुत मे ॥३७॥ सान्वयार्थः-तेणो-जो भगवानकी आज्ञाके विना ग्रहण करनेवाला होनेके कारण चोर साधु एगओ अकेला, एकान्तमें रहा हुआ अर्थात् अपने सहचर धर्मको भी छोड़ा हुआ, 'मे-मेरे-इस मदिरापान-को या मुझे कोई-कोईभी न वियाणइ-नहीं जानता है' (ऐसा समझ कर) पियए-मदिरा पीता है, तस्सउस साधुके दोसाइंसंयममें मलिनता पैदा करनेवाले दोषोंको पस्सह-देखो, च-और नियडिं-एक कपटको छिपाने के लिए किये जानेवाले दूसरे कपटको __ मे=मेरेसे सुणेह-मुनो ॥३७॥ टीका-'पियए' इत्यादि । यः स्तेनः तीर्थङ्करानादिष्टत्वेनाऽदत्ताऽऽदायित्वाचौरः, एकका-एकान्तस्थितः आत्मसहचरं धर्ममपि विहाय वर्तमानः सन् 'न मे=न मां, न मम सुरादिपानं वा कोऽपि विजानाति' इति मत्वा पिबतिम्गलविलाधःसंयोगानुकूलव्यापारविपयं करोति सुरादिकमिति शेषः, तस्य-द्रव्यलिसाक्षी कभी कहीं नहीं रुक सकती, क्योंकि वे सर्वदर्शी हैं, अतः तात्पर्य यह हुआ कि एकान्तमें भी मद्य न पिये ॥ ३६॥ ___ 'पियए' इत्यादि । है शिष्य ! भगवान् तीर्थङ्करकी आज्ञाके विना ग्रहण करनेवाला, अत एव चोर, आत्माके सहचर धर्मको भी त्याग कर एकान्तमें स्थित होकर ऐसा समझता है कि-'मुझे या मेरे मदिरा-पानको कोई नहीं जानता' ऐसा जानकर मदिरा-पान करता है, उस द्रव्यलिंगी કદાપિ કયાંય રેકાતી નથી, કારણ કે તે સર્વદશી છે, એટલે તાત્પર્ય એ છે કે એકાતમાં પણ મદ્ય પીવે નહિ (૩૬) पियए० /त्याहि शिष्य ! भगवान् ती ४२नी माज्ञा विना अय ४२नार એટલે ચેર, આત્માના સહચર ધર્મને પણ ત્યાગીને એકાતમાં સ્થિત થઈને એમ સમજે છે કે-“મારા આ મદિરાપાનને કેઈ જાણતું નથી ” એમ સમજીને જે મદિરાપાન કરે છે તે દ્રવ્યલિ ગી સાધુના સયમને દુષિત કરનારી ચેષ્ટાઓ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयस श्रीदशवैकालिकम् गिनः साधोः दोपान्=संयममालिन्यकारिचेष्टाविशेषान् पश्यत-ज्ञानविषयीकुरू च-पुनः निकृति-पूर्वकृतकपटावरणाय कपटान्तरकरणलक्षणां मायां, प्रथमकए मुरापानं, द्वितीयमनृतभापणेन तत्संगोपनमिति भावः, मे=मम निरूपयतः सकाशा शृणुतम्श्रवणगोचरीकुरुत । गुरुः शिष्यानामन्त्र्य कथयतीति भावः ॥३७॥ पूर्वप्रतिज्ञातदोपानुपदर्शयति-वड़ई' इत्यादि । मूलम्-वड़ई सुंडिया तस्स, माया मोसं च भिक्खुणो। ___१० ३ ११ १२ य अनिवाणं, सययं च असाहुया ॥३८॥ छाया-वर्द्रते शौण्डिका तस्य, माया मृपा च भिक्षोः । अयशश्च अनिर्वाणं, सततं च असाधुता ॥३८॥ सान्वयार्थः-तस्स-उस मदिरा पीनेवाले भिक्खुणो साधुकी सुंडिया मधपान संवन्धी आसक्ति माया-कपट च और मोसं-झूठ अयसो-अपकीर्ति य-तथा अनिव्वाणं अतृप्ति, ये सब दोप सययं-निरन्तर वडइ-बढते रहते हैं .. च और (आखिर उसके) असाहुया असाधुता हो जाती है, अर्थात् वह असाधुपनको प्राप्त हो जाता है, यानी चारित्रसे भ्रष्ट हो जाता है ॥३८॥ टीका-तस्य सुरापायिनः भिक्षोः साधोः सततं निरन्तरं शौण्डिका-मद्यपानविषयासक्तिः, च=पुनः, माया निकृतिः, मृपा-असत्यभाषणम् , यद्वा 'मायासाधुके संयमको दषित करनेवाली चेष्टाओं (दोषों) को तो देखो! एक तो मदिरापानका मायाचार, फिर उसे छुपानेके लिए दूसरे अनेक मायाचार और मृषावाद आदिका सेवन किया जाता है सो मुझसे 'सुनो, अर्थात् गुरुमहाराज शिष्यको आमन्त्रित करके कथन करते हैं।॥३७॥ पूर्वप्रतिज्ञात दोष कहते हैं-'चडई' इत्यादि । मदिरापान करनेवाला साधु सदा मदिरा पीने में ही मग्न रहता है। वह मायाचार करता है, मृपा बोलता है, अथवा कपट-सहित झूठ (દ)ને તે જુઓ! એક તે મદિરાપાનને માયાચાર, વળી તેને છુપાવવા માટે બીજા અનેક માયાચાર અને મૃષાવાદ આદિનું સેવન કરવામાં આવે છે તે મારી પાસેથી સાંભળ-અર્થાત્ ગુરૂ મહારાજ શિષ્યને આમંત્રિત કરીને કથન કરે છે. (૩૭) पूर्व प्रतिज्ञात या ४ -बइ० त्यात મદિરાપાન કરનાર સાધુ સદા મદિરા પીવામાં જ મગ્ન રહે છે તે માયા ચાર કરે છે, મૃષા બોલે છે, અથવા કપટ સહિત જૂઠું બોલે છે દુરાચારી હોવાને Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. ३८-३९-मद्यपायिनो दोषप्रकटनम् मोसं' इत्येकं पदं तेन मायया सह मृपा मायामृपा-परमतारणपूर्वकमसत्यभाषणमित्यर्थः, च-पुनः, अयशः असत्तत्वेनाऽपकीतिः, अनिर्वाणम् अनुपशान्तिरतृप्तिः उत्तरोत्तरस्पृहावर्द्धनात् , च-तथा असाधुता-असंयतत्वं साधूचिताचारराहित्येन साधुपदाऽनईत्वमित्यर्थः, वर्द्धते-वृद्धिं गच्छति । ___ 'सुंडिया' इत्यनेन मद्यपायिना मघासकिरपरिहार्या भवतीति सुचितम् । मधासक्तौ सत्यां माया मृपा च कदापि तं न विजहाति, मायामृषाद्धौ स्वपरपक्षे निन्दाऽवश्यम्भाविनी, निन्दायामपि सत्यां मद्यपानासक्तस्याऽनितिः साहचर्य न मुञ्चति, तथा सति सर्वथा साधुपदानधिकारित्वमुपजायतेऽतः सर्वानर्थमूलं मद्यपानमिति बोध्यम् ॥३८॥ बोलता है । दुराचारी होने के कारण उसकी अपकीर्ति फैल जाती है। उसकी लोलुपता अधिकाधिक बढती चली जाती है-उसे कभी तृप्ति नहीं होती। तथा मुनिके योग्य आचरणसे हीन होने के कारण वह साधु कहलाने योग्य नहीं रहता, अतः उसकी असाधुता बढ़ती है। ___'सुंडिया' पदसे यह सूचित किया है कि शराबीकी शराब पीनेकी आदत छूटनी कठिन होती है। मदिरामें आसक्ति होने पर माया-मृषा मदिरापायीका काना-पीछा नहीं छोड़ती, अर्थात् वह माया-मृषा दोषोंमें तत्पर रहता है। माया और मृषाकी वृद्धि होनेपर स्वपक्ष परपक्षमें निश्चय ही निन्दा होती है और निन्दा होनेपर भी मदिरा पानमें मस्त होकर मदिरा-पान नहीं त्यागता। ऐसी अवस्थामें वह साधु कहलाने योग्य बिलकुल ही नहीं रहता ॥ ३८ ॥ કારણે તેની અપકીર્તિ ફેલાઈ જાય છે, એની લેલુપતા અધિકાધિક વધતી જાય છે, તેથી કદાપિ તૃપ્તિ થતી નથી. મુનિને યેગ્ય આચરણથી હીન હોવાને કારણે એ સાધુ કહેવાવાને ગ્ય નથી રહેતું, એટલે એની અસાધુતા વધે છે. 'मुडिया' या सम सूचित ध्यु छ शराभीनी शराम पीवानी આદત છૂટવી કઠિન હેય છે મદિરામા આસકિત થતાં માયા-મૃષા મદિરાપાન કરનારને પીછે છેડતી નથી, અર્થાત્ એ માયા-મૃષા દેમા તત્પર રહે છે માયા અને મૃષાની વૃદ્ધિ થતા સ્વ-પક્ષ પર-પક્ષમાં જરૂર નિદા થાય છે, અને નિદા થતાં છતાં પણ મદિરાપાનમાં મસ્ત થઈને તે મદિરાપાન ત્યાગ નથી એવી અવસ્થામાં તે જરાએ સાધુ કહેવાવાને ગ્ય રહેતું નથી (૩૮) Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ - D ९८ श्रीदशवकालिकसूत्रे उक्तमेवार्थ प्रकारान्तरेण द्रढयति-निच्चुधिग्गो' इत्यादि । मूलम्-निच्चुश्विग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेहिं दुम्मई । तारिसो मरणंतेऽपि, नाराहेइ संवरं ॥३९॥ छाया-नित्योद्विग्नः यथा स्तेनः, आत्मकर्मभिमंतिः ।। _ तादृशः मरणान्तेऽपि, न आराधयति संवरम् ॥ ३९ ॥ सान्वयार्थ:-जहा-जिस प्रकार तेणो चोर अत्तकम्मेहि अपने किये हुए दुश्चरित्रोंसे निच्चुबिग्गो-हमेशा व्याकुल वना रहता है, उसी तरह तारिसो-मदिरा पीनेवाला वह दुम्मई-दुर्बुद्धि साधु भी नित्य उद्विग्न वना रहता है, फिर वह मरणंतेवि-मरण समय तक भी संवरं संवरधर्मचारित्रको नाराहेइ-नहीं आराध सकता है, अर्थात् वह साधु जिन्दगीभर चारित्रसे वञ्चित रहता है ॥३९॥ टीका-यथा स्तेना-तस्करः आत्मकर्मभिः स्वकीयदुश्चरितः नित्योद्विग्नः= सदा व्याकुलः चित्तोपशान्तिरहितो भवति, तादृशः स्तेनसदृशः, यथा चौरः-- 'मदीयमिदं दुश्चरितं कोऽपि मा विद्यात् , अन्यथा राजगृहीतस्य मम प्राणाधप । हारो भवे-दिति चिन्तया कदाचिदपि चेतसि नोपशान्ति गच्छति, तथा मद्यसेवी साधुरपि स्वकीये दुश्चरिते प्रकटिते सति पूजाप्रतिष्ठादिमतिघातशङ्कया स्वकृत इसी विषयको दूसरी तरहसे कहते हैं-'निच्चुचिग्गो' इत्यादि। , जैसे चोर अपने कुकर्मोके कारण सदा व्याकुल बना रहता है अर्थात् उसे सदा यही भय बना रहता है कि मेरे कुकर्मको कोई जान न ले, नहीं तो राजा मुझे पकड़ लेगा और प्राणोंसे हाथ धोना पड़ेगा। इस प्रकारकी चिन्तासे चोरके चित्तमें सदा धुकधुकी (खल-बली) मची रहती है। उसी प्रकार मदिरा-पान करनेवाले मुनिके मनमें हमेशा असमाधि रहती है कि कहीं मेरामदिरा-पानका दुराचार प्रगट न होजाय, नहीं तो मान सम्मान सब मिट जायगा। इस प्रकारकी आशंकासे वह 2 विषयने भी शते थे-निच्चुग्विग्गो० त्यादि. જેમ ચેર પિતાના કુકર્મોને કારણે સદા વ્યાકુળ રહ્યા કરે છે, અથતિ તેને સદા એ ભય રહે છે કે મારા કુકર્મને કેઈ જાણી ન લે, નહિ તે રાજ મને પકડી લેશે અને પ્રાણ ગુમાવવા પડશે એ પ્રકારની ચિ તાથી ચારના ચિત્તમાં સદા ખળભળાટ મચ્યા કરે છે એજ રીતે મદિરાપાન કરનાર મુનિના મનમાં હમેશાં અસમાધિ રહે છે કે—કયાંક મારે મદિરાપાનને દુરાચાર પ્રકટ ન થઈ જાય, નહિ તે માન સન્માન બધુ નાશ પામશે એ પ્રકારની આશંકાથી તે Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 13७ । अध्ययन ५ उ. २ गा. ४०-४१-मद्यपायिनो दोपप्रकटनम् ५३७ दुकृतसंगोपनाय नयनरमायामृपाकल्पितवचनरचनादिनानाप्रकारकोपायमनुसंदधानो न जातु सयमसमाधिमधिगच्छतीति भावः । दुर्मतिः विपर्यस्तबुद्धिः साधुः, मरणान्तेऽपि मरणावधिसमयेऽपि संवर-सर्वसावधविरतिलक्षणं चारित्रं कदापि नाराधयनि-न निष्पादयति, चारित्रसाधनगृद्धपरिणामाभावात् । 