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योगतो धीरो न चचालाद्रिसारथान ॥ १२६ ॥ तदा विद्याधरो दुष्टी विद्या सस्मार धारिणी । बट्रिशशावपत्रां स तिमिन्नायां । क्रुधान्वितः ॥ १३०॥ उाद्य खेवरोमे योगींद्र खांगणे बजत्। त्रासयन् दुर्घचोभिश्व कम्पयन विद्यया शः ॥ १३१॥ तदा वयं देवस्य ज्योतिश्चक्रस्थितस्य च चकम्प विष्टरं भानां चमत्कारककर परं ॥ १३२॥ तृतीयावगमान्मत्वा विश्न मेहमहामुनेः । तूर्ण' वैदूर्यनामासौ खड्गं नीत्या समागमत् ॥१३३॥ गर्जत धनपद्धोरं वदन्त दुस्सहं यवः । खङ्गपाणिं तमालोक्य वियच्चारी मिया मुनि
जो पुरुष स्त्रियोंके कहने में चलते है वे मूढ़ कहलाते हैं मैं तुम्हारी वात कभी भी नहीं मान सकता। अपने स्वामीके ऐसे बचन सुन फिर भी विद्याधरीने कहा--स्वामिन ! जो पुरुष विद्वान हैं - उन्हें यदि हितकारी स्त्रियोंका भी वचन हो तो उसे स्वीकार करलेना चाहिये और यदि अहित. कारी विद्वानोंका भी वचन हो तो उसे कभी भी स्वीकार नहीं करना चाहिये । मेरा यदि वचन युक्त हो तो आपको उसे स्वीकार करने में कुछ भी आपत्ति न करनी चाहिये ॥ १२८–१२६ ॥ विद्याधर विद्यन्मालीने अपनी स्त्रीके वचनोंका रंचमात्र भी आदर न किया । शीघ्रही उसने चारों दिशाओंमें बाण छोड दिये जिससे उनके भयङ्कर शब्दोंसे वहुतसे बनके जीव त्रस्त होगये। यद्यपि विद्याधर
विद्युन्माली लडी बद्ध बाण छोडता रहा और उनका भयङ्कर शब्द होता रहा परन्तु तपके समुद्र नमुनिराज मेरु, मेरुपर्वतके समान निश्चल बने रहे। पर्वतके समान कठिनता धारण कर अपने योगसे | | कुछ भी चल विचल नहीं हुए ॥ १३०-१३१ ॥ जव विद्याधरकी कुछ भी तीन पांच न चली तो उसने धारिणी नामको वियाका स्मरण किया जो कि बत्तीस मुख और बत्तीस भुजाओंस युक्त थी दुष्ट विद्याधर विद्युन्मोलीने उस धारिणी क्यिाके बलसे मुनिराज मेरुको उठा लिया एवं अनेक दुर्वचन कहकर उन्हें त्रास देता हुआ और अपनी विद्यासे कंपित करता हुआ आकाशमार्गसे ले चलने लगा। उसी समय वैड य नामक ज्योतिषी देवका आसन कंपायमान हुआ जो कि समस्त
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