________________
रुपन
सप्तपः ख्यातं पविघ्ने शक्तिमनुभवेत् ॥ २२०॥ अनित्यं दृश्यते सर्व धनधान्यादिकं भनेँ । पितृपुत्रकुटुम्पानां नित्यत्वं नैव दृश्यते ॥ २२११ चक्रवर्त्यादयो भूपाः पट् खण्डधराधिनः । मृतास्ते कालसर्पेण दष्टा देवनमस्कृताः ||२२२|| देवार्थखण्डभूभूषा दृश्यार्थी पन्नगेशिनः । भूधरा भूरुहस्तारा महादैत्याः सुराधिपाः । इष्टानिष्टानि वस्तूनि पुद्गलाः पापकारिणः । सर्वे फालेन नश्यति नास्ति कालप्रतिकि या || २२४ ॥ संसारकनिने ओववृत कालपीलुभित् । अस्येष कोपतः श्वेतः कस्तं शक्रोति रक्षितुं ॥ २२५ ॥ पिता पुत्र सविती च पुनश्च पितरावपि । अन्त रक्षितु काल गृह्यमाणमये मनः ॥ २२६ ॥ असारेऽत्र भवे श्वेतः ! कः कस्यापि न विद्यते । स्वार्थ भूतं कुटुम्ब आदि पदार्थोंमें भी कोई अविनाशी नहीं दीख पड़ता ॥ २२० ॥ छह खडके स्वामी अनेक देवोंसे सेवित चक्रवर्ती आदि राजा भी कालरूपी सर्पके द्वारा इसे जानेके कारण मृत्युके मुखमें प्रविष्ट होगये हैं ||२२१॥ देव, आर्यखण्डकी पृथ्वीके स्वामी, दृष्टि गोचर उत्तमोत्तम पदार्थ, धरणेंद्र पर्वत, वृक्ष तारा ग्रह दैत्य देवेंन्द्र इष्ट और अनिष्ट रूप चीजें और पापके कारण पुदगल सभी कालके द्वारा नष्ट हो जाते हैं | कालका प्रतीकार किसीके पास नहीं - उसे कोई वश नहीं कर सकता ॥ २२२–२२३ ॥ इस प्रकार संसार में समस्त पदार्थ अनित्य हैं इस संसार रूपी वनमें जीव रूपी arat कालरूपी सिंह नियमसे खाता ही है । जिस समय इस जीव पर कालरूपी सिंह कुपित हो जाता है उस समय इसकी कोई भी उससे रक्षा नहीं कर सकता ॥ २२३ ॥ विशेष क्या ! रे मन ! इस संसार में जिस समय इस जीवको कालरूपी सिंह जिकड़कर पकड़ लेता है उस समय पिता और माता, पुत्र की रक्षा नहीं कर सकते एवं पुत्र, पिता माताको नही बचा सकता ॥ २२४-२२५ ॥ इस प्रकार इस जीवका संसार में कोई अपना नहीं है। इस संसारमें कोई किसीका नहीं है समस्त जगत मतलबी है स्वार्थ रहने पर एक दूसरेको चाहता है ॥ २२६ ॥ इस प्रकार संसार बड़ा ही स्वार्थी है। निश्चय नयसे यह जीव नित्य है । सिद्ध बुद्ध और निरंजन है। किसीके द्वारा वेदा
DERERAK