'निच्चुग्विग्गो' इत्यनेन पापात्मना नित्यशङ्कितत्वं मुचितम् । 'दुम्मई'पदेन व्यसनिनां मतिमालिन्यमवश्यम्भावीत्याविष्कृतम् ॥ ३९ ।। मूलम्-आयरिए नाराहेइ समणे आवि तारिसो। गिहत्था वि णं गरिहंति, जेण जाणति तारिसं ॥ ४० ॥ छाया-आचार्यान् नाराधयति, श्रमणाचापि तादृशः । गृहस्था अपि तं गर्दन्ते, येन जानन्ति तादृशम् ॥४०॥ सान्वयार्थः-तारिसो-उस-पूर्वोक्त-प्रकारका दुराचारी साधु आयरिए रत्नाधिकोंको अवि य-तथा समणे-साधुओंको भी नाराहेइ-विनय वैयावच आदिसे नहीं आराध सकता है, जेण-निस कारणसे गिहत्या वि=गृहस्थ भी f= अपने किये हुए दुराचारको छिपानेके लिए मायाचार और असत्य आदिके नये-नये उपाय सोचा करता है। उसकी संयम सम्बन्धी समाधि किसी प्रकार भी नहीं रहती। ऐसा दुर्बुद्धि साधु मृत्युकी अवधिके समय भी सर्वसावद्ययोगके त्यागरूप संवर की आराधना नहीं करता, क्योंकि उसके वैसे विशुद्ध भाव नहीं होते। 'निच्चुग्विग्गो' इससे ऐसा सूचित किया है कि पापी सदा सशंक रहता है। 'दुम्मई' पदसे यह प्रगट किया है कि कुव्यसनीकी मतिमें मलिनता अवश्य आजाती है ॥ ३० ॥ પિતાના દુરાચારને છુપાવવાને માયાચાર અને અસત્ય આદિના નવા નવા ઉપાયે વિચાર્યા કરે છે એની સંયમ સબંધી સમાધિ કઈ પ્રકારે રહેતી નથી. એ દુબુદ્ધિ સાધુ મૃત્યુની અવધિના સમયે પણ સર્વસાવદ્યાગના ત્યાગરૂપ સંવરની આરાધના કરતું નથી, કારણ કે તેને એવા વિશુદ્ધ ભાવ થતા નથી. निच्चुचिग्गो शहथी सम सूयित ४२वामा २ायु छ ॐ पापी सहा स० ४ २ छे. दुम्मई २४थी मेम अट यु छ दुव्यसनानी भतिमा मलिनता अपश्य मावे छे (36) Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ ७ ८ श्रीदशवकालिकसूत्रे । उसे तारिसं-उस प्रकारका अर्थात् मद्य पीनेवाला जाणंति-जानलेते हैं (अतः वे उसकी) गरिहंति-निन्दा करते हैं ॥४०॥ टीका-'आयरिए' इत्यादि । तादृशः-पुरोदीरितदुराचारशील: साधुः आचार्यान् अपिच श्रमणान् रत्नाधिकान् साधुन् नाराधयति कलुषितान्तःकरणत्वादिति भावः, येन हेतुना गृहस्था अपि तादृशं तथाविधं दुराचारिणं जानन्ति तेन हेतुना णं-तं साधुं गर्हन्ते-निन्दन्ति, स सकलजननिन्दनीयो भवतीति सूत्रार्थः ॥ ४०॥ अकृत्यसेविदोपानुपसंहरन्नाह-'एवं तु' इत्यादि । मूलम्-एवं तु अगुणप्पेही, गुणाणं च विवज्जए । तारिसो मरणंतेवि, नाराहेइ संवरं ॥४१॥ छाया-एवं तु अगुणप्रेक्षी, गुणानां च विवर्जकः । तादृशः मरणान्तेऽपि, नाराधयति संवरम् ॥४१॥ सान्वयार्थः-एवं तु-इस प्रकार अगुणप्पेही प्रमादादि दोपोंको ग्रहण करनेवाला च और गुणाणं-ज्ञानादि गुणोंका विवजए त्यागी तारिसो-उस प्रकारका साधु मरणंतेविस्मरणकालमें भी सवरं-संवर-चारित्र-की नाराहेइ-आराधना नहीं कर सकता ॥४१॥ १ टीका-एवम्-उक्तरीत्या तु अगुणप्रेक्षी दोपदर्शी प्रमादादिदोपनिरत 'आयरिए' इत्यादि। ऐसा दुराचारी साधु आचार्य तथा रत्नाधिक श्रमणकी भी आराधना नहीं करता, क्योंकि उसका अन्तःकरण कलुषित होजाता है, जिससे कि गृहस्थ भी उस साधुको पहचान लेते हैं और उसकी निन्दा करते हैं। तात्पर्य यह है कि ऐसा साधु सवका निन्दनीय बन जाता है ॥ ४० ॥ 'एव तु' इत्यादि । प्रमाद आदि दोषोंमें लीन, सम्यग्ज्ञान-दर्शन आयरिए० त्यादि. मेवो शयारी साधु याय तथा २ाधि श्रमानी પણ આરાધના કરતું નથી, કારણ કે એનું અત.કરણ કલુષિત થઈ જાય છે, જેથી ગૃહસ્થ પણ એ સાધુને પિછાણી લે છે અને એની નિંદા કરે છે. તાત્પર્ય એ છે કે એ સાધુ સોને નિંદનીય બની જાય છે. (૪૦) एवं तु. त्यात प्रभार मा योमा बीन, सम्यग्ज्ञान-दशन-यात्रि Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- - - -- -- - - - - - - अध्ययन ५ उ. २ गा. ४२-४३-मद्यादिविरतस्य गुणप्रकटनम् ५३९ इत्यर्थः, गुणानां च-ज्ञानदर्शनचारिवलक्षणानां क्षान्त्यादीनां वा विवर्नका परिस्याजकः गुणाऽनाराधक इत्यर्थः, तादृशो मरणान्तेऽपि संघरं नाराधयतीति व्याख्यातपूर्व मुगमं चेति ॥ ४१ ।। पूर्वोक्तदोपपरित्यागिनो गुणानाह-'तवं' इत्यादि । मूलम् तवं कुबइ मेहावी, पणीयं वजए रसं। मजप्पमायविरओ, तपस्सी अइउक्कसो ॥ ४२ ॥ छाया-तपः कुरुते मेधावी, प्रणीतं वर्जयति रसम् ।। ___ मद्यप्रमादविरतः, तपस्वी अत्युत्कर्षः ॥४२॥ सान्वयार्थः-मजप्पमायविरओ-जो मद्य और प्रमादसे रहित तवस्सी तपस्वी साधु मेहावी-भागमोक्त मर्यादा चलनेवाला अइउफसो घमंड नहीं करता हुआ तवं-तपस्या कुब्बइ-करता है, (और) पणीयं-स्निग्ध रसं-रसवाले पदार्थ घी दध वेयर आदिको बजग त्यागता है ॥४२॥ टीका-यः तपस्वी साधुः मद्यप्रमादविरत:-मादयति-विवेकविकलीकरोत्यात्मानमिति मां-मादकद्रव्य, तदेव प्रमादजनकत्वात्प्रमाद इति मद्यप्रमादस्तस्माद्विरतस्तद्वजैक इत्यर्थः, मेधावी-आगमोक्तविध्यनुस्मरणशीलः संयममर्यादाऽवस्थित इत्यर्थः, अत्युत्कपः उत्कर्ष: 'अहं तपस्वी'-त्याद्यभिमानस्तमतिक्रम्य% उल्लङ्घन्य-परित्यज्य वर्तत इति अत्युत्कर्पः, तपःप्रधानगुणाभिमानशून्यः सन् तपा= चारित्र तथा क्षान्ति आदि गुणोंका त्याग करनेवाला ऐसा साधु मृत्युसमय भी संवरकी आराधना नहीं करता ॥४१॥ पूर्वोक्त दोपोंके त्यागीके गुण कहते हैं-'त' इत्यादि। जो तपस्वी साधु आत्माको विवेक-विकल बनानेवाले शराबसे विरत रहते हैं, प्रवचन-प्रतिपादित संयम-मर्यादामें स्थित हैं, 'सबसे बड़ा तपस्वी मैं ही हूँ' ऐसा तपका दर्प (अभिमान) नहीं करते हुए चतुर्थे તથા ક્ષાન્તિ આદિ ગુણેને ત્યાગ કરનાર એ સાધુ મૃત્યુ સમયે પણ સવરની આરાધના કરતા નથી (૪૧) पूर्वाहत पाना त्याना गुण ४ छ-तवं. त्या જે તપસ્વી સાધુ આત્માને વિવેકવિકળ બનાવનાર શરાબથી વિરત રહે છે, તે પ્રવચન-પ્રતિપાદિત સંયમમર્યાદામાં સ્થિત રહે છે, “સૌથી મટે તપસ્વી હું છું એ તપને દર્પ (અભિમાન) ન કરતાં ચતુર્થ ભક્ત આદિ તપ કરે છે, Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकसूत्रे चतुर्थभक्तादिकं करोति पुनरपि प्रणीतं = गलस्नेहविन्दुकं गूढस्नेहं वा भोज्यं, स्नेहावगाढं कृशरादि, गूढस्नेहं घृतपूरादिकं, रसं घृतदुग्धादिकं वर्जयति = परित्यजति ||४२|| ૧ ५ ર मूलम्-तस्स पस्सह कल्लाणं, अणेगसाहुपूइयं । ५४० 3 ४ ८ विउलं अत्थसंजुत्तं, कित्तइस्सं सुह मे ॥ ४३ ॥ छाया--तस्य पश्यत कल्याणम्, अनेकसाधुपूजितम् । विपुलार्थसंयुक्तं, कीर्त्तयिष्यामि शृणु मे ||४३|| सान्वयार्थ :- तस्स = उस साधुके अगसाहपूइयं = अनेक मुनियोंके वन्दनीय विउलं= मुक्तिपदका साधक होनेसे महान् अत्थसंजुत्तं = मोक्षरूप अर्थ - प्रयोजन से युक्त ऐसे कल्लाणं = कल्याण-संयम को परसह - देखो, (और मैं उसके गुणोंका) कित्तस्सं वर्णन करूंगा, (तुम) मे= मुझसे सुणेह = सुनो ||४३|| टीका- 'तस्' इत्यादि । तस्य = उक्तगुणवतः साधोः अनेकसाधुपूजितं = मुनिवृन्दवन्दितं विपुलं = महत् मुक्तिपदसाधकत्वात्, अर्थसंयुक्तम् = अर्थ : = मुमुक्षूणां प्रयोजनं मोक्षलक्षणं तेन संयुक्तं संवलितं तत्फलदातृत्वात् कल्याण-नितान्तम्खावद्दत्वात्सयमं पश्यत = अवलोकयत भोशिष्याः । इति शेषः । कीर्त्तयिष्यामि = तद्गुणान् वर्णयिष्यामि मे = मम सकाशात् शृणुत = आकर्णयत ||४३|| " भक्त आदि तप करते हैं, तथा घेवर आदि प्रणीत भोजनको और घी-दूध आदि पुष्टिकर रसोंको त्याग देते हैं ॥ ४२ ॥ 'तस्स' इत्यादि । हे शिष्य ! उस उक्तगुणविशिष्ट साधुके अनेक मुनि समूहसे प्रशंसित, मुक्तिपदका साधक होनेसे महान्, मोक्षरूपी अर्थसे युक्त, अनन्त सुखदाता कल्याण अर्थात् संयमको देखो। मैं उसके गुणोंका वर्णन करूंगा, तुम मुझसे सुनो ॥ ४३ ॥ તથા ઘેવર આદિ પ્રણીત ભાજનને અને ઘી દૂધ આદિ પુષ્ટિકારક રસોને त्यागे छे. (४२) સપ્ત॰ ઇત્યાદિ હું શિષ્ય ! ઉતગુણવિશિષ્ટ એવા સાધુના અનેક—મુનિ સમૂહથી પ્રશસિત, મુકિતખ્તના સાધક થવાથી મહાન, મેાક્ષરૂપી અર્થીથી યુકત, અનંતસુખદાતા કલ્યાણુ અર્થાત્ સંયમને જુએ. હું એના ગુણાનું વર્ષોંન કરીશ, ते तमे सामी (४3) Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. ४४-४५ - मद्यादिविरतस्य गुणमकटनम् 1 २ 3 ક मूलम् - एवं तु गुणप्पेही, अगुणाणं च विवज्जए । ५४१ ७ ૧૩ マ तारिसी मरणंतेवि, आराहेइ संवरं ॥ ४४ ॥ छाया - एवं तु गुणमेक्षी, अगुणानां च निवर्तकः । तादृशः मरणान्तेऽपि आराधयति संवरम् ||४४ ॥ सान्वयार्थ:- एवं तु = इस प्रकार गुणप्पेही ज्ञानादि गुणोंके ग्रहण करनेमें तत्पर च=और अगुणाणं = ममादादि दोषोंका विवज्जए=त्यागी तारिसो=इस प्रकारका साधु मरणंतेचि मरणान्त-समय में अवश्य, अथवा मरणान्त कष्ट पड़ने पर भी संवरं = चारित्रको आराहेइ=आराधता है - नहीं छोड़ता है ॥ ४४ ॥ टीका - ' एवं तु' इत्यादि । एवं तु गुणमेक्षी = गुणदर्शी ज्ञानादिगुणोपार्जनदत्तचित्त इत्यर्थः, अगुणानां च =प्रमादादिदोषाणां विवर्जकः=परित्यजनशीलः तादृशः =तथाविधःसाधुर्मरणान्ते-मरणसमये अपि = निश्चयेन संवरं = चारित्रम् आराधयति= सेवते । यद्वा मरणान्तेऽपि मरणसमक्लेशोपस्थितावपि संवरमाराधयति न परित्यजतीत्यर्थः ||४४ || ર ५ 3 ४ मूलम् - आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसी । ७ ८ ५ ૧૦ ૧૨ ६ વા गिहत्था विणं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं ॥ ४५ ॥ छाया - आचार्यान् आराधयति, श्रमणान् अपि च तादृशः । गृहस्था अपि तं पूजयन्ति येन जानन्ति तादृशम् ॥ ४५ ॥ सान्वयार्थः-तारिसो=पूर्वोक्त गुणवाला साधु आयरिए=आचार्यादिकोंकी अवि य=और समणे = साधुओं की भी आरहेह = आराधना करता है, जेण= जिस 'एवं तु' इत्यादि । इस प्रकार ज्ञानादि - गुणोंके उपार्जनमें लीन, प्रमाद आदि अवगुणोंके त्यागी ऐसे साधु मृत्यु समयमें अवश्य संवर= चारित्र धर्मकी आराधना करते हैं । अथवा मृत्युके समान कष्ट उपस्थित होनेपर भी वे संवरकी आराधना करते हैं, अर्थात् उस समय भी वे संवरका त्याग नहीं करते ||४४ ॥ પુત્રં તુ॰ ઇત્યાદિ એ રીતે જ્ઞાનાદિ-ગુણાના ઉપાર્જનમા લીન, પ્રમાદ આદિ અવગુણેના ત્યાગી એવા સાધુએ મૃત્યુ સમયે અવશ્ય સવર=ચારિત્ર ધમની આરાધના કરે છે અથવા મૃત્યુસમાન કષ્ટ ઉપસ્થિત થતા પણ તે સંવરની આરાધના કરે છે, અર્થાત એ સમયે પણ તેઓ સવરને ત્યાગ કરતા નથી. (૪૪) Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे कारणसे गिहत्यावि-गृहस्थ भी णं-उसे तारिसं-उस प्रकारका जाणंति= जानते हैं, (अतः उसका) पूयंति-वस्त्र पात्रादिसे सम्मान करते हैं, तथा साधु भी उसकी प्रशंसा करते हैं ॥४५॥ टीका-'आयरिए' इत्यादि । तादृशः उक्तगुणविशिष्टः साधुः आचार्यान् श्रमणाश्चाप्याराधयति-स्वकीयसंयमोत्कर्षणाऽऽचार्यादीन् प्रसादयतीत्यर्थः, येन हेतुना गृहस्थाः तं-साधुं तादृशं तथाविधं जानन्ति तेन कारणेन पूजयन्ति वस्त्रपात्रादिपुरस्कारेण मानयन्ति । 'अपि' शब्देन न केवलं गृहस्थाः किन्तु साधवोऽपि पूजयन्ति-प्रशंसन्तीति सूत्रार्थ ।।४५॥ मूलम् तवतेणे वयतेणे, रूवतेणे य जे नरे । आयारभावतेणे य, कुबई देवकिविसं ॥४६॥ छाया-तपास्तेनो वचःस्तेनो, रूपस्तेनश्च यो नरः। . आचारभावस्तेनश्व, कुरुते देवकिल्लिपम् ॥४६॥ सान्वयार्थ:-जे जो नरे साधुतवतेणे-तपस्याका चोर-दूसरेकी तपस्याका अपनेमें आरोप करनेवाला, वयतेणे वचनका चोर-दूसरेके व्याख्यानका अपनेमें आरोप करनेवाला, य-तथा स्वतेणे-रूपका चोर दूसरेके रूपका अपनेमें आरोप करनेवाला, य-और आयारभावतेणे-आचारका चोर-दूसरेके ज्ञानादि आचारोंका अपनेमें आरोप करनेवाला, भावका चोर जीवादि पदार्थीका जानकार नहीं होने पर भी अपनेको जानकार बतानेवाला होता है, वह देवकिविसं= 'आयरिए' इत्यादि । ऐसे साधु आचार्योंकी तथा श्रमणोंकी आराधना करते हैं, अर्थात् आचार्यादिकोंको अपने संयमकी उत्कृष्टतासे प्रसन्न करते है, जिससे गृहस्थ भी उन्हें वैसाही उत्कृष्ट समझते और सन्मान करते हैं । केवल गृहस्थ ही उनका सन्मान नहीं करते किन्तु साधु भी उनकी प्रशंसा करता हैं ॥४५॥ आयरिए पत्यादि सवा साधुसो, मायानी तथा श्रमशानी माराधना કરે છે, અર્થાત્ આચાર્યાદિકને પિતાના સયમની ઉત્કૃષ્ટતાથી પ્રસન્ન કરે છે, જેથી ગુડો પણ તેમને એવા જ ઉત્કૃષ્ટ સમજે છે અને તેમનું સન્માન કરે છે કેવળ ગ્રહ જ એમનું સન્માન નથી કરતા, પરંતુ સાધુઓ પક્ષ એમની प्रशसा रे छे (४५) Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. ४६ - तपआदिचोरस्य दोषपटनम् *ર્ किल्विक नाम के देवभको कुव्वई=करता है, अर्थात् देवलोक किल्लिपिक देवने उत्पन्न होता है ॥४॥ ठीका- 'तवतेणे' इत्यादि । [१] यो नरःन्यः साधुः तपःस्तेनः- तपचौरः, अत्र चौयै परकीयतपोऽपहरणं वपुजायै स्वस्तिन्नारोपणम् । स च तपःस्वैनविविधो यथा स्वयमतपत्र कवित्साधुः केनचित् 'तपस्वी भवान् ?' इति पृष्टः सन् 'अहमस्मि तपस्वी'-त्यर्थः प्रयमः (१) । द्वितीयो विनैव तपसा स्वभा चाद् रोगादिकारणान्तरवन्नाटा वरीः साधुः केनचित् 'किं भवानेव श्रुतपुत्रैस्तपस्त्री ?" इति पृष्टः सन् स एव भवन्ति किमनेन तेन ?' इत्युत्तम: (२) । 'तवतेणे' इत्यादि । जो साधु तपके चोर, वचनके चार, रूपके चोर अथवा आचारके चोर और भावके चोर होते हैं वे देवोंमें उत्पन्न होकर के भी किल्विष ही होते हैं ॥ तात्पर्य यह है कि परकी तपस्याको अपनी प्रतिष्टांके लिए अपनी बताना तपकी चोरी है । [१] तपके चोर तीन प्रकारके हैं (१) किसी अनपस्वी साधुले किसीने पूछा- 'क्या आप तपस्वी हैं ?" इसके उत्तरमें 'हो में तपस्वी है ऐसा कहनेवाला तपचोर है। (२) विना तपस्या किये रोग आदि किसी कारणसे या स्वभावसे क्षीण शरीरवाले साधुसे किसीने पूछा-क्या आप ही वह तपस्वी है, जिनकी कीर्ति पहले हमने सुनी है ? ऐसा पूछनेपर 'साधु तो तपस्वी होते ही हैं, यह प्रश्न करना ही वृथा है। इस प्रकारका उत्तर देनेवाला तपचोर है । वेले धुको दस्ताबेदार संक्षेच् बच्रेता ३२ डे के तेथे हे अपक्ष ह પણ ઇતિ જ અને કે. द से मेरी है (1) है-पनी ने नटे भेदनी के. धुने देश के है है ?' दे (1) 25 ॐ, उप सेनडेन्टर २ के. () वस्त्र या विदेश उडे और वो खुद सेव तुम्ही 35 £ edad २. ** इतके व इध है, 2 २२६ २४ == है बेन्ने v tub, तेर े 1'da yerdag à ce तो उदर Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = ५४४ श्रीदशवकालिकसूत्रे तृतीयस्तु-'उग्रतपस्वी भवानेव किम् ?' इति केनचित्पृष्टः सन् स्वख्यातिकामनया केवल मौनमालम्बते न तु किश्चित्पतिभाषते तेन प्रच्छकोऽधिगच्छतिअयं महातपस्वी यतः स्वगुणाख्यानं कर्तुं मनागपि नोत्सहते, पृष्टोऽपि च भतिवचनं न प्रयच्छतीति (३)।। [२] वचास्तेना बचा वाक्यं तस्य स्तेनः, यथा-'धर्मदेशनाप्रवीणतया श्रूयमाणो मुनिर्भवानेव किम् ?' इति केनचित्पृष्टः ‘साधवो धर्मदेशनानिपुणा एव भवन्ती'त्यादिकका तूष्णीभूतश्च । अथवा स्वस्य शास्त्रानभिज्ञत्वेऽपि वागाडम्बरमात्रेण परिषदि प्रसादितायां सत्यां केनचित्-'आचारायङ्गोपाङ्गविज्ञो भवान्' इति पृष्टः (३) 'क्या आपही उग्र तपस्वी हैं ?' ऐसा प्रश्न करनेपर स्वकीय कीर्तिकी कामना करके केवल मौन साध लेनेवाला-कुछ न बोलनेवाला तपचोर है, क्योंकि मौन साधनेसे प्रश्न का यह समझ लेता है कि'ये बड़े भारी तपस्वी हैं कि अपने गुण वर्णन करने में तनिक भी प्रवृत्त नहीं होते, यहां तक कि पूछने पर भी उत्तर नहीं देते ।' [२] वाक्यके चोरको वचनचोर कहते हैं। जैसे किसीने पूछा-'जो धर्मदेशना देनेमें अत्यन्त निपुण सुने जाते हैं वे क्या आपही हैं?' इस प्रश्नके उत्तरमें ऐसा कहना कि-'साधु, धर्मदेशना देने में निपुण होते ही हैं,' अथवा चुप्पी साध लेना, अथवा हो तो शास्त्रोंसे अनभिज्ञ; किन्तु वागाडम्बरसे परिषद्को प्रसन्न करनेपर कोई पूछे कि-'आप अंग उपांगोंका जानते हैं क्या ?' ऐसा प्रश्न करनेपर 'साधु, अंग उपांगोंके ज्ञाता (૩) “શુ આપ જ ઉગ્ર તપસ્વી છે ? એ પ્રશ્ન પૂછવામાં આવતા પિતાની કીર્તિની કામના કરીને કેવળ મૌન સાધનાર-કાઈ ન બોલનાર પણ તપર છે, કારણ કે મોન સાધવાથી પ્રશ્નકર્તા એમ સમજી લે છે કે એ બહુ મોટા તપસ્વી છે, તેથી પિતાના ગુણ વર્ણન કરવામાં જરા પણ પ્રવૃત્ત થતા નથી, એટલે સુધી કે પૂછતા છતા ઉત્તર પણ નથી આપતા. [૨] વાકયના ચેરને વચનોર કહે છે. જેમ કે, કોઈ પૂછે “જે ધર્મદેશના આપવામાં અત્યત નિપુણ સંભળાય છે તે શુ આપ જ છે ?” એ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં એમ કહેવું કે “સાધુ ધર્મદેશના આપવામાં નિપુણું જ હોય છે ” અથવા ચુપકી પકડવી અથવા શાસ્ત્રોથી અનભિજ્ઞ હેવા છતા વાગડમ્બરથી પરિપદને પ્રસન્ન કરતા કેઈ પૂછે કે “આપ અંગ-ઉપાંગોને જાણે છે કે? એવા પ્રશ્નના ઉત્તરમાં Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. ४६ - तपआदिचोरस्य दोषप्रकटनम् 'साधवस्तज्ज्ञा भवन्त्येवे' तिमत्यायकः । [३] रूपस्तेनः स्वात्मनि परकीयरूपारोपणकारकः, यथा प्रकृष्टरूपवन्तं साधुं समालोक्य 'किमसौ ज्ञातपूर्वरूपवान् भवानेव ?" इतिपृष्टो वागादिना तदङ्गीकुवणो मौनावलम्बी वा । ५४५ आचारभावस्तेनः=आचारथ भावयेति द्वन्द्वे आचारभावौ तयोः स्तेनः, तेन- आचारस्तेनः भावस्तेनश्चेति फलितम्, 'द्वन्द्वादौ द्वद्वान्ते वा श्रूयमाणं पदं प्रत्येकमभिसम्बध्यते' इति न्यायेन द्वन्द्वोत्तरस्थस्य स्तेनपदस्य प्रत्येकं सम्वन्धात् । तत्र[४] आचारस्तेनः - परकीयज्ञानाद्याचारपञ्चकस्य स्वस्मिन्नारोपयिता, यथा - ' - यमाणः क्रियापात्रं भवानेव किम् ?' इति केनाप्यनुयुक्तः सन् पूर्ववत्समाधायकः । [५] भावस्तेनश्च भावो=जीवादिपदार्थस्तस्य स्तेनः, सूत्रार्थसन्देहं गीतार्थात् - होते ही हैं ' ऐसा कथन करनेवाला वचनचोर है । [३] परके रूपका अपने में आरोपण करनेवाला रूपचोर कहलाता है । जैसे किसी ने पूछा - ' पूर्वज्ञात रूपवान् क्या आप ही हैं ? ' इसके उत्तर में वचन से स्वीकार करनेवाला अथवा चुप रह जानेवाला रूपचोर है। [४] परके ज्ञानादि पॉच आचारोंको अपनेमें आरोपित करनेवाला आचारचोर कहलाता है। जैसे किसीने पूछा- 'क्या सुने जानेवाले उत्कृष्ट क्रियापात्र आप ही हैं ? ' ऐसा पूछने पर पूर्वकी भाँति समाधान करनेवाला, अर्थात् 'साधु तो क्रियापात्र होते ही हैं' ऐसा कहनेवाला आचारचोर है । [4] किन्हीं गीतार्थ मुनि से सूत्रार्थका सन्देह निवारण करके ऐसा कहे कि " સાધુ અગ ઉપાંગોના જ્ઞાતા જ હાય છે એમ કહેનાર વચનચેાર છે [૩] પરના રૂપનું પેતામાં આરેાપણુ કરનાર રૂપચાર કહેવાય છે જેમકે કોઇ પૂછે કે ‘ પૂજ્ઞાત રૂપવાન્ શું આપ જ છે ? ' તેના ઉત્તરમાં વચનથી સ્વીકાર કરનાર અથવા ચૂપ રહેનાર રૂપચાર છે [૪] પરના જ્ઞાનાદિ પાચ આચારીને પાતામાં આરેપિત કરનાર આચારચાર કહેવાય છે જેમ કે કોઈ પૂછે ‘શું સાંભળવામાં આવતા ઉત્કૃષ્ટ ક્રિયાપાત્ર આપ જ છે ?' એમ પૂછવામાં આવતાં પહેલાની પેઠે સમાધાન કરનાર અર્થાત્ ५ સાધુ તા ક્રિયાપાત્ર જ હાય છે’ એમ કહેનાર આચારચાર છે [૫] કોઇ ગીતા મુનિ પાસેથી સૂત્રાના સદેહનું નિવારણ કરીને એમ કહે કે Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ - - - श्रीदशकालिकसूत्रे प्रश्नपूर्वकमवबुध्यानन्तरं 'प्रागेवेदं विज्ञातमस्ति न तु किश्चिदपूर्वमिदानीं भवन्मुखा- । दाकर्ण्यते' इति प्रतिपादकः । स तपःस्तेनादिः देवकिल्लिपं देवानां मध्ये किल्विपः पापः, अत एवाऽस्पृश्यत्वादिधर्मा,तं कुरुते भावयति-तपःस्तेयादिकर्मणि देवकिल्विपनामक भवमुत्पादयतीत्यर्थः ॥४६॥ मूलम् लभ्रूणवि देवत्तं, उववन्नो देवकिविसे। ૫ ૬ ૧૨ ૧૩ तत्थावि से न याणाइ, कि मे किंचा इमं फलं ॥ १७॥ छाया-लब्ध्वाऽपि देवत्वम् , उपपन्नो देवकिल्विषे । तत्रापि स न जानाति, किं मे कृत्वा इदं फलम् ॥४७॥ सान्वयार्थः-देवत्तं कुछ क्रियाकलाप करने से देवपनेको लभृणवि-पाकर भी वह देवकिदिवसे-किल्विप-अस्पृश्य जातिके देवोंमें उववन्नो उत्पन्न होता है, तत्याविवहां पर भी से वह "किं क्या कर्म किच्चा करनेसे मे मेरे इमं यह फलं-फल प्राप्त हुआ है' ऐसा न याणाइ नहीं जानता है, क्योंकि देवलोकमें तीन ज्ञान अवश्य होनेवाले होनेपर भी चोरी आदि प्रवल पापकर्मके प्रभाव से उसके तीव ज्ञानावरणका उदय होता है । टीका-'लभ्रूणवि' इत्यादि । देवत्वं देवजाति लब्ध्वाऽपि पाप्यापि देव "यह तो मुझे पहले ही मालूम था, आपके मुखसे कुछ भी नवीनता नहीं सुनी जाती' उसे भाव-(जीवादि-पदार्थ) का चोर कहते हैं। ऐसे तप आदिके चोर साधु देवताओंमें अस्पृश्य किल्विष देवके कर्मको उपार्जन करते हैं, अर्थात् वह साधु देवभव पा करके भी किल्विष देव होता है ॥ ४६ ॥ 'लभूणवि' इत्यादि । देवगति प्राप्त करके भी किल्विष देवोंमें એ તે હું પહેલેથી જાણતું જ હતું, આપના મુખેથી કાંઈ નવીનતા સાંભળવામાં આવતી નથી” તે તે ભાવ (જીવાદિ-પદાર્થ) ને ચેર કહેવાય છે એવા તપ આદિને ચેર સાધુ દેવતાઓનાં અસ્પૃશ્ય કિટિવલી દેવનાં કમેને ઉપજે છે, અથતુ એ સાધુ દેવભવ પામીને પણ કિવિ દેવ થાય છે (૪૬) દ્ભાવિ ઈત્યાદિ. દેવગતિ પ્રાપ્ત કરીને પણું કિલિવલી ડેમાં ઉત્પન્ન Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. ४७-४८ - तपआदिचोरस्य दुष्फलप्राप्तिः ५४७ किल्विषे = किल्विदेवमध्ये उपपन्नः = संमाप्तः, तत्रापि सः, 'किं कर्म कृत्वा मे = मम इदं फलं संजात' - मिति न जानाति । किञ्चित्क्रियाकरणक्लेशेनाऽवश्यम्भाविज्ञानत्रयक देवखजातिलाभेऽपि स्तेयादिपापकममभावेण ज्ञानावरणस्य प्रवलोदयेनाऽविशुद्धावधि सद्भावादिति भावः ॥४७॥ एतावदेव तस्य फलं न, किन्तु ततोऽन्यदपीति तद्दर्शयति- ' तत्तोवि' इत्यादि । २ ५ मूलम् - तत्तोवि से चइत्ताणं, लब्भिही एलमूयगं । ૬ G ८ ૧૦ ૯ ૧૧ नरगं तिरिक्खजोणि वा, वोही जत्थ सुदुलहा ॥ ४८ ॥ छाया - ततोऽपि स च्युखा, लप्स्यते एलमूकलम् | नरकं तिर्यग्योनिं वा, वोधित्र सुदुर्लभा ॥ ४८ ॥ सान्वयार्थ:-से-वह किल्लिपी देव तत्तोवि-उस- किल्विष देवभवसे भी चन्ताणं = चवकर मनुष्य भवमें एलम्यगं=वकरेकी तरह अस्पष्ट बोलनेरूप गूंगेपनको लग्भिही=माप्त होगा, (और वहाँ मरकर फिर ) नर-नरक गतिको वा=अथवा तिरिक्खजोणि= तिर्यञ्च योनिको लग्भिही=माप्त होगा कि जत्थ = जहां फिर वोही=बोधि-जिनधर्म की प्राप्ति होना सुदुलहा - महा- मुश्किल है ||४८|| उत्पन्न होकर यह नहीं जानता कि- 'मुझे कौन कर्म करने से यह फल मिला है ?' तात्पर्य यह है कि कुछ कायक्लेश करने से वहां भवप्रत्ययक अवधि ज्ञान तक तीन ज्ञान होजाते हैं, फिर भी चोरी आदि पाप कर्मोंके प्रभावसे ज्ञानावरणका प्रवल उदय होनेके कारण अविशुद्ध अवधि रहता है ॥ ४७ ॥ उक्त चोरीका इतना ही फल नहीं है, किन्तु और भी होता है सो दिखाते हैं - ' तत्तोवि' इत्यादि । થઈને એ નથી જાણતા કે મને કયા કર્યાં કરવાથી આ ફળ મળ્યું છે ? ' તા એ છે કે કાંઇક કાયકલેશ કરવાથી ભવપ્રત્યયિક અધિ–જ્ઞાન સુધી ત્રણ જ્ઞાન થઈ જાય છે, તે પણ ચારી આદિ પાપ કર્યાંના પ્રભાવથી જ્ઞાનાવરણને પ્રખળ ઉદય થવાને કારણે અવિશુદ્ધ અવધિ રહે છે (૪૭) ઉકત ચારીનું એટલું જ ફળ નથી, પરંતુ ખીજું પણુ ફળ મળે છે તે वे छे तत्तो वि इत्यादि Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ५४८ श्रीदशवकालिकात्रे टीका-सा किल्विपदेवः ततोऽपि-किल्विपदेवभवादपि च्युता-अच्युत्य मनुष्यभवेऽपि एलमूकलम् भाषणश्रवणोभयशक्तिशून्यत्वं, लप्स्यतेमाप्स्यति, ततोऽपि मृला नरकं तिर्यग्योनि वा लप्स्यते, यत्र-मनुष्यादिभवे बोधिःसम्यक्त्वं सुदुर्लभा अतिशयेन दुष्पापा भविष्यतीति भावः ॥४८॥ उपसंहरन्नाह-'एयं च' इत्यादि । मूलम्-एयं च दोसं दखूणं, नायपुत्तेण भासियं । अणुमायंपि मेहावी, मायामोसं विवजए ॥४९॥ छाया-एतं च दोपं दृष्ट्वा, ज्ञातपुत्रेण भापितम् । अणुमात्रमपि मेधावी, माया-मृपा विवर्जयेत् ॥४९।। सान्वयार्थः-एयं च इस पूर्वोक्त मकारके दोसं-दोप-पापको नायपुत्तेण= महावीर भगवानने दहणं केवल ज्ञानसे देखकर भासियं-फरमाया है, (अतः) मेहावी-कृत्याकृत्यमें कुशल साधु अणुमायंवि-अणुमान-थोड़े भी माया-मोसं कपट और झूठको विवज्जए-बरजे-न आचरे ॥४९॥ ____टीका-एतं च पूर्वप्रतिपादितं दोप-पापं गृहीतेऽपि चारित्रे किल्लिपिकदेवत्वाधापादकलक्षणं ज्ञातपुत्रेण-ज्ञाता-सिद्धार्थभूपस्तस्य पुत्रो ज्ञातपुत्रः महावीरस्तेन वह किल्विष देव देव-भवसे चक्कर मनुष्य भवमें अज (वकरे)की तरह बोलनेवाला-गूंगा होगा, और फिर नरकगति या तिर्यश्च गतिको प्राप्त होगा, जहाँ पर वोधि (सम्यक्त्वकी प्राप्ति) अत्यन्त दुर्लभ है॥