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मन्यथा त्वं पतिर्मम ॥ १०६ ॥ यामध्येति समानीतः समध्ये धनी तथा । अत्रांतरे समायातः श्रीपालो द्वारि सद्मनः ॥ ११० ॥ मंजूषायां महार्घायां विशयां रत्नराजिभिः । क्षितो भर्तुर्भिया रुद्रो दत्ता मुद्रायसी ततः ॥ ११९ ॥ जगाईति पुरो भर्तुः सुन्दरी ललितं पवः । स्वामिन्तात्मगृ मृत्य समागत्येनिजः ॥ ११३ ॥ मंजूषा विद्यते राया मार्क कुंकु मारुणा: प्रजा यावते तां यः प्रेषणीयः प्रयस्नतः ॥ ११३ ॥ नीत्वा तां वैगतो भीतः श्रीबगलो भूपतेः पुरः । मुक्होबाचेति तां रम्यां स्फुटार्थी गुणगर्भितां ॥ १.१४ ॥ देव मे सिंह पारसमायाता मनोदिसतो मंजुरा मणिभारेण भूषिता लोचनप्रिया ॥ ११५ ॥ प्राभृती
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| मेरा नाम रुद्र नहीं, चलने लगा ॥ धव्या लगता देखा इसलिये शांत हो स्वामिन्! मेरी बात सुनो।
१०८ - १०२ ॥ रुद्रके इस दुर्व्यवहारसे सुन्दरीने अपनी कीर्तिपर प्रिय वचनोंमें वह इस प्रकार रुद्रसे कहने लगीअपने पति से डरती हू । यदि मुझे उनका डर न होता तो मैं नियमसे तुम्हें पति बना लेती । तथा ऐसा कहकर उसने शीघ्रही रुद्रको अपने घर के भीतर बुला लिया। उसी समय उसका पति श्रीपाल भी महलके दरवाजे पर आगया । महलके भीतर रत्नोंकी जड़ी एक बहु मूख्य संदूक थी । अपने स्वामीके भयसे सुन्दरीने रुद्रको उसके भीतर छिपा दिया और बाहिर से ताला जड़ दिया ॥ १११-११२ ॥ एवं अपने स्वामी के सामने उसने यह शांतिमय वचन कहा
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स्वामिन्! अपने घर राजाके सेवक आये थे । अपने घर में जो केसरके समान रंगकी रत्न जड़ी संदूक है राजा उसे मागता है तुम शोध उसे राजाकी सेवामें भेज दो ॥ ११२-- ११४ ॥ राजाकी आज्ञासे श्रीपाल डर गया वह शीघ्र ही राज सभाकी ओर संदूक लेकर चल दिया एवं राजाके सामने रखकर मनोहर स्पष्ट और गंभीर बचनोंमें उसने इस प्रकार कहा
स्वामिन् । मणियों से शोभायमान लोचनोंको प्यारो और अभीष्ट यह संदूक में सिंहलद्वीपसे
अपत्र पप