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स्तोक सुप्राभ्यो दस्त मेदसमं भवेत् । न्यग्रोधतत्वीजं हि विस्तारं कुरुते लघु ॥ ४१ ॥ सुपात्र' प्राप्य वेगेन इसी यास्तत्र सांगती वर्जिनाभ्यपदः प्रायः सुतेजाः स्वपदाधितः ॥ ४२ ॥ एवं बेशर्मनाशः स्यात् यथा कासीननाशतः । कौतस्कुतं सदा तचाप्यतो दानं न वार्यते ॥ ४३ ॥ दयाहेतोः वर्जितविषां सुपार्श्व प्राप्य भावेन विशेषात्सन्तेरपि ॥ ४४ ॥ समो लक्षतभो रस्या दत्तः पात्राय निश्चितं । व्यापोहति पर पाप भोगभूशं ददात्यले ॥ ४५ ॥ नोत्या हारं समैइन्ये पदे श्री जिननायकः । गीर्वाणावलिसंसेव्य इव मेरूरकम्पधीः ॥ ४६ ॥ सामायिक समादाय संयमं शुद्धचेतसा । वर्षतयं चकारो
प्रदातव्यमं गिनां
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दुन्दुभिका बजना रत्नोंका पड़ना सुगंधित पवनका वहना सुगंधित जलका बरसना और पुष्पका वरसना ये पांच प्रकारके आर्य हुये ॥ ३६ ॥ पात्रदानके विषयमें ग्रभ्यकार अपनी सम्मति देते हैं कि --- पात्रदानसे बढ़कर पुण्यका कार्य संसारमें न तो है और न होगा क्योंकि पात्रदानकी कृपासे देव सरीखे भी खिचे चले आते हैं फिर तीनों लोकमें दुर्लभ चीज रह ही क्या जाती है ? ॥ ४० ॥ जिसप्रकार वटवृत्तके बहुत छोटे भी बीजसे विशाल वृक्ष उत्पन्न हो जाता है। उसीप्रकार सुपात्र केलिये सरसोंके बराबर थोड़ा दिया हुआ भी दान मेरुके समान फलता है ॥ ४१ ॥ उत्तम पात्र के मिलने पर जो उसे भक्तिपूर्वक आहार दिया जाता है वह सफल होता है तथा दान देनेवाला अन्य मामूली स्थानोंको न प्राप्त होकर मोक्षपदको प्राप्त करता है और परमतेजस्वी माना जाता है || ४२ ॥ यदि दान देना ही बन्द कर दिया जाय तो गृहस्थ वा मुनि धर्मका ही नाश हो जाय तथा धर्मके नष्ट हो जाने पर मोक्षपद भी नहीं प्राप्त हो सकता क्योंकि मोक्षपदकी प्राप्ति धर्म ही कारण है इसलिये दानका कभी भी निषेध नहीं किया जासकता ॥ ४३ ॥ जो पान लूले लंगड़े अपाज हैं कांति रहित हैं उन्हें करुणा बुद्धिसे दान देना चाहिये और उत्तम आदि पत्र मिल जाय तो उन्हें उत्तम बुद्धिसे भाव पूर्वक विशिष्ट दान देना चाहिये ॥ ४४ ॥ यह सर्वथा सुनिश्चित बात है कि पात्र केलिये भक्तिपूर्वक दिया हुआ एक रोटीका टुकड़ा भी लाख टुकड़ारूप फलता है तथा वह दिया हुआ टुकड़ा बलवान भी पापको नष्ट करता है और अनेक प्रकार के उत्त
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