४८॥ उपसंहार करते हुए कहते हैं- एयं च' इत्यादि। चारित्रको अंगीकार करनेके पश्चात् भी किल्विष-देवत्वकी प्राप्ति आदि दोष ज्ञातपुत्र (सिद्धार्थनन्दन) भगवान् यमान स्वामीने केवल એ કિલિવથી દેવ દેવભવથી આવીને મનુષ્ય ભવમાં અજ (બકરા)ની પેઠે બેલનાર-બેબડ થશે, અને પછી નરકગતિ યા તિર્યંચ ગતિને પ્રાપ્ત થશે, કે ज्योधि (सभ्यपनी प्राति) सत्यत gen छ. (४८) S५।२ ४ छे-एयं च० त्या ચારિત્રને અગીકાર્યા પછી પણ કિવિ-દેવત્વની પ્રાપ્તિ આદિ દેવ જ્ઞાતપુત્ર (સિદ્ધાર્થનંદન) ભગવાન વર્ધમાન સ્વામીએ કેવળજ્ઞાનથી જાણીને - Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ५ उ. २ गा. ४९-५०-उपसंहारः दृष्ट्वा केवलालोकेनाऽऽलोक्य भाषितं कथितम्-अर्थत उपदिष्टमित्यर्थः, अतः मेधावी-कृत्याकृत्यविवेककुशलः, अणुमात्रमपि-स्वल्पमपि मायामृपा-मायामृपावादं विवर्जयेत्-संत्यजेत्-नाऽऽचरेदिति भावः ॥४९॥ मूलम्-सिक्खिऊण भिक्खेसणसोहिं, संजयाण बुद्धाण सगासे। तत्थ भिक्खु सुप्पणिहि-इंदिए, तिबलज्जगुणवं _ विहरिजासि-त्तिबेमि ॥५०॥ छाया-शिक्षित्वा भिक्षेपणशोधि, संयतानां वुद्धानां सकाशे । तत्र भिक्षुः सुप्रणिहितेन्द्रियः, तीव्रलज्जागुणवान् विहरेत् । इति ब्रवीमि ॥५०॥ सान्वयार्थः-बुद्धाण-सकल तत्वोंके जाननेवाले संजयाण-मुनियों के सगासे समीप भिक्खेसणसोहि भिक्षाके आधाकर्मादि दोपोंकी शुद्धिको सिक्खिऊण-सीखकर तिव्वलज्जगुणवं अकृत्याचरणमें अत्यन्त लज्जावान् सुप्पणिहिइंदिए-जितेन्द्रिय-एकाग्रचित्तवाला भिक्खु-साधु तत्थ-वहांभिक्षाकी एपणा विहरिज्जासि-विचरे-लगे। त्तिवेमि-श्रीसुधर्मास्वामी जंवूस्वामीसे कहते हैं कि जैसा भगवान् महावीर स्वामीने फरमाया है वैसाही में तेरेसे कहता हूँ ॥५०॥ । इति पांचवे अध्ययनके दूसरे उद्देशका सान्वयार्थ समाप्त ॥ ५-२ ॥ ॥ इति श्रीदशवकालिकसूत्रके पांचवें अध्ययनका सान्वयार्थ समाप्त ॥५॥ टीका-'सिक्खिऊण' इत्यादि। भिक्षुः बुद्धानाम् अवगतसकलतत्त्वानां, संयतानां सयमवतां सकाशे-समीपे भिषणशोधि-भिक्षागताऽऽधाकर्मादिदोषज्ञानसे जानकर प्रतिपादन किये हैं, इसलिए कार्य-अकार्यके विवेकी श्रमणको अणुमात्र भी माया-मृषावादका आचरण नहीं करना चाहिए, अर्थात् मुनि माया-मृषावादका थोड़ा भी सेवन नहीं करें ॥४९॥ ___ 'सिक्खिऊण' इत्यादि । भिक्षु, तत्त्वके ज्ञानी संयमियोंके समीप પ્રતિપાદન ક્યાં છે તેથી કરીને કાર્ય–અકાર્યના વિવેકી શ્રમણએ આ માત્ર પણ માયા-મૃષાવાદનું આચરણ ન કરવું જોઈએ, અથત મુનિ માયા મૃષાવાદનું થોડું __पशु सेवन न ४२ (४८) । सिक्खिऊण त्या तत्पना ज्ञानी संयभीमानी सभी साधा माह Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - ५५० श्रीदशवकालिकमूत्रे संशुद्धि-दोपज्ञानपूर्वकतत्परिहारविधिमित्यर्थः, शिक्षित्वा सम्यगभ्यस्य सुप्रणिहितेन्द्रियः सुवशीकृतेन्द्रियः-एकाग्रचेता इत्यर्थः । तीव्रलज्जागुणवान् अकृत्याऽऽ. चरणेऽतीवलज्जाधारकः, तत्र-भिक्षेपण विषये विहरेत्-विचरेत् । ___'संजयाण बुद्धाण' इतिपदाभ्यां ज्ञानक्रियोभयवद्भय एव शिक्षाशुद्धिर्जायत इति, 'सुप्पणिहिइंदिए' इत्यनेन शिष्येण एकाग्रचेतसा भाव्यमिति, 'तिब्वलज्जगुणवं' इति पदेन लजावानेव प्रवचनमर्यादां पालयतीति च प्रकटीकृतम् । इति ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥५०॥ । इति पञ्चमाध्ययनस्य द्वितीयोदेशः समाप्तः ॥ आधाकर्म आदि दोषोंके ज्ञानपूर्वक आहारकी विधिको सम्यक् प्रकार जान करके जितेन्द्रिय हो कर तथा अकार्य करनेसे तीव्र लज्जा पाते हुए विचरें॥ 'संजयाण बुद्धाण' इन दोनों पदोंसे यह ध्वनित किया है कि ज्ञान और क्रिया दोनोंसे ही भिक्षाशुद्धि होती है। 'सुप्पणिहिइंदिए' पदसे यह सूचित किया है कि शिष्यको एकाग्रचित्त होना चाहिए। 'तिव्वलज्जगुणवं' से यह प्रदर्शित किया है कि लज्जावान ही प्रवचनप्रतिपादित मर्यादा (आचार ) का परिपालन करता है। श्री सुधर्मा स्वामीजम्बूस्वामीसे कहते हैं कि हे जम्बू! मैंने भगवान् श्रीमहावीरस्वामीसे जैसा सुना वैसा ही तुमसे कहा है ॥५०॥ । इति पांचवें अध्ययनका दूसरा उद्देश समाप्त । દેનું જ્ઞાન મેળવીને, આહારની વિધિને સમ્યફ પ્રકારે જાણીને, જિતેન્દ્રિય થઈને તથા અકાર્ય કરવાથી તીવ્ર લજજા પામતાં ભિક્ષુ વિચરે. सजयाण बुद्धाण ये 6 शण्डोथी म पनित यु छ , ज्ञान मन ક્રિયા બેઉથી જ ભિક્ષા-શુદ્ધિ થાય છે મુumવિડંપિ એ પદથી એમ સૂચિત કર્યું છે કે શિષ્ય એકાગ્રચિત્ત થવું જોઈએ તિન્નપુણવં થી એમ પ્રદર્શિત કર્યું છે કે લજાવાનું જ પ્રવચન પ્રતિપાદિત મર્યાદા (આચાર)નું પરિપાલન કરે છે શ્રી સુધમ વાગી અબૂ સ્વામીને કહે છે કે-હે જમ્મ! મે ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામી પાસેથી જેવું સાભળ્યું તેવું જ તમને કહ્યું છે (૫૦) ઈતિ પાંચમા અધ્યયનને બીજો ઉદ્દેશ સમાપ્ત. Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. अध्ययनपरिसमाप्तिः ५५१ इति श्री विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषा - कलित- ललितकलापाऽऽलापक- प्रविशुद्ध-गद्य-पद्य नैकग्रन्थ निर्मापक-वादिमानमर्दकशाहू छत्रपति - कोल्हापुररानप्रदत्त - जैनशास्त्राचार्य-पद-भूषितकोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि- जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकरपूज्य श्री घासीलालवतिविरचितायां श्रीदशवैकालिकसूत्रस्याऽऽचारमणिमञ्जूपाख्यायां व्याख्यायां पञ्चमं 'पिण्डेषणा 'ss - ख्यमध्ययनं समाप्तम् ॥ ५ ॥ इति श्रीवैकालिकसूत्रके "पिण्डेषणा" नामक पाँचवें अध्ययनकी 'आचार मणिमन्जूषा टीकाका हिन्दी भाषानुवाद समाप्त ॥ ५ ॥ ઇતિ શ્રીદશવૈકાલિકસૂત્રના “પિડા” નામક પાંચમા અધ્યયનની ‘આચારમણિમ જાષા’ ટીકાના ગુજરાતીભાષાનુવાદ સમાસ. (૫) -X---- समाप्त Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્ય આચાર્યશ્રી વાસીલાલજી મહારાજનાં બનાવેલાં સને. કાશ્મીરથી કન્યાકુમારી તે મ જ કરાં ચી.....થી.... ક લ ક ત્તા સુધી દરેક સ્થળે હોંશથી વંચાય છે. કારણ કે, આવી રીતે શાસ્ત્રો તૈયાર કરવાનું અનોખું કાર્ય હજુ સુધી કોઈ કરી શકયું નથી. શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સમાજ ઉપરાંત શ્રી દેરાવાસી સંપ્રદાયના મહાન આચાર્યશ્રી રામવિજયસૂરીજી તથા અન્ય મુનિવરેએ તેમજ તેરાપથી મહાસભા કલકત્તાવાળાએ આ સૂત્રે અપનાવ્યા છે દેશ-પરદેશના મે સુ વાચી જૈન ધર્મના થતજ્ઞાનને અણમોલે લાભ લઈ રહ્યા છે હાલમાંજ લંડનની ઈન્ડીઆ ઓફીસ લાયબ્રેરીએ આ સૂત્રે મગાવ્યા છે આપ રૂપીઆ ૨૫૧-૦-૦ એકલી મેમ્બર તરીકે નામ નેધાવી હપ્ત હતું લગભગ રૂપીઆ પાચ સુધીની કિંમતનાં શાસ્ત્રો વિના મૂલ્ય મેળવી શકે છે વધુ વિગત માટે લખે. કે ગ્રીન લેજ પાસે, ગરેડીઆ કુવા રેડ | - શ્રી અખિલ ભારત છે. સ્થા. જૈન રાજકેટ, શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, = = = ==== = મત્રિ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી અખિલ ભારત શ્વેતામ્બર સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ ગરેડીઆ કુવા રોડ - ગ્રીન લેાજ પાસે રા જ કે ટ. સમિતિની શરૂઆત તા. ૧૮-૧૦-૪૪ થી તા. ૩૦-૪-૫૭ સુધીમાં દાનવીર મહારા તરફથી મળેલી ૨ કમાની નામાવલી, [રૂા. અઢીસાથી ઓછી રકમા આ ચાદીમાં સામેલ કરેલ નથી.] Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૦૦૦૦ ૬૦૦૦ ૫૨૫૧ ૫૦૦૧ ૩૬૦૫ ૩૧૦૧ ૨૫૦૦ ૨૦૦૦ ૨૦૦૦ ૨૦૦૦ આદ્ય સુરક્ખીશ્રી-૪ (ઓછામાં ઓછી રૂ. ૫૦૦૦ ની રકમ આપનાર) શેઠ શાંતિલાલ મ`ગળદાસભાઇ, પ્રમુખ સાહેબ શેઠ હરખચ ંદ કાલીદાસભાઈ ૧૯૬૩ ૧૦૦૧ ૧૦૦૧ ૧૦૦૦ ૧૦૦૦ ૧૦૦૦ ૧૦૦૨ ૧૦૦૧ ૧૦૦૧ ૧૦૦૧ ૧૦૦૧ ૧૦૦૨ (હા શેઠ લાલચંદભાઇ, જેચંદભાઇ, નગીનદાસભાઇ, વૃજલાલભાઈ તથા વલ્લભદાસભાઇ) કાઠારી જેચંદભાઈ અજરામર હા હરગેવિ દભાઇ જેચંદ શેઠ ધારશીભાઈ જીવનભાઈ ૩૬૦૪ દેશી પ્રભુદાસ મુળજીભાઇ ૩૨૮ાાના મહેતા ગુલામચંદ્ન પાનાચંદ સઘવી પીતામ્બરદાસ ગુલામચંદ સુરમ્બીશ્રીઓ-૨૦ (ઓછામાં ઓછી રૂા ૧૦૦૦ ની રકમ આપનાર) વકીલ જીવરાજ વમાન હા કાઠારી કહાનદાસભાઈ તથા વેણીલાલભાઈ શેઠ શામજીભાઈ વેલજી વીરાણી નામદાર ઠાકાર સાહેબ લખધીરસીહજી મહાદુર શેઠ લહેરચંદ કુંવરજી હા, શેઠે ન્યાલચ દભાઈ લહેરચંદ શાહુ છગનલાલ હેમચંદ વસા હા માહનલાલભાઈ તથા મેતીલાલભાઈ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સઘ શેઠ આત્મારામ માણેકલાલ શેઠ માણેકલાલ ભાણજીભાઈ શેઠ સેામચદ તુલસીદાસ ફાઠારી છબીલદાસ હરખચંદ કોઠારી ૨ ગીલદાસ હરખચંદ મગડીઆ જગજીવનદાસ રતનશી શ્રીમાન ચંદ્રસિંહજી મહેતા (રેલ્વે મેનેજર સાહેબ ) મહેતા પે।