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मानसे ॥ १४३ ॥ एकदा तत्र दूष्यवेव सायात कालिन । लोकः सुपूजितं रुद्रस्यकामेन ननाम सः ॥ १४ ॥ नया नंतोषयन्ति त्यमोदनैव्यंजनै रसः । मोदयः जसको पूर्वमा निकाशित :
२ ष्ट्रना संतुष्मान तं याचते स्वमनोप्सितं । बहुरूपि. णिकां विद्या यतो लब्धां व्यसाधयत् ।। २४६ ॥ एकदा गणरास वसंतः कामविह्वलः । हाम्रवत्यमादाय चुनागारसन्निधी ॥ २४७ ।। बलभद्रस्तदा प्रातात्वा क्षेत्र ययो यश चतुष्पाच्चारणार्थ वै तदूपं धृतवान् मथुः ॥ २५८ ॥ मध्ये सद्म नतो धृष्टो ज्ञातो गत्या विवेकतः । चुंधापातं चकाराशु भद्रा पीनपयोधरा ॥ २४६ ॥ बलभद्रः समायातश्चलंतो तो परस्परं । तुरगौ गतौ राजगृहे
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उसकी एक बात न सुनो। दूतो भेजी, द्रव्यका लालच दिखा स्वयं जाकर चाटु वचन कहे परंतु भद्रा उसके हाथ न आई इसलिये वह अपने मनमें बड़ी चिंता करने लगा ॥ २४३ ॥
एक दिन उस नगरी में एक कपाली—मंत्रवादी आया। उसके ढोंगका लोगोंपर प्रभाव पड़ । गया। सबके सब उसे पूजने लगे। बसंतने भी उसका आना सुना, वह शीघ्र ही उसके पास गया । अपनी अभीष्ट सिद्धि के लिये भक्तिपूर्वक उसे नमस्कार किया। प्रतिदिन भात नाना प्रकारके |
व्यंजन रस लाडू खाजे और पूवोंका भोजन कराकर उसे संतुष्ट करने लगा ठीक ही है कार्यका KO. अर्थी स्वार्थी मनुष्य क्या नहीं करता ॥ २४४–२४५ ॥ वसंतकी सेवासे मन्त्रवादो संतुष्ट हो गया |
अपने ऊपर मन्त्रवादीको संतुष्ट देख वसन्तने अपनी अभीष्ट सिद्धिको प्रार्थना की। मन्त्रवादीने उसे बहुरूपिणी विद्या प्रदानको जिसे बसन्तने बहुत जल्दी साध लिया ॥ २४६ ॥
एक दिन कामसे अत्यंत व्याकुल हो वसन्तने जब कि बहुत रात्रि थी, मुर्गाका रूप धारण किया स Sऔर बलभद्रके धरके पास कूजने लगा ॥ २४७ ॥ भद्राका स्वामी बलभद्र यह समझ कि सवेरा हो | ला गया, पशुओंके चराने के लिये अपने खेतपर चलागया और बसन्त बलभद्रका रूप धारण कर उसके भ
घरके भीतर घुस गया। चतुर भद्राने चाल ढालसे निश्चय कर उस दुष्टको पहिचान लिया इस लिये उसने चिल्लाना प्रारंभ कर दिया। विशेष हुल्लड़ सुन बलभद्र वापिस लौट आया। दोनों ही