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बमल
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पापोऽयं प्राक्तजन्मचतुथ्ये। महावैगनुबंधेन लोकांवरमजीगमत् ।। अस्मिन्भये शुभ मन्य विद्युबा यतः। सुपोहतकतं विश्न मुक्ति यातो महामनिः॥५०॥ केनचित्साहसापायोऽकारि तेन गुणोऽजनि । गुणं धीधनाः सन्तो मन्यते नापकारकं ।११। परि
भूतिमितो धोमान् विकृति नैव गच्छति । परदनो वा भिदां प्राप्तश्वंदते पुरतः स्थितान् । १२ खलो विव्याध यं साधु जिह्मोभवति | सोऽपि न । दह्यमानोऽ गुरुः साधु प्रकाशति सद्गुण ।। १३ ॥ कोविदानां मतिर्जातु प्राणांते विचार न । इनिष्पीऽयमानोऽपि महा वैरके सम्बन्धसे इसने तुम्हारे भाईको मारा है ॥ ६ ॥ मैं तो इस भवमें विद्याधर विद्युद्दष्ट्रको मुनिराज सञ्जयन्तका परममित्र मानता हूं क्योंकि इसके द्वारा किये गये उपसर्गको सहकर मु. निराज सञ्जयन्तने मोक्ष स्थान प्राप्त कर लिया ॥ १०॥ जिस किसी भी पापीने किसीको कष्ट पचाया है वह कष्ट उसके लिये गुणस्वरूप ही हुआ है इसलिये विद्वान लोग उस कष्टको गुण हो । मानते हैं दुःख नहीं मानते ॥ ११ !! जो पुरुष विदान हैं संसारको वास्तविक स्थितिके जानकार हैं क उन्हें कितना भी कष्ट क्यों न पहुँचाया जाय वे उस कप्टसे कष्टायमान नहीं होते-विकृत न हो2) कर उनका स्वभाव ज्योंका त्यों बना रहता है। जिस तरह कि चंदनको कितना भी काटा छेदा है
जाय तब भी वह अपना सुगन्धित स्वभाव नहीं छोड़ता-जैसा उसे छेदा जाता है वैसा ही वह पासमें खड़े रहनेवालोंके लिये महकता चला जाता है। सज्जनोंका स्वभावभी चन्दन सरीखा होता है ॥ १२ ॥ जिस प्रकार अगरको कितना भी जलाया जाय वह सुगन्धि ही छोड़ता जाता है उसी प्रकार दुष्ट पुरुष मुनियोंको भले ही मार डाले तथापि वे मारनेवाले पर क्रोध नहीं करते वे अपने परिणामोंमें समता भाव ही रखते हैं ॥ १३॥ जिस प्रकार ईखके पेडको जितनार पेरा जाता है वह मिठास ही छोड़ता चला जाता है उसमें कोई विकार नही उत्पन्न होता उसी प्रकार जो पुरुष विद्वान हैं दुष्टोंसे दुःखित होनेपर भी उनकी बुद्धिमें किसी प्रकारका विकार नहीं होता वे,