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चिच्छना
बहुप्रदः तत्परनी सुन्दरी नास्ता इति किं चामरप्रिया ॥ १०४ ॥ नामैकदा हृष्ट्वा तां चकोर शः । निर्तवस्तनभारण मंधरां विलोम ॥ १०५ ॥ प्रत्यहं तद्गृह याति केन सवां । विलोकितु महामोहमूर्च्छितः पापपण्डितः ॥ १०६ ॥ "एकदा तो हटात्कृत्वा समालिंग्य जगाविति । भो श्यामे मद्रचः सार प्रमाणीकुरु सादरं ॥ १०७ ॥ चाई निर्धाटितो दुष्टो जजल्ल दुःखदं वचः । पश्याई ते करिष्यामि वहनर्थपरंपरां ॥ १०८ ॥ धृष्टं भत्वा तदा साइ शृणु त्वं मद्वचः प्रयो!। विभेमि मत्प्रियान्नून की स्त्रीने परस्त्रीके क्रोध से क्या फल प्राप्त होता है यह कथा कहनी प्रारम्भ कर दी जो कि मनुष्योंके चित्तको वैराग्य उत्पन्न करने वाली थी । वह कथा इस प्रकार है
गान्धार नामके महा देशमें एक रुद्र नामका व्यापारी रहता था जो कि दानी तो था परन्तु महा विषय था। उसी देशमें एक श्रीपाल नामका भी सेठ रहता था उसकी खीका नाम सुन्दरी था जो कि ऐसी जान पड़ती थी कि यह कामदेवकी स्त्री रति है या कोई देवांगना है ॥१०३-१०५॥ एक दिन व्यापारी रुद्रने चकोर नयनी एवं नितम्ब और स्तनक भारसे मन्द २ चलनेवाली सेठानी सुन्दरीको देख लिया । पापी वह मोहसे मूर्छित हो विकल होगया एवं किसी न किसी बहानेसे प्रति दिन उसको देखने के लिये उसके घर जाने लगा ॥ १०६ -- १०७ ॥ उसने बहुत चाहा कि सुन्दरी सीधे साधे मेरे काबू आजाय परन्तु वह न फसी इसलिये एक दिन रुद्रने उसे जबरन पकड़कर आलिङ्गन कर लिया एवं इस प्रकार अनुनय विनयके वचन कहने लगा
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सुन्दरी ! मेरी बात सुन और उसे स्वीकार करले । में तेरा बड़ा कृतज्ञ हूंगा । सुन्दरी बुद्धिमती थी उसने एक भी बात रुद्रकी न सुनी एवं पकड़कर जबरन घरसे निकाल दिया । रुद्र तो दुष्ट था ही । सुन्दरीके द्वारा अपना यह घोर अपमान देख उसे बड़ा रोष आया। सैकड़ों गाली की कीं एवं यह कह कर कि अच्छा तुझे देख लूंगा यदि तेरे सैकड़ों अनर्थ न कर डालू तो
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पकाएपAYAYAYAN
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