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मुनीशितुः । मष्टोत्तरशतध्यामगुणपर्वसमन्वितां ॥ १४ ॥ मगिमाला समाधाय मेकनामावधि गले । मेस्वग्निश्चलत्वेन ममाल स्वर्गभूखगेः॥१४१॥ उग्रसेनो महीनाथो बन्दितु त सनारितः। इक्ष्वाक्वन्ययसंभूतः पहलवायपुराधिपः ॥ १४ ॥ चन्दित्वा सादर अस्त्वा धर्म मेरुमुखोद्गत । पप्रच्छेति नराधीशो ध्यानप्रत्युहकारणं ॥ १४२ ।। मो स्वामिन् ! किमनेनामा ते घर विद्यते पुरा । देवेनाथ कथं वयो बहि त्वं शानसागर ! ॥१४४ ॥ मेरुस्त प्राह राजानं या स्वं साधुभक्तिभाक । , मधैव धातकोद्वोपे वर्षमैरावताभिध : १४५ ॥ किष्किंधाख्यं पुर' तब विद्यते नागरेनेरैः। राजमानं नपस्तव शूरः सिंहरथोऽभवत् ।। चारों ओर बैठ गये॥ १३६-१४० ॥ मुनिराज मेरुके अचलपनेपर ध्यान देकर ध्यानकी सिद्धिकी | कारण एकसौ आठ मनकोंकी माला तयार को एवं समस्त देव और विद्याधरों के सामने मेरुके
समान अपनेमें निचलता पार करने को अभिलाषाले इन्द्रने उसे अपने गलेमें पहन लिया--- व इक्ष्वाकु कुलमें उत्पन्न पल्लव पुरका स्वामो एक उग्रसेन नामका राजा था । मुनिराज मेरुको
केवल ज्ञानी सुनकर वह उनकी वंदनाके लिये आया। मुनिराजके मुबसे धर्मोपदेश सुना एवं यह उपसर्ग कैसे उपस्थित हुआ यह जाननेको इस प्रकार उसने इच्छा प्रगट की ॥१४१-१४४॥
प्रभो ! आप ज्ञानके समुद्र हैं कृपाकर कहिये विद्याधर विद्युन्माली के साथ आपका पूर्वभवमें कैसे वैर बंधा! और देवने इसे कैसे बांधा ! उत्तरमें मुनिराज मेरुने कहा-- भाई तुम ध्यानपूर्वक सुनी,
मैं कहता हूंहा धातुको खंड द्वोपके ऐरावत क्षेत्रमें एक किष्किंधापुर नामका नगर है जो कि नगर निवासो लोगोंसे सदा शोभायमान रहता है। किष्किंधापुरका स्वामी राजा सिंहस्थ था जो कि शुर वीर - या। किष्किंधापुरमें हो उस समय एक माधनामका सेठ रहता था जो कि विपुल धनका स्वामी | था। सेठ माधवके सात पुत्र थे जो कि अत्यंत रूपवान और विद्वान थे। किसी समय वर्षा कालमें भाग्यके उदयसे सेठ माधवकोभरा खजाना हाथ लग गया। रात्रिके समय उसने अपने पुत्रों के साथ
Kharkar Tatarkarsmarwari
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