Book Title: Vimalnath Puran
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 374
________________ स्पतिस्तत्कृत्यं त्यज्यते प्रयं ॥ ७६ ॥ कुलीनैर्नरैः सार्धं परस्यादि कथं भवेत् । सा चैव विषमा गोष्टिबु धास्तामासरति न ॥ ८० ॥ एकदा मानसे हंसा जलकल लराजिते । स्यामा कीडयन् स्थेरं बभाषेति प्रियां प्रियां ॥ ८२॥ हे कांते शुक्तिजाहारे ! कोप्यस्ति चाधयोः प्रभुः । येन सार्धं विधायः मैत्रीं देव्यते स्कुट ||८|| व्याजहार मरालो, तं शृणु त्वमिति नद्वचः । सर्वेषां वयवांमध्ये मान्योऽसि एवं गुणालयः ॥ ८३ ॥ जले एवं तिष्ठसि पक्षिन, मकरन्दति भवेत्ते हि फारणं विना ॥ ८४ ॥ तिपक्ष स्तदादीत् पेशल प्रिये! सर्वे विद्यनाथस्तत्कर्थ नावयोः स च ॥ ८५ ॥ ऋते गुरो ऋते राश ऋन इविणतो भुवि । जीवितं तेनायां ऋते शानाहूया नृप ।। ८६ । विनाधीशं रुला लोफा वर्तते न्यायवर्त्मनि । स्तेयकर्मकराः सन्तो न सन्ति मान लोग उस कार्यको सर्वथा छोड ही देते हैं ॥ ८० ॥ नीच पुरुष के साथ पर स्त्री आदिकी कथा करना fan गोष्ठी कही जाती हैं विद्वान लोग ऐसी गोष्ठीका आश्रय नहीं करते ॥ ८१ ॥ कुमित्रकी सङ्गत विषय में एक किं वदन्ती कथा है और बह इस प्रकार है एक हंस अनेक तरङ्गसे शोभायमान मानसरोवर में क्रीडा करता धा एक दिन कोड़ा करते २ उसने अपनी प्यारी हंसिनीसे कहा -- मोतियोंसे शोभायमान प्रिये ! अपना ऐसा भो कोई स्वामी है जिसके साथ अपन मित्रता कर सकें ॥ ८१-८३ ॥ उत्तरमें हंसिनीने कहा- मेरी सुनो समस्त पक्षियों में तुम मान्य और गुणोंके स्थान हो । जलमें तुम रहते और कमलदंड खाते हो तुम्हीं कहो तुमसे बढ़कर राजा कौंन हो सकता है ! ॥ ८४-८५ ॥ उत्तरमें हंसने कहा तुमने कहा सो तो ठीक परन्तु जब संसार में सबका कोई न कोई स्वामी माना जाता है तब हमारा भी कोई स्वामी हो सकता है। संसार में गुरु राजा धन श्री और ज्ञान के बिना मनुष्यों का जोवन विफल है । विना स्वामीके समस्त जन न्याय मार्गपर नहीं चलते। चोरी करनेवाले होजाते एवं धर्मायतनोंमें जाने की लालसा नहीं रखते ॥ ८२ ॥ इस लिये मैं अपने सुखकी आशा

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