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। श्रीदशवकालिकसूत्रे यद्वा-'चकारादत्र' काका-विचिकित्सा-भेदो-न्माद-दीर्घकालिकरोग-केवलिप्रज्ञप्तधर्मभ्रंशादयो दोषाः संगृह्यन्ते ॥१०॥
उपसंहरति-'तम्हा एयं' इत्यादि।। मूलम् तम्हा एयं वियाणित्ता, दोसं दुग्गइवणं ।
वज्जए वेससामंत, मुणी एगंतमस्सिए ॥११॥ छाया-तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गतिवर्द्धनम् ।
___ वर्जयेद्वेशसामन्तं, मुनिरकान्तमाश्रितः ॥११॥ सान्वयार्थ:-तम्हा=इसलिए दुग्गइवडणं-दुर्गतिको बढानेवाले एयं इस दोसं-दोषको वियाणित्ता जानकर एगतमस्सिए मोक्षाभिलापी मुणी-मुनि वेससामंते वेश्याके पाड़े-मोहल्ले-को वजए-वर्जे अर्थात् भिक्षादिके लिए वहां नहीं जावे । भावार्थ-इस प्रकारके संसर्गसे साधुका मन उद्विग्न हो जानेसे मनमें अनेक कुतर्कणाएं होने लग जाती हैं, तव उसका मन ज्ञान-ध्यान-आदि शुभ कार्यों में नहीं लगकर आत-रौद्र-ध्यान करने लगता है। इसलिए साधु ऐसे संसर्गको ही टाले ॥११॥
टीका-तस्माद्धेतोः एतं पूर्वोक्तं दुर्गतिवर्द्धनं दुर्गतिमापकं दोपंव्रतविराधनादि__ अथवा गाथामें आये हुए 'च' शब्दसे विषयसेवनकी आकांक्षा; संयमसे घृणा, भेद, उन्माद, दीर्घकालिक रोग और केवलीप्ररूपित धर्मसे भ्रष्टता आदि अनेक दोष समझ लेना चाहिये । अर्थात् ऐसे अयोग्य स्थानोंमें गमन करनेसे इत्यादि दोष होते हैं ॥१०॥
उपसंहार करते हैं-'तम्हा एयं' इत्यादि । इसलिए इस-दुर्गतिको बढ़ानेवाले, व्रतोंकी विराधनारूप-दोषको
અથવા ગાથામાં આવેલા જ શબ્દથી વિષય–સેવનની આકાંક્ષા, સયમથી ઘણા, ભેદ, ઉન્માદ, દીર્ધકાલિક રોગ અને કેવળી-પ્રરૂપિત ધર્મમાંથી ભ્રષ્ટતા આદિ અનેક દેશે સમજી લેવા. અર્થાત્ એવા અયોગ્ય સ્થાને મા ગમન કરવાથી એ પ્રકારના દેષ થાય છે (૧૦)
सा२ ४२ छ-तम्हा एयं त्याह એટલા માટે, એ દુર્ગતિને વધારવાવાળા, વ્રતની વિરાધનારૂપ દોષને