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श्रीदशकालिकम 1 , अथ सूत्रमाहमूलम्-धम्मो मंगलमुक्टिं, अहिंसा संजमो तवो।
देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्म सया मणौ ॥१॥ ___ छाया-धर्मों मङ्गलमुस्कृष्टम् , अहिंसा संयमस्तपः ।
- देवा अपि तं नमस्यन्ति, यस्य धर्मे सदा मनः ॥१॥ सान्वयार्थः-अहिंसा-माणव्यपरोपणका त्याग करने तथा जीवोंकी रक्षा करनेरूप अहिंसा, संजमो-संयम और तवो-तप ( यह ) धम्मो धर्म उचिg= उस्कृष्ट-सवसे श्रेष्ठ मंगलं मगल है-कल्याणकारी है। जस्स-जिसका मणो= मन सया-सदा-हमेशां धम्मे धर्म में ( लगा रहता है ) तं-उसको देवाविदेवताभी नमसंतिम्नमस्कार करते हैं, अर्थात् निरन्तर धर्ममें लीन प्राणी देवोंद्वारा भी पूज्य हो जाते हैं ॥१॥
टीका-'धम्मो मंगल-मित्यादि । धर्म: धरति माणिनो दुर्गतौ पतनाद् रक्षति शुभे स्थाने च स्थापयति यः स तथोक्तः । उक्तञ्च
"दुर्गतिप्रसृतान् जन्तुन , यस्माद्धारयते पुनः । : धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद्धर्म इति स्मृतः ॥ १॥" इति ।
हिन्दी-भाषानुवाद. 'धम्मो मंगल' मित्यादि । जो नरक आदि दुर्गतिमें गिरते हुए प्राणियोंको बचाने और स्वर्ग-मोक्ष आदि शुभस्थानोंमें पहुंचावे उसे धर्म कहते हैं।
कहा भी है-"दुर्गतिमें पड़ते हुए जीवोंकी रक्षा करता है और फिर उन्हें शुभगतिमें पहुंचाता है, इसीसे वह धर्म कहलाता है" ॥अर्थात् जो
गुती-सापानुवाद. 'धम्मोमंगल' मित्याह रे न२४ मा तिभा पता प्रमाने બચાવે અને સ્વર્ગ મોક્ષ આદિ શુભ સ્થાનમાં પોંચાડે તેને ધર્મ કહે છે
કહ્યું પણ છે કે- દુર્ગતિમા પડતા ની રક્ષા કરે છે અને પછી તેમને શુભ ગતિમાં પહોંચાડે છે, તેથી તે ધર્મ કહેવાય છે. અર્થાત દુઃખેથી