પટલાલ માવજીભાઇ મહેતા સામચંદ નેણુશીભાઇ ( રાચીવાળા ) શાહુ હરીલાલ અનુપચંદ દેશી કપુરચંદ અમરશી હા. દલપતરામ કપુરચંદ દેશી અમદાવાદ ભાણવડ રાજકોટ સાલાપુર જેતપુર રાજકોટ 11 જામનગર રાજકોટ મારખી સીધપુર મુંબઇ મેરખી અમદાવાદ પારખ દર રતલામ મુંબઇ શીહાર દામનગર કલકત્તા જામજોધપુર મેરખી ખ’ભાત જામ જોધપુર Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૫૦ 006) ૭૫૦ માદી કેશવલાલ હરખચંદ શેઠ નરાત્તમદાસ એઘડભાઇ શેઠ શીવલાલ ડમરભાઈ ૫૦૧ ૫૦૦ ૫૦૦ ૫૦૦ ૫૦૦ ૫૦૦ ૫૦૦ ૫૦૦ ૫૦૦ ૫૦૧ ૫૦૧ ૫૦૧ ૫૦૧ ૫૦૧ ૫૦૦ ૫૦૧ સહાયક મેમ્બરા-૨૧ (ઓછામાં ઓછી રૂા ૫૦૦ ની રકમ આપનાર ) શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હા. શેઠ ઝુંઝાભાઇ વેલસીભાઇ ૩ કામદાર તારાચંદ પાપટલાલ ધેારાજીવાળા શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ શેઠ તારાચંદજી પુખરાજજી શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સ ઘ ૧૫૦ શેઠ શેષમલજી જીવરાજજી ૧૨૫ અનરાજજી લાલચ દજી ,, ,, ૧૨૫ કડચંદજી રૂપચંદજી ૧૦૦ "" દંગડુમલજી ચાંદમલજી ૫૦૦ મહેતા મેહનલાલ કપુરચંદ શેઠ ગાવી ઢજી પાપટભાઈ વઢવાણુ શહેર સાબરમતી જોરાવરનગર સાકરચ દ અ. સૌ બેન મણીગૌરી મગનલાલ તે મહેતા સામચદ તુલસીદાસના ધર્મપત્નિ સ્વ. પીતાશ્રી નદાજીના સ્મરણાર્થે । વેણીચ દ શાંતીલાલ (જામુઆવાળા) મહેતા મુળચંદ રાઘવજી હા. મગનલાલભાઈ તથા દુ`ભજીભાઇ શેઠ હરખચદ પરસેાત્તમ હા ભાઇ ઇન્દુકુમાર શેઠ ખીમજી ખાવાભાઈ હા તેમના પુત્ર ફુલચંદભાઈ નાગરદાસભાઇ, ગુલામચ દેભાઈ, તથા જમનાદાસભાઇ શેઠ મણીલાલ મેહનલાલ ડગલી હા. શેઠ મુલજીભાઇ મણીલાલ શેઠ ઈશ્વરલાલ પુરૂષીતમદાસ શેઠ ચંદુલાલ છગનલાલ સ્વ કાંતીલાલભાઈના સ્મરણાથે હ. શેઠ માલચંદ લીમડી રાજકોટ થાનગઢ ઓર ગામાદ મોર ગામાદે રાજકાટ રાજકેાટ ધ્રાફા ચારવાડ મુંબઈ મુંબઈ અમદાવાદ અમદાવાદ મુંબઇ રતલામ મેઘનગર Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૫૧ શાહ રંગજીભાઈ મેહનલાલ કામદાર રતીલાલ દુર્લભજી જેતપુરવાળા અમદાવાદ મુંબઈ ૫૦૧ પ્રથમ વર્ગના મેમ્બરે ૪૦૨ ધ્રાફા ૪૦૦ ૩૫૩ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧ (ઓછામાં ઓછી રકમ રૂ. ૨૫૦ આપનાર) શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ ધી વાડીલાલ ડાઈગ એન્ડ પ્રિન્ટીંગ વર્કસ રાજકેટ શેઠ રતનશી હીરજીભાઈ હા ગોરધનદાસભાઈ જામજોધપુર શેઠ જેચંદભાઈ માણેકચંદ ભાણવડ સંઘવી માણેકચંદ માધવજી ભાણવડ શેઠ લાલજીભાઈ માણેકચ દ (લાલપુરવાળા) ભાણવડ શેઠ રામજી ઝીણાભાઈ ભાણવડ પંચમીયા ભવાનભાઈ કાળાભાઈ વડીઓ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ વાંકાનેર શેઠ રતીલાલ ન્યાલચંદ રાજકોટ બાબુ પરશુરામ છગનલાલ શેઠ (ઉદેપુરવાળા) રાજકેટ શેઠ મગનલાલ છગનલાલ વિશ્રામ (ધ્રાફાવાળા) રાજકેટ શેઠ જેઠાલાલ ગોરધનદાસ ઉપલેટા સ્વ. બહેન સ ક કચરા હા. ઓતમચંદબઈ, છોટાલાલભાઈ તથા અમૃતલાલભાઈ વાલજી (કલ્યાણવાળા) ઉપલેટા શેઠ ખુશાલચંદભાઈ કાનજીભાઈ હા શેઠ પ્રતાપભાઈ ઉપલેટા શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ ખાખીજાળીયા શેઠ છેટાલાલ કેશવજી જામનગર શાહ લક્ષ્મીચંદ કપુરચંદ જેતલસર જંકશન શાહ ચતુરદાસ ઠાકરશીભાઈ જામનગર ખંડેરીયા કાન્તીલાલ ઝબકલાલ (સ્ટેશન માસ્તર) સુરેન્દ્રનગર શાહ કેશવલાલ જેચંદ વિરાવલ શાહ ખીમચંદ શૌભાગીદ વસનજી વેરાવલ સ્વ બાખડા વછરાજ તુલસીદાસના ધર્મપત્ની કમળબાઈ તરફથી હા માણેકચંદભાઈ તથા કપુરચંદભાઈ ગેડલ શેઠ છગનલાલ નાગજીભાઈ મુંબઈ ઘેલાણી ત્રીકમજી લાધાઈ ૨૫૧ ૨૫૧ ૪૭૭ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૨ ૨૫૧ જુનારદેવ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૦ ’૨૫૧ ૨૫૦ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૨ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ શેઠ ગીરધરલાલ કરમચંદ શેઠ છેટાલાલ વખતચંદ ગેાસલિયા હરિલાલ લાલચંદ શેઠ પ્રેમચંદ માણેકચંદ શેઠ માણેકલાલ ભગવાનદાસ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હા. શેઠ મેહનલાલ ઇચ્છારામ શેઠ રમણીકલાલ એ કપાસી બહેન સુરીબહેન (લક્ષ્મીબેન) હા મહેતા હરીલાલ પીતામ્બરદાસ શેઠ વાડીલાલ નેમચંદ વકીલ શાહ વીઠલદાસ મેદી માસ્તર શાહ નાગરદાસ માણેકચ દ શાહ મણીલાલ જીવણુલાલ શાહ નાગરદાસ વાઘજીભાઇ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ શેઠ મનુભાઇ મુળચંદ (ઇન્જીનીયર સાહેબ) શેઠ શાંતિલાલ પ્રેમચંદ [તેમનાં ધર્મોપત્નીના વરસીતપ પ્રસ ંગે ખુશાલીના ] શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હા, ચંપાલાલજી મારવે શેઠ મેતીલાલજી રણજીતલાલજી હીગઢ શેઠ માદરમલજી સુરજમલજી બેન્ક શેઠ ગેપાલજી મીઠાભાઈ ઉદાણી ન્યાલચંદ હાકેમચંદ (વકીલ) શેઠ પ્રજારામ વીઠલજી શેઠ મેઘરાજજી દેવીચંદજી મહેતા પટેલ ગેાવી દલાલ ભગવાનજી અમદાવાદ અમદાવાદ અમદાવાદ અમદાવાદ ખભાત ખંભાત આણુ દ શેઠ કીશનલાલ પૃથ્વીરાજ શેઠ પદમસી ભીમજી ફેફરીયા પાલણપુર વીરમગામ વીરમગામ વીરમગામ વીરમગામ અમલનેર અમલનેર રાજકોટ રાજકેટ ડાંડાઈચા ઉદેપુર યાદગીરી હાટીના માળીયા રાજકાટ રાજકાટ મદ્રાસ કાલકી પટેલ ખીમજી જેઠાભાઈ વાઘાણી કાલકી શેઠ હુકમીચંદ દીપચંદ ગાંડલવાળા [સ્ટેશન માસ્તર ભકિતનગર] રાજકેટ શેઠ વસનજી નારણજી જામખ ભાળીયા શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંધ જામખ ભાળીયા ખીચન (પાલી) ભાણવડ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૮૭ ૨૫૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ધોરાજી ધોરાજી ૨૫૧ ૨પ૧ અ. સૌ. બહેન બચીબહેન બાબુભાઈ ધોરાજી શેઠ નેમચંદ સવજીભાઈ મેદી લાલપુર શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હ. પ્રમુખ શેઠ પ્રેમચંદ ભગવાનલાલ નંદુરબાર શેઠ અમૃતલાલ હીરજીભાઈ જસાપરવાળા હા. નરભેરામભાઈ જેતપુર દોશી છોટાલાલ વનેચંદ જેતપુર કામદાર લીલાધર જીવરાજના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની બાઈ ઝબકબહેન તરફથી હા ભાઈ શાંતિલાલ જેતલસર શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ જામજોધપુર સ્વ. બહેન વિજ્યાગૌરી રાયચંદ હા શેઠ રાયચંદ પાનાચંદ ગાંધી પિપટલાલ જેચ દભાઈ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હા, પ્રમુખ રાયચ દ વૃજલાલ અજમેરા વીંછીયા શેઠ મુળચદ પિપટલાલ હા. મણીલાલભાઈ તથા જેસી ગલાલભાઈ લાલપુર શેઠ મણીલાલ મીઠાભાઈ હા. હરિલાલભાઈ હાટીના માળીયાવાળા જુનાગઢ સ્વ વસાણી હરગોવીંદદાસ છગનલાલના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની બાઈ છબલબેન તરફથી બોટાદ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ ચુડા (ઝાલાવાડ) શેઠ મગનલાલજી બાગચા ઉદેપુર શેઠ ચાપશીભાઈ સુખલાલ સુરેન્દ્રનગર શ્રી સ્થાનકસી જૈન સંઘ બોટાદ સ્વ. પૂજ્ય માતુશ્રી સમરતબાઈના સમરણાર્થે હ. ડેકટર સાહેબ નરોત્તદાસ ચુનીલાલ કાપડીયા રાણપુર સ્વ. તુરખીયા લહેરચદ માણેકચંદ સુદામડાવાળાના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની જીવતીબાઈ તરફથી હા જયંતીલાલ લહેરચંદ ડભાસ શ્રી સ્થા. જૈન મોટા સંઘ પ્રાંગધ્રા શાન્ડ દીલીપકુંવર સવાઈલાલ હા. શેઠ સવાઈલાલ રંબકલાલ વઢવાણ શહેર શેઠ છેટુભાઈ હરગોવીંદદાસ કટેરીવાળા રે રે નાથાલાલ ડી મહેતા આસા સંઘવી પ્રાણલાલ લવજીભાઈ જામખંભાળીયા ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ મુંબઈ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ખાવીશી મણીલાલ ચત્રભુજના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની ખાઈ મણીબેન તરફથી હા. ભાઇ રસીકલાલ, અનીલકાંત તથા વિનાદરાય શેઠ માણેકલાલ અમુલખરાય મ્હેતા ભાવસાર ખાડીદાસ ગણેશભાઈ શાહ !પટલાલ ધનજીભાઈ સ્વ. ગુલામચંદભાઈના સ્મરણાર્થે હા વારા પેપિટલાલ નાનચંદ શેઠ ચત્રભુજ વાઘજીભાઈ વસાણી સ્વ.