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। विहत्य विषयान् बहन् । समाप शिवसंभूतं शर्म मेणाधिपः ॥ १७॥ सम्मेदभूधराम्यणेऽस्ति पुर' पनकम्वल । इम्यी यशोधरस्तन यशस्विन्यस्य मामिनी ।। १८० ॥ सर्वदष्टैकदा नीसा भूतारण्ये यशस्विनी। संस्कारार्थ च तदा जने मंदरांगानिलाच्छुभा ॥१८१॥ असुबत्ती तहा दृष्ट्वा लोका विभ्युमैन तरे। इति प्रेतयुत' भीकृत् पराशु किमु सांप्रत' ।। १८२ ।। भोत्याकुलान्तराल्लोक्य कम्यादाः कोटिशोऽभवन् । मादुस्तद्वयतस्तोमन्वस्मदर तके १८३॥ मनिप्रभावतो देवी बनस्य समचोकरत् । शाललयमथोवाचोषसीत्य ध्यक्षमेव सा॥२८॥ धन्योऽयं मन्दरो मान घिर्ष' यातं यदाश्रयात् । श्रत्वा समं स्त्रिया श्रेष्ठो प्रवधाज तन्तिके ॥१८५ || मन्दकोड पिमहाकर्म छित्त्वा ध्यानेन फेवल । समुत्पाद्य ययौ धीरो मरुत्पूज्यः शिव शिवः ॥ १८६ ॥ उग्रसेनमुनिस्तीन तपस्तप्त्या चिर बहु ।
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वे भयसे कंपायमान हो गये एवं वे सबके सब भयभीत हो मुनिराज मन्दरके चरणों के पास चले
गये। मुनिराजके प्रभावसे बनदेवीने तीन प्राकारोंका कोट रच दिया एवं प्रातःकाल सबोंको लक्ष्यजकर उसने यह कहा
मुनिराज मंदरके लिये धन्यवाद है। इन्हींके आश्रयसे सेठानी यशस्विनोका विष दूर हुआ है। ज्यों ही सेठ यशोधर और सेठानी यशस्विनीने यह बात सुनी उन्हें संसारसे वैराग्य होगया एक मुनिराज मंदरके समीपमें ही वे संयमसे दीनित हो गये ॥ १७७-१८५ ॥ मुनिराज मन्दरने भी महा ध्यानके बलसे घातिया कर्मोका नाशकर केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया एवं देव पूज्य वे मुनिराज मोक्षके स्वामी बन गये ॥१८॥ महोदय मुनिराज उग्रसेनने भी धोर तप तपा एवं आयुके अंतमें मरकर वे सर्वार्थ सिद्धि विमानमें अहमिंद्र होगये ॥ १८७॥ विद्याधर विद्युन्मालीने भी शक्तिके अनुसार तप किया एवं आयुके अन्तमें मरकर वे पांचवें स्वर्गमें देव होगये । ललित उनका नाम हुआ और अनेक देवांगना उनकी सेवा करने लगी ॥१८॥ ग्रन्थकार तपकी महिमा वर्णन करते हुए कहते हैं कि
पिपाया।