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मामा
वळपाव
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| स समेत्योवाच स नृप ! ॥ १६४ ॥ तदाई त समाहृय भद्र पापपरं पुरात् । निष्कासयां चकाराशु दत्त्वा दंडं च दुस्सह ॥ १६५ ॥ लाजतोऽसौ धने गत्वा लय मुनिसन्निधौ । भाइदे कोत्रभावन मृत्वायं खेचरोऽजनि ॥ १६६ ॥ पुरा दण्डोत्यौरेण प्रत्यूहोऽनेन में
कृतः । अतो न कत व्यं न चिम्मानवाधिप! ॥ १७॥ आदित्याभभने यो में मोचितो धरणात्वगः । विघन्ट्रो महाविद्या PAधर्माचारपरांमुखः ॥ १६८ ॥ खेचरायु तरपयामधास्ते श्रीपुर' पुर। भामाभूरिविलासेश्व श्रीगन्धर्वपुरोपमं ॥ १६६ ॥ पाति तत्प
तमं भूपो भूपालाख्योऽरिभौतिदः । तस्यैव भामिनो भाति ललांगो फामलोचना ॥ १७० ॥ तयोर्जश सुता नाम्नो रुवंक्षी कामकुन्दला । शोभायमान और जघनके भारसे मंद मन्द गमन करने वाली थी। विद्याधर विद्युदंष्ट्र जो कि महा विष्शका स्वामी था ! धर्माचरणोंसे सर्वथा विमुख था और आदित्याभके भवमें जिसे मैंने
धरणेंद्रसे बचाया था कन्या बक्षीपर मोहित हो गया और उसके पिता राजा भूपालसे उसने हट 1) पूर्वक मांगा परन्तु भूपालने उसे प्रदान नहीं की। भूपालका यह घमण्ड देख राजा विद्याष्ट्रने 12 उसके साथ संग्राम ठान दिया। दुर्भाग्यवश संग्राममें विद्युद्ष्ट्रको हार खानः पड़ी। अपनी
हारसे विद्यु दंष्ट्र लजित होगया। राज्य छोड़ तपसी वन मिथ्यातप करने लगा। आयुके अन्तमें FUN मरा एवं ज्योतिलोकमै तुम जाकर ज्योतिषी देव हुये हो तुम्हारे ऊपर जो मैंने उपकार किया !
था उसके बदले प्रत्युपकार करनेके लिये तुमने इस उपसर्गकी शांति की है । इस प्रकार
पूर्वभवका संवन्ध सुन राजा उग्रसेन और विद्याधर विद्युन्मालीको संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य IR हो गया एवं नमस्कार पूर्वक मुनिराज मेरुसे ही उन्होंने दिगम्बरी दीक्षा धारण करलो। ज्योभतिषी देवने भी चित्तमें प्रसन्न हो मुनिराज मेरुकी स्तुतिकी एवं उन्हें नमस्कार कर अपने स्थानपर
चला गया। ठीक है सज्जन लोग किये उपकारको भूलते नहीं ॥ १६६--१७६ ॥ पुन्नाग वृक्षको कितना भी पेरा जाय वह विकृत नहीं होता तथा रसीला ईखका बृक्ष अत्यन्त पिडित होनेपर भी
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