મેહનલાલ નરસીદાસના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની સુરજબેન મારારજી તરફથી શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ સંઘાણી, મુળશંકર હરજીવનભાઇના સ્મરણાર્થે હા તેમના પુત્રા જયંતિલાલભાઈ તથા રમણીકલાલભાઈ શાહ મગનલાલ ગોકળદાસ હા રતીલાલ મગનલાલ સ ઘવી મુળચ દ મેચરભાઈ હા જીવનલાલ ગફલદાસ મ્હેન સુÖખાળા નૌતમલાલ જસાણી [વરસીતપનાં પારણાંની ખુશાલીમાં] શાહ રાયચંદ ઠાકરશીના સ્મરણાથે હા ભાઈ શાંતીલાલ રાયચંદ ભાવસાર હરજીવનદાસ પ્રભુદાસના સ્મરણાર્થે હા ભાઈ ત્રીભાવનદાસ હરજીવનદાસ શાહ તલકશી હીરાચદના સ્મરણાર્થે હા ભાઈ અમૃતલાલ તલકશી શાહ ચુનીલાલ માણેકચ દ શેઠ વૃજલાલ સુખલાલ શેઠ કાંતિલાલ નાગરદાસ વેરા ચત્રભુજ મગનલાલ સંઘવી શીવલાલ હીમજીભાઈ શાહ દેવશીભાઇ દેવકરણ આસનસાલ ઘાટકેાપર ધંધુકા ધ ધુકા ધંધુકા ધંધુકા ખરવાળા પાણુશણા (લીંબડી) ઉપલેટા વઢવાણ શહેર વઢવાણ શહેર રાજકોટ લખતર લખતર લખતર લખતર વઢવાણુ શહેર વઢવાણ શહેર વઢવાણુ શહેર વઢવાણ શહેર વઢવાણ શહેર Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ! ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ શાહ જાદવજી ઓઘડભાઈ સદાદવાળાના સ્મરણાર્થે હા ભાઈ શાંતીલાલ જાદવજી લખતર ભાવસાર ચુનીલાલ પ્રેમચંદભાઈ સુરેન્દ્રનગર શ્રી વર્ધમાન શ્વેતામ્બર સ્થા શ્રાવક સંઘ હા શેઠ કેસરીમલજી અનેપચંદજી ગુગલીયા મલાડ (મુંબઈ) દેશી ઠાકરશી ગુલાબચંદના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની સમરતબેન વૃજલાલ તરફથી હા ભાઈ જયતિલાલ ઠાકરશી લખતર શાહ અમુલખ ઉફે બચુભાઈ નાગરદાસનાં ધર્મપત્ની આ સો બેન લીલાવતીને વરસી તપનાં પારણની ખુશાલીમાં હા ભાઈ કાતીલાલ નાગરદાસ વીરમગામ કામદાર કેશવલાલ હીમતરામ પ્રેફેસર સાહેબ (ગુંડલવાળા) વડેદરા શેઠ ડુંગરશી હંસરાજ વીસરીયા મુંબઈ શેઠ ધનરાજ મુળચંદ મુથા લેનાવાલા (પુના) મહેતા નાનાલાલ છગનલાલનાં ધર્મપત્ની સ્વ. ચંચળબેન તથા પુરીબેનના સ્મરણાર્થે હા ભાઈ મનહરલાલ નાનાલાલ મુ વણી (વીરમગામ) દેશી ચુનીલાલ ફુલચંદ મોરબીવાળા મું શાલની (ગાળ) શાહ હિરાચંદ છગનલાલ હા શાહ ચીમનલાલ હીરાચદ સાણંદ શેઠ મેહનલાલ જેઠાભાઈના સ્મરણાર્થે હા શેઠ આત્મારામ મોહનલાલ શાહ રમણીકલાલ કાળીદાસ તથા આ સો કાંતાબેન રમણીકલાલ (ધ્રાગધ્રાવાળા) ડાકટર મયાચંદ મગનલાલ હ ડે. રતનચદ મયાચંદ કલોલ સ્વ શાહ નાથાલાલ ઉમેદચદના સ્મરણાર્થે હા. શાહ રતીલાલ નાથાલાલ કલેલ શ્રી સ્થા દરીયાપુરી જૈન સંઘ હ ભાવસાર દામોદરદાસ ઈશ્વરભાઈ કડી શાહ મણીલાલ તલકચંદના સ્મરણાર્થે હા. મારફતીયા ચ દુલાલ મણીલાલ કલેલ આ સો ચપાબેન હ. શેઠ જીવરાજ લાલચંદ દેશી સાણંદ પટેલ મહાસુખલાલ ડોસાભાઈ સાદ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ કલેલ ૨૫૧ મુ બઈ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ સાણંદ મુંબઈ ૨૫૧ ૨૫૧ સાબરમતી ૨૫૧ સાબરમતી અમદાવાદ ૨૫૧ ૨પ૧ વીરમગામ ૨૫૧ વિરમગામ ૨૫૧ વીરમગામ વિરમગામ ૨૫૧ ૨૫૧ , શાહ સાકરચંદ કાનજીભાઈ શાહ હીંમતલાલ હરજીવનદાસ શાહ જીતેન્દ્રકુમાર વાડીલાલ માણેકચંદ (રાજસીતાપુરવાળા) અ. સો. સમરતબેન પ્રેમચંદ C/o પ્રેમચંદ માણેકચંદ (રાજસીતાપુરવાળા) શા કાતીલાલ ત્રીભૂવનદાસ સ્વ. શેઠ ઉજમશી નાનચંદના મરણાર્થે તેમના પુત્ર તરફથી હા શેઠ ચુનીલાલ નાનચંદ સ્વ. શાહ મણીલાલ લક્ષ્મીચંદના સ્મરણાર્થે તેમના પુત્ર તરફથી હ. ખીમચંદભાઈ સ્વ શેઠ હરીલાલ પ્રભુદાસના સ્મરણાર્થે હા શેઠ અનુભાઈ હરીલાલ સંઘવી જેચંદભાઈ નારણદાસ સ્વ શાહ વેલશીભાઈ સાકરચદના સ્મરણાર્થે હા ચીમનલાલ વેલશી કત્રાજવાળા શાહ પાચાલાલ પીતામ્બરદાસ પારેખ મણીલાલ કરશી લાતીવાળા તરફથી મેટીબેનના સ્મરણાર્થે શાહ નારણદાસ નાનજીભાઈના સુપુત્ર વાડીભાઈનાં ધર્મપત્ની અ સો નારંગીબેનના વરસીતપ નિમીત્તે હા શાંતીભાઈ શાહ પિપટલાલ મેહનલાલ શેઠ પ્રેમચંદ સાકરચંદ લાલા પુરણચંદજી જેન (સેન્ટ્રલ બેંકવાલા) સ્વ છબીલદાસ ગોકળદાસના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્નિ કમળાબેન તરફથી હા. ૫ જુલાકુમારી શાહ રતીલાલ વાડીલાલ શેઠ લાલભાઈ મગળદાસ અ સો. કમળાબેન તે કામદાર ગોરધનદાસ મગનલાલના ધર્મપતિન (વઢવાણુવાળા) વેરા ડોસાભાઈ લાલચંદ સ્થા જેન સંઘ હા વેરા નાનચદ શીવલાલ વિરમગામ અમદાવાદ ૨૫૧ ૨૫૧ વિરમગામ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૦ વીરમગામ અમદાવાદ અમદાવાદ દીલ્હી ૩૫૧ ૨૫૧ વિરમગામ અમદાવાદ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ અમદાવાદ ગુન ૨૫૧ વઢવાણ શહેર Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ મુંબઈ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ વોરા ધનજીભાઈ લાલચંદ સ્થા. જૈન સંઘ હા વેરા પાનાચંદ ગબરદાસ વઢવાણ શહેર સ્વ. અમૃતલાલ વર્ધમાનના સ્મરણાર્થે હા. કહાનજીભાઈ અમૃતલાલ દેશાઈ અમદાવાદ, શ્રી વિરમગામ સ્થા જૈન શ્રાવિકા સંઘ વિરમગામ સ્વ ત્રિવનદાસ દેવચદ તથા સ્વ. અ સૌ. ચંચળબેનના સ્મરણાર્થે હ. ડેકટર હિંમતલાલ સુખલાલ વીરમગામ શાહ મુલચંદ કાનજીભાઈ તરફથી હા શાહ નાગરદાસ ઓઘડભાઈ વીરમગામ શેઠ મેહનલાલ પીતાંબરદાસ હા ભાઈ કેશવલાલ તથા મનસુખલાલભાઈ વિરમગામ શાહ રતનશી મણશીની કુ ભાવસાર ભેગીલાલ જમનાદાસ અમદાવાદ શાહ શીવજી માણેકભાઈ બેરાઝા (કચ્છ) શાહ લુણાજી ગુલાબચદ સંજેલી (પંચમહાલ) શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હા. શાહ પ્રેમચંદ દલીચંદ સજેલી (પંચમહાલ) શાહ કુંવરજી ગુલાબચંદ લીમડી (પંચમહાલ) શાહ પાનાચંદ સંઘજીભાઈ હા બકલાલ રતીલાલ મુબઈ શાહ અમુલખભાઈ મુળજી હા પ્રકાશચદ અમુલખ હારીજ સ્વ બેન ચંદ્રકાતાના સમરણાર્થે હા. અમુલખ મુળજીભાઈ હારીજ સ્વ પદમશી સુરચદના સ્મરણાર્થે હા શીવલાલ પદમશી. શાહ કળદાસ શામજી ઉદાણી એડન કેમ્પ બાટવીયા ગીરધરલાલ પ્રમાણંદ હા અમીચદ ગીરધરલાલ ખાખીજાળીયા શ્રીમતિ એ સૌ બેન ચ દ્રાવતી તે શ્રીમાન બહેતલાલજી નાહરના ધર્મપત્નિ. હા શેઠ રણજીતલાલજી હીંગડ ઉદેપુર સ્વ શેઠ વીરચંદભાઈ જેસી ગ લખતરવાળાના સ્મરણાર્થે હા. કેશવલાલ વીરચંદ શેઠ મુબઈ છાજેડ ઘાસીરામ ગુલાબચદ લીમડી (પંચમહાલ) મહેતા પ્રભુદાસ મુળજીભાઈ શ્રીમતી હરાબેન નથુભાઈના વરસતપ નીમીતે હા નથુભાઈ નાનચંદ શાહ વિરમગામ શ્વ મણિયાર પરસોતમ સુંદરજીના સ્મરણાર્થે હિ. સાકરચંદ પરસોતમ વીરમગામ ૨૫૧ ૩૦૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ભેસાણ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧e ૨૫૧ ઘેરા ૩૦૧ ૨૫૧ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૭૭ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ શેઠ મણીલાલ શીવલાલ શાહ ત્રીભાવનદાસ ભગવાનજી પાનેલીવાળા શાહ નટવરલાલ ૨ દુલાલ શાહુ ત્રીભાવનદાસ છગનલાલ શાહ નરસીદાસ ત્રીભાવનદાસ ખીપીનચંદ્ર તથા ઉમાકાંત ચુનીલાલ ગેપાણી હા, ગેાપાણી ચુનીલાલ માણેકચદ શ્રી શાહપુર દરીયાપુરી આટકાટી સ્થા. જૈન ઉપાશ્રય હા. વહીવટ કરનાર શેઠ ઇશ્વરદાસ પુરૂષાત્તમદાસ શ્રી છીપાપેાળ દરીયાપુરી આઠકાટી સ્થા. જૈન સંઘ હા શેઠ ચંદુલાલ અમૃતલાલ શ્રી સ્થાનકવાસી કેાટી જૈન સંઘ હા મહેતા ચુનીલાલ વેલજી વકીલ મણીલાલ કેશવલાલ શાહ વેારા મણીલાલ પેપટલાલ પારેખ નેમચંદ મેાતીચદ મુળીવાળાના સ્મરણાર્થે હા ભીખાલાલ નેમચદ સંઘવી નારણદાસ ધરમશીના સ્મરણાર્થે હા જયંતીલાલ નારણદાસ શા પ્રવિણુચદ્ર નરસીદાસ સાણધ્રુવાળા માસ્તર જેઠાલાલ માનજીભાઇ હા મહેતા અમૃતલાલ જેઠાલાલ સીવીલ ઈન્જીનીયર સાહેબ શ્રી સુખલાલ ડી શેઠ હા ડા કુ સરસ્વતી સ્હેન શેઠ શ્રી સૌરાષ્ટ્ર સ્થા. જૈન સંઘ હા શાહ કાંતીલાલ જીવનલાલ વીરમગામ જામજોધપુર અમદાવાદ ગાધરા અમદાવાદ સ્વ. શેઠ કાળુલાલજી લેાઢાના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ ઢાલતસિંહજી લેાઢા રાણપુર અમદાવાદ અમદાવાદ શાહ ચીનુભાઈ માલાભાઈ C/o શાહ માલાભાઇ મહાસુખરામ અમદાવાદ શાહે ભાઈલાલ ઉજમશી અમદાવાદ સ્વ કેશવલાલ મુળજીભાઇનાં ધર્મપત્ની, સ્વ અમૃતભાઇના સ્મરણાર્થે હા. ભાઈલાલ કેશવલાલ થાનગઢવાળા પુરીબેન ચીમનલાલ કલ્યાણજી સ ંઘવી લીમડીવાળાના સ્મરણાર્થે હા વાડીલાલ માહનલાલ કોઠારી અમદાવાદ માંડવી (કચ્છ) વડાદરા સુરેન્દ્રનગર સાણું દ સાણંદ સાણું દ ખેડેલી (ગુજરાત) લાખેરી (રાજસ્થાન) અમદાવાદ અમદાવાદ ઉદેપુર Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧. ૨૫૧ માનકુવા (કચ્છ) અમદાવાદ અમદાવાદ ૨૫૧ ૨૫૧ ઉદેપુર ૨૫૧ અમદાવાદ ૨૫૧ વઢવાણ શહેર વઢવાણ શહેર ૨૫૧ સ્વ મહેતા કુંવરજી નાથાભાઈના સ્મરણાર્થે હા તેમનાં ધર્મપત્નિ કુંવરબાઈ હરખચંદ તરફથી (માનકુવા સ્થા જેન સંઘને માટે) મોદી નાથાલાલ મહાદેવદાસ શાહ મોહનલાલ ત્રીકમદાસ સ્વ. શેઠ પ્રતાપમલજી સાખલાના સ્મરણાર્થે હપ્રાણલાલ હીરાલાલ સાખલા શ્રી કેટી સ્થા. જૈન સંઘ હા. શાહ પિચાલાલ પીતામ્બરદાસ દોશી વીરચંદ સુરચંદ હા.