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निजं धाम तथेति प्रतिपद्य सः । नोत्था काकःप्रियं मूढो मानसे त्वरया गतः ||१६|| मध्यरात स्थितो लूकः सर्व पश्यति पापभाक् । हिंसा निद्राकुला जातास्तदेवान्यकथाऽभवत् ॥ ६७ ॥ इन्सराजाभिधत्तस्मिन्मार्गे याति धनुर्धरः । रराट दक्षिणे लूकोऽक्षिपाणं तदा स्व तं ॥ ६८ ॥ तेनेषु पश्यता पूर्ण मलूकेन पलायितं । तदा तद्वाणघातेन हंसः पञ्चमाप सः ॥ ६६ ॥ कुमित्र ेण सतं मैत्रीधनं धान्यं चतुष्पदं । उर्जा मानं मद्रं प्रेम जीवितं नाशयत्यपि ॥ १०० ॥ अतो नाथ ! न कर्तव्या मित्रस्य च संगतिः । यतो नश्यति सन्तॄणां मतिर्विद्या व कौशल ं ॥ १०१ ॥ निशां भूतिरी मरवा खगपत्नी कथां जग । परस्त्रीकोधसंभूतां मनोनिर्देशं नृणां ॥ १०२ ॥ शृणु माथ महादेशे गांधारे नामकः । व्यवहारी विद्यते दानी परन्तु विषयी महान् ॥ १०३ ॥ तल वास्ते धनी श्रं ष्ठी श्रीपालाख्यो
स्वामिन्! मेरा घर मानस सरोवर है वहां में मृणाल दण्ड खाया करता हूं ॥६५–६६॥ उल्लूने कहा भाई ! तुम्हारा घर मानस सरोवर कैसा है हमें भी दिखा दीजिये भोला हंस उसको बातों में आगया और उसे मानस सरोवर पर ले आया ॥ ६६ ॥ ॥ रात्रि के घोर भी अन्धकारमें उल्लूको तो सब दीखता ही है। जिस समय सारे हंस तो सो रहे थे और उल्लू जग रहा था उस समय यह घटना उपस्थित होगई
जहांपर हंस रहते थे उसो मार्ग से एक हंसराज नामका धनुर्धारी मनुष्य निकला। धनुर्धारी मनुष्यकी ठीक दाईं ओर उल्लू बैठा था। धनुर्धारीको देखते ही वह चिल्लाने लगा । धनुर्धारीने अपना अपशकुन समझ उसपर बाण छोड़ दिया दुष्ट उल्लू भाग गया। बाणके घाव से हंस विचारा मर गया इस लिये यह निश्चित है दुष्ट मित्रके साथ की गई मित्रता धन धान्य, पशु आदि, लज्जा मान गौरव प्रेम और जीव सबकी नाशक होती है ॥ ६७-१०२ ॥ हे स्वामिन्! बुद्धिमान मनुष्य को कभी भी कुमित्रकी संगति नहीं करनी चाहिये क्योंकि बुद्धि विद्या और कुशलता सभी कुमित्र संगति से नष्ट हो जाते हैं ॥ १०३ ॥ उस समय अधिक रात्रि जानकर विद्याधर विद्युन्माली
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