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रयता
दीप्ति सवयः॥४७॥ त्वमेव कथया वात् शृणोमि जिनदत्तक! तदोवाय निजं भायं मृणु त्वं मुनिपावन ! ॥४७॥ वाराणस्यां नपो नाम्ना जितशत्रु र्जितारिकः । तयो धनदसाख्यस्तस्य भामा धनापणा ।। ४४२॥ राजदचा निजां वृत्ति भुनक्त्येव सुखं तयोः धनमित्रधनेन्दूद्वौ पुत्रौ स्तोऽपि जड़ो खितौ ॥ ४७३ ॥ कियत्काले मृतस्तातस्तदा वृत्ति नपोऽगृहीत् । अन्यवैद्याय तां वृत्ति ददौ शास्त्रविदे मुदा ।। ४७४ ॥ तदा तो भ्रातरी चपायां च गत्वा चिकित्सितं । पठित्वा शिवभूतेश्च पाये समागमोत्सुकौ ॥४७॥ आगच्छतोतदारण्ये व्याघ्रमेतौ विलोचनं घिलोक्य धनमित्राख्यःप्रोचाचेति लघु प्रति ॥ ४७६ ॥ भेषज्ञैरंध्रव्याघ्न मो करोमि निर्मलदृशं । निषिद्धोऽपि कमिष्ठेन भैषज कृतवास्तदा ॥ ४७७॥ गतपीडेन व्याघ्रय भक्षिती धनमित्रवाक । कृतम्ना नेष जानति ा पA किसी समय वनारसमें एक जितशत्रु नामका राजा था जो कि वैरियोंको जीतनेवाला था, उसका राजवैद्य धनदत्त था और उसकी स्त्री धनदत्ता थी। राज्यकी ओरसे जो उसे वृत्ति मिलती थी उससे बह सानंद भोग भोगता था। राजवैद्य धनदत्तके धनमित्र आर धनचंद्र नामके दो पुत्र थे,
दोनों ही महामुर्ख थे और मस्त पड़े रहते थे। ४६६–४७३ ॥ कुछ कालके बाद वैद्य धनदत्तका IN अंतकाल हो गया। पुत्रोंको मुर्ख जान राजाने उनकी वृत्ति छीन ली एवं बैद्य शास्त्रके जानकार
किसी अन्य वैद्यको दे दी। आजीविकाके छूट जानेसे दोनों भाइयोंको बड़ा दुःख हुआ।वे दोनों घरसे निकल दिये। चंपापुरीमें जाकर शिवभूति नामक प्रसिद्ध वैद्यके पास वैद्यशास्त्रका अभ्यास किया। वे पूर्ण विद्वान हो गये तब उन्होंने अपने घर आनेका विचार कर लिया। वहांसे चलकर वे एक जङ्गलसे होकर आ रहे थे कि मार्गमें उन्हें अधा बाघ दीख पड़ा । दयालु धनमित्रने उसे 21 दुःखी जान अपने छोटे भाई धनचन्द्रसे कहा भाई । यह अंधा बाघ बड़ा दुःख पाता है अपनीला दवासे मैं इसे सूझता बना दूं ऐसी इच्छा है। छोटे भाई धनचंद्रने मना की तो भी धनमित्रने नहीं माना और उसे अपनी औषधसे सूझता कर दिया । ४७४–४७७ ॥ जब वाघ सूझता हो गया । तो उस कृतघ्नी दुष्ट बाघने अपने उपकारी धनदत्तको खा डाला, ठीक ही है जो मनुष्य कृतघ्नी होते हैं उनके हजारों उपकार किये जाय तो भी वे उपकारोंको नहीं मानते-अपकार ही करते हैं।
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