દોશી નાનચંદ ઉજમશી સ્વ. વેરા મણીલાલ મગનલાલ હા વેરા ચત્રભુજ મગનલાલ શાહ પિપટલાલ હંસરાજના સમરણાર્થે હા. શાહ બાબુલાલ પોપટલાલ શાહ કુંવરજી હ સરાજ દેશાઈ અમૃતલાલ વર્ધમાન બાપોદરાવાળા હા. ભાઈલાલ અમૃતલાલ દેશાઈ દેશાઈ અમૃતલાલ વર્ધમાન બાપોદરાવાળા હા. દલીચંદ અમૃતલાલ દેસાઈ શાહ સાકરચંદ મેહનલાલ શાહ નવનીતલાલ અમુલખરાય શાહ મણીલાલ આશારામ શેઠ ચીનુભાઈ સાકરચંદ એ સૌ. ચંપાબેન ગોસલીયા હા. ગલીયા હરીલાલ લાલચંદ શ્રી વટામણ સ્થા. જૈન સંઘ હા શ્રી ડાહ્યાભાઈ હલુભાઈ અમદાવાદ મુંબઇ ૨૫૧ ૨૫૧ અમદાવાદ ૨૫૧ મુંબઈ ભાત અમદાવા ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ અમદાવાદ અમદાવાદ અમદાવાદ P૫૧ વટામણ (ધોળકા) કુલ્લ મેમ્બરની સંખ્યા ૪ આદ્ય મુરબ્બીશ્રીઓ ર૦૩ પ્રથમ વર્ગના મેમ્બરે ર૦ મુરબ્બીશ્રીએ ૮૭ બીજા વર્ગના મેમ્બરે ર૧ સહાયક મેમ્બરે ૩૩૫ કુલ્લ મેમ્બરે (બીજા વર્ગને સદંતર બંધ કરવામાં આવેલ છે ) Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના ટુંક પરિચય.... જૈન સમાજ અને ખાસ કરીને શ્રી સ્થા, જૈન સમાજ માટે ગૌરવના વિષય છે કે આગમાદ્વારક પૂજ્ય આચાર્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જેવા પ્રખર વિદ્વાન સમાજમાં અગ્રસ્થાને ખીરાજે છે તેમની અદ્ભુત સ્મરણ શકિત તેમજ વિદ્વતાને લાભ સમાજને મળી શકે તેવા ઉચ્ચ આશયથી તેઓશ્રી પાસેથી ખત્રીસ આગમાના જુદી જુદી ભાષાના અનુવાદ આ સમિતિ કરાવી રહી છે, અને વીર-વાણીના ખરે રસ આજના સમાજને આપી રહી છે, અને ભવિષ્યની પેઢી દર પેઢી માટે ખરા વારસા અનામત મૂકવાનું મહદ્ કાર્યાં કરી રહી છે. છેલ્લાં તેર વર્ષ થયાં આ સમિતી શાસ્ત્રોના પ્રાકૃત-સંસ્કૃત-હિન્દી અને ગુજરાતી ભાષામાં અનુવાદો તૈયાર કરાવી છપાવવાનું કાર્ય કરી રહી છે અને તે કા ને સૌરાષ્ટ્રની, ગુજરાતની અને હિન્દના જુદા જુદા ભાગની જનતાએ તનમન અને ધનથી સહકાર આપ્યા છે. અને હજુ અસ્ખલિત પ્રવાહ મદને માટે ચાલુ છે જેથી સમિતિના કાર્ય વાહક કાને હીંમતથી આગળ ધપાવી રહ્યા છે. ખાલી લાંખી વાત કરનારા કે ચેાજનાએ કે ઠરાવેા કરી બેસી રહેનારાએ માટે લેકાને આ જમાનામાં વિશ્વાસ રહે તેમ નથી, સમાજ માગે છે રચનાત્મક કાર્યાં, સ્થા. જૈન સમાજ માટે, અત્યાર સુધી શ્રીકલ્પ સૂત્ર જેવું અગત્યનું મહાન સૂત્ર કોઇ પણ મહાત્માએ તૈયાર કરેલ નથી જે મહદ્ કાર્ય પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે પેાતાની અખુટ જ્ઞાન-શકિતથી અનેાખી રીતે તૈયાર કરી સમાજ સમક્ષ રજુ કર્યું છે અને આપણે આપણી અપૂર્ણતાને પૂર્ણ કરી દીધી છે જે મહાન ઉપકાર કાઈ કાળે ભૂલી શકાય એમ નથી, પૂજ્યશ્રીની તખીયત વૃદ્ધાવસ્થાને કારણે નરમ ગરમ રહ્યા કરે છે તે છતાં શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય જુદા જુદા સ્થળેએ વિહારમાં પણુ સતત ચાલુ જ રાખી રહ્યા છે હજી ખાકીના શાઓ લખવાનું કાર્ય પાચથી સાત વર્ષ સુધીનું બાકી છે. આ અપૂર્ણ કાર્ય Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૪ ઝડપી બનાવવાને માટે સમિતીએ નિણુય લીધે છે અને તે મુજબ અમદાવાદમાં જ પૂજ્યશ્રીને આ કાર્ય પૂર્ણ કરવા માટે સ્થીરવાસ બિરાજવાને વિનંતી કરવામાં આવી છે અને તે પ્રમાણે હાલમાં જ વીરમગામથી વિહાર કરી તેઓશ્રી સરસપુરના ઉપાશ્રયે પધારી આ કાર્ય આગળ ધપાવશે. શાસ્ત્રો છપાવવાનું કાર્ય માટે ભાગે અમદાવાદમાંજ છે. પૂજ્યશ્રી અમદાવાદમા ખીરાજશે તેથી પંડીતે પણુ ત્યાજ હશે જેથી મુક્ તપાસવાનું તેમજ છાપવાનું કાર્ય પણ ઝડપી બનશે અમદાવાદ આ કાર્ય માટે વધુ સગવડતાવાળુ સમિતીને જોવામાં આવ્યું છે કારણુ કે ત્યાં પૂજ્ય આચાર્ય શ્રી ઇશ્વરલાલજી મહારાજ સ્થીરવાસ મિરાજે છે અને તેઓશ્રીના આ કાર્યમા પૂર્ણ સહકાર છે તે ઉપરાંત સમિતીના પ્રમુખ મહાશય શેઠ શાતિલાલભાઈ ત્યાંજ હોવાથી અવારનવાર સલાહ સૂચના મેળવી શકાય. આ સિવાય ત્યાંના દરેક સંધના અગ્રેસરાના સ પૂર્ણ સહકાર મળી રહ્યો છે. શેઠ ઈશ્વરલાલ પુરૂષાત્તમદાસ, શેઠ કાંતિલાલ જીવણુદાસ, શેઠ લેાગીલાલ છગનલાલ, શેઠ પેપટલાલ મેાહનલાલ, શેઠ પેચાલાલ પીતામ્બરદાસ, શેઠ ચદુલાલ અમૃતલાલ, શેઠ લાલભાઈ મગળદાસ, શેઠ ચંદુલાલ છગનલાલ અને ગેસલીઆ હરીલાલ લાલચંદ વીગેરે અગ્રેસરની આ કાર્ય માટે જે ધગશ જોવામા આવે છે તે જોતા અમદાવાદ આ કાર્ય સફળ રીતે પાર પાડશે તેમ અમેને સંપૂર્ણ શ્રદ્ધા છે સમિતીએ છેલ્લા અઢી વર્ષ થયા વ્યવસ્થિત કાર્ય કરવા માટે રાજકોટ મુકામે રીતસરની ઓફીસ ખેાલી છે અને જેના મંત્રી તરીકે શ્રી સાકરચંદ ભાઈચંદ શેઠ તમામ કાર્ય સંભાળી રહ્યા છે હાલની પ્રગતિ કેટલી ઝડપથી કેટલી આગળ વધી રહી છે તે નીચેના આંકડાઓ જોવાથી ખાત્રી થઇ શકશે ૧૦ વર્ષની આખરે મેમ્બરોની સખ્યા ૧૧૩ ૧૧મા વર્ષીની આખરે ૧૬૮ ૨૩૭ . ૧૨મા તા ૩૦-૪-૧૭ના રોજ ૩૩૫ ૧૦ વષઁની આખરે સમિતી પાસે લગભગ શ. ૬૦૦૦ની સીલીક હતી. જે સૂત્રોની છપાઈ કાગળ તેમજ પગાર ખર્ચ વીગેરે જતાં અત્યારે ૫ ૨૧૦૦૦ સીલીક છે ار p ,, "" ,, 31 Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આપ આ સમિતિના કાર્યમાં કઈ રીતે . . મદદગાર થઈ શકે ? રૂ. ૫૦૦૦ ઓછામાં ઓછા આપીને સંસ્થાના આદ્ય મુરબ્બીશ્રી તરીકે મુબારક નામ લખાવી શકે છે, આપને ફેટે તથા આપનું જીવનચરિત્ર શાસ્ત્રમાં છાપવામાં આવે છે રૂા૩૦૦૦ ઓછામાં ઓછા આપીને આપના વડીલના સ્મરણાર્થે એક શાસ્ત્ર આપના નામથી છપાવી શકે છે સમીતિને એક શાસ્ત્ર છપાવવામાં લગભગ રૂ. ૬૦૦૦) થી રૂ ૮૦૦૦ ખર્ચ થાય છે તેમ છતાં ત્રણ હજારમાં આપને નામે શાસ્ત્ર બહાર પાડવામાં આવશે રૂ. ૨૫૧ ઓછામાં ઓછા આપીને લાઇફ મેમ્બર તરીકે આપનું નામ દાખલ કરાવી શકે છે આપને ૩૨ સૂત્રે તથા તેના તમામ ભાગો મફત મળી શકે છે. (રૂા ૫૦૦ ની કીમતનાં શાસ્ત્રો હફતે હો આપને મળી શકે છે ) સ્થાનકવાસી સમાજમાં આ એક જ સસ્થા શાસ્ત્રો ચાર ભાષામાં પ્રગટ કરીને સર્વ ઉપગી વાંચન રજુ કરે છે આપને જ્યારે કે શાસ્ત્રની જરૂર હોય ત્યારે તેમજ કોઈ સાધુ સનીરાજને વહોરાવવાની ઈચ્છા હોય ત્યારે શાસ્ત્ર બીજેથી નહિ મંગાવતાં આ સમિતિ પાસેથી મગાવી લેવા વિનતી છે એક અપીલ ? ... ૧ દીક્ષા પ્રસંગે ૨ વરસીતપ અને બીજી તપશ્ચર્યાઓના પારણુ પ્રસંગે ૩ મહાવીર જયંતી, પર્યુષણ, તથા દિવાળી જેવા તહેવાર પ્રસંગે. ૪ લગ્ન પ્રસગે. ૫ પુત્ર જન્મની ખુશાલીમાં ૬ વડીલેના સ્મરણાર્થે તેમની તિથી પ્રસગે તેમજ બીજા સર અવસરે બનતી મદદ આ સંસ્થાને મોકલવા ખાસ નોંધ રાખશે Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્ય મહાત્માશ્રી તથા .... મહાસતિજીઓને ન મ્ર પ્રા ર્થ ના પૂજ્ય આચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજશ્રી રાત દીવસના અથાગ પરીશ્રમ સાથે એક કંતાનના કકડા પર એસીને સમાજના ભવિષ્યના વારસદાર માટે આગમ શેાધન કરી અણુમાલા વારસા તૈયાર કરી રહ્યા છે, તે કામાં અનેક મહાત્માએ પ્રશંસા બતાવીને સક્રીય સહકાર આપી રહ્યા છે. આપને અમારી નમ્ર વિનતી છે કે આવા સહદ કાર્યમાં ઉપદેશ દ્વારા મદદગાર થઈ શકે તેટલી સમાજને આપની જરૂર છે માટે વગર વીલ એ સારાએ જૈન સમાજના ઉત્કેપ કામાં આપના ફાળા નાંધાવે. છે. 1 R સૂત્ર વાંચ્યા પછી આપશ્રીના સ્વતંત્ર અભિપ્રાય તેમજ ચેાગ્ય સૂચનાઓ લખી મેાકલવા વિનતી, * Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = = પૂજ્ય મહાત્માશ્રી તથા . મહાસતિજીઓને = == ન પ્ર == = પૂજ્ય આચાર્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજશ્રી રાત દીવસના છે, અથાગ પરિશ્રમ સાથે એક કંતાનના કકડા પર બેસીને સમાજના ભવિષ્યના વારસદાર માટે આગમ સંશોધન કરી અણુમેલો આ વારો તૈયાર કરી રહ્યા છે, તે કાર્યમાં અનેક મહાત્માઓ પ્રશંસા | હું બતાવીને સકીય સહકાર આપી રહ્યા છે. આપને અમારી નમ્ર . છે વિનંતી છે કે આવા મહદ કાર્યમાં ઉપદેશ દ્વારા મદદગાર થઈ છે છે શકે તેટલી સમાજને આપની જરૂર છે માટે વગર વીલંબે સારાએ ઈ જેન સમાજના ઉત્કર્ષ કાર્યમાં આપનો ફાળે નેધા. === = == સૂત્ર વાંચ્યા પછી આપશ્રીને સ્વતંત્ર અભિપ્રાય તેમજ ચોગ્ય સૂચનાઓ લખી મોક્લવા વિનંતી. === = = = %= = = = Page #623 -------------------------------------------------------------------------- _