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न रम्या नीयता धारिंगशिनः ॥ १२ ॥ मातानुते यदा याति मंजूषा रत्नरंजिता । पाठीनोऽजीगिलत्तूर्ण' वृथाऽसौ निधन गतः ॥ १२३ ।।
तथा मतः परस्त्रीणां संगं कुर्वनिये जहा। एष निधन योति स्वश्रेष्ठीव निश्चितं ॥ १२४ ॥ शुभेत धिनायें व विद्भिः कुलछेटुमिः। कार्य सदानं भर्तस्वादानकोतिमिः ॥१२५॥ विद्युम्माली समाधीशः अस्वा जायावचोजगौ। हे प्रिये ते मरा मूढा योषिताक्या नुगामिनः । १२६ ॥ सामीण तबमाणेति योषाया यद्वितं क्यः । उररीक्रियते सद्भिर्नाहितं विदुषामपि ॥ १२७ ॥ अधिक्षिप्य प्रिया वापय मुमोचेषून कषु पतु सः । वन्यजन्मा जनावैः प्रपोजीविता: १२८ ॥ आशुगाल्या तपोऽम्भोधिर्म में परिवापरः । मुनीशो | उसके भीतरसे सुन पड़ी थो कह सुनाई। राजा सुनकर अवाक रह गया ! और तो उससे कुछ नहीं बना। यही उसने सेवकोंको आज्ञा दी। सुनो भाई ! किसी विद्वान पुरुषका उसपर अधिकार है इसलिये तुम शीघ्र ही समुद्रसे उसे
ले आओ। राजाको आज्ञानुसार भृत्य उसे लेने के लिये गये वे समुद्रके पास पहुंचे ही थे कि एक - विशाल मच्छने उसे लील लिया इस रूपसे विना कारण रुद्र मृत्युका कवल बन गया ॥१३३-१२५॥
इस प्रकार पर स्त्रीके क्रोधसे संवन्ध रखनेवाली कथा सुनाकर विद्याधरीने अपने पति विद्याधरसे
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प्राणनाथ ! जो मूर्ख संसारमें परस्त्रियोंसे संबन्ध रखता है वह रुद्र व्यापारीके समान नियमसे मृत्युका पात्र बनता है। स्वामिन् ! आप बुद्धिमान हो। वंश रूपी आकाशके लिये चन्द्रमा एवं चन्द्रमाके समान निर्मलकोर्सिके धारक हो आप सरीखे मनुष्योंको शुभ अशुभ विचार कर ही कार्य करना चाहिये। किसी कार्यको जल्दी नहीं कर डालना चाहिये ॥ १२६-१२७ ॥ विद्याधरोंके !! स्वामी विद्याधर विद्युन्मालीका होनहार अच्छा न था। हितकारीभी अपनी स्त्रीके वचनोंपर उसने रञ्च मात्रभी ध्यान नहीं दिया उत्तरमें यही कहा
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